विश्व के लिए जलवायु परिवर्तन एक ज्वलंत मुद्दा - अवधेश कुमार सिंह

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विश्व के लिए जलवायु परिवर्तन एक ज्वलंत मुद्दा अवधेश कुमार सिंह निसंदेह कोविड-19 तथा सर्वत्र लॉकडाउन की वजह से मौजूदा समय में पूरी दुनिया मे...

विश्व के लिए जलवायु परिवर्तन एक ज्वलंत मुद्दा

अवधेश कुमार सिंह

निसंदेह कोविड-19 तथा सर्वत्र लॉकडाउन की वजह से मौजूदा समय में पूरी दुनिया में प्रदूषण का स्तर काफी गिर गया है। जिस प्रदूषण को कंट्रोल करने के लिए भारत, चीन और अमेरिका जैसे देश सालों से जुटे थे, कोरोना ने पलक झपकते ही उसको नियंत्रित कर दिया है। इसके बज\वजूद वर्तमान समय में जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संरक्षण सम्पूर्ण विश्व के लिए एक ज्वलंत मुद्दा और सर्वाधिक चिंता का विषय बनता जा रहा है। इसके के लिए वैज्ञानिक उपाय तलाशे जा रहे हैं। कारण स्पष्ट है कि पर्यावरणीय क्षति का एक रूप आज जलवायु परिवर्तन के रूप में प्रत्यक्ष दिखाई देने लगा है, यदि हम अपने देश के परिप्रेक्ष्य में नजर डाले, तो प्रदुषण, जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता का क्षरण और अन्य प्राकृतिक आपदाओं से हम भी अछूते नहीं है। प्रकृति जो हमें जीने के लिए स्वच्छ वायु, पीने के लिए साफ शीतल जल और खाने के लिए कंद-मूल-फल उपलब्ध कराती रही है, वही अब संकट में है। आज उसकी सुरक्षा का सवाल उठ खड़ा हुआ है। यह धरती माता आज तरह-तरह के खतरों से जूझ रही है। जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के कारण पर्यावरण पर कई गंभीर संकट उत्पन्न हो गये है। यदि हमने समय रहते पर्यावरण रक्षा के लिए प्रयास नही किया तो वह दिन दूर नही जब हमारे अस्तित्व पर संकट आ जायेगा। " यूँही बढ़ता रहा अगर, पर्यावरण का विनाश। तो हो जाएगा धरा से, जीवन का सर्वनाश।" आज इस आलेख के माध्यम से जनसाधारण के अन्दर प्रकृति के प्रति लगाव और पर्यावरण के प्रति जागरूकता लाने का एक छोटा सा प्रयास है।

जलवायु परिवर्तन की स्थिति भयवाहक

परिवर्तित जलवायु के कारण कार्बन डाइऑक्साइड की अधिक मात्रा से गरमाती धरती का कहर बढ़ते तापमान के रूप में अब स्पष्ट दृष्टि गोचर होने लगा है। बढ़ते कार्बन डाइऑक्साइड ने वायुमंडल में ऑक्सीजन को कम कर दिया है। वायुमंडलीय परिवर्तन को ‘ग्लोबल वार्मिंग’ का नाम दिया गया है। इसने संसार के सभी देशों को अपनी चपेट में लेकर प्राकृतिक आपदाओं का तोहफा देना प्रारंभ कर दिया है। भारत और चीन सहित कई देशों में भूमि कंपन, बाढ़, तूफान, भुस्खलन, सूखा, अतिवृष्टि, अल्पवृष्टि, भूमि की धड़कन के साथ ग्लेशियरों का पिघलना आदि प्राकृतिक आपदाओं के संकेत के रूप में भविष्यदर्शन है।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यू.एन.ई.पी.) ने हाल ही में अपनी एक शोध रिपोर्ट में बताया कि दक्षिण एशिया में आसमान प्रदूषण के कारण ‘ब्राउनहेज’ से आच्छादित हो गया है। विश्व में प्लास्टिक एवं पॉलिथीन की पहले से ही स्वीकृति बढ़ने से पर्यावरण संकट में था। अब साइबर क्रांति के कारण ‘ई-वेस्ट’ यानी इलेक्ट्रॉनिक कचरा नई समस्याओं के रूप में सामने है। ‘ई वेस्ट’ से फास्फोरस, कैडमियम व मरकरी जैसी खतरनाक धातुओं को असावधानीपूर्वक निकालने से न्यूरोसिस (मनोरोग) एवं कैंसर के रोगियों की संख्या में तीव्रतर वृद्धि हो रही है। ओजोन-क्षरण, अम्लवर्षा, त्वचा कैंसर, शारीरिक एवं मानसिक विकलांगता एवं आंखों के कोर्नियां एवं लेंस के नुकसान का कारण बनता जा रहा है।

पर्यावरण तथा मानव स्वास्थ्य के बीच घनिष्ठ सम्बंध

पर्यावरण तथा मानव स्वास्थ्य के बीच घनिष्ठ सम्बंध है। दरअसल हमारा जीवन पूरी तरह पर्यावरण पर आधारित है, पर्यावरण की वजह से ही हम शुद्ध हवा में सांस ले पा रहे हैं, शुद्ध जल और भोजन का सेवन कर पा रहे हैं। पर्यावरण न सिर्फ हमें शारीरिक रुप से स्वस्थ रखने में हमारी सहायता करता है, बल्कि मानसिक तौर पर भी हमें शांति प्रदान करता है। अर्थात पर्यावरण, मानव जीवन का अभिन्न अंग है, इसके बिना स्वस्थ जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। हमारा स्वास्थ्य बहुत हद तक जो पानी हम प्रयोग में लाते हैं, उसकी गुणवत्ता पर, जहाँ हम अपना अन्न पैदा करते हैं, उस मिट्टी पर तथा हमारे कूड़ा करकट निपटाने के तरीकों पर, उस हवा पर जहाँ हम रहते है या कार्य करते हैं उस जगह पर निर्भर करता है। इसतरह स्वस्थ जीवन के लिये स्वच्छ वायु, जल तथा मिट्टी अत्यंत आवश्यक तत्व है जहाँ शुद्ध जल से स्वास्थ्य की रक्षा होती है, वहाँ रोगों से बचाव के लिये हमें अपने आस-पड़ोस को भी साफ सुथरा रखना होगा। क्योंकि वातावरण की स्वच्छता जन स्वास्थ्य के लिये महत्त्वपूर्ण कड़ी है। हमारा वातावरण तभी अशुद्ध होता है जब वायु अशुद्ध हो। लेकिन अफसोस इस बात का है कि आज लोग अपने स्वार्थ की वजह से और भौतिक सुखों को भोगने की चाह में प्रकृति और पर्यावरण का जमकर हनन कर रहे हैं। प्रतिदिन वृक्षों की अवैध तरीके से अंधाधुन कटाई होने से जंगल सिमटा जा रहा है। पर्यावरण असुरक्षित होने से इसका बुराअसर मानसून पर भी पड़ रहा है। आज असमय वर्षा होने से कृषि कार्य काफी प्रभावित हो रही है। जिस कारण धरती का संतुलन बिगड़ गया है और प्राकृतिक आपदाएं आती रहती हैं ।

पर्यावरण संकट पर मंथन

दरअसल भौतिक विकास के पीछे दौड़ रही दुनिया ने आज जब ठहरकर सांस ली तो उसे अहसास हुआ कि चमक-धमक के फेर में क्या कीमत चुकाई जा रही है। आज ऐसा कोई देश नहीं है जो पर्यावरण संकट पर मंथन नहीं कर रहा हो। भारत भी चिंतित है। लेकिन, जहां दूसरे देश भौतिक चकाचौंध के लिए अपना सबकुछ लुटा चुके हैं, वहीं भारत के पास आज भी बहुत कुछ बाकी है। पश्चिम के देशों ने प्रकृति को हद से ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। पेड़ काटकर जंगल के कांक्रीट खड़े करते समय उन्हें अंदाजा नहीं था कि इसके क्या गंभीर परिणाम होंगे? प्रकृति को नुकसान पहुंचाने से रोकने के लिए पश्चिम में मजबूत परंपराएं भी नहीं थीं। प्रकृति संरक्षण का कोई संस्कार अखण्ड भारतभूमि को छोड़कर अन्यत्र देखने में नहीं आता है। जबकि सनातन परम्पराओं में प्रकृति संरक्षण के सूत्र मौजूद हैं। हिन्दू धर्म में प्रकृति पूजन को प्रकृति संरक्षण के तौर पर मान्यता है। भारत में पेड़-पौधों, नदी-पर्वत, ग्रह-नक्षत्र, अग्नि-वायु सहित प्रकृति के विभिन्न रूपों के साथ मानवीय रिश्ते जोड़े गए हैं। पेड़ की तुलना संतान से की गई है तो नदी को मां स्वरूप माना गया है। ग्रह-नक्षत्र, पहाड़ और वायु देवरूप माने गए हैं। प्राचीन समय से ही भारत के वैज्ञानिक ऋषि-मुनियों को प्रकृति संरक्षण और मानव के स्वभाव की गहरी जानकारी थी। वे जानते थे कि मानव अपने क्षणिक लाभ के लिए कई मौकों पर गंभीर भूल कर सकता है। अपना ही भारी नुकसान कर सकता है। इसलिए उन्होंने प्रकृति के साथ मानव के संबंध विकसित कर दिए। ताकि मनुष्य को प्रकृति को गंभीर क्षति पहुंचाने से रोका जा सके। यही कारण है कि प्राचीन काल से ही भारत में प्रकृति के साथ संतुलन करके चलने का महत्वपूर्ण संस्कार है। यह सब होने के बाद भी भारत में भौतिक विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति पददलित हुई है। लेकिन, यह भी सच है कि यदि ये परंपराएं न होतीं तो भारत की स्थिति भी गहरे संकट के किनारे खड़े किसी पश्चिमी देश की तरह होती। हिन्दू परंपराओं ने कहीं न कहीं प्रकृति का संरक्षण किया है। हिन्दू धर्म का प्रकृति के साथ कितना गहरा रिश्ता है, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद का प्रथम मंत्र ही अग्नि की स्तुति में रचा गया है।

प्रदूषण एवं उद्योग दोनों एक-दूसरे के पूरक

प्रदूषण एवं उद्योग दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। जहां उद्योग होगा, वहां प्रदूषण तो होगा ही। पर्यावरणीय समृद्धि की चाहत, जीवन का विकास करती है और विकास की चाहत, सभ्यताओं का। सभ्यता को अग्रणी बनाना है, तो विकास कीजिए। जीवन का विकास करना है, तो पर्यावरण को समृद्ध रखिए। स्पष्ट है कि पर्यावरण और विकास, एक-दूसरे का पूरक होकर ही इंसान की सहायता कर सकते हैं; बावजूद इस सच के आज पर्यावरण और विकास की चाहत रखने वालों ने एक-दूसरे को परस्पर विरोधी मान लिया है। पर्यावरण सुरक्षा की मुहिम चलाने वाले ऐसे कई संगठनों को विकास में अवरोध उत्पन्न करने के दोषी घोषित किया जाता रहा है। वही औधोगिक विकास को पर्यावरण विरोधी करार दिया जा रहा है। दूसरी ओर, पर्यावरण के मोर्चे पर चुनौतियां ही चुनौतियां हैं। जिनका जवाब बनने की कोशिश कम, सवाल उठाने की कोशिशें ज्यादा हो रही हैं।प्रत्येक देश में उद्योग अर्थव्यवस्था के मूल आधार होते हैं। यह जीवन की सुख-सुविधाओं, रहन-सहन, शिक्षा- चिकित्सा से सीधे जुड़ा हुआ है। इन सुविधाओं की खातिर मनुष्य नित नए वैज्ञानिक आविष्कारों एवं नए उद्योग-धंधों को बढ़ाने में जुटा हुआ है। हमारा देश भारत इसका अपवाद नहीं है। सैकड़ो वर्ष की पराधीनता के पश्चात् सन् 1947 में आजाद देश ने इस दिशा में सोचा और अपने देश की क्रमबद्ध प्रगति के लिए चरणबद्ध पंचवर्षीय योजनाएं बनाई। द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1956-61) में देश में औद्योगिक क्रांति का सूत्रपात हुआ, जो निरंतर बढ़ता ही रहा , हालांकि आर्थिक मंदी के कारण इसमें शिथिलता भी आयी इसके बावजूद एक सर्वेक्षण के अनुसार सत्रह समूहों में विभाजित हजारों बड़े उद्योग (सही संख्या उपलब्ध नहीं) और 31 लाख लघु एवं मध्यम उद्योग वर्तमान में देश में कार्यरत हैं।किन्तु यह भी सत्य है कि पर्यावरण को प्रदूषित करने और संतुलन बिगड़ने में जिन तत्वों का विशेष योगदान रहा है, उनमें वैज्ञानिक प्रगति के साथ आने वाला औद्योगीकरण ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण कहा जा सकता है I औद्योगीकरण की तीव्र गति के कारण हमारा वायुमंडल तीव्र गति से प्रदूषित हो रहा है I आज वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा 16% से बढ़ गई है तथा निरंतर बढ़ोतरी हो रही है I इतना ही नहीं कारखानों से निकला कचरा, रसायन युक्त पानी नदी में बहा दिया जाता है, जिस कारण नदियों का जल प्रदूषित हो रहा है। जिनसे बहुत से जलीय जीव मर रहे हैं जंगली जीव भी इन नदियों का पानी पीकर रोग ग्रस्त हो रहे हैं।

अब सवाल ये है कि क्या हमारा मौजूदा विकास का मॉडल जो कि उत्पादन आधारित है- जीवन स्तर एवं मानवीय ज़रूरतों को भी इस विकास में जगह दे पाएगा? स्वास्थ्य रहना भी ज़रूरी है, पर क्या आप गरीब और अनपढ़ बने रहना पसंद करेंगे? और अगर आपके पास आय का सुरक्षित जरिया आ जाता है तो क्या आप प्रदूषित हवा और गंदे पानी के साथ जीना पसंद करेंगे? संस्कार और धर्म का पालन भी ज़रूरी है पर क्या पर क्या आप उन सिद्धांतों के लिए अपने परिवार को भूखा रख पाएंगे? इन सभी प्रश्नों का उत्तर है- पर्यावरण संतुलन एवं सामाजिक संतुलन के महत्व को समझते हुए समावेशी विकास। जिस विकास से हमारे ज़रूरतों का पर्याप्त मात्रा में उपभोग भी हो, और हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए भी पर्याप्त संसाधन बच सके, इसी को हम टिकाऊ विकास का मूल आधार भी कह सकते है।

पर्यावरण रक्षा ही जीवन की सुरक्षा

पर्यावरण रक्षा ही जीवन की सुरक्षा का एक मात्र उपाय है। इसके लिए पेड़ो की अनावश्यक कटाई से परहेज, जल संचय एवं ऊर्जा बचत अत्यंत जरुरी है। उल्लेखनीय है कि ऊर्जा और जल एक - दूसरे के दोस्त हैं। ऊर्जा बचेगी, तो पानी बचेगा; पानी बचेगा, तो ऊर्जा बचेगी। अतः इसके लिए बिजली के कम खपत वाले फ्रिज, बल्ब, मोटरें उपयोग करो। पेट्रोल की बजाय प्राकृतिक गैस से कार चलाओ। कोयला व तैलीय ईंधन से लेकर गैस संयंत्रों तक को ठंडा करने की ऐसी तकनीक उपयोग करो कि उसमें कम से कम पानी लगे। उन्हे हवा से ठंडा करने की तकनीक का उपयोग करो। ऊर्जा बनाने के लिए हवा, कचरा तथा सूरज का उपयोग करो। फोटोवोल्टिक तकनीक अपनाओ। पानी गर्म करने, खाना बनाने आदि में कम से कम ईंधन का उपयोग करो। उन्नत चूल्हे तथा उस ईंधन का उपयोग करो, जो किसी फैक्टरी में बनने के बजाय हमारे द्वारा हमारे आसपास तैयार व उपलब्ध हो। कुछ भी करो; बस, इंधन और ऊर्जा बचाओ; पानी अपने आप बचेगा। जितनी स्वच्छ ऊर्जा का उत्पादन करेंगे, हमारा पानी उतना स्वच्छ बचेगा। स्वच्छ ऊर्जा वह होती है, जिसके उत्पादन में कम पानी लगे तथा कार्बनडाइआॅक्साइड व दूसरे प्रदूषक कम निकले। किन्तु चिंता का विषय यह है कि इसके बावजूद हम न तो जल संचय हेतु पानी के उपयोग में अनुशासन तथा पुर्नोपयोग व कचरा प्रबंधन में दक्षता ला पा रहे हैं। ज्ञात हो कि फिक्की द्वारा कराये एक औद्योगिक सर्वेक्षण में शामिल भारतीय उद्योग जगत के 60 प्रतिशत प्रतिनिधियों ने स्वीकार किया कि पानी की कमी या प्रदूषण के कारण उनके उद्योग पर नकारात्मक प्र्रभाव पङ रहा है। ऐसी स्थिति में हरा दायित्व बनता है कि नैतिक तथा कानूनी, दोनो स्तर पर यह सुनिश्चित करें कि जो उद्योग जितना पानी खर्च करे, वह उसी क्षेत्र में कम से कम उतने पानी के संचयन का इंतजाम करे। सरकार को भी चाहिए कि वह पानी-पर्यावरण की चिंता करने वाले कार्यकर्ताओं को विकास विरोधी बताने की बजाय, समझे कि पानी बचेगा, तो ही उद्योग बचेंगे; वरना् किया गया निवेश भी जायेगा और भारत का औद्योगिक स्वावलंबन भी।

समस्या में ही समाधान

हर समस्या में समाधान स्वतः निहित होता है। किन्तु हमारी प्राथमिकता इलाज नहीं उस समस्या को रोकने की होनी चाहिए । यदि भारत में प्रतिदिन पैदा हो रहे 1.60 लाख मीट्रिक टन कचरे का ठीक से निष्पादन किया जाये, तो इतने कचरे से प्रतिदिन 27 हजार करोङ रुपये की खाद तैयार हो सकता है जिससे 45 लाख एकङ बंजर भूमि उपजाऊ बनाई जा सकती है। परिणामस्वरूप 50 लाख टन अतिरिक्त अनाज पैदा किया जा सकता है और दो लाख सिलेंडरों हेतु अतिरिक्त गैस हासिल की जा सकती है। इतना ही नहीं कचरा न्यूनतम उत्पन्न हो, इसके लिए ‘यूज एण्ड थ्रो’ प्रवृति को समाप्त कर टिकाऊ उत्पाद का उपयोग करें।

इसके अलावे हम लोग व्यक्तिगत तौर पर यदि कुछ बातों रखें तो हमारी यही छोटी छोटी कोशिशें पर्यावरण संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान बन सकती हैं। उदाहरण के तौर पर हम सब बाहर जाते हैं कभी घुमने फिरने , सैर सपाटे पर या कभी प्रवास - यात्रा पर। इस दौरान हम प्यास लगने पर पानी की बोतल लेते हैं और पानी पी लेने पर खाली बोतल फेंक देते हैं जो हमारे ही प्रदेश या देश के पर्यावरण को प्रदूषित करता है। हो सके तो हम घर से निकलते वक्त पानी साथ रख लें या अच्छे ब्रांड की (मानकों पर आधारित हानि न पहुँचाने वाली प्लास्टिक या स्टील आदि की बोतल आप जहाँ भी जाएँ साथ लेकर चलें। हम लोग जब अपने व्यक्तिगत व्यवहार से लोगों के समक्ष ऐसे आदर्श स्थापित करेंगे तो इससे न केवल दूसरों को ऐसा करने की प्रेरणा मिलेगी बल्कि हमारी अनोखी और सुन्दर छवि लोगों के ह्रदय में हमेशा के लिये जगह बना लेगी। इसी तरह एक और अच्छा काम कर के हम पर्यावरण की रक्षा कर सकते हैं और वह है वृक्षारोपण। पर्यावरण की इस गंभीर समस्या का सामना करने के लिए वृक्षारोपण के अभियान को भी युद्ध-स्तर पर चलाने की आवश्यकता है।

ऐसे कई तरीके हैं जिन्हें अपनाने के बाद हम इस धरती माता को बचाने के लिए प्रभावी रूप से योगदान कर सकते हैं। उदाहरण के अपने व्यक्तिगत वाहनों का उपयोग की बजाय सार्वजनिक परिवहन और साइकिल का उपयोग करने की आदत डालें। इसके अलावा घर या कार्यालय में ऊर्जा बर्बाद ना करें। उपयोग में नहीं होने पर बिजली के यंत्रों को बंद कर दें। आप सामान्य बल्ब के स्थान पर फ्लोरोसेंट लाइट बल्ब का उपयोग कर सकते हैं। इतना ही नहीं ,अपने पुराने या खराब उत्पादों का पुनर्चक्रण करना और किसी अन्य उद्देश्य के लिए इनका पुनर्प्रयोग (दोबारा उपयोग) करना, प्लास्टिक के उपयोग से परहेज करना , जल संचय की आदत डालना , पानी उपयोग करने के तुरंत बाद नल बंद कर दें और कचरे को ईधर उधर ना फेंककर कूड़ेदान में कचरे का निपटान करें। अपने परिवार में दूसरों को भी इन उपायों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करें और पर्यावरण को बर्बाद होने से बचाये।

उपरोक्त अनुकरणीय कार्य करके आप पर्यावरण सुरक्षा में अहम योगदान दे सकते है और एक जिम्मेवार नागरिक की भूमिका निभा सकते है। तो आइये हम सब प्रण करे और अपनी अपनी क्षमता अनुसार पर्यावरण के संरक्षण में अपना योगदान दें। प्रदुषण न फैलायें, पेड़ लगायें। हम सब इन सुझावों पर अमल करने का प्रयास करें और दूसरों को भी अच्छे संस्कारों को ग्रहण करने की प्रेरणा प्रदान करें। इसतरह हर संभव तरीके से हमारी “धरती माता” को बचाने की प्रतिज्ञा ले। आओ ये संकल्प उठाए, पर्यावरण को नष्ट होने से बचाएँ।

( लेखक स्वतंत्र पत्रकार है )

संपर्क :

टेकफेब (इंडिया) इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड

खानवेल रोड, खडोली

सिलवासा (दादरा नगर हवेली )

मोबाइल नम्बर 9725008652

Email – awadheshsingh72@gmail.com

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रचनाकार: विश्व के लिए जलवायु परिवर्तन एक ज्वलंत मुद्दा - अवधेश कुमार सिंह
विश्व के लिए जलवायु परिवर्तन एक ज्वलंत मुद्दा - अवधेश कुमार सिंह
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