प्रकाशनाधीन कविता संग्रह "तुम्हें मेरी कसम" में से कुछ चुनिंदा कविताएँ - धर्मेन्द्र तिजोरीवाले "आज़ाद" (बहरे हज़ज मुसम्मन...
प्रकाशनाधीन कविता संग्रह "तुम्हें मेरी कसम" में से कुछ चुनिंदा कविताएँ -
धर्मेन्द्र तिजोरीवाले "आज़ाद"
(बहरे हज़ज मुसम्मन अखरब मक़्फूफ मक़्फूफ मुखन्नक
रुक्न- 221 1222 221 122
पर आधारित इस वन्दना को ग़ज़ल के अलावा 12-10 की भजन शैली में भी गाया जा सकता है)
श्री गणेश वन्दना
हम सब ही हमेशा को हो जायें तुम्हारे
वरदान हमें दे दो गणराज हमारे
भूखा न मिले कोई रोगी न यहाँ हो
दिक्खे न कोई सड़कों पे हाथ पसारे
वरदान हमें दे दो गणराज हमारे...
हिन्दू हों मुसलमां हों सिख हों या ईसाई
हिलमिल के रहें भाई ये देश में सारे
वरदान हमें दे दो गणराज हमारे ....
जो दर्द हमारे हैं वो गीत ग़ज़ल हों
जो आँख में आँसू हैं बन जायें सितारे
वरदान हमें दे दो गणराज हमारे ....
@धर्मेन्द्र तिजोरीवाले "आज़ाद"
(बहरे कामिल
रुक्न- 11212 11212
पर एक नज़्म)
हाँ ! ये इन दिनों की ही बात है
यहाँ एक बाग बगीचा था
जिसे सबने मिलके ही सींचा था
न तो रंग थे न ही नाम थे
न खुदा ईशा न ही राम थे
हाँ ये उन दिनों की ही बात है...
सभी गुल ही एक समान थे
सभी एक दूजे की जान थे
न तो टुकड़े टुकड़े ही थी जमीं
न ही भक्ति रस भी था तब कहीं
हाँ ये उन दिनों की ही बात है ...
न तो बादशाह ही था कोई
न यहाँ पे कोई भी रंक थे
न सियासतों के ही खेल थे
न तिजारतों के ही अंक थे
हाँ ये उन दिनों की ही बात है ...
न कुमुद न चम्पा चमेली थी
न गुलाब था न कोई कमल
किसी पे किसी का न हाथ था
किसी का न था कहीं कोई दल
हाँ ये उन दिनों की ही बात है ...
कई सर्प बिल में छुपे थे जो
उसी बाग में तभी आ गये
थीं जो मुर्गियाँ उसी बाग में
वो ये कह के उनको तो खा गये
ये तो कर रहीं यहाँ गन्दगी
सभी गुल मगर यहाँ चुप रहे
हाँ ये उन दिनों की ही बात है ..
जो पहुँच में उनकी न आ सकीं
वो थीं तितलियाँ उसी बाग की
तो गुलों से सर्पों ने ये कहा-
ये हमारे बाग की तितलियाँ
हमें चूसतीं हमें लूटतीं
कहीं दूर जाके बाज़ार में
ये पराग अपना ही बेचतीं
हाँ ये उन दिनों की ही बात है ...
ये कहा गुलों ने मदद करो
हमें अब बचा लो बचा सको
तो गुलों के सारे पराग में
वो ज़हर मिला वहीं छुप गये
जो पराग खाने को आईं वो
तो मिले शिकार भी नये-नये
उसी वक़्त वो उन्हें खा गये
कहीं बिल में फिर वो समा गये
अभी गुल तो चुप हैं ये हार कर
वो हैं खुश बहुत ही शिकार कर
नहीं उन दिनों की ये बात है...
हाँ ये इन दिनों की ही बात है !
@धर्मेन्द्र तिजोरीवाले "आज़ाद"
(26 मात्रिक एक गीतिका )
प्यार के बदले प्यार चाहना भी प्यार नहीं!
प्यार के बदले कुछ भी चाहना भी प्यार नहीं !
अपने रब से भी प्यार माँगना भी प्यार नहीं !
नज़रअन्दाज़ करके सबको सारी दुनिया को
बस एक शख़्स को ही सोचना भी प्यार नहीं ।
गम जुदाई का नहीं, तू भी कोई रंज न कर
एक दूजे को फकत भोगना भी प्यार नहीं !
प्यार के बदले.....
मैंने कब चाहा तुम भी चाहो मुझे उल्फत में
ऐसा होता है तिज़ारत में या सियासत में ।
याद करना भी अगर बोझ सा हो जाये तो
याद करना भी ज़रूरी नहीं मुहब्बत में ।
कौन बिछ्ड़ा है मिला है ये तो हिसाब हुआ
यूँ पलटकर के पीछे देखना भी प्यार नहीं !
प्यार के बदले .....
बाती करती है उजाला तो फ़ना होने तक
फूल देते हैं हमें खुशबू सूख जाने तक
धूप सहकर भी पेड़ हमको छाँव देते हैं
प्राणवायु भी हमें देते प्राण खोने तक
पानी करता है हमें साफ खुद गंदा होकर
क्या ये फितरत की पाक प्रेरणा भी प्यार नहीं?
प्यार के बदले ....
जैसे करते हो याद रब को मुझे ऐसे करो
जैसे करती है माँ दुलार मुझे वैसे करो।
प्यार का वर्गीकरण किसने कर दिया आखिर
प्यार तो प्यार है तुम चाहे इसे जैसे करो।
पास जो भी है तुम्हारे वही तुम्हारा है
किसी की आशना या वासना भी प्यार नहीं !
प्यार के बदले ......
@धर्मेन्द्र तिजोरी वाले "आज़ाद"
(बहरे रमल मुसम्मन सालिम
रुक्न- 2122 2122 2122 2122
पर एक गीत )
बादलों में घिर के सूरज क्या चमकना छोड़ देगा
बादलों में घिर के सूरज क्या चमकना छोड़ देगा
क्या बुरे ख्वाबों के डर से दिल धड़कना छोड़ देगा
जानता हूँ एक पत्थर है जिसे मैं पूजता हूँ
उसके घर में रौशनी करने स्वयं तिल तिल जला हूँ
दीप उसके दर जलाया है हमेशा शुद्ध घी का
और उसके भोग की खातिर कभी भूखा रहा हूँ
ज़ख्म पर मरहम लगाने आये वो या फिर न आये
तो क्या उसके सामने ये दिल सिसकना छोड़ देगा
बादलों में घिर के सूरज ....
देखता हूँ वो किसी लाचार की सुनता नहीं है
पर मेरा विश्वास तर्कों में कभी उलझा नहीं है
जब उसे अपना कहा तो आखिरी दम तक कहूँगा
ये मेरे विश्वास की भी आखिरी सीमा नहीं है
खुशबुओं की भेंट की खातिर मुझे तो टूटना है
फूल क्या ये सोचकर खिलना महकना छोड़ देगा
बादलों में घिर के सूरज ......
@धर्मेन्द्र तिजोरीवाले "आज़ाद"
(बहरे रमल मुसम्मन मखबून महजूफ़
रुक्न- 2122 1122 1122 22
पर एक नज़्म)
तुम्हें मेरी कसम !
बात अब तक जो मैंने दिल में छुपाये रक्खी
आज महफिल में सरेआम उसे करता हूँ
पर परेशां नहीं होना तू कहे कोई कुछ
इस मुहब्बत की कसम नाम न लूँगा तेरा !
प्यार मोहताज नहीं होता मुलाकातों का
चाँदनी रात का या ऐसी किसी बातों का
तुम अगर आये तो रुस्वा ये मुझे कर देंगे
और जालिम यही तुमको भी नहीं बख्शेंगे
वाहवाही मेरे गीतों की ये जो करते हैं
हाँ यही लोग भी ये प्यार कहाँ समझेंगे
मैं बुलाऊँ भी तुम्हें मेरी कसम न आना
तुम भी चाहो तो कसम है ये ज़हर पी जाना
ये जो दिल है ये धड़कता है हमेशा अंदर
फिर ये क्या जाने कि कैसी है ये दुनिया बाहर
और इक रोज तो इस दिल को फ़ना है होना
इसकी बातों में कहीं आके नहीं फँस जाना
मैं बुलाऊँ भी तुम्हें मेरी कसम ना आना !
तुम भी चाहो तो कसम है ये ज़हर पी जाना
@धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आजाद'
(बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम
रुक्न- 212 212 212 212
पर एक गीत)
आप ही को मुबारक सफ़र चाँद का
भूखे होते थे जब रोटी कहती थी माँ
चाँद को मेरा मामा बताती थी माँ
सोये बच्चे हैं हल्ला न कर चाँद का
आप ही को मुबारक सफ़र चाँद का
ये सुना है वहाँ रोटी पानी नहीं
ताज जैसी भी कोई निशानी नहीं
उस जगह जाके बोलो करूँगा भी क्या
जिस जगह कोई कविता कहानी नहीं
इस तरह भी कोई दम न भर चाँद का
आप ही को मुबारक सफ़र चाँद का
ना तो लैला वहाँ कोई मजनू नहीं
जो उजाला सा कर दे वो जुगनू नहीं
हम जमीं पर बसायेंगे घर चाँद का
आप ही को मुबारक सफ़र चाँद का
@धर्मेन्द्र तिजोरीवाले "आज़ाद"
नवगीत-
पिता
बंद पड़ा संदूक पिता
इक खाली बंदूक पिता
दिल उनका है एक कविता
हर इक झुर्री एक कहानी
जाने ऐसा क्या है उनमें
माँ राधा से बड़ी दीवानी
बरगद -पीपल की छाँव पिता
थक जायें तो ठाँव पिता
महानगर जैसे हैं बच्चे
इक छोटा सा गाँव पिता
@धर्मेन्द्र तिजोरी वाले 'आज़ाद '
हम गीतों के सौदागर हैं
पंत भवानी और निराला
जैसे हम भी यायावर हैं
हम गीतों के सौदागर हैं
रगरग रगरग रग में कीलें
दिल में उड़ती रहती चीलें
मुस्काते हैं फिर भी उतना
जितना भी वो दिल को छीलें
हम वो प्यासे सागर जिसमें
कई कई नदियाँ कई कई झीलें
सागर हैं फिर भी गागर हैं
हम गीतों के सौदागर हैं
दुख इसका लें उसका भी लें
खुशियाँ देकर आँसू पी लें
भीड़ भरी दुनिया में साथी
हम वो हैं जो तन्हा जी लें
कारण कि हंगामा न हो
हम 'आजाद' जुबां भी सी लें
बेबस हैं न ही कायर हैं
हम गीतों के सौदागर हैं
@धर्मेन्द्र तिजोरीवाले "आज़ाद"
जाओ अपना घर देखो
कंकर में तुम शंकर देखो
घर को भी फिर मंदिर देखो
जाओ ! अपना घर देखो
दिल को जलानेवाला भी ,
प्यास बुझाने लगता है .
खारा होता है लेकिन ,
कितना मीठा लगता है !
ये आँसू भी पीकर देखो
जाओ ! अपना घर देखो
खुदा सभी कमतर निकले ,
बद से भी बद्तर निकले
मोम हुये कंधे सारे ,
अब कोई पत्थर देखो
कभी पीछे ना मुड़कर देखो
जाओ !! अपना घर देखो !!
@धर्मेन्द्र तिजोरी वाले "आजाद "
विजयादशमी
रावण तो प्रतीक है केवल
अहं सदा होता है निर्बल
ये दिन है इस संकल्प का-
आओ अपना अहं जलायें
विजयादशमी की शुभकामनायें
@धर्मेन्द्र तिजोरीवाले "आज़ाद"
मन के गीत
तन पे बहुत लिखा है साथी मन के गीत रचो
जो दिल को झंकृत कर जाये वो संगीत रचो
दरवाजे हों भी तो ताले या दीवार न हो
ऐसी दुनिया ऐसा घर या ऐसी रीत रचो
है बेकार विजय कि दुश्मन फिर से वार करे
दुश्मन परछाई से सहमे ऐसी जीत रचो
क्या मेहंदी के जैसी तुम ये करते हो यारी
खैर खून के जैसी बिलकुल पक्की प्रीत रचो
उसकी ईंट फलां के रोड़े से न बात बने
प्रेमचन्द के जैसे तुम भी कल्पनातीत रचो
@धर्मेन्द्र तिजोरीवाले "आज़ाद"
तुम्हारे बिन
खुला हुआ आकाश
महज आभास
भीड़ भरी दुनिया
लगती वनवास
तुम्हारे बिन !
प्रिये !क्यों रूठ गए वो दिन !!
नीम की कड़वी निम्बोली भी
आम के जैसी मीठी थी
लेकिन बड़ी खटास
तुम्हारे बिन !
प्रिये !क्यों रूठ गए वो दिन !!
दिन हैं बहुत उदास
रात संत्रास
दुःख है केवल पास
टूट जाए न सांस
तुम्हारे बिन !
प्रिये !क्यों रूठ गए वो दिन !!
@धर्मेन्द्र तिजोरी वाले ''आज़ाद''
बुद्ध मुस्कुराये !
अपने-अपने स्वारथ से ही
घर-घर पाकिस्तान बनाये
बुद्ध मंद-मंद मुस्काये
मंहगाई गरीबी या नाकामी
या दंगों से ध्यान हटाने
या सत्ता पर काबिज होने
हमने ही बच्चे भड़काये
उसने भी बूढ़े उकसाये
बुद्ध मंद मंद मुस्काये
हिरोशिमा नागासाकी के
जब दोनों को सपने आये
ताजमहल में हाथ मिलाये
लेकिन ह्रदय नहीं मिल पाये
फिर गुर्राये
बुद्ध मंद मंद मुस्काये !!
अब होना थी भाषणबाजी
गया भाड़ में मोहन गाँधी
अग्नि गौरी पृथ्वी नामक
दोनों ने हथियार बनाये
बुद्ध मंद मंद मुस्काये !!
बुश ये नाटक देख रहा था
वह भी मंद मंद मुस्काया
उसी क्रम में एक पहल की
रम्सफील्ड को भारत भेजा
तब वह दिल्ली आकर बोला-
'आप लोग बड़े धैर्यवान हैं '
इससे हम भारी गदगद हैं
और मुशर्रफ़ जिद को छोड़ें
सरहद पर घुसपैठ को रोकें!
यही बात लाहौर पहुँचकर
वही आदमी कुछ यूँ बोला--
'आप लोग गंभीर बहुत हैं
आतंकवाद को उखाड़ फेंकने'
दुनिया भर के कान बचाकर
धीरे से वह ये भी बोला--
कहाँ गये वो परमाणु बम
हमने ही जो तुम्हें दिये थे?
उसकी प्रेस वार्ता सुनकर
बुद्ध मंद मंद मुस्काये !!
अब आखिर क्या शेष बचा था
कब तक मुस्काते रहेंगे गौतम
दोनों ने ब्रह्मास्त्र उठाये
बुद्ध अब हँसेंगे !!
@धर्मेन्द्र तिजोरी वाले "आजाद"
चल सको तो चलो !
साया की तरह संग चलो तो चलो !
इस दुनिया से उस दुनिया तक
संगम से संग-संग दरिया तक
सरिता की तरह बह सको तो चलो !
खाना होंगे पत्ते-नीम
वनवास के कष्ट असीम
सीता की तरह सह सको तो चलो !
फ़र्ज़ हेतु मैं मथुरा में
तब तुम तनहा गोकुल में
राधा की तरह रह सको तो चलो !
पापा के सन्देश पर
या माँ के संकेत पर
द्रोपदी की तरह बंट सको तो चलो !
टूट जाऊंगा लेकिन झुकूँगा नहीं
आंधी-तूफां भी आयें रुकुंगा नहीं
मेरे ही तरह चल सको तो चलो !
बन कर मेरी साधना
कागज़ पर ऐ कल्पना
कविता की तरह ढल सको तो चलो!
@धर्मेन्द्र तिजोरीवाले "आज़ाद"
लौट आ मेरी प्यारी दीदी
लौट आ मेरी प्यारी दीदी राखी का दिन आया है
देखो देखो आज मैंने कितनी जल्दी नहाया है
मम्मी कहती ऊपर गई तू अब 'शीलू' नहीं लौटेगी
मेरा दिल कहता है दीदी इस राखी पर आएगी
हमसे क्या था बैर जो हमें अकेला छोड़ दिया
गैर समझ हम सबको सबका दिल क्यों तोड़ दिया
जल्दी आओ मेरी दीदी अब न पैसे लूँगा
आज तो राखी का दिन है मैं ही पैसे दूँगा
दीदी दीदी प्यारी दीदी ख़त मिलते ही आना तुम
'झूल भैया झूल' वाली कविता रोज सुनाना तुम
जिनके लिए वहाँ गई हो उनको साथ भी लाना
वो गर आने से शरमायें जबरन ही खींच लाना
तेरी राखी को बाँधकर 'जीतू' को चिढाऊँगा
'नन्हा मुन्ना राही हूँ मैं ' तुझको गीत सुनाऊँगा
नहीं चाहिए चन्दन वाली न चमकीली चाहिए
लौट आ मेरी प्यारी दीदी तेरी गोद ही चाहिए
आज अगर तुम न आई तो मैं तुमसे रूठ जाऊँगा
नए कपडे गंदे करके कीचड में नहाऊँगा
चाची कहती ऊपर गई तू चाची मेरी झूठी है
क्योंकि मेरी प्यारी दीदी मेरे दिल में बैठी है
ऊपर मेरी प्यारी दीदी क्या खाती क्या पीती है
उसे चाहिए सुबह पार्ले शाम को काफी पीती है
आजा आजा प्यारी दीदी अब न तुझे सताऊँगा
हर दिन स्कूल जाऊँगा जल्दी रोज नहाऊँगा
@धर्मेन्द्र तिजोरीवाले "आज़ाद"
वो मज़दूर है
मेहनत उसकी मक़दूर है क्योंकि वो मज़दूर है
वह बेहद मजबूर है क्योंकि वो मज़दूर है
आगे बढ़ना कर्म है, निर्माण ही उसका धर्म है
वो दिल से बेहद नर्म है, यही तो उसका जुर्म है
वो खुद इक तक़सीर है, साथ नहीं तक़दीर है
क्योंकि वो मज़दूर है !
कब दोपहरी बीत गई, कब चाँदनी चढ़ गई
उसको होश हवास नहीं, कब दुनिया आगे बढ़ गई
वो खुद में ही मशगूल है, यह उसकी तासीर है
क्योंकि वो मज़दूर है !
वो कहता सबको भाई, उसको अबे पुकारते
वो सबको करता प्यार, फिर भी सब दुत्कारते
वो प्यार से महरूम है, ये दुनिया का दस्तूर है
क्योंकि वो मज़दूर है !
दिन भर बोझा ढोकर भी, हरदम मुस्काता रहता है
दिल से रोता होगा लेकिन हरदम हँसता रहता है
वो बेहद मज़बूत है, हर पुस्तक में मज़कूर है
क्योंकि वो मज़दूर है !
सेंटकिट्स बोफोर्स हवाला
लाटरी पशुपालन या चारा
दामन उसका महफ़ूज़ है, वो घोटालों से दूर है
क्योंकि वो मज़दूर है !
वो प्रेरक है, पूरक है चातुरता का
महज़ सुन्दर नहीं, सृजक है सुन्दरता का
मेरे मेहबूब सी तस्वीर है, कई नामों से मशहूर है
लेकिन वो मज़दूर है !
@धर्मेन्द्र तिजोरीवाले "आज़ाद"
पता- तेन्दुखेड़ा, जिला-नरसिंहपुर (म प्र)
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परिचय
धर्मेन्द्र तिजोरीवाले "आजाद"
जन्म- 07 जनवरी 1976
शिक्षा- एम ए (हिन्दी साहित्य)
पिता- श्री राधेश्याम तिजोरीवाले
माता- श्रीमती इन्दिरा विश्वकर्मा
प्रकाशन- उन्नयन, शेष, कथाविंब , कादम्बनी एवं अन्य पत्रिकाओं में ।
दो कविता संग्रह 'उसके बारे में '(1999) एवं 'ओ माय लव'(2000),
एक गजल संग्रह 'उनकी यादों के उजाले'(2008) तथा एक कथा संग्रह 'आकल्प'(2001) प्रकाशित ।
पत्रिका "ज्ञानपुंज" का सम्पादन, फिलहाल स्थगित ।
प्रकाशनाधीन- तुम्हें मेरी कसम (कविता संग्रह) और मेरे बच्चे की माँ (कहानी संग्रह)
सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन एवं व्यवसाय
सम्पर्क- आजाद प्रकाशन , तेन्दुखेड़ा, जिला-नरसिंहपुर (म प्र)-487337
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