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रचनाकार.ऑर्ग नाटक / एकांकी / रेडियो नाटक लेखन पुरस्कार आयोजन 2020
प्रविष्टि क्र. 18 -
राधा
सीताराम पटेल 'सीतेश'
राधा
पात्र परिचय
राधा : गाँव की किशोरी
कान्हा : गाँव का किशोर, राधा का प्रेमी
ललिता : राधा की सहेली
विमला : राधा की सहेली
भावना : राधा की सहेली
दृश्य : 01
स्थान : मालगुजार का कमरा समय : शाम के चार बजे
( ललिता, राधा, विमला, भावना के साथ कान्हा अँधेरी छुआई का खेल खेल रहा है। कान्हा के आँखों में पट्टी बँधी हुई है। लड़कियां कोने से आ आकर मारते हैं। कान्हा राधा को बाँहों से पकड़ा रहता है। राधा छूटने को छटपटाती रहती है। पर कान्हा उसे नहीं छोड़ता है। बड़ी मुश्किल से छूटती है।)
कान्हा : राधा।
राधा : कान्हा जान बूझकर हमें जोरों से पकड़ता है, चलो सखियाँ चलो, हम इनके साथ नहीं खेलेंगे।
कान्हा : मैं कहाँ जोर से पकड़ता हूँ, इतना नहीं पकड़ता तो तुम नहीं भाग जाती। दाँव देने के कारण भागना चाहती हो।
राधा : मैं नहीं भगती, चलो दाँव देती हूँ।
( राधा के आँखों में पट्टी कान्हा बाँध रहा है।)
राधा : इतनी जोर से क्यों बाँध रही हो? आँखें दुःख रहे हैं।
कान्हा : कम बाँधने से निकल जायेगा।
राधा : चलो ठीक है।
(सभी कोने में चले जाते हैं। वहाँ से आकर पीटते हैं। कान्हा आकर पीटता है। राधा पट्टी निकाल लेती है।)
राधा : इतनी जोर से मारते हो, तुम्हारे साथ नहीं खेलेंगे।
कान्हा : दाँव नहीं देने का क्यों बहाना बना रही हो? तुम लोग मुझे मारते थे, तो मैं कुछ नहीं कहता था।
राधा : तुम लड़के हो, बहुत लड़ते हो। तुम दाँव दोगे, तो तुम्हारे साथ खेलेंगे।
सभी लड़कियां : तुम दाँव दोगे, तो खेलेंगे।
कान्हा : सभी लड़कियां एक तरफ हो जाते हो। चलो दाँव दे रहा हूँ।
( राधा कान्हा के आँखों में पट्टी बाँधती है। कान्हा भावना को पकड़ा रहता है। सभी तरफ को छूता रहता है। फिर उसका नाम बताता है। कान्हा भावना के आँखों में पट्टी बाँधता है। फिर उसे घुमाकर कोने में आ जाता है। भावना ललिता को पकड़ लेती है। उसका नाम बताती है। ललिता दाँव देती है। उसके आँखों में भावना पट्टी बाँधती है। उसकी आँखें दिखती रहती है।)
कान्हा : भावना पट्टी ढंग से बाँधो।
भावना : ढंग से बाँधती हूँ।
( भावना ढंग से बाँधती है। ललिता कान्हा को पकड़कर उसका नाम बता देती है। ललिता कान्हा के आँखों में पट्टी बाँधती है। कान्हा विमला को छूता है।)
कान्हा : विमला
विमला : तुमने मुझे कहाँ छुआ है।
कान्हा : विमला तुम झूठ बोल रही हो।
विमला : तुम झूठ बोल रहे हो, कान्हा तुम सचमुच झूठे हो।
राधा : चलो हम इनके साथ नहीं खेलते हैं।
( चारों लड़कियां चले जाते हैं।)
कान्हा : कैसे जमाना आ गया, उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे, अब इनके साथ कभी नहीं खेलूंगा। चाहे मुझे कितनों भी कहे।
( परदा गिरता है।)
दृश्य : 02
स्थान : संकरी गली समय : गोधूलि
(कान्हा अपने भैया के लड़के को गोद में लिया है। राधा आती है और मुन्ना को अपने गोद में लेने के लिए मांगती है।)
राधा : कान्हा मुन्ना को मुझे देना।
कान्हा : अभी अभी तो गोदी में लिया है, मन नहीं भरा है। थोड़ी देर बाद दूंगा।
(राधा जी हुजूरी करती है।)
कान्हा : लो थोड़ी देर बाद मुझे देना।
( दोनों की आँखें मिलती है। फिर दोनों परस्पर निर्निमेष देखते रहते हैं।)
( परदा गिरता है।)
दृश्य : 03
स्थान : राधा का घर और कान्हा का घर समय : शाम आठ बजे
(मंच दो भागों में बंटा है। एक तरफ से राधा मोबाईल से बात कर रही है। दूसरे तरफ से कान्हा मोबाईल से बात कर रहा है। राधा रिंग करती है। मोबाईल से रिंग जा रहा है। कान्हा मोबाईल उठाता है।)
कान्हा : हलो!
राधा : हलो!
कान्हा : क्या कह रही थी?
राधा : याद कर रही थी। हमेशा मैं ही लगाती हूँ।
कान्हा : झूठ बोल रही हो, मैं भी तो लगाता हूँ।
राधा : याद कर बताओ, कब लगाये थे।
कान्हा : पगली, मैं कब भूला हूँ, हर पल तो याद करता रहता हूँ।
राधा : मैं मोबाइल से बात करने की बात कर रही हूँ।
कान्हा : मैं अपने दिल की बात कर रहा हूँ।
( परदा गिरता है।)
दृश्य : 04
स्थान : फुलवारी समय : दोपहर बारह बजे
( कान्हा और राधा आपस में बात कर रहे हैं।)
कान्हा : इतिहास अपने को दोहराता है। प्रकृति यौवन में मनुष्यों को महकाता है। यौवन का रूप सबको चुंबक की तरह अपनी ओर आकर्षित करता है। यौवन का एक अपना अलग गंध होता है। जो मनुष्यों को मदमस्त करता है। यौवन में प्रेम और वासना का भेद मिट जाता है।
राधा : कान्हा! आज तो तुम एक कवि की तरह बातें कर रहे हो।
कान्हा : प्रेम आदमी को कवि बना देता है।
( कान्हा राधा के दाहिने हाथ को सहलाता है ।)
राधा : ये तुम क्या कर रहे हो, कान्हा! शादी से पहले ये सब पाप है।
कान्हा : प्रेम कभी भी पाप नहीं होता है, राधा। प्रेम को तुम पाप कैसे कह रही हो, प्रेम तो अपने आप में पुण्य है। वो पाप कैसे हो सकता है। पाप और पुण्य की परिभाषा जानती हो, राधा!
राधा : पर जो तुम करना चाह रहे हो, वो प्रेम नहीं, वासना है।
कान्हा : जिस प्रकार प्रेम परमात्मा तक पहुंचने का द्वार है, उसी प्रकार वासना प्रेम तक पहुंचने का द्वार है।
राधा : जिस प्रकार काँच और हीरा में अंतर होता है, उसी प्रकार वासना और प्रेम में अंतर होता है। काँच कभी भी हीरा नहीं हो सकता है। उसी प्रकार वासना कभी भी प्रेम नहीं हो सकता ,कान्हा!
कान्हा : यौवन की मांग को कैसे झुठलाया जा सकता है, राधा!
राधा : जो इस मांग में स्थिर बना रहता है, वही अपने जीवन में आगे बढ़ पाता है। वरना यौवन का बहाव बरसात की उछलती पहाड़ी नदी की तरह होता है, जिसमें सब कुछ बह जाता है।
कान्हा : जिसमें बहाने की ताकत होता है, उसे ही दुनिया याद रखता है, राधा! हम दुनिया के लिए नहीं, हमसे दुनिया बनी है।
राधा : समाज के विकास के लिए बंधन अति आवश्यक है, कान्हा! वरना व्यक्ति और पशु में क्या अंतर रह जायेगा। इसलिए विवाह एक संस्कार बनाया गया है।
कान्हा : हां, राधा! विवाह सर्वोत्तम संस्कार है। चलो, हम तुम शिवमंदिर में जाकर विवाह कर लेते हैं।
राधा : मैं ऐसा नहीं कर सकती, कान्हा!
कान्हा : तो तुम दुनिया के बल पर प्रेम करने चली हो। दुनिया प्रेम करने वाले को सदा दुत्कारती है, राधा! जबकि प्रेम प्रेम है। हाँ, विवाह में प्रेम विवाह भी होता है। इस विवाह को भी दुनिया मानती है।
राधा : मैं तुम्हें एक पल के लिए भी नहीं छोड़ सकती, कान्हा! जो तुम कह रहे हो, मैं करने को तैयार हूँ।
( दोनों शिवमंदिर में जाकर एक दूसरे के गले में हार पहनाते हैं।)
कान्हा : मैं पृथ्वी, आकाश, पानी, पावक, पवन की सौगंध खाता हूँ कि मैं तुम्हें कभी नहीं त्याग करुँगा।
राधा : मैं भी तुम्हें एक पल के लिए त्याग नहीं करुँगी, कान्हा!
( दोनों परस्पर गले मिलते हैं।)
(पक्षीगण चहचहा रहे हैं। फूल खिल रहे हैं। मोर नाच रहे हैं। प्रकृति योगानंद में मदहोश है, चारों ओर मधुमास है।)
(परदा गिरता है।)
सीताराम पटेल 'सीतेश'
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