समीक्षा-पीठिका: “अकेले की नाव अकेले की ओर” - शेषनाथ प्रसाद

SHARE:

समीक्षा-पीठिका: “ अकेले की नाव अकेले की ओर ” पहले मेरा विचार था कि अपने इस काव्य-संगुम्फन की समीक्षा मैं स्वयँ लिखूँ. क्योंकि पत्रिकाओं में ...

समीक्षा-पीठिका:

अकेले की नाव अकेले की ओर

पहले मेरा विचार था कि अपने इस काव्य-संगुम्फन की समीक्षा मैं स्वयँ लिखूँ. क्योंकि पत्रिकाओं में प्रकाशित नयी कृतियों की जो समीक्षाएँ पढ़ने को मिलती हैं वे मुझे संतोष नहीं देतीं. लेकिन फिर मैंने अपना विचार बदल दिया. मुझे लगा, कदाचित ऐसा करना उचित नहीं होगा. इस तरह मैं अपनी कृति की कमजोरियों से रूबरू नहीं हो सकूँगा. हालाँकि मैं चाहता हूँ कि इसे पाठकों के सामने कुछ इस तरह प्रस्तुत किया जाए कि यह उनके बोध में सरलता से उतर जाए.

मैं इसकी एक सुगम प्रस्तुति के तरीके की तलाश में था. एक दिन दैनिक हिंदुस्तान’ के दिसम्बर, २०१९ के शुरू के एक रविवासरीय में कवि अजित कुमार (हरिवंश राय बच्चन के शिष्य, जो बाद में ओशो के भी शिष्य हो गए) की स्मरणिका मुझे पढ़ने को मिली. उसमें यह जिक्र था कि ‘बच्चन’ जी सुमित्रानंदन पन्त के महाकाव्य ‘लोकायतन’ के मर्म को समझने के लिए उनके संपर्क में थे. वह लोकायतन के कुछ पृष्ठों को पढ़ कर और अपनी समझ से उसकी व्याख्या कर ‘पन्त’ जी को भेजते थे और ‘पन्त’ जी उन पंक्तियों में निहित अपने मंतव्य से उन्हें अवगत कराते थे. अजित जी ने उन पत्रावलियों को उलट पुलट कर देखा और ‘बच्चन’ जी से आग्रह किया कि क्यों न वे लोकायतन की एक ‘पीठिका’ लिख दें जिससे अन्य पाठक भी उसका लाभ उठा सकें.

यह ‘पीठिका’ पद मुझे बहुत मत्वपूर्ण लगा. इसके अर्थ में गहरे उतरा तो मन में कुछ कौंध गया. मुझे याद आया कि संस्कृत काव्यों को लोक के सहृदयों से जोड़ने के लिए उनकी ‘टीकाएँ’ लिखी जाती थीं. मुझे इस पीठिका में कुछ टीका जैसी ही अर्थ-व्यंजना भासित हुई. ‘टीका’ में कृति और कृतिकार दोनों को समझने पर जोर रहता है. टीकाकार पाठकों को समझाने के लिए उनके विभिन्न सन्दर्भों का उल्लेख करते थे. उसमें उन्हें यदि किसी अर्थ-क्रांति की भनक मिलती थी तो वे उस ओर भी ईशारा कर देते थे. मेरे मन में आया कि क्यों न मेरे संगुम्फन की भी एक ऐसी ही एक पीठिका हो, क्योंकि सन्दर्भ, शैली, काव्य-प्रबंधन और भाव-भूमि में यह प्रचलित काव्य-लीकों से एकदम हटकर है और नया है. कुछ पाठकों को यह दुरूह भी लग सकता है. अत: मैं चाहता था कि यह ‘पीठिका’ उलझन पैदा करने वाली प्रचलित समीक्षा-लीकों से हटकर हो और आज के आग्रही, तकनीक-प्रसूत मष्तिष्कों को तनावमुक्त करने में सहयोगी हो सके. मैंने अनुशेष से अपनी इस मंशा की चर्चा की. वह मेरे आत्मीय हैं. मैंने उनसे आग्रह किया कि मेरे संगुम्फन के लिए वह सरल-सी एक पीठिका लिख दें. मेरे अनुरोध को उन्होंने स्वीकार तो कर लिया पर इस संबंध में मुझसे अनेक प्रश्न कर डाले-

“अमूमन जीवित महापुरुषों पर छिटफुट लेख ही लिखे जाते हैं, काव्य या महाकाव्य नहीं लिखे जाते. क्योंकि उनके कई अनछुए प्रसंग (विचार परिवर्तन तक) भविष्य के गर्भ में होते है. महात्मा गाँधी को ही ले लें. उनकी आत्मकथा के बाद उनके जीवन में इतना कुछ घटा कि उनपर महाकाव्य उनके मरणोपरांत ही लिखा जा सकता था. पर आपने ऐसी हिम्मत की है. इस संगुम्फन में आपने उन्हें एक सम्पूर्ण पुरुष के रूप में चित्रित किया है. उनमें ऐसा क्या देखा आपने.”. मैंने कहा, “आप और मैं उनके आरंभिक प्रवचन-काल से ही उनके प्रवचन-संपर्क में रहे है. आपने उनके देहांतरण तक कभी ऐसा कुछ महसूस किया कि वे अपने प्रवचनों में आद्यंत अपने मूल प्रयोजन से विचलित हुए हों? मुझे तो ऐसा कभी महसूस नहीं हुआ. उन्होंने अपने सभी प्रवचनों में चेतना के ठहरे प्रवाह की जड़ता को तोड़ने की कोशिश की है. उनका एक ही सन्देश है – ध्यान में होओ. मैंने उनमें एक और बात महसूस की. “अंधा युग” में धर्मवीर भारती ने अनुभव किया है कि “एकमात्र प्रभु (कृष्ण) ही हैं पूरे महाभारत में, जो जीवन से भरे हैं और उन्मुक्त साहस से युक्त हैं.” मैं भी अनुभव करता हूँ कि समूची बीसवीं सदी में एक मात्र ओशो ही हैं जो जीवन से प्रेम करने वाले, निर्भीक और पुंजीभूत साहस हैं. उनके विचारों की अग्नि के सामने अमरीकी विध्वंसक आयुध भी फीके पड़ गए.” मेरे अनुभव में ओशो एक परिपूर्ण मनुष्य हैं, तुलसी ने राम के होने के हजारों साल बाद ‘विनय पत्रिका’ लिखी और राम तक उसे पहुँचने के लिए की दांव पेंच का सहारा लिया. लेकिन यह कृति उनके जीवन और देहांतर के संधि कल में लिखी गई है. मैं बिना किसी दांव पेंच के युगानुरूप प्रवृत्ति के अनुसार ओशो की चेतना तक पहुँचने के प्रयास में लग गया हूँ. पता नहीं इसका परिणाम उनके चिद्संपेक तक ही रह पाएगा या उन-सा हो रहने में, इसकी मुझे चिंता नहीं.

अनुशेष का आलेख:

मैंने महसूस किया कि इस ‘पीठिका’ पद में निश्चित ही संस्कृत की टीका-पद्धति की ध्वनि घुली है. लेकिन यह पीठिका वर्तमान समय में लिखी जानी है. अत: इसमें वर्तमान समीक्षा-प्रणाली का तो समावेश होना चाहिए,

हम पाते हैं कि संस्कृत-काव्यों की टीका लिखते समय उसके सटीक अर्थों तक पहुँचने के लिए टीकाकार अन्वय प्रणाली का उपयोग करते थे. क्योंकि संस्कृत एक योगात्मक भाषा है. इसके वाक्य-विन्यास में क्रिया और कारकीय शब्दों के स्थान निश्चित नहीं है. इसमें इनकी पहचान कर शब्दों में मेल बिठाया जाता है, फिर अर्थ किया जाता है. टीकाकारों को कुछ चिंतनों से भी गुजरना होता है. हिंदी में भी कवितार्थ के लिए यह अन्वय पद्धति अपनाई जाती है. पर चूँकि हिंदी एक वियोगात्मक भाषा है अतः यहाँ विराम चिह्नों के स्थान बदल कर या कर्ता और कारक शब्दों को उनके चिह्नों के साथ रख कर शब्दों में मेल (अन्वय) बिठाया जाता है. यहाँ चिंतन प्रक्रिया से गुजरे बिना भी अर्थ कर लिया जाता है. मुक्तिबोध पर लिखी समीक्षाओं में यह स्पष्ट देखने को मिलता है. अपनी लंबी कविता “अँधेरे में” में मुक्तिबोध जिस ‘अभिव्यक्ति’ की खोज में हैं, समीक्षक नामवर सिंह अपने समीक्षा ग्रन्थ ‘‘कविता के नए प्रतिमान’’ में उनकी अभिव्यक्ति की खोज को उनकी अपनी अस्मिता की खोज मान लिए हैं. हालाँकि कवि ने संदर्भित कविता में खुद ही ‘अभिव्यक्ति’ को ‘आत्म्संभवा’ कहा है, पर उन्होंने इस ‘‘आत्मसम्भवा’ पद पर ध्यान नहीं दिया, इस तथ्य पर भी विचार नहीं किया कि ‘अभिव्यक्ति’ और ‘अस्मिता’ के अर्थ में भिन्नता है, अभिव्यक्ति तो आत्मसंभवा हो सकती है पर अस्मिता आत्म्सम्भावा कैसे हो सकती है? यह समझ से परे है. लगता है सिंह इसपर बिना चिंतन किए ही समीक्षा में अपनी वरिष्ठता की झोंक में यह लिख गए हैं. अपने साथियों के अनुरोध पर केवल सत्ताईस दिन में उन्होंने यह समीक्षा-ग्रन्थ लिख डाली थी (लहर पत्रिका, मध्य प्रदेश). आज की हिंदी समीक्षा को इसका फल भुगतना पड़ रहा है.

संगुम्फन की पीठिका:

कवि ने अपनी अभीप्सित पीठिका की एक रूपरेखा भी मेरे सामने रखी थी. आवश्यकता के अनुसार उस रूपरेखा में कुछ फेरबदल कर मैं इस संगुम्फन की पीठिका लिखने का प्रयास कर रहा हूँ.

पीठिका का मेरे मन में यही अर्थ उद्भासित है कि इस संगुम्फन का एक ऐसा अर्थ-आधार प्रस्तुत किया जाए जिसमें कवि के सोच-सन्दर्भ के साथ उसका भावविस्तार और अर्थ अपने सौंदर्य के साथ सरलता से पाठकों के मन में उतर जाए. हालाँकि पाठक अपनी समझ के अनुसार अपना अर्थ-आधार तय करने के लिए स्वतंत्र हैं क्योंकि युग का बदलता परिप्रेक्ष्य समझ को प्रभावित करता है. आधुनिक युग से पूर्व, काव्य राजाओं के संरक्षण में लिखे जाते थे. सुनने-पढ़ने वाले भी प्रबुद्ध वर्ग के ही होते थे. लोकजन तक उनकी पहुँच बनाने के लिए उनकी टीकाएँ लिखी जाती थीं. इस ‘पीठिका’ के प्रस्तुत करने से रचनाकार का भी कदाचित यही आशय है.

‘पीठिका’ का आरंभ मैं कवि के परिचय से कर रहा हूँ क्योंकि इन कविताओं के प्रत्येक लोम (कविता-पंक्तियों) में कवि का ह्रदय अन्तर्ध्वनित है, ऐसा मेरा मानना है.

कवि परिचय.: इस संगुम्फन के रचयिता कवि शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव हैं. यह एक सामान्य किन्तु प्रतिष्ठित परिवार से आते हैं. इनके परिवार का वातावरण साहित्यिक नहीं था. परिवेश ग्रामीण था. गाँव के संवेदनशील भावों में इनकी गहरी रूचि थी. जब यह छोटे थे तो ठिठुराती सुबह में सूरज को बादल की ओट में देख गाँती पहने गाँव के छोटे बच्चों को जब ये इन पंक्तियों को गाते सुनते थे-

चलनी में आटा बादर फाटा

चले गोसईंया घामे घाम

या, राम जी राम जी घाम कर¿

सुगवा सलाम कर¿

तोहरे बालकवा के जडवत होई

कंडा फूंक फूंक तापत होई

तो इनकी राग भरी अभिव्यंजक ध्वनि सुनकर उनका ह्रदय करुणा से अनुरंजित उठता था. उस सम्मिलित स्वर में यह भी अपना स्वर मिला देते थे. हाई स्कूल में उन्होंने हिंदी कवियों - सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, सुमित्रानंदन पन्त और मैथिलीशरण गुप्त को पढ़ा, अनुकरण में कविताएँ भी लिखीं. ओजस्वी भावों वाली कविताएँ इन्हें बहुत पसंद थीं. स्नातक स्तर पर उनकी इस रूचि में और विकास हुआ. अब साहित्य का मर्म जानने के प्रति उनकी उत्सुकता बढ़ी. १९६१ से १९६५ के बीच (जब यह बी.एस.सी में थे), इन्होंने बहुत सारी कविताएँ लिखीं. इन कविताओं पर पन्त और निराला की छाप साफ़ देखी जा सकती है. ये कविताएँ ‘पृश्निका’ संकलन में संकलित हैं.

उस समय का काव्य-परिदृश्य: उक्त दशक में नयी कविता की काफी चर्चा थी. धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी अग्रणी पत्रिकाएँ इन कविताओं से भरी रहती थीं. कवि को इनकी मुक्त छंद की शैली तो आकर्षक लगती थी पर इनकी भाववस्तु उन्हें उलझन में डाल देती थी. इसी दौर में एक अकविता आन्दोलन भी चला था, जिसमें प्रयोग के नाम पर कुछ कामव्यथित कवि अपने मुक्त कामाचरण को अभिव्यक्त करते थे. इस तरह की अभिव्यक्तियाँ तो रीतिकालीन कवियों को भी स्वीकार्य नहीं होती.. कुछ कवियों को कविताओं में राजनीतिक गाली गलौज को भी स्थान देने में परहेज नहीं था. कुछ अपनी कविताओं में इतने व्यक्तित्वोन्मुख थे कि उनकी लोक-अनुभूत पीड़ाओं से भरी कवितायेँ, कवि नागार्जुन की कविताओं को छोड़, लोक-हृदयों को अनुकूल संवेदनाओं से तर नहीं कर पाती थीं या कहें समानुभूति नहीं दे पाती थीं.

कवि की अभिरुचि: इस दशक के अंतिम वर्षों में कवि, रजनीश (बाद में ओशो) के प्रवचन-साहित्य के संपर्क में आए. ओशो की, किसी भी समस्या या चिंतन-परिणाम की जड़ तक पहुँचने और उसे सरलतम शब्दों में प्रस्तुत करने की शैली इन्हें बहुत भाई. उनके इन प्रवचनों की, श्रोताओं के आँसू और उनके हृदय की तरलता तक पहुँच है. इसके पूर्व यह साम्यवादी साहित्य के भी संपर्क में थे. पर साम्यवाद के निष्कर्ष उन्हें अपूर्ण और अनाकर्षक लगे. साम्यवाद का प्राण ‘द्वंद्व’ जीवन-विकास का एक सामान्य नियम अवश्य है पर यह साम्य में कैसे विकसित होगा, और यदि साम्य उपलब्ध हो भी जाए तो संसार की परिवर्तनशीलता का क्या होगा? क्या परिवर्तन होने बंद हो जाएंगे? परिवर्तन तो शाश्वत नियम है, यहाँ मार्क्स एकदम चुप हैं. उनके अनुगत तो इसपर सोचने की जहमत भी उठाने से कतराते हैं. साम्यवाद में केवल व्यवस्था के बदलने पर जोर है, प्रमुख रूप से सत्ता-व्यवस्था के. मनुष्य को आमूल बदलने में इसकी कोई रूचि नजर नहीं आती. इसमें व्यवस्था तो बदल जाती है पर मनुष्य की प्रवृत्तियों में कोई स्वाभाविक और सहज बदलाव नहीं आता. पश्चिम बंगाल में सत्तासीन हुए साम्यवाद का तो यही अनुभव है. कविता में भी यह ‘वाद’ अपने राजनीतिक उद्देश्य की ही पूर्ति करता नजर आया. राजनीति तो कविता की एक लघु अनुषंग भर ही हो सकती है.

इस संगुम्फन के कवि राजनितिक नहीं हैं. इनकी ये कविताएँ राजनीति से बहुत दूर हैं. यह पुराने मनुष्य को आमूल नया करने के लिए अपनी कविताओं को एक परिपूर्ण मनुष्य से जोड़ना चाहते थे जो पदार्थवादिता में भी आधुनिक हो और आध्यात्मिकता में भी. ओशो को पढ़ कर कवि को ऐसा ही लगा. उनकी दृष्टि में अपने समग्र आयाम में ओशो एक ऐसे ही परिपूर्ण मनुष्य हैं. कवि ने सोचा कि उन्हें संबोधित कर, उनके सृजनशील पहलुओं को ध्यान में रख कर, कविताएँ लिखी जाएँ तो हिंदी कविता को मनुष्य और उसकी चिंता के समीप लाया जा सकता है. अत: इन कविताओं में वह उनकी सृजनशीलता का आत्मीय अनुभव पाने के लिए अपने अंतर्मन की नाव पर सवार हो कर उन तक पहुँचने के प्रयास में हैं. प्रकारांतर से यह भी कहा जा सकता है कि इन कविताओं में कवि परिपूर्ण मनुष्यत़ा को आत्मसात करने की ओर अग्रसर हैं. कवि की कविताओं के केंद्र में मनुष्य, मनुष्य की संवेदनाएँ है, कवि चाहते हैं कि कविगण की दृष्टि केवल बहिर्मुख ही न हो, अंतर्मुख भी हो. वे केवल समाज के द्वंद्वों की ही पहचान न करें, उसकी ईकाई ‘व्यक्ति’ के अंतर्द्वंद्वों और उसके होने को भी पहचानें, उसकी अन्तश्चेतना के आयामों में भी विचरण करें. आखिर मनुष्य की चेतना कहाँ स्खलित हुई है कि वह आज इतना असहज और तनावग्रस्त हो गया है.

संगुम्फन के संबोध्य. संगुम्फन की प्रत्येक कविता मित्र को संबोधित है. यह मित्र कोई और नहीं स्वयं ओशो हैं. अपने उद्बोधनों में वह अक्सर कहते हैं कि उन्हें ‘मित्र’ कह कर संबोधित किया जाए. उनके न होने पर भी उनसे वर्तमान की तरह व्यवहार किया जाए. इस संगुम्फन का संबोधक मैं कवि का आत्म है. यह मैं किसी की भूमिका को अभिनीत नहीं कर रहा. कविता में उसका कथन कवि का स्वानुभूत है, उनका झेला और जिया हुआ है. कवि ने इन कविताओं को ओशो को ही समर्पित किया है. ओशो बीसवी सदी की दुनिया के सबसे प्रतिभशाली और प्रभावशाली व्यक्तियों में अन्यतम हैं. इन्होंने जो भी कहा है वह सायास नहीं कहा है, वह उनके अस्तित्व से मुखरित हुआ है, ठीक वैसे ही जैसे भगवान कृष्ण के मुख से गीता. वह गीता को विश्व-मनोविज्ञान का अनूठा ग्रन्थ और कृष्ण को विश्व- मनोविज्ञान का पिता कहते हैं. उनके संन्यासियों में प्रखर बुद्धि के बुद्धिजीवी और वैज्ञानिक हैं.

विवेकानंद ने तो धर्म को विज्ञान से जोड़ने का ही प्रयास किया. ओशो ने अपनी देशना में धर्म और

विज्ञान की साकार मूर्ति ही खड़ी कर दी-“जोरबा-द-बुद्ध” जोरबा अर्थात पदार्थगत प्रतिभा (आइन्स्टीन) और बुद्ध अर्थात आध्यात्मिक प्रतिभा (गौतम बुद्ध). उनका नया मनुष्य पदार्थ की शक्ति और अध्यात्म की शक्ति का मिला जुला रूप होगा या कहें आइन्स्टीन और गौतम बुद्ध की मिली जुली प्रतिभा वाला होगा. यहाँ ध्यान रखने योग्य है, ओशो का धर्म मार्क्स का (परिभाषित) धर्म नहीं है. ओशो का धर्म अपरिभाषेय है. उनका धर्म मनुष्य के अपने अस्तित्व को पहचानने का प्रयास है, जो ध्यान के मार्ग से ही संभव होगा. ध्यान पर किसी मत या संप्रदाय का एकाधिकार नहीं हो सकता. मनुष्य का ओशो से बड़ा पक्षधर और कौन हो सकता है. पश्चिम के चिन्तक मनुष्य के पक्षधर नहीं हैं. सार्त्र (अपने एक नाटक में) मानते हैं कि एक मनुष्य के लिए दूसरा मनुष्य नरक के समान है- “The other people is hell”. ओशो कहते हैं (सार्त्र पर एक प्रश्न के जवाब में)- “The other is not hell, the otherness is hell.” दूसरा नरक नहीं है, एक मनुष्य के मन में दूसरे के प्रति दूसरेपन के भाव का आना नारकीय है. मार्क्स के लिए मनुष्यों में मजदूर वर्ग ही महत्वपूर्ण है (दुनिया के मजदूरों एक हो). पूंजीपतियों के प्रति द्वंद्व में बने रहना उनका धर्म है, उनके मत से, इस द्वंद्व से ही साम्यवाद विकसित होगा. किन्त्तु सोवियत रूस में साम्यवाद लाने के लिए लेनिन और स्टालिन को लाखों लोगों को मौत के घाट उतारना पड़ा. जिसमें मजदूर वर्ग के लोग ही अधिक थे. रूस और चीन में साम्यवाद सत्ता के बल पर है, रूस और चीन का साम्यवाद द्वंद्व का स्वाभाविक विकास नहीं है. साम्यवाद में स्वाभाविकता का कोई मूल्य है ही नहीं.

ओशो की देशना में मनुष्य के स्वाभाविक विकास पर जोर है. उसके विकास और प्रगति में ‘मनुष्य’ ही केंद्र में है. मनुष्य के अस्तित्व (भौतिक और आत्मिक) को एक अप्रत्यक्ष सत्ता गति देती है, ओशो इस सत्ता को ब्रह्माण्डीय सृजनशीलता (cosmic creativity) कहते हैं जो अनवरत सृजनशील है. यह सृजशीलता जीवन के हर स्तर पर सक्रिय है. यह ब्रह्माण्डीय सृजनशीलता ही विश्व-उर्जा (अद्वैत) को पदार्थ और चैतन्य (द्वैत) में सृजित करती है. पदार्थ उर्जा में बदल सकता है- (आइन्स्टीन), तो उर्जा भी पदार्थ में बदल सकती है. इसीलिए उन्होंने नए मनुष्य को जोरबा-द-बुद्ध कहा है- पदार्थगत और आध्यात्मिक प्रतिभा का एकीकृत रूप. कवि की दृष्टि में ओशो परिपूर्ण मनुष्य हैं अत: मनुष्य को एक आत्मिक पहचान देने के लिए उन्होंने ओशो को संबोधित कर अपने स्फुरित भावों को काव्य-पंक्तियों में सँजोया है.

काव्य-संवेदना- प्रस्तुत संगुम्फन की कविताओं की भावस्थितियों के केंद्र में मनुष्य है, खासकर मनुष्य का व्यक्ति. और उसकी संवेदनाएँ. कवि की धारणा है कि यदि व्यक्ति का स्वस्थ विकास होगा तभी स्वस्थ समाज विकसित होगा. सभ्यता के विकास के लिए यदि समाज को इकाई माना जाए तो भी समाज को एक नेतृत्व की आवश्यकता होगी ही होगी. यह नेतृत्व किसी व्यक्ति का ही होगा जिसके अपने निजी आग्रह भी होंगे. ये निजी आग्रह यदि शक्तिशाली हों तो समाज ही उससे प्रभावित होगा, नेतृत्व समाज से प्रभावित नहीं होगा. साम्यवाद में ही इसका परिणाम देखिए. साम्यवाद के प्रवर्तन में मार्क्स का आग्रह इसके नेतृवर्ग का अधिक से अधिक एक अधिनायक होने का था लेकिन सोवियत रूस के लेनिन और स्टालिन के दृढ़ संकल्प ने इसमें दो तत्त्व और जोड़ दिए- क्रूरता और अभिव्यक्ति पर पाबन्दी. उसमें भारतीय साम्यवाद ने एक अन्य तत्त्व जोड़ा - परमुखापेक्षिता. भारत के ‘क्विट इण्डिया’ आन्दोलन में साम्यवादियों ने ब्रिटिश आधिपत्य के विरुद्ध भारत की अस्मिता का साथ नहीं दिया क्योंकि दूसरे विश्वयुद्ध में ब्रिटेन सोवियत रूस के साथ था और भारत के साम्यवादी यहाँ साम्यवाद लाने के लिए सोवियत रूस (अब केवल रूस) की ओर ताक रहे थे. ओशो की देशना में मनुष्य अपनी दुर्दशा के लिए खुद जिम्मेदार है, समाज बाद में आता है सामाजिक सरोकार के लिए. अपनी उन्नति के लिए मनुष्य को खुद उठना होता है. उसे अपनी मशाल खुद जलानी होती है और उसी की रोशनी में उसे चलना या लड़ना पड़ता है. ‘अँधेरे में’ कविता में मुक्तिबोध अकस्मात् दिख गई पराई मशाल की रोशनी की सहदीप्ति में अपनी अभिव्यक्ति खोज रहे थे. हालाँकि अभिव्यक्ति स्वयँ के व्यक्तित्व के तल से आती है, मनुष्य की सम्भवशीलता असीम है. वह अपने सभी आयामों में गति करने को स्वतंत्र है.

इस संगुम्फन की अधिकांश कविताएँ कवि ने ओशो के जीवनकाल में ही लिखीं थीं. छायावाद से लेकर प्रगति-प्रयोगवाद और नयी कविता के कवियों में कुछेक ने ही देश के युगीन महान व्यक्तित्वों के जीवनकाल में उनपर कविताएँ लिखी हैं. सुमित्रानंदन पन्त ने महात्मा गाँधी को लेकर ‘लोकायतन’ महाकाव्य उनके प्रभावकाल में लिखा. इसमें उन्होंने महात्मागाँधी को मुक्तिदूत के रूप में चित्रित किया है. महात्मा गाँधी के ठीक बाद उनसे भी महत्तर किन्तु गैर-राजनीतिक और क्रन्तिकारी व्यक्तित्व लेकर इस धरती पर ओशो का पदार्पण हुआ जिनने समूची दुनिया की प्रतिभाओं को आकर्षित किया जिनमें वैज्ञानिक प्रतिभाएँ भी है. पन्त, दिनकर, बच्चन जैनेन्द्र और अज्ञेय जैसी हिंदी की कई विशिष्ट प्रतिभाएँ भी उनकी ओर आकर्षित हुई किन्तु उन्होंने उनपर कोई रचना प्रस्तुत नहीं की. ओशो के शिष्यों में कुछ ने उनपर लिखा भी पर उन लोगों ने उसके साहित्यिक महत्व की ओर ध्यान नहीं दिया. संभवतः शेषनाथ पहले कवि हैं जिन्होंने ओशो को अपनी हिंदी-कविताओं में रेखांकित किया है और वह उनसे हिंदी-काव्य के एक सूनेपन को भर रहे हैं.

कवि इस संगुम्फन का आरंभ हिंदी कविता की चेतना-यात्रा से करते हैं. इसमें उन्होंने हिंदी कविता की चेतना-यात्रा पर एक सरसरी दृष्टि डाली है. ऐसा कर कवि ने हिंदी कविता की भावधारा (भाव-वास्तु) की विशेषताओं को समझने का प्रयास किया है. इस यात्रा में कवि ने अनुभव किया है कि हिंदी के अस्तित्व में आने के काल से इसकी कविता-धारा हिंदी कवियों के हृदय की घाटियों से होकर बहती रही है. रीति काल तक इसकी उच्छल तरंगें कवि-मन के अंतर्मुख आयाम को भिंगोती रहीं हैं पर उसके बहिर्मुख आयाम में इनकी गति नहीं के बराबर रही (मन की गति के दो आयाम हैं- अंतर्मुख और बहिर्मुख. अंतर्मुख आयाम मनुष्य को उसके अंतर्जगत से जोड़ता है, उसका रास्ता ध्यान है, और बहिर्मुख आयाम बाह्य जगत से जोड़ता है जिसका रास्ता विज्ञान है). भारतेंदु काल में हिंदी काव्य-चेतना ने कवि-मन के बाहरी आयाम में भी प्रवेश किया जब भारतेंदु ने इसे स्वाधीनता (अंतर्बाह्य) नामक मूल्य से जोड़ा. यहीं इसमें हिंदी साहित्य में एक युगांतर उपस्थित हुआ. कविता में नयी भावधारा (काव्य-वस्तु) ने प्रवेश किया. द्विवेदी युग में स्वाधीनता का स्थान राष्ट्रप्रेम ने ले लिया. छायावाद काल में यह कल्पना-सौंदर्य की मनोहारी छटा से संवलित हुई. इसी काल के अंत में कविता ने एक क्रन्तिकारी करवट ली, भाव-वस्तु, शैली, शिल्प, विचार आदि क्षेत्रों में, जिसे समीक्षकों ने प्रगतिशील कविता कहा. साम्यवाद की ओर उन्मुख कुछ उत्साही कवियों के हाथ में आकर ये प्रगतिशील कविताएँ प्रगतिवाद में और तत्कालीन अमरीकी कवियों के प्रभावितों के हाथ में आकर प्रयोगवाद के घेरे में सिमट गईं. हिंदी कविता का प्रशस्त आकाश अब प्रशस्त नहीं रहा. नयी कविता ने इस घेरे को तोड़ कर कुछ आगे बढ़ने की कोशिश की, कुछ कदम आगे बढ़ी भी पर इसी समय, अनाप शनाप काव्य-प्रयोगों की आई बाढ़ ने उसके पैर जकड़ लिए. इन काव्य-प्रयोगों ने सप्तक-परंपरा के चौथे सप्तक के आने तक दम तोड़ दिए. इसी समय सामाजिक परिवेश को कुछ विषाक्त प्रवृत्तियों ने घेर लिया. आए दिन राजनीतिक उठा-पटक होने लगे. इन उठा-पटकों ने काव्य को भी प्रभावित किया. समस्याओं के अम्बार खड़े हो गए. इन सबके लिए इन कवि के पर्यवेक्षण ने मनुष्य को ही सबसे बड़ी समस्या माना. हिंदी कविता की चेतना-यात्रा के उपशीर्षक यह संगुम्फन में अनुभव भी किया है. कवि को लगा कि वह (मनुष्य) विभिन्न स्खलित प्रवृत्तियों के अधीन और अपनी स्वाभाविक प्रकृति से विमुख हो गया है. ऐसे ही समय में कवि ने इस संगुम्फन की कविताएँ प्रस्तुत की है. प्रतीत होता है कि यह इस जड़ता को तोड़ कर हिंदी कविताकाश को पुन: प्रशस्त-पथ पर लाना चाहते है जो युग-चेतना से मेल खाता हो.

इसके बाद इस संगुम्फन के कव्य-स्फुरणों का आरंभ होता है-‘पुरश्चरण’ से. पुरश्चरण का अर्थ है किसी ग्रन्थ या अनुष्ठान के प्रारंभ करने का उपाय अथवा मुहूर्त. कवि के लिए यह संगुम्फन एक अनुष्ठान-सा है और यह ‘पुरश्चरण’ उनके लिए एक शुभ मुहूर्त, ठीक पुरानी परिपाटी के मंगलाचरण की तरह. मंगलाचरण में ग्रन्थ के सकुशल पूर्ण होने की कामना की जाती थी, किसी दैवी शक्ति की प्रार्थना कर. यहाँ कवि ने प्रकृति को सृष्टि का एक छंद माना है. पुरश्चरण में कवि सृष्टि के इसी छंद (प्रकृति) की संवेदनशीलता की ओर निहारते है. प्रकृति की संवेदना ही मनुष्य (जीव) की जिजीविषा का प्राण है. वह प्रकृति को बड़े मनोयोग से, डूब कर देखते हैं. उन्हें सामने पसरी प्रकृति की तथ्यशील मनोरमता में अस्तित्व के सत्य (जो है) की अद्भुत झिलमिलाती-सी झलक मिलती प्रतीत होती है. कवि इस शुभ घडी में मित्र के माध्यम से इस प्रकृति को अर्घ्य-सा देता है-

मित्र !

मेरी आँखों के दृष्टिपथ में

जहाँ तक मेरी दृष्टि जाती है

मुझे लगता है यह प्रकृति

किसी रमणीय अवगुंठन में सजी ढँकी

एक अद्भुत सत्य की तरफ

नित्य प्रति

इंगित करती रहती है.

कवि का यह ‘अद्भुत सत्य’ समझने जैसा है. हिंदी कविताओं में तीन शब्द अधिक प्रयोग में लाए गए हैं- तथ्य, सत्य और यथार्थ. तथ्य वह है जिसकी स्थिति है, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष. सत्य और यथार्थ तथ्य की ही दो स्थितियाँ हैं. सत्य की जगह सच का भी प्रयोग होता है. वास्तव में कोई घटी, घट रही या हुई या हो रही बात सच है, जैसे “यह बात सच है”, “सचाई कभी छिपती नहीं” आदि. इस सच का सम्बन्ध सांसारिक सत्य से है. और यथार्थ, जो प्रत्यक्ष हो रहा है या घट रहा है. कुछ जाननेवालों ने एक आत्यंतिक सत्य (सच) की भी बात की है- वह सत्य जिसका न तो कोई अंत है न आदि, बस जो ‘है’, ‘सदैव बना रहता है,. होना मात्र ही उसका अस्तित्व है अर्थात सृष्टि के आविर्भाव का सत्य, आत्यंतिक सत्य, हम इसे मनुष्य के होने (बीइंग) का सत्य भी कह सकते हैं. इस ‘अद्भुत सत्य’ से कवि का इसी आत्यंतिक सत्य या बीइंग की ओर इशारा है. अनुभूति की गहराई में वह अपने को कभी उस सूक्ष्म और कभी उस सूक्ष्म के विस्तार (स्थूल) के अहसास से परिप्लुत होता रहता है. देखें-

कभी कभी मेरा स्थूल

मुझे किसी सूक्ष्म का

मूर्त प्रतिविम्बन-सा लगता है

इस क्षण रह जाती है

बस अस्तित्व की एक सघनता

अथवा किसी सघनता का सूक्ष्म.

पदार्थ के संघननित रूप उर्जा के सूक्ष्म और कास्मिक सृजनशीलता की चेतना के सूक्ष्म के अंतर्सृजन का ही मूर्त प्रतिबिम्बन मनुष्य है. कवि की अनुभूति मे इस प्रतिबिम्बन का उद्बुद्ध होना स्वाभाविक है. कवि के पोर पोर में यह अनुभूति समायी हुई है. कभी उन्हें लगता है, वह किसी अस्तित्व का सघन रूप हैं, और कभी महसूस करते हैं कि वह किसी सघनता का सूक्ष्म हैं. पर कवि को अभी उस सदा-सत्य का साक्षात् हुआ नहीं है. अत: उसके साक्षात् की अभीप्सा में उसका जन्मों की एक श्रंखला बन जाना उसकी नियति-सी है. उसे यह भी अनुभूति होती है कि उसके हृदय की भूमि में उसके अन्तर्सृजन की धारा किसी अंकुरण को भी उभार देती है. इस अंकुरण की अनुभूति उसे सृष्टि के छितिज की कोख से प्रकीर्ण होती किरणों में से एक प्रतीत होती है.

पल दो पल का यह उन्मीलन

स्वप्नों की घड़ियाँ बं जाता है

पुरा अद्य अपरद्य

पुन: संघटित हो जाते हैं ----

और मैं बन जाता हूँ

जन्मों की एक अटूट श्रंखला.

पुरश्चरण के दूसरे भाग में कवि अनुभव करता है कि जीवन एक सरल रेखा में नही, एक वर्तुल में गति करता है. सूर्य से अलग होकर पृथ्वी एक वर्तुल में गति करती रही. इसी वर्तुल गति से प्रकृति का प्रकटीकरण हुआ. प्रकृति से जीवन संभव हुआ. जीवन एक तथ्य है पर बिना किसी स्फुरण के इसका तथ्य भर होना निरर्थक है. इस स्फुरण को भाव कहा जा सकता है. इस पुरश्चरण में जीवन के प्राण कवि के हृद-मन में इन भावों का एक वर्तुल बनाते हैं, जो सम-लय में होकर अंकुरित होते हैं, इन्हीं भावांकुरणों की सृजन शक्तियाँ ने करुणापूरित होकर कवि को कुछ प्रतीतियाँ देती हैं, जो उसकी लेखनी में उफन कर कागजों पर प्रवाहमान हो उठी हैं,

इसी क्षण

भावानुभूतियों के अंकुरण से

मैं भावाकुल हो उठा ---

और मेरे ह्रदय की तरंगों ने

अपने को रच-बुन कर ---

शाखों से अलग किए बिना ही

लियाइन फूलों को एक तरल सूत्र में गूँथ लिया

यह गुंथन ही

इस संगुम्फन में रूपायित हो उठा है.

पुरश्चरण के बाद कवि ने प्रतिसंवेदन की योजना की है. प्रतिसंवेदन अर्थात संवेदन का संवेदन. यदि किसी घाटी में स्थित कोई व्यक्ति ध्वनि करे तो वह ध्वनि घाटी के अंगोंपंगों से प्रत्यावर्तित होकर उस व्यक्ति को कई गुना प्रवर्द्धित और अनुरंजित प्रतिसंवेदनों से भर देती है. वह प्रतिसंवेदन मूल ध्वनि की ही प्रकृति का होता है - उत्तप्त तो उत्तप्त, करुण तो करुण. यहीं व्यक्ति की प्रकृति प्रमुख हो उठती है. कवि को इस स्थल पर अपने अंतर्मन में उमड़ते घुमड़ते कोमल-कर्कश भावो का साक्षी बन कर उन्हें सम और तरल करना पड़ता है. इसी सम-तरल भाव में उसका करूण पक्ष प्रबल होकर क्रौंच पक्षी के रुदन में वाल्मीकि के मन-हृद में प्रतिसंवेदित हुआ था. ओशो के आकरुण प्रवचनों से प्रभावित हो प्रकृति को निहारते समाय कवि के हृद-मन में भी कुछ ऐसे ही भाव प्रतिसंवेदित हुए.

जीवन प्रकृति का अनुपम उपहार है. मनुष्य जीवन से भरा हुआ है. वैज्ञानिक कहते हैं वह बन्दर-सम प्राणी से विकसित हुआ है. किन्तु यह विकास उसके शरीर तक ही सीमित है. और उसकी चेतना का विकास? विज्ञान को पता नहीं. लेकिन जीव चेतना के विकास से ही जाने जाते हैं. मनुष्य में जीवों की चेतना का सर्वोत्तम विकास है. यह भी प्रकृति की ही देन है. प्रकृति ही मनुष्य को भाव देती है, कल्पना की शक्ति देती है, भाषा देती है, भले बुरे की समझ देती है और इससे भी बढ़ वह उसे अपने होने (being) को जानने का विवेक देती है. मनुष्य इसी विवेक से प्रकृति को निरखता है, प्रकृति की रचना को निरखता है. वह अपने होने को भी प्रकृति में, फिर अपने में ढूँढता है. उसे अहसास होता है कि प्रकृति सबको समान रचती है, शरीर नहीं, भाव विचार में. उसकी रचनाओं में सिर्फ चेतना की मात्रा का अंतर होता है. संबोधक और संबोध्य में भी चेतना की ही सघनता में अंतर है. प्रतिसंवेदन में कवि का अनुभूत देखें--

मित्र !

यह सामान्य सा अनुभव है कि

कोख के अँधेरे में ही

प्रच्छन्न होती है कोई प्रभा

और कोख की ही ऊष्मा से पोषित हो

किसी माता की गोद में वह आँखें खोलती है

कोई वपु धारण कर.

वह वपु कभी तुम्हारा होता है कभी मेरा.

कोमल, मनोमय और मनोरम अनुभूति भी प्रकृति की ही देन है. प्रकृति ही उन्हें संवेदना और करुणा से संपूरित करती है. इसी अनुभूति के किन्हीं क्षणों में कवि के हृद-अणु कुछ इस तरह स्फुरित हो उठे कि वे ओस की बूंदों से तरलित अक्षरों की पंखुरियों में सज कर शब्दों में ढल गए. वह इन्हीं टटके भींगे शब्दों में सीधे अपने संबोध्य से बातें करने लगे. उनके सामने उन्होंने अपना हृदय ढरका दिया- मित्र ! तुमने अपनी जीवन-यात्रा पूरी कर ली है. तुम्हारी देहयष्टि में मनुष्य के सारे आयाम खुल गए हैं पर मैं तुम्हारे प्रवचन-सोहबत में आकर जीवन के संवेदनशील स्पंदनों का अभी ही सुना है. अभी उसके समग्र स्पंदनों की अनुभूति से बहुत दूर हूँ..

मित्र !

तुमने अपनी यात्रा पूरी कर ली ---- (प्रबुद्ध हो गए)

किन्तु मैंने

जीवन के सूक्ष्म स्पंदनों,

उसके उश्मल पदचापों को

अभी ही सुना है -----

कवि अनुभव करता है कि समाज में रहकर समाज की उलझनों से उबरना कठिन है क्योंकि जीवन को चलाते रहने के प्रकृति के नियम बड़े ही जटिल हैं. फिर भी समाज की उलझनों में ही उलझ कर रह जाना मनुष्य को उसके अपने होने (बीइंग) से दूर कर देता है. ओशो की देशना है कि उलझनों में जीते हुए भी उससे अकेला हुआ जा सकता है, उलझनों का साक्षी बन कर. कवि के हृदय में यह बात गहरे उतर चुकी है.

मैं अनुभव कर रहा हूँ

इन तरंगों से तरंगायित मेरा सर्वांग

संसार में संसरित होता हुआ भी

मुझे अकेले की अनुभूति से भरे दे रहा है

दीपक के प्रकाश का सुख भोग रहा मनुष्य दीपक की बाती से लौ भर की ही दूरी पर होता है. लेकिन लौ के होने (बीइंग) से वह बहुत दूर होता है. कवि भी अपने संबोध्य से प्रवचन भर की दूरी पर होकर भी उन्हें बहुत दूर महसूस करते है. पर वह उनसे मिलाने को व्यग्र है अत: वह अपने अंतर्मन की अकेले की नौका पर सवार हो अपने अकेले की ओर उनसे मिलने चल पड़ते है. ‘अकेले की ओर से’ उनका तात्पर्य है, उन्हें लगता है कि उनके संबोध्य उनके भीतर ही हैं पर उनसे दूर हैं.

मैं अकेले की नाव पर सवार हूँ

मेरे पल अकेले के हैं

यात्रा भी मुझे अकेले की

और अकेले तक की करनी है.—

मेरी यह अनुभूति

पूरी है या अधूरी, मै नहीं जनता

पर---मैंने अपने कदम बढा लिए हैं

अब परिणति की चिंता क्या

अनुभव की अम्पदा ही बटोर लूं

यही बहुत है,.

( शेष अगले अंक में )

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: समीक्षा-पीठिका: “अकेले की नाव अकेले की ओर” - शेषनाथ प्रसाद
समीक्षा-पीठिका: “अकेले की नाव अकेले की ओर” - शेषनाथ प्रसाद
https://lh3.googleusercontent.com/-Q-d1TJvCCWg/WJsYCTxqe6I/AAAAAAAA2cA/7a3Bgy6DOvY/image_thumb.png?imgmax=200
https://lh3.googleusercontent.com/-Q-d1TJvCCWg/WJsYCTxqe6I/AAAAAAAA2cA/7a3Bgy6DOvY/s72-c/image_thumb.png?imgmax=200
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2020/02/blog-post.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2020/02/blog-post.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content