सन 2000 में प्रकाशित मेरे कविता संग्रह "ओ माय लव" की इस कविता "आजकल" पर हुड़दंगियों ने खूब नेतागिरी की... यहाँ तक कि कवित...
सन 2000 में प्रकाशित मेरे कविता संग्रह "ओ माय लव" की इस कविता "आजकल" पर हुड़दंगियों ने खूब नेतागिरी की... यहाँ तक कि कविता को अदालत तक ले गये । लेकिन साँच को आँच क्या ! छह साल तक चले संघर्ष के बाद माननीय न्यायालय ने माना कि ये कविता सामाजिक विद्रूपताओं पर एक तीखा व्यंग्य है।
आज फिर अपनी वो कविता आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ , इस निवेदन के साथ कि कृप्या इसे किसी धर्म से जोड़कर न देखें । कविता अगर ये बताने में सफल रही कि हमारे आदर्श क्या थे, और हम हो क्या गये हैं; तो निश्चित ही ये इस कविता की सफलता होगी।
आजकल [लम्बी कविता]
पिछली रात गए देखा मैंने
वाल्मीकि कृत रामायण के
किरदारों को सपने में यूँ -
बिलकुल नहीं है राम
मर्यादा पुरषोत्तम
न ही आदर्श राजा
वह तो है कुटिल नेता
जो सुग्रीव को फँसा सा लेता है
अपनी चालों में
बाली को मार डालता है
छल से ही
मगर देता नहीं है सत्ता
अंगद को
जब तक कि पा न ले
और भी कुछ
इसी वजह
वो रखता है नज़र
बाली की विधवा पर !
जाती नहीं है सीता भी
राम के साथ वनवास
सीधी भागती है जनकपुरी
छोटी सी बात पर
बाप के पास
और उसका राम
अग्निपरीक्षा भी कैसे ले
वह फंसा सकती है
दहेज़ प्रताड़ना
और नारी उत्पीड़न के केस में
उसके माँ-बाप तक को !
बड़ा गुणी है लक्ष्मण
रावण के करने के पहले
उसने ही कई बार किया है
राम की अनुपस्थिति में
सीता का अपहरण !
इसी फिराक में रहता है
भरत भी
कब वो अकेला बचे
संपत्ति का वारिस !
क्या कहने हैं शत्रुघ्न के
राम-लक्ष्मण वानप्रस्थ पर
ऊपर-ऊपर विकल है लेकिन
चुपके-चुपके खुश हो लेता
दुःख इसका है केवल उसको
साथ चली गई उन दोनों के
सुकुमारी सी भाभी सीता
रही बात अब भरत भाई की
उम्र पड़ी है निपटा देंगे
फिर इक तरफ़ा चलेगा सिक्का !
हनुमान अब भक्त नहीं है
पिछलग्गू एक चमचा भर है
जाता है जो सिया खोजने
किष्किन्धा से उड़कर लंका
चोर जेब में गांजा रखकर
वहाँ उसे जब मिलती सीता
सान्त्वनायें-आश्वासन देता
इतने में जब रावण आता
कहता है कि फिफ्टी-फिफ्टी
चुपके से वह आँख मारकर !
दशरथ भी हैरान दिखे
पहले संभाल लेते थे
कैकई और सुमित्रा को भी
लेकिन अब चुक गए
एक में ही
मंहगाई के इस दौर में
कौशिल्या की फ़रमाइशों से!
दूसरी तरफ रावण
राक्षस ज़रूर है
लेकिन जन्मजात नहीं
बल्कि मजबूरी में
क्यों न हो
कौन पढ़ सका है
गरीबी में
भर सका है पेट
और समाज ने भी
दिया ही क्या उसे
उपेक्षा और गुलामी के सिवाय
ऐसे में
अपराधी नहीं बनता
तो क्या गाँधी बनता ?
कुम्भकरण भी ईमानदार है
नींद के प्रति
जानकार कि भाई संकट में है
सोता रहता है जानबूझकर
आखिर कौन खराब करे
फिजूल में अपनी नींद !
बहुत होनहार है मेघनाद
होना नहीं चाहता कुर्बान
बाप के लिए
सुलोचना के कारण !
विभीषण ज़रूर भिन्न है
वो राम को छोड़कर
रावण का भक्त है
क्योंकि समझ गया है
किसी का नहीं कोई
खून के रिश्ते ज़रूर
कभी-कभार
आ जाते हैं काम !
पिछली रात गए देखा मैंने
वेदव्यास कृत महाभारत के
किरदारों को भी सपने में ......
अलौकिक प्रेम की वजाय
पक्षधर है श्याम
फ़िल्मी रोमांस का
उसके लिए फैशन है प्रेम
और गोपियाँ एक माल !
एक तरफ थे परिवारजन
एक तरफ बेईमान हरजाई
उस पर रिश्तों की जंजीरें
जाति-मज़हब की दीवारें
ऐसे में वह किसको छोड़े
स्वाभाविक है खुद को तोड़े
इसीलिए ही मौका पाकर
मोहन के मथुरा जाने पर
खोज लिया राधा ने रस्ता
अपने घर के बाजू में !
समझदार है कंश
जो क़त्ल नहीं करता
सात-आठ भांजों को
बल्कि
कर देता है खलास
यशोदा-वासुदेव को ही !
उधर धृतराष्ट्र के लिए
नहीं रखते अर्थ
गांधारी-दुर्योधन
राज और तंत्र
क्योंकि अँधा है वो
मोनिका सरीखी
दासियों की चाह में !
देख रहे हैं भीष्म पितामह
बार-बार आगे-पीछे कर
वीडियो पिक्चर चीरहरण की !
दुर्योधन है बदला-बदला
करना चाहे अब वो संधि
पर बाकी कौरव का प्रेशर
इसीलिए बेबस है वो भी
सच्चाई से लड़ने मरने
है क्योंकि वो लोकतांत्रिक
आखिर एक तरफ फाइव हैं
और पक्ष में नब्बे ऊपर !
प्रसन्न है दुशासन
उस पर आजकल
पहना जा रहा जो
अंडरवियर टाइप
साड़ी की जगह
फैशन के नाम पर
क्योंकि थकेगा नहीं वो
खींचते-खींचते
ज़रूरत पड़ने पर कर सकता है
कृष्णागमन के पूर्व
एक ही झटके में सबकुछ झकास !
अनुसूचित जाति जनजाति
चाहे हो वह आदिवासी
कर लेता स्वीकार वो चेला
इतना बढ़िया द्रौण आजकल
शर्तें केवल निम्न लिखित हैं
ट्यूशन रुपया चाय नास्ता
कभी-कभी दारु की बोतल
एकलव्य क्या इतने में तो
निपटा देगा अंगराज को
उसने ठेका लिया है आखिर
मेकिंग टू द ग्रेट धनुर्धर !
कहते हैं कि बना न रहता
किसी चीज का मद या कि पद
लेकिन मैंने कर्ण को देखा
पहले था वो दुर्योधन का
बाडीगार्ड अब भानुमती का
जाने क्यों कबसे किस मद में !
अभिमन्यु को पता नहीं है
चक्रव्यूह का राज़
क्योंकि उसने सुना नहीं है
मम्मी-पापा की बातों को
गर्भ में रहकर
सुन पाया है वह तो केवल
सुभद्रा और कुंती के बीच
सुबह-शाम की नोंक-झोंक को
रही-सही जो रात बची थी
वह निकली चुगला-चुगली में
बड़ा-चढ़ा कर !
इधर सहमत है युधिष्ठिर
द्रोपदी की कीमत पर
हस्तिनापुर के लिए
इन्द्रप्रस्थ में मिलाने
खून-खराबा नहीं चाहते
भीम और अर्जुन भी
इतनी सी बात पर !
नकुल-सहदेव भी
अच्छे गणितज्ञ हुए साबित
इस तर्क के माध्यम से
कि जैसे पाँच सो एक सौ पाँच
घर की बात भी घर में रही !
पिछली रात गए देखा मैंने
उल्टा-सीधा ये सपना जो
देख रहा हूँ आजकल
खुली हुई आँखों से अपनी !
एक दूसरी बात ये है की
कैसा रिश्ता युद्ध-नार में
कहीं सूर्पनखा कहीं द्रोपदी
आखिर क्या कहता इतिहास ?
-धर्मेन्द्र तिजोरी वाले ''आज़ाद ''
तेन्दुखेड़ा, जिला- नरसिंहपुर (म प्र)
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