समीक्षा ---------- 'हंस' पत्रिका : प्रेमचंद के सम्पादन के बाद भी संपादकीय अहम ■ डॉ. सदानंद पॉल हंस, मार्च 2020 अंक की उपलब्धि एकसाथ ...
समीक्षा
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'हंस' पत्रिका : प्रेमचंद के सम्पादन के बाद भी संपादकीय अहम
■ डॉ. सदानंद पॉल
हंस, मार्च 2020 अंक की उपलब्धि एकसाथ तीन सम्पादकीय का होना है। कथा सम्राट प्रेमचंद के द्वारा सम्पादित 'हंस' के पहले संपादकीय, नई कहानी आंदोलन के प्रणेता राजेन्द्र यादव के द्वारा सम्पादित 'हंस' के पहले संपादकीय और कथा-विधा के वरेण्य हस्ताक्षर संजय सहाय के द्वारा संपादित 'हंस' के संपादकीय-विचार अपनी-अपनी जगह सही है. हाँ, प्रेमचंद द्वारा संपादकीय-कथ्य मैंने प्रथम बार ही पढ़ा, किंतु राजेन्द्र यादव के संपादकीय (अगस्त 1986) को पहले भी पढ़ा हूँ. अभी दुनिया के प्रायः देशों में कोरोना वायरस जनित महामारी COVID-19 बहुत तेजी से प्रसरण कर रही है और मृतकों की संख्या 'गुणक' में बढ़ती जा रही है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ-साथ भारत ने भी इसे महामारी और आपदा घोषित किया है. ऐसे में कथा या कथेतर की साहित्यिक समीक्षा की बात बेमानी लग रही है, इसलिए इस महामारी के बारे में और इसके निदानार्थ एक कविता के माध्यम से अपना विचार प्रकट किया है। इसके साथ ही मेरे द्वारा रचित 'कोरोना चालीसा' भी पढ़ी जा सकती है!
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'हंस' का पहला दलित साहित्य विशेषांक 'सत्ता-विमर्श और दलित' अगस्त 2004 अंक के रूप में श्री श्योराज सिंह 'बेचैन' के अतिथि सम्पादकत्व में प्रकाशित हुई थी, इसतरह की टिप्पणी सम्पादकीय में श्री संजय सहाय ने भी डाली है कि जिनमें अतिथि संपादक का सहयोग श्री अजय नावरिया ने किया था. उक्त अंक में मेरी स्वानुभूति-आलेख 'मेहतरानी बहन और चमारिन प्रेमिका' प्रकाशित हुई थी. अब 15 साल बाद 'हंस' के नवम्बर 2019 अंक का अतिथि संपादन कार्य डॉ. अजय नावरिया ने गुरुतर दायित्व के साथ निभाये हैं. सोशल मीडिया साइट 'फेसबुक' के माध्यम से डॉ. नावरिया के विचारों से प्रायशः अवगत होते रहता हूँ. प्रस्तुतांक में कवि मलखान सिंह को श्रद्धांजलि लेखक श्री नामदेव ने सादर अर्पित की है, तो इस अंक के प्रसंगश: यही कहना है कि इनमें अधिकांश प्रकाशित दलित कवि/लेखकों को ही जगह दी गई है, अप्रकाशित व कम प्रकाशित दलित कवि/लेखकों को नहीं !
इस अंक की बड़ी उपलब्धि श्री रूपनारायण सोनकर की स्वानुभूति (भटकटैया) है, जिनमें उनके द्वारा रचित वैज्ञानिकी फ़िक्शन 'सूअरदान' से चुराई और उड़ाई गई कथा और कथा-विन्यास से श्री राकेश रोशन ने किसप्रकार हिंदी फिल्म 'कृष-3' बना ली, फिर जिसप्रकार से सोनकर जी 'सूअरदान' के कॉपीराइट उल्लंघन के विरुद्ध लड़े तथा तब उनके लिए भारतीय न्यायिक व्यवस्था एक दलित साहित्यकार के लिए जटिलतम होती चली गई, यह तो उस समय उन्हें उतनी पीड़ा नहीं दे पाई थी, जब 'सूअरदान' शीर्षक पर ही 'गोदान' प्रशंसकों ने हल्लाबोल दिए थे. अंततः, सोनकर जी की जीत हुई, किन्तु उन्हें भारत के प्रधान न्यायाधीश के विरुद्ध अमर्यादित टिप्पणी नहीं करनी चाहिए थी, अगर उसे सम्मान में क्षति हुई थी, तो इस हेतु 'मानवाधिकार आयोग' में जाते ! वैसे 'हंस' में प्रकाशित मेरे आलेख 'मेहतरानी बहन और चमारिन प्रेमिका' की कुछ पंक्ति 'सूअरदान' में प्रकाशित है, यह भी चौर्य कृत्य है.
प्रस्तुतांक में श्री बैठा की रचना (विचार-विमर्श) 'बिहार राज्य और दलित साहित्य' भी 'हंस' की अभीष्ट उपलब्धि है, किन्तु आलेखक श्री बैठा बिहार के कई दलित लेखकों-कवियों के नाम नहीं गिनाए हैं, तो झारखंडी और भारत के अन्य राज्यों के दलित लेखकों के नाम गिना दिए हैं, जो सिर्फ़ काम के सिलसिले में बिहार में रह रहे हैं, न कि डोमिसाइल लिए ! श्री बैठा के इस आलेख में श्री राकेश प्रियदर्शी आदि के नामोल्लेख नहीं है, जो हिंदी और मगही के न केवल सुपरिचित कवि हैं, अपितु वे बिहार से हैं और बिहार विधान परिषद में कार्यरत हैं, जहाँ आलेखक भी कार्यरत हैं. श्री प्रियदर्शी की कविता-पुस्तक भी एक दशक पूर्व से ही प्रकाशित है, जिनकी मगही-रचना सरकार के पाठ्यपुस्तक में भी शामिल है. ध्यातव्य है, 'हंस' के प्रस्तुतांक में श्री प्रियदर्शी के रेखांकन भी प्रकाशित हैं. दलित साहित्यकारों को आगे बढ़ाने में ओबीसी साहित्यकारों की महती भूमिका रही हैं, जिनमें श्रद्धेय राजेन्द्र यादव जी तो है ही, साथ में कई ओबीसी सितारें भी हैं. अभी के प्रसंगाधीन आलेख में श्री बैठा ने मेरे नामोल्लेख किए बिना एक विषयांतर टॉपिक चस्पाये हैं, यथा- "किंचित विषयांतर से बताऊँ कि एक बार एक रेडियो वार्त्ता की जो प्रस्तुति एक महोदय ने पटना आकाशवाणी में रखी, वह बिहार में दलित कथा-लेखन से संबद्ध थी. मगर, उसमें जो कथाकारों के नाम गिनाए गए वे सब के सब गैर-दलित थे. पटना में रहनेवाले ये दलित कथाविज्ञ वार्त्ताकार महोदय आपके अनुमानों के विपरीत बिरादरी के थे, वे सवर्ण न थे, ओबीसी थे !" सत्यता यह है, 'दलित का समाजशास्त्र' में 'गोदान' के पंडित मातादीन-सिलिया चमारिन आदिवाले प्रसंग आएंगे या नहीं ! विदित है, कुछ ओबीसी जातियों की सामाजिक-अवस्था 'दलित' से भी बदतर है, यथा- कुम्हार, तीयर, तेली इत्यादि. वार्त्ताकार का चयन करने का अधिकार उक्त आकाशवाणी का था. प्रस्तुतांक के संपादकीय में अतिथि संपादक डॉ. अजय नावरिया ने अच्छा लिखा है- "धर्मग्रंथों के अध्ययन से पता चलता है कि ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों में भी आपस में छुआछूत का चलन था. ब्राह्मण जाति के लोग आपस में भी श्रेष्ठ-हीन मानते हुए ब्राह्मणों के साथ ही अस्पृश्यता का व्यवहार करते थे...." यानी इस यातना को, जिसे भी जब अवसर मिला, प्रत्येक ने दूसरे-तीसरे को प्रताड़ित किया. कुलमिलाकर प्रस्तुतांक (हंस, नवम्बर 2019) एक संग्रहणीय अंक है.
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हंस, अप्रैल 2018 अंक पढ़ा. सम्पादकीय विचार से अभिक्रान्त हो गया. 'ईश्वरों की समाधि' की किताब 'समय का संक्षिप्त इतिहास' के लेखक महान विज्ञानी प्रो0 स्टीवेन व स्टीफ़ेन हॉकिंग, जिन्हें 21 की उम्र में डॉक्टरों ने कह दिया था कि वे 22वां जन्मदिन देख नहीं पायेगा, वो शख़्स डॉक्टरों की भविष्यवाणी को धता बता दिया और दुनिया को 'समय का संक्षिप्त इतिहास' से परिचित कराया. ईश्वर की कल्पना को उन्होंने नकारा और ईश्वरभक्तों की नज़र में 'नास्तिक' कहलाया. वह इस 'समय' वाली दुनिया को छोड़ अपने जीवन में 55 साल और इजाफ़ा कर 14 मार्च 2018 को 76 वर्ष की आयु में एक ऐसे इतिहास की तरफ निकल गए, जिनकी कल्पना शायद वो 'एलियन' के रूप में भी कर लिया था ! अब भी दुनिया की बेस्ट सेलिंग किताबों में एक 'द ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम' (समय का संक्षिप्त इतिहास' को मैंने भी खरीदा और पढ़ा, किन्तु 10 बार पढ़ने के बाद भी समझ नहीं पाया है, बावजूद समय, अंतरिक्ष, दूरी और वेग को उन्होंने बारीकी से समझाया है । अष्टावक्र की भांति उनके सभी अंग दिव्यांग थे, किन्तु मस्तिष्क चिरंजीवी थी, यही कारण है हॉकिंग 'अद्भुत व्हील चेयर' पर बैठे -बैठे ही खगोलिकी सार -तत्व को अंतरतम से समझाया. उनसे उन सारे लोगों को सीख जरूर लेना चाहिए, जिन्होंने कठिन परिस्थितियों में मौत को आत्मसात करते -करते बच निकले, परंतु दुनिया को कुछ भी दे नहीं पाए. आज वे इस दुनिया में नहीं है, लेकिन उनकी खोज मानवों के लिए सर्वोपरि है । काश! उन्हें नोबेल सम्मान से नवाजा जाता ! हाँ, उनकी नास्तिकता में हिंदी साहित्य 'हंस' के वरेण्य संपादक राजेन्द्र यादव की बेबाक टिप्पणी को पाता है. 'हंस' के इसी अंक में स्तंभ 'अपना मोर्चा' में प्रकाशित प्रथम पत्र 'पूर्वग्रही निष्पत्ति' के लेखक श्री बैठा के विचार में यह पसंद नहीं आया कि अगर न्यायाधीश महोदय भी दलित -अगड़े- पिछड़े के फेर में आएंगे, तो हम उन्हें न्यायमूर्त्ति कैसे कह पाएंगे ? इसी अंक में 'न हन्यते' के अंतर्गत आलेख 'सृष्टि पर पहरा देती कविताएँ' और 'करुणा के कवि केदारनाथ सिंह' में लेखक-द्वय ने कवि केदारनाथ सिंह को श्रद्धांजलि निवेदित किये हैं । चकिया (उत्तरप्रदेश) के कवि केदारनाथ सिंह को भारतीय ज्ञानपीठ सम्मान मिला था. उन्हें जीते जी खूब सम्मान मिला । वृद्धावस्था और बीमारी ने कवि केदारनाथ सिंह को लील लिया. प्रियजन का सदा के लिए चले जाना अत्यंत मर्मभेदी और दुखदायी होता है.
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●लेखक :- डॉ. सदानंद पॉल
●लेखकीय परिचय :-
तीन विषयों में एम.ए., नेट उत्तीर्ण, जे.आर.एफ. (MoC), मानद डॉक्टरेट. 'वर्ल्ड रिकॉर्ड्स' लिए गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स होल्डर, लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स होल्डर, इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड्स, RHR-UK, तेलुगु बुक ऑफ रिकार्ड्स, बिहार बुक ऑफ रिकार्ड्स होल्डर सहित सर्वाधिक 300+ रिकॉर्ड्स हेतु नाम दर्ज. राष्ट्रपति के प्रसंगश: 'नेशनल अवार्ड' प्राप्तकर्त्ता. पुस्तक- गणित डायरी, पूर्वांचल की लोकगाथा गोपीचंद, लव इन डार्विन सहित 10,000 से अधिक रचनाएँ और पत्र प्रकाशित. सबसे युवा समाचार पत्र संपादक. 500+ सरकारी स्तर की परीक्षाओं में qualify. पद्म अवार्ड के लिए सर्वाधिक बार नामांकित. कई जनजागरूकता मुहिम में भागीदारी.
●संपर्क :- s.paul.rtiactivist75@gmail.com
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