कहानी - शुभ - गीतिका वेदिका

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शुभ                                                                          कहाँ से शुरू है ये कहानी? कह नहीं सकती! क्योंकि मेरे लिए तो तु...

शुभ


                                                 
                       कहाँ से शुरू है ये कहानी? कह नहीं सकती! क्योंकि मेरे लिए तो तुमसे लगन और बिछुड़न जैसे जन्मजन्मांतर की बात थी। या तब से कहूँ जब तुम शहर से गाँव में आये थे तब?  जैसे वो फिलिम में काम करते हैं न! अच्छी बुशर्ट और पेंट पहनते हैं न, बिल्कुल वैसे ही थे तुम! रूमाल से बार-बार मुँह पौंछते और हवा चलने पर बाल बिगड़ जाएं तो जेब से कंघी निकाल के संवार लेते। उस समय मैं तुम्हारे खेत पर बैलों को चारापानी दे रही थी।  जब पास आकर पूछा-
  "जे कौन की बिन्नू है?"तो शम्भू काका ने मेरे बारे में बताया-
"भैया जी!  'शुभ' नाम है बिटिया का। अपने रामचरण हरवारे की राई भरी आय, गाँवई के इस्कूल में में पढ़त। है भौत हुसियार।"

                                         मुझे शम्भू काका के मुँह से अपनी प्रशंसा सुनकर मुझे अच्छा लगा, लेकिन जब उन्होंने बाबू को दारुखोर कहा तो मुझे बहुत बुरा लगा। वह तुम्हारे ही खेतों में काम करते थे। तुमने मेरे साथ कभी मेरे साथ कभी दुर्व्यवहार नहीं किया। तुमने मुझे छोटे मालिक कहने से मना किया और कहा कि हमारा नाम केशव है। शुभ! तुम मेरा नाम ही लिया करो।
  "केशव? केशव तो किशन जी का भी नाम है न!"
"हूं... "

                                         उस समय मैं आठवीं कक्षा में थी और तुम दसवीं पास ग्यारहवीं कक्षा में पहुंच चुके थे। गर्मी की छुट्टियों में अपने ननिहाल आये हुए थे। हर साल मामा के घर इसी तरह तुम आते रहे हो। अपने मामा के घर हर साल गर्मियों की छुट्टी में आते हो। शहर से गाँव का जीवन  जीवन तुम्हें ज्यादा प्रिय रहा था।
                                           

                                        तुम्हें याद है न? तुम मुस्कुराते हुए मुझसे पूछा करते थे मेरी पढ़ाई के बारे में। जब मैनें तुमको बताया कि मैं कविता भी लिखती हूँ तो तुम कितने आश्चर्यचकित हुए थे? और मेरी एक कविता सुनकर तुम बोल पड़े थे-
"अरे! तुम्हारी कविता तो बिल्कुल छायावादी है। बिल्कुल महादेवी वर्मा की तरह।"
और तुमने मुझे अपनी जेब से रिफिल वाला कलम निकाल कर थमा दिया था और कहा था-
"मैं जब भी मैं गर्मियों  छुट्टी में आया करूँगा तो तुम्हें रिफिल वाली कलम और कॉपी लाया करूँगा।"
छेवले के पत्तों पर कितने चाव से मेरे हाथ के उसे बेर खाया करते थे?  मेरे बोलों पर हँसते थे। मेरे लकड़ी के गठ्ठर को और मुझे एक दिन साईकिल से मेरे घर पहुंचा दिया था... बाबू कितना ग़ुस्सा हुए मुझ पर!
-"क्यों भैया जी को परेशान कर रही है तू?"
तो तुम मेरा पक्ष लेते हुए लेकर बाबू से बोल पड़े थे-
"रामचरण काका! एक तो आप शुभ से काम कराते हो, दूसरे कोई मदद करे तो बच्ची पर ही गुस्साते हो! अरे! उसके बोर्ड के इम्तेहान हैं, उसे पढ़ने दिया कीजिये काकाजी!"
तब बाबू ने एक भी शब्द नहीं कहा।
  तुम कुछ दिनों के लिये गांव आये थे पर कहने लगे थे 'अब एक महीने  बाद ही जाऊँगा... तुम् और तुमाओ गांव दोई बहुत नीक लगन लगे हैं।"
तुम्हारे मुँह से अंचल की बोली कितनी प्यारी लगी थी? जैसे कोई गौरैया अपने खेत में गेहूँ की बाली तोड़ कर खा रही हो।
                         

                      उसी मास के पहले सोमवार को आँवला एकादशी के दिन मैं अम्मा बाबू और नीलू, सुनीता, हरकुँवर और अर्चना परिवार सहित वनभोजन को गए तो तुम भी वहाँ आ गए थे। मैं अपनी सहेलियों के साथ गोल घेरा बनाकर अपनी अपनी पुतरियों के साथ घरगूला खेलने बैठी थी। छोटे-छोटे चूल्हे, छोटे मिट्टी के दीये को बर्तन बनाया और छेवले के पत्तों पर सूखे व्यंजन सजाये। मेरी पुतरिया के ब्याह की बात आज नीलू के गुड्डे से चलानी थी। अर्चना और संगीता भी अपने-अपने गुड्डे गुड़िया के ब्याह करने का सोच रहीं थीं। सुनीता की पुतरिया अभी छोटी थी। वह इस्कूल पढ़ने जाएगी। इत्ती जल्दी उसका ब्याह नहीं करना। हरकुंवर के गुड्डा भी छोटा था। वह पढ़ने शहर जाएगा और लौट के ब्याह करेगा; ऐसा बोली थी। हम गोल घेरे में बैठे थे जैसे स्कूल में बैठते थे। तुम मेरे बगल में आकर बैठ गए और हम सब के परसे से दलिया खाने लगे।
                          अर्चना ने भटे का भर्ता बनाया था, संगीता ने छोटी-छोटी बाटियाँ सेंकी थीं तो सुनीता ने चूरमा और चूरमे का लड्डू सुनीता ने हरी मिर्च और टमाटर की चटनी पत्थर पर पीसी, हरकुंवर ने छेवले के पत्ते तोड़े और मैंने बस दलिया।

                                सारे व्यंजन छोटे दीयों और पत्तों में सजे दीवाली के दीप लग रहे थे।  अचार, मिर्च और लड्डू छेवले के पत्तों  पर सजे थे। खाने का मन नहीं कर रहा था। मन था कि बस सजावट को देखते रहें। तुमने इतने सारे व्यंजन छोड़कर मेरे हाथ का दलिया ही चुना  नीलू, सुनीता, हरकुँवर और अर्चना कितनी प्रसन्न थीं तुमको हमारे बीच खाना खाते देख। नीलू तो बतियों की मधुमक्खी हुई जा रही थी।
"केशव भैया! हमारी शुभ पूरे इस्कूल में प्रथम आती है। आप इसे अपने साथ शहर ले जाना। कालिज में दाख़िला दिलवा देना। अफ़सर बनेगी हमारी शुभ! आज शुभ की पुतरिया के ब्याह की चर्चा मेरे गुड्डे से चलेगी। भैया! तुम्हारी कोई पुतरिया नहीं क्या? शुभ के एक गुड्डा भी है। अभी छोटा है। अगले बरस बड़ा हो जाएगा। उसका भी तो ब्याह करना है।"
उसके चटरपटर लग्गर बतोले सुनकर सब सहेलियाँ हँसने लगीं और तुम भी...
                                     गाँवभर में तुमको कौन नहीं जानता था? तुम्हारे मामा जी गाँव भर में शान थी। गाँव मे सबसे अधिक खेती भी उनकी थी और जब तुम आते तो सबसे मिलते, बोलते बतियाते और मैं उस भीड़ में हमेशा पीछे रह जाती। मेरी हिम्मत नहीं होती कि मैं आगे आकर तुमसे बात करूँ। जबकि मेरी सारी सहेलियाँ तुमसे मुझसे भी अधिक परिचित थीं। फिर भी उस दिन तुम आकर मेरे बग़ल में बैठे तो मैं कितनी घमंडी हो गयी थी? देखा था तुमने? और मेरे हाथ का बना दलिया खाकर अंग्रेजी में मेरी प्रशंसा करने लगे थे-
"वॉव शुभ! इट्स वेरी टेस्टी... यम्मी... थैंक्यू!"
                                      मैं मुस्कुराकर रह गयी। अंग्रेजी तो मैं भी जानती थी, समझती थी लेकिन बोल नहीं पाती थी। कितना मन करता था कि तुमसे कहूँ कि जब भी गाँव आओ तो मुझे अंग्रेजी पढा दिया करो। स्कूल में गुरुजी की बात उतने अच्छे से समझ नहीं आती। मन तो ये भी किया कि तुमसे कहूँ कि पिछली कक्षा में जो पुस्तकें और कॉपियां छोड़ देते हो, मुझे दे दिया करो। तुम्हारी भाषा समझ मे आएगी मुझे... मैं मन की मन में कहती रह गयी और तुम उठकर चलने  लगते-
"अच्छा! अब चलता हूँ, नानी के हाथ का भी तो भोजन करना है। बाय..." 
सब सहेलियाँ हँस के 'बाय बाय भैया' कहने लगीं। मुझे थोड़ा सा क्रोध जाने क्यों हो आया? तुम्हारे जाने के बाद मैंने दलिया खाया और माथे पर हाथ मार लिया-


"हे महादेव! इस दलिया में तो नमक ही नहीं था।" नीलू, सुनीता, हरकुँवर और अर्चना चिढ़ाने लग गईं-

"किशन जी तो भोग लगा के चले गए।"
सुनीता बोली तो नीलू भी कम न थी-
"राधा के तुलसीपत्र के आगे सब व्यंजन फीके..."
"और ये... तो शबरी भी न निकली कि चख के खिलाती..." , हरकुँवर ने चुटकी ली।

मैं कुढ़ने लगी- "ऐसा कुछ नइँ... वे केशव हैं और मैं शुभ।"

उठ के मैं अम्मा के पास चली गयी। पर मन में न जाने क्यों सहेलियों के चिढ़ाने से अच्छा ही लग रहा था। लेकिन मैं वह 'अच्छापन' बाहर दर्शाना नहीं चाहती थी। अम्मा के पास जाकर नमक लिया और वापस सहेलियों के बीच आकर दलिया फिर से अपने दीये में निकाला और खाना शुरू किया। दलिया में नमक नहीं था, मैं फिर से नमक मिलाना भूल गयी थी। मैं मुस्कुरा दी और मैंने भी बिना नमक का ही दलिया खाया।

                                   मेरे बालिका-हॄदय के लगभग सुषुप्त पड़े अलाव में तुमने प्रेम की फूँक मारी तो मैं बारह वर्ष की भोली बालिका राधा हो उठी या मीरा या रुक्मिणी, यह तो पता नहीं... लेकिन तुम मेरे किशन हुए। मेरे किशन जो मेरे हाथ का स्वादहीन भोजन कितने आनन्द से ग्रहण कर गए थे? देह की सुस्त राख के ढेर में छुपे मन के अंगारे दहकने लगे थे।

                                     यद्यपि तुम्हारे जाने में अभी पूरा एक पखवाड़ा शेष था पर मेरा चित्त स्थिर न रहता था। सहेलियाँ तुम्हारे मामा के घर तुमसे अंग्रेजी के कुछ प्रश्न पूछने आना चाहती थीं सो मुझे भी साथ ले आयीं। मैं मुँह बना कर मना करने लगी-

"हज़ार काम हैं मुझे घर पर, अम्मा अकेली हो जाएंगी, सालभर का भैया संभालेंगी तो घर का काम अकेले कैसे करेंगी? तुम्हीं लोग जाओ। मैं इस्कूल खुलते ही गुरुजी से पढूँगी।"
सब सहेलियाँ बात मान कर जाने लगीं तो मैं पीछे आयी-
"रुको अच्छा! चलती हूँ। अभी इस्कूल खुलने में दिन हैं, और गुरुजी से पूछ भी नहीं पाते।"
"और तेरा साल भरे का भैया?" अर्चना ने हथेली को खोल कर तर्जनी, मध्यमा और अंगूठे को नचा कर पूछा।
"भैया सो रहा है। घर के भी सब काम निपट गए। अम्मा बड़की काकी के साथ बैठ के बात कर रही हैं।" मैं साथ चल दी थी।

                                    मुझे किंचित ज्ञात न था कि प्रेम क्या होता है? अथवा होता भी है? किंतु मेरी सभी सहेलियाँ तुमसे प्रभावित थीं और तुम चटर पटर अंग्रेजी में बात करते तो तुम्हें देखती रह जाती थीं। कितनी दक्षता से अंग्रेजी शब्दों का उच्चारण करते थे तुम? तुमसे शहर से अंग्रेजी शब्दकोश बुलवाने का मन होता पर कह न पायी। मन था कि एक दिन जब तुम गाँव मे आओ तो तुम्हें दक्ष अंग्रेजी बोलकर चकित कर दूँ। फिर तुम मुझे शहर में ले जाकर आगे की बढ़ी पढ़ाई करवाओ... लेकिन... तुम्हें देखकर ही तुम्हारी मुस्कुराहट और बातों में खो जाया करती। और तुम्हारे गाँव मे रहने के दिन जल्दी बीत गए। न तुम्हारे जाने का पता चला न तुमसे जाते समय मिलने की मंशा पूरी हुई। हाँ! तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारे मामा जी ने कुछ खाली कापियां और पेन दिए थे मेरे लिए कि केशव भैया तुम्हें देने को बोले थे। मैंने उन कापियों और पेन को घर आकर भगवान के आले में रख दिया।

•••

                                        
                          आठवीं कक्षा पास कर नवमीं में पहुँची और तुम फिर से गर्मियों की छुट्टियों में अपने मामाघर आये तो मैं चहक उठी थी। तुम अपनी पुरानी पास की कक्षा की कापियाँ, अंग्रेजी का शब्दकोश और वचनानुसार ढेर सारी कॉपियां और साथ में रिफिल वाली कलम लाये थे मेरे लिये। तुम तो घर पूरा झोला ही भर के ले आये थे। मैं हतप्रभ थी। कहीं तुम मेरे किशन जी का अवतार तो नहीं जो मेरे मन की भाषा पढ़ लेते हो? मैंने खुश होकर तुम्हारे लिए दलिया चूल्हे पर रख दिया तो तुमने याद दिलाया-
"शुभ! बिना नमक का खाऊंगा।"
"मैं भी..." मैं धीरे से मुस्कुराते हुए बोल पड़ी थी।

                                   तुम्हारे आने के बाद के दिन कितने अच्छे निकलते थे। वर्ष के सबसे अच्छे यही दो गर्मियों के महीने थे। जिनमें मेरा मन-उपवन तुम्हारी मुस्कुराहट के फूलों से भर जाता। तुम्हारी बतोलों की तितलियाँ उन फूलों पर मंडराया करतीं और तुम्हारी हँसी सुगंध बन के घँटों महका करती। मेरी तुम्हारे जाने के बाद की लिखीं कविताएँ इत्मीनान से सुनते। तुम्हारे खेत पर तुम्हारे ही बैल मुझे पहचानते थे और तुम्हें नहीं... तब तुम मुझसे उनकी रस्सी पकड़कर अपने हाथ मे लेने को कहते। बैलों के लिये चारापानी डालते समय तुम्हीं कुँवा से पानी खींचते तो मेरे बाबू नाराज़ होते कि तू फिर भैया जी से काम कराएगी? तब तुम बड़े प्यार से कहते- "काकाजी! गाँव का जीवन परिश्रम करने को होता है। शहर में तो हम एक्सरसाइज कर लेते हैं। यहाँ रस्सी ही तो खींच रहे। काम करने से इंसान स्वस्थ्य रहता है।"

मुझे तुम्हारी बातों पर आश्चर्य होता।
"तुम इतनी सी उम्र में इतनी बड़ी बातें कैसे कर लेते हो केशव?"
"बिलकुल वैसे ही शुभ! जैसे तुम इतनी सी उम्र में इतनी गहरी कविताएँ लिख लेती हो।"
मैं हँस देती।
•••


                                           
                                         मैं दसवीं पास कर चुकी थी। हर साल आ कर यादें छोड़कर लौट जाते। अबके गए तो दो साल न लौटे। मेरा जी भय से घबरा जाता था। कोई अता-पता तो था नहीं कि चिट्ठी-पत्री लिखती। इसलिए जो भी लिखा अपने पास ही सँजोती जाती कि आओगे तो एक साथ पढा दूँगी। अम्मा बाबू का भी भय था। कहीं मेरी अनबोली बतियाँ पढ़कर कोई प्रसंग न बना दें,  मेरा मन न भाँप लें इसलिए अपने मन की बतियाँ कविताबद्ध करके रखती जाती।

ओ मेरे निष्ठुर प्रणेता!

मौन हूँ, मैं बीतती हूँ
रात के जैसे अंधेरी
किन्तु मैं निःशब्द कब हूँ?

मैं तुम्हीं में तो बंधी हूँ
और खुलती हूँ तुम्हीं में
मैं तुम्हीं में उदय होती
और ढलती हूँ तुम्हीं में

चाँद तुम हो चाँदनी मैं
प्रातः को उपलब्ध कब हूँ?

ओ मेरे निष्ठुर प्रणेता!
अर्धचन्द्रिका शुभ
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                                              मन बहुत होता कि तुम आते और अंग्रेजी में मेरी कविताओं का अनुवाद करते। लेकिन तुम नहीं आये। दो बरस हो चले थे। मैं बारहवीं भी पास करना चाहती थी लेकिन गाँव में इस्कूल नहीं था और मुझे बाबू शहर पढ़ने भेजना नहीं चाहते थे।  इधर ब्याह के भी चर्चे चलने लगे थे। बाबू मेरी टीपना मिलान के लिये आने-जाने लगे थे। नीलू को उसका इच्छित सैनानी वर मिल गया था। रोज़ आकर खूब फ़ौज के किस्से सुनाती। फौजी भाइयों के लिए रेडियो पर कार्यक्रम आता तो फूली नहीं समाती। एक रोज उसके मंगेतर ने वह गीत उसे समर्पित किया था। 'तुम तो प्यार हो सजना, मुझे तुमसे प्यारा और न कोई'| अपने वर से अपना नाम सुनकर उसकी दुनिया फुलवारी हो उठी थी। कितनी खुश थी वह? हे! महादेव! उसे हमेशा ऐसे ही खुशियाँ दे और जल्द से जल्द वह अपने वर के साथ अपना जीवन बिताए। मैं भी उसके लिए खूब प्रार्थना किया करती थी।  सुनीता, हरकुँवर और अर्चना के घर भी ब्याह की बातें चल रहीं थीं किंतु अभी तक कुछ तय नहीं हुआ। मेरे घर भी वह घड़ी आ पहुँची। मैं भगवान से मन ही मन प्रार्थना करने लगी। अचानक तुम आ गए। मैंने प्रसन्नबदन चूल्हे पर तुम्हारा दलिया बनाने रख दिया। तुम गाँव आते साथ सबसे पहले मेरे घर मिलने आये। तुम्हें कुशलता का समाचार शाब्दिक रूप से तो न पूछ सकी। लेकिन कांसे के बेला में दलिया ले आयी, वही तुम्हारा मनभावन बिना नमक का। तुमने बड़े चाव से खाया। फिर बाबू ने तुम्हें मेरे साथ खेत घूमने भेज दिया।

                                        मैं कितनी प्रसन्न थी उन क़दमो के चिन्हों पर चलकर जो तुम्हारे थे! तुम आगे-आगे मैं पीछे-पीछे। देर तक कोई सम्वाद न हुआ। आख़िरकार चुप्पी तुमने तोड़ी-
"कितनी  कविताएँ लिखीं शुभ?"
"बहुत लिखीं। दो साल की कविताएँ हो गईं। तुम क्यों नहीं आये?
"आ न सका।" तुम्हारा स्वर इस स्वीकारोक्ति पर दुःखी था। दूसरे ही पल स्वयं को संयत करते हुए बोले-
"अच्छा... सुनाओ"
"कौन सी?"
"जो याद आती हो।"
"सब याद आतीं हैं।"
"तो फिर सब सुनाओ, एक-एक करके"

"गीत लिखे थे पंद्रह सोलह

जन्मजन्म में तुमको खोया, जन्मजन्म में तुमको पाया|
गीत लिखे थे पन्द्रह-सोलह, सब गीतों में तुमको गाया|


हर सावन का एक गीत है
मन में बसती एक प्रीत है
जनम-जनम के बंधन वाला
अलबेला सा एक मीत है

इस युग में फिर मैंने उसके, नाम का है सिंगार सजाया|
गीत लिखे थे पन्द्रह-सोलह, सब गीतों में तुमको गाया|


मंझधारों से उलझ-उलझ के
भँवरों के जालों से बच के
नदी-समंदर नाप लिए हैं
सीपी में मोती अचरज के

यों तो हर चमकीले नग ने, था मुझको पल-पल भरमाया|
गीत लिखे थे पन्द्रह-सोलह, सब गीतों में तुमको गाया|"
गीतिका शुभ
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- "अरे वाह! बहुत सुंदर! अप्रितम! शुभ! तुम बहुत गहरी कविताएँ लिखती हो। कौन ना डूब जाए?'
"तो फिर डूब क्यों नहीं जाता?"
"कौन?"
"कोई नहीं!"

                                            निरे पागल थे तुम! बिना नमक के दलिया खाने वाले तुम ही। मैं क्या कहती? चुप ही रहना उचित लगा। फिर तुम्हारे बोलने की प्रतीक्षा करने लगी। मैं अपने बोलने से ज्यादा तुम्हें सुनना चाहती थी।
"मैं अब कॉलेज में पढूँगा।"
"अच्छा! पढ़ना तो मैं भी चाहती थी।  बारहवीं भी करना चाहती थी और बी. ए. भी... लेकिन हमारे गाँव में आगे महाविद्यालय नहीं और बाबू मुझे शहर क्यों भेजने लगे भला? भेज भी देते तुम्हारे आसरे, तो तुम अब बड़े शहर जा रहे हो।"

                                    तभी साहूकार का नौकर वहाँ से मिठाई लेकर गुज़रा और डिब्बा खोलते ही कुछ कह पाता कि साहूकार के नौकर की लायी मिठाई मैं गप्प से खा गयी।  तुमने नहीं खाई और हाथ में रख ली।
"खा लो केशव! वरना मैं खा लूँगी।"
  तुम्हारे हाथ से मैनें हँसते हुए मिठाई उठाकर मुँह में धरके गप्प ही करने वाली थी कि गाल पर एक तेज़ का झन्नाटेदार थप्पड़ पड़ा।  मिठाई तो एक तरफ़ गिरी और देखा तो तुम गुस्से से घूर रहे थे। साहूकार का नौकर दूर जा चुका था। दूसरे हाथ का     दीर्घजीवी निशान मेरे गोरे गाल पर लाल रंग से उभर आया। तुम्हारी कनिष्ठा मेरी आँख की कोर पर लगने से आँख के निकट नन्हा सा जख्म हो आया और मेरी आँखों से अनवरत आँसू बह चले। और मैं बिना आवाज के रोती हुयी एक ओर दौड़ गयी जहाँ नीम का पेड़ था, और तुम पीछे पीछे। नीम के तने पर सर रख के रोने लगी थी इतने में तुमने कन्धे पर हाथ रखा और मैंने मुड़ के तुम्हारी तरफ देखा और जोर से तुम्हारे गले लग गयी।
                   
                                आह! मेरा संसार थम गया। प्रथम मिलन का योग कितना स्थायी होता है? मैंने प्रथम बार ही जाना। हिलक के रो दी थी। इसलिए नहीं कि तुमने हाथ उठाया। बल्कि इसलिए कि तुम्हारी बाहों के आकाश में समा जाने का अवसर इन सोलह वर्षों के जीवन में पहली बार मिला था। दोनों ही ढेर ढेर आँसू रोये थे। तब नहीं समझती थी कि लालची आदमी मिठाई यूँ ही नहीं भिजवाता।

                                  तुम्हारे शहर लौटने के दिन करीब थे। इस छोटे से वक्त में तुमने कितनी सीखें दे दी थीं मुझे और पहली बार मुझे आलिंगनबद्ध किया। केशव! मैं भूल नहीं सकूँगी। इस क्षण ने इस कविता को जन्म दिया-
मीत हठीला

मीत हठीला चुप बैठा था
जाने क्यों रूठा ऐंठा था
पूर्ण चाँद को बना साक्षी
चुपके मेरी बाँह गही|

रीतेपन में करुणा घोली
मीठे स्वर की मीठी बोली
चिबुक उठा, बाहों में भर के
मनमन्दिर की बात कही|

आकुल प्राण डोलते भी क्या
चुप-चुप रहे, बोलते भी क्या
नैनों के प्याले फिर छलके
दूरी फिर कुछ नहीं रही|

सुधबुध खोई तो क्या खोया
मन विश्वासी किन्तु न रोया
फलित प्रतीक्षा हुई मिलन की
कसमस करती पीर सही|

दिपदिप जली नैन की ज्योति
पलकों ढुलक कपोल भिगोती
दो तनमन झकझोर हो चले
हुई राधिका तब विरही|

पूर्णचंद्रिका शुभ
________________________
                       अच्छा लगता था गीत लिखना और हर गीत के साथ अपना नाम उसके उपशीर्षक में। पता नहीं यह काव्य में परम्परा हो कि न हो। पर मुझे भाता था। गीत के अन्त में वह सार शब्द स्वयं ही आकर मेरे नाम के साथ विराजमान हो जाता।

•••


तुम चले गए हो।
                                            जाते समय घर आये थे। स्वयं दलिया बनाने को कहा था। मैं तुम्हारे हृदय से लगने मरी जा रही थी। किंतु घर में अम्मा बाबू और भैया सब के सब हर समय थे। मुझे क्षण भर को एकांत न मिल सका। तुम्हारे इतने निकट होकर भी तुममें समा नहीं पाई। क्या तुम भी मेरी बाहों में आने को ऐसे ही मरे जा रहे थे? पता नहीं मुझे। लेकिन दलिया का कटोरा देते समय तुम कितने पास थे? आह केशव! क्या तुम दलिया खाकर चले जाओगे? तुम्हें मना कर तीन बार परसती रही कि न दलिया ख़त्म हो न तुम जाओ। लेकिन किसी के रोके से समय का चका भी रुका है भला?
तुम्हारी उंगलियों के पोर छूकर ही मन को समझा लिया। बाबू ने आकर तुम्हें चलने को कहा।
"भैया जी! गाड़ी का समय हो चला है। मामा जी ने बुलवा भेजा है।"
तुम पानी पीकर शीघ्र निकल गए। अम्मा घर के अंदर थीं। भैया चार साल का हो गया था। उसे दिनभर कुछ न कुछ खाने को चाहिए रहता इसलिए अम्मा उसे रसोई में मनुहार करके आटे की चूं-चूं चिरैया खिला रही थीं। बब्बा तुम्हारे ही खेत पर थे। बाबू देहरी के बाहर निकले तो मुझसे वह एकांतिक क्षण रहा नहीं गया। मैंने तुम्हें पीछे से बाहों में भर लिया।
                                   
                                तुमने कितने मन से मेरी हथेलियाँ जो तुम्हारी छाती पर थीं, उन्हें थामा। मेरी हथेलियों पर तुम्हारी आँखों से गिरी बूंदों ने तुम्हारे भी मन का  सब कुछ कह दिया था। बाहर से बाबू की आवाज़ आयी और तुम निर्मोही बन के तेज़ी से निकल गए। तुम क्या चले गए? मेरा हृदय, धड़कन, साँसे सब कुछ ले गए। मैं तो बस माटी होकर रह गयी।
तुम चले गए हो।

•••

                                 अम्मा का हाथ बटाती हूँ, घर के कामकाज करती हूँ। खेत मे जाकर बैलों को चारा-पानी देती हूँ और भोजन इसलिए लेना पड़ता है कि कोई प्रश्न न कर बैठे। और जीते भी तो रहना है।
                   
                                     ब्याह की चर्चा चल रही है। बाबू पंडिज्जी से टीपना मिलाने जा रहे हैं। मेरा मन नहीं मानता। लेकिन हिम्मत नहीं कुछ कहने की। कहूँ भी तो क्या कहूँ?
आज शाम आँगन में झाराबटोरी कर गैया को पानी दिया। अम्मा भैया को खिला रहीं थीं कि बाबू आ गए। प्रसन्न दिख रहे थे।
"शुभ की अम्मा! टीपना मिल गयी। नरखेड़ी वालों के लड़के की टीपना से मिली। लड़का भी अच्छा भला है। डाकखाने में काम करता है। लोगों के संदेसे बाँटता है। रिश्तेदारों अपनों को चिट्ठियों से जोड़ता है।"
"भगवान की किरपा है शुभ के बापू! जल्द से जल्द बिटिया को पराई करें तो गंगा नहाएँ।"
  अम्मा आँचल का छोर हथेलियों में पकड़कर आकाश को धन्यवाद दे रहीं थीं। भैया सुरभि गैया के साथ खेल रहा था। उसे इन बातों का कोई अंतर नहीं पड़ रहा था। मैं सार में गैया के गोबर में  भूसा मिलाकर पाथ रही थी कि ज़ोर से मेरे हाथ में नुकीला बड़ा सा नुकीला काँटा ठठ गया। मैं ज़ोर से रोने लगी। अम्मा बाबू मेरे पास आ गए। अम्मा ने चुप कराया, भैया मेरी चोट पर फूंकने लगा और बहते हुए खून को बाबू ने पौंछा और अपना गमछा फाड़ के का पट्टा बना के मेरी दायीं हथेली में बाँध दिया।
"छोड़ दे ये अब! जा कें भगवान खों प्रणाम कर आ और मोय लाने  एक गड़ई भर पानी लिया बिटिया।"
मैं भगवान के पास जाकर धार-धार रोयी।
"किशन जी! तुमको  तो सब पता था न? फिर ये क्यों होने दिया? मैं मन के मंदिर में किसी और को बिठा कर किसी और की पूजा करूँ? क्या ये पाप नहीं होगा?"
बाबू के लिए लोटाभर पानी लेकर गयी। आँखें आँसुओं से भरी थीं। बाबू पानी लेते हुए द्रवित हो गए।
"अबै भी पिरा रौ  का? आज कंडा मैं पाथ लेहों। जा तें चूल्हो जला ले। संझा की चाय तोई अम्मा चढ़ा देहे।"
मैं रसोई में आँखें पौछते चली आयी। उस दिन चूल्हे के धुवें ने भी रोने में मेरा भरपूर साथ दिया था।


                                   कुछ विषमताएं हैं जो जीने नहीं देतीं और कुछ विवशताएँ मरने नहीं देतीं। जब रात्रि शांत और स्निग्ध होती है तो मन उतना ही अशांत और विचलित होता है। तब वे कॉपियां और वह रिफिल वाली कलम तुम जो दे गए थे, वही साथ होते हैं। कह के गए थे कि 'जब मन करे मुझे लिखना', पर जब भी लिखने बैठती हूँ तो डर लग जाता है कहीं पन्ने न भर जाएँ ये कलम की स्याही खत्म न हो जाये। क्योंकि ये गाँव में तो मिलती नहीं। बाहर कस्बे में मिलती है तो चार आने की एक।     किससे मंगाउंगी? कौन ले के आयेगा? क्योंकि कोई आसपास वाले से मंगाई तो मुझे बदनाम ही कर देगा कि 'देखो तो, जा मोड़ी कॉपी और रिफिल मंगा रई है।" पर तुम ये भी कह गए थे कि फिर गाँव आऊँगा तो और कॉपी और रिफिल लाऊँगा। पर तुम अब तक न आये। पीर है कि बढ़ती जा रही है और कॉपी भरने को है और रिफिल खत्म होने को है... कब आओगे?
क्या जब नहीं रहूंगी, तब आओगे?


                                              बाबू को घर आने में आज रोज की अपेक्षा देर हो रही थी।  अम्मा ने भैया को ख़िलापिला के सुला दिया था। बब्बा को भोजन मैं खेत में दे आयी थी। भोजन के लिये आसानी बिछाकर  बाबू रात की बियारी में अम्मा बाबू की बाट जोह रहीं थी कि तभी बाहर से बाबू ने आवाज़ लगाई।
"बियारी लगा देव शुभ की अम्मा! हाथ पाँव पे पानी डाल के मैं आ रओ।"
"आज अबेर कैसें कर लई?" कटोरी में दाल परोसते हुए अम्मा पूछ बैठीं।
"पंडिज्जी ने बिठा लओ तो। कछु जोग नइँ जुर रय। बिन्नू को ब्याओ अबकी साल नइँ निकर रयो।"
अम्मा दुःखी हो गयीं। बाबू का स्वर धीमा था। मैं दौड़ कर भगवान के आले के पास गई उनको प्रणाम करते ही जलधाराएँ बहने लगीं। बाबू के स्वर सुनाई दे रहे थे-
"बिन्नू ने भोजन करो?"
"नइँ... दर्द के मारें रोत रईं तीं। बिन्नू! भोजन कर लो।"
"हओ अम्मा!" मैं दौड़ के आयी और अपनी आँखें पौछते हुए थाली उठा ली।
"ठीक हो ज्यो दो-तीन दिना में, जब तक तुमाए काम हम सम्भाल लें।" बाबू बियारी कर के उठ चुके थे।

•••
                                 तुमको नहीं आये दूसरा वर्ष लग गया। तुम्हारे कारण सामाजिक संस्कृति का जोग कब तक न जुड़ता? मेरा ब्याह निकल आया था।  बब्बा को खेत से भोजन देकर एक रोज़ लौटी तो देखा लड़का वाले गोदभराई के लिये घर पहुँच चुके थे। मैं धक्क रह गयी। अम्मा ने इशारे से अंदर जाकर तैयार होने को कहा। अरगनी पर गुलाबी धोती टँगी थी। अम्मा ने अंदर आकर उसे पहनने को कहा। मैं हिम्मत बटोर के बोली-
"हम ब्याओ नइँ करें अम्मा!"
"पगला गयी का? जैसे तैसे दो साल में तो मुहूरत निकरो।" उन्होंने घबराते हुए बाबू को बुलाया।
"बिन्नू तैयार नइँ हो रईं।"
"हमाई नाक कटा के छोड़ो का? जो का सुन रय हम?"
"बाबू हम ब्याओता हैं।" जाने कैसे इतनी हिम्मत आ गयी? बाबू गुस्से में बाहर निकले।
बाहर बैठे पाहुने सब बात जान चुके थे।
"रामचरण भैया! जोई सब करने तो तो हमें काय बुलाओ?" लड़के के पिता ने आक्रोशित स्वर में कहा।
"अपनी मोड़ी सवांर नइँ पाऊत और बदनामी हमाई कराओ।" साथ आये रिश्तेदार ने स्वर में स्वर मिलाया। सबके सब उठ के चले गए।
बाबू! माथे पर हाथ धरे बैठ गए। अम्मा नाराज़ हो गईं। भैया देहरी पर खड़ा कभी अम्मा बाबू को देखता कभी अंदर मुझे।

                               मुझसे घर मे सबने सम्वाद बन्द कर दिए थे। अम्मा शंकित थी कहीं मुझे महीना तो नहीं ठहर गया? मैंने महादेव की कसम खाते हुए उन्हें अपनी पवित्रता का निरर्थक आभास दिलाया। जब तक वैद्य काका के दवाखाने ले जाकर मेरी नाड़ी दिखवा ली तब उनको मेरे नियमित माहवारी का संतोष हुआ। अगला सूरज आसमान पर चढ़ते ही पूरे गाँव में मेरे ब्याह न करने की सौगंध की खबर हो गई।
                                          नीलू, सुनीता, हरकुँवर और अर्चना सबको घर बुलाया गया। सबने अनभिज्ञता ज़ाहिर की। अम्मा स्वयं खेत पर बब्बा को भोजन देने जाने लगीं किंतु मुझसे न कहतीं। बाबू गैया का गोबर मुझे न छूने देते। भैया को मेरी गोद मे नहीं रहने दिया जाता।
नीलू ने साधिकार मेरा मन लेने का प्रयास किया?
"को आएँ मराज? कबे हो गओ जो सब? हम औरन खों काय पतो नैयाँ?"
"सब पतो तुम औरन खों।" मैं नीची आँखें करके कहती रही।
"का पतो हम औरन खों?"
"वेई जो राधा के किशन हते। जिनने बिना स्वाद के दलिया को भोग लगाओ तो।"
"का? पगला गईं का? , हरकुँवर झकझोरते हुए बोली। ओ! मोई बिना! उनको खानदान, उनकी शानओशौकत... तुम औरन ने जो कर कबे लौ?"
"कछु नइँ करो... बस ई मन्दिर में एक मूर्ति बिठा के दूसरे की पूजा नइँ कर सकत।" मैं तुम्हारी कापियाँ और कलम हॄदय से लगाकर हिलक के रो दी थी।
"जो बियाओ नइँ कुवाउत शुभ! पागल जिन बनो। उनने माँग भरी?"
"नइँ..."
"अग्नि के घेरऊँ घेर फेरे करे? सुनीता बोली|
"नइँ...!"
"कौनउ चिट्ठी? पत्री? तार? संदेसे?" कभऊँ वचन हरो कै लुवा ले जेँहे?" अर्चना ने कंधा पकड़ के झकझोरा।
"नइँ... नइँ... नइँ... कभऊँ कछु नइँ कई। न माँग भरी, न अग्नि के घेरउँ घेर फेरे, लय न वचन हरो। बस ऊ दिना अंतिम बेर जाती बिरिआँ हमें हॄदय से लगा कें आँसू गिराए ते। बस बेई आँसू हमने माँग में भर लय। बेई उनके आवे को वचन हतो बेई हमें लुवा जावे को वचन।"
  मैं भगवान के आले के नीचे दीवार से घिसटती हुई बैठ गयी थी।


                                सहेलियाँ अपनी-अपनी तरह से समझाने के निरर्थक प्रयास करती रहीं थीं। बचपन की सखियाँ क्रोधित किंतु संयमित और विवेकी होकर न जाने कितने वचन कहतीं रहीं? मेरे प्रेम को बचपन की एक भावना मात्र बताती रहीं।  इसे एकतरफ़ा प्रेम की संज्ञा से अलंकृत करतीं रहीं। अम्मा बाबू को समाज में ताने सुनसुनकर मर जाने का डर भरती रहीं। किन्तु मैं जैसे शून्य हो उठी थी।


                               मेरे प्रेम का आकाश निरन्तर जलता रहता रहा जैसे तारे नहीं लाख, सहस्त्र अंगार हों मेरे पहलू में, भभकती हुईं अग्नि मुझे दाह करती रही। और मैं मानती रही कि मेरा प्रेम प्रतिदान नहीं चाहता। प्रेम मात्र मिलन का ही तो नाम नहीं, विरह भी तो प्रेम है।  तब सहेलियों के सामूहिक स्वर उबल पड़े-"जाओ केशव भैया को ढूँढो, उनसे कहो कि वे त्याग करें,  त्याग प्रेम के लिये' तुम्हें समाज के सामने स्वीकारें और सम्मान विदा करा ले जाएँ।"
   

                            मैं कुछ भी समझ नहीं पाती थी तब, निःशब्द मैं हिलक के रो नहीं पाती बस आँखे भर आती थी और निर्झर होने लगती थी आँखों से अँगारे सुलगते थे। क्योंकि सहेलियों की दृष्टि में 'वह' अपने संसार में व्यस्त और मस्त थे, तभी दो बरस से कोई खोज खबर नहीं दी।  क्योंकि 'वह' प्रेमी नहीं  हैं व्यवहारिक हैं अपना जीवन जी रहे हैं। मैं प्रतिउत्तर देती रही कि महादेव जैसे ले गए अपनी पार्वती को, किशन जी जैसे ले गए अपनी राधिका को...तब सहेलियाँ  मुझ पर बहुत क्रोधित होते हुए चली गईं- "या तो तुम इसी तरह जिओ या मर जाओ।"

निठुर पिया की मैं निठुराई,
हाय पिया की मैं ठुकराई|
न तन त्यागूँ न मन त्यागूँ,
लख संग-सहेली अकुलाई|
प्रतीक्षित शुभ
__________________________
 


                                            न मुझे समझना था न उनको देर तक घर में रुकना था। अम्मा बाबू को तो मुझसे कोई मतलब रह नहीं गया था। पुरा-पड़ोस के लोग आते जाते बाबू को ताने देते।


                                                नीलू के जोग जुड़े और वह अपने फौजी वर के साथ ब्याही गयी। मैं न उसे ब्याह में देख सकी न विदा में गले लगा के रो सकी। सुनीता, हरकुँवर और अर्चना को भी अच्छे घर में ब्याह दिया गया लेकिन न हम लोगों को ब्याह में न्यौता मिला न  कोई सामाजिक काज में हम कभी गए। हाँ! तुम्हारे मामाजी अवश्य इतने अच्छे थे कि उन्होंने बब्बा और बाबू को अपने खेत में काम पर पहले की भाँति  रहने दिया।

                                                 ऐसी ताड़ना में एक और बरस बीत गया लेकिन तुम नहीं आये। ऐसे ही विरहा के एक दिन मैं बब्बा को खेत में भोजन देने गयी। सदा की तरह रास्ते में मिलने वाले लोग मुझसे बचते। न नज़रें मिलाते न मुस्काते न बात करते। स्यात मेरा भाग्य मुझे ये दुर्दिन दिखा रहा था। लेकिन तुम्हें पाने के लिये इस दुर्भाग्य को वरण करना मुझे सस्ता सौदा जान पड़ता था।
भोजन देकर बैलों को चारापानी दे रही थी कि खेत उपवन हो उठा। अचानक से तुम्हारी महक खेतों में लहलहा उठी। स्यात तुम आसपास थे।
                                             अचानक तुम आते दिखे। मुरझाए फूल खिल गए, बुझे हुए दीप जल गए, मन के घोंसले में दुबकी चिड़ियाँ चहचहा उठीं। तुम्हारी एक झलक से मेरा तप पूर्ण हुआ। मेरा विरह मिलन बन गया। शोकगीत मिलनगीत बन गए।

साथी!
जिस पथ पर चलकर तुम जाते,
वह राह मनचली
क्यों मुड़ के लौट नहीं आती?
ये बैरन सन्ध्या
हो जाये बन्ध्या
न लगन करे चन्दा से
न जन्मे शिशु तारे
बस यहीं ठहर जाए
ये शाम मुँहजली
जो मुड़ के लौट नहीं पाती।

श्वासों के तार
तने पल-पल
न टूट जाएँ ये
अगले पल
ले जाओ दरस हमारा
दे जाओ दरस तुम्हारा
यह लिखती पत्र पठाती।
ये शाम मनचली
जो मुड़ के लौट नहीं पाती।

ये राह दीवानी है
हमारे पिया गए जिस पर
न लौटी अब तक हाय!
हमारा पिया हिरानी है
तेरी रज लूँ सिर-माथ
मिला दे हमको साथ
विनय सुने न हाय!
हँसे जाती पगली।
यह राह मनचली
जो मुड़ के लौट नहीं पाती।

तेरा गाली से सिंगार करूँ
बड़ा निठुर व्यवहार करूँ
खोदूँ तुझको खुरपी लेकर
फरुआ से महाप्रहार करूँ
न! ये न करना भोली!
री! राह! करे है ठिठोली?
देखा तो पिया खड़े सम्मुख
वह भूल गयी सब वियोग दुःख
ले रही बलैयां सैयां की
करती राह की कजली।
यह राह मनचली
जो मुड़ के लौट यहीं आती

बटोही शुभ
___________________
     
                                              कविता हवा के पन्ने पर क्षणांश में ही अवतरित होकर तुम्हारे अंततः आगमन की खुशबू बिखेर रही थी। मैं चारापानी छोड़कर बेतहाशा तुम्हारी ओर दौड़ गयी थी। अंततः तुम मुझे लेने आये थे। अम्मा बाबू को समाज में खोया हुआ सम्मान दिलाने आये थे। सखियों के झूठे आरोप से स्वयं को मुक्त कराने आये थे और सदा के लिये मुझे हॄदय से लगाकर संग ले जाने आये थे। चक्रवात की तरह मैं तुममें समा जाना चाहती थी। तुम्हारे और मेरे बीच की दूरी दो पग ही रह गयी थी। मैं हमारे बीच की दूरी एक पग में माप कर तुम्हारे अंक में समाती कि गाज गिरी। मैं ठिठक गयी। तुम्हारे पीछे-पीछे एक सुंदर नवयौवना सिंगार करे खेत की मेड़ पर सम्भाल के पाँव धरते हुए चली आ रही थी। उसके हाथ को बहुत सुंदर एक-डेढ़ वर्षीय बालक ने थाम रखा था। नितांत तुम्हारी छवि की प्रतिकृति बालक अपनी माता के साथ निश्छल भाव से मेड़ पर चलकर भाव विभोर हो रहा था।
                                       मैं थम गयी। क्षण भर में मेरा सन्सार थम गया। मेरी धड़कनें थम गयीं। हवाएँ थम गयीं।  मेरे उपवन की महक थम गयी। छन्न से मन का दर्पण पथरीली धरती पर गिरा और टूट कर अपने मे समाए सजीले रूप को खो बैठा। उसके टूटने की आवाज़ स्यात मुझ तक रही। तुम निस्तब्ध खड़े थे। तुम्हारे वामपक्ष में तुम्हारी ब्याहता बालक को गोद मे लिए खड़ी हो गयी।
"नमस्ते! छोटे मालिक! नमस्ते छोटी मालकिन!"
इससे अधिक शब्द  न बोल सकी मैं और न तुमने अभिवादन का उत्तर दिया। तुम्हारी जीवनसंगिनी ने मुस्कुराते हुए मेरे हाथ में कुछ पैसे थमा दिए। बालक हठात उसकी गोद से उतरकर खेत में और तुतलाते बोल बोलते हँसते चला गया। वह उसके पीछे चली गयी। रह गए तुम मूर्तिवत और मैं उन पैसों को हाथ में लेकर अनगढ़ पत्थर की खण्डित मूरत।
                       कितना कुछ था जो शब्दों में नहीं था इसलिए मैंने मौन साध लिया। कितना कुछ था जो अर्थों में नहीं था इसलिए मैंने भाव साध लिया।

मैं उन गाँठो से मुक्त हो जाना चाहती थी जिनको मैंने अपेक्षा के रूप में तुमसे बाँध लिया था। तुम्हारी प्रत्येक भूल को तुम्हारी दुर्बलता समझ के न केवल भुला देना चाहती थी बल्कि तुम्हें क्षमा भी कर देना चाहती थी।

                            चाहती थी कि जीवन में दुबारा तुमसे मिलना भी न हो। जिसलिये यह जीवन भी छोड़ देने की त्वरा हुई, पर मेरी वेदना जानकर न धरती का सीना फटा और न ही मैं उसमें समा सकी। 
                  
                           मैंने यह कभी नहीं चाहा कि मेरे जीवन का अंतिम भाव विरह हो। इसलिए साँसों की रस्सी से एक डोर उन्मुक्त छोड़ देना ही उचित जान पड़ा। डोर; जो कि डोर न थी। वह बुझी हुई बाती का धुँअला सिरा था जो बीती रात अंधेरों के बीच तुम्हें अपना चेहरा दिखाने के लिये प्रकाशमान किया था।

मैं उस झूठे उजाले में अपनी मृत कविताएँ रचने में लगी थी जो सब अधूरी रह गईं। और एक जीवित कविता तुम्हारे दृष्टिपात को लौ के बुझने तक अधीर होती रही।

                              जानती हूँ प्रेम जन्म-मरण के बंधनों से परे है। किंतु इस जन्म की भौतिकता उस ज्ञात को जानने के लिये न्यून ही नहीं बल्कि नगण्य जान पड़ी। जहाँ तुम्हें सामाजिक प्रतिष्ठाओं की ललक रही वहीं मुझे तुम्हारी ललक रही। तुमने तो सामाजिकता में अपना स्थान सुनिश्चित कर अपना प्राप्य पा लिया किंतु मैं तुम्हारे साथ आधी नहीं बल्कि अधूरी भी रह गयी।

तमाम सुख सुविधाओं में तुम्हारा प्रसन्न चेहरा देखकर, मेरा  मन अपनी मलिनता को सहजता से छुपाने के असहज प्रयास करने लगा।

                          आगे की कथा न पूरी होने की आस रही न अब न नयी लिखी जा सकेगी। न ही कोई गीत होंगे न कोई धुन। रात्रि की धीमी लौ धुँवा हुई। दिनमान तुम्हारे पन्नों पर उजले प्रकाश की गाथाएँ लिखे। और मुझे वह धुँवा शक्ति दे कि मेरे अवगुंठित हॄदय से आह न निकले। निकले तो बस निरुत्तर क्षमा...

ताकि तुम्हारी प्राप्तियों पर कोई कलंक न हो।
आधी वेदिका
  ★

गीतिका वेदिका
साहित्यकार व अभिनेत्री
निवासी टीकमगढ (मध्यप्रदेश)

samrpyami@gmai.com

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साहित्यिक परिचय
  भारतीय हिन्दी किन्नर विमर्श साहित्य की प्रथम गीतकार, अधूरी देह (प्रथम कृति गीत-नवगीत संग्रह) की रचनाकार
विधाएँ- गीत, ग़ज़ल, कहानी, लघुकथा, छन्द, मुक्तक, नाट्यरूपांतरण आदि विधाओं पर कार्य
रेडियो, दैनिक पत्रों व ई पत्रिकाओं में कविता-गीत प्रकाशित
ज्वलंत मुद्दों पर आलेख लेखन व प्रकाशन
नाट्यकर्मी (निर्देशक व अभिनेत्री)
डीडी किसान पर मैत्री पुष्पा रचित उपन्यास इदं नमं पर आधारित 'मन्दा हर युग में' महत्वपूर्ण भूमिका अभिनीत
फीचर फिल्मों, वेब सीरीज़ आदि में सहायक भूमिकाएं
अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव खजुराहो तथा भारतीय फ़िल्म महोत्सव ओरछा में मंच सञ्चालन
सामयिक कवि सम्मेलन, गोष्ठी, संगोष्ठी, परिचर्चा आदि में संचालन व समन्वय
'किन्नर् विमर्श में संयोजन, अभिकल्पन व आयोजन के तौर पर कार्य किये।

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श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: कहानी - शुभ - गीतिका वेदिका
कहानी - शुभ - गीतिका वेदिका
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