रामविलास जांगिड़ के व्यंग्य

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--रामविलास जांगिड़ खांसीमय जग संसारा, बेचारा फोन भी हारा! आजकल जब भी फोन उठाता हूं फोन बेचारा खांसने लगता है। जब किसी दूसरे को फोन लगाता हूं...

--रामविलास जांगिड़


खांसीमय जग संसारा, बेचारा फोन भी हारा!



आजकल जब भी फोन उठाता हूं फोन बेचारा खांसने लगता है। जब किसी दूसरे को फोन लगाता हूं तो वह भी धांसने लगता है। खांसीमय जग संसारा, बेचारा फोन भी हारा! शास्त्रों में कहा गया है कि चोर को खांसी और संत को दासी मुसीबत में डाल देती है। चोर की मम्मी प्रार्थना करती है कि मेरे बेटे को चाहे हैजा, टीवी, मलेरिया, कोरोना ही क्यों ना हो जाए; लेकिन खांसी नहीं होनी चाहिए। संतो के लिए दासी की एक प्रकार की खांसी ही है। शास्त्रों में फिर से कहा गया है कि सभी रोगों की जड़ खांसी ही होती है और सभी झगड़ों की जड़ हांसी ही होती है। तभी कहा है- 'हंसी तो फंसी!' कई बड़े बुजुर्ग तो अपनी बहुओं के सामने केवल खांस-खांसके ही सारी बातचीत कर लेते हैं। घूंघट की ओट में बहू खांसी के तरीकों से सारी बातें समझ जाती है। पड़ोस में श्याम लाल जी सिगरेट पीते हैं, फिर सिगरेट इन्हें तसल्ली से पीती है। ये ऐसे खांसते हैं जैसे तीन तबले गले में बांध रखे हों। वे पहले विलंबित ताल में बजते हैं और उसके बाद द्रुतगति में बजते ही चले जाते हैं। चौधरी जी हुक्केबाज हैं। खांसते ऐसे जैसे कोई स्टीम इंजन किसी पुल से गुजर रहा हो और साथ में जोर से सीटी भी मार रहा हो। डॉक्टर ने कई बार कहा कि दादा हुक्का छोड़ दो; बदले में ये डॉक्टर पर मुक्का छोड़ देते हैं। फिर नियमित रूप से स्टीम इंजन वाली रेलवाई खांसी वातावरण में छोड़ते हैं। खांसते-खांसते उनके फेंफड़े मुंह से निकल कर बाहर जमीन पर गिर पड़ते हैं। फेंफड़े सड़क पर गिरे तड़पते है, तब बलगम व फेंफड़ों का भरत मिलाप चलता ही रहता है। बीड़ी वाले की खांसी धीमी गति से होती है। बीड़ी वाले और हुक्के वाले की खांसी में बड़ा अंतर है, और होना भी चाहिए। अगला हुक्का पीता है तो इसकी खांसी में ज्यादा दम होना लाजमी होता है।


मेरे मोहल्ले में कई प्रकार के खांसी बाज रहते हैं। तरह-तरह की विचित्र प्रकार की खांसियां हमारे मोहल्ले का विजन एंड साउंड शो बन चुका है। रामलाल जी खांसना शुरू करने से पहले अपना पूरा हाथ गले में डालते हैं। वे ढेर सारा बलगम धरती माता पर विसर्जित करते हैं। लार की नदियां बहाते हैं और लगातार 3 घंटे तक इस तरह से खांसते व बलगमाते रहते हैं जैसे इनके पेट में कोई 15 से 20 गधे बैठे हों। ये वर्षों से खैनी बगैर रगड़े ही खा रहे हैं और खैनी अब इनको डेली रगड़ते हुए खा रही है। एक अन्य सज्जन खांसते हैं, रुकते हैं। खांसते हैं, रुकते हैं। फिर लगातार खांसते रहते हैं। इनकी कलात्मक खांसी किडनी से ही उठने लगती है। अंदर से उनकी किडनी भरतनाट्यम करती है। फिर सामने वाले पर थूक की बारिश करने लगते हैं। थूक की बारिश और खांसना बराबर अंतराल से चलता रहता है। एक महाशय तो ऐसे खांसते हैं जैसे उनका कुत्तों से कोई कंपटीशन चल रहा हो। खांसने के मामले में कुत्ते उनसे रहम की भीख मांगते हैं कि दादा तुम जीते हो और हम हारे। लेकिन फिर भी ये नहीं मानते। माने भी क्यों? रोज देशी ठर्रा ऐसे ही थोड़े मारते हैं! अगर आप भी उन लोगों में से हैं जो कोरोना के मरीज की यह खांसी सुन-सुनकर परेशान हो गए हैं तो अब और परेशान होने की जरूरत नहीं है। इसका समाधान मिल गया है। सीधे नमस्ते कहो और सफाई से रहो। वरना खांसी का ये स्टीम इंजन मंगल तक दंगल करेगा।

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सफेद कौओं की प्यास है बहुत बड़ी



कौआ था तो जाहिर है काला ही था। काला-कलूटा कौआ। पर रहता सफेद-झक्क! आज तक मैंने ऐसा कौआ नहीं देखा जिसका रंग सफेद हो। जैसे सब नेताओं का एक ही रंग होता है न, काला! भीतर से काला जनाब! ढोंग तो सफेदी के; पर कारनामे कालिमा के! देखा! ऐसा लिखते ही कविता बन गई न! बेचारा काला कौआ! वन-वन भटकता। जंगल-जंगल अटकता। प्यासा जो था! जैसे नेता जी संसद-संसद भटकते हैं। कुर्सी की जुगाड़ में। भ्रष्ट आचरण की प्यास में। ये प्यास है बड़ी की तर्ज पर! भटकता चालाक कौआ! अब आप अपनी बुद्धि चलाओ श्रीमान! इस राजनीति के जंगल में कितने कौए भटक रहे हैं? काले कारनामे दिखाने वाले चमत्कारी सिद्ध पुरुष! भ्रष्टाचार से व्यभिचार तक परम नीति से अंजाम देते। कभी इस पेड़ तो कभी उस पेड़। कभी इस पार्टी तो कभी उस पार्टी। अपने पंख फड़फड़ाते ये नेतानुमा कौए उर्फ कौएनुमा नेता! इनका सिर्फ एक ही गीत है -ये प्यास है बड़ी। अगर कोई गेल्वानोमीटर मिल जाए तो सबसे पहले इनकी प्यास नाप लूँ। आखिर इनकी प्यास का रंग-रूप, आकार, धर्म है क्या?


पहली कक्षा की हिंदी के दूसरे पेज से ही कौए के प्यासे होने की स्टोरी का पता चलता है। कुर्सी का प्यासा कौआ! देश का बच्चा-बच्चा जानता है कि ये कौए जी सदियों से मारे प्यास के भटक रहे हैं और किताबों के पन्नों में लटक रहे हैं। न जाने कितनी-कितनी मटकियों का पानी गटक रहे हैं। भैया मुझे माफ करते जाना। बार-बार कविता बनती जा रही है। इसमें मेरा दोष नहीं है। यह तो कौए की चालबाज़ी प्रतिभा व काली कारस्तानी का ही प्रतिफल है कि अनायास ही कविता फूट रही है। हालांकि राजनीति के बियाबान में घूमते-घूमते स्वयं पर शक होता है कि यार कोई तो कौआ नहीं होगा। कहीं कोई कोयल भी तो गान सुनाती होगी। पर जिसे कोयल समझते हैं पता चलता है कि वह तो महान चालू कौआ ही निकला। अगले ने शहीदों की चिताओं पर कफन घोटाला करके भी अपनी प्यास बुझा ली। रोकड़ा खींच डाला। अब आप बिठाते रहो जाँच। जाँच का तो आपको पता ही है, बस बैठी ही रहती है। अगले ने तो रोकड़ा खींच ही लिया। यह सब काले कौए की कुबुद्धिमानी का प्रतिफल है दोस्त!


मेरा मन काले कौए की यशोगाथा गाने के लिए मचल रहा है। कौआ एयर कंडीशंडर में बैठा अपनी प्यास बुझाने में सफल रहा है। पहले तो वह वन-वन भटका। याने उसने रिसर्च की की किस पेड़ की डाली पर या किस कुर्सी पर या किस पर जगह पर बैठने पर उसे पानी के घड़े की प्राप्ति होगी जैसे नेताजी पार्टी-पार्टी घूमते हैं। फिर जब मटका दिखा तो उसमें पानी भी देखा गया। पर गहरा! अब भइया! ध्यान से सुनना। सारी अक्ल की मम्मी कथा के किसी अंश में है। उसने पानी में कंकर डाले। पत्थर डाले। पानी ऊपर आया। उसने छक-कर पानी पिया। जो पानी बचा था उसे कीचड़ बना डाला। सवाल पानी के कीचड़ बनाने का है। उसे पता था कि कहीं कोई ओर कौआ या कोयल पानी न पी पाए। अब जंगल की संयुक्त संसदीय समिति जाँच करती रहे कि यहाँ पानी था या कीचड़! कौए ने तो दूसरी मटकी की खोज में अपने पंख फड़फड़ा ही दिए। अब आप चाहे आसमान टापते रहो या फिर कीचड़ से सनी मटकी को घूरते रहो! क्या फर्क पड़ेगा? देश के सफेद कौओं की प्यास बहुत बड़ी है और हर मटकी कौओं की पहुँच में है।


-- रामविलास जांगिड़, 18, उत्तम नगर, घूघरा, अजमेर (305023) राजस्थान

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रचनाकार: रामविलास जांगिड़ के व्यंग्य
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