भारतीय संविधान में जनजातीय अस्मिता (राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी 18 फरवरी 2020) - विश्व मानवता का सजग प्रहरी : मानवाधिकार :- वर्तमान युग मानवाधिक...
भारतीय संविधान में जनजातीय अस्मिता (राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी 18 फरवरी 2020)
- विश्व मानवता का सजग प्रहरी : मानवाधिकार :-
वर्तमान युग मानवाधिकारों का युग है। किसी भी सभ्य समाज में मानवाधिकारों का निर्विवाद महत्व है। मानवाधिकार मानवीय आवश्यकताओं से ओत-प्रोत मानवीय गरिमा की स्थापना का एक उपकरण एवं साधन मात्र है। मानवाधिकारों की मूल संकल्पना आधुनिक विश्व के लिए आरंभ से ही महत्वपूर्ण रही है। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय मानवीय अधिकारों पर जो कुठाराघात हुआ उसके कारण यह अनुभव किया गया कि भविष्य में मानवीय अधिकारों की रक्षा के लिए ठोस व्यवस्था की जानी चाहिए। संयुक्त राष्ट्र-संघ ने 10 दिसम्बर 1948 को मानवाधिकारों का सार्वभौंम घोषणा-पत्र जारी किया। उसमें मानवाधिकारों के संबंध में 30 धाराएं हैं, जिनमें सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक अधिकारों का विस्तृत उल्लेख किया गया है।
न्यायपूर्ण समाज उस उपवन के समान है, जिसमें अधिकार रूपी फूल खिलते हैं। संविधान उस माली की भूमिका निभाता है, जिस पर उस पर उपवन और पुष्प दोनों की जिम्मेदारी है। अधिकारों का स्वरूप समय, परिस्थिति और देशकाल के अनुसार परिवर्तित होता रहा है, लेकिन मनुष्य-मनुष्य है, दुनिया में किसी भी नस्ल या लिंग का होने से किसी भी जाति या धर्म को मानने से उसका मनुष्यत्व उसकी मानवीयता प्रभावित नहीं होनी चाहिए। यही दर्शन है, मानव अधिकारों का। पारिभाषिक रूप में मानवाधिकार से तात्पर्य व्यक्ति के उन नैसर्गिक अधिकारों से है, जिनके बिना वह मानव के रूप में अपना जीवन यापन नहीं कर सकता और अपने मानवीय गुणों जैसे-बुद्धि, विवेक, अंतरात्मा इत्यादि का पर्याप्त विकास नहीं कर सकता। मानवीय गौरव और प्रतिष्ठा के लिए मानव अधिकार अपरिहार्य हैं और इन्हीं में मानवीय जीवन स्तर की उन्नति और सामाजिक प्रगति का रहस्य छिपा हुआ है। मानव जाति का इतिहास स्वतंत्रता समानता और न्याय का नहीं, अपितु इनकी प्राप्ति के लिए अधिकारों की लड़ाई लड़ी है, स्थितियों में आंशिक परिवर्तन भी हुआ, शताब्दियों बीत गई, लेकिन मंजिल अभी दूर है। साहित्य विज्ञान, अंतरिक्ष में अपने झण्डे गाड़ने वाली मानव जाति को मानव अधिकारों के क्षेत्र में अभी बहुत कुछ करना बाकी है। इंग्लैण्ड के मैग्नाकार्टा, फ्रांसीसी क्रांति, अमेरिकी स्वतंत्रता का घोषणा-पत्र ये मात्र राजनीतिक दस्तावेज नहीं है, अपितु मानव अधिकारों के क्षेत्र में मील के पत्थर है। इसी प्रकार से भारतीय संविधान वह प्रकाश स्तंभ है, जिसकी रोशनी तले करोड़ों भारतीयों ने मानव अधिकारों के माध्यम से सामाजिक न्याय स्थापित करने की अपनी यात्रा वास्तविक अर्थों में प्रारंभ की।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में समाज हो या संविधान, उसकी जड़े अतीत में ही पायी जाती हैं और वर्तमान को भलीभाँति समझने के लिये अतीत की पड़ताल करना लाभप्रद ही रहता है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति को बहुआयामी, बहुरंगी मानते हुए उसे एकता में अनेकता के विशेषण से नवाजा गया है, पर इन सबका आधार है, सह अस्तित्व। मानव अधिकारों के लिए इससे अधिक प्रेरणादायक आधार और क्या हो सकता है। भारत के प्राचीन इतिहास में मानव अधिकारों के बीज छुपे हुए हैं उदाहरण के लिए चार्वाक द्वारा स्थापित लोकायत-दर्शन के अनुसार जब सभी लोगों के शरीर मुख तथा सभी अंग एक जैसे ही है तो फिर वर्ण और जाति भेद कैसा ? इस प्रकार के भेद अवैज्ञानिक हैं और इन्हें सही नहीं ठहराया जा सकता। इसी प्रकार बौद्ध-धर्म समाज के पद दलित लोगों के समर्थन में आगे आया और इसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान था पंथ निरपेक्ष शिक्षा का प्रारंभ तथा प्रसार सभी के लियें शिक्षा संगठित विश्वविद्यालयों की स्थापना बौद्ध-धर्म के सीधे प्रभाव में हुई जैन-धर्म ने न केवल पद-दलितों अपितु पशुओं और वृक्षों के भी जीने के अधिकार को भी मान्यता दी। अशोक शायद पहला ऐसा शासक था, जिसने एक पूर्णतः युद्ध विरोधी दृष्टिकोण का विकास किया। उन्होंने युद्ध के साथ-साथ युद्ध की मनोवृत्ति को त्यागने पर भी जोर दिया। सम्राट अशोक का 13 वां शिलालेख जिसमें उसने युद्ध को विजय तथा गौरव का प्रतीक नहीं अपितु दुख व मानवीय कष्टों का स्रोत माना है, अत्यंत मानवाधिकार पूर्ण दस्तावेज है। धार्मिक सहिष्णुता तथा सभी मनुष्यों के भाई-चारे को बढ़ावा देने के संदर्भ में अकबर का नाम भी उल्लेखनीय है। दासों की खरीद-फरोख्त पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाना और सभी धर्मों को बराबरी से आजादी देना, उसके बड़े क्रांतिकारी मानवतावादी कदम थे। आगे चलकर कबीर, रैदास, और संत गुरू घासीदास जी ने इंसानी बराबरी को अत्यधिक महत्व दिया और जाति, धर्म तथा धन पर आधारित असमानता की निंदा की। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि प्राचीन भारतीय परम्परा में ऐसा बहुत कुछ है, जिसमें मानव के प्रति बहुत कुछ बुनियादी चिंता विद्यमान है। क्या यही चिंता मानवाधिकारों का सार तत्व नहीं है ?
मानवाधिकार का विषय किसी एक देश तक सीमित नहीं है। विश्व के अगड़े-पिछड़े सभी राष्ट्रों में सामान्य जन की अपनी-अपनी समस्यायें हैं, जिनके सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक कारण अलग-अलग है। ये समस्याएं तब ज्यादा गंभीर हो जाती हैं, जब यह दो देशों के बीच का मुद्दा बन जाती है। जैसे युद्धों में सामान्यजन के विस्थापन की स्थिति प्राकृतिक आपदाओं में सर्वाधिक पिसता सामान्य जन आदि। यहां वे विसंगतियां दृष्टव्य हैं, जिनके कारण सृष्टि में समान रूप से जन्मा होने के बावजूद मनुष्य-मनुष्य के बीच में शोषण और प्रताड़ना का चक्र चलता है। मानवाधिकार अर्थात् मनुष्य होने के कारण प्राकृतिक रूप से सभी समानधर्मी हैं, प्रकृति ने सभी को समान तथा स्वतंत्र बनाया है। मानवाधिकार उन्हीं प्रकृति प्रदत्त मूल्यों की रक्षा करता है। इसीलिए मानवाधिकार घोषणा-पत्र की यह विशेषता रही है कि वह किसी एक देश के लिए किसी समुदाय विशेष या वर्ग विशेष के लिए नहीं था। यह पूरे विश्व के सामान्यजन के लिए था, विशेष रूप से उस जन के लिए था, जो कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में चल रहे शोषण तंत्र का शिकार था। इसका प्रमाण 1948 के घोषणा-पत्र में उल्लेखित 30 अनुच्छेदों का अवलोकन करने से हो जाता है। जिनमें इस बात को प्राथमिकता दी गई कि मनुष्य मात्र में सहभातृत्व-भाव बिना किसी लिंग, जाति, वर्ण, भाषा, राष्ट्र आदि के भेद के होना चाहिए। एक दूसरे को प्रताड़ित किए बगैर सभी को स्वतंत्रतापूर्वक, सुरक्षा के साथ जीने का अधिकार है। कानून सबके लिए समान है तथा कानूनी सहायता का अधिकार सभी को है। सभी को विचारों की अभिव्यक्ति, शिक्षा, संस्कृति, कला, विज्ञान आदि क्षेत्रों में भाग लेने का अधिकार है। कार्य करने का अधिकार है और समान कार्य के लिए समान पारिश्रमिक पाने का अधिकार है। यहां तक कि मानवाधिकार के अन्तर्गत व्यक्ति की निजता को भी सुरक्षित रखा गया है। इसलिए विवाह-संस्था में यह स्वतंत्रता दी गई है कि बिना किसी जाति, धर्म, रंग सम्प्रदाय या राष्ट्र के बंधन के कोई भी कहीं भी किसी से विवाह करने तथा परिवार बनाने के लिए स्वतंत्र है।
स्ंविधान हर देश और राज्य के लिए अनिवार्य है। बिना संविधान के सुव्यवस्थित शासन-व्यवस्था या समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। यहां हमारा विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या भारतीय संविधान भारतीयों के लिए मानव अधिकारों की व्यवस्था करता है ? क्या वह सामाजिक न्याय की स्थापना करने में सहायक है ? वे व्यवस्थाएं कौन सी हैं ? जो नागरिकों को गरिमा के साथ जीने का अवसर देती है ? उपरोक्त सभी प्रश्नों का उत्तर में हम कह सकते हैं-हां पूर्णतः हैं।
सर्वप्रथम हम देखें भारतीय संविधान की प्रस्तावना को, जो इस प्रकार से है-‘‘हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके सब नागरिकों को सामाजिक आर्थिक व राजनैतिक न्याय, विचार रखने व प्रकट करने, विश्वास धर्म की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा व अवसर की समता प्राप्त कराने तथा उन सब में व्यक्ति का मान और राष्ट्र की एकता निश्चित करने वाली बंधुता को बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में इसे संविधान को अंगीकृत करते हैं। प्रस्तावना में बहुत ही भव्य और उदात्त शब्दों का प्रयोग हुआ है। ये शब्द उन सभी उच्चतम मूल्यों को साकार करते हैं, जिनकी प्रकल्पना मानव बुद्धि, कौशल तथा अनुभव अभी तक कर पाये हैं, इन्हें मानव अधिकारों और सामाजिक न्याय का जयघोष करना भी अतिशयोक्ति होगी। एक-एक शब्द उन करोड़ों भारतीयों की आकांक्षाओं का प्रतीक है, जिनके अनुसार आजादी का अर्थ है, भूख से आज़ादी शोषण से मुक्ति मानवोचित परिस्थितियों की उपलब्धता और विकास के भरपूर अवसर। आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर सर अर्नेस्ट बर्कर ने अपने शोध ग्रंथ के प्राक्कथन में इसे उदृत करते हुए कहा है-‘‘जब मैंने इसे पढ़ा, तो मुझे ऐसा लगा कि मैंने अपनी सारी पुस्तक में जो कुछ कहने का प्रयास किया है, वह इसमें बहुत थोड़े से शब्दों में रख दिया है और इसे मेरी पुस्तक का मूल स्वर माना जा सकता है।
1.संविधान की प्रस्तावना स्पष्ट रूप से घोषणा करती है कि-भारतीय अब उपनिवेशित प्रजा नहीं रह गये हैं, वे अब भारत के नागरिक की हैसियत से एक संप्रभु राष्ट्र के स्वतंत्र और समान सदस्य हो गये हैं।
2.जाति और सामंतवाद के दमनकारी ढा़ंचों के भीतर जीवन व्यतीत करने वाले बहुसंख्यक भारतीयों को अब सम्मानजनक ढ़ग से जीने का अवसर मिलेगा।
भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति एमहिदायतुल्लाह के अनुसार-‘‘भारत देश के संविधान को प्रस्तावना संयुक्त राज्य अमेरिका की घोषणा से मिलती जुलती है, परंतु वास्तव में वह उससे भी अधिक है। यह हमारे संविधान की आत्मा है और एक ऐसे राजनीतिक समाज का नमूना निर्धारित करती है, जिसका आधार सामाजिक न्याय होगा। भारतीय संविधान एक लोकतंत्रात्मक शासन-व्यवस्था की ही स्थापना नहीं करता, अपितु आर्थिक व सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना के लिये भी प्रयास करता है। पं. नेहरू के शब्दों में राजनीतिक लोकतंत्र अपने आप में पर्याप्त नहीं है, जब तक कि इसका प्रयोग धीरे-धीरे आर्थिक लोकतंत्र की बढ़ोत्तरी करने, समानता की स्थापना और दूसरों के जीवन को अच्छा बनाने वाली बातों का प्रसार और घोर आर्थिक विषमता को दूर करने के लिए न किया जाये। निष्कर्ष रूप में भारतीय संविधान की प्रस्तावना महात्मा गांधी के उच्च आदर्शों का क्रियान्वयन है, जिसके अनुसार उन्होंने कहा था-‘‘ मैं ऐसा भारत चाहता हूं जिससे निर्धन भी यह महसूस करेंगे कि यह उनका देश है और इसके निर्माण में उनकी प्रभावशाली आवाज है, जिसमें सभी समुदाय पूर्ण मेल-जोल से रहेंगे, जहां छुआ-छूत नहीं होगी, जिसमें नारियों को भी वही अधिकार मिलेंगे, जो कि पुरूषों को मिले हुए हैं। सामाजिक न्याय की स्थापना का यही आदर्श भारतीय संविधान की प्रस्तावना को विशिष्ट बनाता है।’’
उपर्युक्त समग्र तथ्यों से स्पष्ट होता है कि-‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ वाली भारतीय संस्कृति पर्याप्त मानवतावादी है। संविधान निर्माताओं ने पूर्ण ईमानदारी से प्रत्येक भारतीय नागरिक को मानवाधिकार एवं सामाजिक न्याय मिले, इस बात की कोशिश की है। उनकी कोशिशें कितनी सफल हुईं है ये अलग चिंतन का विषय है। स्वतंत्रता के पश्चात् मानवाधिकार के क्षेत्र में मानवाधिकार आयोग व अन्य संस्थानों के माध्यम से काफी काम हुआ है। न्यायपालिका की सक्रियता व भूमिका भी प्रशंसनीय है। नीति निर्देशक सिद्धांतों को लागू करने के लिये भी पर्याप्त नीति निर्माण हुआ है। बावजूद इसके ये यक्ष प्रश्न अभी भी खड़ा हुआ है। कि क्या हम इस देश में सामाजिक न्याय स्थापित कर पायें, क्या आम आदमी को मानवाधिकारों की प्राप्ति हो रही है ?
हर शिक्षित जागरूक व्यक्ति को यह बात स्वीकार करनी होगी कि आंकड़े इसके विपरीत कहानी कह रहे हैं, आज दलित, शोषित पीड़ित, आदिवासी और पिछड़ों के अलावा कन्या भ्रूण हत्या के परिणाम स्वरूप घटती कन्याएं, महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसा करोड़ों बच्चों का प्राथमिक शिक्षा से वंचित रहना, छोटे-छोटे बच्चों का खानों-खदानों में काम करना, भूख से मौतें आतंकवाद की बढ़ती घटनाएं मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं, तो और क्या ? सामाजिक न्याय इसे तो नहीं कहते। चूक कहां हो रही है, नियम कानून पर्याप्त हैं, निसंदेह क्रियान्वयन में गड़बड़ी है, जागरूकता का अभाव है, अधिकारों के लिए लड़ने वालों की कमी है, जनसंगठन कमजोर पड़ गये हैं, इन कमियों को दूर करना हम सबकी प्राथमिक, नैतिक, मानवीय जिम्मेदारी है।
कुल मिलाकर अधिकार सामाजिक जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है। अधिकार के बिना व्यक्ति न तो अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है और न ही समाज का विकास करने में सक्षम होता है। किसी देश या राज्य का प्रमुख सर्वोत्तम लक्ष्य होता है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करना। यह दायित्व उस राज्य या राष्ट्र की सरकार सदभावना पूर्ण ढ़ंग से देश की सारी जनता का ख्याल रखते हुए संवैधानिक अधिकारों का सही क्रियान्वयन करते हुए समाज के सभी वर्गों का समुचित ध्यान में रखते हुए सभी को बिना किसी भेद-भाव के सबका समग्र विकास करना सरकार का प्रमुख कर्तव्य होता है। क्योंकि हमारा भारतीय संविधान भारत के हर नागरिक को समान अधिकार प्रदान करता है। मानवाधिकार की रक्षा करने में सक्षम है।
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डॉ.रामायणप्रसाद टण्डन (सतनामी)
प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष हिन्दी
(एम.ए.एम.फिल.पी-एच.डी हिन्दी)
शास.इ.के.स्नातकोत्तर कन्या महाविद्यालय कांकेर
जिला-उत्तर बस्तर कांकेर छत्तीसगढ) पिन-494334
email- ramayantandon9@gmail.com
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