शशिकांत सिंह 'शशि' का व्यंग्य - वनहित में चिंतन

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वनहित में चिंतन व्‍यंग्‍य वन में चिंतनशिवीर का आयोजन किया गया था ।   चिंतन का मुख्‍य मुद्दा था -हिरणों पर बढ़ रहे हमले और निदान । इन दिनों ...

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वनहित में चिंतन

व्‍यंग्‍य

वन में चिंतनशिवीर का आयोजन किया गया था   चिंतन का मुख्‍य मुद्दा था -हिरणों पर बढ़ रहे हमले और निदान । इन दिनों हिरणों का मांद के बाहर निकलना मुश्‍किल हो गया था । पहले से ही घात लगाये भेड़िये उनपर टूट पड़ते थे । भूखे भेड़ियों के सामने बेचारी हिरणों की आवाज सुनने वाला कोई नहीं था । रोती-चिल्‍लाती रह जाती थीं । भेड़िये उन्‍हें चीर-फाड़ कर चल देते थे । जंगल से नियमित रूप से निकलने वाले अखबार-'हरितांचल' अपने संपादकीय में हिरणों पर हो रहे हमलों पर चिंता जता चुका था । शाकाहारी जीवों ने भी जुलूस निकालकर जंगल में ग्रास-मार्च किया था। ग्रास-मार्च में मुंह में तिनका दबाकर उन्‍होंने विरोध जताया था। इस जुलूस को लेकर हमेशा की तरह विद्वानों की राय अलग-अलग थी । एक वर्ग यह मानता था कि हिरणों को अपनी आवाज खुद ही बुलंद करनी चाहिए । कम से कम शेर सरकार की नींद तो टूटेगी । उन्‍हें अपने फर्ज याद तो आयेंगे। दूसरा वर्ग मानता था कि यह लॉ एंड आर्डर का मामला है। सरकार अपना काम कर ही रही है। बेकार का बवाल मचाना हो तो अलग बात है।

चिंतन शिविर के उपरांत जो फरमान वनहित में जारी किया गया वह इस प्रकार था ।

-' वन का शांत और सुरम्‍य वातावरण अत्‍यंत दूषित हो गया है। यह चिंता का विषय है। चिंतन शिवीर मेूं गहन विचार-विमर्श के बाद यह निष्‍कर्ष निकला है कि इन परिस्‍थितियों के लिए वन के हिरण ही जिम्‍मेवार हैं। उन्‍होंने अपने चाल-चलन में इतना परिवर्त्‍तन कर लिया है कि उनपर हमले बढ़ गये हैं। सदियों से भेड़िये , बाघ , चीते वन में शांतिपूर्ण सौहाद्र से रहते आ रहे हैं। हिरणें भी सदियों से वन में ही रहती आ रही हैं । हिरणों के आम जीवन में कभी भी आज की तरह अशांति नहीं रही । यदि प्राचीन काल की हिरणों से आज के हिरणों की तुलना करें तो हम पाते हैं आजकल की हिरणें अधिक कुलांचे भरती हैं। अधिक कुलांचे भरना किसी संस्‍कारी हिरण के लिए उचित नहीं है। हिरणों को चाहिए कि अपने कुलांचों पर हमेशा नियंत्रण रखें । मांसाहारी पशुओं का मन कुलांचों को देखकर मचल जाता है। वे शिकार करने के लिए मजबूर हो जाते हैं। यदि देखा जाये तो किसी को शिकार के लिए उकसाना भी एक अपराध ही है। हिरणों पर ये अपराध भी साबित होता है। यानी कि वे कुलांचे तो भरती ही हैं साथ ही साथ मांसाहारी जीवों को शिकार के लिए उकसाती भी हैं। यह निंदनीय कृत्‍य माना जायेगा । हिरणों को एक और सलाह दी जाती है कि वे कहीं भी और कभी भी भटकने की आदत से परहेज करें । भटकने की आदत प्राचीन काल की हिरणों को नहीं थी तो जंगल में कितनी शांति थी । प्राचीन काल की हिरणें हमेशा झुंड में रहती थीं । प्रातःकाल सूर्योदय के उपरांत जब सूरज की किरणें तीखी हो जाती थीं तब हिरणें अपने समूह के साथ बाहर निकलती थीं । अहा कितना मनोरम समय था । आधुनिक हिरणियों को न तो वन की संस्‍कृति के प्राति आदर का भाव है न ही समाज का भय । जीव स्‍वतंत्रता के नाम पर दिन-दुपहर में इधर-उधर अकेली भटकना उन्‍हें अच्‍छा लगता है। परिणाम भी उन्‍हें भुगतना पड़ता है। दिन तो दिन है आजकल की हिरणियां तो रात में भी मांद से बाहर निकलने में संकोच नहीं करती हैं । यह जंगल की शांति के लिए अत्‍यंत बाधक है। मांसाहारी जीव रात में भटकते रहते है। उनके हत्‍थे कोई हिरणी चढ़ गई तो इसमें सारी गलती हिरणी की ही होगी । हिरणियों को चाहिए कि अपनी रक्षा का विशेष ध्‍यान रखें ।

वनहित में यह चिंतन जारी करते ही चर्चा शुरू हो गई । बुद्धिजीवी दो वर्गों में बंट गये । एक भेड़ियों के साथ दूसरा हिरणियों के । भेड़ियों के साथ जो वर्ग था उसके तर्क थे कि यह एक व्‍यावहारिक कदम है। वन की शांति इसी में बनी रह सकती है। अत्‍याधुनिक बनने का यह अर्थ नहीं कि हम अपनी जड़ों को भूल जायें। हमारी संस्‍कृति यही है। दूसरे वर्ग ने उनकी आलोचना की । उनका कहना था कि हिरणियों को पूरी स्‍वतंत्रता है कि वे जहां चाहें जब चाहें , घूमें । किसी को उनकी आजादी में बाधक बनने की इजाजत नहीं दी जा सकती। भेड़ियों को चाहिए कि वे हिरणों को न खायें । उन्‍हें अपने संत स्‍वभाव का परिचय देना चाहिए । हिरणियों को पूरे सम्‍मान के साथ उनकी मांद तक छोड़ आना चाहिए । यह नई सदी है। नई सदी में मांसाहरी और शाकाहारी में कोई भेद नहीं होना चाहिए । सर्वत्र शांतिपूर्ण सहअस्‍तित्‍व का आभास होना चाहिए । वन में रामराज्‍य कायम हो जाये तभी सच्‍चा विकास माना जायेगा । बुद्धिजीवियों के अलावा आम जीवों को भी एक समूह था जो अपनी राय रखता तो था लेकिन प्रकट नहीं करता था । उनमें तरह-तरह की अभिव्‍यक्‍तियां थीं । कुछ जीव मानते थे कि यह लॉ एंड आर्डर का मसला है। कानून सख्‍त हो । दोषियों को उचित सजा मिले तो अपने आप अपराध रुक जायेंगे । कुछ जीव इसके विपरीत सोचते थे । वे भेड़ियों के सुधरने तक इंतजार करना बेहतर मानते थे।

जंगल के अखबार -हरितांचल' ने भी अपने संपादकीय में जंगल के इस फरमान का विरोध किया। उन्‍होंने हिरणों की स्‍वतंत्रता के पक्ष में अपने को प्रस्‍तुत किया । परिणामस्‍वरूप हरितांचल की प्रतियां जंगल के मुख्‍य चौराहे पर फाड़ी गईं । जलाने का जुगाड़ न होने के कारण कुछ जीव अफसोस करके रह गये । हरितांचल के कार्यालय में तोड़-फोड़ की गई । संपादक किसी तरह जान बचाकर भागा । संपादक के घर पर भी पथराव किया गया । उसके घर के कांच तोड़ दिये गये । उसकी बीबी मायके चली गई । वह बहुत पहले से समझाती रहती थी कि जिसके घर कांच के होते हैं वे दूसरे के घरों पर पत्‍थर नहीं मारते । बिना मतलब जीवों की वकालत मत किया करो । विज्ञापन की खाओ और हरिगुण गाओ । संपादक सुनता नहीं था । उसको परिणाम भुगतना पड़ा । मीडिया की आवाज को इस तरह दबाने के प्रयासों की घनघोर निंदा की गई । बुद्धिजीवियों का एक समूह राजा से मिला और उनसे वनतंत्र की रक्षा करने की मांग की । वनतंत्र में यदि आवाज उठाने की छूट नहीं होगी तो कहां होगी ? राजा ने उनकी मांगों के प्राति सहानुभूति दिखाई तथा गंभीरता से विचार किया । हरितांचल के संपादक की सुरक्षा बढ़ा दी गई । राजखर्च से उनके घर की मरम्‍मत कराई गई । अभी तीन दिन भी नहीं बीते थे कि संस्‍कृति रक्षक समूह का एक शिष्‍टमंडल राजा से मिला । उन्‍होंने राजा से मांग की कि वन में यदि आजादी के नाम पर सबको छूट दी गई तो एक दिन यहां भी लोकतंत्र वाली स्‍थिति हो जायेगी। जंगल भी आदमियों के समाज की तरह निरंकुश और निर्लज्‍ज हो जायेगा । हिरणों को कोई लाज-शर्म नहीं हैं जिसके कारण हमारे और आपके बच्‍चे बिगड़ रहे है। उनपर लगाम लगाना बेहद जरूरी है। राजा ने उनकी बातों को गंभीरता से लिया तथा एक जांच आयोग का गठन कर दिया । जांच आयोग का कामयह देखना था कि आने वाले दिनों में जंगल में शांति किस प्रकार कायम रह सकती है। कौन-कौन से तत्‍व जंगल की शांति को भंग करने के लिए जिम्‍मेवार हैं ? आयोग के अध्‍यक्ष चीता जी बने । उनके श्‍ोर साहब से बहुत अच्‍छे संबंध बताये जाते हैं । चीता कमिटी के फैसले आने तक राजा किसी भी निष्‍कर्ष पर नहीं पहुंचना चाहते थे । पहुंचे भी नहीं ।

सारी कवायद में किसी ने भी हिरणों से नहीं पूछा कि उनकी अपनी इच्‍छा क्‍या है ? वास्‍तव में उन्‍हें किस प्रकार अपनी रक्षा करनी है ? उन्‍हें किस प्रकार आजादी चाहिए ? उनसे पूछना न तो समाज के कर्णधारों ने जरूरी समझा न सरकार के तारणहारों ने । हिरणियों ने संशय से आसमान को देखा । उन्‍हें पता था कि अखबार और सरकार अपने-अपने हिस्‍से के कर्त्‍तव्‍यों का पालन कर रहे हैं। भेड़ियों ने एक बुलंद ठहाका लगाया और अगले शिकार की योजना बनाने लगे ।

शशिकांत सिंह 'शशि'

जवाहर नवोदय विद्यालय , शंकरनगर, नांदेड़

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रचनाकार: शशिकांत सिंह 'शशि' का व्यंग्य - वनहित में चिंतन
शशिकांत सिंह 'शशि' का व्यंग्य - वनहित में चिंतन
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https://www.rachanakar.org/2014/11/blog-post_99.html
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