समीक्षक - गोवर्धन यादव सरहदों के पार महकती कहानियाँ साहित्य जगत में अपनी ओजस्विता लिए प्रकट होने वाली लेखिका सुश्री देवी नागरानी जी, किसी अत...
समीक्षक - गोवर्धन यादव
सरहदों के पार महकती कहानियाँ
साहित्य जगत में अपनी ओजस्विता लिए प्रकट होने वाली लेखिका सुश्री देवी नागरानी जी, किसी अतिरिक्त परिचय की मोहताज नहीं है. अपने जन्म के साथ ही आपका सिंधी और ऊर्दू भाषा पर अच्छा खासा अधिकार रहा है. हिन्दी, अंग्रेजी ,मराठी तथा तेलुगु आदि भाषा में निष्नात, कवि, लेखक, कहानीकार, गजलकार, अनुवादक देवी नागरानी ( न्यु जर्सी-अमेरिका) द्वारा अनुवादित कहानी संग्रह “प्रांत-प्रांत की कहानियां” आपका दूसरा संग्रह है, जो सरहदों के पार महकती कहानियों का गुलदस्ता हैं. इससे पहले आपका एक संग्रह “ पन्द्रह सिंधी कहानियाँ” हिन्दी साहित्य निकेतन,बिजनौर से प्रकाशित हुआ था. इस संग्रह में कुल मिलाकर पन्द्रह कहानियाँ संग्रहित हैं. सभी लेखक सिंध(पाकिस्तान) से हैं. प्रांत-प्रांत की कहानियों में मेक्सिकन, पश्तु, वराहवी, ईरानी, ताशकंद, बलूच, रुस, ब्रिटेन आदि के लब्ध प्रतिष्ठ कहानीकारों द्वारा रचित कहानियाँ, उम्र के हर मोड़ पर पाठकों के जेहन से टकराती रही होंगी, कभी लिखित रूप में, तो कभी वाचिक रुप में. तो कभी सुदूर देशों के भूगोल-इतिहास को लांघ कर लंबा सफ़र तय किया होगा. इन कहानियों ने हमारे स्मृति-कोष को समृद्ध ही किया है तथा इन तमाम कहानीकारों की गहरी मानवीय दृष्टि, मार्मिक सृष्टि और बृहत्तर अभिप्रायों से जन-जन को भी प्रभावित किया होगा, कुछ ने इन्हें अपना पाथेय भी माना होगा. अपने-अपने प्रदेशों में बड़े चाव के साथ पढ़ी और दोहराई जाती रही होंगीं. अनुवादक . सुश्री देवी नागरानी जी ने इन कहानियों को बड़ी धैर्यता-कुशलता और कड़ी मेहनत करते हुए, हिंदी में अनुवादित कर हम सब तक पहुँचाया. वे शायद ऐसा न कर पातीं तो हम निश्चित ही सरहद के पार रची जा रही कहानियों से कदापि परिचित नहीं हो पाते. निश्चित ही वे बधाई की पात्र हैं.
विश्व के कई देशों की कहानियों का अध्ययन हमें न सिर्फ़ जीवन के व्यापक फ़लक से परिचित कराता है, बल्कि उसके माध्यम से संसार के विभिन्न हिस्सों में रह रहे लोगों के रहन-सहन, उनका खान-पान, उनकी नैतिक मान्यताओं, वर्जनाओं, दुःखों और प्रसन्नता से भी हम अवगत होते हैं. यह सिर्फ़ जानकारियाँ बढ़ाने का मसला नहीं है, वरन दुनियां को अपनी नजरों से देखना-परखना भी होता है. इस तरह हम एक उदार नजरिया भी विकसित करते चलते है. यह निर्विवाद सत्य है कि कहानियाँ दुनिया की सबसे प्राचीन विधाओं में से एक है. कहानियों की सम्प्रेषण शक्ति को विशेष रुप से पहचाना गया. इस तरह कहानियाँ विश्व के एक छोर से दूसरे छोर का सफ़्रर करती रहीं. हम सभी इस बात से वाकिफ़ हैं कि संसार की सभी भाषाऒ के अपने कुछ महान कथाकार होते हैं, जो अपने जीवन-काल और उसके बाद भी लोगों के हमसफ़र रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे.
हिंदी साहित्य निकेतन, (बिजनौर) के निदेशक डा.गिरिराजशरण जी अग्रवाल लिखते हैं-“ यह निर्विवाद सत्य है कि अनुवाद मूल लेखन से कहीं अधिक कठिन कार्य है. मूल लेखक जहाँ अपने विचारों की अभिव्यक्ति में स्वतंत्र होता है, वहीं अनुवादक एक भाषा के विचारों को, दूसरी भाषा में उतारने में, अनेक तरह से बंधा होता है. उन दोनों भाषाऒ की सूक्ष्मतम जानकारी के अतिरिक्त विषय की तह तक पहुँचने की क्षमता तथा अभिव्यक्त की पूर्ण कुशलता अच्छे अनुवादक के लिए अपेक्षित है. वे यह भी लिखते हैं कि अनुवाद यांत्रिकी प्रक्रिया नहीं अपितु मौलिकता का स्पर्ष करता हुआ कृतित्व है. इसके एक छोर पर मूल लेखक होता है और दूसरी छोर पर अनुवादक. इन दोनों के बीच होती है अनुवाद की प्रक्रिया. एक कुशल अनुवादक अपने आपको मूल लेखक के चिंतन की भूमि पर प्रतिष्ठित कर, अपनी सूझबूझ एवं प्रतिभा के बल पर स्त्रोत-सामग्री को, अपनी कला और कुशलता से प्रस्तुत करता है, ताकि उसका “अनुवाद” मौलिक रचना के स्तर तक पहुँच सके.
मेरा अपना मानना है कि अनुवाद प्रक्रिया “परकाया प्रवेश” जैसा कठिन और दुष्घर्ष कर्म है. जितनी ऊर्जा लेखक को इसमें खपानी पड़ती है, उससे कहीं ज्यादा परिश्रम अनुवादक को करना होता है और यह तभी संभव हो पाता है जब अनुवादक का दूसरी भाषा पर समान रूप से अधिकार हो. ऎसा होने पर ही कहानी की आत्मा बची रहती है.
कहानीपन की सबसे पहली अनिवार्य शर्त को रेखांकित करती हुई “इसाबेल अलैंदे” कहती हैं कि-“यह सांस्कृतिक गहराई और इस गहराई में पाठकों को अपने साथ उतार ले सकने की सर्जक क्षमता ही अंततः कहानी या सांस्कृतिक विधा के “कहानीपन” की सबसे पहली और अनिवार्य शर्त होती है. वहीं मैंडल स्टाम” का कथन है- “स्मृति के द्वंदात्मकता में ही रचना अपनी वांछित ऊँचाइयाँ तक पहुँच पाती हैं”.
ह्युस्टन-अमेरिका की डा.कविता वाचक्नवी जी ने विश्व-कथा साहित्य का सहज अनुवाद लिखते हुए इस बात का उल्लेख किया है-“अनुदित कहानियों को पढ़ने पर मूल लेखक की भाषा की संरचनात्मक विशिष्टताओं तथा भाषिक व्यंजना का अनुमान लगाना संभव नहीं होता. यह कार्य अनुवादक की स्त्रोत भाषा पर पकड़ के स्तर के परिमाण में उसी के द्वारा संभव हो सकता है”.
मेरे अपने मतानुसार कहानियाँ भी कई तरह की होती हैं. कुछ का जन्म सुनाते समय होता है और भाषा ही इनकी जान होती है. जब तक कोई इन्हें शब्दों में नहीं ढालता, वे महज एक आभास, एक हल्का सा आवेग, एक बिंब या एक अस्पष्ट याद भर होती है. कुछ कहानियां भरी-पूरी होती हैं, किसी समूचे सेब की तरह. इन्हें अर्थ बदल जाने का खतरा उठाए बगैर अनन्त काल तक बार-बार दुहराया जा सकता है. कुछ कहानियां यथार्थ की सच्चाई से ली गई होती हैं और प्रेरणा के सहारे उन्हें आकार मिलता है. जबकि कुछ प्रेरणा के किसी क्षण में जनमती है और सुनाई जाने के बाद सच्ची हो उठती हैं. अनुवादक सुश्री देवी नागरानी जी ने इन सुक्ष्म सतहों को बारिकी से परखा होगा, जाना होगा, तब जाकर वे उन अठारह कहानियों का हिंदी में कुशलतापूर्वक अनुवाद कर पायीं. देवी नागरानी ने एक मौन साधक की तरह इस पार और उस पार के बीच की लक्ष्मण रेखा को विलीनता के हाशिये पर लाने का सफल प्रयास किया है. “अनुवादक” के इस मकाम को हासिल करने के लिए लेखिका ने एक लंबा और मुश्किल, लेकिन सही और सुचिंतित रास्ता चुना है. उसे मालूम है कि रचना की दुनिया में शार्टकट कहीं नहीं ले जाते. इस प्रक्रिया में सृजन की यातना का सामना भी उसे करना होता है. प्रांत-प्रांत की कहानियों का यह बेशकीमती गुलद्स्ता हिंदी-साहित्य-जगत के लिए एक अनुपम उपहार होगा, ऐसी मेरी अपनी मान्यता है. उन्हें कोटिशः बधाइयाँ-शुभकामनाएँ.
प्रांत-प्रांत की कहानियों में सबसे पहले उन्होंने मेक्सिकन नोबेल प्राइज विजेता “गर्शिया मरकुएज” की कहानी –ओरेलियो एस्कोबार का चुनाव किया है. यह कहानी एक ऐसे डाक्टर की है जो फ़र्जी तो है, लेकिन दांत निकालने के काम में उसे महारत हासिल है. शहर का मेयर यह सब जानता होगा, यदि वह चाहता तो उसे शहर से बाहर भी करवा सकता था,लेकिन उसकी कार्यकुशलता को देखते हुए, वह अपना दांत निकलवाने के लिए बिना डिग्री वाले इसी डाक्टर के पास आता है. दांत निकल जाने के बाद मेयर बड़ी ठसक के साथ कहता है-“ बिल भिजवा देना”. जिस ठसक के साथ मेयर कहता है, लगभग उसी ठसक और लापरवाह अंदाज में वह भी जवाब देता है- “किसके नाम...तुम्हारे या फ़िर कमेटी के नाम”. इस कहानी का शिल्प बरबस ही आपको आकर्षित कर अपने सम्मोहन में बांध लेता है. सच ही कहा है किसी ने कि जीवन में कुछ अर्थ और सौंदर्य भी होना चाहिए.
पश्तु कहानी-आबे हयात- कहानीकार-नसीब अलहाद सीमाव-
आदमी मरना नहीं चाहता. जीवित रहने के लिए वह अनेकानेक प्रयास करता है,लेकिन अंततः उसे मरना ही होता है. ऐसी मान्यता है कि यदि आदमी “आबे हयात” का पान कर ले, तो वह अमर हो जाता है. भारत में भी इस मान्यता के पुट मिलते हैं कि कोई अमृत का पान कर ले, तो वह अमर हो जाता है. माँ-बेटे के बीच इसी कशमकश को लेकर कहानी चल निकलती है. बेटा फ़ौज में भरती हो जाता है और युद्ध में शहीद हो जाता है. शहीद होकर वह अमरता प्राप्त कर लेता है. किसी शायर ने लिखा भी है “अमर वो नवजवां होगा, वतन पर जो फ़िदा होगा”. बात सच है कि शहीद कभी मरा नहीं करते. उनका शरीर मरता है लेकिन उनकी स्मृतियाँ देशवासियों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बनी रहती हैं. सीमाव ने इस कहानी को लिखते हुए यह लिखा-किसी मकसद की चाहत में ईमान की सच्चाई की चाश्नी शामिल तो तो आदमी अपनी मंजिल जरूर पा सकता. अगर वह यह नहीं भी लिखता तो, कहानी की खूबसूरती में कोई फ़र्क नहीं पड़ता. अनावश्यक जान पड़ते हैं ये वाक्य.
बराहवी कहानी- आखिरी नजर- वाहिद जहीर-
मामा गिलू, अंधी बीबी और जवान होती बेटी लाली की कहानी है. बेटी जब जवानी की देहलीज पर कदम रखती है, तो उसके पिता की नजर उसकी पीठ पर चिपकी होती है. वह कहाँ जाती है, कहाँ उठती बैठती है आदि का मुआयना करने लगता है. पिता जैसे ही बेटी की तितलियों-सी उड़ान से वकिफ़ होता है, तो वह मजबूरी की दीवार तोड़कर, अपनी इज्जत की दीवार बचाने की जद्दोजहद में लग जाता है. घर-घर की कहानी है यह. हर पिता का यह उत्तरदायित्व बनता है कि वह अपनी बेटियों को गलत रास्ते पर चलने से बचाए और उसे सही मार्गदर्शन दे.
बराहवी कहानी-बारिश की दुआ. आरिफ़ जिया.
नन्हीं जेबू और उसकी माँ को बारिश का डर सताता है. डर इस बात का कि यदि बरिश हुई तो उसकी झोपड़ी ढह जाएगी, सामान भींग जाएगा और जीवन जीना दुभर हो जाएगा. वह नन्हीं बालिका अल्लाह से दुआ मांगती है कि बारिश न हो. वहीं दूसरी तरफ़ गर्मी की तपिश से निजाद पाने के लिए लोग बारिश होने की गुहार लगा रहे होते है. अंततः बारिश नहीं होती. जेबू की जीत होती है और वह बहुत खुश होती है. गरीबी का दंश झेल रहे परिवार की मार्मिक कहानी दिल और दिमाक को झकझोरती है.
ईरानी कहानी- बिल्ली का खून- फ़रीदा राजी-
आदमजात हो या फ़िर पशु-पक्षी, सभी में एक से ही नैसर्गिक गुण विद्यमान होते हैं. प्रेम करना, प्रेम में पड़ना, वियोग की अग्नि में झुलसना, मन के और शरीर के उत्पातों को सहना आदि-आदि. यह कहानी एक बिल्ली को लेकर लिखी गई है, एक बिल्ले को वह प्राणपन से चाहने लगती है. उसे रोकने का भरपूर प्रयास किया जाता है. तो वह बगावत पर भी उतर आती है. अन्दर ही अन्दर घुटती रहती है और एक दिन मर जाती है. कहानी बिना कुछ बोले, बहुत कुछ बोल जाती है.
सिंधी कहानी-खून-भगवान अटलानी-
एक ऐसे डाक्टर की कहानी है जो स्वयं अभावों से जूझ रहा होता है, एक गरीब मरीज के इलाज के लिए निकल पड़ता है. फ़ीस भी वसूल होगी या नहीं, इसी कशमकश में वह हलाकान-परेशान होता रहता है. उधर उस मरीज का परिवार भीषण तंगी में जी रहा होता है. यहाँ तक की वह डाक्टर से इलाज कराने की स्थिति में भी नहीं है और न ही उसके पास दवा-दारु के लिए पैसे ही हैं. डाक्टर को प्राण-रक्षक इंजेक्शन लगाना ही पड़ता है. वह जानता है कि फ़ीस भी नहीं मिलेगी और इंजेक्शन के पैसे भी उसे अपनी जेब से भरना पड़ेगा. पैसों के अभाव में बालक गंभीर अवस्था में पहले ही पहुँच चुका होता है और उसका करुणिक अंत हो जाता है. घर का बुजुर्ग किसी तरह एक पांच का और दो का नोट डाक्टर को देते हुए कहता है...बस इतनी ही रकम है उसके पास फ़ीस देने के लिए. अटलानी जी की इस मार्मिक और कारुणिक कहानी को पढ़कर आँखे स्वतः भर आती है. अटलानी जी ने इस कहानी को कुछ इस तरह ढाला है कि वह पाठक को अपने रौं में बहाकर ले जाती है और रोने के लिए विवश कर देती है. यही कहानी की सफ़लता भी है.
ऊर्दू कहानी- दोषी- खुशवंतसिंह.
कलम के धनी कहानीकार,पत्रकार,व्यंग्यकार, उपन्यासकार,इतिहासकार और एक सफ़ल वकील खुशवंतसिंह जी की लेखनी से भला कौन परिचित नहीं होगा? उनका चर्चित उपन्यास “ट्रेन टू पाकिस्तान” एक यादगार उपन्यास है. प्रेम का त्रिकोण बनाने में वे सिद्धहस्त रहे है. शब्दों को किस तरह जानदार बनाना है, वे इस कला को अच्छी तरह से जानते थे.
ऊर्दू कहानी- घर जलाकर- इबने कंवल
अमीरों का गरीबों पर जुल्म ढाना और गरीबों पर मुसिबतों का पहाड़ टूट पड़ना..कोई नयी बात नहीं है. यह खेल सदियों से चला आ रहा है. इस विषय को लेकर लिखी गई कहानी में गरीब-गुर्गों की बस्ती जला दी जाती है. बेघर हुए लोगो को पचास हजार और हादसे में मारे गए परिवार को एक लाख की रकम सरकार की तरफ़ से दी जाती है. रकम मिलते ही लोग-बाग गम को भूलने से लगे थे. जिनके बदन पर कपड़े नहीं थे, वे नए कपड़े में नजर आ रहे थे और जिन्हें दो वक्त का खाना भी नसीब नहीं होता था, मालपुआ उड़ाने में मगन थे. हादसे के समय मिलती सहानुभूतियां भी धीरे-धीरे खत्म हो जाती है. अभाव और बेचारगी का अहसास फ़िर उस बस्ती में लौट आता है, तंगहाली झेलते बच्चे नज्जू अपनी माँ से पूछता है कि हमारी झोपड़ी फ़िर कब जलेगी? यह कहानी का क्लाईमेक्स है.
इस संग्रह में ताशकंद के जगदीश की कहानी-गोश्त का टुकड़ा है. गरीबी-मुफ़लिसी में जीवन जीते एक ऐसे इन्सान की कहानी है जो अपने खानदान की इज्जत बचाने के लिए गोश्त का एक टुकड़ा भर रह जाता है. पंजाबी लेखक-बलवंत सिंह की कहानी-कर्नलसिंह, सिख जाट की असली पहचान उसकी लाठी और घोड़ी होती है. चोरी हो चुकी घोड़ी की तलाश पर घूमती रोचक कहानी है मराठी-द.व.मोकाशी की कहानी- मुझ पर कहानी लिखो- एक लड़की की जिन्दगी में उम्र के कैसे-कैसे हालात और बदलाव आते हैं,को लेकर लिखी गई कहानी है. ब्रिटिश-हेनरी ग्राहम ग्रीन की कहानी-उल्लाहना-दो बुजुर्गों की जिन्दगी के हालत और उनकी बिंधी इच्छाओं को उजागर करती कहानी है, तथा कश्मीर-की हमरा खलीफ़ की कहानी-उमदा नसीहत, अंग्रेजी--अरुणा जेठवानी की-कहानी “कोख”, पंजाबी -रेणू बहल की कहानी- द्रोपदी जाग उठी, पंजाबी-, बलूच-लेखिका- डा.नइमत गुलदी की कहानी-क्या यही जिन्दगी है, रुसी-मेक्सिम गोर्की की कहानी-महबूब, ऊर्दू-..दीपक बुदकी की कहानी-सराबों का सफ़र, पश्तु- अली दोस्त क्लूच की कहानी-तारीक राहें, कुल जमा ये लाजवाब कहानियाँ हें, कहानियों में शब्दों का संयोजन, लयबद्धता और भरपूर रोचकता का पुट लिए हुए है, जो पाठक को अपने रौ में बहाकर, एक ऐसे दिव्य-लोक में ले जाती हैं, जिसकी कल्पना तक हमने नहीं की होगी.
कश्मीर की हसीन वादियों में जन्में श्री दीपक बुदकी (आई.पी.एस.) सेवानिवृत्त, मेम्बर पोस्टल सर्विसिज बोर्ड, नई दिल्ली ) का कहानी संग्रह “चिनार के पंजे” सन 2005 में उर्दू में प्रकाशित हुआ जिसे चन्द्रमुखी प्रकाशन, नई दिल्ली ने सन 2011 में हिन्दी में प्रकाशित किया. आपके अब तक “अधूरे चेहरे” उर्दू तथा हिन्दी में क्रमशः 1999 तथा 2005, चिनार के पंजे ( 2005-2011) , जेबरा क्रासिंग पर खड़ा आदमी (2007), उर्दू आलोचना “असरी तहरीरें (2006) तथा असरी श’अर (2008) में प्रकाशित हुए . आपने कश्मीर समस्या का उद्भव एवं अनुच्छॆद 370-एन.डी.सी. को प्रस्तुत किया गया शोध-प्रबन्ध प्रकाशित हो चुका है. आपको अनेकानेक संस्थाओं ने सम्मानीत-पुरस्कृत किया है. मुझे इस बात पर फ़क्र है कि मैंने “चिनार के पंजे” तथा “अधूरे चेहरे” पर समीक्षा आलेख लिखा था. ऊर्दू में आपकी एक कहानी-सराबों का सफ़र” का चुनाव नागरानी जी के किया है. उन्हें साधुवाद.
सुश्री देवी नागरानी जी के इस दुर्घष प्रयास को, जिसे जिद कहें तो ज्यादा उचित होगा कि चाहे जितनी शारीरिक,मानसिक थकान का सामना करना पड़े, चाहे जितना श्रम करना पड़े, वे हर हाल में विश्व की श्रेष्ठ कही जाने वाली कहानियों का हिन्दी में अनुवाद करेंगी. यह उनकी जिद का ही परिणाम है कि हमें एक-से बढ़कर-एक कहानियाँ पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. उन्हें हृदय से आभार-साधुवाद. साधुवाद इसलिए भी कि उन्होंने हिन्दी के खजाने को अक्षुण्य बनाने में बड़ी भूमिका का निर्वहन किया है. उनके इस अथक प्रयास को र्रेखांकित करते हुए ”येरोस्लाव सइफ़र्न” की कविता बरबस ही मुझे याद हो आयी. वे लिखती हैं..
फ़िर एक फ़ूलदान में मैंने एक गुलाब लगाया एक मोमबत्ती जलाई और अपनी पहली कविताएं लिखना शुरु किया “जागो मेरे शब्दों की लपट ऊपर उठो ! “ चाहें जल जाएं मेरी उँगलियाँ
आपको एक बार फ़िर ,आपकी लगन, मेहनत और उस जिद को प्रणाम. साधुवाद ,जिसके चलते. लगभग समूचा विश्व इस संग्रह में समा पाया.
कहानी संग्रह –“प्रांत-प्रांत की कहानीयां” में प्रकाशित सभी कहानियों को हृदयंगम करते हुए मैंने महसूस किया है कि जो दुःख-दर्द, आशा-निराशा, स्मृतियाँ-विस्मृतियाँ, विडम्बनाएँ, कौतुहल, पाखण्ड, छल-छलावा-कपट तथा धुर्धताओं ने लगभग समूचे विश्व को बलात घेर रखा है. कहीं खाने को रोटी नसीब नहीं है, तो कहीं बेहजमी से आदमी मर रहा है. भारत हो या फ़िर विश्व का कोई भी देश, सभी में एक से हालात हैं. कोई भी देश इससे अछूत नहीं है. कहानियों के पात्र और स्थान भले ही अलग-अलग हों,लेकिन वास्तविकताएँ लगभग एक जैसी ही होती है. शायद यही कारण था कि मुझे बार-बार निदा फ़ाजली साहब की गजल याद हो आती है. वे लिखते हैं
इन्सान में हैवान, यहाँ भी हैं वहाँ भी,*अल्लाह निगहबान यहाँ भी है, वहाँ भी है खूँखार दरिंदों के फ़कत नाम अलग है*शहरों में बयाबान, यहाँ भी है, वहाँ भी है रहमान की कुदरत हो,या भगवान की मूरत,* हर खेल का मैदान,यहाँ भी है वहाँ भी हिंदू भी मजे में है, मुस्लमां भी मजे में है,* इन्सान परेशान,यहाँ भी है, वहाँ भी है उठता है दिलोजां से धुआँ दोनों तरफ़ ही* ये मीर का दीवान,यहाँ भी है,वहाँ भी है.
संसार मे व्याप्त पशुता के विरुद्ध लोग उठ खडे नहीं होते, ऐसा नहीं है. मनुष्यता को बचाए रखने की रचनात्मक कोशिशें आदि काल से होती रही हैं. मनुष्य विरोधी विचार हर काल में नये-नये रूपों में उभरते रहे हैं. रचनाकार भी उसी के अनुरूप समाज में मानवीयता बचाए रखने की पहल बराबर करते रहे हैं.
फ़िर छिड़ी बात में “विश्वा”पत्रिका-(अमेरिका) के संपादक श्री रमेश जोशी जी का वक्तव्य यहां प्रासंगिक है कि भारत जैसे बहुभाषी देश में अनुवाद का महत्व तो रहेगा ही. इतनी भाषाओं में मूलरुप से सब कुछ पढ़ पाना तो किसी राहुल सांस्कृत्त्यान के वश का भी नहीं है. इसलिए अनुवाद का महत्व तो रहेगा ही. यदि अनुवाद का काम नहीं होता तो, दुनिया बहुत से ज्ञान से वंचित हो जाती.
चण्डीगढ़ की डा.रेणुका बहल जी एवं ह्युस्टन अमेरिका की डा.कविता वाचक्नवी जी ने काफ़ी रोचकता के साथ इस संग्रह पर समीक्षा आलेख लिखें है, जो इस पुस्तक में दर्ज है. उन्हें साधुवाद.बधाइयां. सुश्री देवी नागरानी जी—“देश की महकती एकात्मकता” शीर्षक से अपनी मन की बात को रेखांकित करते हुए लिखती है-“मानव का संबंध मानव से, भाषा का संबंध भाषा से है. एक भाषा में कही व लिखी बात अनुवाद के माध्यम से दूसरी भाषा में अभिव्यक्त करके, हिन्दी भाषा के सूत्र में बांधते हुए शब्दों के माध्यम से भावनात्मक संदेश, पाठकों तक पहुँचाना ही इस अनुवाद की प्राथमिकता है.
सच है. मनुष्य प्रकृति का ही तो एक अंग है. वह न होता तो शायद ही प्रकृति बन पाती. प्रकृति में शामिल मानव चेतना-संपन्न है...आत्म-सजग है. इसी आत्मचेतना और सजगता के सम्मिश्रण से देवी नागरानी जी ने, अलग-अलग देशों की विभिन्न भाषाओ के मध्य, एक सेतु निर्माण का उल्लेखनीय काम किया है. एक ऐसा सेतु जो एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य के बीच परस्पर संप्रेषण और सौहार्द का माध्यम बनता है. अपने छोटे-छोटे निजी दुःखों के बीच रहते हुए देश-देशांतर की कहानियों का सफ़रनामा लिखने को उत्सुक देवी जी की कहानियों में, उनका आत्मगत संसार बार-बार व्यक्त होता है. असंभव की संभावनाओं के इस दौर में उन्होंने काफ़ी कुछ हिन्दी साहित्य को दिया है, जो एक नयी समझ-नयी प्रेरणा और नए-उत्साह और नयी आशाओं से भर देता है. सुश्री देवी नागरानी जी की जितनी भी प्रशंशा की जाए, कम ही प्रतीत होगी. हिन्दी भवन भोपाल के मंत्री-संचालक मान. श्री कैलाशचन्द्र पंत जी एवं मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, जिला इकाई छिन्दवाड़ा (म.प्र.) की ओर से उन्हें हिन्दी भाषा के प्रति अगाध प्रेम रखने के लिए साधुवाद-शुभकामनाएं और अनेकानेक बधाइयां
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गोवर्धन यादव
103, कावेरी नगर,छिन्दवाड़ा (म.प्र.)
अध्यक्ष मप्र.राष्ट्रभाषा प्रचार समिति E.mail-goverdhanyadav44@gmail.com जिला इकाई,छिन्दवाड़ा (म.प्र.)-480001
जी...नमस्कार रवि जी.
जवाब देंहटाएंसमीक्षा आलेख प्रकाशन के लिए आत्मीय धन्यवाद
गोवर्धन यादव