अर्चना वर्मा के जाने के बाद -- संजीव ठाकुर

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अर्चना वर्मा के जाने के बाद संस्मरण -- संजीव ठाकुर उस दिन कुछ देर से फेस बुक खोला – ग्यारह-सवा ग्यारह बजे। किसी की पोस्ट दिखाई दी –“अर्चना व...

अर्चना वर्मा के जाने के बाद

संस्मरण

-- संजीव ठाकुर

उस दिन कुछ देर से फेस बुक खोला – ग्यारह-सवा ग्यारह बजे। किसी की पोस्ट दिखाई दी –“अर्चना वर्मा नहीं रहीं !” एकबारगी मेरा दिमाग घूम गया। तुरंत व्हाट्सएप खोला। पहली बार एक ग्रुप पर टैप किया। वहाँ भी यह दुखद सूचना मौजूद थी। मैंने पहली बार वहाँ कमेन्ट किया –“इससे दुखद बात कोई हो नहीं सकती !” ग्रुप में यह सूचना भी थी कि उनका दाह-संस्कार एक-दो दिन बाद होगा जब उनके बेटे बाहर से आ जाएँगे। ‘यह हुआ कैसे ?’ जानने के लिए मैंने राजकमल जी को फोन लगा दिया। उन्होंने बताया कि एक-दो दिन से ही अर्चना जी बीमार थीं। अस्पताल में भर्ती करवाई गईं। अचानक चली गईं। मैंने कहा ,”बहुत दुखद है। मैं उनसे मिलने नहीं जा पाता था लेकिन इसके बावजूद लगता था अपनी हैं।” बात करते हुए मेरी आवाज़ काँप रही थी। मेरे सिर में चक्कर आने लगे थे और घबराहट होने लगी थी। काफी देर लेटे रहने के बाद मैं संयमित हो पाया। फिर से फेसबुक खोला। अब काफी लोगों की श्रद्धांजलि आ गई थी। यह देखकर बहुत दुख हुआ कि जो व्यक्ति अर्चना जी के बारे में अनाप-शनाप बोला करता था वो अब उनसे मिलने-जुलने और लिखना सीखने की बात लिख रहा है ! ऐसे लोगों को शर्म क्यों नहीं आती है ?...

फेसबुक बंद कर मैं बेड पर बैठ गया। अर्चना जी के बारे में काफी बातें याद आने लगीं। कोई साल भर पहले राजकमल जी के यहाँ ‘ककहरा’ की गोष्ठी में अंतिम बार उनसे मुलाक़ात हुई थी। गोष्ठियों से अरुचि होने के कारण ‘ककहरा’ की गोष्ठियों में भी मैं नहीं जाता हूँ। उस बार राजकमल जी का फोन आ गया। गोष्ठी उनके घर में ही थी। राजकमल जी का घर बिलकुल पास है तो जाने में परेशानी नहीं थी। चला गया था। चाय के दौरान अर्चना जी से बातें हुई थीं। वहाँ भी उन्होंने ‘झौआ बैहार’ की चर्चा की थी और पहले भी कई बार कही अपनी बात दुहराई थी कि ‘झौआ बैहार’ छपने के बाद ‘कथाक्रम’ की जो गोष्ठी हुई थी उसमें नामवर जी ने दो ही कहानियों का जिक्र किया था –‘जलडमरुमध्य’ और ‘झौआ बैहार !’ मैंने उन्हें बताया था - “ ‘झौआ बैहार’ का ‘हार्ड बाउंड’ संस्करण आ रहा है, उसके फ्लैप पर मैं ‘हंस की लंबी कहानियाँ’ में लिखी आपकी भूमिका का वह अंश दे रहा हूँ जिसमें आपने ‘झौआ बैहार’ का जिक्र किया है।” वह प्रसन्नता में मुस्कुराई थीं। मैंने सोच रखा था, किताब आने पर उनसे मिलने जाऊँगा और किताब की प्रति उन्हें दूँगा। लेकिन कितने शर्म की बात है कि पिछले कई वर्षों से इंदिरापुरम में ही रहने के बावजूद मैं कभी उनसे मिलने उनके घर नहीं जा पाया। असल में पिछले कुछ वर्षों से कहीं न जाने-आने का मेरा पुराना स्वभाव लौट आया है। दूसरे, पब्लिक ट्रांसपोर्ट पर निर्भर रहने की वजह से भी कहीं आने-जाने का मन नहीं करता है। लेकिन अर्चना जी के यहाँ तो मुझे जाना चाहिए था ?

दिल्ली विश्वविद्यालय के मानसरोवर हॉस्टल में रहते हुए मैं उनके घर जाया करता था। हालाँकि उनसे पहली मुलाक़ात ‘हंस’ के कार्यालय में ही हुई थी। अर्चना जी के संपादकत्व में ‘हंस’ के ‘औरत : उत्तर कथा’ अंक पर मैंने लंबी प्रतिक्रिया लिखी थी। संभवतः वही देने वहाँ गया था। वहीं वह मिल गई थीं। मैंने उनसे पूछा था –“मैंने भी एक लंबी कहानी लिखी है, दिखा सकता हूँ ?” उन्होंने कहा था –“क्यों नहीं ?”

कुछ दिन बाद ‘झौआ बैहार’ की हस्तलिखित अस्सी पृष्ठों की पाण्डुलिपि लेकर मैं उनके घर ही चला गया था। मानसरोवर से मिरांडा हाउस दूर तो था नहीं। मैं अपनी मेहनत बचाने के लिए ‘हंस’ न जाकर मिरांडा के टीचर्स क्वाटर में चला गया था। अर्चना जी से कई तरह की बातें हुई थीं। ‘औरत : उत्तर कथा’ के बारे में मेरी जो आपत्तियाँ थीं, मैंने उनपर भी बातें की थीं। असल में मैंने एक कहानी में चित्रित क्रांतिकारी महिला की आलोचना करते हुए कहा था कि स्त्री की आज़ादी तो जरूरी है लेकिन इस कहानी में जिस तरह की आज़ादी की बात की गई है उतनी आज़ादी तो किसी पुरुष को भी यह समाज नहीं देता है। इस पर उन्होंने कहानी के फैंटेसी में होने की बात की थी। मैंने उस फैंटेसी की कई खामियाँ गिनवाई थीं। तब उन्हें लगा था कि मैं कहानी के शिल्प के खिलाफ बोल रहा हूँ, कथ्य के खिलाफ नहीं। इसके अलावा कुछ लेखिकाओं के द्वारा स्त्री की जैविक संरचना के खिलाफ लिखने पर भी मैंने सवाल उठाया था।

अर्चना जी ने ही बताया था कि ‘औरत : उत्तर कथा’ पर जो प्रतिक्रिया लिखकर मैंने दी है उसे राजेन्द्र जी छापने को तैयार नहीं हैं। अर्चना जी ने उनसे कहा भी कि उसे छोटा करके छाप दीजिए लेकिन राजेन्द्र जी ने उसे नहीं ही छापा था। राजेन्द्र जी तो ‘झौआ बैहार’ भी छापने के मूड में नहीं थे। अर्चना जी के कहने पर वे उसे काट-छाँट कर छापने को तैयार हुए थे। छपने के बाद जब उसकी चर्चा होने लगी थी तब राजेन्द्र जी अर्चना जी की बात से सहमत हुए थे कि ‘कहानी बहुत अच्छी है !’ बाद में तो जब भी ‘हंस’ कार्यालय जाता, राजेन्द्र जी किसी से मेरा परिचय करवाते वक्त ‘झौआ बैहार’ का नाम जरूर लेते थे।

‘झौआ बैहार’ 1996 के सितंबर में ‘हंस’ में छपी थी। उसी साल ‘बिहार विश्वविद्यालय सेवा आयोग’ द्वारा मैं व्याख्याता पद के लिए चुन लिया गया था। नवंबर ’96 से नवंबर ’97 तक मैं आधा दिल्ली, आधा बिहार रहा था। जब भी दिल्ली आता, अर्चना जी से जरूर मिलता। उसी दौरान उन्होंने नामवर जी के द्वारा ‘झौआ बैहार’ की चर्चा की बात बताई थी। वह बार-बार यह भी कहा करती थीं कि ‘झौआ बैहार’ में इतनी धाराएँ एक साथ बहती हैं कि तुम इसे डेवलप कर एक बड़ा उपन्यास बना सकते हो। मैं उनकी बात सुन लेता था लेकिन उस दिशा में सोचता नहीं था। मुझे लगता था, उसे विस्तार देने में वह बिखर जाएगा, उसका कसाव ढीला पड़ जाएगा। हालाँकि उन्हीं की बात का असर रहा कि पाँच-छह साल पहले मैंने उसे आगे बढ़ाने की रूपरेखा बनाई थी। मैंने यह सोचा था कि उसके मूल स्वरूप को ज़रा भी नहीं बदलूँगा, वह जहाँ खत्म होता है, कहानी वहीं से आगे बढ़ाऊँगा। पता नहीं, मैं ऐसा कब कर पाऊँगा ? कर पाऊँगा – इसमें भी मुझे संदेह ही होता है !

1996 में ही मेरी शादी हुई थी। शादी से पहले मैंने शादी तय होने की बात अर्चना जी को बताई थी। उन्हें यह भी बताया था कि ‘शादी में मैं कोई दहेज नहीं ले रहा हूँ , लड़की वालों को दृढ़ता से यह भी कहा है कि लड़की को भी कुछ नहीं देना है – न सोना, न चाँदी, न घर का कोई सामान ! मुझे लगा था, अर्चना जी खुश होंगी, शाबासी देंगी। लेकिन उन्होंने जो बात कही थी वह मुझे अजीब लगी थी। उन्होंने कहा था – “क्यों नहीं लेने दिया ? लड़की के घर से जो मिलता है वह उसका हिस्सा होता है।” उन्हीं की तरह दो-एक मित्रों और परिवार के लोगों ने सोना-चाँदी को ‘स्त्री-धन’ की संज्ञा देते हुए मुझे कहा था –“यह धन बुरे वक्त में काम आता है।” उन सब की बातें सुनकर भी मुझपर कोई असर नहीं हुआ था। मुझे दहेज नहीं लेना था तो नहीं लिया था। आज तक मेरे मन में एक भी बार इस बात का पछतावा नहीं हुआ है। बल्कि मुझे तसल्ली-सी रहती है कि मैंने समाज की एक बड़ी कुरीति को अपनाने से इनकार कर दिया है। लेकिन फिर भी अर्चना जी की वह बात मैं सोचता रहता हूँ। क्या वाकई उन्होंने वह बात स्त्री के पक्ष में कही थी ? मैं किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाता हूँ।

बी.ए., एम.ए., एम.फिल. और पी-एच डी. करते हुए मैंने साहित्य खूब पढ़ा था। अर्चना जी का कहानी-संग्रह और कविता-संग्रह भी पढ़ गया था। उनको मैंने यह बात बताई भी थी। मैंने ईमानदारी से यह भी कहा था कि कहानी-संग्रह मुझे अच्छा लगा है, कविता-संग्रह उतना अच्छा नहीं। उन्होंने पूछा था –“कविता-संग्रह क्यों नहीं अच्छा लगा ?” उनके इस सीधे सवाल से मैं सकुचा गया था। हल्का-फुल्का जवाब देकर रह गया था। असल में अर्चना जी के लेखन में मुझे जटिलता नज़र आती थी। कहानियों में भी। इसके बावजूद उनकी कहानियाँ मुझे ज्यादा अच्छी लगती थीं। कविताएँ उससे कम। आलोचना उससे भी कम। उनके आलोचनात्मक लेख मुझे काफी जटिल लगते थे, आज भी लगते हैं। पिछले कुछ वर्षों में उन्होंने ‘कथादेश’ में जो लेख लिखे थे उनकी जटिलता के संबंध में मैंने ‘कथादेश’ के संपादक हरिनारायण जी को कहा भी था। मैंने कहा था –“अर्चना जी में साहित्य की समझ बहुत अच्छी है लेकिन लिखने में वे जटिल हो जाती हैं।”

हाँ, ‘हंस’ में प्रकाशित उनकी लंबी कहानी ‘जोकर’ मुझे अच्छी लगती है। ‘हंस’ के अगस्त 1995 अंक में एक साथ तीन लंबी कहानियाँ छपी थीं – दूधनाथ सिंह की ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’, अर्चना वर्मा की ‘जोकर’ और मैत्रेयी पुष्पा की ‘गोमा हँसती है।’ मुझे याद है कि बिहार में लेक्चरशिप के साक्षात्कार में एक एक्सपर्ट ने मुझसे पूछा था –“पिछले दिनों ‘हंस’ में तीन लंबी कहानियाँ एक साथ छपी थीं। उन तीनों को स्त्रियों के संदर्भ में आप कैसे देखते हैं ?” मैंने अपनी समझ से उत्तर दे दिया था। इस प्रश्न के आधार पर मैंने अनुमान लगा लिया था कि एक्सपर्ट ‘पढ़े-लिखे’ हैं ! बाद में पता चला था कि वे हजारीबाग विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, आलोचक डॉ. नागेश्वर लाल थे।

अर्चना जी की साहित्यिक समझ का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है ‘हंस’ के लिए उनके द्वारा चुनी गई कहानियाँ। ‘हंस’ से अलग होने के बाद ‘कथादेश’ को उनकी इस समझ का लाभ मिला। हाँ, ‘हंस’, ‘कथादेश’ दोनों जगहों पर कभी-कभी यह जरूर लगता था कि यह कहानी उन्होंने क्यों पसंद की ? ’हंस’ में हो सकता है कई बार राजेन्द्र जी का वीटो काम किया करता होगा। लेकिन ‘कथादेश’ में ? क्या लेखक के दिल्ली विश्वविद्यालय से जुड़े होने या मित्रों के दायरे में होने की वजह से वह उन्हें ‘ग्रेस मार्क्स’ दे देती होंगी ? लगता तो नहीं है, फिर भी...! एक बार तो उनको एक समान्य लेखक की किताब पर ‘अच्छा-अच्छा’ बोलते सुनकर मैं सचमुच दुखी हो गया था। लेकिन मैंने उन्हें अपनी प्रतिक्रिया से अवगत नहीं करवाया था।

मैं भागलपुर में करीब आठ साल पढ़ाकर दिल्ली लौटा था, अर्चना जी से मिलने गया था। उनके ड्राइंग रूम में बैठा उनका इंतज़ार कर रहा था। उनके आते ही मैं अचानक सोफ़े से उठ खड़ा हुआ था और लगभग चीख पड़ा था – “यह क्या हो गया मैम आपको ?”

मैं उनको मैम ही कहा करता था। उन्होंने मुझे कभी कक्षा में पढ़ाया तो नहीं था लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय का छात्र होने के नाते उन्हें शिक्षिका का सम्मान देता था।

“कुछ नहीं, बस थोड़ा-सा जल गई थी !” उन्होंने सहजता से कहा था और आकर मेरे सामने बैठ गई थीं। मैंने भी आगे उस बात को नहीं कुरेदा था लेकिन उनके चेहरे को देखते हुए दुखी मन से सोचता रहा था –‘कितनी सुंदर थीं मैम ! बोलती हुई आँखें ! कैसे जल गया इनका चेहरा ? क्यों जल गया ?”

मैंने उन्हें बताया था कि ‘मैं नौकरी छोड़कर आ गया हूँ, यहाँ भी कोशिश कर रहा हूँ।’ नौकरी छोड़ने के कारणों पर बात होने के बाद उन्होंने कहा था –“जगह तो हमारे कॉलेज में भी है लेकिन तुम्हें रखेंगे नहीं। ऐसे तो लोग स्त्री-पुरुष की समानता की बात करते रहते हैं लेकिन नौकरी की बात आते ही गर्ल्स कॉलेज में पुरुषों को न रखने पर अड़ जाते हैं !”

उन्होंने मेरी रिहाइश के बारे में पूछा था। मैंने बताया था कि ‘अभी तो कौशाम्बी में किराए पर रह रहा हूँ लेकिन इंदिरापुरम में फ्लैट बुक कर लिया है।’ वह भी घर खरीदना चाहती थीं। मुझसे कीमत वगैरह की बातें पूछी थीं। जवाब देते हुए मैंने यह भी कहा था कि ‘कहें तो आपके लिए भी अपनी सोसाइटी में फ्लैट देखूँ।’ उन्होंने कहा था कि उन्हें तीन कमरों का मकान लेना है। बात आई-गई हो गई। मैं भी नौकरी ढूँढ़ने और फ्रीलांसिंग के उलझनों में उलझा रहा। चार-पाँच साल बाद किसी पत्रिका में देखा कि उनका पता इंदिरापुरम का है। इंदिरापुरम के दूसरे छोर का। ‘अच्छा है, कभी उनसे मिलने जाऊँगा’, मेरे मन में आया। लेकिन जा नहीं पाया।

अर्चना जी के स्वभाव के बारे में सोचता हूँ तो लगता है – इस जमाने में जहाँ सभी संबंध लेन-देन पर टिके हुए हैं, मेल-मुलाक़ात जहाँ फायदे का सौदा माना जाता है, वहाँ अर्चना जी जैसे लोग कितने दुर्लभ होते हैं ? कई वर्षों तक न मिलने वाले, फोन तक न करने वाले किसी व्यक्ति की कहानी को याद रखना और सिर्फ गुणवत्ता के आधार पर उसे किसी महत्वपूर्ण संग्रह में शामिल करना और उसके लिए कोई एहसान तक न जताना ... दुर्लभ गुण नहीं तो और क्या है ? अर्चना मैम में यह दुर्लभ गुण था। मैं अपने ही उदाहरण से यह बात कह सकता हूँ।

‘हंस’ के पच्चीस वर्ष पूरे होने पर कई किताबें निकालने की योजना बनी थी। ‘हंस की पच्चीस कहानियाँ’, ‘हंस की लंबी कहानियाँ’ और ‘मुबारक पहला कदम !’ मुझे इसकी जानकारी ‘हंस’ के किसी अंक से ही हुई थी। कथाकार संजीव उन दिनों ‘हंस’ में ही काम करते थे। उन्हीं के हवाले से यह जानने के लिए किसी का फोन जरूर आया था कि क्या ‘झौआ बैहार’ मेरी पहली कहानी है ? मैंने अनुमान लगा लिया था कि संजीव जी उसे ‘मुबारक पहला कदम’ में लेना चाहते होंगे। मैंने ‘नहीं’ में जवाब दे दिया था और निश्चिंत हो गया था। ‘हंस’ से ही पता चला था कि 2011 के ‘हंस’ के वार्षिक कार्यक्रम में ये किताबें आ भी गईं। मैं चूँकि उस कार्यक्रम में नहीं गया था इसलिए उन किताबों को नहीं देख सका था। कुछ ही दिनों बाद दिल्ली पुस्तक मेला था। मेले में तो जाना होता ही है। गया था। उत्सुकता वश ‘वाणी प्रकाशन’ के स्टॉल पर इन किताबों को उलटते-पलटते ‘हंस की लंबी कहानियाँ’ के दूसरे खंड में मुझे अपनी कहानी नज़र आ गई थी। उसे देखकर मैं दंग रह गया था। किताब के फ्लैप पर और अंदर अर्चना जी की लिखी भूमिका में इसकी प्रशंसा देखकर तो मेरा मन खुशी से भर गया था। कोई विश्वास करेगा कि 2006 से इस किताब के आने तक अर्चना जी से न तो मेरी मुलाक़ात हुई थी, न ही वार्तालाप ! यूनिवर्सिटी से आकर इंदिरापुरम में रहने लगने के कारण उनका फोन नंबर भी बेकार हो गया था। उनका मोबाइल नंबर मेरे पास था नहीं। मैंने किसी से उनका मोबाइल नंबर लिया था, फोन किया था और किताब की प्रति उनसे माँगी थी। उन्होंने राजेन्द्र जी से प्रति माँगने की बात कही थी। इसके बाद उनसे एक-दो बार फोन पर बात हुई थी और साल-दो साल बाद साहित्य अकादेमी में मुलाक़ात हुई थी। वहाँ भी मैंने उनसे मिलने आने की बात कही थी। लेकिन फिर नहीं जा पाया था। पिछले साल राजकमल जी के घर पर उनसे मुलाक़ात हुई थी। वही उनसे अंतिम मुलाक़ात थी। किताब आने पर भी उन्हें किताब देने मैं नहीं जा पाया। न ही फिर कभी ‘ककहरा’ की गोष्ठी में गया। जाता तो कम से कम किताब तो उनको दे सकता था ! लेकिन...

आदमी सोचता रह जाता है, वक्त निकलता जाता है। पछताने के सिवा उसके पास कुछ नहीं बचता !

उनकी मृत्यु के दो दिन बाद ‘निगम बोध घाट’ पर उनको सही मायने में आदर-सम्मान देने वाले लोग ही थे। मैं भी था। उनको उस हालत में देखकर मेरा सिर घूमने लगा था। पत्थर की बेंच पर बैठकर खुद को संतुलित किया था। अंतिम दर्शन के बाद उनके मृत शरीर को सी. एन. जी. दाह-कक्ष में भेजा जाने लगा था। इससे पहले कि उनको अंदर भेज दिया जाता, मैंने उनके पैर छू लिए थे – पहली और अंतिम बार !

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रचनाकार: अर्चना वर्मा के जाने के बाद -- संजीव ठाकुर
अर्चना वर्मा के जाने के बाद -- संजीव ठाकुर
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