महाराजा सयाजीराव के युग की सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक सामंजस्य नीतियां - बाबा भांड अनुवाद – डॉ. विजय शिंदे

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महाराजा सयाजीराव के युग की सामाजिक , सांस्कृतिक और धार्मिक सामंजस्य नीतियां - बाबा भांड अनुवाद – डॉ. विजय शिंदे बाबा भांड मराठी भाषा के प्...

महाराजा सयाजीराव के युग की सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक सामंजस्य नीतियां

- बाबा भांड

अनुवाद – डॉ. विजय शिंदे


बाबा भांड मराठी भाषा के प्रसिद्ध लेखक और ‘महाराजा सयाजीराव गायकवाड चरित्र साधन प्रकाशन समिति, महाराष्ट्र शासन’ के सचिव हैं। इस परियोजना के तहत महाराजा सयाजीराव गायकवाड की सामग्री के फिलहाल कुल 51 खंडों का प्रकाशन हुआ हैं। महाराष्ट्र राज्य साहित्य और संस्कृति मंडल के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। इनका जन्म वडजी, तहसील - पैठण, जिला – औरंगाबाद, महाराष्ट्र, दिनांक 28 जुलाई, 1949 में हुआ है। बचपन से स्वयं कमाई कर अध्ययन करते हुए एम. ए. अंग्रेजी तक पढ़ाई पूरी की। आठवीं कक्षा में बालवीर आंदोलन में राष्ट्रपति पदक प्राप्त, दसवीं में स्काऊट-गाईड शिबिर के लिए कैनडा-अमरिका जैसे दस देशों की यात्रा। लेखक बनने के इरादे से छठी कक्षा से ही लेखन की शुरुआत। 1975 में पत्नी श्रीमती आशा भांड के सहयोग से ‘धारा’ और बाद में ‘साकेत’ प्रकाशन का आरंभ। अब तक 1900 पुस्तकों का प्रकाशन। नौ उपन्यास, दो कहानीसंग्रह, चार यात्रा वृत्तांत, चार ललित-गद्य, चार जीवनियां, चार स्वास्थ्य और योग, पांच अनुवाद, पच्चीस संपादन, पंद्रह बाल-उपन्यास, पच्चीस बाल-कथासंग्रह, तीन एकांकीका, सत्ताईस नवसाक्षरों के लिए पुस्तकें प्रकाशित हैं। काजोळ, जरंगा, तंट्या, दशक्रिया, धर्मा, योगी, युगद्रष्टा महाराजा आदि उपन्यास काफी चर्चित रहे और इनका हिंदी के साथ अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है। ‘दशक्रिया’ इस उपन्यास पर 2017 में मराठी भाषा में फिल्म बनी और चर्चा में भी रही। साहित्य अकादमी का बाल-साहित्य पुरस्कार, महाराष्ट्र शासन के ग्यारह, महाराष्ट्र फाउंडेशन, दमाणी और अन्य पंद्रह पुरस्कार। इनके साहित्य पर छः विद्यार्थियों ने पीएच्. डी. का अनुसंधान कार्य पूरा किया है। पाठ्यक्रम में पुस्तकें और कई पाठ सम्मिलित हुए हैं। अपने जन्मगांव में पानी के बहाव क्षेत्र का विकास, वाचनालय, गरीब, अपाहिज, गूंगे बच्चों के लिए निवासी स्कूल का निर्माण, योगसाधना संस्था के न्यासी, समाज के लिए लाभप्रद कामों में सक्रिय सहभागिता। प्रकाशन कामों के लाभ से उपर्युक्त कार्यों के लिए ठोस मदद। लेखन, प्रकाशन के साथ खेती, यात्रा और फोटोग्राफी का शौक। दुनिया के सत्तर से अधिक देशों की यात्रा। महाराजा सयाजीराव गायकवाड पर उपन्यास, चरित्र, किशोर उपन्यास, बालकथा, अनुसंधानात्मक स्वरूपोंवाली पैंतीस पुस्तकों का लेखन और संपादन।

E-mail - baba.bhand@gmail.com

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आज जाति-पाति और धर्म के चलते संपूर्ण सामाजिक जीवन अस्थिरता के काले बादलों से घिर चुका है। जनमानस को भविष्य में कौनसे दिन देखने पड़ेंगे इसकी चिंता सताने लगी है। ऐसी परिस्थिति में कुछ सालों से बारिश की कमी के चलते बार-बार दस्तक देनेवाली सूखाग्रस्त स्थिति, उससे पीड़ित होता किसान वर्ग, लोकतंत्र के रक्षक केवल हम हैं ऐसा शोर मचानेवाली देश की राजनीतिक पार्टियां और मुझे इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कहकर पल्लू झाड़नेवाली अनास्थाभरी आम मानसिकता से सारे समाज का जीवन सराबोर हो चुका है। वर्तमान वास्तविकता यह है कि इन सारी मुश्किलों के चलते सामाजिक, सांस्कृतिक और धर्म को लेकर सामंजस्यवादी स्वर ही संपूर्णता से बिगड़ते जा रहा है। अनास्था भरी दृष्टि अकाल, प्लेग, भारी वर्षा, तूफान इन संकटों से भी भयावह है। केवल अपने लाभ के बारे में सोचने की वृत्ति के कारण स्वार्थी प्रवृत्तियों ने जगह-जगह पर अपना डेरा जमाया है। अर्थात वर्तमान में अपने आस-पास कम-अधिक रूप से इसी प्रकार के दृश्य दिखते हैं; ऐसी परिस्थिति में स्वातंत्रता पूर्व काल में दृष्टा महाराजा सयाजीराव की ओर से जनकल्याण के व्रत का जिंदगीभर पालन किया गया है। महाराजा सयाजीराव के सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक कार्यों की अलगता और विशेषता ध्यान में रखते हुए वर्तमान परिस्थितियों में उपायों को ढूंढ़ने का छोटासा प्रयास मैं यहां पर कर रहा हूं। एक दौर में बहुत बड़े साम्राज्य के कर्ताधर्ता और आधुनिक सुधारवादी राष्ट्र होने का ढिंढ़ोरा पिटनेवाले ब्रिटिशों को भी अपने सुधारवादी तथा प्रगत विचारों से पीछे छोड़नेवाले अकेले महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ आधुनिक भारत के शिल्पकार 0है। पिछ...ले सत्तर वर्षों से इस तेजोमय इतिहास का कुछ-न-कुछ कारणों से इतिहासकार, विद्वान, अनुसंधाता और लेखकों से पढ़ना शेष रहा है, उसी अपूर्णता की पूर्ति हम लोग कर रहे हैं।

चौसठ सालों का सुखदायी कार्यकाल

महाराजा सयाजीराव का चौसठ सालों तक का कार्यकाल आधुनिक भारत के सुशासन के अनेक क्षेत्रों में बुनियाद रखना ही था। उन्होंने राजा बन जाने के पश्चात खुद शिक्षा पाई और समझ लिया कि शिक्षा ही परिवर्तन का अकेला माध्यम है। जन्मजात प्रतिभासंपन्नता, नवीन कौशलों को अवगत करने की ईमानदार दृष्टि से उनके लिए मानो ज्ञान का तीसरा नेत्र खुलने जैसा था। छः साल के प्रशासकीय और व्यावहारिक शिक्षा के अध्ययन से वे यह समझ पाए थे कि राजा अधिकार और सत्ता के आधार से जनता के लिए कल्याणकारी काम कर सकता है। उनके देशी और परदेशी अध्यापकों ने किशोरावस्थावाले राजा के दिलों-दिमाग पर यह अंकित किया था कि शिक्षा ही एक अकेला मार्ग है जिस पर से प्रगति और परिवर्तन की यात्रा को अंजाम दिया जा सकता है। अर्थात प्रजा के लिए अच्छे ढंग से शिक्षा को उपलब्ध करना ही राजा का कर्तव्य है।

सयाजीराव जैसे जिज्ञासाशील और प्रजाहित का सपना देखनेवाले युवा राजा ने शिक्षा के दौरान ही हिंदुस्थान और दुनिया के इतिहास का प्राथमिक परिचय किया था। उन्होंने पहचान लिया था कि दुनिया पर अपनी सत्ता स्थापित करनेवाले अंग्रेजों की असल ताकत शिक्षा और प्रशासनिक कौशल ही है। अठराहवें साल में प्रत्यक्ष तौर से राजकाज के सूत्र जब उन्होंने अपने हाथों में लिए तब सारे प्रदेश को घूम-फिरकर परखा, प्रजा की मुश्किलों को समझ लिया। उन्हें पता चला कि हमारे प्रदेश की खेती बारिश पर निर्भर है और चारों तरफ शिक्षा का अभाव है। सालभर में ही प्रजा के इन दयनीय हालातों को देखकर उन्होंने निर्णय लेकर जंगल में रहनेवाली अप्रगत प्रजा और अछूत जनता के लिए शिक्षा, निवास और कलम-कागज देने का क्रांतिकारक आदेश पारित किया। सामाजिक सुधारों की यह पहल उनके द्वारा ठोस बुनियाद रखी जाने का परिचायक ही था।

विदेश यात्रा से ज्ञान भंड़ार रूपी खजिना हाथ लगा

राजकाज का आरंभ करने से पूर्व महाराजा का पहला विवाह सन 1880 में तंजावर के लक्ष्मीबाई मोहिते के साथ हुआ। घर-गृहस्थी का सुख और राजकार्य का एक ही साल आरंभ हुआ था। इन दोनों मुहिमों पर उन्होंने आनंद और उत्साह के साथ कार्य शूरू किया लेकिन उनके घर-गृहस्थी के सुखदायी दिनों को चार सालों में किसी की नजर लगी। पत्नी महारानी चिमणाबाई का छोटीसी बीमारी के चलते 7 मई 1885 में दुखद देहांत हो गया। राजगद्दी के अगले छोटे वारिस राजपुत्र फत्तेसिंह और महाराजा सयाजीराव पर मानो दुखों का पहाड़ ही गिर पड़ा। इस दुख के चलते उनकी अनिद्रा की बीमारी बढ़ते गई। दूसरी शादी के लिए वे अनुमति नहीं दे रहे थे। राजमाता जमनाबाई और बड़े-बुजूर्गों के बहुत मिन्नतों के बाद उन्होंने दूसरी शादी के लिए हां भरी। देवास के सरदार परिवार घाड़गे की गाजराबाई के साथ 28 दिसंबर 1885 में विवाह हुआ और वे दूसरी महाराणी चिमणाबाई बन गई। लेकिन अनिद्रा की तकलीफ कम नहीं हो सकी। स्वास्थ्य उपचार के लिए विदेश में जाना पड़ेगा इस प्रकार की सलाह तज्ञ डॉक्टरों ने दी और 1887 में महाराजा सयाजीराव की पहली विदेश यात्रा संपन्न हो गई।

आधी दुनिया पर राज करनेवाले ब्रिटिश सत्ता के प्रशासनिक सफलता और सामर्थ्य का राज क्या है इसे जानने की जिज्ञासा सयाजीराव के मन में उठने लगी। इसी विदेश यात्रा के दौरान उन्होंने स्वास्थ्य उपचार के साथ लंड़न की शिक्षा संस्थाओं, कार्यालयों, उद्योगधंधों, ग्रंथालयों, वस्तुसंग्रालयों को देखा। हर एक बात का वे अपनी डायरी में लेखन करने लगे। कई विषयों के जानकार व्यक्तियों के साथ वे चर्चा करने लगे। सार्वभौम सत्ता के सामर्थ्य का एक-एक राज उनके सामने खुलने लगा। उन्होंने मन-ही-मन पक्का निश्चय किया कि जो-जो नवीनतम है और जनता के लिए हितकारी तथा फायदे का है वह-वह बड़ोदा लेकर जाना है।

शिक्षा ही परिवर्तनवादी सुधारों का हथियार

लिखा-पढ़ी और अंक ज्ञान से शुरुआत करनेवाले सयाजीराव ने अछूतों और पिछड़ों को शिक्षित करने का राज कर्तव्य निभाना शुरू किया था तथा सामाजिक क्रांति की शुरुआत भी की थी, इसे हम जानते हैं। उस समय बड़ोदा राज्य में स्कूलों की संख्या सौ से भी कम थी। आगे अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का आरंभ करने के पश्चात् उनके कालखंड़ में लगभग तीन हजार पांच सौ स्कूलों का निर्माण और आरंभ हुआ। इसके अलावा हर एक गांव में वाचनालय, संगीत शाला, संस्कृत पाठशाला, ट्रेनिंग कॉलेज इस प्रकार से शिक्षा का विस्तार करते हुए बुनियाद को मजबूत करने का कार्य भी किया। प्रजा के स्वास्थ्य को बेहतर बनाना भी राज कर्तव्य मानकर प्रमुख शहरों में अस्पतालों का निर्माण और छोटे गांवों में घूमते-फिरते अस्पतालों की शुरुआत की। महसूल सर्वेक्षण करवाते हुए किसानों के साथ न्याय किया और उचित लगान पद्धति को लागू किया। ग्रामपंचायतों के माध्यम से प्रशासन का विकेंद्रीकरण किया गया। आजादी के पहले एक प्रकार से यह लोकतांत्रिक प्रशासकीय व्यवस्था की ही शुरुआत थी। इस प्रकार से जनकल्याण की प्रबल इच्छा शक्ति के बलबूते पर लोककल्याण के प्रत्येक काम को अंजाम तक पहुंचाया गया। प्रशासनिक कार्यक्षमता को गति प्रदान कर खेती उद्योग को मदद करनेवाले उपक्रमों को बढ़ावा दिया। कला और उद्योग राष्ट्र की संपत्ति है, उसे प्रोत्साहन और मदद करना हमारा कर्तव्य है इस बात को ध्यान में रखते हुए बड़ी जिम्मेदारी के साथ कलाकार-उद्योगधर्मी जमशेटजी टाटा, दादाभाई नौरोजी, महात्मा गांधी, महात्मा फुले, लोकमान्य तिलक, पंड़ित मालवीय, लाला लजपत रॉय, श्यामजी कृष्ण वर्मा, दादासाहब फालके, रवि वर्मा, बालगंधर्व, डॉ. आंबेड़कर इन युगपुरुषों, कलाकारों और साहित्यकारों की वे मदद करते रहे।

सयाजीराव का युग सामाजिक सुधारों का युग था

महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ के चौसठ सालों के दीर्घ कालखंड़ को अगर देखा जाए तो तत्कालीन हिंदुस्थान के तीन चौथाई शति के संपूर्ण सुधारों का जाज्वलतम युग हमारे सामने साकार होता है। इस कार्य के पीछे प्रजाजन के हित और कल्याण की कर्तव्यभावना ही काम कर रही थी। इस कार्य को वे ‘वह मेरा मोक्ष का मार्ग है’ इस प्रकार से कहा करते थे। समाज में धर्म का महत्त्व है। धर्म के आधार पर समाज में अनेक रूढ़ी-परंपराओं का सालों से पालन होते आया है। इस धर्म का स्वयं को परिचय हो इस जिज्ञासा से उन्होंने प्रमुख धर्मों के बुनियादी तत्त्वों की शिक्षा विद्वानों से पाई। हिंदू धर्म के चार वेदों का सारांश रूपी ज्ञान संस्कृत पंड़ितों की मदद से प्राप्त किया। इस ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् उन्हें इस बात का पता चला कि सभी धर्मों के बुनीयादी तत्त्व मानव के कल्याण का विचार करनेवाली है; लेकिन समाज में रूढ़ी-परंपरा, विधि के कर्मकांड़ों से अनेकानेक बूरी बातों का इसमें शिरकाव हो चुका है। इससे सामान्य जनता को फंसाए जाने के प्रकार बढ़ते गए। उन्होंने इस बात को पहचान लिया था कि इस पर अगर उपाय करना है तो शिक्षा की मदद लेकर सामाजिक और धार्मिक सुधारों का आंखे खोलकर मेल-मिलाप करना होगा।

उनके युग में बड़े पैमाने पर बालविवाह हुआ करते थे। छोटी उम्र में शादी करने से बच्चों की शिक्षा और व्यक्तित्व विकास रूक जाता था और वे पारिवारिक जिम्मेदारी सक्षमता से निभाने के लिए काबिल भी नहीं बन पाते थे। सन 1904 में बालविवाह प्रथा पर पाबंदी लगानेवाला कानून बनाया गया और लड़कों के लिए 16 और लड़कियों के लिए 12 वर्ष की उम्र शादीलायक मानी गई। इस कानून को तोड़नेवाले को सौ रुपए जुर्माने का प्रावधान किया। उस युग में स्त्रियों में परदा प्रथा का प्रचलन था। महारानी चिमणाबाई ने स्वयं परदा प्रथा को त्यागा था। आगे चलकर परदा प्रथा त्याग का कानून भी बनाया गया। पति के असमय मृत्यु के पश्चात विधवाओं को पूनर्विवाह करने के लिए मान्यता देनेवाला कानून भी बनाया गया। इसके साथ ही तलाक का कानून, संपत्ति में पत्नी और लड़कियों की हिस्सेदारी का कानून भी बनाया गया और विधवाओं के विवाह हेतु सरकारी खजाने से मदद दे दी गई।

समाज अथवा मुख्य प्रशासन की ओर से विघातक प्रथाओं को चलने दिया जाए या बंद करे इस पर महाराजा सयाजीराव ने बड़ी गंभीरता के साथ सोचा और बड़ी हिम्मत तथा जिम्मेदारी के साथ एक-एक निर्णय को लागू किया। उनके इन निर्णयों में राजनीतिशास्त्र से संबंधित उनकी भूमिका स्पष्टता से दृष्टिगोचर होती है। इस प्रकार के सामाजिक सुधार उनके समकालीन कई सुधारकों और राष्ट्रीय स्तर के आंदोलन करनेवालों युगपुरुषों को अच्छे नहीं लगे थे। कइयों ने इस प्रकार के सुधारों को लेकर अपना विरोध जताया और कड़वी बाते भी की। इस प्रकार से कड़े विरोध और आलोचनाओं को सहन करते हुए उन्होंने बड़े साहस के साथ कठिन प्रसंगों में कुशलता के साथ जीत हासिल की है। स्वास्थ्य की समस्याओं के कारण उन्हें समय-समय पर विदेश यात्रा करना पड़ता था। इन यात्राओं के दौरान वे जब पश्चिमी देशों में घूम रहे थे तब वे अपनी आंखें और दिलों-दीमाग को खुला रखते थे और नवीन प्रगत, सुधारवादी विचारों के साथ वापस लौटकर अपने प्रदेश में सुधारों को जिम्मेदरी के साथ लागू करवा रहे थे। उन्होंने उन सुधारों को कभी भी जल्दबाजी में लागू नहीं किया बल्कि सीढ़ी-दर-सीढ़ी सुधार और कानून को बनाया है।

कवलाणे (कवळाणे) गांव से सफर का आरंभ कर बड़ोदा राजगद्दी पर आसीन हो चुके सयाजीराव ने ग्रामव्यवस्था में सभी जाति-धर्मों के बीच की सौहार्दता का अनुभव किया था। बचपन में सभी जाति-धर्मों के दोस्तों के साथ खेलना, तैरना, जानवरों को चराने के लिए लेकर जाना आदि बातों के समय समानता का अनुभव किया था और वह मन में कहीं गहरे बैठ चुका था। वे सन 1877 में रेल से दिल्ली जा रहे थे। अहमदाबाद में रेल रुकी थी। रेल्वे के भोजनगृह में सभी खाने के लिए उतर चुके थे। भोजनगृह में अंग्रेजों के लिए, भारतीय उच्चवर्णियों के लिए और कनिष्ठ वर्गों के लिए अलग-अलग भोजन व्यवस्था थी। चौदह साल के सयाजीराव ने कनिष्ठ वर्ग के भोजनागृह में खाना खाया। जाति-पाति के बंधनों को तोड़कर सामाजिक सुधारों के लिए उन्होंने अपने-आप से शुरुआत की थी। जाति व्यवस्था पर अपने विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने एक भाषण में कहा था, "हमारी जाति व्यवस्था दानवी स्वरूप की है।" उन्होंने आगे इस दानवी और घातक परंपरा का खात्मा कर बड़ोदा में जाति-पाति का पालन न करने का कानून बनाया। स्वतंत्रतापूर्व काल में उनका यह निर्णय उनके सामाजिक सुधारों में से उच्चतम निर्णय साबित हुआ था। इस विषय को लेकर महात्मा गांधी ने येरवड़ा जेल से पत्र के माध्यम से सयाजीराव को लिखा था कि "हिंदुस्थान में अछूत जातियों को कानूनी तौर पर शैक्षिक सहूलतें देनेवाले और कानूनी रूप से छुआछूत दूर करनेवाले आप ही पहले हैं।"

भारतरत्न डॉ. बाबासाहब आंबेड़कर को चार बार छात्रवृत्ति देकर सहयोग प्रदान किया, अछूत-वंचित समाज से एक युगपुरुष निर्माण होने की वास्तविकता को देखकर महाराजा सयाजीराव खुशी और समाधान महसूस करते हैं। डॉ. बाबासाहब ने लिखा है, "महाराजा ने शैक्षिक सुधार विषयक जो कानून बनाए हैं वे यूरोप और अमरिका के किसी भी विकसित राष्ट्र के कानून से प्रगत और उन्नत है।" एकाध व्यक्ति ने धर्मांतर किया अथवा एकाध व्यक्ति को धर्म से बहिष्कृत किया तो भी उन्होंने उस व्यक्ति के पैतृक अधिकार और संपत्ति अधिकार को नकारा नहीं जाएगा, इस प्रकार का कानून बनाकर पैतृक अधिकार बच्चों को बहाल किया है।

धर्म सुधार के लिए कानून का आधार

हमेशा ऐसे होता है कि हम लोग जब सुधारों का विचार करते हैं तब शिक्षण, प्रशासन और सामाजिक सुधारों का विचार करते हैं और उसी पर बात करते हैं लेकिन महाराजा सयाजीराव ने धर्म सुधारों को लेकर जो निर्णय तत्कालीन युग में लिए वह साहसभरे और दूरदृष्टिवाले थे। सभी धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन करने से महाराजा ने पहचान लिया था कि सभी धर्मों के बुनियादी तत्त्व बहुत अच्छे हैं। लेकिन धर्म की मदद लेकर कर्मकांड़ों का जिस प्रकार से धार्मिक पाखंड़ रचा जाता है वह एक प्रकार से जनमानस की लूट ही है। प्रत्येक मनुष्य के जीवन में धर्म को लेकर श्रद्धा और आदर होता है; अपने ईश्वर का पूजा-पाठ करने का सबको अधिकार है; लेकिन इसमें किसी भी प्रकार से मध्यस्थता की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने पहचान लिया था कि कुलाचारों का पालन करना जनता का अधिकार है फिर भी पूजा-पाठ के अधिकार किसी एक व्यक्ति या किसी जाति के पास हो इस प्रकार से वेदों में कहीं भी उल्लेख नहीं है। ऐसी तमाम बातें महाराजा सयाजीराव को धर्म के अध्ययन से पता चली थी इसलिए उन्होंने हिम्मत के साथ एक निर्णय लिया कि शिक्षा विभाग के मातहत धर्म विभाग की शुरुआत हो। हिंदू धर्म के कानून किसी सत्ताधीश से बनाए गए ना हो तो भी अनेक बरसों की धारणा और परंपरा है कि वह ईश्वर निर्मित है। आधुनिक युग के अनुकूल धर्म सुधार करना राजा का कर्तव्य और अधिकार है, इस बात पर कायम रहते हुए महाराजा सयाजीराव ने धर्मविषयक सुधारों को कानून का आधार प्रदान करना शुरू किया। जो साहस ब्रिटिश मुल्कों में ब्रिटिश सत्ताधीशों ने नहीं किया वह महाराजा ने बड़ोदा के धर्म विभाग के माध्यम से शुरू किया।

धर्म विभाग के प्रमुख के लिए धर्माधिकारी इस पद का निर्माण किया। ख्रिश्चन, जैन, इस्लाम, बौद्ध और हिंदू धर्म के तुलनात्मक अध्ययन के लिए उन धर्मों के विद्वानों से मदद लेकर ग्रंथ प्रकाशन का काम सन 1904 में शुरू किया। इसके पहले जैन धर्म के वाङ्मय को मराठी में प्रकाशित करने की शुरुआत पाटण में की थी। पूजा-पाठ करनेवाले व्यक्ति को पुरोहित कहा जाता था। इन पुरोहितों को धर्म की विविध विधियां पता है या नहीं इसकी जांच पड़ताल करना राजसत्ता का अधिकार है, इसलिए पुरोहित कानून बनाया गया। पुरोहित के ज्ञान के लिए शिक्षागत मर्यादा भी तय की गई। इस कानून के तहत प्रत्येक पुरोहित की परीक्षा ली जाने लगी। परीक्षा में सफल होने के बाद पुरोहितों को बाकायदा लायसन्स देकर अधिकार प्रदान किया जाता था। इस प्रकार का प्रमाणपत्र जिसके पास नहीं रहता था उन्हें पूजा-पाठ और किसी भी प्रकार के विधि करने का अधिकार नहीं था। बिना प्रशिक्षण के पुरोहितों को व्यवसाय न करने का आदेश देने का अधिकार दीवानी कोर्ट को दे दिया गया। इस कानून में एक अनिवार्य उपकानून यह था कि पुरोहित अपने मेजबान को उसकी मातृभाषा में पूजा-पाठ का अर्थ बता दें। महाराजा के इस निर्णय से सालों से पुरोहिती का व्यवसाय करनेवाले लोगों में असंतोष फैल गया और उन्होंने विरोध करना आरंभ किया। लेकिन महाराजा ने इसको लेकर अपनी ठोस भूमिका बनाए रखते हुए बताया कि "धर्म शिक्षा और उसके अनुरूप सुधारों की यह शुरुआत है। इस प्रकार के नीति-नियमों की शिक्षा से स्वार्थी प्रवृत्ति पर रोक लगाई जा सकती है।"

महाराजा सयाजीराव इस प्रकार का धार्मिक कानून जिस समय बना रहे थे तब कोल्हापुर में वेदोक्त का मामला चल रहा था। इसके पहले महाराजा सयाजीराव ने उनके राजपुत्रों का वेदोक्त धर्म के अनुसार उपनयन संस्कार करवाकर इस विवाद को खत्म किया। राजमहल में बार-बार भोजनों का आयोजन होता था। उसमें कड़े नियमों का पालन करनेवाले ब्राह्मणों के लिए प्रथम भोजन, दूसरे नंबर पर कनिष्ठ वर्ग के लिए और सबसे अंत में चौथे नंबर पर निम्न वर्ग के लिए भोजन का आयोजन होता था। लेकिन महाराजा ने बड़ी चतुराई के साथ परिवर्तन किया और शाकाहारी और मांसाहारी इन दो पक्तियों के भोजन का आयोजन किया। दान-धर्म के नाते बड़ोदा में ब्राह्मण और मुसलमानों के लिए लाखों रुपयों का खर्चा करके खिचड़ी दी जाती थी। उसे महाराजा ने बंद किया। केवल अपाहिज, गरीब, निराधार और माता-पिता विहिन बच्चों को ही खिचड़ी दी जाने लगी। इसमें से जो पैसे बचे वे सूखा निवारण के लिए लगा दिए। खेती के लिए मददगार साबित होनेवाले जानवरों की बिक्री पर पाबंदी लगा दी। ग्रहण की शुभ-अशुभ बातों पर पाबंदी, परदेश गमन के प्रायश्चित पर रोक। संन्यास लेते वक्त इसका ध्यान रखा गया कि उसे बचपन में ना लिया जाए और पत्नी अथवा पति की अनुमति से हो, इस प्रकार का कानून बनाया गया।

मंदिरों की व्यवस्था से प्राप्त होनेवाली आय का गलत तरीके से विनियोग ना हो इसलिए मंदिरों पर नियंत्रण का कानून अमल में लाया गया। संन्यास लेकर आराम से बैठकर खानेवाले भिकारियों की संख्या बढ़ती है। वे निक्कमे बन जाते हैं और कई प्रकार की गलत आदतों के शिकार हो जाते हैं। इस प्रकार से निक्कमे, स्वार्थी व्यावसायिक आदतन भिकारियों की संख्या बढ़कर आम लोगों के हालात बहुत अधिक खस्ता होते हैं। इन सारी बातों पर पाबंदी लगाकर शिक्षा के माध्यम से उचित मार्ग ढूंढ़ने का प्रयास महाराजा ने जारी रखा।

महाराजा सयाजीराव के मन में धर्म को लेकर आदर भाव था। लेकिन उनका मानना था कि धर्म में दार्शनिक तत्त्वों की अपेक्षा तथा आदर्श रुढ़ी, परंपराओं की अपेक्षा अंधविश्वासों को जिस समय पर महत्त्व प्राप्त होता है उस समय धर्म व्यवस्था की रक्षा करनेवाले राजा ने धार्मिक तत्त्वों की आलोचना करना बहुत जरूरी होता है। इन्हीं दायित्वों के फलस्वरूप सयाजीराव तत्कालीन विद्वानों और अध्ययनकर्ताओं से बातचीत करते थे। उसमें प्रमुख थे प्रसिद्ध प्रबोधनकार राजारामशास्त्री भागवत, आर्य समाज के नित्यानंद स्वामी, ख्रिश्चन अध्येता जनरवूथ, संस्कृत पंड़ित हंसस्वरूप, वेदशास्त्र में माहिर काशीनाथ लेले और वामनशास्त्री इस्लामपुरकर, महोदया ऍनी बेझंट, किसानों के कर्ताधर्ता जोतिराव फुले, सुधारक न्यायमूर्ति महादेव गो. रानड़े, बहुजनों की शिक्षा के लिए काम करनेवाले ऍड़व्होकेट गंगारामभाऊ मस्के, बौद्ध धर्म के अध्येता डॉ. आनंद नायर, सत्यशोधक समाज के रामचंद्र धामणसकर और महाराजा के दरबार में सेवा अदा करनेवाले योगी अरंविद घोष, बॅ. केशवराव देशपांड़े, खासेराव जाधव आदि पंड़ितों के साथ उनकी समय-समय पर सार्थक चर्चा होती थी। इन कृतियों, चर्चाओं और संवाद के कारण उनका धर्म संस्थाओं को लेकर जिम्मेदारी के साथ आदर भाव बढ़ता गया और बड़े साहस के साथ बड़ोदा में ऊपरी धर्म सुधार किए गए।

कला और संस्कृति की विरासत राष्ट्र की संपत्ति

महाराजा को हिंदवी संस्कृति का अत्यधिक गर्व था। इतिहास और दर्शनशास्त्र उनके पसंदिता विषय थे; अतः इसके अध्ययन से उन्होंने दुनियाभर की विविध संस्कृतियों का अध्ययन किया था। आगे चलकर उन्होंने अपने संपूर्ण कार्यकाल में 26 बार विदेश यात्रा की और उससे उन्होंने ताकतवर राष्ट्रों के शक्तिस्थल कौनसे हैं इसकी खोजबिन भी की, तभी उनके ध्यान में आया कि शिक्षा के साथ साहित्य, कला, सांस्कृतिक विरासतें ही उस राष्ट्र की समृद्धि का एक प्रमुख औजार बनी है। इसीलिए किसी राष्ट्र की समृद्धि को जैसे शिक्षा और उद्योग की प्रगति पर आंका जाता है वैसे ही उस राष्ट्र के साहित्य, कला, संगीत और शिल्प कलाओं की विरासत से भी आंका जाता है। इसे सुरक्षित करने और बढ़ाया देने के लिए महाराजा ने अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का आरंभ कर लोगों के पिछड़ेपन को मिटाने के लिए प्रयास किया। लड़का-लड़की स्कूल में ना आए तो उसके माता-पिता को दो आने का जुर्माना लगा दिया। हिंदुस्थान में ज्ञान को लेकर यह पहला प्रयोग था। अनुभव से सीखते हुए युवा महाराजा सयाजीराव ने इस बात को पहचाना कि प्रशासन, न्याय, खेती, उद्योग, साहित्य, कला आदि प्रकार के सांस्कृतिक विरासत का आधार शिक्षा ही है। इस कार्य की बुनियाद रखने के लिए उन्होंने प्रत्येक गांव में स्कूलों की शुरुआत की। प्रजा साक्षर बने इसलिए गांवों में वाचनालयों का निर्माण किया। वाचनालयों को किताबों की आवश्यकता है इसलिए अलग-अलग लेखकों को ग्रंथ लिखने के लिए सहायता प्रदान करके ग्रंथ व्यवहार के वे पोषणकर्ता भी बने। मनुष्य के गायन, संगीत, नाटक, चित्रकला आदि कला गुणों की उन्हें पसंद थी। इसलिए सन 1890 को बड़ोदा में कला भवन का आरंभ किया। इन सांस्कृतिक सुधार केंद्रों से हिंदुस्थान में साहित्य, संगीत, शिल्पकला, चित्रपट, नाट्य, तंत्रज्ञ, शिल्पकार बनते गए। इतना ही नहीं तो इस देश की सांस्कृतिक विरासत को समृद्धि प्रदान करनेवाली तथा देश के भीतरी और देश के बाहरी प्रज्ञावानों को बड़े सम्मान के साथ बड़ोदा में आमंत्रित किया और उनके ज्ञान का लाभ भी पाया।

प्राचीन साहित्य हमारी सांस्कृतिक विरासत है। उसको सहजना, रक्षा करना और संवर्धन करने के लिए प्राच्यविद्या मंदिर की शुरुआत सन 1893 को पाटण में की थी। यह कार्य और तेजी के साथ हो इसलिए बड़ोदा शहर में गायकवाड़ प्राच्यविद्या मंदिर शुरू किया। इस संस्था के माध्यम से पुराने संस्कृत, पाली, मराठी, गुजराती और हिंदी ग्रंथों के अनुसंधान और प्रकाशन के काम को आरंभ करने से यह स्पष्ट होता है कि हिंदुस्थान की सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षा प्रदान करना ही महाराजा का उद्देश्य था। इससे श्रीसयाजीमाला, श्रीसयाजी ज्ञानमाला, साथ ही शिक्षा विभाग की ओर से अनेक ग्रंथ प्रकाशित किए। सन 1910 में निर्मित सेंट्रल लायब्ररी तो उस काल में आशिया द्विप का बहुत बड़ा ग्रंथालय था। चित्र, शिल्प आदि संस्कृति संवर्धन के अंग है। उसका संग्रहालय निर्माण करके जनता के लिए एक अनमोल विरासत की उपलब्धता की है।

सरस्वती और लक्ष्मी की कृपा से प्रज्ञावंत

महाराजा सयाजीराव हिंदुस्थान के इतिहास का एक अनमोल अद्भुत उदाहरण है। आम तौर पर सरस्वती और लक्ष्मी एक ही जगह पर मिलजुलकर वास कर रही है ऐसे दिखता नहीं है। सयाजीराव एक किसान के बेटे के नाते जन्म ले चुके थे, आगे चलकर बड़ोदा के राजा बने। जन्मगांव कवलाणे (कवळाणे) में लक्ष्मी के साथ सरस्वती की भी कृपा नहीं थी। राजा बनने के कारण भाग्य से लक्ष्मी प्राप्त हो गई; लेकिन उन्होंने सरस्वती की कृपा को काफी मेहनत और परिश्रम के साथ हासिल किया है। उसी समय इस युवा राजा ने समझ लिया था कि कोई भी उन्नति नसीब अथवा संयोग पर कभी भी अवलंबित नहीं होती है। वह कर्ता के पुरुषार्थ पर निर्भर होती है। इसीलिए राजा जनसेवा और जनकल्याण में ही अपना मोक्ष ढूंढ़े। यही कार्य महाराजा सयाजीराव ने अपनी पूरी जिंदगी में किया और प्रजा के कल्याण के व्रत का पालन किया।

दुनियाभर के जानेमाने विचारक कहते हैं कि आदर्श और सुप्रशासन राज्य पद्धति के निर्माण हेतु प्रज्ञावंत प्रशासक के हाथों में राज्य के सूत्र होने चाहिए। उसकी सर्वोत्तम मिसाल महाराजा सयाजीराव थे। महाराजा के पास किसी भी कार्य को जल्दी खत्म करने की अद्भुत गति थी। प्रशासनिक निर्णय क्षमता तथा अद्भुत परख होने से एक ही समय अलग-अलग क्षेत्रों में उनके द्वारा संपन्न विविध कार्य और निर्णय सुप्रशासन के ही उदाहरण है। उच्च-नीचता, छुआछूत, अमीरी-गरीबी, काला-गोरा आदि प्रकार के भेदापभेद उनके सामने कोई मायने नहीं रखते थे। दूसरों के ज्ञान का आदर, विविध विषयों को लेकर रसिकता, अपनी गतिशीलता, ज्ञान पाने की भूख, वैचारिक सब्र, छोटी-छोटी बातों का भी मूल्यांकन करने की आदत, अद्भुत स्मरणशक्ति, नए के लिए स्वीकृति और पुराने के लिए सम्मानसूचक वृत्ति, प्रखर देशभक्ति, कर्तव्यपरायणता, प्रबोधनात्मक शक्ति और अन्यों से अलग दानधर्मिता इन गुणों के कारण स्वातंत्रतापूर्व के पचहत्तर वर्षों का इतिहास महाराजा सयाजीराव के विविध क्षेत्रों के तेजोमय युग का परिचय देता है।

धर्म और धर्म-संस्था के प्रति आदरभाव रखनेवाले सयाजीराव अपने दायित्वों का पालन करते हुए गरीबों का पोषणकर्ता बने और ईश्वर प्रत्येक इंसान में निवास करता है, इसलिए गरीब-पीड़ितों की सेवा में ही राजा को मोक्ष की प्राप्ति होती है, यह जिंदगी का नीति-नियम है बताकर उसका आचरण करनेवाले एक प्रज्ञावंत सुप्रशासक रहे। उन्होंने एक भाषण में कहा था कि "अगर साधुसंत, स्वामी, महाराज और ब्रह्मचारी अपनी संपत्ति और शक्ति समाज के हित में लगा देते हैं तो देश की प्रगति का रास्ता बहुत अधिक तय किया जा सकता है। आज वे लोग प्रजा की संपत्ति को बेकार में उड़ा रहे हैं।" इसीलिए राज्यप्रमुख की जिम्मेदारी बनती है कि वह जनकल्याण के लिए उचित कदम उठाए; महाराजा सयाजीराव ने इसे बार-बार बताया। आज इस बात पर बड़ी गंभीरता के साथ सोचने की आवश्यकता है। महाराजा सयाजीराव के कालखंड़ का सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक सुसंवाद तथा सुप्रशासन के नीतियों का संक्षिप्त विवेचन करते समय मैं एक वाक्य में उपसंहार करना चाहूंगा कि महाराजा सयाजीराव आधुनिक भारत के शिल्पकार है, इसे हमें समझना होगा। वर्तमान वास्तविकताओं पर जीत हासिल करनी है तो प्रज्ञावंत सयाजीराव की पहचान करना समाज के सुसंवाद और स्वास्थ्य के लिए एक उत्तम उपाय है।

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अनुवादक - डॉ. विजय शिंदे

देवगिरी महाविद्यालय, औरंगाबाद - 431005 (महाराष्ट्र).

ब्लॉग - साहित्य और समीक्षा डॉ. विजय शिंदे

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रचनाकार: महाराजा सयाजीराव के युग की सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक सामंजस्य नीतियां - बाबा भांड अनुवाद – डॉ. विजय शिंदे
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