अभी अगर है रात का साया, कल फैलेगा सुबह का नूर । - संत कुमार शर्मा की कविताएँ

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‘दो शब्द’ कविता के प्रति कविता क्या है ? जब-जब भी कविता को पढ़ने, सुनने का मौका मिलता है यह प्रश्न अवश्य ही मन में उठता होगा। वास्तव में कव...

‘दो शब्द’

कविता के प्रति


कविता क्या है ? जब-जब भी कविता को पढ़ने, सुनने का मौका मिलता है यह प्रश्न अवश्य ही मन में उठता होगा। वास्तव में कविता मानव मस्तिष्क में होने वाली हलचलों, मानव हृदय में उठने वाले ज्वार, आंतरिक मनः`स्थिति का चित्रण है और कविता  को तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक हम मानव हृदय की गहराई तक न पहुँच जाएँ । साधारण बुद्धि वाला मनुष्य कदाचित् ही कविता-कामिनी के रूप लावण्य का रसास्वादन ले सके। छिन्न-विछिन्न, कोमल, उदार हृदय ही कविता के रस का पान कर सकता है।

कविता बनाई नहीं जाती अपितु वह तो स्वयमेव अपना स्वरूप धारण करती है। मानवीय भाव स्वयमेव एक शरीर धारण कर लेते हैं जो सत्त्व, रजस अथवा तमस किसी एक में से अवश्य ही परिपूर्ण होते हैं। कविता का शुद्ध रूप ‘सत्त्व’ युक्त ही होता है मात्र कुछ शब्दों को सजा-संवार देने से कविता नहीं बन जाती।

कविता रस से परिपूर्ण एक ऐसी अभिव्यक्ति है जिसको जितना अनुभूत करेंगे उतना ही हमें रसानुभूति कराएगी। कविता भिन्न-भिन्न रसों का मिश्रण होते हुए भी मुख्य रूप से करुण,शृंगार एवं वात्सल्य का ही बोध कराती है। शेष रस तो उसके अंलकरण मात्र होते हैं। वस्तुतः कविता का जन्म तो माना ही करुणा से जाता है। मैथुनरत क्रौंच युगल में से नर क्रौंच के वध को देखकर आदि कवि वाल्मीकि का हृदय अनायास ही चीत्कार उठा-
मा निषाद! प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वती समाः।
यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधी काममोहितम्।।


हिंदी के ख्याति प्राप्त कवि सुमित्रानंदन पंत जी भी यही कहते हैं-
वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान।
निकलकर नैनों से चुपचाप
बही होगी कविता अनजान।।

अतःएव कविता को भली-भांति समझने के लिए कविता में छिपी मानसिक वेदना को समझना अत्यंत अनिवार्य है। साधारण बुद्धि मानव को कविता के रसास्वादन की इच्छा नहीं करनी चाहिए; क्योंकि काव्य वेद का अंग है और वैदिक ऋचाएँ अपने अर्थ का अनर्थ करने वाले से सदैव दूर ही भागती रही हैं ।

प्रस्तुत कविताएँ कविता की कसौटी पर खरी उतरती हैं या नहीं यह तो सहृदय रसिक जाने परंतु इस शुष्क रेगिस्तान में यदि उन्हें कहीं एक कण भी रस का उपलब्ध हो सका तो मैं अपने इस अल्प प्रयास को सार्थक समझूँगा।


संत कुमार शर्मा


अनुक्रमणिका

01. मुश्किलें हो जाएँ हवा               
  02. महकाओ फूलो से दामन सभी का           
  03. पिया की खोज                   
  04. प्यार की भेंट                   
  05. धरती की पुकार                   
  06. शुभेच्छा                       
  07. तम से क्यों...                   
  08. कण-कण होगा...                   
  09. तुम्हें शक्ति बनना...               
  10. विरह की पीड़ा                   
  11. सफर के साथी                   
  12. दुनिया की तासीर                   
  13. अनिर्मित व्यक्तित्व                   
  14. चाँद चौदहवी का                   
  15. मधुबन की लालसा               
  16. यदि भुला दिया जाता               
  17. दर्शन तत्त्व से                   
  18. पंखा                       
  19. दीपक तुम्हीं को                   
  20. स्नेह का दीपक                   
  21. याद                       
  22. पलाश                       
  23. पुष्प और सुगंध                   
  24. नारी                       
  25. वफा(एक)                   
  26. वफा (दो)                   
  27. कर्त्तव्य व मजबूरी                   
  28. जिंदगी                       
  29. कई बार है देखा                   
  30. ममता और ममता                   
  31. नदीः जीवन दर्शन                   
  32. स्वप्न भंग                   
  33. आश की वंशी                   
  34. मानव व शूल                   
  35. कालजयी                       
  36. आँसू                       
  37. लक्ष्मण रेखा                   
  38. बाती की अनकही                   
  39. हकीकत                       
40. यथार्थ बोध                   
  41. आशा                       
  42. अहसास                       
  43. रहस्य                       
  44. नट                       
  45. अफसाने                       
  46. परम सत्य                   
  47. इच्छा                       
  48. अनुनम संवेदना                   
  49. फरियाद                       
  50. प्रेमपाश                       
  51. वियोग क्षणिका                   
  52. जिंदगी और गाड़ी                   
  53. भूख                       
  54. पतझड़ बनाम वसंत               
  55. अवहेलना- एक                   
  56. मूल्य बदल गए                   
  57. सौंदर्य सृष्टि का                   
  58. साहश्चर्यगत प्रेम                   
  59. क्रंदन बीज का                   
  60. हरियाली की पीड़ा               
  61. संदेश वाहक                   
62. पतंग                       
  63. क्यों                       
  64. पहली बार                   
  65. आधुनिकतम सभ्य                   
  66. प्रयास                       
  67. दीप की आस्था                   
  68. मनुष्य का अस्तित्व               
  69. तुम कौन                       
  70. मुबारक                       
  71. अयाचित याचना                   
  72. अनकही आकांक्षा                   
  73. सूर्य का संदेश                   
  74. पृथ्वी की पीड़ा                   
  75. जीवन का सत्य                   
  76. नूतन परिभाषा                   
  77. तांडव आकांक्षा                   
  78. बदलते संदर्भ                   
  79. अपूर्ण प्रेम                   
  80. भोर का तारा
                   


1
मुश्किलें हो जाएँ हवा
 

चंदा  सूरज  गगन  के तारे, गाते  हैं  सब संग हमारे ।
शुभ्रा  रजनी  श्यामा रश्मि  दोनों ही मन से ये पुकारे ।।

उपवन  सदा  चहकते ही रहें,
गुलशन में गुल महकते ही रहें,
आबो  हवा  हो  सुगंधि भरी,
डूबों हुओं को सदा ही उतारे।।

उमंगें  हो  मन  की सदा ही जवां,
बने   दास्तान ए  दर्द   ही  दवा।
हो  जाए  मुश्किल  तेरी हर  हवा,
दिलों की सभी धड़कनें यह पुकारें।।

साहिल   सदा   ही  बुलाते  रहें
झूले  चमन   के  झुलाते  रहें ।
मंजिल  सदा  ही हो  कदमों पड़ी,
हर एक जर्रा किरण  का पुकारे ।।


2
महकाओ फूलों से दामन सभी का
 

स्नेह  का  दीपक  प्रेम की बाती,
जगमग चमके अमावस की राती ।।
संघर्ष खत्म हों सबके ही सारे ,
रोशन है जब तक नभ में सितारें,
मिट जाएँ दूरी सबके दिलों की,
पुकारे मेरा मन यही दिन राती ।।
भटके हुओं को भी मिल जाए मंजिल,
झूमें खुशी से  सभी  हैं जो तंगदिल,
करों से जो  रोशन  दीपक करो तुम,
निर्बाध  जलती  रहे उसकी बाती ।।
कारण खुशी का सभी की बनो तुम,
काँटें  पदों से  सभी के  चुनो तुम,
महकाओ फूलों से  दामन सभी का,
हो जाए निर्मल सभी जग के पापी।।
रोशन तुमको  भी होना  है एक  दिन,
ग़म जो मिले सबको खोना है एक दिन,
जहाँ  में  बसाना  प्यार  भरी  दुनिया,
मगर  रहना दिल में हरदम हो साथी ।।


3
पिया की खोज
 

दिल ने पुकारा जिसको दिल ने दुलारा जिसको।
शहजादी  सपनों की पिया ने पुकारा  तुझको ।।

धरती में  ढूँढा,  ढूँढा  गगन में,
मंथर पवन से पूछा ढूँढा  अनिल में
गगनचुम्बी बर्फीले शिखरों से पूछा
शूलों  में  ढूँढा  फूलों  में  ढूँढा 
अलि भी ये बोला देखा न उसको।।

ख्वाबों में खोजा, हकीकत में खोजा
टूटे  हुए  दिल के टुकड़ों में खोजा
कूचों  से  पूछा, गलियों  से  पूछा
फिज़ा ने भी कुछ भी बताया न मुझको।।

चंदा   से  पूछा  सितारों   से पूछा,
दिल को  गुदगुदाती  बहारों से पूछा।,
संध्या  से  पूछा   पूछा  दिवस से,
दे न पाई रजनी भी किरण एक मुझको।।


4
प्यार की भेंट
 

सीने पर उठाकर भार घना,
चुपचाप सहे तुम जाती हो।
हो धारण करने वाली तुम,
धरती तो तभी कहलाती हो ।।
सागर-सा हृदय पाया तूने
पिता परमानंद पाया तूने।
सागर के सभी गुण हैं तुझमे
रत्नगर्भा तभी तो कहलाती हो ।।
सह शान्त भाव से सभी व्यथा
कहती न किसी से अपनी कथा ।
गुण हैं अनुपम लासानी तेरे,
गुणागार तभी तो कहलाती हो ।।
तुझ  पर  ही  छायादार  तरु
तुझ पर ही बसा विकराल मरु
शूल और फूल की तुम रक्षक
जीवनाधार तभी तो कहलाती हो ।।
तूने होम किरण पर खुद को किया,
जरा जाहिर न मन का भेद किया
खुशी माँगी किरण हित सूरज से,
रवि सखा तभी कहलाती हो ।।


5
धरती की पुकार
 

हे भास्कर ! प्यासी है तेरी धरती,
एक बूँद पानी की खातिर ----।
छटपटा रही है।
ध्यान रखता है ,----
अम्बुद भी ,
चातक की प्यास का ।
गहन ,विस्तृत सागर ---
यद्यपि ,
आच्छादित किए है, तेरी-
इस निधि को ।
हिमाच्छादित पर्वतेश्वर यद्यपि करता हैशृंगार,
तथापि
तुच्छ हैं सभी, और
आश्रित हैं वे भी ---।
तुम्हारे ही ।
इसीलिए हे भानूदय !
पृथ्वी-पीड़ा का भान करो, और
अपनी सुनहरी सौगात से, सम्मानीय धरा का
सम्मान करो ।

6

6
शुभेच्छा
 

हर खुशी हो मुबारक तुझे ऐ सनम,
     करते  रहेंगे दुआएँ खुदा से ये हम
मौसम सदा ही बसंती मिलें
अधर प्रतिपल हों तेरे खिले
नम चक्षु तेरे कभी न मिलें
रंगीन  उपवन  तेरा ये रहे
बुलबुल सदा कूकती ही रहे
फूल भ्रमर कली को बनाता रहे
लटें हमेशा ही तेरी सजाता रहे
चाँद चौदहवीं का तुम हो मगर
रातें सदा ही तेरी पूनम बनें
जगमगाएँ सितारे तेरी जुल्फ़ में
ज्योत्स्ना तेरे मस्तक की बिंदिया बने ।


7
तम से क्यों घबराए प्यारे ?
 

क्या सोची थी निकली क्या है जीवन की तकदीर
सुनते थे लेकिन ये सच है, कि जीवन टेढी खीर।।

कौन नहीं  अपने  मन में अरमानों को बसाता है ?
कौन नहीें अभिलाषा मन में सुमन सुरभि की लाता है ?
कहो कौन जो इस दुनिया में न पथ-पुष्पिला चाहता है ?
कड़वे फल चखने का आदी हो गया अब ये शरीर ।।
मैंने भी प्यारो एक दिन, प्यार की दुनिया पाली थी,
चहुँ ओर सपनों में मेरे, पुष्पित एक-एक डाली थी,
अभिलाषित था मन मेरा यह, प्यार की गंध लुटाने को,
पुष्प-पत्र कोमल यह देखो बना नयन शहतीर ।।
जीवन को हर्षित करने हित आई मृदु मुस्कान,
विस्मित भय से, दूर गगन से देख रहा था चाँद,
थी भव्य भावना मन मंदिर की दिशा दिप्त थी प्यारी,
लेकिन तम ने दिया निशा का झिलमिल आँचल चीर।।
एक किरण आशा की अब भी मन मंदिर में बैठी है,
होगा सुरभित आँगन जग का बावरे मन से कहती है,
तम से क्यों घबराए प्यारे दूर सितारे चमक रहे,
है आज अमाँ तो, कल राका क्या, न देगी तम को चीर???


8
कण-कण होगा मलियाली
 

अभी अगर है रात का साया, कल फैलेगा सुबह का नूर ।
कण-कण जग का भासित होगा, होगी हर विपदा तब दूर ।।

है पथराई भूमि अभी तो कल वर्षा भी आएगी,
कलह क्लेश सभी के दिल के वो सारे धो जाएगी ।
महकेगा उपवन फिर से तब, नृत्य करेंगे वन में मयूर ।।

हर एक तरु की शाखा पर फिर छायेगी ये हरियाली,
मरु-भूमि का कण-कण इक दिन हो जाएगा मलियाली।
महकेगा मरु इक दिन सारा खिलें होंगे पद्म-प्रसून ।।

संचित रखो प्यारे अपने नयन का निर्मल नीर,
संकट में धीरज न खोते कभी भी जग में वीर ।
हो बेशक अभी रात जवाँ पर नहीं सवेरा दूर ।।

रजनी के होते भी देखो किरण आश की चमक रही,
फिर क्यों प्रिय मुख पर तेरे दुख की आभा दधक रही?
आनंदित होंगे परमानंद सारे संकट होंगे दूर ।।


9
तुम्हें शक्ति बनना है
 

जब तुम नहीं होते  तुम्हारी याद होती है ।
नयनों ने जो की थी वही फरियाद होती है ।।
मैंने बस समझा है, नयनों की भाषा को
मेरे मन में बसी है जो तेरी उस अभिलाषा को
न तुम ही अकेले हो न मैं ही अकेला हूँ
हम दोनों ही क्यों फिर फरियाद करते हैं?
क्यों याद करूँ तुझको? भूला ही नहीं मैं जब?
झूले में बाँहों के,  तेरीे झूला ही नहीं मैं जब?
उमड़ी सी  घटाओं  से  तेरे  कुंतल हैं न्यारे,
खंजर हैं  नयन  तेरे  कैसे  हम बचें बेचारे?
अधरों की हॅँसी तेरी मेरे दिल में बसी वैरी,
तड़फाती  है मुझको  हर एक  अदा तेरी,
गंगा-सा  मन तेरा  यमुना  सा  तन  तेरा
जरा दूर अभी है वो जो घर है सखी तेरा।।
संगम हम दोनों का नहीं दूर है अब ज्यादा
एक बात मैं कहता हॅूँ, करो मुझसे ये वायदा,
तुम्हें मेरी शक्ति बनना है कमजोरी से ज्यादा
गोपी भी तुम ही हो तुम ही हो मेरी राधा ।।


10
विरह की पीड़ा
 

मेरे मन की व्यथा को पहचानो,
तुम  पहचानो  मेरी  मजबूरी ।
कभी  न  समाए मन में हमारे
बीच  बनी  जो  दैहिक दूरी।।

मिलन हमारा  सात्विक होगा, आत्मिक  होगा पहचानो
कभी भी प्रियतम अपने  दिल से दूर मुझे तुम न मानो
हर एक रोम में मेरे बसे तुम ज्यों फूलों में बसी खुशबू
सुमन सुगंध में कहो कहीं क्या बनी कभी भी है दूरी?

रात  अंधेरी  विरह की पीड़ा  तुझको जलाती मैं जानूँ
बच  पाऊँगा  इस  अग्नि  से  मैं कैसे  न ये जानूँ?
जल में  जीवन जैसे  समाया तुम हो समाए सांसों में
जल से जीवन की बोलो क्या कभी बनी है कब दूरी?


11
सफर के साथी
 

जो भी मिला मुझको जीवन सफर में
उसे  मैं  गले  से  लगाता चला ।
पड़ा सामने जो कभी दुख का बादल
हवा से उमंग  की  उड़ाता चला ।।

रिमझिम भी देखी घटा देखी मैंने ,
अतिवृष्टि की भी अदा देखी मैंने।
गिरि को उठाकर उसकी जगह से
जलद को मैं ठेंगा दिखता चला ।।

प्रलय की है चिंता मुझे न तनिक भी
करुणा से भरपूर हैं अब, थे तब भी
झरना झरे  न  नयन  से किसी के
जल  में नयन  का  चुराता चला ।।

थी दीप्त दिशाएं तिमिर ही से सारी
था  तम गहनतम धरा से भी भारी
सूरज छिपा जो था अंबुद के पीछे
मैं रश्मि धरा को दिखाता चला ।।


12
दुनिया की तासीर
 

क्या सोची थी निकली क्या है, ख्वाबों की तासीर,
जिसे  जिंदगी  कहते हैं हम है वो टेढ़ी खीर ।।
हँसना चाहें हँस न सके हम,
अश्कों पर भी बंदिश है
हर एक मोड़ पर हर एक राह में
दुश्मन है और रंजिश हैं
कैसे किसी का करे यकीं अब हुआ दागी सच का चीर ।।
गम है अपना खुशियाँ पराई
दुनिया तनिक ये रास न आई ।
जिससे वफा की आशाएँ की
खिल्ली वफा की उसी ने उड़ाई
जीवन कश्ती फँसी भंवर में कैसे लगे अब तीर ?
संघर्षों में ही जो जीना ,
घूँट लहू का ही जो पीना
पिघल-पिघल कर ही जो गलना
तिल तिल करके ही जो जलना
पीता चल तू विष इस जग का और इस दुनिया की पीर ।।


13
अनिर्मित व्यक्तित्व
 

अनिकेतन!
मजदूर
धरा काशृंगार
तेरे ही करों से शोभता है।
हे!
जलधि को बाँधने वाले!
तुम ही तो हो,
जो
चुनौती देते गगन को।
हे!
बेशकीमती....
महलों का निर्माण करने वाले,
तेरे
सपनों के महल का
कब होगा निर्माण?
और...
कैसे ?
जाएगा  आंका
सपने का मूल्य
तेरे !


14
चाँद चौदहवीं का
 

घनघोर काली घटाएँ
और  दमकती दामिनी
प्रतीक यदि हैं दुख का,
तो क्यों करता है नृत्य
मयूर, होकर मदमस्त...?
रत्नाकर छिपाए यद्यपि है
गर्भ में रत्न-आकर
नदियाँ स्वयमेव करती हैं
अर्पण अथाह जलराशि
फिर करता क्यों है क्रंदन...?
होता पूर्ण है चंद्र
पूनम का, लेकिन
ग्रस लिया जाता है
पूर्णता को पूर्णेंदु की।
कदाचित उपमेय है इसीलिए
चाँद
चौदहवीं का!


15
मधुबन की लालसा
 

अरे मेरे मन
क्यों होता अधीर है?
देखकर क्रंदन
प्रतिरूप का अपने
जीया जीवन जटिल है
झंझावातों में।
झुलसाता रहा है दावाग्नि में।
ज्ञान है जबकि
छलकने हैं आँसू
अनवरत; निर्बाध फिर क्यों है लालसा
मधुबन की?
हो मलयवत
धरासम कर धारण शक्ति
धैर्य की।
और...
चलता जा
मूक
देने को प्रेरणा
समाए हृदय में संताप
समुद्र का।


16
यदि भुला दिया जाता
 

चिरकाल तक
जलने के उपरांत
शीतल, स्निग्ध अग्नि में
किया गया...,
शिकवा !..
यह
कि
याद नहीं किया गया?
क्यों?
... सच ही तो है।
सचमुच,
किया नहीं गया याद।
क्योंकि...
नहीं जा सका भुलाया ।
यदि
भुला दिया जाता तो...
संभव ही न था
कर पाना
याद....!


17
दर्शन तत्त्व से
 

ये अवलंबत जगत
मिश्रण है सप्त पदार्थों का
और ये सप्त पदार्थ....
मिश्रण हैं;
आश्रित हैं....
नव द्रव्यों के।
‘क्षिति’ नाम धैर्य,
जीवन है ‘अप’
प्रकाश नाम है ‘तेज’ का।
बहता जीवन,
शून्याकाश,
बलवान काल,
दिक् दस
परम तत्त्व देहिन,
सारथि मन...
इन्हीं का संयोग है...
ज्ञेयाज्ञेय जीवन !!!


18
पंखा
 
                    
             पंखा
सभ्यताओं का,
एक ऐसा अवयव
जिसे
जब चाहा
जिसने चाहा
आवश्यकतानुसार
घुमा लिया।
और
वह
सुरीली आवाज में
दर्दीला गीत
गुनगुनाते हुए
शीतल हवा
देने लगा।


19
दीपक तुम्हीं को जलाना पड़ेगाण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्
 

दीपक स्नेह से भर - भर जलाओ,
धरा को उजाला तुम्हीं से मिलेगा ।
राह में है  अभी अंधेरा अगर तो
उजाला तेरी ही राह से मिलेगा ।।

मंजिलें सभी पास आती रहेंगी,
  ख़िजाएँ स्वयं दूर जाती रहेंगी।
अंधेरा धरा का मिटाने की खातिर,
दीपक तुम्हीं को जलाना पड़ेगा ।।

खुशियाँ तुम्हें हैं जगत को लुटानी,
अग्नि को भी करना है तुमको ही पानी ।
सूरज को जीवन अपना बनाकर,
दीपक की मानिद जलाना पड़ेगा ।।

चहुँ ओर होंगी तुम्हारे बहारें,
चमकेंगे नभ में जबतक सितारे ।
होकर शशीवत शीतल तुम्हीं को,
मेरे संग तराना ये गाना पड़ेगा ।।


20
स्नेह का दीपक
 

जलाओ दीए तुम उनके लिए,
घर अरसे से रोशन हुए जो नहीं।
हों जाएँ रोशन वे राहें सभी,
अंधेरा जहाँ से मिटा ही नहीं।
धरा का अंधेरा मिटाने की खातिर,
दीपक स्नेह का फिर-फिर जलाओ,
रंजिश से बैठे हुए जो घरों में
  सभी को परस्पर, गले से मिलाओ,
लबों पर सदा बोल मीठे रहें,
अंधेरी न राहें हो अब कहीं।।
दीप रोशन ऐसा करनाा प्रिय
दुख न समाए किसी के हिए
अँखियाँ किसी की कभी नम न हों
खुशियाँ कभी भी कहीं कम न हो
मनों में, हमेशा ही आशा रहे
मिलें राह में न निराशा कहीं।।


21
याद
 

ऐ दोस्त तुझे क्या दूँ
मेरे पास में ही क्या है?
एक प्यार ही है मैंने  तुझे प्यार ही दिया है।
शायद तुझे मुझसे एक ही गिला है,
लेकिन मुझे भी तुझसे उपालंभ ही मिला है।।
पूछूँ यदि मैं तुझसे, कैसा ये सिला है?
मेरे यार ये तो तेरा खुद का ही फैसला है।।
कैसे करूँ बयाँ मैं ये क्या हो चला है?
एकांत ही बस अब तो लगता मुझे भला है।।
बातें तेरी सलोनी मुझे याद हैं आती
ऐसा मैं बन गया हूँ ज्यों दीपक में जले बाती।
पैगाम तुझे दिल का इस दोस्त ने दिया है।
तुने भी तो इससे इकरार ये किया है।
वादा रहा है इसका तुझे याद न करेगा।
तेरे सिवा कहीं भी फरियाद न करेगा
लेकिन इन दूरियों में मेरी खता क्या है?
तूने किया न याद कभी भूलकर भी जिसको
उसने तेरी याद में सब कुछ भुला दिया है।।


22
पलाश
 

दूर से ही करा रहें हैं बोध,
अस्तित्व का स्वयं के।
दर्शनीय है,
और सराहनीय भी,
ये...........................।
दग्ध पलाश।
जिनके सानिध्य मात्र से ही दग्ध हो उठा है,
वातावरण।
करा रहे हैं बोध अपना, ये
दग्ध गुलाब भी।
मगर................!!
चुन लिया जाता है गुलाब
सौंदर्य के द्वारा,
आभा को स्वयं की
द्विगुणित करने हेतु।
और...
जीवन-मरण
सदैव यथास्थान ही होता है।
कैसी है विड़ंबना........?
दोनों ही हैं कुसुम!
दोनों ही रक्तवर्ण!


दोनों ही दहकाते हैं
वातावरण!
किंतु.................
एक इतराता है भाग्य पर स्वयं के,
बँधकर केशपाश में....
रूपसी के।
और दूसरा...............
सदैव रहता है
लालायित........!!!
बंधने को केशपाश में।


23
पुष्प और सुगंध
 

हे सुगंधेश्वरी!!!!
पुष्प की अभिलाषा का,
अस्तित्व का, सौंदर्य का पुष्प के
क्या तुम्हें भान है???
सुगंध रहित पुष्प का...
कोई अस्तित्व नहीं होता।।
ज्यों वाणी के साथ अर्थ
और
जल के साथ जीवन का संबंध है
पुष्प और सुगंध का संबंध....,
इनसे परे नहीं।
हे सुरभि!
इच्छा तुम्हारी ही है,
यदि नहीं होगी
तो, गुलाब!
गुलाब तो गुलाब ही है।।
काँटों में पलकर भी शूलमुक्त।
और शायद;;;;;;;;;
इसीलिए...
यह जगत हर कीमत पर
गुलाब की ही इच्छा करता है।

लेकिन
विपरीत इसके..........।
सुमन,
सुगंध की ही इच्छुक है।
क्योंकि,
अतिरिक्त सुमन के,
सुगंध का कहीं अस्तित्व नहीं है!


24
नारी
 

नारी!
सृष्टा  की अद्भुत इच्छा
जिसको
  प्रदान किए गए हैं ................
विविध रूप।
प्रत्येक रूप...
स्वयं में अनुपम।
किंतु
विविधता के साथ
रूप की
विविधताएँ और भी हैं!
कर्त्तव्य, समर्पण, त्याग,
उत्तरदायित्व, ममत्व की।
तथापि............
आवश्यकताएँ स्वयं की।
पूर्ति हेतु सदैव तत्पर।
धन्यवाद का पात्र है ‘वह’
इस अनुपम सृष्टि का सृष्टा।



25
वफा  (एक)
 

पग पग पर
पल प्रतिपल
करते रहे वफा
लेकिन...................।
जब इस ब्रह्माण्ड की ओर से
इस वफा का
प्रत्युपकार
करने का वक्त आया
तब...
वफा न कर सका स्वयं से भी वफा!


26
वफा  (दो)
 

करते रहे अब तक
इस दुनिया से हम वफाई।
किंतु..
अफसोस!
इस बेवफा दुनिया को
वफा....
तनिक भी न भायी!!!

27
कर्त्तव्य व मजबूरी
 

कर्त्तव्य परायणता फर्ज, प्रेम, ममत्व
सहानुभूति का कर्ज
क्या कभी चुका पाया है कोई?
आधुनिक दौड़ के
अंधे, थोथले, आदर्शवादी युग में!
जिस युग में
महज मिलते हैं उपालंभ
स्वीकार करने को
ममता के माँ की,
भ्रातृत्व के भ्राता के।
अनुज के प्रति स्नेह
एवं सखा की बैचेनी के बीच
भरमार है;
केवल फर्ज की!
  ललकार है;
केवल कर्त्तव्य की...
देश के प्रति,
समाज के प्रति,
परिवार के प्रति,
माता के प्रति!
कर्त्तव्य है सेवा का,


रक्षा का, आजीविका का।
मगर है किंकर्त्तव्यविमूढ़;
परंतु संघर्षरत है,
प्रयत्नशील है,
जूझ रहा है...
सूर्योदय से सूर्यास्त तक
नहीं,नहीं छः पहर लगातार
लगा रहता है,
  बेगारी में,
क्योंकि बेहतर है यह बेकारी से।
मेरा आशावादी मन
संजोए हजारों स्वप्न,
कल्पनाशील युग में
बन जाते हैं
सहज, साध्य किंतु
पलभर में ही
भावुक हृदय
भावना रहित बनकर
रह जाता है
केवल तंत्रमात्र
रक्तशोधन एवं परिचालन का।
ऐसा वह अग्रजानुज
आश्रित है स्वयं
 

परिवार पर
समाज पर
देश पर
फिर कैसे
वह उऋण हो सकता है?
इनके ऋण से...;
कैसे हो सकता है?
जबकि...
क्षण प्रतिक्षण
प्रयासरत है तिल-तिल कर जल रहा है
कर्त्तव्य की ज्वाला में
किंतु
समस्या है... मजबूरी...प्राथमिकता की,
आवश्यक तत्त्वों के
कर्त्तव्यपरायणता की।

28
जिंदगी
 
नजर डाली,
  दुनिया की चहल-पहल की तरफ
मनाई जा रही हैं खुशियाँ;
मृत्यु पर विलाप हो रहा कहीं है।
छाती से चिपटाए
लोरियाँ सुना रही है माँ,
बच्चे को।
पकड़कर, बालक को, पिता
जा रहा है स्कूल छोड़ने।
कोई जाम पी रहा है
मोहब्बत के, चाँदनी रातों में
किसी की तारें गिनते गुजरती हैं रातें,
जुदाई में महबूब की।
लुटा कोई रहा है ढेर माया के
बेटे की शादी में अपने,
जोड़ रहा है कोई दमड़ी-दमड़ी
पीले करने को हाथ
  जवान बेटी के !!!
लगता है, जिंदगी एक मशीन बन गई?
भावनाएँ इंसान की अर्थहीन बन गई!
इंसान कोई जिंदगी बहुरंगी जी रहा है,


सुख और दुख के कोई घूँट पी रहा है
गा रहा है गीत, खुशी के कोई
पी रहा है गम भुलाने को कोई,
सतरंगी मौसम है ऋतुएँ हैं सतरंगी
जिंदगी का भरोसा क्या
ये तो है बहुरंगी!


29
कई बार है देखा...
 

रहता नहीं समय सदा एक-सा
किया है अनुभव, कई बार है देखा।
कहते थे कबीर कि...
पौन जलाती है... !
जलाते हुए दीये को उसे देखा है मैंने आज।
नाम था ‘हितेश’ पर हित करते न देखा!
पतंगों के पीछे शमां को घूमते है देखा
दुनिया में कहो कब नीर ने जलाया है किसी को?
हे जहान् वालो!
मैंने आज जलाते ठंडे पानी को देखा!!!
करते थे जो कभी विश्वास की बातें
उन्हीं ने दी हैं आज विष-वास की रातें।
कहते थे वो कि हम भूलकर भी भूल न करेंगे,
पर्वत जैसी;
भूल उनको करते हुए देखा!!!
किया हे अनुभव कई बार है देखा।।


30
ममता और ममता
 

आवाज आ रही है
बच्चे की, गरीब के, चीखने की।
सोचा था मैंनें!
किंतु
यह चीख थी बेटे की धनकुबेर के।
मगर क्यों?
माना, गरीब को है अधिकार,
चीखने का...
भूख में, प्यास में अभाव में,
लेकिन,
कुबेरों के अभाव को नहीं सका समझ!
ठीक तभी
शृंगारिकता का समुद्र
अधढ़का तन,
आधुनिक मन लिए
दिखाई ममता पड़ी, सड़क पर।
इंतजार में...?
वहीं दूसरे छोर पर, एक और ममता थी!
धूमिल, धूसरित,
भू-कणों के भार को
सिर पर उठाए


श्रमबिंदु फल से सिंचित
सकुचाई सी।
मुँह को छिपाए,
चिथड़े में लाज के ।
किसलिए?
बेटे की खातिर!
दोनों ही हैं माँ
दोनों ही के रो रहें हैं शिशु
दोनों ही हैं अर्धनग्न,
कारण...
पहली के लिए सम्पन्नता एवं परिपूर्णता
दूसरी के लिए...
अभाव।
जी हाँ........
  एक सब कुछ करती है अभाव में
मगर दूसरी सब कुछ होते हुए भी.....?


31
नदीः जीवन दर्शन
 

हे नदी!
तुम्हारी निर्बाध गति की,
कामनाएँ कर रहा है पहाड़।
समुद्र से समुद्र पर्यन्त,
तेरी इस यात्रा का
अंजाम क्या होगा?
परिणाम क्या होगा?
नहीं है मुझे मति।
परमार्थवश या स्वार्थवश,
संज्ञा दो या संज्ञाहीन,
पर्वत और मैदानों में,
खेत और खलिहान में
रुके न तेरी गति।
नदी और पर्वत का,
मुझे ज्ञात नहीं संबंध कोई,
मगर
संबंध तो बन ही जाता है
नाम उसे चाहे दो कोई
पर्वत से दूर हो चली
जलधि निहारे तुझे नदी।
चुनते हैं लोग पुष्प और छोड़ देते शूल को,


भूलकर भी मत दोहराना
प्रिय तू इस भूल को
बिन शूल के फूल नहीं
रक्षा ये फूल की करता है
दृष्टिपात करते हुए फूल पर
अरि भी शूल से डरता है।
समुद्रांक में जाने तक
तेरी, बनी रहे,
निर्बाध गति!


32
स्वप्न भंग
 

संजोए मन में स्वप्न,
गिन रही थी प्रहर प्रत्येक
ताकि हो मिलन सके
प्रियतम से, सपनों के
और जब
उस सपने के साकार होने का
समय आया,
ठीक पहले मिलन के
मिलनोत्सुका रजनी
पुनः
घिर गई
वियोग में...
एक,
चिर वियोग के लिए,
क्योंकि...
कर आच्छादित लिया था
सूर्य को,
निष्ठुर, प्रेममयी, स्नेही किरण ने।।


33
आश की वंशी
 

बैठा हुआ प्यासा में
अनजान हूँ राहों का
तेरी झलक जो मिल जाए
कुछ शांत हृदय फिर हो।।
न चाहूँ मैं कुछ भी
जो तुझको पा जाऊँ
बस लगी लगन है एक
दर्शन अब किस विध हो?
यमुना के किनारे पर
रिक्त झूले हैं पुकारें
हे लहरों ! करो कुछ तो
केहि प्रेम मिलन अब हो
सुन ले ऐ मस्त पवन
क्यों सूना पड़ा है कदंब
है कहाँ छिपी राधे?
धुन शांत ये कैसे हो?


34
मानव और शूल
 

स्वार्थ हित
तोड़ लेता फूल को
करने को शांत
वासना.....।
यद्यपि   
चूसता हूँ रक्त मैं
तुम्हारा।
जब बर्गलाते।
कोसते तुम
बाधक को
पिपाशा के ।
किंतु.....
जिस के रहता संग
करता पोषण वही।
रहता निष्कंटक
बीच शूल के
देता सा
एक संदेश..............................!


35
कालजयी
 

हे गहन गंभीर नीलीमा!
अस्तित्त्व  रहे तुम्हारा,
काल, काल अनंत।
करो प्राप्त स्थायित्व,
युग-युग पर्यंत,
आभा का,
पूनमेंदु की।
बनी रहो......
गतिशील, अनवरत,
भागीरथी सम,
करती मालिन्य दूर,
जगत का।
कल्पित हों साकार,
मन के निराकार
ंिबंब...
है अभिलाषा
अनुभूत अभिव्यक्त
कालजयी!


36
आँसू
 

प्रकृति प्रदत्त,
प्रकृति को प्राप्त
अनमोल उपहार....................।
आँसू!
सुख-दुख,
राग-वैराग
भक्ति-भावना
जन्म व मृत्यु
प्रत्येक......
अनुभूति की अभिव्यक्ति का
य़द्यपि
माध्यम है
महत्त्वपूर्ण एवं सशक्त।
परंतु...
वज्र एवं पाषाण से
अनुभूति के,
आँसू !!!!!!


37
लक्ष्मण रेखा
 

सड़क के किनारे
वसंतानुभव युक्त
एक,
प्रौढ़ वृक्ष।
और
शुष्क डाल पर बैठा
सुंदर चमकीला
पक्षी....?
सड़क पर चिल्लाती
मोटरकारों के रेले को
संदेश, कुछ देता-सा
मगर.......
मोटर-गाड़ियों की
धूम्ररेखा,
पक्षी, वृक्ष एवं रेले के बीच
कार्य करती है
लक्ष्मण रेखा का!!!


38
बाती की अनकही...
 

मैं बाती हूँ।
आत्मा;
दीपक की,
शक्ति हूँ मैं।
स्निग्ध रस युक्त हो,
जब-जब
करता है अंगीकार
जलाती हूँ स्वयं को।
हो जाती हूँ स्वर्णमयी,
संग पाकर स्वर्णदीप का।
स्वज्योत्स्ना से,
करती हूँ रजत को भी कनक
परंतु......
वास्तविक स्वरूप तो
मृत्तिका रूप ही है।
आभावान हो तब तक
जब तक अस्तित्व है मेरा।
स्वयं कालिमा युक्त,
जगत प्रकाशक


तुम केवल एक दीप हो।
और.......................
मैं...!!!!
तुम्हारी अंकिचन
आत्मा!!!


39
हकीकत
 

हकीकत  है वह!
जो दिखाई नहीं देता,
हम या तुम;
हकीकत नहीं!
ख़्वाब हैं।
कल्पना हैं किसी कुशल शिल्पी की।
जिसने;
अपनी सुंदर कल्पना के आधार पर,
निर्मित तो कर दिया
एक स्वप्निल महल।
लेकिन...।
लेकिन इस महल की चकाचौंध,
शान-शौकत, राग-रागणियाँ
वैभव...............
सब कुछ ख़्वाब हैं।
यदि हकीकत है,
तो
केवल खंड़हर।
सायरण बजाती मंत्री की गाड़ी
अथवा
शताब्दी का शानदार कम्पार्टमेंट

या
यान की एग्जिकेटिव यात्रा.......
सब कुछ ख़्वाब हैं
और यदि यह सब
हकीकत हैं
तो फिर.....?
कागज बीनता बचपन
खेत पर खून बहा सोना उगाता किसान
अट्टालिकाएँ बनाते पाषाणवत् कोमल हाथ,
मशीनों मे पिसता-घिसता मजदूर;
क्या हैं???
हकीकत है वह जीवन;
जो जन्मा नहीं,
हकीकत है वह मृत्यु;
जो दफनाई न जा सकी,
वह जीवन जिसे जिया न जा सका!
वे आँसू जो कभी निकल न सके
वह भूख जो कभी समाप्त नहीं होती
वह प्यार जो कभी किया नहीं गया
वह रहस्य जिसे न समझ लिया गया
ख़्वाब नहीं हैं ये सब।
हकीकत हैं.....हकीकत हैं.....हकीकत हैं
ये सभी।


40
यथार्थ बोध
 

ओ रे चातक!
मत तड़फ।
स्वाति नक्षत्र की खातिर।
यदि...
सिद्धांत ये तेरा है अटल,
तो याद रख,
बीत जाएगा प्रतिपल।।।
ओ रे समुद्र!
मत पसार बाँहें,
पूर्णिमा के लिए
क्योंकि...
षोड़ष कलाओं हेतु
इसने घूँघट हैं कर लिए।।।
ओ मेरे आकाश!
कर मत तू आश।
क्योंकि
क्षितिज के उस पार भी,
मिलन संभव नहीं।।।
ओ सच्चे हृदय!
पाखंड़ के संसार में जीना सीख,
नहीं तो,


यह  असार संसार
हो जाएगा
आतुर
सीखाने को
परिभाषा
सत्य की!!!


41
आशा
 

हे आशे!
तुझ तक पहुँचने के,
केवल दो ही हैं मार्ग
प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष च।
परंतु...
मंजिल है कंटिली
लक्ष्य है दुर्गम।
संभव नहीं कर पाए कोई,
साहस, इस निर्जन मार्ग पर चलने का।
जिस पर
अभी तक चलें हैं कुछ विशेष लोग।
हालांकि....!
दिखाई दे रहा है
दूर-दूर तक
सघन, सुंदर हरियाला वन
मगर संदेह है....
कि
जो है अदृश्य कैसा होगा???
हे इच्छा!
तेरी शक्ति के समक्ष
लुप्त की परवाह नहीं।


मंजिल यदि भविष्यत् में है,
तो होने दे।
लिए शमशीर हाथ में, मैं आता हूँ।
रिक्त हस्त मानव हित
उचित यह है नहीं
कि....
दस्तक तेरे द्वार पर दे।
परंतु निश्चित है यह भी,
तू यदि साथ है,
तो उजली किरणें
देती हैं पैगाम
एक
अनुद्भूत सुखद एहसास का।।।


42
अहसास
 

विश्वविद्यालय के प्रांगण में
कुछ धुरंधर छात्र
तल्लीन थे स्वयं में
बेपरवाह हर बात से
विचारशून्य हर विचार से,
निमग्न थे केवल,
आगजनी, पत्थरबाजी और अश्लीलता में।
ये हमारा वर्तमान...........;
भविष्य का निर्माता.....??
चौराहे पर से आ रही
खचाखच भरी एक बस
जब बदकिस्मती से जा फँसी
छात्र दलदल में
ध्यान नहीं दिया गया
उस बस पर भी।
कि किया क्या जा रहा है???
सड़क पर जाती एक जीप
जब धूँ धूँ कर जलने लगी।
जब
सड़क पर चहुँ ओर
काँच की बोतलों के टुकडों और पत्थरों की


कालीन दिखाई देने लगी,
ऐसा लगा,,,
मानो...
शिव ने ताण्डव किया हो
(यद्यपि शिव का ताण्डव विश्व कल्याणकारी होता है)
मगर ये विश्वविद्यालयी शिव थे विनाशकारी अवतार में।
मगर...
विश्वविद्यालयी शिव
जब ताण्डव समाप्त कर
शांत मुद्रा में घर पहु1चा,
तो उस समय,
हाँ, हाँ उस समय
देख कर घायलावस्था में
बहन को,
जो कर रही थी यात्रा
उसी अभागी बस में
जिसे लील लिया था,
इन बुद्धिजीवियों ने।
जीप सवार मामा का,
जब अस्पताल से समाचार आया
तो....
नम हो गए नयन
उस ‘प्रलयंकारी शिवावतार’ के


लेकिन...
इस अहसास के बाद भी
और भी है एक अहसास
सुनते हैं हम अक्सर
कि...
इतिहास स्वयं को दोहराता है!
इसीलिए कोई शिव
क्या करेगा ताण्डव
पुनः???


43
रहस्य
 

हे प्रकृति!
क्या यह रहस्य कि...
पुरुष,
रहता है सदैव
निर्लिप्त,
असंग तटस्थ
कर सकोगी उजागर?
क्या...
जान पाएगा कोई?
यह कि...
नाना रूपों में स्वयं तुम्हीं,
करती हो आलिंगन
पुरुष का ?
क्या नहीं हैं ये त्रयगुण
केवल
तुम्हारे ही पास?
और तुम
इन तीनों गुणों से
होती हो भ्रमित स्वयं ही,
छलती हो स्वयं को ही।
शायद...


तुम भूल जाती हो
यह कि...
जो निर्लिप्त है,
निर्विकार है
शाश्वत।
वह;
तुम्हारे क्षणिक संयोग से
क्या हो सकता है बद्ध,
आलिंगन में???
तुम्हारे!!!


44
नट
 

इस  रंगमंच पर
कौन है जो अभिनय नहीं करता?
पात्र ये सजीव सभी
अभिनेता है इसे रंगमंच के
महत्ता है पाषाण, लौह स्तंभों की भी।
मगर...
रूपक को अपने ऊपर आरोपित करने वाले
नट की भावनाओं की महत्ता;
क्या है?
कैसी विड़ंबना है यह
कि...
पात्र ही दर्शक भी है स्वयं का!
और अपने ही नयन कर रहे हैं किनारा,
अपनी ही छवि देखने से!
एक ही है चेहरा
मगर...
कभी छलकाता है सागर, आँखों से
और कभी हर्षातिरेक का मधुर स्वर
छले जा रहे हैं बारम्बार
छद्मवेशधारी छलिए से।


लेकिन खुश है फिर भी !
गम नहीं होता छले जाने का स्वयं के,
क्योंकि...
छले और भी गए हैं
संग-संग।
नट तो करता है स्वांग
निश्चित अवधि के लिए
परंतु...
एक अमिट छाप
नटेत्तर पात्रों पर पड़ जाती है,
जो सहज नहीं है
विस्मरणीय!


45
अफसाने
 

माना कि अफसाने तुम्हारे बन गए।
मगर...
क्या किया है चिंतन कभी
समुद्र की आकांक्षा का
गंभीरता का?
और
गहन विस्तृत असीमित भंड़ार का?
माना कि....
भानु तपाता है स्वयं को,
धरा हेतु!
परंतु!
क्या किया है कभी अनुभव
शशी की दूधिया उज्ज्वल किरणों का?
क्या वह अमृतदधिचि
कर पाता है शीतल
दहकती धरा को?
यह भी माना कि...
धरती सदैव ही करती है
आकांक्षा दिवाकर की?
मगर.................!
समुद्र के ज्वार की
आकांक्षा का हेतु क्या है?
क्या वे उन्नत अवनत लहरें
प्यासी नहीं???
चिलचिलाता गगन
और...
गंभीर रुदन करता
नदीपति!!!
प्रत्युत्तर नहीं हैं,
इन निर्मूल
आधारहीन
साधार अफसाने का?


46
परम सत्य
 

खट्टे मीठे कार्यों का
लेखा जोखा समेट कर
लेकिन
अस्तित्व की याद दिलाता
कह रहा है अलविदा
हम सबको
लेकिन
नहीं  दे रहें हैं ध्यान
हम अलविदा पर
क्योंकि
मनेंद्रीय स्थिर है
अभिलाषित है
‘स्वागतम्’ की।
लेकिन
सार्थक ये होगा तभी
जब आप
नहीं करेंगे निरर्थक
अलविदा को
क्योंकि,
बीज,
प्रायः पेड़ के फल में ही होता है

और जब
बीज अलविदा कह देता है
तभी होता है जन्म पौधे का!
(होते हैं अपवाद भी कुछ;
पर वे कुछ विरले ही होते हैं)
यदि.......
करना है स्वागत
पौधे का
तो बीज की अलविदा का
प्रत्युत्तर देना ही होगा!
करना पड़ेगा सम्मान
बीज की कुर्बानी का
परंतु,
याद रखो,
ये
बीज भी
किसी पेड़ से ही
उद्भूत है
सदैव रहती है सत्ता
बीज की
क्योंकि
यही है
परम सत्य...!


47
इच्छा
 
जा रहा है रवि
क्षैतिज के उस पार
हृदय पर छोड़कर
एक विशाल चमकीले सागर को
लेकिन...
आभावान है यह सागर
केवल भास्कर के द्वारा ही,
इसीलिए तो
निस्वार्थ रूप से
वह आता है
और आएगा कल भी।
करों से अपने
गहन गंभीर तमाकाश को चीरता
वो देखो!
सहस्रों उपहारों को अपनी भुजाओं में लिए।
प्राणीमात्र की खातिर
स्वीकार करो,
इन विशिष्ट उपहारों को
उसी प्रकार
जैसे कि
प्रदान कर रहा है
दिनकर।

दिनकर के प्रथम कर के साथ ही
हो गया है नवसंचार
जीवन का
ताकि....
आप तजकर आलस
मन-मंदिर के अनुरूप,
साकार कर सको
स्वाभिलासित
अभेद्य महल
और
वह
युग-युग पर्यंत
रक्षा करता रहे, वैसे ही
जैसे
गुलाब की रक्षा
शूल करते हैं।


48
अनुपम संवेदना
 
नखरों से बढ़ी, नाजों में पली।
बाबुल की कली ससुराल चली।।
षोड़षशृंगार  मुबारक  हो,
तुझको तेरा प्यार मुबारक हा,
हर अदा  तेरी  हो मनभावन
तेरा हृदय सदा ही रहे पावन,
तू आज पिया के घर है चली।।       
भ्राता सब तेरे चाह रहे,
खुशहाल तेरा संसार रहे,
परिवार सदा तेरा फूले-फले
खुशियाँ तुझको बेशुमार मिले,
तू प्रियतम के गले का हार बनी।।
तेरे मंदिर के नन्हें मुन्हें
भोले-भाले वो बाल तेरे,
तुझसे वो अब सब रूठे हैं
तेरे प्यार के वे सब भूखे हैं;
तू क्यों इनको है छोड़ चली।।
तेरे मंदिर का सुंदर उपवन
जाने से तेरे वीरान पड़ा
इस उपवन के अंदर अब भी
है रिक्त तेरा स्थान पड़ा
तू जनम-जन्म तक सुखी रहे
उपवन की कहे ये कली-कली।।
49
फरियाद
 

जाने वाले जरा, जाते  जाते सुनो।
अपने लोगों की ये फरियादें सुनो।।

जाने वाले  तेरी  याद  आती  रहे।
तुझको हम सबकी यादें सताती रहें।

मगर तुझको न ये रुलाएँ कभी।
कर रहें हैं दुआएँ ये हम सभी।।

नयन से न निकले कभी गम के आँसू।
खुशी ही खुशी में  सदा  ही  रहे तू।।

दुआ है दुआ है सब की दुआ है।
सदा खुश  रहे  तू ऐसी दुआ है।

कठिन राहों पर तू सदा ही संभलना।
सुमन की तरह से तू सुरभि उगलना।।


50
प्रेमपाश
 

बंधन
जो दो प्राणियों को
कर देता है
एकाकार..........!
बंधन जो दिलों को दिखाता है
एक राह।
बंधन
जिसमें युगल बंध जाते हैं....
युग-युगों पर्यंत।
बंधन
जो कर देता है विवश...
एक चाहत को
इच्छा को।
किंतु..............
प्रत्येक चेतन प्राणी
स्वयमेव
इच्छुक है स्वीकारने को...
ये प्रणय सूत्र।
जिससे
उद्भूत है मही, सृष्टि एवं
स्वयं सृष्टा।


क्या संभव है..............?
किसी
चेतन के लिए
रक्षा कर पाना
स्वयं की
इस अनोखे
किंतु
अनिवार्य बंधन से।
यदि
संभव है
तो
ब्रह्माण्ड में नहीं रह पाएँगे
ये ग्रह, नक्षत्र, ये शून्याकाश,
ये धरा....
जो
जकड़े हुए हैं
परस्पर
प्रेमवश!


51
वियोग क्षणिका
 

तुम छोड़ चले हो हम सबको।
आँखों से कहो कि न बरसो।।

ऐसा तो कभी सोचा भी न था,
तुम  सबको  यूँ   तड़फाओगे,
कल तक भी हमें न था ये यकीं
हम  सबको  तुम यूँ रुलाओगे?
दे  कौन  दिलासा अब हमको?
अब दिल को तसल्ली कैसे दें?
ग़मगीन  हुए  सब   बैठे  हैं,
अब  कक्ष तेरे  इस  मंदिर के
सूने - सूने   से   रहते  हैं।
ये  कैसे कहे  मुख से अपने,
हे उमड़ी घटाओं! मत बरसो।।
हर  मूरत  तेरे   मंदिर की,
खोई - खोई -सी  रहती है,
सबके मुख-मंड़ल की आभा
सोई - सोई - सी  रहती है
हर साँस यही करती है दुआ,
तुम चाँद-सी तारों में चमको।।


52
जिंदगी और गाड़ी
 
मतैक्य है विश्व
कि....
राजधानी और शताब्दी
जीवन है
महानगर के चंद असाधारण लोगों का
मेट्रो है शान...
चुने हुए महानगरो की
मगर.............
अछूता है अंडमान।
अछूता था।
और...
रहेगा युग पर्यंत।
कुछ पल की खातिर
ठहरती हैं सभी,
नियत स्थान पर अपने
और
बलात् रोक दी जाती हैं
साधारण लोगों की गाड़ियाँ।
क्योंकि...
कानून है यही...!!!
निकाल जाती है फुर्र से
असाधारण लोगों की बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ
मगर ...
पैसेंजर
जोहती रहती है बाट
  हरी बत्ती और गार्ड की सीटी की
काश!
दुनियाँ में न बनाई जाती
पैसेंजर
चहुँ ओर होती
राजधानी, शताब्दी और मेट्रो।
तो क्यों तरसती जिंदगी
पैसेंजर गाड़ी की!


53
भूख
 

प्राणी जब भूख से लड़ता हुआ
पराजित हो जाता है, तो
दरिंदा बन जाता है
चाह कर भी,
नहीं कर पाता परवाह
किसी की।
चेतनाशून्य, विवेकहीन बनकर
मजबूर हो जाता है
और फिर.........।
अपने ही आपको
क्षुधा तृप्ति का
साधन बना लेता है।
प्राणी,.................
चाहे हो भुजंग
अथवा
हो खूंखार नरभक्षी,
या मानव,
या फिर कोई जलचर।
लेकिन.....
विपरीत इसके लड़ते हुए परिस्थिति से।
जब प्राणी के द्वारा


परास्त कर दी जाएगी,
भूख।
उस क्षण प्राणी, पूजनीय हो जाएगा
देवों के द्वारा भी।
परंतु...
क्षुधा, तृष्णा, पिपाशा
ये हैं अंतहीन सब
और
तृप्त  को आवश्यकता है,
अत्यधिक
तृप्ति के साधन की।
दरिंदे बन जाते हैं प्राणी
क्षुधा एवं  तृप्ति
दोनों ही के संयोग मात्र से
और लग जाता है
एक प्रश्नचिह्न
आखिर
ऐसा क्यों...?


54
पतझड़ बनाम बसंत
 

बसंती बहार में बीज एक बोया,
सहलाया गया, सेवित किया गया
आतप-अप से।
क्योंकि मैं प्यार का बीज था ।
अंकुर बना फिर नन्हा पौधा
कोमल स्निग्ध पल्लव
करने लगे अभिवादन,
स्वजन व परजन का।
और वे सभी
रक्षा करते रहे मेरी
अपनी बाँहों को फैलाकर
दिवाकर के करों से।
अंततः पराजित हुआ रवि
लेकिन यह क्या?
रवि को बाँध लिया  गया
सहस्रों पाशों में
मानो,
‘मेघ’ ने ब्रह्मास्त्र से विवश किया
आने को बंधन में ‘कपि’ को।
जलद की आँख से टपका आँसू
बन गया मोती


पाकर पल्लव प्रेम को
मगर झंझावात भंयकर थे
और भयभीत होता हुआ मैं
प्रयासरत था,
अपने अस्तित्व को बनाए रखने में
कि
एक बुजुर्ग ने जकड़ लिया मुझे
अपनी बाँहों में,
और रक्षा की मेरी
लेकिन वह स्वयं की रक्षा नहीं कर सका।
परंतु
था गर्व बांधवों को उसके
मिटाकर स्वयं  को
जीवन दान देने को मुझे।
अन्य साथी करने लगे विलाप
उनके जर्द आँसू
याद हैं मुझे
आज भी,
मगर
करुणा की मूर्ति वसंत
आ गया देने
दिलासा
और अपने सुरभि युक्त करों से


समस्त विरहाकुल नयनों के
शुष्क कर दिए आँसू
और निहारने लगा मुझे
जैसे
निहारता है मदन
श्रावणी रातों को
और
सकुचाई रातें
छिपती हैं जैसे
शरों से।
मैंने भी
वैसे ही प्रयास किया
अपने को बचाने का
मनोज से
और
एक बूढ़े वृक्ष की
परिपक्व छाया के पीछे
छिपकर देखने लगा
चुपचाप
लेकिन असफल था मैं
क्योंकि मैं प्यार का पौधा था....!!


55
अवहेलना - एक
 

जब-जब की गई
अवहेलना !
शांतिदूत की
तब-तब
कुरुक्षेत्र ने
शृंगार किया
और......
अस्त्र-शस्त्र की झंकार में
गुम हुई शांति ने
प्रतिशोध लिया
शांतिदूत की
अवहेलना का!!!!


56
मूल्य बदल गए
 

प्रिय !
कितना होगा स्वादिष्ट व मधुर ?
हृदय मित्र का तुम्हारे,
दिए जिसने ये मधुर फल,
तुम्हें
जामुन के।
प्राण नाथ!
करो उपाय कोई
कि...
ले सकूँ रसास्वादन
मधुर हृदय का।
समझाया मकर ने
उचित होगा नहीं
माँग लेना प्राण
स्वार्थहित ।
किंतु......
अनुनय व मान के समक्ष,
पत्नी के
कहीं ठहरी है मित्रता?
अंततः
ले चला मित्र को मकर

कर पर सवार पीठ पर ।
निश्छल हृदय न रख सका रहस्य
शब्द एक - एक
परोस दिया बीच जलधारा के,
जिह्वा ने मकर की
सानुनय-सखेद ।
न कर सके इंकार
कपिराज,
हो तत्पर गए तुरंत ही
मिलन को,
प्रियतमा से मित्र की।
रख स्वयं दिया निकाल कर
कलेजा सहर्ष
सम्मुख................!.....?
...हो विह्वल याद से मित्र की,
करने दूर संताप ग्लानिर्मय मन का
गया मकर
वृक्ष के नीचे
अकस्मात्
किंतु मुसकुराता देखकर
मित्र को
शाखा पर जामुन की
विस्मय से मलता आँखें
रह गया मकर


हतप्रभ !!!
ज्ञात जब हुआ रहस्य
कि........................
संग जो गया,
वह था
क्लोन (प्रतिरूप)
मित्र का!!!


57
सौंदर्य सृष्टि का
 

वन सुन्दर वनचर सुन्दर
मानव सबमें
सुंदरतम है।
पर्वत सुंदर, पत्थर सुंदर
कंकड़ उससे सुंदरतर है।
उपवन सुंदर, वाटिका सुंदर
जंगल भी नहीं कम सुंदर है!
महल, भवन, निकेतन सुंदर
झोंपड़ी सुंदर इन सबमें है।
नव-निर्मित सुंदर
मध्यम सुंदर
क्या खंड़हर की सुंदरता कम है ?
शैशव, यौवन, जरा हैं सुंदर
मृत्यु सुंदरतर में
सुंदरतम है।


58
साहचर्यगत प्रेम
 

लोग जहाँ के कहते हैं,
‘‘हम दोनों ही मतवाले हैं।’’
निगरानी भी कुछ करते है,
कुछ ठंड़ी आँहें भरते हैं।
पर चपला तुम चंचल चित की
चली निकट ही आती हो
पर दुनिया वालों के ड़र
लौट तुरंत ही जाती हो।
सौंदर्य का प्रेम पुजारी भी,
देख तुम्हें सुख पाता है
अलि और कली का हे प्रिय!
यह
जन्म-जन्म का नाता है।


59
क्रंदन बीज का
 

बीज,
अंकुर बनने से पूर्व ही
वृक्ष बन गया,
मैं हूँ........................।
वृक्ष,
जो फलने से पूर्व ही काटा जा रहा है
मैं हूँ........................।
ठूँठ, जो कलियाँ आने से पूर्व ही
पतझड़ में फँस गया है
मैं हूँ........................।
हरियाली को कर दिया आच्छादित,
मकड़जाल ने जिसकी,
मैं हूँ........................।
किया नहीं जाता जो सेवित
शुक, पिक, मयूर से
मैं हूँ........................।
आ नहीं सका सावन जहाँ
बसंत दूर है जिसका
मैं हूँ........................।
दिनकर की गर्मी और धरा के रस से है जो वंचित
मैं हूँ.......................।

60
हरियाली की पीड़ा
 

हरियाली ने पूछा, धुएँ से
क्यों भाई; मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?
एक ठंड़ी लम्बी आँह भरकर
धुँआ बोला, काश !
तुम समझ सकती मेरी पीड़ा को!
प्रताड़ित किया जाता हूँ प्रतिदिन
किए जा रहें हैं अत्याचार
अनेक
मिटाने को अस्तित्व मेरा
परंतु
उपालंभ फिर भी
मुझे ही दिया...!
जबकि...............
प्रकृति मेरी ऊपर उठना है !
क्या मैं ही तुम्हारा शत्रु हूँ ?
प्रिय सखे !
तुम्हारा वास्तविक हत्यारा मैं नहीं
अपितु....
पशु एक है...
निरीह सामाजिक प्राणी!


61
संदेश वाहक

हे सर्वशक्तिमान इच्छाधारी मेघ!
पड़ेगा कार्य करना तुम्हें,
आवश्यक,
क्योंकि.......
अत्यंत विश्वसनीय तुम ही हो।
अनुभव है यक्ष कार्य का।
यमुना की तटवर्ती, शांत, स्निग्ध
किंतु इठलाती, बलखाती, मदमादी
श्वेत लहर को ;
समुद्र की आकांक्षा का,
गंभीरता का,
करुण क्रंदन का,
अंतःकरण के भिक्षुक का
कराना है मात्र..........
अहसास।
किंतु
नहीं है अवकाश
विश्राम का।
लाना होगा संदेश भी
कपिवत!


62
पतंग
 

भूतल से,
व्योम को चूमती
करती हुई आकर्षित
प्राणियों को।
करने को शांत जिज्ञासा...
हुआ तत्पर ही था,
कि..............
भिड़ा पेंच,
टूटी डोर
और..........
किए हृदय में धारण,
सहस्रों प्रश्न.....?
जिज्ञासाएँ अनगिनत,
आ गिरी
धरती पर।


63
क्यों

किया कोयल ने प्रश्न,
कि.........
दृष्टिकोण क्या है?
नारी के प्रति!
बोला वसंत,
शक्ति, भाग्यविधाता, पूजनीया है
प्रेम की देवी,
सहिष्णुता की प्रतिमा!
वाह!!!
फिर भी
तिरस्कृत!
अपमानित इतनी,
क्यों.........???


64
पहली बार
 

चमकते हुए सूर्य को
कर दिए जाने पर
कांतिहीन।
मेघ द्वारा।
बन कर प्रकाश पुँज
आ खड़ा हुआ,
दीपक,
राह में.......!
और...
सूर्य को
हो गया अहसास,
अस्तित्व का।
किया नाम
मन ही मन
दीपक को,
पहली बार!!!


65
आधुनिकतम सभ्य
 

मानव.....................
तुम सभ्य क्यों हुए?
क्यों लाँघ आए;
बर्बरता की दीवार!
हे सामुदायिक पशु!
तुम,
सभ्य तो हुए
मगर...
सभ्यता की अक्षुण्णता हित,
बन गए हो
हिंस्रतम।
जबकि
करने लगे हैं;
डाह
वे
हुए नहीं है
जो सभ्य
विकृत रूप से
अपने!


66
प्रयास
 

प्रयासरत,
भूतल से,
व्योम के आलिंगन को।
अग्रसर
तनिक जो हुई;
पतंग...,आह!
भिड़ा पेंच
टूटी डोर
और......
लड़खड़ाकर एक बार
बढ़ चली.....
शनै- शनै;
होने को आत्मसात
विस्तृत,
असीम व्योम में।


67
दीप की आस्था
 

दूर-दूर तक फैली
निशा
अंधियारी।
राह भटका पथिक एक
तिमिर की विशाल सरसि को
करने की पार कोशिश में,
दीप एक छोटा-सा
करता प्रकाशित।
आशा थी केवल यह...
अनगिन सितारों में सोम-सा
करेगा आलोकित,
दिशा को; निशा में...
मगर था प्रश्न,
साथी तिमिर की
पवन राह अड़ी।
आस्था थी मगर दीप में
उसकी ज्योति।
ध्रुवसम अड़िग और अमिट।
मिली राह
अंततः.........


दीप ही से ।
स्वयं को कर हवन
बन मार्गदर्शक
स्वर्ग होगा तेरा
और
तू
होगा शिखर पर।


68
मनुष्य का अस्तित्व
 

मनुष्य.......
आशा-निराशा, हार-जीत
सुख-दुख के बीच
झूलते हुए,
प्राणी का चित्र....
सजीव।
और इसकी पूर्ति हेतु
करता  यत्न
कितना होता अच्छा
यदि............
मनुष्य;
रहता मनुष्य ही।
आकांक्षाओं और संघर्ष
के बीच
न होती गहरी खाई!
किंतु
आज, पाटने हेतु खाई को,
खोदा जो गया
गड्ढा,
क्या होगा?
शायद!


एक दिन
मनुष्य,
न रहेगा मनुष्य,
होगीं;
केवल खाइयाँ
और यदि...
पाट भी दी गई
तो फिर
एक नया प्रश्न
रहेगा खड़ा
रूह में
खड्ड़े की
मनुष्य के अस्तित्व के।।


69
तुम कौन
 

कलिका!
जीवन है यद्यपि भ्रमर हेतु।
फिर क्यों हो तुम,
संकुचित?
शिक्षा की है ग्रहण
सदैव ही समर्पण की
फिर क्यों....
कर नहीं तुम रही,
अर्पण !!
मुसकुराती हो
सदैव ही
ताकि...
मुस्कुरा सके,
प्रकृति,
जंगम ये।
फिर,
क्यों तृप्त तुम कर नहीं रही
हृदय को
पाषाण के ?
तुम
कलिका ही हो न ?

70
मुबारक

कलिका !
क्षण हो मुबारक
चिर प्रतिक्षित...।
दुलारी गई यद्यपि,
हो तुम
कुशल माली के द्वारा
किया जाता है
आहार
पत्तों से वृक्ष के।
किंतु...
कर प्राप्त सकती नहीं,
पूर्णता को,
अभाव में,
अलि के ।
क्षण है सम्मुख
बनना होगा समर्थ,
ताकि....
कर वहन सको
भार
मृग का....।
टपकता, करता-सा आकर्षित


दिल को
प्रत्येक,
यौवन तुम्हारा,
कायम रहे सत्ता
चिरकाल तक
चिरस्थायी ।

71
अयाचित याचना
 

चहुँ ओर छाई धुंध में,
दूँ क्या उपहार मैं ?
इच्छा प्रबल है जबकि ।
नहीं कुछ पास,
लेकिन एक चाहत
किए है विवश देने को;
घिरा हूँ उलझनों में
किंतु कामना है सुशोभित प्रति तुम्हारे,
घेरे रहते हैं चंद्र को ज्यो सितारे
करो पूर्णता को प्राप्त
पूर्णिमा को ।
किंतु
न आए कभी
प्रतिपदा
अमा की
ज्येष्ठ के प्रचंड़  रवि के समान
रहो आलोकित
जगत को दाय हो शीतलता
तुम्हारी किरणों से।
न आए जीवन में कभी,
अपराह्न


कामनाएँ आशाएँ, जो भी संजोई मन में,
तुमने,
हों पूर्ण ।
रिक्त हूँ मैं,
फिर भी यदि चाहते हो...
तो मेरे पास है
बस, प्यार,
प्यार....
और सिर्फ प्यार...........!!!


72
अनकही आकांक्षा
 


गुलशन  में  हैं  फूल  खिले, और  सजेंगे  गुलदस्ते ।
ऐ दोस्त मुबारक हो तुमको, यह पावन दिन हँसते-हँसते।।

वास्ता  न  पड़े  तेरा  कभी गम  से तन्हाई से।
शुभ्र दिवस मुबारक हो, हमदम दिल की गहराई से।।

शरद-शशी के इर्द-गिर्द,     होते असंख्य सितारे हैं।
हो जाओ पूर्ण पूनम चंद्र, जगत इसको ही निहारे है।।

पाओ प्राप्त पूर्णता मन की, बन जाओ ज्योति जन-जन की।
पग-पग  परतें  पुष्प-पत्र, न  आए  कभी  अवसान सत्र।।

आभा सुषमा तेरे मन की, बन जाए सुखदा जीवन की।
बनो ब्यार नंदन वन की, है आकांक्षा चंचल मन की।।


73
सूर्य का संदेश
 

उपवन में आने पर वसंत के
ललचाया मन,
उत्तर तुरंत ही मिला,
झुलसाया है स्वयं को
ज्येष्ठ की लू में
जमाया स्वयं को है शीतलता में शीत की
वर्षा में, दामिनी की सहा है प्रचंड़ता को
क्या सह सकोगे तुम ?
सच ही कहा,
शायद नहीं ंहे सामर्थ्य
मगर है सत्य परम यह,
घाम, पाले को
सहकर ही तो
किया प्राप्त है यौवन वसंत ने पुनः।
फिर क्यों हो जाता है,
भयभीत;
प्राणी
घटाओ और लपलपाती चपला से?
क्यों भूल जाता है,
कि.........
छिपा इंद्रधनुष है


पीछे इनके ?
यद्यपि
कर लिया जाता है कैद सूर्य को भी
फिर भी,
संदेश
जीवन का देता यही है !


74
पृथ्वी की पीड़ा
 

हे पृथ्वी !
रत्नाकर पुत्री
क्यों तपाई जाती हो प्रतिदिन...
भास्कर के द्वारा ?
प्रातः, सायं, मध्याह्न;
पलभर भी
क्या..........?
सह नहीं सकती?
वियोग...
क्यों,
क्यों करती हो ?
समर्पित स्वयं को
दिनकर के  करों में!
और वह रवि
लेकर ऋण,
रत्नाकर से ही
देता है जीवन तुम्हे।
अंकुरित हो जाती हो;
पौधे, वृक्ष, झाड़ियाँ
करती हो पोषण सबका
मगर
सदैव बनी रहती हो मूक।
सदा ही देती रही हो,
सब कुछ
सबको,
जो भी प्राप्य हैं तुम्हें।
मथाती रहती हो स्वयं को
चुपचाप.............
शायद इसलिए
कि तुम
कर सकती हो धारण,
सब कुछ।
है धैर्यवती धरित्री!
पूजनीया हो तुम ।
क्योंकि...
तुम्हारे  अतिरिक्त
क्या, रखता है क्षमता कोई ?
धारण करने की ।
हे रत्नाकर पुत्री !
भानूदय को भान नहीं है
संतति का ।
इसलिए...
संतति की खातिर ही,
तुम
यह सब कुछ
सह रही हो, शायद,
क्योंकि....
ज्ञात तुम्हें है कि
दिवाकर
अनुपस्थिति में तुम्हारी
नहीं कर सकता है पोषण
संतति का
मगर, तुम्हारा वह हिस्सा
जो मरुस्थल है;
विवश कर देता है...
चिंतन को ।
और तुम, अपने बाँझपन पर
गर्म खून के आँसू बहाती हो
और वह भानूदय
द्विगुणित वेग से
तपाता है,
तुम्हारे मरुस्थलीय जीवन को।
लेकिन.....
हे सहिष्णुता की प्रतिमा!
मत डर ।
आता ही होगा,
चंद्रमा;
और तेरे,
इस विशाल दुःख को
हर लेगा
अपनी
ज्योत्स्ना से।


75
जीवन का सत्य
 

जीवन में,
क्या है सत्य ?
लिए प्रश्न चिह्न
यह
पूरी की
सुख-दुखात्मक,
जीवन यात्रा।
सत्य क्या है?
मगर ...
रहस्य,
रहस्य ही रहा...।
जबकि पा लिया
परम सत्य
‘मृत्यु’
को ।


76
नूतन परिभाषा
 

हे प्राचीनतम उन्नत सभ्यता
हो क्यों रही है;
बावरी ?
कद्रदान नहीं हैं,
तेरे खंड़हरों के ।
मत कर
आधुनिक सभ्यतम सभ्यता से,
मानवता,
प्रेम,
बंधुत्व और
इंसानियत की व्यर्थ
आकांक्षा।
क्योंकि...
महत्त्वहीन हैं
दलीलें,
सभी
नूतन परिभाषाओं के,
समक्ष ।


77
तांडव आकांक्षा
 

थर - थर - थर
धरा काँप रही।
केवल;
तुझको ही ताक रही।
हिम-मस्तक पर ,
क्यों, बैठे मौन ?
रक्षा
अब जग की
करे कौन ?
भाई,
भाई को काट रहा।
बचपन,
पत्तल चाट रहा।
नारी !
सचमुच अब ‘अबला’ है।
अत्याचारी जग सकला है।
धर्म !
हो गया अब धंधा
न्याय
हुआ बिलकुल अंधा
मेहनत का फल !

मिलता है भूख
‘चंद्र’ तेरा देता है धूप।
ममता, प्रेम बन गए भूत।
सुन ले तो तू
अब ओ अवधूत !
निज कर में ले अब डमरू उठा
शिव!
कर ताण्डव
अब प्रलय मचा !


78
बदलते संदर्भ
 

पृथ्वी.......
क्यों नहीं बन सकी ?
तुम ।
आकाश
हे सूर्यजा ।
यद्यपि निर्दोष हो तुम
पृथ्वी होना,
तुम्हारा दोष नहीं है।
फिर भी;
एक आशा
आकांक्षा
की गई
बार-बार
और जब
धूमिल हो गई आकांक्षाएँ
किया गया बार-बार वज्रपात,
तुम पर
मगर है धैर्य धारिणी
सह रही हो सब भार;
मेरी मानो...
बदल डालो रूप अपना


बन जाओ,
आकाश!
ताकि...
समझ सके,
ब्रह्मांड़
महत्त्व को
तुम्हारे ।


79
अपूर्ण आकांक्षा
 

मैं,
आज जो भी हूँ;
तुमसे ही हूँ।
मगर...
तुम कहाँ हो ?
नहीं हूँ जानता यह ?
हे प्रेरणा !
हे प्रज्ञा !
चली आओ,
बस एक बार।
करने हेतु प्रेरित,
प्रज्ञावान पुनः।
ताकि...
बच जाऊँ,
भटकने से।
नैनों ही नैनों में
सदैव रही हो करती
मार्गदर्शन
कह जाओ यह,
कि
परीक्षा है,


अथवा
सजा
करने की प्राप्त,
अपनी ही
आत्मा को !


80
भोर का तारा
 

चमक उठते हैं
असंख्य सूर्य
सूर्यास्त के साथ ही।
लेकिन...
इन सबसे अलग
मस्त,
मगन
भोर का तारा
चुपचाप रहा है साधना में ।
और जब रक्त रेखा रजनी
नील परिधान में,
सुशोभित
आलिंगन करती है;
तो यह युगल,
संदेश देता है
नव प्रभात का
और फिर
यही भोर का तारा,
जग को करता है
आलोकित बन
प्रभात का सूर्य !

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 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक 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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: अभी अगर है रात का साया, कल फैलेगा सुबह का नूर । - संत कुमार शर्मा की कविताएँ
अभी अगर है रात का साया, कल फैलेगा सुबह का नूर । - संत कुमार शर्मा की कविताएँ
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