गांधी ने कहा है कि यदि अहिंसा से प्रेम हमारा आजीवन-धर्म नहीं होता तो इस मर्त्यलोक में हमारा जीवन कठिन हो जाता। अहिंसा की अग्नि परीक्षा तो तब...
गांधी ने कहा है कि यदि अहिंसा से प्रेम हमारा आजीवन-धर्म नहीं होता तो इस मर्त्यलोक में हमारा जीवन कठिन हो जाता। अहिंसा की अग्नि परीक्षा तो तब होती है जब हिंसा के लिए भयंकर से भयंकर उत्तेजना होते हुए भी मनुष्य मन, वाणी और कर्म से अहिंसक बना रहे। अहिंसा से मनुष्य और पशु का भेद स्पष्ट हो जाता है। ज़ाहिर है कि बापू के लिए अहिंसा स्वयं जीवन है, वह मनुष्य का स्वभाव है। उसमें मानवता का भविष्य है।
प्रतिष्ठित अधिवक्ता और गांधीवादी चिंतक कनक तिवारी के विचार मननीय हैं। वे सचेत करते हैं कि एक तरफ तो जबान महात्मा गांधी और अहिंसा की आरती उतारे और दूसरी तरफ बन्दूकें और तलवारें खुद अपनी जनता के ऊपर चलती रहें। नये हिन्दुस्तान की बुनियाद में निर्बल की नहीं बलवान की अहिंसा की जरूरत की वकालत गांधी ने की। महानता एक तरह से किसी व्यक्तित्व का चरमोत्कर्ष तो है परंतु वह हीनतर व्यक्तित्वों का मनोवैज्ञानिक शोषण भी है. महानता में एक तरह का सात्विक अहंकार और नैतिक अहम्मन्यता का पुट अपने आप गुंथ जाता है. एकांगी महान व्यक्ति किसी क्षेत्र में इतना ऊँचा हो जाता है कि बाकी लोग बौनों की तरह उसकी ओर टकटकी लगाए रहते हैं.
गांधी अलग तरह के महान व्यक्ति थे. उन्होंने सदैव व्यापारिक कुशलता बरती कि उनमें कहीं देवत्व, पांडित्य या आसमानी अंश नहीं उग आएँ. यह कहना मुश्किल है कि अपनी किसी तरह की महानता का बोध उन्हें नहीं रहा होगा क्योंकि उन्होंने सतर्क रहकर बार-बार इस बात के विपरीत उल्लेख किये हैं.
गांधी असल में महान बनने के बदले भारत के हर खेत में इंसानियत की फसल उगाने के फेर में थे. उन्होंने अपने चरणों का उपयोग दूसरों के सिर पर रखने के बदले सड़कें और पगडंडियाँ नापने में किया. यह पहली बार हुआ जब आराध्य अपने भक्तों के मुकाबले दिखाऊ नहीं बना.
गांधीजी प्रखर, प्रभावशाली या निर्णायक दिखने तक से परहेज करते थे. उनके लेखे विनम्रता सायास हथियार भी नहीं थी. वह उनका नैसर्गिक गुण थी. नैसर्गिक जन्मजात के अर्थ में नहीं, उनकी व्यापक रणनीति की केन्द्रीय संवेदना के अर्थ में. उन्हें भीरुता, कायरता तथा हीन आत्मसमर्पण से बेसाख्ता नफरत थी. यह कहना सरल नहीं है कि वे इसी नस्ल और क्रम के औरों की तरह अहिंसा के प्रवर्तक पुरोहित थे. गांधीजी ने वस्तुत: अहिंसा को महसूस करने वाले तत्व के बदले लोक हथियार के रूप में तब्दील किया था. अन्य महापुरुषों की शिक्षाओं से आगे बढ़कर उन्होंने व्यक्तिगत अहिंसा के साथ-साथ समूहगत अहिंसा के कायिक प्रदर्शन का पुख्ता उदाहरण भी पेश किया है. यही वह बीजगणित है जो गांधीजी को आज तक हमारे सामाजिक व्यवहार का ओसजन बनाये हुए है.
इस सन्दर्भ में शेषनारायण सिंह बताते हैं कि महात्मा गांधी के पूरेे दर्शन में दो बातें महत्वपूर्ण हैं। सत्य के प्रति आग्रह और अहिंसा में पूर्ण विश्वास। सत्य और अहिंसा के साथ-साथ निर्भयता को वह बहुत ही आवश्यक मानते थे। गोरखपुर जिले की चौरी चौरा की हिंसक घटनाओं के बाद गांधी ने असहयोग आंदोलन को समाप्त कर दिया था। इस फैसले का विरोध हर स्तर पर हुआ लेकिन गांधी जी किसी भी कीमत पर अपने आंदोलन को हिंसक नहीं होने देना चाहते थे। उनका कहना था कि अनुचित साधन का इस्तेमाल करके जो कुछ भी हासिल होगा, वह सही नहीं है।
महात्मा गांधी के दर्शन में साधन की पवित्रता को बहुत महत्व दिया गया है और यह हिंद स्वराज का प्रमुख भाव है। लिखते हैं कि अगर कोई यह कहता है कि साध्य और साधन के बीच में कोई संबंध नहीं है तो यह बहुत बड़ी भूल है। यह तो धतूरे का पौधा लगाकर मोगरे के फूल की इच्छा करने जैसा हुआ। हिंद स्वराज में लिखा है कि साधन बीज है और साध्य पेड़ है इसलिए जितना संबंध बीज और पेड़ के बीच में है, उतना ही साधन और साध्य के बीच में है। हिंद स्वराज में गांधी जी ने साधन की पवित्रता को बहुत ही विस्तार से समझाया है। उनका हर काम जीवन भर इसी बुनियादी सोच पर चलता रहा है और बिना खड्ग, बिना ढाल भारत की आजादी को सुनिश्चित करने में सफल रहे।
हिंद स्वराज में महात्मा गांधी ने भारत की भावी राजनीति की बुनियाद के रूप में हिंदू और मुसलमान की एकता को स्थापित कर दिया था। उन्होंने साफ कह दिया कि, 'अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें तो उसे भी सपना ही समझिए। मुझे झगड़ा न करना हो, तो मुसलमान क्या करेगा? और मुसलमान को झगड़ा न करना हो, तो मैं क्या कर सकता हूं? हवा में हाथ उठाने वाले का हाथ उखड़ जाता है। सब अपने धर्म का स्वरूप समझकर उससे चिपके रहें और शास्त्रियों व मुल्लाओं को बीच में न आने दें, तो झगड़े का मुंह हमेशा के लिए काला रहेगा।' (हिंद स्वराज, पृष्ठ 31 और 35) यानी अगर स्वार्थी तत्वों की बात न मानकर इस देश के हिंदू-मुसलमान अपने धर्म की मूल भावनाओं को समझें और पालन करें तो आज भी देश में अमन चैन कायम रह सकता है और प्रगति का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।
इस तरह हम देखते हैं कि आज से सौ वर्ष से भी अधिक पहले राजनीतिक और सामाजिक आचरण का जो बीजक महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज के रूप में लिखा था, वह आने वाली सभ्यताओं को अमन चैन की जिंदगी जीने की प्रेरणा देता रहेगा।
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