मंतव्य 2 - राम प्रकाश अनंत का लघु उपन्यास : लालटेन

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(मंतव्य 2 ईबुक के रूप में यहाँ प्रकाशित है, जिसे आप अपने कंप्यूटिंग/मोबाइल कंप्यूटिंग उपकरणों में पढ़ सकते हैं. मंतव्य 2 संपादकीय यहाँ पढ़...

(मंतव्य 2 ईबुक के रूप में यहाँ प्रकाशित है, जिसे आप अपने कंप्यूटिंग/मोबाइल कंप्यूटिंग उपकरणों में पढ़ सकते हैं. मंतव्य 2 संपादकीय यहाँ पढ़ें)

 

राम प्रकाश अनंत पेशे से चिकित्सक हैं। शिक्षा-बी. एससी.,

एमबीबीएस। गर्भवती महिलाओं की चिकित्सा से संबंधित एक पुस्तक

भी प्रकाशित है- ‘प्रसूता मार्गदर्शिका’। एक कविता संकलन भी है और छिटपुट प्रकाशित निबंधों का भी एक संकलन। वर्ष-2005 के पहले

कुछेक पत्रिकाओं में कुछेक कहानियाँ भी छपीं। पर वर्ष-2005 के बाद ‘समयांतर’ और ‘फिलहाल’ के लिए समसामयिक विषयों पर ही लिख

रहे हैं। यहाँ प्रकाशित उपन्यास उन्होंने सन् 2002 में लिखा था। उस

समय उन्होंने चार उपन्यास लिखे थे, जिनमें से जीवन की भागमभाग में दो खो गये।

लघु उपन्यास

लालटेन

राम प्रकाश अनंत

‘‘सो चौधरी तुम्हें क्या बतायें, ऐसा मलूक, सुघड़ पिल्ला। बिलकुल रुई के फाहे की तरह सफ़ेद...।’’ यही तो ख़ास अदा है राम सनेही की। पहले तो मामूली-सी बात में इतना रस डाल देंगे फिर अचानक चुप हो जाएंगे। सब उत्सुकता से उनके चेहरे की ओर देख रहे थे। पल भर ठहर कर उन्होंने आगे बोलना आरम्भ किया, ‘‘तो चौधरी तुम्हें क्या बतायें, तुम विश्वास नहीं करोगे, एकदम झक्क सफ़ेद पिल्ला।’’

राम सनेही जिस चढ़ाव-उतार के साथ वर्णन कर रहे थे, वह लाज़वाब था। उन्होंने ‘झक्क सफ़ेद’ को जिस अंदाज़ में ज़ोर देकर कहा और उससे जो भावबोध पैदा हुआ, उसका वर्णन कर पाना संभव नहीं है। हल्का सा विराम लेकर वे आगे बढ़े, ‘‘सो चौधरी तुम विश्वास नहीं करोगे, रात का क़रीब एक बजा था। तुम तो जानते ही हो पुलिया पर चोर-उचक्के सही-शाम को ही सामान छीन लेते हैं। सो, मन में थोड़ा डर भी था। चच्चा लपका चाल चले जा रहे थे कि देखते क्या हैं... सो चौधरी, तुम्हें क्या बतायें, ऐसा मलूक, बिलकुल रुई के फाहे की तरह एकदम झक्क सफ़ेद पिल्ला। पिल्ला ऐसे तौल-तौल के क़दम रखे कि चच्चा से न तिल भर आगे, न तिल भर पीछे। चच्चा ने देखा तो एकदम दंग रह गये। उन्होंने पिल्ला उठाया और कंधों पर रख रख लिया। चाचा पिल्ले को कंधों पर रखे लपका चाल चले आ रहे थे। थोड़ी देर बाद

उन्हें लगा उनके कंधे वजन से दबे जा रहे हैं और वे ठीक से चल नहीं पा रहे हैं। ‘‘सो चौधरी तुम विश्वास नहीं करोगे, देखते क्या हैं कि पिल्ला की टाँगे बढ़ते-बढ़ते ज़मीन से छू गयी हैं। अचानक उन्हें चेत हुआ। पिल्ला ज़मीन पै पटका और वे भागे मुट्ठी बाँध के-‘ससुर छरौटा’। चौधरी तुम से का कहें, भागम भाग भागम भाग चच्चा की दम फूल गयी। ऐसा लगे पीछे सर्र-सर्र हवा दौड़ती आ रही है। पर चच्चा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। ‘‘जब गाँव-गोंड़े आ गये, तब सुनते क्या हैं-‘खैर मना,बच गया है आज।’ चच्चा ने पीछे मुड़ कर

देखा। कहीं कोई नज़र नहीं आया। चच्चा ने ललकारा-ससुर छरौटा, तू मेरे पीछे पड़ा है।’’ सब लोग रोमांचित थे। मैंने उत्सुकता से पूछा-‘‘ये छरौटा क्या होता है?’’

‘‘छरौटा क्या होता है!’’राम सनेही ने मुझे हिक़ारत से देखा। जैसे मैंने कोई बहुत ही बचकानी बात पूछ ली हो। ‘‘छरौटा छरौटा होता है। वह किसी भी रूप में आ सकता है। बस जब भी आयेगा, सफ़ेद रंग में आयेगा। सफ़ेद कुत्ता बन जाये, घोड़ा बन के आ जाये, बकरा बन के आ जाये, आदमी बन के आ आये, किसी भी रूप में आ सकता है। अगर आदमी को मिल जाये, तो पटकें मार-मार के उसकी हवा ख़राब कर दे।’’ वे मुझे छरौटा की शक्ति का एहसास कराने वाले अंदाज़ में बोले। रूप बदलने वाली बात चली, तो चम्पत को भी एक घटना याद आ गयी। बोले-‘‘छरौटा तो बहुत छलिया होता है। कब किस रूप में आ जाये, कुछ पता थोड़े ही है। एक बार मैं नानी के यहाँ था। मैं और बड़े बड़े मामा का बेटा घेर में सोये हुए थे। रात का क़रीब एक बजा होगा। रतिराम हाँफता हुआ आया।

बोला-‘भइया,भइया।’ मैं हड़बड़ा के उठ बैठा। उसका गला सूखा था और ढंग से बोल नहीं पा रहा था।

घबराहट के मारे गहरी-गहरी साँसें ले रहा था। मैंने पूछा-‘क्या है?’ ‘तुम सो रहे हो, अभी वह मेरे पास आया था और मुझे गाँव के बाहर लिवा ले गया।’ वह ढंग से बोल नहीं पा रहा था।

मैंने पूछा-‘कौन आया था?’

‘छरौटा और कौन।’ वह बताने लगा, ‘अभी मैं सो रहा था, तो तुम्हारा रूप धर के आ गया। बोला-

रतिराम खेत पर चलो। नीलगाह आ गये हैं, सारा खेत खा जायेंगे।’ ‘मैंने लाठी उठायी और उसके साथ चल दिया। वह आगे-आगे और मैं पीछे-पीछे। गाँव के बाहर निकल कर वह पोखर वाले दगड़े की ओर मुड़ा, तो मैंने कहा-भइया इधर क्यों जा रहे हो? इस सीधी पगडंडी से चलो जल्दी पहुँच जाएंगे। वह ज़िद पर उतर आया आया-नहीं, इधर से ही चलेंगे। मैंने समझाया-भइया ये सीधा रास्ता है, इससे जल्दी पहुँच जाएंगे।’ ‘उसने मुड़कर मेरा बाजू पकड़ा और ज़बरदस्ती करता हुआ बोला- चलता कि नहीं, यही रास्ता सही है। मैं भी एकदम गुस्से में आ गया। बाजू छुड़ाकर बोला-बिना वजह की ज़िद कर रहे हो। सीधे रास्ते तो नहीं चल रहे और इतना फेर खाते फिरोगे। अब तक खेत पर पहुँच गये होते। ‘मुझे गुस्से में देखकर वो ऐसा खिलखिला कर हँसा, ऐसा खिलखिला के हँसा कि मेरी तो फूँक ही सरक गयी। मुझे चेत हुआ कि चम्पत भइया तो पीला कुरता पहन कर सोये थे, यह तो सफ़ेद कुर्ता पाजामा पहने है। पाजामे पर नज़र गयी, तो मैंने देखा उसके पैर पीछे हैं। डर के मारे मेरी हालत पतली। मैंने हिम्मत जुटाकर लाठी उठायी, तो वह भागते हुए बोला-बच गया है बेटा। अगर पोखर तक पहुँच जाता, तो सारी हेकड़ी भुला देता। उसके बाद मैंने कसकर लाठी पकड़ी और उल्टे पैर भाग लिया।’’ चम्पत कुछ पल ठहरे। फिर उन्होंने अपनी बात ख़त्म की, ‘‘सो भइया छरौटा तो बड़ा सातिर होता है। कब किसका भेख बदल कर आ जाये, कुछ पता थोड़े ही होता है।’’

थोड़ी देर तक कोई कुछ नहीं बोला, तो चौधरी ने छरौटा के बारे में उपसंहार प्रस्तुत किया,‘‘सरारती होते हैं ये। इन्हें आदमी को परेशान करने में आनंद आता है। जब आदमी डरता है, उसे चोट लगती है, तो उन्हें खुशी होती है। अगर रतिराम पोखर तक चला जाता तो वह उसे पोखर में धक्का दे देता। पानी देखकर तो ये शेर हो जाते हैं।’’ ‘‘भइया लगता है, उधर वाली लाइन आ गयी।’’ चम्पत रेलवे लाइन पार टिमटिमाते बल्व की ओर देखते हुए बोले। ‘‘क्या टेम हो गई?’’ सनेही ने पूछा।

चौधरी घड़ी देख कर बोले, ‘‘बारह बज गए।’’

‘‘बारह बज गए!’’ मैं झटके से उठ कर खड़ा हो गया। मैं तेज़ी से घर की ओर बढ़ा। दिमाग़ पर पूरी तरह ‘छरौटा’ छाया हुआ था। माता (ग्राम देवी) से लेकर पुराने नीम तक निबिड़ अंधकार रहता था। क्या पता किस कोने से ‘छरौटा’ निकल आये और धर दबोचे। माता के आते ही मैंने दोनों मुट्ठियाँ बंद की और गहरी साँस भरी। लगभग दो-ढाई सौ मीटर की वह दूरी जिसमें दो मोड़ें भी शामिल थीं, मैंने एक साँस में तय कर ली। भगत जी की बैठक पर लालटेन जल रही थी, जिसका प्रकाश गली में फैला हुआ था। मेरे अंदर का डर काफी कम हो गया था।

घर के दरवाज़े तक पहुँचते ही छरौटा का भय तो एकदम अंदर से निकल गया, पर दूसरा भय समा गया। मैंने हल्के से किवाड़ों को धक्का दिया, तो वह खुल गयीं। तसल्ली हुई कि माँ ने कुंडी नहीं लगायी थी। किसी सर्जन की तरह सधे हुए हाथों से मैंने कुंडी लगायी और बिना आहट किये, आँगन पार कर बरामदे में पड़ी चारपाई पर टिक गया। थोड़ी देर तक घर की स्तब्धता को महसूस कर मुझे कुछ शांति मिली। ‘‘आ गया तू। इतनी जल्दी तेरी पंचायत कैसे ख़त्म हो गयी। जब दिन निकल आता, तब आता।’’ मम्मी की कड़क आवाज़ ने उस स्तब्धता को भंग कर दिया। मैंने सोचा था, मम्मी सो गयी होंगी। इसीलिए मैंने बिना आहट किये सधे पांव घर में प्रवेश किया। पर मम्मी को मेरे आने का पता चल गया। मैं एकदम चुप्पी लगा गया। मम्मी आधा मिनट चुप रहने के बाद रौद्र रूप में आ गयीं। ‘‘आधी रात हो गयी और तेरी पंचायत में आग नहीं लगती। किवाडें खुली पड़ी हैं। रात गये, कोई भी घर में घुस आये और सारा सामान बांध ले जाये। घर बाहर की तुझे कुछ चिंता थोड़े ही है।’’

मैं दुआ कर रहा था कि मम्मी चाहे जितना डाँट-डपट लें, पर चारपाई से उठकर न आयें। अगर वे उठ आयीं, तो इतने थप्पड़ पड़ने तय थे कि आधा-एक घंटे तक नींद आने का सवाल ही नहीं उठता था। मार के आगे भूत भी भागते हैं, यह पुरानी कहावत है। सो, मैं बेहद डरा सहमा था, पर मानसिक रूप से अपने आप को तैयार भी कर रहा था। यानी मैं तय कर चुका था कि मम्मी उठ कर आ ही गयीं, तो मैं सर को इतना नीचे झुका लूँगा कि उन्हें गालों पर थप्पड़ मारना असुविधाजनक लगे और वे पीठ पर ही चार-छह थप्पड़ मार कर अपना क्रोध शांत कर लें। पीठ की अपेक्षा गालों पर पड़े थप्पड़ अधिक कष्टप्रद होते थे। ‘‘गाँव की हवा वैसे ही ठीक नहीं है। चार वैरी चार दुश्मन। रात-बिरात कोई पकड़-पकड़ा ले गया, तो हम पर इतने पैसे भी नहीं हैं कि छुटा सकें। ऐसे तो छोड़ने से रहा, कोई मार ही डालेगा। अगर मरना ही है तो ऐसे ही किसी कुआँ-पोखर में डूब के मर जाओ। तुम से नहीं मरा जाता, तो चलो हम धक्का देते हैं। एक दिन मर जाओ, तो किस्सा तो ख़तम हो।’’

मेरी सांसे रुक गयीं। मम्मी ने जिस तरह दाँत पीसते हुए अपनी बात पूरी की, उससे मुझे लगा, वे अभी उठकर आएंगी और मुझे घसीटते हुए ले जाकर किसी कुआँ-पोखर में धकेल देंगी। भय धीरे-धीरे मेरे पूरे वजूद में फैलता जा रहा था। हर क्षण मुझे महसूस हो रहा था, मम्मी अब उठ कर आने ही वाली हैं। वे उठकर नहीं आयीं और थोड़ी देर तक कुछ बोलीं भी नहीं। यह उनकी आदत थी। जब उनका गुस्सा चरम पर पहुँच जाता था, तब वे या तो मुझे पीट कर उसे निकल जाने देतीं या फिर तीव्र डाँट-डपट से शुरू कर धीरे-धीरे समझाने का लहज़ा अख़्तियार कर लेतीं। उस दिन भी ऐसा ही हुआ। कुछ देर बाद वे समझाने लगीं, ‘‘आधी रात तक किवाड़ें खुली पड़ी रहती हैं। कम्बख़्त लोहू पिये जाते हैं हमारा। रात होते ही सब अपने-अपने घरों पर होते हैं और तुम बैठक करते फिर रहे हो। पढ़ने-लिखने वाले बच्चे को पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान देना चाहिए। पढ़ाई नहीं, तो घर का काम-धंधा देखो। कोई काम नहीं है, तो अपने घर बैठो। क्या ज़रूरत है रात-बिरात इधर-उधर बैठने की। इधर-उधर की बातों में क्या रखा है। चार अच्छी, चार बुरी। किसी के बारे में कोई ऐसी-वैसी बात निकल जाये, कोई अपनी तरफ से मिर्च-मसाला लगा कर इधर से उधर कर दे, लड़ाई-दंगा हो, फिर सही साबित कराते फिरो।’’

मम्मी कुछ क्षण के लिए रुकीं, तो मुझे लगा अब सोने की कोशिश करनी चाहिए। ये सब बातें मैं

 

उनसे सुनता ही रहता था, इसलिए उन पर ध्यान न देना स्वाभाविक था। ‘‘पूरे दिन घर-बाहर के काम में पिसो। चौक-बर्तन भैंस-डांगर, खेती-बाड़ी पचास आफ़त लगी रहती हैं जान को। सुबह से शाम तक पचास झंझट और शाम को तुम्हारी झिक-झिक। मार के देख लिया, डरा के देख लिया, समझा के देख लिया। खाना बना हुआ रखा है। हम देख रहे हैं... बेटा अब आये, अब आये। देखते-देखते जुग बीत गया। कसम से हमारा चोला इतना दुखी है कि तुम तो नहीं मरोगे, पर हम मर जायेंगे किसी कुआँ-पोखर में गिर कर। आख़िर इन तमाम झंझटों से तो मुक्ति मिले।’’ मम्मी का गला अवरुद्ध हो गया और वे रो पड़ीं।

मैं पानी-पानी हो गया। मेरी समझ में नहीं आ रहा था, मैं क्या करूँ। मुझे एहसास हुआ, मैंने अभी खाना नहीं खाया है। इस बात से और दुःख हुआ कि मम्मी भी अभी भूखी हैं। मेरे खाना खाने का समय निश्चित नहीं था। अक्सर जब वे खाना बना रही होती थीं, मैं तभी खाना खा लेता था। कभी मैं घेर में भैंसों की सानी-पानी, कुटी-काटी कर रहा होता था, तो वे पहले खाना खा लेती थीं, लेकिन कभी-कभी वे देर तक मेरा इंतज़ार करती रहतीं कि मैं आ जाऊं तो साथ खाना खायें। ख़ासकर तब, जब वे कोई अच्छी, मेरे मनपसंद सब्ज़ी बनाती थीं। आज भी उन्होंने मेरी प्रिय अरहर की दाल बनाई थी। जाने से पहले मैं कह भी गया था कि अभी भैंस बाँध कर आता हूँ।

मम्मी सिसक रही थीं और मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या करूँ? मैं खुद को ज़लील महसूस कर रहा था। मेरे कारण मम्मी इतनी रात गये, भूखी बैठी थीं। मैं अंदर से बहुत उद्विग्न था। वे मुझे मारपीट लेतीं पर रोती न। पहले भी एक-दो बार देर से आने के कारण खाना नहीं दिया है। आज भी ख़ुद खाना खा लेतीं, मारपीट लेतीं, खाना न देतीं पर इस तरह न रोतीं। मैंने चारपाई से उठने की कोशिश की, फिर वैसे ही लेटा रहा। अंततः उठकर मैं मम्मी के पास पहुँचा। ‘‘मम्मी। ....’’ मैं धीरे से बोला। वे चुप रहीं। ‘‘मम्मी....’’

वे अब भी कुछ नहीं बोलीं। मैं उनका हाथ पकड़ कर थोड़ी तेज़ आवाज़ में बोला, ‘‘मम्मी....’’ ‘‘तुम्हें क्या मतलब मम्मी से। मम्मी मरे या जिये। तुम आधी रात तक इधर-उधर बैठक करते फिरो।’’

उन्होंने आँचल से आँखें पोंछीं। ‘‘मैं रज्जन की बैठक पर पढ़ाई कर रहा था।’’ मैंने जानबूझ कर इसलिए झूठा बोला कि इससे माँ की तकलीफ़ कम हो जाएगी। हालांकि बोलते हुए मुझे लग रहा था कि आवाज़ गले में अटक जाएगी और मम्मी सही बात जान जाएंगी। ऐसा नहीं हुआ। वे बहुत ही मुलायमियत से बोलीं, ‘‘पढ़ाई-लिखाई की बात दिन में करनी चाहिए। कह के जाता कि मैं रज्जन की बैठक पर पढ़ रहा हूँ, तो मुझे चिंता न रहती।’’ मम्मी पढ़ाई के नाम पर सब कुछ माफ़ कर देती थीं।

मम्मी ने उठ कर दीया जलाया। कटोरा में दाल परोसी। कटोरदान से रोटी निकाल कर बोलीं, ‘‘गरम करूँ? बिलकुल ठंडी हो गयीं।’’ ‘‘रहने दो थोड़ी-थोड़ी गरम हैं तो।’’ मैंने यों ही रोटी छूकर बोल दिया। वे आग जलाने के लिए उठने ही वाली थीं, फिर रुक गयीं।

घर-बाहर का कितना काम है। रात-दिन लगे रहो, तब भी तो फुर्सत नहीं मिलती। तुझे समझना चाहिए कि हमारे माँ-बाप कितनी मेहनत से पढ़ा रहे हैं। पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान देना चाहिए। काम में हाथ बँटाना चाहिए। इधर-उधर की फालतू बातों में क्या रखा है। गाँव के लोग तो घर बिगड़वाने वाली बातें ही बतायेंगे। तुम बड़े हो गये हो। तुम्हें समझना चाहिए, कौन अच्छी बात बता रहा है और कौन बुरी सलाह दे रहा है। हम तो कहते हैं, फालतू टाइम है तब भी इधर-उधर बैठने की ज़रूरत ही क्या है। उठते-बैठते लोगों से थोड़ी बातचीत कर ली। ये थोड़े ही है कि रात-रात भर बैठक करते फिरो। दिमाग़ तो दिमाग़ ही है। चाहे पढ़ाई-लिखाई में लगा लो या फिर इधर-उधर की बातों में लगा लो। लोगों के पास है ही क्या, इधर-उधर की बुराई करना। अच्छे लोगों की सोहबत करनी चाहिए। दोपहर तू जित्तू के साथ घूम रहा था?’’ ‘‘नहीं तो, मैं जित्तू के साथ क्यों घूमूँगा? मैं खेत पै जा रहा था, रास्ते में वह मिल गया। क्रासिंग पार कर के वह अपने खेत पै चला गया, मैं अपने पै।’’ मैं जानता था मम्मी मेरा जित्तू के साथ घूमना कभी पसंद नहीं करतीं, इसलिए मैंने तुरंत प्रतिवाद किया। ‘‘ये कोई अच्छे लच्छिन थोड़े ही हैं।’’ मम्मी चुप हो गयीं। मुझे पता था, आधा मिनट बाद वे फिर बोलेंगी। वे क्या बोलेंगी, वह भी मुझे पता था। उनकी यह आदत थी। उन्होंने एक रिक्त स्थान मेरे लिए छोड़ दिया और मैंने उसे भर भी लिया। उन्हें प्यास लगी थी या यों ही छोड़े हुए रिक्त स्थान को भरने के लिए मुझे समय देने के लिए उन्होंने दो घूँट पानी पिया। गिलास यथास्थान रखती हुईं बोलीं,‘‘दाल क्यों नहीं खा रहा है तू? पूरा का पूरा कटोरा भरा है। खाएगा नहीं तो शरीर में जान पड़ेगी? चल पी इसे। और रखी है भगोने में।’’ ‘‘खा तो रहा हूँ।’’ मैंने झेंपते हुए दाल का कटोरा उठा लिया। मुझे पता था, जो बात वे कहने जा रही

हैं, उसे कहने से पहले वे इसी तरह स्नेह करती हैं। ‘‘सब के घर में धी-बेटी होती हैं। तुम किसी की धी-बेटी से कुलच्छिन की बात कहोगे, कोई तुम्हारी से कहेगा।’’ यकायक उन्हें कुछ याद आ गया, ‘‘अरे मुझे याद नहीं रहा, तो तूने भी नहीं कहा। चल उठ घी का डिब्बा उठा के ला। बिना घी के दाल क्या अच्छी लगेगी।’’ मैं घी का डिब्बा लेने चला गया। मेरे और मम्मी के बीच में उनके कहे शब्द पड़े हुए थे। शब्द भी क्या, वे पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़े थे। मम्मी को डर लगा रहता था कि मेरी टाँगें किसी गलत रास्ते पर न मुड़ जायें, इसलिए वे पहले उन पत्थरों को घिस कर गोल करती थीं। फिर स्नेह का मरहम लगातीं। फिर ठीक निशाना लगातीं कि मैं देखूँ, मेरी टाँगें ठीक रास्ते पर तो हैं। जैसे ही मुझे पत्थर का एहसास होता, वे स्नेह का दूसरा मरहम लगा देतीं कि मैं सिर्फ़ पत्थर याद रखूँ, उसकी टीस नहीं।

वास्तव में मेरा देर तक बैठक करना मम्मी के लिए बड़ी समस्या नहीं थी। इससे भी बड़ी समस्याएँ उनके लिए दूसरी थीं। उन्हें यह डर लगा रहता था कि गाँव का कोई ईर्ष्यालु व्यक्ति उनके अच्छे बेटे को सिखा-पढ़ा कर बिगाड़ न दे। दूसरे, उनका अच्छा बेटा सारा ध्यान पढ़ाई-लिखाई पर लगाये और पढ़लिखकर राजाबाबू बने। तीसरे, उनका अच्छा बेटा किसी की धी-बेटी से कोई ऐसी-वैसी कुलच्छिन की बात न कह दे या कर दे कि गाँव भर में उनका सिर शर्म से झुक जाये। चौथे, वे पूरे दिन काम करते-

करते इतनी थक जाती थीं कि इतनी रात तक मेरे लिए झींकना उन्हें कष्टप्रद होता था। इस कष्ट की उत्तेजना में वे कभी मुझे डाँट-डपट के संतुष्ट हो जातीं, तो कभी क्रोध बढ़ जाता, तो थप्पड़, लात, घूंसे मार लेतीं और मैं उन्हें कोसता हुआ सो जाता। कभी बेहद बेबस व दुखी हो जातीं। तब वे ऐसी ही बातें करती थीं। ये बातें मैं उनसे कई बार सुन चुका था। मुझे उस समय ये बातें अच्छी लगतीं। मन ही मन संकल्प लेता कि मम्मी की सारी बातें मानूँगा। मगर कमबख़्त यही बात थी, जो मेरे बस में नहीं थी। हर तीसरे, चौथे या पाँचवें दिन मैं इसे भूल जाता। मेरा घर गाँव के बिलकुल बीच में था और घेर जिसमें भैंसें बँधती थीं, गाँव के बिलकुल बाहर था। रास्ते में दो जगह ऐसी थीं, जहाँ गाँव भर के लोग इकट्ठे होकर बैठकबाज़ी करते थे। भगत जी की चौपाल और चौधरी का अलाव। मैं थोड़ी देर बात सुनने के लालच में खड़ा हो जाता, फिर पता ही नहीं चलता, कब बारह बज गये। आज भी ऐसा ही हुआ। मैं दृढ़ निश्चय कर के गया था कि रास्ते में रुकूँगा नहीं। घेर का ताला लगा कर लौटा कि मन में लालच आ गया,चौधरी के अलाव पर थोड़े हाथ सेंक लूँ। मैंने मन में दोहराया, बस पाँच मिनट। उसके बाद राम सनेही व चम्पत ने छरौटा की वे रुचिकर कहानियाँ छेड़ीं कि कब बारह बज गये, पता ही नहीं चला।

2.

मम्मी तो सो गयीं, पर मुझे नींद नहीं आ रही थी।आँखें बंद करता तो दिमाग़ में छरौटा आकार ग्रहण करने लगता। एक बार पूरा हनुमान चालीसा पढ़ा। फिर तकिया के नीचे उंगली से राम लिखा तो डर काफी कम हो गया। यह मंत्र मुझे रामसनेही ने ही बताया था कि तकिया के नीचे राम लिखने से भूतों से भय नहीं लगता। सोते में भी भूतों के सपने नहीं आते और डर भी नहीं लगता। मैं भी हनुमान चालीसा पढ़ने और तकिया के नीचे राम लिखने के बाद भय मुक्त हो गया था और थोड़ी देर में मुझे नींद आ गयी। सुबह उठा, तो देखा छः बज चुके हैं। मैं सीधा रेलवे लाइन की ओर भागा। रास्ते में मुझे आभास हो गया कि रूपकिशोर रेलवे लाइन पर नहीं पहुँचा है। जो पगडंडी गाँव को रेलवे लाइन से जोड़ती थी, उससे गुज़रते हुए मुझे पता चल जाता था कि उससे कोई गुज़रा है कि नहीं। कुछ दूरी तक पगडंडी के दोनों ओर खेतों में अरहर खड़ी थी। रात को पगडंडी के ऊपर मकड़ियाँ जाले बुन देती थीं। सुबह पगडंडी से गुज़रते वक़्त जाले साफ़ मिलते, तो इसका मतलब होता, कोई वहाँ से गुज़र गया है। सामान्यतः मैं या रूपकिशोर ही इस पगडंडी से सबसे पहले गुज़रते थे। मैं जाल संरचना को भंग कर लाइन पर पहुँचा।

लाइन के सामानांतर एक कच्ची सड़क थी। वहाँ से क़रीब आधा किलोमीटर पर रेलवे क्रॉसिंग थी। उसी के पास मेरा एक खेत था जिसे हम क्रासिंग वाला खेत कहते थे। मैं और रूपकिशोर सुबह साढ़े पाँच-छः बजे के बीच लाइन पर आ जाते। शौच आदि से निवृत्त हो कच्ची सड़क पर हम क्रासिंग तक चार-पाँच चक्कर लगाते। शरीर से आधा-एक लीटर पसीना निकल जाता। उसके बाद ठण्ड एकदम दूर हो जाती। कुछ देर तक मैं सड़क से पगडंडी को निहारता रहा। रूपकिशोर नहीं आया। सूरज निकलने में थोड़ा ही वक़्त रह गया था। वह उठ नहीं पाया होगा या उसकी तबीयत ठीक नहीं होगी, ऐसा सोच कर मैंने कुछेक मिनट तक जॉगिंग करने के बाद दौड़ भरी।

मैं क्रॉसिंग से थोड़ी दूरी पर था कि एकदम सहम कर रुक गया। आगे बढ़ने की मेरी हिम्मत नहीं हुई और वही से लौट आया। एक डर बराबर मेरे पीछे दौड़ रहा था। गाँव के बराबर आकर मैंने पगडण्डी पर इस उम्मीद से नज़र डाली कि रूपकिशोर आता दिखाई दे जाये। एक बार मन किया कि घर चलूँ पर दूसरे चक्कर के लिए पैर स्वतः ही मुड़ गये। जैसे-जैसे मैं क्रॉसिंग की ओर बढ़ रहा था, मेरा डर घनीभूत होता जा रहा था। मैंने हिम्मत जुटाने की कोशिश की कि क्रॉसिंग तक पूरी दौड़ भरूँ पर जुटा न सका। मैं ठिठक कर वही रुक गया। मेरी नज़र उस सफ़ेद चादर पर एकाग्र हो गयी।

दुनिया भर के लोगों को यही जगह मिलती है मरने को। पिछले वर्ष पड़ोस के गाँव की औरत यही रेल से कटकर मरी थी। जब से मैंने होश संभाला था, तब से यह चौथी घटना थी। इससे पहले तीन व्यक्ति और इसी जगह रेल से कट कर मर गये थे। मानो मरने वालों के दिमाग में यह बात बैठ गयी थी कि मरने के लिए इससे बेहतर कोई जगह है ही नहीं। मरने वालों में से तीन के बारे में लोग निश्चिंत थे। लोग बताते थे कि पिछले साल जो औरत मरी थी, वह चुड़ैल बन गयी थी और उन्होंने उसे काले कपड़ों में वहाँ घूमते हुए देखा है। एक व्यक्ति जो धोबी था, उसके बारे में बताते थे कि अभी भी वह सुबह-सुबह वहाँ कपड़े धोता है। लोगों को कपड़े धोने की आवाज़ सुनाई देती थी। तीसरे व्यक्ति को लोगों ने कई बार क्रॉसिंग के पास सफ़ेद चादर ओढ़े लेटे देखा था।

मैं चुपचाप खड़ा उस सफ़ेद चादर को देख रहा था। मन में एक डर था, जो बार-बार कह रहा था, मुझे यहाँ से लौट जाना चाहिए। उसके समानांतर एक ज़िद मेरे अंदर खड़ी हो गयी थी, जो जिज्ञासावश मुझे रोके हुई थी। लाइन के किनारे मुझे छाया-सी आती दिखाई दी। कौन हो सकता है? यकायक ध्यान आया, पहली गाड़ी का समय हो रहा है। कोई सवारी स्टेशन जा रही होगी। छाया थोड़ा नज़दीक आयी, तो स्पष्ट हो गया, कोई व्यक्ति गाड़ी पकड़ने के लिए लपका जा रहा था। मेरी हिम्मत बढ़ी। मैं धीरे क़दमों से क्रॉसिंग की ओर चलने लगा। क्रॉसिंग पर पहुँचकर मैंने उस सफ़ेद चादर को गौर से देखा। मैं ठगा-सा रह गया।

मैं जिसे सफ़ेद चादर समझ रहा था, वे वास्तव में खिले हुए कांस(कुश) थे। क्रॉसिंग के क़रीब चारपाई भर की जगह में कांस की झाड़ी उगी हुई थी। इस समय उसमें फूल आ रहे थे। रात में दूर से वही कांस के फूल मुझे सफ़ेद चादर प्रतीत हो रहे थे।

पौ फटने को थी। आगे दौड़ने का विचार छोड़कर मैंने गाँव की पगडंडी पकड़ी। घेर पर पहुँचकर मैंने भैंसों को सानी लगाई। गोबर पला में भर कर उसे खेत पर डालने चला गया। यह भी एक झंझट ही था। सुबह ही सुबह गोबर का इतना भारी पला सिर पर रखकर पौन किलोमीटर जाओ। अगर पुरखों ने कोई छोटा-सा ही खेत गाँव के पास ले लिया होता, तो यह परेशानी नहीं होती। इसका दुखद पहलू यह था कि भैसों की सानी-पानी और इतनी दूर गोबर-कूड़ा डालने में मुझे काफी समय लग जाता और स्कूल के लिए अक्सर देर हो जाती। मुझे सुबह के इन कामों के लिए युद्ध स्तर पर जुटना पड़ता था।

गोबर डाल कर लौटा, तो माँ को झींकते हुए पाया। मुझे देखते ही बोलीं, ‘‘भैंस को दोबारा सानी लगा

दे, वह आज फिर दूध नहीं उतार रही है।’’सानी लगा कर मैंने बाल्टी उठाई और नल पर नहाने चला गया।

मैं नहाकर लौटा, तब तक नौ बज चुके थे। मम्मी ने चूल्हा जलाया और आटा गूँथने लगीं। मैंने कपड़े पहने, बस्ता उठाया और बिना उनकी ओर देखे स्कूल चल दिया। ‘‘बस अभी रोटी सेंके देती हूँ, दस मिनट लगेंगे।’’ मुझे स्कूल जाते देख मम्मी बोलीं, तो मैं एकदम झुंझला उठा,‘‘सिक गयीं रोटी, मैं अब जा रहा हूँ। रोज़-रोज़ का यही ड्रामा है तुम्हारा।’’ मैंने जाने की जल्दी दिखाई। वे अनुनय करने लगीं, ‘‘बेटा कैसा है। अभी रोटी डाले दे रही हूँ। बस दस मिनट में। तुझे मेरी कसम है। बस दस मिनट।’’

झुंझला कर मैंने बस्ता खम्बे के सहारे टिका दिया। मम्मी तेज़-तेज़ हाथ चला रही थीं। चूल्हे की आग बुझ गयी थी। मैं फुंकनी उठा कर आग फूँकने लगा।

यह कोई एक दिन की बात नहीं थी। हर तीसरे दिन यही होता था। कमबख़्त नौ भी इतनी जल्दी बज जाते थे। इस रोज़-रोज़ की झिकझिक में कभी मेरा पहला पीरियड छूट जाता, कभी बिना कुछ खाये स्कूल चला जाता।

साइकिल का भी यही हाल था। चार दिन ठीक रहेगी, तो अचानक पंक्चर हो जाएगी। अगर ज़ेब में आठ आने पंक्चर जुड़वाने को हैं, तो ठीक है, नहीं तो घर तक साइकिल को पैदल खींचकर लाओ। पंक्चर जैसी छोटी-मोटी ख़राबी तो ठीक भी हो जायें, पर कोई बड़ा नुकसान हुआ, तो दस-बीस दिन यानी कितना समय लगे, कुछ पता नहीं। अगर ज़्यादा कहोगे, तो सुनने को मिलेगा,‘‘तुम्हें ही टम्पू चाहिए, कितने बच्चे हैं जो पैदल जाते हैं।’’

साइकिल भी पुरानी हो गयी है। कुछ न कुछ ख़राब होता ही रहता है। ऊपर से सुबह की जल्दबाज़ी।

पंद्रह मिनट पहले घर से निकलोगे, तो बिना कुछ देखे साइकिल दौड़ानी ही पड़ेगी। एक किलोमीटर कच्चा रास्ता, फिर सड़क में गहरे गड्ढे। साइकिल भी क्या करे। पंक्चर नहीं होगी, तो टायर कट जायेगा। टायर ठीक रहेगा, तो फ्राइबल फेल हो जायेगा। नहीं तो चैन ही टूट जायेगी।

आग फूँककर मैंने आसन खींचा और झुँझला कर बैठ गया। मम्मी आटा गूँथकर रोटी बेलने लगीं। रोटी तवे पर डालते हुए बोलीं,‘‘रात सोते में क्या बड़बड़ा रहा था?’’

मम्मी के बोलने में ही कुछ ऐसा था कि सारी झुंझलाहट और गुस्सा छोड़कर मैं बोल पड़ा,‘‘डर गया था मैं। क्या बड़बड़ा रहा था?’’ मैंने कुछ याद करते हुए पूछा। ‘‘और नहीं तो क्या...सांप-सांप कह रहा था। और भी जाने क्या बड़बड़ा रहा था।’’ मम्मी रोटी पलटते हुए बोलीं।

मैं मस्तिष्क पर ज़ोर डालकर रात का सपना याद करने लगा। यकायक मुझे याद आया,‘‘अपनी भैंस के नीचे मुझे सांप दिखाई दे रहा था। शायद उसी को देखकर मैं डर गया होऊँगा।’’

मम्मी चिंतित हो उठीं,‘‘पता नहीं, घर में क्या होकर रहेगा। परसों मुझे भी भैंस दिखाई दी है। भैंस के रूप में तो भोगपुर वाली मइया आती है। सांप अऊत होता है। माता के साथ अऊत दिखाई देना ठीक नहीं है।’’

चूल्हे से रोटी निकालकर उन्होंने प्लेट में रखी। मेरी ओर प्लेट सरकाती हुई बोलीं, ‘‘कटोरी में थोड़ा दही निकाल ले।’’

मैंने घड़ी देखी और जल्दी-जल्दी खाने पर टूट पड़ा।

‘‘पता नहीं, क्या होकर रहेगा।’’ मम्मी बड़बड़ाती जा रही थीं, ‘‘कब से सोच रही हूँ भोगपुर वाली की जात करा दूँ पर समय ही नहीं मिल पा रहा। इस पूर्णमासी को अऊतों को दूध रखा था। इस पूर्णमासी को भी पिला दूँगी। परसों भी भैंस ने दूध नहीं दिया था और आज भी इतना लेट दिया है।’’ मम्मी के माथे पर चिंता की लकीरें गहरी होती जा रही थीं। ‘‘पूजा तो अब होली पर ही हो पाएगी। इस पूर्णमासी को बतासे बँटवा दूँगी। कोई गया, तो भोगपुर वाली की जात के पैसे दूँगी। दूध भी पिलवा दूँगी।’’

मम्मी बहुत दुखी थीं और एकालाप करती जा रही थीं। मैं बार-बार घड़ी देख रहा था। पहला पीरियड तो निकल ही चुका था, कहीं दूसरा न निकल जाये, इसलिए मैं बड़े-बड़े कौर निगल रहा था।

मम्मी की बातें मुझे इसलिए भी बोर कर रही थीं क्योंकि मैं उन्हें कई बार सुन चुका था और मुझे वे बातें एकदम वाहियात लगती थीं। ख़ासकर जब उनकी भैंस दूध नहीं देती थी या घर में कोई बीमार हो जाता था, तो वे मुझे दुकान से सवा रुपये के बतासे लेने भेजतीं और कयास लगातीं, कौन-सा देवता रुष्ट हो सकता है? किसका खोर खटका हो सकता है? रात को सपने में ऐसा-वैसा कुछ दिख जाये और सुबह भैंस दूध न दे, तो वे उसके कारणों को पहचानने में कोई भूल नहीं करती थीं। वे सपनों को प्रतीक के रूप में मानती थीं और हर प्रतीक का अपना अर्थ होता था। मसलन सपने में सांप दिखने का मतलब अऊत, भैंस दिखने का मतलब भोगपुर वाली माता, छोटी लड़की दिखने पर कर्णवास वाली माता, कुत्ता दिखने पर मलावन वाले देवता आदि आदि।

मुझे इस भैंस पर हमेशा गुस्सा आता था। आठ दिन बाद पड़वा क्या मर गया, दूध के लिए उसकी बहुत खुशामद करनी पड़ती थी। ज़्यादा रातव खाने के लालच में वह काफी देर तक दूध नहीं उतारती थी। कभीकभी दो-दो सानी खा जाती, ऊपर से बीच-बीच में रातव मिलाते रहना पड़ता। जबकि दूसरी भैंस बच्चा छोड़ते ही पसुरा जाती थी और बमुश्किल बीस मिनट में मैं भी उसका दूध दूह सकता था।

3.

चार किलोमीटर की दूरी लगभग दौड़ते हुए पार कर मैं स्कूल पहुँचा। यह देख कर सुकून मिला कि पीरियड खाली था, यानी गुरुजी आये नहीं थे। यह गणित द्वितीय यानी रेखागणित का पीरियड था। गुरुजी अक्सर देर से ही आते थे। कभी-कभी तो वे किताब खोल ही पाते थे कि घंटा बज जाता। कभी-कभी वे पीरियड गोल भी कर देते थे। दरअसल पास में ही गुरु जी का खेत था और वे स्कूल में पढ़ाने का काम पार्ट टाइम की तरह करते थे। मुझे भी घर के काम-काज से स्कूल आने में अक्सर देर हो जाती। सो, मेरे लिए यह राहत की बात थी। हालांकि मेरी इस राहत ने मेरे परीक्षा परिणाम पर बहुत बुरा असर डाला। गणित के पहले पेपर में मैंने पचास में से पैंतालीस अंक पाये, वही इस पेपर में मैं मात्र तेईस अंक ही पा सका।

दूसरा पीरियड विज्ञान का था और उसमें थोड़ा समय बचा था। मैं चुपचाप अगले पीरियड के लिए पाठ की तैयारी करने लगा। दरअसल घर पर मुझे पढ़ाई के लिए कम ही समय मिलता था, इसलिए मैं स्कूल में ही काम पूरा करने की कोशिश करता था। स्कूल से लौटते हुए मैंने देखा, मंदिर पर काफी भीड़ जमा है। भीड़ देख कर मैं भी मंदिर पर रुक गया। लोग मंदिर के चारों ओर एकत्रित थे। मैंने माज़रा जानने की कोशिश की, तो पता चला रामकिशन की लड़की पर थाली बज रही है। मुझे याद आया आज शुक्रवार है।

रामकिशन की बेटी कई महीनों से बीमार थी। कस्बे के एक डॉक्टर से इलाज़ कराया। ठीक नहीं हुई तो भगत पास आये। भगत जी ने ध्यान लगाकर बताया, ‘जिन्न है, मंदिर पर लाना पड़ेगा।’ रामकिशन लड़की को मंदिर पर ले गये। भगत जी ने आसन लगाया, तो लड़की खेलने लगी- बड़े पीपल का जिन्न हूँ , आठवें दिन उठा ले जाऊँगा। रामकिशन पछाड़ खा कर गिर पड़े। भगत जी ने अभयदान दिया, ‘चिंता न कर रामकिशन जब तक मैं हूँ, लड़की का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।’

भगत जी ने कह दिया, तो रामकिशन आश्वस्त हुए। उनकी भगत जी में अगाध श्रद्धा थी। रामकिशन ही क्या पूरे गाँव की भगत जी पर अगाध श्रद्धा थी। भगत जी के कई चमत्कार गाँव वालों ने देखे थे। एक बार सपने में भगत जी को देवी का साक्षात्कार हुआ था। तब से भगत जी पर देवी आने लगीं।

सपने की बात भगत जी ने लोगों को बताई। किसी ने मानी, किसी ने नहीं मानी। एक दिन चंदन सिंह की लड़की का सीढ़ी से पैर फिसल गया। संयोग से भगत जी वहाँ मौजूद थे। लड़की बेहोश पड़ी थी। उन्होंने लड़की के चेहरे पर गंगाजल के छींटे मारे, मन्त्र पढ़े। लड़की थोड़ी देर में होश में आ गयी। इस घटना का गाँव वालों पर गहरा असर पड़ा। एक महीना नहीं बीता कि गाँव वालों ने चंदा कर गाँव के बाहर देवी का एक मंदिर बनवा दिया।

पूरे गाँव में हल्ला हो गया कि रामकिशन की लड़की को आठवें दिन उठा ले जाने की जिन्न चुनौती दे गया है। लड़की को आठ दिन तक मंदिर पर रखा गया। आठवें दिन विशेष प्रबंध किया गया। आसपास के गाँव के लोगों ने सुना, तो दौड़े चले आये। मंदिर पर भारी भीड़ जमा हो गयी। जिन्न की चुनौती को भगत जी द्वारा स्वीकारना। वाकई आज का दिन भगत जी के लिए इम्तिहान का दिन था।

भगत जी ने मंदिर के सामने वाला चबूतरा गाय के गोबर से एक दिन पहले ही लिपवा दिया था। हवन भर जगह आज दोबारा लिपवा कर भगत जी ने गंगाजल छिड़क कर पवित्र किया। आम की सूखी लकड़ियों से हवनकुंड तैयार किया गया। पूजा का सारा सामान कुण्ड के पास रख दिया गया। कुण्ड के एक ओर कम्बल को मोड़कर आसन बनाकर लड़की को बैठाया गया। पास ही दरी बिछी थी, जिस पर रामायण गाने वाले बैठे थे।

रामायण शुरूहुई। चौकी पर बैठे बुज़ुर्ग ने थाली पर थाप दी, तो वह छन्न से मटके पर नाचने लगी। खड़ताल, ढोलक, मजीरा व चिमटे वालों ने उसके साथ ताल मिलाई। भगत जी ने चाबुक हाथ में लिया और आँखें बंदकर होठों में कुछ बुदबुदाये। उन्होंने हाथ के इशारे से रामायण गाने का आदेश दिया।

आसाराम घुटनों पर खड़े हो गये और एक हाथ कान पर रखकर उन्होंने मंगलाचरण शुरूकिया- ‘‘तो सदा भमानी दाहिने गौरी पुत्र गनेस तीन देव रच्छा करें बिरमा, बिस्नु महेस।’’

मंगलाचरण के बाद उन्होंने रामायण उठाई - ‘अऊत के चलो गंग के तीर कि गंगा नहि आवे’

दूसरे गवैयों ने उनका अनुसरण किया। वे साज़ की लय पर सिर हिला रहे थे। वे एकदम रसनिमग्न थे। थाली की थाप व ढोलक की गमक के साथ वातावरण संगीतमय हो उठा था। आसाराम ने जैसे ही गाना पूरा किया, रामरतन तुरंत घुटनों के बल खड़े हो गये। उन्होंने लय को टूटने नहीं दिया। ‘कन्यवास से चली रे भवानी’

दूसरे गवैयों ने उनका अनुसरण किया, ‘चली रे भवानी...चली रे भवानी...भवानी...’

जैसे एकदम भूचाल आ गया। हवन कुण्ड के पास बैठे थान सिंह उल्टे पैर मोड़कर, घुटनों के बल झुके छाती पीट रहे थे-हुँ उँ..हुँ उँ..हुँ उँ... । उनकी हुँकार से जैसे सब कुछ सहम गया। भगत जी ने उनकी मिन्नत की, ‘‘महाराज दया करो।’’ जरा इधर हट के विनीत भाव से पूछा, ‘‘कौन हो महाराज?’’

थान सिंह हुंकार भरते हुए तरह-तरह की आवाजें निकाल रहे थे। वे गोल घेरे में शरीर को घुमा रहे थे और दोनों हाथों से ज़मीन व छाती पीट रहे थे। भगत जी ने बतासे पर कपूर का एक छोटा-सा टुकड़ा रख कर जलाया और थान सिंह के सामने रख दिया। थान सिंह ने उसे फूँक से बुझा दिया। ‘‘कौन हो महाराज?’’ भगत जी ने पुनः मिन्नत की। इस बार थान सिंह कड़क कर बोले, ‘‘मियां बास्साय।’’ ‘‘कौन से मियां हो? छोटे या बड़े?’’

‘‘बड़े।’’ थान सिंह ने जैसे पूरा शरीर तोड़कर रख दिया। रामायण गाने वालों की ओर हाथ उठाया, तो भगत जी ने तत्काल आदेश दिया, ‘‘मियां गाओ।’’

आसाराम ने मियां गाना शुरूकिया- ‘‘किन ने बनाय दये कुअटा किन ने लगायी दये बाग़ मियां रे तू सहजादो बड़ौ औलिया।’’

माहौल में रोमांच पैदा हो गया। एक स्त्री ने उत्सुकता से पूछा, ‘‘कौन खेल रहे हैं?’’ ‘‘मियां।’’ दूसरी ने बताया।

‘‘मियां तो बड़े खतरनाक हैं। अगर बिगड़ जायें, तो अच्छे-अच्छों के होस ठिकाने लगा दें।’’ तीसरी ने विस्मय प्रकट किया।

तीन गाँव का आदमी मामूली नहीं होता है। भीड़ की जिज्ञासा संभाले नहीं संभल रही थी। जिन्हें पीछे से दिखाई नहीं दे रहा था, वे आगे आने के लिए जगह बनाने की कोशिश में लगे थे। जो जगह बनाने की जद्दोजहद में पिछड़ गये, वे आसपास पेड़ों पर चढ़ गये।

बच्चों के लिए यह एक तमाशा था। स्त्री-पुरुषों के लिए एक जिज्ञासा, सहानुभूति प्रकट करने का एक अवसर था। भगत जी के लिए एक एडवेंचर था। और लड़की के माँ-बाप के लिए? उनके अंदर हाहाकार मचा हुआ था। शरीर की सम्पूर्ण ऊर्जा शिथिल हो गयी थी। उनके मन की सम्पूर्ण एकाग्रता लड़की के चेहरे पर केंद्रित थी। हृदय विदीर्ण हुआ जा रहा था। दुःख के सारे चिह्न सम्पूर्ण आवेग से उभर कर उनके पूरे चेहरे को आच्छादित किये थे।

भगत जी ने हाथ में चाबुक लिया और तेज़ आवाज़ में ललकारा, ‘‘हट्टऽऽऽ।’’ फिर पुचकारने लगे, ‘‘हाथ पैर बचा के। चल भाई चल।’’

थान सिंह पर अभी भी मियां खेल रहे थे। बीच-बीच में वे भी दबाव बनाने की कोशिश कर रहे थे।

लड़की चाबुक पर टकटकी लगाये थी। भगत जी ने पुचकारा,‘‘जो माँगेगा वही मिलेगा, चल भाई चल।’’

लड़की का सम्मोहन जैसे टूटने लगा। वह आसन पर पाल्थी मार कर बैठ गयी और खेलने लगी। वह अपने सिर व धड़ को गोल घेरे में घुमा रही थी। अपनी दोनों हथेलियों को आपस में मारती, फिर ज़मीन पर मारती, फिर छाती पीटती। वह बार-बार इसी क्रम को दोहरा रही थी। भगत जी ने दो-तीन बार पुचकारा। फिर तेज़ आवाज़ में बोले, ‘‘बोल क्या चाहता है?’’ लड़की और तेज़ खेलने लगी। भगत जी के बार-बार ललकारने पर उसने कबूल किया और लय बना कर गाने लगी - ‘‘आई आहा...आई आहा... इसे ले जाऊँगा... आई आहा आई आहा...।’’ लड़की पूरे उत्साह से खेल रही थी।

आगे क्या होगा? उत्सुकता का आवेग संभाले नहीं संभलता था। किसी ने कहा, ‘‘असली जिन्न है, कुछ भी कर सकता है।’’ ‘‘भूत-खईस को तो सब संभाल लेते हैं। जिन्न को झेल पाना, सब के बूते की बात नहीं है। यह तो भगत जी की ही छाती है।’’ ‘‘भैया जो जाने, सो ताने।’’ दूसरा बोला।

‘‘कोरा तमाशा है। अच्छे भले आदमी को दो दिन ऐसे माहौल में रख दो, तो वह भी ऐसी हरकतें करने लगेगा, फिर लड़की तो इतने दिन से बीमार भी है।’’ तीसरा बोला।

आवाज़ माँ के कानों तक पहुँची। एक-एक शब्द गर्म पारे की तरह कानों में उतरता चला गया। इन्द्रियों की शक्ति क्षीण हुई। शरीर शिथिल पड़ गया। उनके लिए शब्द अग्राह्य होते जा रहे थे। चेतना ने मस्तिष्क का साथ छोड़ा, तो वे विचार शून्य हो गयीं। पास बैठी एक औरत ने उन्हें गोद में लिटा लिया। एक औरत ने पंखे से हवा की। दूसरी ने मुँह पर पानी के छींटे मारे। थोड़ी देर में चेतना वापस लौट आयी। वे निर्विकल्प शून्य में ताक रही थीं और आँखों से आंसुओं की नदी बह रही थी। पास बैठी औरतें उन्हें ढांढस बँधा रही थीं।

भगत जी और जिन्न में झड़पें होते-होते शाम होने को आयी। मुझे ध्यान आया, मैं स्कूल से लौटकर अभी घर नहीं गया हूँ। मैं हड़बड़ा कर घर के लिए चल दिया। रास्ते भर मेरे मन में तरह-तरह की जिज्ञासाएँ उठती रहीं। माता, चुड़ैल, भूत, खईस, जिन्न, बिरहम देव, मियां... मैं सबके बारे में जानना चाहता था।

बचपन से देखता आ रहा था, इसलिए मुझे अपने घर के देवी-देवताओं के बारे में काफी जानकारी थी। गाँव में होली-दीवाली पर घर-घर पूजा होती थी। कन्यवास(कर्णवास), बेलोंन, भोगपुर वाली और ग्राम देवी ये चार माताएँ लगभग हर घर में पूजी जाती थीं। जलेसर के ‘मामा-भांजे’(छोटे मियाँ व बड़े मियाँ) भी काफी घरों में पूजे जाते थे। इसके अलावा हर घर के अपने देवी-देवता होते थे।

पूजा करना कोई आसान काम नहीं था। मैं वर्षों से देखता आ रहा था, माँ के लिए वह बेहद चुनौती पूर्ण काम था। पूजा की एक-एक चीज़ याद कर पहले से मँगाकर तैयार रखना। हवन सामग्री, आम की लकड़ी, सिंदूर, बतासे, लौंग, जायफल, कपूर और न जाने क्या-क्या होता था। मम्मी सुबह जल्दी उठकर काम समाप्त कर स्नान करतीं। बरोसी में खीर पकने रख देतीं। चौके को दोबारा लीपतीं। जब तक पूजा नहीं हो जाती, चौके में बच्चा भी नहीं घुस सकता था।

वह दिन माँ के लिए ही नहीं, मेरे लिए भी कष्टसाध्य होता था। मम्मी सुबह से मशीन की तरह काम में जुटतीं, फिर भी पूजा करने में साढ़े दस-ग्यारह बज ही जाते। मुझे दिन निकलते ही खाने की आदत थी। अगर सुबह जल्दी खाना नहीं मिलता, तो मैं उद्विग्न हो जाता था। जब तक पूजा नहीं हो जाती, खाना तो क्या चौके में घुसने की भी इज़ाज़त नहीं थी। मेरे लिए ग्यारह बजे तक भूखा रहना बेहद कष्टसाध्य था। कोई तीन-चार वर्ष पूर्व की घटना रही होगी। मम्मी पूड़ियों के लिए आटा गूँथ रही थीं। दस बज चुके थे और अभी पूजा में घंटा भर लगना ही था। मेरे लिए भूख असह्य होती जा रही थी। मैंने देखा मम्मी का पूरा ध्यान दूसरी जगह केंद्रित था। मैंने चुपके से कटोरदान से चार-पाँच पुए निकाल लिये। अचानक जैसे आसमान सिर पर गिर पड़ा। मम्मी आटा छोड़कर आयीं और एक झन्नाटेदार थप्पड़ उन्होंने मेरे कान के पास जड़ दिया।

वह दिन मेरे लिए अच्छा था। उस समय रामपुर वाली ताई नहीं आयी होतीं, तो पता नहीं, मेरी कितनी पिटाई होती। उन्होंने आते ही पूछा, ‘‘क्यों मार रही है री? ऐसा क्या कर दिया इसने?’’

मम्मी मुझे छोड़कर ताई से मुखातिब हुईं, ‘‘क्या बताएं जिज्जी, हम तो इस औलाद से परेशान हैं। लोहू पिये जाते हैं कम्बखत हमारा। सुबह से काम में लगे-लगे पागल हुए जा रहे हैं और उसने चौका जूठा कर दिया। ज़रा सी देर का सबर नहीं हुआ। सब दोबारा करना पड़ेगा कि नहीं।’’ मम्मी के लहज़े में मेरी शिकायत कम, अपना दर्द अधिक था। उन्हें देखकर मुझे अपने ऊपर ग्लानि हो रही थी। हाथ में लगे पुए गर्म अंगारे से लग रहे थे।

ताई मुझे गौर से देखते हुए बोलीं, ‘‘खा लिये हैं क्या?’’

‘‘नहीं।’’ मैंने सबूत के तौर पर पुओं वाला हाथ तुरंत आगे कर दिया।

‘‘नहीं खाये, पर जूठे-सूठे हाथ तो डाल ही दिये कटोरदान में।’’ मम्मी बेबस हो उठीं।

ताई ने समझाया, ‘‘तू तो ऐसी बातें करती है। इनकी गलती कौन गिनी जाती है। ये तो चिरी-चांगुरे हैं। इनका तो सब माफ़ है।’’ फिर वे मुझसे मुखातिब हुईं, ‘‘इन पुओं को इस टोकरी में रख दे। अभी पूजा हो जाये, तो खा लेना।’’

मैंने पुए तुरंत टोकरी में रख राहत की सांस ली। गोया मेरे हाथ की हथकड़ी कट गई हो और मैं स्वतंत्र हो गया होऊँ। मम्मी के चेहरे पर संतोष झलक आया, जिसे देखकर मुझे प्रसन्नता हुई। उन्होंने ताई के लिए आसन डाला, तो वे बोलीं, ‘‘नहीं, मैं चलती हूँ। घर पै काम पड़ा है।’’ ‘‘थोड़ा बैठ जाओ ना।’’ आटे की परात खींचते हुए मम्मी बोलीं। मम्मी ने जब तक पूड़ियाँ सेकीं,

ताई उनसे बात करती रहीं। मैं मन ही मन मनाता रहा,जल्दी पूजा हो तो खाना मिले। जब मम्मी पूड़ियाँ सेंक रही थीं, तो मैं गिनती गिन रहा था। मेरा अनुमान था, छः सौ तक गिनती गिनूंगा तब तक सारे आटे की पूड़ियाँ बन चुकी होंगी। जब सब कुछ तैयार हो गया, तो पूजा की बारी आयी। यह वक़्त मम्मी के लिए बड़े धैर्य का होता था। मैं चौके की सीमा रेखा पर बैठा होता। ताकि मम्मी को किसी चीज़ की ज़रूरत पड़े, तो सहायता कर सकूँ। मम्मी पूजा के लिए देसी घी की छोटी-छोटी पूड़ियाँ बनातीं। फुट भर जगह में पीली मिट्टी का चौका लगातीं। एक के ऊपर एक आठ छोटी वाली पूड़ियाँ जिन्हें वे अग्यारी कहती थीं, उस चौके में रख देतीं। सबसे पहले चारों माताओं की चार अग्यारी रखतीं। हर अग्यारी के पास एक अंगारा रखतीं। उस पर सामग्री, लौंग, घी चढ़ा कर आग लगातीं, तो अंगारे जलने लगते थे। फिर हर अग्यारी से पूड़ियाँ खोंट-खोंट कर अंगारे पर चढ़ा देतीं। थोड़ी देर बाद अग्यारी की पूड़ियाँ उठाकर कटोरदान में रख देतीं और अंगारे इकट्ठे कर एक ओर सरका देतीं। अगले देवता के लिए फिर वही फुट भर जगह को पीली मिट्टी से चौका लगातीं। कौन सा देवता एक ही चौका में पूजा मंज़ूर कर सकता है, यह सावधानी महत्वपूर्ण थी। मुझे इतना याद है कि सबसे पहले चारों माताओं की पूजा होती थी और वे एक ही चौका में पूजा मंज़ूर कर लेती थीं। हर देवता की पूजा के साथ मम्मी मन ही मन दोहरातीं। प्रक्रिया की कोई चीज़ छूट न गयी हो। हर देवता की पूजा के बाद याद करतीं, कौन से की पूजा हो गयी, कौन सा रह गया। एक-एक को याद करतीं। चारों माताएं, मियाँ, नगरसेन, मलावन...। अंत में एक अग्यारी चढ़ातीं, भूला-भटका जो भी रह गया हो उसके नाम।

मैं थोड़ा बड़ा हो गया था यानी आठवीं-नौवीं कक्षा में रहा होऊँगा, तब से ही मुझे लगने लगा था कि ये देवता और उनकी पूजा ये सब बकवास है। मैंने माँ से भी कहा था कि वे इन सब को न मानें पर उस समय माँ के लिए यह संभव नहीं था। उसकी वजह थी। एक तो हर घर में ये सब होता था। दूसरे कुछ लोगों ने ये सब छोड़ दिया और जब उनके घर तरह-तरह की समस्याएँ पैदा हुईं और वे भगत जी के पास गये, तो बाद में उन्हें पूजा शुरूकरनी पड़ी। बाद में मम्मी गाँव छोड़ कर दिल्ली आ गयीं, तो कुछ समय के बाद उन्होंने खुद ही ये सब बंद कर दिया।

4.

दिन का वक़्त था फिर भी मेरे मानसिक पटल पर जिन्न, खईस, बिरमदेव, चुड़ैल की डरावनी तस्वीरें बन-बिगड़ रही थीं। यों बहुत-सी बातें भूत-प्रेतों के बारे में अपने परिवार और समाज से जान गया था।

थोड़ी समझ बढ़ी, तभी से मुझे ये बातें संशयात्मक लगती थीं, उनमें अधिक रुचि रखने की बड़ी वजह यही थी। इसीलिए मंदिर पर लोगों की जो बातें सुनी, उससे और नयी-नयी जिज्ञासाएँ मेरे मस्तिष्क में उभरने लगीं। मंदिर पर मैंने जो कुछ सुना, उससे इतना तो स्पष्ट था कि खईस की तुलना में जिन्न और बिरमदेव बेहद खतरनाक होते हैं।

गाँव में घुसते ही मेरी सारी जिज्ञासाएँ गायब हो गयीं। शाम होने को थी और मैं स्कूल से लौटकर अभी तक घर नहीं पहुँचा था। भैंस के दूहने का समय हो गया था। उससे पहले उन्हें सानी-पानी करना पड़ता था और इसमें मैं माँ की सहायता करता था। मेरी आँखों के सामने मम्मी का रौद्र रूप था। मुझे लग रहा था, जैसे ही मैं घर में घुसूँगा मम्मी थप्पड़ों से मेरा स्वागत करेंगी। गली पार कर मैं दरवाज़े तक पहुँचा तो देहरी के अंदर पैर ले जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। काफी कोशिश के बाद में घर में प्रवेश कर सका।

मम्मी हाथ में थाली लिए दाल में से कंकड़ी बीन रही थीं। मैंने सधे पैरों आँगन पार कर ओसारे में बस्ता टाँगा और स्कूल की ड्रेस बदलने लगा। ‘‘कहाँ था अब तक?’’ मम्मी ने थाली से सिर उठाये बिना पूछा तो मैं लरज़ उठा। धीमे से उत्तर दिया, ‘‘मंदिर पर?’’

मम्मी कुछ नहीं बोलीं, पर मुझे लग रहा था, अभी वे थाली रख कर आएँगी और तब डाँट कर पूछेंगी। मम्मी चुपचाप दाल बीनती रहीं। कपड़े बदल कर मैं उनकी सहायता करने लगा। थोड़ी देर बाद मैंने सूचना देने वाले लहज़े में कहा, ‘‘राम किशन की लड़की पर थाली बज रही है।’’ ‘‘क्या हो रहा है वहाँ?’’ उन्होंने यों ही पूछा।

‘‘उस पर जिन्न खेल रहा है।’’ मैंने बताया। वे कुछ नहीं बोलीं।

वे काम करते हुए कुछ गुनगुनाने लगीं। यह उनके अच्छी मूड को व्यक्त करता था। उचित समय देखकर मैंने पूछा, ‘‘मम्मी ये जिन्न, खईस, बिरमदेव क्या होते हैं?’’

मम्मी ने काम से ध्यान हटाये बिना बताया, ‘‘बामन मरने पर बिरमदेव बनते हैं, ठाकुर जिन्न बनते हैं और दूसरी जाति के लोग खईस बनते हैं।’’

भूतों का यह नया वर्गीकरण मुझे अचंभित कर देने वाला था। मेरी आँखों के सामने ठाकुर रामपाल की तस्वीर आ गयी। लम्बा-चौड़ा शरीर, बड़ी-बड़ी मूँछें और घूरती हुई आँखें देखकर कोई भी कह सकता था कि वे मरने के बाद खतरनाक जिन्न बनेंगे। गाँव भर में रामपाल के अलावा इतनी बलिष्ठ कद-काठी और इतनी लम्बी मूँछें चोब सिंह की ही थी, लेकिन यह सोचकर बड़ा अज़ीब लगा कि मरने के बाद रामपाल खतरनाक जिन्न बनेंगे और चोब सिंह मामूली खईस। यह सोचकर, तो मैं आश्चर्य में डूब गया कि मरियल से पंडित विद्याभूषण मरने के बाद बिरमदेव बनेंगे जो बेहद शक्तिशाली और खतरनाक होता है।

स्कूल से देर से लौटने के बाद भी मम्मी ने मुझे डाँटा नहीं था, इससे मैं बहुत खुश था। दाल साफ़ होने के बाद चूल्हा जलाने व दूसरे कामों में मैं उनकी उत्साहपूर्वक सहायता करता रहा। जब काम ख़त्म हुआ और मम्मी रोटियाँ सेंकने लगीं, तो मैं घर से बाहर निकला। गली में मुझे किसी के कराहने की आवाज़ आयी। मैंने ध्यान दिया, आवाज़ जग्गो ताई के यहाँ से आ रही थी। मैंने अंदर जाकर देखा, जग्गो ताई चारपाई पर लेटी कराह रही थीं। ‘‘क्या बात है ताई?’’ मैंने सहानुभूति से पूछा।

‘‘पेट में तेज़ दर्द उठा है, तू भगत जी को बुला ला।’’ उन्होंने अनुनय की। ‘‘भगत जी तो मंदिर पर थाली बजवा रहे हैं।’’ मैंने बताया। ‘‘तो रूप सिंह भगत को ही बुला ला।’’ मैं रूप सिंह भगत को बुलाने चल दिया।

वक़्त-वक़्त की बात है। एक वक़्त वह भी था, जब रूप सिंह गाँव के सबसे प्रभावशाली भगत थे।

गाँव ही क्या, दूर-दूर से लोग उनके पास आते थे। गाँव में किसी पर भी हवा का ऊपरी चक्कर हुआ, दौड़ा-दौड़ा उनके पास पहुँच जाता था, लेकिन अब पहले जैसी बात नहीं रही। अब लोग उसी हालत में रूप सिंह के पास जाते थे, जब भगत जी उपलब्ध न हों। वास्तव में उन दिनों श्याम लाल का मतलब श्याम लाल था और ‘भगत जी’ का मतलब था रूप सिंह। अब श्याम लाल का मतलब ‘भगत जी’ था और रूप सिंह का मतलब रूप सिंह भगत। इस बदलाव के दो कारण थे। पहला यह कि श्याम लाल के देवी दर्शन के बाद लोगों का विश्वास एवं श्रद्धा रूप सिंह के बजाय श्याम लाल पर जम गयी। अब लोगों के लिए श्याम लाल का अर्थ ‘भगत जी’ हो गया। दूसरा, रूप सिंह के समाधान अनुष्ठान कुछ महँगे पड़ते थे। रूप सिंह को काली सिद्ध थी, जो हर अनुष्ठान में एक शराब की बोतल माँगती थी।

मैं रूप सिंह को लिवा लाया। जगती ताई के आदेशानुसार मैंने पीढ़ा डाल दी, जिस पर भगत जी बैठ गये। उन्होंने आँखें बंदकर ध्यान लगाया। थोड़ी देर बाद आँखें खोलकर बोले, ‘‘जिन्न का चक्कर है। दो खईस भी साथ हैं। दिन में नहा-धोकर देखूँगा। अभी भभूति पढ़े देता हूँ, दर्द बंद हो जाएगा।’’ वे मुझसे मुखातिब हुए, ‘‘चूल्हे से थोड़ी राख लाना।’’

मैंने राख उन्हें लाकर दे दी। उन्होंने बायीं हथेली में राख रखी और दायें हाथ के अँगूठे से ऐसे मलने

लगे, जैसे तम्बाकू मलते हैं। वे राख मलने के साथ-साथ मन्त्र भी पढ़ते जा रहे थे-

ओ ऊँऽऽऽऽ पेट पीर पेट पीर मूड़ पीर मूड़ पीर ऊँऊँऊँऊँऊँमेरे भाई ओ ऊँऽऽऽऽ पेट पीर पेट पीर मूड़ पीर मूड़ पीर ऊँऊँऊँऊँऊँमेरे भाई रूप सिंह ने राख पढ़कर जगती ताई के पेट पर लगा दी। एक चुटकी राख उन्हें देकर बोले, ‘‘इसे मुँह में डाल ले।’’ बाकी काग़ज़ पर रखते हुए बोले, ‘‘अगर दर्द बंद न हो, तो दो घंटे बाद थोड़ी-सी राख फिर लगा लेना।’’ रूप सिंह के साथ मैं भी घर से बाहर आ गया।

बेचारी जगती ताई का करम ही खोटा था। एक बार घर का फेर बिगड़ा, तो बिगड़ता ही चला गया। डेढ़ साल से खटिया गोड़ रही थीं। कभी ठीक हो जातीं, कभी बीमार पड़ जातीं। डेढ़ साल से यही सब चल रहा था।

मैंने भैंस को सानी लगा कर नल पर हाथ-मुँह धोया। घर आया, तो मम्मी ने खाना परोस दिया। मैंने खाना खाया। चारपाइयाँ बिछाकर बिस्तर लगा दिये। मम्मी खाना खाकर अपनी चारपाई पर लेट गयीं। मुझे हिदायत देती हुई बोलीं, ‘‘अगर पढ़ना है, तो लैंप जला कर पढ़ लो, पर रात में कहीं इधर-उधर घूमने मत जाना।’’

शायद मम्मी मेरी मनः स्थिति भांप गयी थीं। मेरा मन बार-बार मंदिर पर जाने को कर रहा था, पर आज्ञाकारी बेटा बनकर मैंने लैंप जलायी और पढ़ने बैठ गया।

5.

‘‘क्या टाइम हो गया?’’ मम्मी ने पूछा। मैंने घड़ी देखकर बताया, ‘‘साढ़े ग्यारह।’’

‘‘लैंप बुझा दो और भैंस अंदर बाँध आओ।’’ मम्मी ऊँघते हुए बोली, ‘‘और हाँ कही रुकना नहीं इन्ही पैरों वापस आना।’’

मैंने किताब बंद कर लैंप बुझायी और भैंस बाँधने चला गया।

गली बिलकुल सुनसान थी। भगत जी के नीम के नीचे आज महफ़िल नहीं जमी थी। क्योंकि सब लोग मंदिर पर थे। डरता-सहमता मैं किसी तरह गली पार कर गया। दगड़े पर पहुँचा, तो चौधरी के खेत में खड़े बबूल के पेड़ पर निग़ाह पड़ी। बबूल पर मुझे तमाम जिन्न-खईसों की आकृतियाँ दिखाई दे रही थीं। मैंने घबराकर दूसरी ओर गर्दन फेर ली और घेर की ओर चल पड़ा।

मैं रात को भैंस बाँधने आता। इस बबूल की ओर कभी नहीं देखता था। कुछ ऐसी कहानियाँ इस बबूल से जुड़ी थीं कि देखते ही मुझे भय लगने लगता था।

बताते हैं, रूप सिंह ने भगतई की शुरुआत इस बबूल से ही की थी। उस बबूल पर एक शक्तिशाली जिन्न था। पहले उन्होंने उसे सिद्ध किया। उसके बाद काली को सिद्ध किया। एक दिन रामसनेही बता रहे थे, उन्होंने भी उसे सिद्ध करने की कोशिश की थी, पर संभाल नहीं पाये। ‘‘क्यों नहीं संभाल पाये?’’ मैंने उत्सुकता से पूछा था। वे बताने लगे, ‘‘संभालना क्या कोई आसान काम है? इतनी आसानी से सिद्ध थोड़े ही हो जाता है जिन्न। पहले तो वह बहुत डराता है,अगर तुम डरे नहीं, तो वह तुम्हारे बस में हो जाता है। तुम जो चाहोगे, वह करेगा। अगर तुम डर गये, तो तुम्हारा नुकसान भी कर सकता है।’’ ‘‘आप डर गये थे क्या?’’ मैंने उत्सुकता से पूछा।

‘‘डर गये थे कि अच्छों की हालत ख़राब हो जाती है। शुरूमें तो कुछ नहीं पर जैसे-जैसे सिद्धी बढ़ती जाती है वैसे-वैसे डरावने चित्र सामने आते जाते हैं।’’ ‘‘आपने सिद्धी कैसे की थी?’’ मैंने उत्सुकता से पूछा, तो रामसनेही ने मुझे झिड़क सा दिया, ‘‘तुझे सिद्धी करनी है क्या?’’ फिर खुद ही बताने लगे, ‘‘जिन्न की सिद्धी करना इतनी बड़ी बात नहीं है। उसे संभालना अधिक बड़ी बात है। सिद्धी में कुछ नहीं है। टट्टी कर के आओ, तो थोड़ा सा पानी बचा लाओ। जब कोई देख नहीं रहा हो, तो बबूल पर आकर चढ़ा दो। शुरूमें डरावने चित्र दिखेंगे। उनसे बिना डरे इक्कीस दिन तक पानी चढ़ा लिया, तो जिन्न सिद्ध हो जाएगा।’’ ‘‘आपने चढ़ाया था?’’ मुझे उत्सुकता हो रही थी। ‘‘हमारा चढ़ाना, न चढ़ाना बराबर रहा।’’

‘‘क्या दिखाई दिया आपको?’’ मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी।

‘‘जब तुम कुछ दिन पानी चढ़ा चुके होगे, तो डरावनी आवाजें आएंगी। वह तुझे डराएगा, धमकाएगा।

डरावनी शक्लें दिखाई देंगी। अगर तू फिर भी नहीं डरा, तो ऊपर से जिन्न उतर के आएगा।’’ ‘‘जिन्न तो उल्टा उतर के आता है। ऊपर पैर होंगे और नीचे सिर। क्यों चचा?’’ चम्पत ने अपनी जानकारी से अवगत कराया।

रामसनेही ने और स्पष्ट किया,‘‘और नहीं तो क्या। वह तो भयंकर रूप में आएगा। बड़े-बड़े बाल होंगे। बड़े-बड़े दांत बाहर निकले होंगे। एकदम भयंकर रूप। उसका उद्देश्य ही है तुम्हें डराना। अगर तुम डरे नहीं तो फिर चोला बदल कर वह अच्छे रूप में आ जाएगा।’’ ‘‘चचा तुम्हारी सिद्धी अंत तक पहुँच गयी थी?’’ चम्पत ने पूछा।

‘‘सिद्धी खंडित हो गयी, तो हो गयी चम्पत। पूरी गंगा पार कर आये और किनारे पै आकर डूब गये, तो पार करने का क्या मतलब?’’ रामसनेही आह भर कर रह गये। ‘‘अगर जिन्न सिद्ध हो जाता, तो क्या फायदा होता?’’ मैंने पूछा तो रामसनेही एकदम उत्तेजित हो गये, ‘‘फाइदा पूछता है? यह पूछ, क्या नहीं हो सकता था जिन्न सिद्ध होने के बाद। जिन्न से जो कहो, वह करेगा। यहाँ बैठे दिल्ली के हाल जान लो। जिन्न आदमी को मालामाल कर दे। जिन्न तो जिन्न है, जो कहो, वो करेगा।’’

मैं बेहद उत्साहित हो गया। जब जिन्न सब कुछ कर सकता है, तो जिन्न को ही सिद्ध करना चाहिए। मैंने सोच लिया, जिन्न सिद्ध करना ही मेरे जीवन का लक्ष्य है। आखिर करना ही क्या है, शौच करने के बाद थोड़ा पानी बचा के लाना है। वह मुझे कितना ही डराये, पर मैं नहीं डरूँगा। मैं दृढ़ प्रतिज्ञ था, अब मैं जिन्न सिद्ध कर के ही मानूँगा।

मैंने दूसरे दिन से ही जिन्न सिद्ध करने की योजना बना ली। दूसरे दिन रात को करीब नौ बजे मैं टट्टी करने गया, तो लोटे में थोड़ा पानी बचा लाया। मैंने इधर-उधर देखा, दगड़े में कोई नहीं था। मैं बबूल की ओर बढ़ा। अभी कुछ कदम ही बढ़ पाया होऊँगा कि मैं ठिठक कर रुक गया। मैंने आगे बढ़ने की कोशिश की, मगर पैर उठे नहीं। मैं एकटक बबूल को देख रहा था। मुझे लगा वहाँ से तरह-तरह की आवाज़ें आ रही हैं। मैंने अपने आप को हिम्मत बँधाने की कोशिश की, लेकिन एक डर मेरे अंदर समाता जा रहा था। वे डरावनी आवाज़ें और अधिक स्पष्ट होती जा रही थीं।

मैं शौच के बाद लोटे में बचाया हुआ पानी लिए खड़ा-खड़ा एकटक बबूल को देख रहा था। मुझे डरावनी आवाज़ें सुनाई दे रही थीं।आवाज़ों के साथ तरह-तरह की डरावनी आकृतियाँ मुझे दिखाई दे रही थीं। डरते हुए भी मैंने अपने आप को हिम्मत बँधाने की कोशिश की कि डरना नहीं है मगर हिम्मत मेरा साथ नहीं दे पा रही थी। मुझे बबूल की चोटी पर एक भयंकर आकृति दिखाई दी। कालिख जैसी उस काली आकृति के बड़े-बड़े बाल थे। बड़े-बड़े दाँत हाथी की तरह मुँह से बाहर निकले थे। उसकी बड़ीबड़ी आँखों से बेइन्तिहाँ ख़ौफ़ बरस रहा था। वह आकृति विशालकाय होती जा रही थी। इतनी विशालकाय कि उसके पैर बबूल की चोटी पर थे और सिर तने के निचले हिस्से पर। रामसनेही ने तो कहा था आठदस दिन तक तो कुछ नहीं होता है। उसके बाद डरावने दृश्य आते हैं और अंत में सिर नीचे कर, विकराल रूप धारण कर जिन्न उतरता है, परन्तु मेरे साथ पहले ही दिन ऐसा हो गया।

मेरे हाथ से लोटा वही छूट गया। मैं दोनों मुट्ठियाँ बाँधकर भागा। मुझे पता ही नहीं चला कब दगड़ा पार कर मैं चौधरी के घेर के पास पहुँच गया। वहाँ चरण सिंह के घर में जल रहे लैंप की रौशनी आ रही थी। मैंने उस रौशनी में देखा मेरी साँसें बहुत तेज़ चल रही थीं और शरीर का रोआं-रोआं खड़ा हो गया था। चौधरी के अलाव पर बैठे लोग बातें कर रहे थे। सांस थोड़ी नियंत्रित हुई, तो मैं चुपचाप आकर अलाव पर बैठ गया। जब राम रतन अपने घर की ओर चले, तो मैं भी उनके पीछे-पीछे चल दिया। मैं लोटा उठाकर उल्टे पाँव लौट आया। उस दिन से जब भी मैं घेर में भैंस बाँधने जाता उस बबूल की ओर निग़ाह तक न डालता। कुछ समय बाद मेरा उस बबूल से भय समाप्त हो गया था, परन्तु आज जब अचानक मैंने उस ओर देखा, तो उस दिन की घटना याद कर कुछ डर-सा लगा। पर मैंने उधर से ध्यान हटाकर जल्दी से भैंस अंदर बाँधी और घेर का ताला लगा दिया।

नुक्कड़ पर आकर मैं ठिठक गया। मंदिर से थाली बजने की आवाज़ आ रही थी। एक मन हुआ अभी दौड़ कर मंदिर पर जाऊँ और वहाँ की एक झलक देख कर चला आऊँ, पर मम्मी की हिदायत याद आ गयी। मैंने अपने आप को रोकने की कोशिश की, पर मन मंदिर पर लगा था। आख़िर मैंने तय किया कि मैं दौड़कर मंदिर जाऊँगा, घड़ी लगाकर दस मिनट रुकूँगा और उल्टे पाँव लौट आऊँगा।

मंदिर पर दिन की अपेक्षा भीड़ काफी कम रह गयी थी। रामायण गाने वाले काफी ऊँघे हुए से लग रहे थे और ऐसा लग रहा था जैसे वे किसी अदालत द्वारा बोली हुई सज़ा को पूरा करने लिए गा भर रहे हैं। थाली बजाने वाले बुज़ुर्ग अब थाली पर पहले जैसे उत्साह से थाप नहीं मार रहे थे। केवल भगत जी थे जो अभी भी पूरे उत्साह में थे। लड़की चुपचाप बैठी उन्हें घूर रही थी। वे चाबुक हाथ में लिए दांत पीसपीस कर किलकारी मार रहे थे-‘‘हत्तेरे की। बोऽऽऽल, बोल क्या चाहता है।’’

रात भर भगत जी और जिन्न में झड़पें होती रहीं। कई बार लगा जिन्न भगत जी पर भारी पड़ रहा है, पर अंत में जीत भगत जी की ही हुई। सुबह थाली बजना बंद हुई। आसाराम ने रामायण के अंत में गाया जाने वाला समापन गीत गाया -

जाकौ धीरे-धीरे फोड़ौ पिछवार लाड़ो के चाचा

हरे-हरे लाड़ो के चाचा सोवें अंगना

खेंचौ ईंट निकारौ रोरा

कर देउ आरम्पार

हल्ला-गुल्ला कोई मत करियो जूता परेंगे हज़ार लाड़ो के चाचा हरे-हरे

लाड़ो के चाचा सोवें अंगना।

थाली बजना बंद हुई। रामकिशन व उनकी पत्नी ने भगत जी को माथा टेका। माँ ने बिटिया को सीने में खींच लिया। लड़की का तापमान बढ़ा हुआ था। लगा गर्म तवे से हाथ छू गया हो, लेकिन इससे क्या बुखार तो ठीक हो जाएगा। आख़िर लड़की की जान तो बच गयी।

 

हाय रे दुर्भाग्य! ग़रीब की खुशी भगवान से देखी नहीं गयी। तीसरे दिन अचानक रात को लड़की की तबीयत बिगड़ गई। वह चल बसी। भगत जी किसी गाँव में थाली बजवाने गये थे। यों जवान होती लड़की बोझ ही होती है पर रामकिशन के लिए तो यह विपदा पहाड़ टूट पड़ने जैसी थी। पत्नी बार-बार बीमार हो जाती थी। बेटा छोटा था। कच्ची उम्र में ही लड़की ने घर-बाहर का जिस तरह काम सँभाला, उससे रामकिशन का दिल बेटी के लिए वात्सल्य से भरा रहता था। बेटी की मौत ने उनका हृदय विदीर्ण कर दिया। असहनीय पीड़ा से कराहते हुए रामकिशन को बेटी की चिता तैयार करनी पड़ी। ऐसे समय में जैसा कि दुनिया का दस्तूर है, लोग तरह-तरह से सांत्वना दे रहे थे। किसी ने कहा,‘‘लाख जतन करो, होनी टलती थोड़े ही है। वही होता है जो तकदीर में लिखा होता है।’’

दूसरा बोला, ‘‘होनी की तो बात ही है। होनी नहीं होती तो लड़की कैसे चली जाती। शाम तक अच्छी भली थी और रात को तबीयत खराब हो गयी।’’

तीसरे ने कहा, ‘‘सब होनी की बात है। तबीयत तो एक बहाना है। उधर भगत जी छेदीपुरा निकले और इधर लड़की चल बसी।’’ किसी ने कहा, ‘‘लाख जतन करो जी, होनी होती है, होकर ही रहती है। उसी ने भगत जी को छेदीपुरा भेजा और खुद यहाँ आ गयी। तबीयत खराब होने का बहाना लेकर।’’ ‘‘बहाना तो है ही। होनी कोई कह कर थोड़े ही आती है। बहाना बना कर आती है। आदमी छत से गिर जाता है, कुछ नहीं बिगड़ता। होनी होती है, तो ज़रा सी ठोकर खाकर आदमी मर जाता है और बहाना

बनता है ठोकर का। तो ये सब बहाने हैं।’’ कोई और बोला। किसी ने होनी को और स्पष्ट किया, ‘‘होनी मौत की जिम्मेदारी अपने ऊपर थोड़े ही लेती है। वह तो बहाने बना देती है।

करम गति टारे नाइ टरी

सीता हरन पिता का मरना वन में विपति पड़ी

करम गति टारे नाइ टरी।

पिताजी तड़प-तड़प के मरे। सीता चोरी हुईं। वन में मारे- मारे फिरे। बहाना बनी केकई। सब बहाने थे।

जो होनी थी, सो होकर रही। सो भइया होनी भगवान भी नहीं टाल पाये।’’

भाग-दो

मैं हाई स्कूल कर चुका था और इंटरमीडिएट फर्स्ट ईयर में मैंने कासगंज एडमिशन ले लिया था। कासगंज एक क़स्बा है जो मेरे गाँव से सोलह-सत्रह किलोमीटर दूर है। मैं घर से निकलने को हुआ कि मम्मी ने टोक दिया,‘‘जगती ताई के यहाँ यह खाना दे आ।’’

मैंने रोटी की थाली और कटोरे की सब्ज़ी उठा ली। ताई का स्वास्थ्य ठीक नहीं है। वे सुबह रोटी बनाने के लिए आटा दे गयी थीं। मम्मी ने आटे की रोटियाँ सेंक दी थीं। उन्होंने घर के लिए दाल बनाई थी। रोटियों के साथ एक कटोरा दाल दे दी।

मैं खाना लेकर जगती ताई के घर पहुँचा, ‘‘ताई खाना है।’’ ‘‘बेटा चौका में रख दे।’’ वे चारपाई पर लेटे-लेटे बोलीं।

मैं खाना चौका में रख कर उनके पास आया। बीमारी से उनका शरीर बहुत कमज़ोर हो गया था। मुझे देखकर उनके चेहरे पर संतोष का भाव आ गया था। उन्होंने मुझे बैठने के लिए कहा, तो मैं पास खड़ी चारपाई को बिछा कर उस पर बैठ गया। ‘‘आज स्कूल नहीं गया?’’ उन्होंने पूछा। ‘‘आज ईद की छुट्टी थी।’’ मैंने बताया।

मैंने उनके चेहरे को गौर से देखा। शरीर बिलकुल सूख गया था और चेहरे से एकदम बूढ़ी लगने लगी थीं। मैं लम्बे समय से उन्हें ऐसे ही बीमार देखता आ रहा था। ‘‘आप कब से बीमार हैं, इलाज क्यों नहीं करा लेतीं?’’ मैंने उनसे सहानुभूति जताई। ‘‘इलाज करा तो रहे हैं। बलराम से दवा ली है। भगत जी को भी दिखाया है। कितना पैसा फूँक दिया।’’

वे दुखी हो गयीं। ‘‘अगर बलराम के इलाज से फायदा नहीं हो रहा है, तो शहर जा के दिखा लो।’’

‘‘दो-चार दिन में पैसे का इंतज़ाम कर लें। तू मुझे मारेहरा बैठा ले चलना।’’ उन्होंने उम्मीद के साथ मुझे देखा। ‘‘मैं तो अब कासगंज पढ़ने जाता हूँ।’’ मैंने उन्हें जानकारी दी।

‘‘क्यों यहाँ पढ़ाई नहीं है क्या? बड़ी-बड़ी क्लास वाले और भी तो जाते हैं।’’ ‘‘मैंने जो विषय लिया है, वह यहाँ नहीं है ,साइंस बायोलॉजी।’’

‘‘तो शाम को चलना।’’

‘‘ठीक है। आप बता देना, मैं चलूँगा।’’

मारेहरा भी कोई प्रशिक्षित डॉक्टर नहीं था। कासगंज में एमबीबीएस डॉक्टर थे और कुछ लोग वहाँ से तब दवा लाते थे, जब यहाँ बीमारी ठीक नहीं होती थी। दिखाने की फीस पचास रुपये एक मज़दूर चार दिन में कमा पाता था।

अर्ध-वार्षिक परीक्षाओं में मुझे काफी परेशानी हुई थी। समय पर स्कूल पहुँचना, रोज़ पैंतीस किलोमीटर साइकिल चलाना, फिर आकर अगले पेपर की तैयारी करना। सब कुछ काफी मुश्किल था। मुझे बारबार इस गलती का एहसास हो रहा था कि एक महीने के लिए मुझे कासगंज में ही किराये पर कमरा ले लेना चाहिए था। खैर, अब मैंने तय कर लिया था कि वार्षिक परीक्षा में डेढ़-दो महीने पहले कमरा ले लूँगा। मँहगा हुआ, तो किसी के साथ मिलकर ले लूँगा।

आजकल पशु चोरी के कई मामले प्रकाश में आ रहे थे। भैंसों की सुरक्षा ज़रूरी थी। अगर चोर भैंस खोल ले गया, तो छह-सात हज़ार का आर्थिक नुकसान परिवार को तोड़ सकता था। अगर मैं कमरा लेकर पढ़ाई करता और मम्मी किसी दिन भैंस को अंदर बाँधना भूल जातीं, तो कोई भैंस खोलकर भी ले जा सकता था। अब मेरे सोचने के लिए यह ज़रूरी मुद्दा हो गया था। काफी सोचने के बाद मैंने विचार किया कि घेर में आगे की दीवार उठा कर एक गेट चढ़वा दिया जाये।

मैंने माँ से बात किया। बात ठीक थी। वे भी मान रही थीं कि जानवरों की सुरक्षा की दृष्टि से मेरी बात उचित थी, परन्तु उनके सामने कई तरह के संशय थे। पहला, तो यही कि इस काम को कराने के लिए अभी पैसे नहीं थे। दूसरा, यह कि मकान बनवाने का बहुत काम होता है फिर एक दीवार उठाने का काम ही क्यों न हो। ये सब मैं अकेले करवा पाऊँगा, माँ को इसमें संशय था। राज मिस्त्री का काम ईंटे, बालू, सीमेंट, चौखट-दरवाजा... तू कैसे सबका इंतज़ाम कर पाएगा। मैंने माँ को समझाया। दो महीने में पैसे का इंतज़ाम करते हैं। धीरे-धीरे सामान इकट्ठा कर लेंगे। फिर काम इतना मुश्किल नहीं रह जाएगा।

अगले साल अगर मैंने इंटरमीडिएट पास कर लिया, तो पता नहीं मुझे कहाँ पढ़ने जाना पड़े। मुझे हर तरह से यह ज़रूरी लगा कि घेर की आगे की दीवार उठवा कर गेट चढ़वा देना है। मैं रोज़ दीवार की लम्बाई नापता, हिसाब लगाता कि उसके लिए कितनी ईंटों की ज़रूरत पड़ेगी। मैंने राज मिस्त्री से सीमेंट, बालू, लोहा आदि का हिसाब पूछ कर काग़ज़ पर लिख लिया था।

मैंने माँ को समझाया, ‘दीवार उठवा कर गेट चढ़वाना क्यों ज़रूरी है।’

मम्मी ने पहले विरोध किया, ‘‘इतना काम होगा, तू कैसे संभाल पाएगा? मकान बनवाने का काम बहुत होता है, फिर एक दीवार ही क्यों न उठवानी हो।’’ ‘‘काम होता है, पर मैं ज़रूर कर लूँगा।’’ यह काम पूरा करने की जैसे मेरे ऊपर धुन सवार हो गयी थी। मम्मी ने भी बाद में ‘ठीक है, तुझे जो करना है कर’ वाले अंदाज़ में कुछ भी कहना छोड़ दिया था।

एक दिन ईट भट्ठे पर जाकर मैं दो ट्रॉली ईटें भरवा लाया था। एक दिन गाँव का ट्रेक्टर आ रहा था उसमें दरवाज़ा लदवा लाया था। इसी तरह धीरे-धीरे मैंने सारा सामान इकट्ठा कर लिया। अगले महीने तीन दिन की लगातार छुट्टी पड़ रही थी। मैंने तय कर लिया, उन्हीं छुट्टियों में यह काम कर लेना है। अगर ज़रूरत हुई तो दो-तीन दिन की छुट्टी और कर लेंगे। एक राज मिस्त्री से बात की, तो उसने कहा कि वह अगले डेढ़ महीने तक व्यस्त है। आजकल राज मिस्त्रियों का एकदम मिलना मुश्किल होता है। कोशिश कर के मैंने एक मिस्त्री तय कर दिया।

दो दिन बाद काम शुरूहोना था। मम्मी ने एक मज़दूर कर लेने के लिए बोला पर मैंने सोच लिया ज़रूरत पड़ी तो बाद में देखा जाएगा। इसके लिए मैंने पूरी योजना बना ली थी। चार दिन पहले मैंने नींव खोदनी शुरूकी। एक दिन पहले गारा तैयार कर लिया। सुबह मिस्त्री के आने से पहले ही मैंने ईटें नींव के सहारे-सहारे पटक दी थीं, ताकि चिनाई करते समय मिस्त्री को उठा कर देने में मुझे कोई परेशानी न हो। काम शुरू हुआ। मिस्त्री जब तक डोरे-धागे बाँधता, मैं तसले में भर कर गारा पलट देता और उसके बाद ईंटें उठा-उठा कर देता जाता।

शाम पाँच बजे मिस्त्री ने काम बंद कर दिया। मैं थक कर चूर हो गया था। मैं पाँच-छह दिन से काम में जुटा था, पर आज के काम में अंतर था। एक व्यक्ति जिसे काम करने के पैसे दिये जा रहे हों, उसे खाली बैठाये रखना आंसता था। इसलिए मेरे लिए लगातार काम में लगे रहना ज़रूरी था।

मैं थका-हारा घर पहुँचा, तो पता चला दादी के घुटने में दर्द हो रहा है। मम्मी बोलीं, ‘‘शायद इस पूर्णमासी को बतासे नहीं बाँटे हैं। मैं अभी सवा रुपया उतार के रखे दे रही हूँ। तू जाकर भगत जी से भभूति पढ़वा ला।’’ जब साइकिल में बहुत-सी कमियाँ आ जाती थीं, तब मिस्त्री कहता था, अब इसकी ओवरहालिंग करा लीजिए। वह साइकिल का एक-एक पुर्जा खोल देता फिर टूटे-फूटे खराब सामान को बदलते हुए साफ़-सफ़ाई कर के दोबारा साइकिल कसता। मेरी हालत भी ओवरहालिंग के लिए खोली गयी साइकिल जैसी हो रही थी।

शारीरिक थकान इतनी थी कि मैं कहीं भी जाने की स्थिति में नहीं था। मैं बात टाल गया और चारपाई पर ढह गया। मम्मी ने दोबारा टोका, तो मैं झल्ला पड़ा-‘‘पता नहीं, इनके घुटनों में रोज़ देवता दर्द करते रहते हैं। उल्लू के पट्ठों को और कहीं जगह नहीं मिलती।’’

मेरा झल्लाना था कि दादी एकदम उत्तेजित हो उठीं और खेलने लगीं। मैं गुस्से से उन्हें देख रहा था। मम्मी मुझे डाँटते हुए बोलीं-‘‘यहाँ बैठा क्या कर रहा है, चला जा भगत जी के पास।’’

यों मैं बहुत थका हुआ था और सब कुछ मेरे मुँह से गुस्से में निकल गया था, पर यह मेरे मन की आवाज़ थी। मुझे मम्मी के इस रवैये से चिढ़ हो गयी थी और देवताओं से नफ़रत। आख़िर यह कोई तरीका था कि बतासों के लिए, लोटा चढ़वाने के लिए, जात करवाने के लिए, पूजा के लिए दादी को परेशान

करें। भैंस को दूध न देने दें या घर में किसी को बीमार कर दें।

मम्मी कुछ बुदबुदाते हुए शायद मेरी उद्दंडता के लिए माफ़ी माँग रही थीं। मुझे उनका देवताओं के सामने गिड़गिड़ाना बहुत खराब लगता था। मैं नफ़रत से मन ही मन कह रहा था-अगर तुझमें ताकत हो और मेरा कुछ बिगाड़ सकता है, तो बिगाड़ ले, मैं ऐसे ही कहूँगा।

सुबह जल्दी उठना था, इसलिए खाना खाकर साढ़े नौ बजे मैं सो गया। सुबह पाँच बजे से पहले ही मेरी आँख खुल गयी। गारे के लिए मैंने रात को ही मिट्टी भिगो दी थी। फटाफट गारा तैयार किया। जो ज़रूरी काम लगे, वे मैंने मिस्त्री के आने से पहले ख़त्म कर लिये। मिस्त्री के आते ही मैंने काम जुड़वा दिया।

मम्मी दस बजे कलेऊ दे गयी थीं। एक बजे वे दोपहर का भोजन लेकर आ गयीं। माँ ने मिस्त्री के हाथ धुलाए और खाना परोसने लगीं। घेर के एक कोने पर नीम का एक छोटा-सा पौधा था। छोटे भाई ने उस पर झूला डाल लिया था। वह कहीं गली में खेलने चला गया था और इस वक़्त झूला खाली पड़ा था।

मुझे पता नहीं, क्या सूझा कि खाने के लिए बैठने के बजाय मैं झूले पर जा बैठा। जब मैंने आँखें खोलीं, तो सबसे पहले मम्मी पर नज़र पड़ी। मम्मी के चेहरे पर एक व्याकुलता थी। मैंने अपने चारों ओर देखा, तो मुझे एहसास हुआ मैं चारपाई पर लेटा हूँ। एक क्षण के लिए मैंने सोचा, मैं यहाँ क्यों लेटा हूँ? और मम्मी इतनी परेशान क्यों हैं? मैंने पूछा, ‘‘मम्मी क्या बात है?’’

वे एकदम अधीर हो उठीं, ‘‘मना करो तो मानेंगे थोड़े ही। कम्बख्तों ने लोहू पीकर रख दिया है हमारा।’’ वे रोने लगीं। माथे पर हाथ फिराती हुई बोलीं, ‘‘कहीं चोट तो नहीं लगी?’’

मैं अभी भी कुछ समझ नहीं पा रहा था। मैंने उठने की कोशिश की, तो मैंने महसूस किया मेरे दायें कंधे में तेज़ दर्द हो रहा है। मैं उठ कर बैठ गया। देखा नीम के पेड़ के नीचे झूला टूटा पड़ा है। कुछ-कुछ मेरी समझ में आया। मम्मी जब खाना परोस रही थीं, तब मैं उस झूले पर जा बैठा था। मैंने मम्मी से फिर पूछा, ‘‘क्या हुआ था मम्मी?’’ ‘‘हुआ क्या था। अभी ज़मीन पर पड़े पैर रगड़ रहे थे। आँखें चढ़ी हुई थीं। और क्या हुआ।’’ मम्मी एकदम उत्तेजित हो गयीं, ‘‘शेखी बघारने से बाज थोड़े ही आओगे। रात बिना कुछ बोले भगत जी को लिवा लाता तो क्यों होता यह सब?’’

ओह! जब मम्मी खाना परोस रही थीं, तब मैं उस झूले पर बैठ गया था। मैंने झोटा लिया होगा और झूला टूट गया होगा। थोड़ी देर के लिए मैं अचेत हो गया होऊँगा। मैं झूले की रस्सी उठाते हुए बोला, ‘‘खुले में पड़ी रही है। बारिस में भीग कर सड़ गयी है। जान नहीं है रस्सी में।’’ ‘‘नहीं चुप होगा तू? बोलता ही जा रहा है।’’ मम्मी ने मुझे डाँटते हुए, पकड़ कर फिर चारपाई पर बिठा दिया। उन्होंने फिर पूछा,‘‘बता कहाँ चोट लगी है?’’ ‘‘कहीं नहीं, थोड़ी-सी पीठ पर रगड़ लग गयी है।’’ मैंने मम्मी की व्याकुलता को थोड़ा कम करने की कोशिश की। वे मेरी पीठ पर हाथ फिराने लगीं।

मैं खाना खा रहा था। दीवार से एक बिल्ली नीचे उतरी। उसे देख कर भैंस ने ज़ोर से सिर झटका। सांकड़ की तेज़ आवाज़ से चौंककर, झटके से मेरा सिर उधर मुड़ गया। अचानक पीठ पर जोर पड़ा, तो दर्द भरी सीत्कार मेरे मुँह से निकल गयी। मम्मी के हाथ काँप गये और पानी का लोटा उनके हाथों से गिर गया। लोटे को वही छोड़कर वे मेरे पास आयीं और अधीरता से मेरी पीठ पर हाथ फिराने लगीं। फिर राज मिस्त्री से बोलीं,‘‘आज का काम यही रोक दीजिए। अभी तो कोई आदमी मिलेगा नहीं, कल कोई आदमी कर के काम शुरूकर देंगे।’’ ‘‘अरे नहीं। मम्मी मुझे कुछ नहीं हुआ है। काम रोकने का क्या फायदा। देखो मैं काम कर सकता हूँ।’’

मैं उठकर खड़ा हो गया। ‘‘चोट तो लगी ही है। अभी पता नहीं चलेगा, बाद में पता चलेगा। काम का क्या है, कल हो जाएगा। आराम कर, कुछ दवा-गोली खा ले।’’ मिस्त्री ने भी माँ की बात का समर्थन किया। मुझे चोट तो लगी थी, पर काम रोकना मुझे उचित नहीं लगा। खेती बाड़ी के काम में अगर आदमी ऐसी चोटों की परवा

करने लगे, तो वह कुछ न कर पाये। मैंने उनकी बात काटी, ‘‘नहीं चचा, ऐसी कोई बात नहीं है। थोड़ीसी चोट है, पर मैं काम कर सकता हूँ।’’

काम शुरूहुआ। मैंने गारे से भरा तसला उठाया, तो पीठ में फिर टीस हुई पर जबड़ों को भींच कर मैंने अपने आप को हिम्मत दी। मम्मी दर्द की एक गोली मुझे दे गयीं। मिस्त्री ऐसी ही एक दुर्घटना की कहानी सुनाने लगे। थोड़ी देर में मैं अपना दर्द भूल सा गया।

शाम को काम ख़त्म कर मैंने ट्यूवेल पर जाकर दो गोते लगाये। कमर से तौलिया लपेटा और भीगे अंडरवीयर-बनियान लेकर मैं घर पहुँचा। कपड़े पहन कर मैं जैसे पेड़ से टपके फल की भाँति चारपाई पर गिर गया।

मम्मी आटा गूँथ चुकी थीं। उन्होंने चमचे से दाल देखी। उसके पकने में अभी थोड़ा समय था। मैं चारपाई पर लेटा कुछ गुनगुना रहा था। माँ मेरे आस आकर बोलीं, ‘‘दिखाना कहाँ लगी है?’’

मैंने गर्दन घुमाकर देखा, उनके हाथ में कटोरी थी। उन्होंने कटोरी मेरे सिराहने रख दी। मैं चुपचाप आराम करने के मूड में था। मुझे अंदाज़ हुआ कि मम्मी कटोरी में हल्दी और तेल लेकर आयी हैं। मैंने प्रतिवाद किया, ‘‘मम्मी कहीं नहीं लगी है, जाओ आप खाना बनाओ।’’ ‘‘चल उधर पलट।’’ मम्मी ने मेरी बात को सुना ही नहीं। वे बाजू पकड़ कर मुझे पलटने लगीं।

2.

मैं स्कूल से लौटा। डॉ. बलराम के क्लिनिक के आगे भीड़ जुटी थी। मैंने साइकिल एक तरफ़ खड़ी की और भीड़ में जगह बनाकर अंदर घुस गया। डॉ. बलराम जगती ताई को बोतल लगा रहे थे और देखने वाले पलंग घेरे खड़े थे। ‘‘आदमी के पास पैसा न हो, सब्ज़ी न हो, तो नमक से खा लेगा पर बीमारी पर किसी का बस नहीं

चलता। ऊपर वाला बीमारी किसी को न दे।’’ घेर वाली ताई संवेदना प्रकट कर रही थीं।

‘‘किस्मत की हेठी है बेचारी। बच्चा भी चला गया हाथ से और बेचारी खटिया भी गोड़ रही है। डेढ़ दो साल तो हो ही गयी होंगी बीमार पड़े।’’ बड़ी काकी बोलीं।

सच में जगती ताई किस्मत की ही हेठी थीं। बेचारी दो साल से बीमार थीं। दो वर्ष पहले लड़का पैदा हुआ था जगती ताई का। लड़का भी सोहर में ही चल बसा और जगती ताई ने खटिया पकड़ी, तो खटिया की ही होकर रह गयीं।

यों जगती ताई उम्र में मम्मी से छोटी रही होंगी पर गाँव रिश्ते से मम्मी उन्हें जिज्जी कहती थीं। सुजान पापा से उम्र में चार-छह महीने बड़े होंगे, पर बड़ा तो एक दिन का भी बड़ा माना जाएगा। पैंतीस की उम्र में सुजान की शादी तब हुई थी, जब गाँव वाले सोचने लगे थे, अब उनकी शादी नहीं होगी। गाँव में कहावत है, गरीब से गरीब की बेटी भी कुँवारी नहीं रहती। जगती ताई के पिता भी गरीब थे और उनकी भी शादी हुई। पति उन्हें तेरह साल बड़े मिले।

शादी के तीन साल तक जगती ताई की कोख नहीं चली, तो घर वालों को चिंता हुई। तज़ुर्बाकारों ने सिद्ध फ़क़ीरों से गंडे ताबीज़ बनवाने की सलाह दी। सुजान ने बनवाये भी। ताबीज़ का असर हो या स्वप्रक्रिया स्वरूप जगती ताई की चौथे साल में कोख खुल गयी। उन्हें कन्या रत्न की प्राप्ति हुई। घर में सुजान व उनकी माँ थीं। जो ख़ुशी पुत्र रत्न की प्राप्ति पर होती है, वह तो नहीं हुई, पर घर के तीनों सदस्यों में से किसी को ख़ास दुःख भी नहीं हुआ। आज कन्या की प्राप्ति हुई है, कभी पुत्र की भी होगी। आख़िर कोख तो चली।

लड़की एक वर्ष की हो गयी। उन दिनों गाँव में माता का प्रकोप था। कई बच्चे माता की चपेट में आ गये थे। सुबह-शाम भगत जी को फुरसत नहीं थी। किसी-किसी के घर वे झाड़ा लगा आते। तमाम लोग सुबह-शाम मंदिर या बैठक पर अपने बच्चों को झाड़ा लगवाने के लिए लाते। सुजान की बेटी भी बुखार में तपती रहती। पूरा शरीर दानों से भर गया, पर उन्होंने समाधान में अपनी तरफ़ से कोई कोताही नहीं बरती। सुबह-शाम फ़िक्र से झाड़ा लगवाते। बिना नागा दोनों वक़्त नहाकर, सिंदूर, बतासा, घी डालकर माता पर लोटा ढालने जाते। आदमी अपनी क्षमता भर कोशिश करता है, पर देवी-देवताओं के प्रकोप से कौन बच पाता है। इस साल दो बच्चों के साथ सुजान की बेटी को उठा ले जाने के बाद ही माता का प्रकोप शांत हुआ।

कोई दो-चार बच्चे तो थे नहीं सुजान के। अकेली बेटी थी, वह भी चल बसी। फिर बेटी हो या बेटा, माँ-बाप के दिल में हूक तो सबके लिए उठती है। जगती ताई को ज़्यादा दुःख इसलिए भी था कि तमाम मन्नत मुसीबतों के बाद बेटी को इस दुनिया में लाने के लिए उन्हें चार साल लगे थे। पूरा महीना ग़मगीन हालत में गुज़र गया, तो सास ने समझाया, ‘‘हँसती-खेलती चली गयी, दुःख तो सब को है, पर हिम्मत तो बाँधनी ही पड़ेगी। चार महीने से ज़्यादा चढ़ गये हैं। ऐसे तो बच्चे पर भी बुरा असर पड़ेगा। संभाल अपने आप को। ईश्वर इस बार सब कुछ भला करे। उसने चाहा तो लड़का ही होगा।’’

इस बार भी जगती ताई ने लड़की को ही जन्म दिया। वह भी छह महीने इहलोक में गुज़ार कर चल बसी। सुजान के साथ एक और हादसा हुआ। उनकी माँ बीमार पड़ गयीं। सुजान ने पहले बलराम से और बाद में क़स्बे जाकर इलाज कराया। बुढ़ापे का शरीर, ऊपर से बीमारी की मार। डेढ़ महीने से ज़्यादा नहीं खिंच सकीं। थोड़ा-थोड़ा कर के भी इलाज में डेढ़ हज़ार से ज़्यादा ही ख़र्च हो गये। डेढ़ हज़ार का ग़म नहीं होता, अगर माँ बच जातीं। यह तो दोहरी मार हो गयी सुजान पर। इलाज में डेढ़ हज़ार से ज़्यादा ख़र्च हो गये, माँ भी नहीं बच सकीं और अब किरिया-कारज की चिंता। कदुआ-पूड़ी करो, तब भी दो-ढाई हज़ार ख़र्च हो ही जाएंगे। समाज है। जब वे लोगों के यहाँ खाने जाते हैं, तो उन्हें भी लोगों को खिलाना ही पड़ेगा।

इस हादसे ने सुजान के पारिवारिक ताने-बाने को ही तहस-नहस कर दिया। इतनी रकम उनके घर पर तो रखी नहीं थी। जिससे, जैसे भी और जितने पर भी उन्हें मिले, उन्होंने पैसे उठाये। पाँच पर्सेंट की ब्याज। यानी एक साल में पाँच हज़ार के आठ हज़ार। टाँके टूटते हैं। डेढ़ बीघा खेत था सुजान के पास और वह भी बिक गया। अब वे पूरी तरह मज़दूरी पर आश्रित हो गये।

दो बेटियों के गुज़र जाने के बाद जगती ताई ने लड़के को जन्म दिया। अभी वे सोहर में ही थीं कि लड़का बीमार हो गया। बच्चे के हाथ-पैर ऐंठने लगे। सुजान भगत जी को बुलाकर लाये। भगत जी ने ध्यान लगा कर बताया, ‘‘मसान है। प्रेम की लड़की और हरदेव का लड़का भी मसान ने ही उठाया है।’’ जगती ताई की हिचकियाँ बँध गयीं। भगत जी ने आश्वस्त किया, ‘‘तू फिकर न कर बहू। मैं प्रबंध करूँगा, सब ठीक हो जाएगा।’’

खूब प्रबंध किया भगत जी ने पर वही हुआ जिसका डर था। बच्चे के जबड़े भिंच गये, हाथ-पैर ऐंठ गये और शरीर ऐंठ कर धनुषाकार हो गया। दो साल हो गये। लड़के के गुजरने के बाद जगती ताई ने ऐसी खटिया पकड़ी कि फिर वे उठ न सकीं।

गाँव में तीन बच्चों में मृत्यु इसी तरह हुई थी। पूरे गाँव में चर्चा थी-गंदगी पसंद होता है, इसलिए सोहर में ही घुस आता है। बच्चे की गर्दन ऐंठ देता है, जबड़ा भींच देता है। जगती ताई ने पहले ही सतर्कता बरती थी और सब इंतज़ाम कर के रखा था। चाकू, माचिस व उल्लू का पंजा हर समय सिराहने रखा रहता था। पर सब व्यर्थ गया। छठवें दिन दूसरे बच्चों की तरह उनके बच्चे का भी जबड़ा भिंच गया और शरीर ऐंठ कर धनुषाकार हो गया।

मैंने मसान के बारे में कभी नहीं सुना था, पर इस समय उसकी जोरों से चर्चा थी। पता चला जो बच्चे बोलना शुरूकरने से पहले ही काल कलवित हो जाते हैं, वे मसान बनते हैं। उन्हें जगाना मुश्किल होता है। क्योंकि एक तो वे बोलते नहीं हैं और दूसरे वे हमेशा बच्चों पर ही आक्रमण करते हैं।

कुछ दिन बाद गाँव में यह चर्चा उड़ी कि बच्चों की मौत एक बीमारी से हो रही है और यह बीमारी हँसिया, खुरपी या चाकू से बच्चों का नाल काटने से फैलती है। भगत जी ने हल्का प्रतिवाद किया-बीमारी होती होगी, पर यह तो साफ़ दिखाई दे रहा है कि मसान बच्चों का जबड़ा भींच कर गर्दन ऐंठ दे रहा है।

पता नहीं, लोगों ने बच्चों की मृत्यु का कारण बीमारी माना या मसान, पर धीरे-धीरे इस बात पर लोगों ने यक़ीन कर लिया कि हंसिया-खुरपी से बच्चे का नाल काटने से टेटनस नाम की बीमारी हो जाती है।

अब औरतें बच्चे का नाल काटने के लिए नया ब्लेड इस्तेमाल करने लगीं। जैसे ही महीने पूरे होने को आते, घर की बड़ी-बूढ़ी नया ब्लेड दुकान से मँगा कर रख लेतीं। क्या पता कब ज़रूरत पड़ जाए, रातबिरात हर समय तो दुकान खुली नहीं रहती।

एक घटना मुझे याद आती है। उस समय मैं बहुत छोटा था। दादी चारपाई पर लेटी थीं और मैं कोई कहानी सुनने की ज़िद कर रहा था। तभी भागती हुई पुनिया आई और बोली, ‘‘ताई तुम्हें अम्मा बुला रही हैं।’’ ‘‘क्यों?’’ दादी उठकर बैठ गयीं।

‘‘मुझे नहीं मालूम। कहा है जल्दी लिवाकर लाना।’’

दादी उठकर पुनिया के साथ चल दीं। मना करने के बावजूद मैं भी दादी के पीछे लग गया। ओसारे से किसी महिला के चिल्लाने की आवाज़ आ रही थी। कई औरतें उसे घेरे हुए थीं। दादी उन्ही औरतों में जा कर मिल गयीं। मैं बड़ी उत्सुकता से वहाँ का माजरा जानने के लिए आगे बढ़ा, तो रज्जो चाची ने डपट दिया,‘‘जे लरिका कहाँ दौड़े चले आ रहे हैं। रात में भी चैन ना है। लड्डू बँट रहे हैं यहाँ? उधर ओसारे में नहीं खेला जाता।’’

मैं खिसियाना सा ओसारे में पुनिया के पास चला गया। वह मुझसे बातें करने लगी, पर मेरा ध्यान तो सामने वाले ओसारे में लगा था, जहाँ सारी औरतें खिचड़ी पकाये हुए थीं।

अचानक वहाँ भगदड़ मच गयी। बड़ी काकी चिल्ला रही थीं, ‘‘हंसिया, खुरपी, चाकू कुछ तो पड़ा होगा?’’

पुनिया की अम्मा पूरे मकान में घूमती फिर रही थीं। उन्हें कहीं कुछ नहीं मिला। हारकर पड़ोसी की

कुंडी खटखटाई। पड़ोसिन बोलीं, ‘‘खुरपी तो सब बैठक पर रखी होंगी। हंसिया अभी देखती हूँ।’’ उसने घर में इधर-उधर देखा, पर कहीं नहीं मिला।

पुनिया की दादी बुदबुदाती हुई लौटीं, ‘‘तमाम हंसिया-खुरपा पड़े रहते हैं इधर-उधर, पर वक़्त पर एक भी नहीं मिल रहा... आग लगा।’’

बड़ी काकी एकदम उखड़ गयीं, ‘‘तुम्हें तो कुछ होस ही नहीं है। चार खुद जन चुकीं। बूढ़ी हो गयीं, फिर भी अक्किल नहीं आयी। सिकार के बखत पर कुतिया को हगास।’’

पुनिया की अम्मा शर्मिंदा होकर एकदम संकुचित हो गयीं। कासगंज वाली ने उनका पक्ष लिया,‘‘इन सब बातों से कोई फायदा? उन्हें होस नहीं था, तो इतनी जनी बैठी हैं, किसी ने याद दिला दी होती कि कुछ चाकू-छुरी ढूँढ़ लो तो उन्होंने ढूँढ़ नहीं लिया होता?’’

बड़ी काकी और उत्तेजित हो गयीं, ‘‘किसी ने याद नहीं दिलाया, तो अब बताओ क्या करें? करना-धरना कुछ नहीं, बातें बनाने को सब हैं।’’ ‘‘कोई कुछ नहीं कर रहा है। तुम ही अकेली पहाड़ खोद रही हो, और तो सब बातें बना रहे हैं।’’ कासगंज वाली भी जवाब देने से चूकी नहीं।

मुझे अच्छी तरह मालूम था कि मेरा छोटा-सा चाकू जिससे मैं खरबूजा काटा करता था, मेरे थैले में रखा था। अगर चाहता, तो दौड़ के ले आता। मेरा घर था ही कितनी दूर। पर मैं गया नहीं। मत बताओ मुझे कुछ। मत देखने दो मुझे। मैं भी नहीं जाऊँगा अपना चाकू लेने। लड़ो ऐसे ही। ‘‘छोड़ो इन सब बातों का कोई फ़ायदा नहीं। ये सोचो कि अब क्या करना है।’’ बैठक वाली ताई अपने शांत लहज़े में बोलीं।

थोड़ी देर तक कोई कुछ नहीं बोला, तो बड़ी काकी ने ही अपने तीखे लहज़े में समाधान सुझाया,‘‘अब यह ऐसे ही तो पड़ा नहीं रहेगा। देख क्या रही है। घर में कोई चिकना पत्थर-वत्थर पड़ा हो, तो उसी को उठा ला।’’

पुनिया की अम्मा कहीं से दो पत्थर ढूँढ़ लायीं। बड़ी काकी ने अपने आँचल से उन्हें पोंछा। एक महिला ने नाल को दो जगह से दबा लिया। बड़ी काकी ने बीच वाले हिस्से को एक पत्थर पर रखा और दूसरे से तीन-चार बार कूटा तो नालबद्ध बच्चा माँ से अलग हो गया।

 

डॉ. बलराम जगती ताई पर बोतल चढ़ा रहे थे। लोग उनकी चारपाई घेरे खड़े थे। सुजान दुखी मन एक ओर खड़े थे। किसी बुजुर्ग ने पूछा, ‘‘सुजान किसी अच्छे डॉक्टर को क्यों नहीं दिखाता बहू को?’’ ‘‘क्या बताएँ चाचा कुछ समझ में नहीं आता। दो साल से तंग आ गया हूँ। लड़का पैदा हुआ। कोई कहता है मसान ने पकड़ लिया, कोई कहता है टिटनस बन गया। रोज एक नयी बीमारी सुनने को मिलती है। कुछ समझ में ही नहीं आता।’’ एक क्षण के लिए वे चुपचाप जगती ताई का मलिन चेहरा देखते रहे। ‘‘बच्चा नहीं रहा, कोई बात नहीं, पर यह तो ठीक रहती। दो साल से किसे-किसे नहीं दिखाया। भगत जी ने कहा, ऊपर का चक्कर है, उन्होंने जो कहा, वही किया। तुम और ने कहा, डाक्टर को दिखाओ, तो डाक्टर को भी दिखाया। बलराम से नहीं संभला, तो दो-तीन बार कस्बा भी ले गये। हजारों रुपया फूँक दिया, पर तसल्ली कहीं नहीं मिली। अब यहाँ से आगे दिल्ली-बंबई ले जाने की तो हमारी औकात है नहीं।’’ सुजान बेबस हो उठे।

डॉ. बलराम जगती ताई की जाँच कर रहे थे। उन्होंने बीपी यंत्र का कफ बाँह में लपेटा और बल्ब से हवा भरने लगे। ‘‘ब्लड प्रेशर कितना है?’’ एक नौजवान जो यह जानता था कि ब्लड प्रेशर बढ़ने की कोई बीमारी होती है और इस यंत्र से उसे नापा जाता है, ने पूछा।

डॉ. बलराम स्टेथस्कोप कान में लगाये थे, पर उनके लिए इसका कोई अर्थ नहीं था। वे बल्ब से हवा भरते जा रहे थे और जब तक जगती ताई दर्द से कराह न उठीं, उन्होंने हवा भरना जारी रखा। उन्होंने मीटर की रीडिंग तीन सौ पर नोट की, फिर कुछ सोचते हुए बल्ब से हवा निकालना शुरूकिया तथा ढाई सौ पर रीडिंग फिक्स करते हुए बोले, ‘‘बहुत है। ढाई सौ है।’’ फिर सुजान से मुख़ातिब हुए, ‘‘ब्लड प्रेशर काफी बढ़ा हुआ है। पर घबराने की ज़रूरत नहीं है। यह बोतल चढ़ते ही ठीक हो जाएंगीं।’’

आसपास के पाँच-छह गाँवों में कोई डॉक्टर नहीं था, इसलिए बलराम की प्रैक्टिस अच्छी चलती थी। क़स्बे के एकमात्र बीएएमएस डिग्री धारक डॉ. अजय के यहाँ उन्होंने एक साल कम्पाउंडरी की थी। उसके बाद गाँव आकर अपना क्लिनिक खोल दिया। उनका क्लिनिक चल निकला।

3.

गाँव से थोड़ी दूरी पर रेलवे लाइन थी। रेलवे पटरी के दोनों ओर की लाइनें अलग-अलग बिजली घरों से जुड़ी थीं, इसलिए दोनों ओर बिजली आने का समय सामान नहीं था। मेरा एक खेत जो रेलवे क्रासिंग के पास था, रेलवे लाइन के उस पार था। उन दिनों यह व्यवस्था थी, बिजली एक सप्ताह दिन में आती थी, एक सप्ताह रात में।

उन दिनों क्रासिंग वाले खेत में गेहूँ थे। गेहूँ की बालियों में दाने पड़ने लगे थे। उस समय खेत में पानी लगना था। रात का रुटीन चल रहा था। रात में एक सुविधा रहती थी कि बिजली बिना ट्रिप लिये चलती थी। दिन की अपेक्षा रात में वोल्टेज भी अच्छे आते थे। जिससे ट्यूवेल दिन की अपेक्षा सवाया पानी फेंकता था। इसलिए हमने गेहूँओं में पानी लगाने का रात का ही मन बनाया।

बाबा किसी काम से क़स्बा गये हुए थे। मैं चौधरी के अलाव पर बैठा हाथ सेंक रहा था। हाथ भी क्या, वहाँ बैठा मैं यह देख रहा था, लाइन पार बिजली तो नहीं आ गयी। राम सनेही व चम्पत के किस्से

चल रहे थे, जिससे समय अच्छा कट रहा था। ‘‘रात को बारह बजे मैंने अपनी आँखों से देखा है। रेलवे क्रासिंग से एक दीया चल कर आता है। बाग़ के बराबर आकर कुछ ठहरता है। फिर बाग़ में जाता है और वहाँ तेज़ रौशनी सी होती है।’’ राम सनेही बता रहे थे। ‘‘जब हम छोटे थे तो पीराना निकला करता था। मरघट से चलता था और उस खेत से होते हुए बाग़ की ओर जाता था। अब तो मुद्दतें हो गयीं, कभी पीराना नहीं देखा।’’ दीपक की बात चली, तो चम्पक को पीराने की याद आ गयी। ‘‘पीराना क्या होता है?’’ मैंने जिज्ञासा प्रकट की।

‘‘पीराना भूत-प्रेतों की बारात होती थी। भूत हाथों में मशालें लिए, नाचते-गाते पीराना निकालते थे।’’ चम्पत ने पीराने के बारे में बताया।

मैंने देखा, लाइन के उस पार बल्ब चमक रहा था। सात बजकर दस मिनट पर बिजली आ गयी। बाबा अभी तक क़स्बे से नहीं लौटे थे। मैंने उनका इंतज़ार करना व्यर्थ समझा और फावड़ा उठाकर ट्यूवेल के लिए चल दिया।

क्रासिंग के पास पहुँच कर मैं ठिठक गया। कुछ देर तक मैं उसे देखता रहा। तीन-चार मिनट असमंजस में निकल गये होंगे। क्या करूँ, मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था। कोई चोर-लाबार होता, तो यों इतनी देर तक खड़ा न रहता, एकदम अविचल। थोड़ा-बहुत तो हिलता-डुलता। फिर इस जगह खड़े होने का क्या तुक? लेकिन वह सामने खड़ा था। न मालूम कितनी बार मैं अँधेरे-उजाले में यहाँ से गुजरा हूँ। कभी कोई हादसा मेरे साथ नहीं घटा। फिर भी यहाँ से गुज़रते वक़्त लोगों की बातें याद आ ही जाती हैं। बातों के साथ ही एक अनजाना भय भी ज़हन में उभर ही आता है। मैं पहले ही बता चुका हूँ कि अब तक मेरे होश में चार लोग यहाँ रेल से कट कर मर चुके हैं। कई लोगों से सुन चुका हूँ कि उन लोगों को उन्होंने विभिन्न रूपों में देखा है।

चमकता हुआ बिजली का बल्ब मुझे जल्दी ट्यूवेल पर पहुँचने के लिए उकसा रहा था और अंदर

का भय मुझे वही जड़वत किये हुए था। हिम्मत जुटा कर मैंने उस जड़ता को तोड़ा। मैंने निर्णय लिया, क्रॉसिंग से लाइन पार न कर थोड़ा आगे बढ़ कर पार करूँगा ताकि सामने जो व्यक्ति खड़ा दिखाई दे रहा था, उससे बच सकूँ। मैं आगे बढ़ा, लेकिन डर की वजह से निग़ाहें उधर ही लगी हुई थीं। अभी मैं उसे देख ही रहा था कि मुझे अपने ऊपर हँसी आ गयी। वह मील का पत्थर था जिस पर, शाम को जब भी मैं खेत की ओर आता अक्सर बैठ जाया करता था। मुझे यक़ीन नहीं हो रहा था कि मुझे यह क्यों याद नहीं रहा कि यह वही पत्थर है। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि वह पत्थर मुझे आदमी के बराबर कैसे लग रहा था।

मैंने ट्यूवेल पर पहुँच कर ताला खोला और ट्यूवेल स्टार्ट कर दिया। क़रीब आधा घंटे बाद बाबा आ गये, तो मैं निश्चिंत हो गया।

बाबा की तेज़ आवाज सुन कर मैंने हड़बड़ा कर आँखें खोलीं। बाबा बोले, ‘‘पानी देख आता, कहीं फूट तो नहीं रहा है।’’

मैंने आँखें मलते हुए कहा, ‘‘अभी तो आया हूँ देख कर।’’ ‘‘अभी? एक घंटा होने जा रहा है।’’

थोड़ा कसमसाकर मैं उठा और फावड़ा व टॉर्च उठकर पानी देखने चल दिया।

ट्यूवेल व मेरा खेत दोनों सड़क के किनारे थे। दोनों के बीच बमुश्किल पचास-साठ मीटर की दूरी थी, परन्तु पानी की नाली थोड़ी घूमकर जाती थी। मुझे नाली के साथ-साथ जाना था, ताकि देख सकूँ, कहीं पानी फूट तो नहीं रहा। मैं नाली के साथ-साथ चल रहा था। जहाँ-जहाँ नाली कमजोर थी, वहाँ टॉर्च लगाकर ठीक से देखता जा रहा था। मरघट में पहुँचते ही मैंने सावधानी बरतते हुए चादर ओढ़ ली और अच्छी तरह नाली का मुआयना करने लगा। दरअसल यहाँ आठ-दस क़दम तक पतेल(सरकंडे) खड़ी थी। उसके चाकू की धार की तरह पैने पत्ते शरीर को चीर देते थे। पतेल की जड़ें नाली को पोला कर देती थीं और यहाँ पानी फूटने का अंदेशा अधिक रहता था। ठीक से नाली का मुआयना करने के बाद मैंने एक क्षण रूककर मरघट की तरफ़ टॉर्च लगायी।

दो दिन पहले ही चोब सिंह की मृत्यु हुई थी और उनकी चिता देख कर ऐसा लग रहा था जैसे अभी-अभी जल कर ठंडी हुई हो। चोब सिंह की बड़ी-बड़ी मूँछे व लंबा-चौड़ा शरीर मेरे ज़हन में उतरता जा रहा था। ऐसी बड़ी-बड़ी मूँछें कि कोई बच्चा रात को देख ले, तो डर जाये। यह सोच कर मुझे कुछ तसल्ली सी हुई कि चोब सिंह बिरमदेव या जिन्न न बन कर खईस बने होंगे जो उतना खतरनाक नहीं होता। फिर भी रह-रह कर मेरे मन में डर-सा कौंधने लगा। डर बढ़ा, तो हनुमान चालीसा खुद ब खुद मेरी ज़ुबान पर आ गया-

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर, जय कपीस तिरलोक उजागर

मुझे याद नहीं हनुमान चालीसा मैंने कितनी छोटी उम्र में कंठस्थ कर लिया था। ऐसे वक़्त पर हनुमान चालीसा स्वतः मेरे होठों पर आ जाता था। फिर डर मेरे अंदर से निकल जाता था। कई बार ऐसा भी हुआ कि सपने में मैं भूत देख कर डर गया और मेरी आँख हनुमान चालीसा पढ़ते ही खुली।

गाँव-खेत पर रात-बिरात मुझे बाहर निकलना ही होता था और चोर-लबार से मुझे कभी इतना डर नहीं लगा, जितना भूतों से। थोड़ा बड़ा होते ही मैं ऐसी बातों को नकारने की कोशिश करने लगा था, पर डर तो लगता ही था। उन दिनों हनुमान चालीसा ने मुझे बहुत सहारा दिया। लेकिन एक बार रामसनेही ने मुझे बड़े संशय में डाल दिया था।

चौधरी की बैठक पर एक बार उन्होंने एक कहानी सुनायी। एक बार उनके चाचा कहीं जा रहे थे। रास्ते में उन्हें भूत मिल गया। उन्होंने तुरंत हनुमान चालीसा पढ़ना शुरूकिया, तो भूत ने उन्हें ललकारा, ‘‘तू हनुमान चालीसा पढ़ता है, मैं तुझे सुन्दर कांड पढ़कर सुनाता हूँ।’’ भूत ने खड़े-खड़े पूरा सुन्दर कांड पढ़कर सुना दिया। चाचा डर के मारे काँपने लगे, तो वह बोला, ‘‘तू भी हनुमान का भक्त है, इसलिए छोड़े देता हूँ।’’

मैं टॉर्च लगाता हुआ चकरोड पर पहुँचा और नाली को ध्यान से देखने लगा। चकरोड से होकर बैलगाड़ियाँ गुजरती थीं, इसलिए नाली कमजोर थी और यहाँ पानी फूटने का भय अधिक रहता था। नाली देखता हुआ, मैं खेत पर पहुँचा। क्यारी अभी थोड़ी भरने के लिए रह गयी थी। मैंने क्यारी भरने का इंतज़ार किया। क्यारी भर गयी, तो दो क्यारियों में मैंने पानी काट दिया ताकि बार-बार मुझे क्यारी काटने न आना पड़े। मैं ट्यूवेल पर आकर फिर लेट गया।

करीब डेढ़ घंटे बाद मुझे बाबा ने जगाकर कहा, ‘‘पानी देख आता, कहीं फूट तो नहीं रहा।’’

मैंने आँखे मलते हुए फावड़ा उठाया और नाली के साथ-साथ चलने लगा। मरघट पर पहुँचकर मुझे याद आया, मैं टॉर्च लेकर नहीं आया था। नाली का मुआयना करने के लिए ही नहीं, रात में कील-काँटा, साँप-कीड़ा से सुरक्षा के लिए भी टॉर्च ज़रूरी होती है। एक मन किया कि लौट के जाऊँ और टॉर्च ले आऊँ, फिर रह गया। मैंने सोचा यहाँ-वहाँ ज़रूरत पड़ेगी तो माचिस जलाकर देख लूँगा। मैं बीड़ी नहीं पीता था, परंतु रात को घर से बाहर निकलने से पहले माचिस जेब में ज़रूर डाल लेता था।

मरघट पार कर मैं चकरोड की ओर बढ़ा। आगे बढ़ते हुए यों ही मैंने दूसरी तरफ़ मुड़कर देखा, तो हठात् मेरे पैर रुक गये। मैं गौर से देखने लगा। क़रीब आधा किलोमीटर दूर मुझे एक दीपक-सा दिखाई दे रहा था।

वहाँ कोई ट्यूवेल नहीं था। साफ़ था कि वह बल्ब नहीं था। मेरी आँखें इतनी कमजोर नहीं थीं। साफ़ दिखाई दे रहा था कि वह दीपक है। मैं एकटक उसे देख रहा था। वह मेरी ओर ही बढ़ता आ रहा था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था, क्या करूँ। ट्यूवेल पर भाग जाऊँ? बाबा से कह दूँगा, क्यारी काट आया। पता नहीं, मुझे ऐसा क्यों लग रहा था कि चकरोड से होकर कोई बैलगाड़ी गयी होगी और वह नाली फोड़ गयी होगी। कुछ भले मानुस गाड़ी रोक कर पानी रोक जाते हैं या आवाज़ लगा देते हैं, पर कुछ शैतान के ताऊनाली फूटी ही छोड़ जाते हैं। अगर कोई बैलगाड़ी गयी होगी, तो खेत भी नहीं भर पाएगा और पूरे चकरोड

पर पानी ही पानी हो जाएगा। अगर क्यारी भर गयी होगी और मैंने नयी क्यारी नहीं काटी तब भी बहुत नुकसान हो जाएगा। अभी हल्की हवा चल रही है, हवा तेज़ हो गयी और पानी ज़्यादा भर गया, तो सारे गेंहूँ ज़मीन पर बिछ जाएंगे। ट्यूवेल पर भागने का ख़याल मेरी ज़हन से एकदम निकल गया।

मैंने देखा, दीपक मेरी ओर निरंतर बढ़ता आ रहा था। मन में भय के साथ-साथ तमाम आशंकाएँ उठ रही थीं। अभी अलाव पर रामसनेही सुना रहे थे कि क्रॉसिंग से एक दीपक चलकर आता है और बाग़ में आकर तेज़ रौशनी के साथ गायब हो जाता है। कहीं यह वही दीपक तो नहीं है? मुझे लगा वह क्रॉसिंग से होता हुआ बाग़ में जाएगा और तेज़ रौशनी के साथ गायब हो जाएगा। मेरा भय बढ़ता ही जा रहा था। बाग़ का भी अपना इतिहास था। बाग़ में तीन पीपल, दो बेल, एक जामुन और आठ-दस आम के पेड़ थे। लोगों का यक़ीन था बिरमदेव, जिन्न, खईस, चुड़ैल पीर यानी प्रेत योनि की जितनी क़िस्में हैं, वे सब उस बाग़ में निवास करती हैं। जाने कितनी कहानियाँ उस बाग़ से जुडी थीं। चार-पाँच दिन पहले ही चौधरी के अलाव पर रामसनेही एक कहानी सुना रहे थे- ‘‘सात-आठ साल हो गये होंगे। हमने कटे हुए चनों की पाड़ी बाग़ में लगायी थी। हम रात को पाड़ी के पास ही चादर बिछाकर लेटे थे। सो चौधरी, तुम्हें क्या बतायें, आधी रात के क़रीब देखते क्या हैं, लाइन के सहारे एक दीपक चला आ रहा है। देखते-देखते दीपक बाग़ के बराबर में आ गया। एकदम बाग़ में उजीता(उजाला) ही उजीता। हमारी आँखें चौंधिया गयीं। डर के मारे हमारी हालत ख़राब। हमने चादर समेटी और चने की पाड़ी के बीच में छिप गये। देखते ही देखते बाग़ में बरात की बरात इकट्ठी हो गयी। जिन्न, खईस, एकदम काले कपड़े पहने चुड़ैलें। थोड़ी देर में वहाँ सफ़ाई शुरूहो गयी। देखते ही देखते कालीनें बिछ गयीं। इत्र-फुलेल की खुश्बू के मारे हमारी नाक फटी जाए। थोड़ी ही देर में वहाँ पकवानों के ढेर लग गये। छन्न-छन्न करते बर्तन आयें और ढेले की तरह कालीन पर रख जायें। थोड़ी ही देर में थालियाँ बिछ गयीं। उनमें छप्पन भोग परोस दिये गये। फिर उनमें से एक सरदार निकल कर आया। ‘‘सरदार तो जिन्न होगा या फिर बिरमदेव। क्यों चचा?’’ चम्पत ने आश्वस्तिपूर्ण जिज्ञासा व्यक्त की।

‘‘अब ये तो हम नहीं कह सकते कि वह बिरमदेव था या जिन्न पर इतना कहते हैं कि वह शक्ल से एकदम सरदार ही लगता था।’’ रामसनेही ने जिज्ञासा का निवारण किया, तो तो चम्पत ने तुरंत उसे अपनी आश्वस्ति में रूपांतरण कर लिया,‘‘मैं समझ गया सरदार जिन्न या बिरमदेव ही होगा।’’

क्षणभर रुक कर रामसनेही आगे बढ़े, ‘‘सो चौधरी तुम से कहत हैं कि तुम विश्वास नहीं करोगे, सरदार ने कड़क आवाज़ में हुक्म दिया एक थाली और लगाई जाये। तुरंत हुक्म की तामील हुई।’’ एक थाली और लगायी गयी। सरदार फिर कड़क आवाज में बोला, ‘‘बाहर निकलिए।’’

सो चौधरी डर के मारे हमारी हालत ख़राब। सरदार फिर बोला, ‘‘राम सनेही तुम से ही कह रहे हैं, बाहर निकल आओ।’’

अब क्या करें? डरते-डरते हम बाहर निकले। उनके बीच आकर खड़े हो गये। सो चौधरी डर के मारे हमारी टांगें काँप रही थीं।

सरदार ने हिम्मत बँधाई, ‘‘डरिये मत, हम तुम से कुछ नहीं कहेंगे। तुम तो हमारे मेहमान हो।’’

उसने एक थाली की ओर इशारा किया। हम डरते-डरते वहाँ जाकर बैठ गये। सरदार की आज्ञा हुई, तो खाना शुरूहुआ। सो चौधरी तुम्हें क्या बतायें, तुम विश्वास नहीं करोगे, क्या खाना था! अय हय ऐसा खाना! रामसनेही ने खाने का जायका लेते हुए थूक निगला।

ऐसा खाना कि आज तक हमने खाया तो क्या देखा तक नहीं। मालूम ही नहीं पड़ता था कि क्या खा रहे हैं। बस मन करे खाये जाओ, खाये जाओ।

सो चौधरी अब तक हमारी हिम्मत बँध चुकी थी। हमारे मन में बार-बार यह विचार आये कि इसमें से कुछ रख लेते तो सुबह बच्चों को ले जाते। सरदार ने पूछा, ‘‘क्या सोच रहा है?’’

‘‘तो चचा सरदार तुम्हारे मन की बात जान गया होगा। मैं समझ गया, वह जान गया होगा। सरदार से तुम मन की बात कैसे छिपा सकते हो?’’ चम्पत ने अपनी समझदारी का परिचय दिया। ‘‘तू ठीक समझा चम्पत, लेकिन वहाँ हमारी डर के मारे हालत ख़राब। डर के मारे हमारी ज़ुबान नहीं हिली।’’ सरदार हँसा, ‘‘घर ले जाएगा? रख ले कुरता की जेब में।’’

हमारी फिर भी हिम्मत न पड़े। वह फिर कड़क कर बोला, ‘‘कह दिया न रख ले।’’ हमने काँपते हाथों से कुछ मिठाइयाँ जेब में रख लीं।

सो चौधरी तुम से कहत हैं कि खाने के बाद वो रास लीला हुई कि तुम होते तो देखते, चुड़ैलें ऐसे नाचें कि बस देखते ही रह जाओ। पूरी रात रास लीला चली। सुबह होने को आयी, तो सरदार की आज्ञा हुई- ‘‘समय हो गया।’’ नाच-गाना वही ठहर गया। हमसे सरदार बोला, ‘‘गाँव की ओर देखो।’’

हमने गाँव की ओर देखा। वापस गर्दन घुमाई, तो एकदम चमत्कार हो गया। सब कुछ साफ़। कालीन,ढोलक, मजीरा सब गायब।

सुबह होते ही हम घर आये। बड़ी खुशी से जेब में हाथ डाला। देखा तो उसमें हड्डियाँ भरी हैं। ‘‘मिठाई की हड्डियां बन गयी होंगीं। सरदार इसीलिए हंसा था।’’ चम्पत ने सरदार की हँसी का राज़ खोला।

 

मैंने देखा, दीपक मेरी ओर बढ़ता आ रहा है। मुझे रामसनेही की कहानी याद आ रही थी। मुझे लग रहा था, दीपक अभी मेरे पास आ जाएगा, फिर तेज़ उजाला होगा और यहाँ भूतों की बरात इकट्ठी हो जाएगी। सारे भूत मिलकर ज़बरदस्ती मुझे हड्डियाँ खिलाएंगे।

मेरी निग़ाहें दीपक पर थीं। जैसे-जैसे दीपक मेरी ओर बढ़ता आ रहा था, मेरे अंदर का भय प्रबल होता जा रहा था। रामसनेही की कहानी व लोगों की बातें याद आतीं, जो मेरे ज़िस्म के ख़ून की बूँद-बूँद को भय में बदल रही थीं और वह भय मेरे पूरे शरीर में घूम रहा था।

मैं समझ नहीं पा रहा था, क्या करूँ? फिर मन में आया, ट्यूवेल पर भाग जाऊँ। मुझे लगा ट्यूवेल पर पहुँचते ही बाबा मुझसे पूछेंगे, ‘क्यारियाँ काट आया?’ और मैं उनके सामने झूठ नहीं बोल पाऊँगा। फिर भी मन में तीव्र इच्छा हुई कि ट्यूवेल पर भाग जाऊँ। शायद मैंने भागने की कोशिश भी की या भागने की तीव्र इच्छा मात्र रही होगी। मैं जैसे अपनी जगह पर जम-सा गया था। एकदम जड़। मेरी सम्पूर्ण जीवन शक्ति आँखों में सिमट आयी थी और आँखें एकटक दीपक पर टिकी थीं।

मैं अपने अंदर के भय से संघर्ष करते हुए अपने आप को दिलासा दे रहा था, ‘भूत-ऊत कुछ नहीं होते। रामसनेही तो रोज़ ऐसे क़िस्से सुनाते ही रहते हैं जैसे सारी दुनिया के भूतों ने उनसे मिलने का ही संकल्प ले रखा हो।’ पर वह दीपक मुझे दिखाई दे रहा था और मेरी ओर बढ़ता ही आ रहा था। उसकी गति के साथ ही मेरे अंदर का संघर्ष कमज़ोर पड़ता जा रहा था। जो भी हो। मेरे पास विकल्प नहीं था और मैं अपनी शक्ति संकलित करने के प्रयास में जुट गया।

अगर यहाँ भूतों की बरात जुट गयी और रामसनेही की तरह उन्होंने मुझे कोई नुकसान नहीं पहुँचाया तब तो ठीक है। अगर कोई नुकसान पहुँचाने की कोशिश की, तो मैं भी चूकूँगा नहीं, पर जिन्न और बिरमदेव तो बहुत ताकतवर होते हैं। क्या मैं उनसे मुकाबला कर पाऊँगा? जो भी हो, अगर मरना ही है तो मुकाबला कर के ही मरना चाहिए। फिर एक दिन सब को मरना ही है। मेरे हाथ फावड़े पर कस गये। मेरे अंदर का भय थोड़ा कम हो गया। पर वह एकदम दूर नहीं हुआ था। मरने वाली बात तो ठीक है, पर वे मुझे घायल कर के छोड़ गये तो? न मालूम कब तक कष्ट झेलना पड़ेगा। हड्डी-पसली टूट गयी, तो महीनों हाथ-पैरों पर प्लास्टर चढ़ा रहेगा।

घायल होने के बाद शारीरिक कष्ट की कल्पना ने मेरे अंदर के भय को पुनः बढ़ा दिया। पर मैंने हिम्मत नहीं हारी। मैं बराबर अपने आप को सांत्वना दे रहा था। अगर घायल हो गया, तो किया ही क्या जा सकता है? मैं समझूँगा स्कूल जाते वक़्त किसी वाहन से एक्सीडेंट हो गया। मैं रोज़ स्कूल जाता हूँ और वास्तव में मेरा एक्सीडेंट हो जाये, तब भी तो मुझे कष्ट झेलना ही पड़ेगा। लोगों का एक्सीडेंट हो जाता है, तरहतरह की बीमारियाँ हो जाती हैं, कितना कष्ट होता है। क्या वे उसे बर्दाश्त नहीं करते?

अब तक दीपक मेरे और क़रीब आ चुका था। मैं उसे गौर से देख रहा था। ऐसा लग रहा था, एक परछाईं उसके साथ चल रही है। मुझे लगा कि वह परछाईं बड़ी होती जा रही है। बहुत बड़ी। एकदम डरावनी। बड़े-बड़े नाखूनों वाली। दांतों को बाहर निकाले हुए। लटें बिखेरे हुए। फिर वह परछाईं एक भीड़ में बदल गयी। काला लिबास पहने चुड़ैलें और भूत उस भीड़ में चले आ रहे थे। दीपक तमाम मशालों में बदल गया। भूत-चुड़ैलें नाचते-गाते पीराना यानी बरात निकाल रहे थे। मेरे कानों में उनके नाचने गाने की आवाज़ें आ रही थीं।

मैंने घबराकर आँखें बंद कर लीं। पीराना अब भी मुझे दिखाई दे रहा था। मैंने आँखें और भींच लीं। दोनों मुट्ठियाँ कसकर बंद कर मैं ज़मीन पर बैठ गया। मैं कुछ देर ऐसे ही बैठा रहा। फिर मैंने धीरे-धीरे आँखें खोलीं। मैंने महसूस किया, मेरा पूरा शरीर काँप रहा है। मुझे पसीना आ रहा था। मैंने मुट्ठियाँ खोलकर फावड़ा हाथ में ले लिया और उठकर खड़ा हो गया।

मेरी निग़ाहें फिर दीपक की ओर उठ गयीं। अब वह क़रीब आ गया था और यह भी स्पष्ट हो गया था कि वह दीपक नहीं, एक लालटेन थी जिसे कोई व्यक्ति पकड़े हुए था। मेरे पहले वाले भय एकदम दूर हो गये, पर एक अलग-सा डर लगने लगा। इस डर को झटकने के लिए मैंने यों ही फावड़ा ज़मीन में मारा। फावड़े से मिट्टी खोदकर यों ही नाली पर रखने लगा, मानो वह फूट रही हो। मैंने फिर लालटेन की ओर निग़ाह उठाई। ‘‘कौन है?’’ उसने पूछा।

‘‘मैं हूँ, पानी लगा रहा हूँ।’’ मैंने जवाब दिया।

‘‘अच्छा। अकेला ही है? साथ नहीं है कोई?’’

‘‘भइया बाबा ट्यूवेल पर हैं।’’

‘‘चिंता की कोई बात नहीं। पास में ही भीमसेन पानी लगा रहा है।’’

वे गाँव के ही सज्जन थे और रिश्ते में मेरे भाई लगते थे। उनकी आवाज़ सुनते ही मेरा सारा भय एक झटके में निकल गया था। गाँव का रास्ता मेरे खेत से होकर ही गुज़रता था, सो मैं उनके पीछे-पीछे चलने लगा।

अचानक मुझे याद आया, भूत किसी परिचित का भेष बनाकर भी आ जाता है और मौका मिलते ही आक्रमण कर देता है। इस काम में छरौटा बहुत माहिर होता है। तुरंत मेरी निग़ाह उनके पैरों की ओर गयी। उनके पैर सीधे थे। मैंने राहत की एक लम्बी सांस ली। लग रहा था जैसे मैं एक लम्बी दौड़ जीत कर आया हूँ और थक गया हूँ। मैंने यों ही अपने माथे पर हाथ फिराया और बेहद शान्ति महसूस की।

4.

रिजल्ट देखकर मुझे अधिक ख़ुशी और थोड़ी सी तकलीफ़ हुई। गाँव में यही काफी है कि आप इंटरमीडिएट पास कर जायें। फिर मैंने तो फर्स्ट डिवीज़न के क़रीब अंक हासिल कर लिये थे। थोड़ी-सी तकलीफ़ इसलिए थी कि अगर मैंने दो महीने के बजाय तीन महीने पहले कमरा ले लिया होता, तो शायद फर्स्ट डिवीज़न आ सकती थी। प्रतिदिन पैंतीस किलोमीटर साइकिल चलाना और घर बाहर के काम। कितनी भी कोशिश करो, फिर भी पढ़ने के लिए समय निकालना मुश्किल तो था ही। फर्स्ट डिवीज़न न आने का थोड़ा दुःख ज़रूर हुआ, पर इस बात की बेहद ख़ुशी थी कि मैं अच्छे नंबरों से पास हो गया। हाँ, मेरे लिए ये अच्छे नंबर थे।

मेरे पास आगे की कोई योजना नहीं थी। बी.एस-सी. करने के लिए गंजडुंडवारा या आगरा दो विकल्प मेरे पास थे। यों अलीगढ़ भी पास ही था पर उस समय वह मेरे ख़याल में भी नहीं था। गंजडुंडवारा मेरे गाँव से क़रीब चालीस-पैंतालीस किलोमीटर था और रेल से एमएसटी बनवा कर डेली अप-डाउन किया जा सकता था। मैंने वहाँ एडमिशन के लिए फ़ॉर्म भर दिया। आगरा का ख़याल इसलिए था कि मुझसे पहले गाँव के जिस पहले लड़के ने बी.एस-सी. की, वह आगरा से ही की थी। बाद में मेरे एक मित्र ने सलाह दी कि मुझे आगरा भी फ़ॉर्म डाल देना चाहिए और अगर आगरा एडमिशन मिल जाता है, तो वही लेना चाहिए। दरअसल गंजडुंडवारा गुंडागर्दी बहुत थी और छात्र आये दिन गोली चलाते रहते थे। मैंने मित्र की सलाह मान कर आगरा फ़ॉर्म डाल दिया।

मुझे आगरा कॉलेज से एडमिशन के लिए कॉल लेटर मिला, तो मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा। एडमिशन फ़ॉर्म भरने जब मैं पहली बार आगरा गया था, तो इतना विशाल व भव्य कॉलेज मेरी कल्पना की दुनिया में भी कभी नहीं रहा था। ऐसे कॉलेज में पढ़ने की कल्पना मात्र मेरे उल्लास की सीमा को अपरिमित कर देने के लिए काफी थी।

मैंने बी.एस-सी. में आगरा एडमिशन ले लिया। एडमिशन लेकर मैं वापस गाँव लौट आया था। नियमित कक्षाएं एक अगस्त से शुरूहोनी थी और अभी मेरे पास बारह दिन का समय था। इससे मुझे व्यवस्था करने में बहुत सहूलियत हुई। हॉस्टल तो बाद में ही अलॉट होगा, अभी तो रुकने की व्यवस्था भी करनी थी। मेरी यह समस्या हल हो गयी। गाँव के रिश्ते की एक बुआ का आगरा में मकान था।

इकत्तीस जुलाई भी आ गयी। मुझे अगले दिन आगरा निकलना था। मैं पूरे दिन दोस्तों से मिलता रहा। पता नहीं, अब कितने दिन बाद लौटना होगा। शाम को मैं खेतों का चक्कर लगा कर लौट रहा था कि चबूतरे पर जगती ताई बैठी दिखाई दीं। मैं उनके पास रुक गया। वे बोलीं, ‘‘हमने सुना है तू आगरा जा रहा है पढ़ने को?’’ ‘‘हाँ ताई। मैं सुबह निकलूँगा।’’ मैं चारपाई पर बैठ गया। ‘‘इतनी दूर? ऐसी कैसी पढ़ाई है तेरी जो कासगंज नहीं है?’’

मैंने उन्हें समझाया,‘‘कासगंज में साइंस नहीं है। मैं साइंस पढ़ रहा हूँ।’’

‘‘अच्छी बात। भगवान करे खूब तरक्क़ी करो। पढ़ो-लिखो, पढ़-लिख कर अफ़सर बनो। माँ-बाप का, गाँव का नाम रोशन करो।’’ जगती ताई बेहद दयालु हो उठीं और उन्होंने ढेर सारी दुआएं मुझे दे दीं। वे क्षण भर को चुप रहीं। फिर बोलीं, ‘‘गाँव में रखा ही क्या है? चार-छह बीघा खेत होते थे, वे भी बँट गये।

यही हाल रहा, तो मजूरी मिलना भी मुश्किल हो जाएगी लोगों को। अच्छा है जो यहाँ से निकल जाए।’’

मैंने जगती ताई को ग़ौर से देखा। वे बेहद कमजोर हो गयी थीं। एकदम सूखकर काँटा। बमुश्किल उनका वजन तीस-बत्तीस किलो रह गया होगा। लोग उनके पीछे कहते थे, अब वे ज़्यादा जिएंगी नहीं। पता नहीं क्यों, मुझे भी आज ऐसा ही लग रहा था। मुझे उनसे बहुत सहानुभूति हो रही थी। मन कर रहा था,

पूरी रात उनके पास ही बैठा रहूँ।

मुझे सामान पैक करने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगा। अंडरवियर, बनियान, तौलिया, दो जोड़ी कपड़े और कुछ छोटी-मोटी चीज़ें, सब एक सूटकेस में आ गया। मम्मी को अधिक तैयारी करनी पड़ी। वे पूरे दिन तैयारी में जुटी रही थीं। एक थैले में उन्होंने तिल के लड्डू बनाकर रख दिये। डिब्बे में घी भर दिया। इस समय वे दूध का खोया बना रही थीं। सुबह सात बजे मुझे पैसेंजर ट्रेन से आगरा के लिए निकलना था। बारह बजे तक मम्मी ने सब कुछ तैयार कर के रख दिया। अब सुबह उठकर खाना बनाना शेष रह गया था।

मैं कुछ दिन बुआ जी के यहाँ रहा। बाद में मैंने न्यू आगरा में एक छोटा-सा और सस्ता-सा कमरा तलाश लिया। मकान मालिक अपने परिवार के साथ नीचे रहता था। मेरा कमरा ऊपर था। मेरी दाईं तरफ वाले दोनों कमरे किसी किरायेदार के इंतज़ार में खाली पड़े थे। दूसरी ओर वाले कमरे में अपने दो बच्चों के साथ

एक अध्यापक रहते थे। जैसे हर व्यक्ति के व्यक्तित्व की कुछ विशेषताएं होती हैं, अंकल की भी थीं। वे व्यवहार कुशल व मृदु भाषी थे पर उनकी एक विशेषता और थी। वे खुद से जुड़ी घटनाओं को अतिरंजित कर के सुनाते थे और वे बातचीत के दौरान ही कोई भी कहानी बना सकने में सक्षम थे। जहाँ तक कि उनके बच्चे भी उनके पीछे कहते थे, ‘पापा भी जाने कहाँ-कहाँ की गप्प छोड़ते रहते हैं।’ यह एक अलग बात थी कि बच्चे खुद भी उनकी इस कला में निपुण हो गये थे। वे पास के ही किसी गाँव के थे। वे शाम को घर चले जाते थे और उनके बच्चे कमरे पर रह जाते थे। कभी-कभी वे भी कमरे पर रुक जाते थे। जिस दिन वे रुकते थे, उस दिन मेरी उनके साथ बैठक हो जाती थी। जब उन्हें अपनी कोई बात सिद्ध करनी होती थी, तभी वे गप्पें बनाते थे अन्यथा उनकी बातचीत अच्छी और कभी-कभी प्रेरणादायक ही

होती थी।

अंकल ने मुझे बताया था कि इस मकान में मकान मालिक के पिता का भूत रहता है। उनका दावा था कि उन्होंने अपनी आँखों से उसे कई बार देखा है। छत पर झाड़ू लगाते, टॉयलेट में पेशाब करते। उन्होंने उसके बारे में दो घटनाएँ बतायीं। पहली यह कि उसने एक बार उनके बड़े बेटे का गला दबा दिया था। दूसरी यह कि मेरे बराबर वाले कमरे में कोई सक्सेना रहता था, मकान मालिक के भूत को उसने और उसकी पत्नी ने देखा था। उसके बीवी-बच्चे बीमार रहते थे। तमाम डॉक्टरों से इलाज कराने के बावजूद वे तब तक ठीक नहीं हुए, जब तक कि उन्होंने यह कमरा खाली नहीं कर दिया। उन्होंने उससे बचाव के कुछ प्रबंध कर रखे थे।

मैं कई बार छत पर बिलकुल अकेला रहा था, पर मुझे कभी कोई भूत दिखाई नहीं दिया। अंकल जी बताते थे कि मैं रात को दो बचे नीचे टॉयलेट करने जाऊं, तो मुझे मकान मालिक का भूत अवश्य दिखाई देगा। मैं कई बार गया, पर मुझे वहाँ कुछ दिखाई नहीं दिया।

उस दिन अंकल जी गाँव गये हुए थे। गर्मी के दिन थे, इसलिए उनके दोनों बेटे बाहर बिस्तर लगाये हुए थे। पड़ोस के दो लड़के आ गये थे और वे सब मिल कर गप्पबाज़ी कर रहे थे। मुझे कुछ थकान महसूस हो रही थी और उनकी आवाज़ें भी आ रही थीं, इसलिए मैं पढ़ाई पर केंद्रित नहीं हो पा रहा था। कुछ पढ़ने को मन नहीं कर रहा था। मैं बत्ती बंद कर सो गया।

प्रतिदिन की तरह उस दिन भी मैं साढ़े चार बजे उठ गया। नियमानुसार मैंने बाल्टी, साबुनदानी व कपड़े उठाये और बाथरूम चल दिया। दरअसल पूरे मकान के लिए कॉमन टॉयलेट-बाथरूम थे और वे नीचे थे। बाहर देखा, पूरी छत खाली है। रात अंकल जी के दोनों बेटे बाहर सो रहे थे, वे कहाँ गये? मैं सोच ही रहा था कि छत के एक कोने से खड़-खड़ की आवाज़ आयी। मैंने गौर से देखा, एक मानवाकृति मुझे बैठी दिखाई दी। कुछ पल मैं उसे ग़ौर से देखते हुए कुछ समझने की कोशिश करता रहा। फिर मैंने पूछा, ‘‘कौन है?’’ ‘‘पास आ के देख लो।’’ वह किसी महिला का स्वर था। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। मैंने दोबारा पूछा, ‘‘कौन है?’’ ‘‘पास आ के देख लो।’’ उसने फिर वही उत्तर दोहराया।

मैं दुविधा में पड़ गया। समझ नहीं आ रहा था, क्या करूँ? चुपचाप सीढ़ियाँ उतर कर दैनिक कार्य निबटाऊँ या पता लगाऊँ, यह महिला कौन है और यहाँ क्या कर रही है? वे दोनों लड़के बाहर सो रहे थे, अंदर क्यों चले गये? कुछ देर तक मैं किंकर्तव्यमूढ़-सा खड़ा रहा। फिर मैंने मकान मालिक को आवाज़ दी, ‘‘अंकल जीऽऽऽ ।’’

‘‘अंकल जी को क्या बुलाते हो, उन्होंने तो मुझे बुलाया ही है।’’ वह बोली।

अब मुझे थोड़ा डर-सा लगने लगा। मैं ग्यारह बजे सोया था। गेट साढ़े नौ-दस तक बंद हो जाता है। रात को मैंने उन दोनों लड़कों को बाहर गप्पें लगाते छोड़ा था। फिर यह महिला कैसे अंदर आ गयी? यह यहाँ बैठी-बैठी क्या कर रही है और मुझे उल्टे-सीधे जवाब क्यों दे रही है? मैंने सुना था, मकान मालकिन की माँ तांत्रिक है और अपनी बेटी के लिए तन्त्र-मन्त्र कराती रहती है। कहीं मकान मालकिन ने ही तो तन्त्र-मन्त्र करने के लिए इसे नहीं बुलाया है?

शायद मकान मालिक ने मेरी आवाज़ सुनी नहीं। मैं कमरे से माचिस निकाल कर लाया। मैंने तीली जलाकर देखा। दूर से सिर्फ़ इतना जान पाया, कोई औरत है जो फ़र्श पर कपड़ा बिछाये बैठी है और कप को फर्श से रगड़ रही है। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। मैंने नीचे जाने से पहले कमरे का ताला लगाना उचित समझा। मैं सामान उठा कर नीचे चला गया। मैं नहाने-धोने का अपना नित्य कर्म करता रहा पर दिमाग़ उस औरत में ही अटका था। न जाने कैसे-कैसे ख़याल मेरे ज़हन में आते रहे।

सुबह जब उजाला हो गया, तो मैं नीचे गया। वह महिला लोगों के बीच बैठी थी और लोग उससे ठिठोली कर रहे थे। मुझे मकान मालिक ने बताया वह नीचे वाले किरायेदार की बहन है और दिमाग़ से कुछ गड़बड़ है। रात-बिरात जब मुंह उठ जाये, कभी भी और किसी भी रिश्तेदार के यहाँ चल देती है।

एक-डेढ़ बजे रात को गेट खटखटा रही थी, तो मैंने अंदर बुला लिया।

स्कूल की दो दिन की छुट्टी थी इसलिए अंकल जी गाँव से नहीं लौटे थे। अगले दिन शाम को जब अंकल जी लौटे तो रात को छत पर महफ़िल जम गयी। छोटे लड़के ने छेड़ा, ‘‘पापा रात यहाँ एक चुड़ैल आ गयी थी, जिसने भाई साब को डरा दिया।’’ बात शुरूहुई तो बच्चों ने पूरी कहानी उन्हें सुना दी। अंततः

बातचीत भूत-प्रेतों की कहानी पर आ टिकी। ‘‘अब क्या बतायें तुम्हें। तुम तो बहस करते हो। अगर कभी गाँव चलते, तो तुम्हें अपनी आँखों से दिखाते।’’ अंकल जी थोड़ा रुके। फिर बोलना शुरूकिया,‘‘हमारा बाग़ है गाँव में। उसमें एक आम का पेड़ है। उस पर भारी जिन्न रहता है। उस ओर गाँव का कोई व्यक्ति झाँक नहीं सकता। कई बार लोग गये हैं, कभी पत्ता तोड़ने, कभी लकड़ी तोड़ने तो कभी आम तोड़ने। पर मजाल क्या है जो कोई हाथ भी लगा आये। कई नीचे गिर गये। कई को पटखनी लगीं। महीने भर पहले की बात है। गाँव का ही एक मौड़ा हवन के लिए सूखी लकड़ी तोड़ने पेड़ पर चढ़ गया। बता रहा था, ऐसा लगे कोई डाल पकड़ कर हिला रहा है।

आख़िर नीचे आ गिरा, पर लकड़ी नहीं तोड़ पाया।’’ ‘‘आपने उसे देखा है?’’ मैंने यों ही पूछा।

‘‘खूब। अपनी आँखों से देखा है।’’ उनके स्वर में दृढ़ विश्वास था। ‘‘कैसा लगता है?’’

‘‘अब तुम्हें क्या बतायें, कैसा लगता है। गाँव चलो, तो तुम्हें आँखों से खुद दिखा दें।’’ ‘‘रात में दिखाई देता है या दिन में?’’

‘‘रात में भी दिखाई देगा और दिन में भी। तुम धुर दोपहर उधर जाओगे, तो पत्तों पर लेटा दिखाई देगा।’’ ‘‘भाई सा'ब तो भूतों को मानते ही नहीं हैं।’’छोटे लड़के ने फुलझड़ी छोड़ी।

शायद लड़का भूतों के किस्से सुनने के मूड में था। उसे इस ट्रिक का पता था कि उसके ऐसा कहने के बाद पिताजी अभी कोई भूत की कहानी छेड़ देंगे। और ऐसा ही हुआ। वे समझाने लगे, ‘‘कभी पाला नहीं पड़ा है, इसलिए नहीं मानते हैं। लेकिन मानना चाहिए। पहले हम भी नहीं मानते थे। जब हमारी आँखों

के सामने ऐसी घटनाएँ घटीं, तो मानने लगे।’’ अंकल जी थोड़ा रूककर कोई घटना सोचने लगे। ‘‘हमारे गाँव में एक लड़का है। दूध डालता है। एक दिन दूध डालने जा रहा था। थोड़ा लेट हो गया। देखता क्या है, रास्ते में सफ़ेद धोती-कुर्ता पहने बाबा जी खड़े हैं। लंबी-सी दाढ़ी। डर के मारे उसकी हालत ख़राब। बाबा जी ने एक गिलास दिया। बोले एक गिलास दूध चाहिए। डरते-डरते उसने एक गिलास दूध निकाला। डेरी पर जाकर देखता क्या है, टंकी में पाँच लीटर दूध बढ़ गया। दूसरे दिन डर के मारे उसने रास्ता बदल लिया। वहाँ भी वही बाबा जी खड़े मिले। बोले, तूने रास्ता क्यों बदल लिया। डर की कोई बात नहीं है, उसी रास्ते से आया कर। उन्होंने गिलास दिया और बोले दोनों टंकियों में से एक-एक गिलास दूध निकालो। डेरी पर जाकर देखा, दोनों टंकियों में पाँच-पाँच लीटर दूध बढ़ा हुआ है। घर में दो वक़्त का खाना मुश्किल था। आज पक्का मकान बनवा रहा है।’’

अंकल जी कहानी पूरी कर रुके। थोड़ी देर ठहर कर बोले, ‘‘पिताजी बताते थे, पहले यहाँ एक सिद्ध रहता था। वह मर गया। गाँव के बाहर आधा किलोमीटर तक पगडण्डी है, वही उसका वास है। सफ़ेद

धोती-कुर्ता व लम्बी सफ़ेद दाढ़ी में कई लोगों ने उसे देखा है। अगर किसी पर मेहरबान हो जाये, तो उसके कहने ही क्या।’’ अंकल जी पूरी तरह आत्मलीन थे, ‘‘मैं तो कई बार वहाँ से गुजरा हूँ। बहुत बार मनौती माँगी है। मिल जाये। मिल जाये। पर वह कहाँ मिलने वाला है। ....हाँ एक दिन ज़रूर थोड़ी झलक मिली थी। मैं आगरा से घर जा रहा था। लेट हो गया था, सो अपनी धुन में चला जा रहा था। कुछ-कुछ अँधेरा हो गया था और गाँव थोड़ी ही दूर रह गया था। देखता क्या हूँ, वही दाढ़ी वाला मेरे बराबर में चल रहा है। ढाई-तीन सौ मीटर साथ-साथ चला। मैं मन ही मन दुआ माँग रहा था, कुछ बोले, कुछ बोले। पर बेटी चो.... आख़िर तक कुछ नहीं बोला।’’

मैं चुप था। बच्चों में कोई जिज्ञासा प्रकट कर रहा था, तो कोई ठिठोली कर रहा था, ‘‘आप उसकी दाढ़ी पकड़ लेते, अपने आप बोल देता।’’

अंकल जी ने उनकी ठिठोली पर ध्यान नहीं दिया। वे गंभीरता से मुझसे मुख़ातिब हुए, ‘‘ये बड़े विचित्र होते हैं। अगर इन्हें सिद्ध कर लो, तो जी में आये वह करा लो। अगर बिगड़ जायें, तो आदमी को मटियामेट कर दें।’’

पता नहीं, किस बच्चे ने क्या बात छेड़ दी कि अंकल जी ने एक और कहानी सुनानी शुरूकी,‘‘ऐसीऐसी विद्या है कि यहाँ से पढ़ के मार दें, तो सौ कोस पर बैठा आदमी मर जाये। एक बार हम बैठक पर बैठे थे। भगत जी, मैं और दो-तीन आदमी और थे।’’ ‘‘आप के गाँव में भी भगत जी हैं?’’ मैंने बीच में टोका। मुझे अपने गाँव के भगत जी की याद आ गयी। ‘‘भगत जी किस गाँव में नहीं हैं? वे तो हर गाँव में होते हैं। जब समस्याएँ हर गाँव में हैं, भूत प्रेत हर गाँव में हैं, तो भगत जी भी हर गाँव में हैं। हमारे गाँव में तो चार भगत हैं।’’ अंकल जी ने मेरी बात का जवाब दिया। ‘‘फिर आप लोग, भगत जी के पास बैठे थे, फिर...?’’ बीच में आये व्यवधान से उकताकर एक

बच्चा बोला। ‘‘हम सभी भगत जी के साथ बैठे थे। देखते क्या हैं, मशाल सी चली आ रही है। हम आश्चर्य से देख रहे थे, यह क्या है उड़न तस्तरी सी? भगत जी बोले, किसी ने जोगा के लिए मटकी पढ़ कर भेजी है। भगत जी ने जमीन पर लकीरें खींच कर अपना तन्त्र काटा। मटकी वही ठहर गयी। ठहरे-ठहरे देर हो गयी। भगत जी अपना तन्त्र-मन्त्र करते रहे। फिर वह उलटी लौट गयी और गाँव के बाहर एक नीलगाय के ऊपर गिरी। हमने भगत जी को छूकर देखा, कुर्ता पसीने से ऐसे भीगा हुआ था जैसे नहाकर आये हों। जोगा उसी दिन से ठीक होने लगा। महीनों से बीमार था। भगत जी के पास आया था, तो उन्होंने बताया था, तेरे ऊपर तन्त्र किया हुआ है। जब तक वह नहीं कटेगा, तू ठीक नहीं हो सकता। तमाम इलाज कराया पर ठीक नहीं हुआ। आज जोगा बिलकुल ठीक है।’’

मैंने घड़ी देखी। बारह बजने वाले थे। ‘‘अच्छा अंकल जी अब सोते हैं।’’

अंकल जी नयी कहानी शुरूकरते, उससे पहले मैं उठ खड़ा हुआ। कपड़े बदल कर मैंने कुंडी लगायी और बत्ती बुझा कर लेट गया। मैंने आँखें बंद कर लीं, पर मेरी आँखों में सफ़ेद दाढ़ी वाला आदमी, मटकी और न जाने क्या-क्या घूम रहा था।

मैं आँखें बंद कर सब ओर से ध्यान हटाकर सोने की चेष्टा कर रहा था। यकायक मेरा मष्तिस्क सुन्न पड़ गया। मैंने अविलम्ब उठकर बत्ती जलानी चाही, पर उठ न सका। मैं चारपाई पर उठकर बैठ गया। पूरे कमरे में नज़र दौड़ाई। मैं सारे भय को एक ओर झटकने की कोशिश करने लगा। पहले सोचा उठकर बत्ती जला दूँ, फिर कसमसा कर लेट गया। मुझे अपने साहस पर ग्लानि हुई, आख़िर मैं इतना कैसे डर गया?

लेकिन वह था क्या? मैं पूरे होशो-हवास में था। आँखें बंद ज़रूर थीं, पर मैं नींद में नहीं था। वह हल्का स्पर्श नहीं था। इतना गहरा था कि मैं अभी तक अपनी छाती पर उसे महसूस कर रहा था। कुंडी लगी हुई है, फिर कोई अंदर कैसे आ सकता है? नहीं, यह मेरे मस्तिष्क का भ्रम नहीं था। फिर कौन था?

मैं लेटा हुआ था पर आँखें खुली थीं। मैं सामने की दीवार की ओर देख रहा था। मैंने देखा, नाली से दो आँखें चमक रही थीं। मैंने उठकर ईंट से नाली बंद की ताकि बिल्ली का बच्चा दोबारा कमरे में न आ सके। मैंने आँखें बंद कीं और जल्दी ही मुझे नींद आ गयी।

5.

तीन महीने से मैं घर नहीं जा पाया था। मम्मी का पत्र प्राप्त हुआ था कि दिवाली पर दो दिन पहले घर आ जाऊँ। मैंने तय किया, पूरा सप्ताह घर रहूँगा। तीन महीने से मैं सिर्फ़ पढ़ाई में व्यस्त रहा था, इसलिए पढ़ाई की ही बातें मेरे दिमाग में थीं। मैंने घर पढ़ने के लिए फिजिकल केमिस्ट्री की किताब रख ली। एक नवम्बर को मैं घर पहुँचा। सब कुछ वैसा ही था, जैसा मैं छोड़ गया था। अगर कुछ बदला था, तो यह कि उस समय खेतों में मक्का-बाजरा की फसल बोयी जा रही थी और अब गेंहूँ की बुवाई की तैयारी की जा रही थी। घरों में साफ़-सफ़ाई का काम चल रहा था। इतने दिनों के लिए मैं पहली बार घर से अलग रहा था। सो मम्मी मुझे देखते ही रो पड़ीं। आज की पूरी शाम दोस्तों और गाँव वालों से मिलने-जुलने में निकल गयी। रात को मम्मी ने अगले दिन के लिए कुछ ज़रूरी काम बताये। आर आर 21 घर पर रखा हुआ था। एक टुकड़े में उसी को बो देंगे। दूसरे के लिए कल चौधरी से बीज लेना है। इस बार चौधरी ने नयी वैरायटी बोई थी। उसमें पैदावार अच्छी हुई थी। कई लोगों ने उनसे ही बीज लिया है। यूरिया भी लाना है।

मैं शाम को खाद लेकर लौट रहा था। हल्का अँधेरा होने लगा था। जगती ताई के घर के सामने भीड़ जुटी थी। मैंने खाद की बोरी आँगन में पटक कर साइकिल दीवार के सहारे टिका दी। मैं जल्दी से जगती ताई के घर पहुँचा। उनकी तबीयत ख़राब थी और डॉ. बलराम उन पर बोतल लगा रहे थे। वे होशो-हवास में नहीं थीं। तमाम औरतें उन्हें घेरे खड़ी थीं। मैंने एक नज़र उन पर डाली और बाहर आ गया। लोग अंदर जगती ताई को देखने जाते और बाहर आकर चबूतरे पर जमा हो जाते। बेहद उदास सुजान लोगों से घिरे हुए थे। मैं चुपचाप एक ओर बैठ गया। ‘‘अपनी तरफ से तो कोई कमी नहीं छोड़ी। क़स्बा के सब डॉक्टरों को दिखा दिया।’’ सुजान के चेहरे पर दर्द उभर आया। थोड़ा रुक कर वे आगे बोले, ‘‘जिसने जहाँ कहा, वहाँ दिखाया। किसी ने कहा सरकारी अस्पताल में अच्छा डाक्टर आ गया है। बहुत क़ाबिल है। तीन-चार दिन रोज़ भागे, तब तो उसे पकड़ पाया। ये टेस्ट कराओ। कासगंज टेस्ट होते हैं। पूरे दिन का झमेला। एक दिन टेस्ट भी करा के लाये। डॉक्टर को दिखाया। कह रहा था एक साल इलाज चलेगा। दवाएँ कुछ अस्पताल से मिल जाएंगीं, कुछ बाहर से खरीदनी पड़ेंगी। इतनी मँहगी दवा। साल भर तक इलाज चलेगा। मरीज़ ठीक हो जाएगा, तब भी पूरे एक साल तक इलाज चलेगा। हमारी तो अकल ने काम करना बंद कर दिया है।’’ बेबस सुजान पूरी तरह से टूट चुके थे।

सतपाल ने सहानुभूति प्रकट की, ‘‘डाक्टर की अपनी समझ है। दवा लगे की है। हाथ जस की बात है। किसी-किसी का हाथ ऐसा होता है कि दो खुराक में मरीज ठीक हो जाये।’’ ‘‘भइया तुमने बिलकुल सच्ची बात कही। मेन बात तो यही है। दवा लगे की है। बड़े-बड़े इलाज से आदमी ठीक न हो और हाथ जस है, तो आदमी राख पढ़ के दे दे, उससे ठीक हो जाये। हमारी सुखिया को ही देख लो। दामाद आगरा, दिल्ली, दुनिया जहान में इलाज करा लाये। ठीक हुई तो कमल की दवाई से।’’ चेतराम ने सतपाल की बात का समर्थन किया। सतपाल ने उनकी बात आगे बढ़ाई, ‘‘छोटी-सी बीमारी बड़े-बड़े डाक्टर न पकड़ पायें और एक मामूली-सा डाक्टर पकड़ ले।’’

बालकिशन ने अपने दार्शनिक अंदाज़ में व्याख्या की, ‘‘इतना बड़ा शरीर है। अगर मशीन में एक छोटासा नट ढीला हो जाये, तो मशीन फेल हो जाती है। शरीर भी एक मशीन ही है। बनाने वाले ने तो बना के खड़ी कर दी। आदमी की तो यह है कि जितना उघाड़-खोल के देख पाया है, देख लिया। जितना समझ पाया है, समझ लिया। एक से एक नाज़ुक और एक से एक छोटा हिस्सा है इस मशीन में। आँख को ही

देखो। छोटा सा सीसा है दुनिया-जहान समा जाता है उसमें।’’ ‘‘और नहीं तो क्या। एक आँख में पूरा आदमी दिखाई देता है। किसी की आँख के सामने खड़े हो जाइये, आप पूरा अपना फोटू देख सकते हैं।’’ आँख की बात चली, तो चम्पक ने भी उसकी महत्ता पर अपने विचार प्रकट कर दिये, लेकिन बालकिशन अपने विचारों से उसकी प्रासंगिकता जोड़ नहीं पा रहे थे इसलिए उन्होंने उस पर ध्यान नहीं दिया।

सब लोग चुप थे। क्षण भर के लिए शान्ति छा गयी। उसे श्रीपाल ने तोड़ा। श्रीपाल गाँव के एक मात्र एम.ए. थे। पढ़े-लिखे होने के अतिरिक्त उनकी बात इसलिए भी असरदार मानी जाती थी कि वे गंभीर वार्तालाप में बीच-बीच में खड़ी बोली का इस्तेमाल करते थे। उन्होंने चिकित्सा के बारे में अपने विचार रखे, ‘‘सच तो यह है कि क़स्बा में झोला छाप दुकानें खोले बैठे हैं। ये नहीं जानते शरीर के बारे में कुछ भी। दो-चार महीने कहीं कम्पाउंडरी की और बन गये डॉक्टर। मैं कभी इन से दवा नहीं लेता। सीधा कासगंज जाता हूँ।’’ श्रीपाल अपनी बात का आधा हिस्सा समाप्त कर रुके। जैसी कि तमाम लोगों की समझ होती है। वे हमेशा एलोपैथी से ही इलाज़ कराते थे, पर महत्ता आयुर्वेद की बताते थे और तमाम लोगों की तरह एलोपैथी को कभी भी गरिया देते थे। उन्होंने अपनी बात पूरी की, ‘‘एलोपैथी राहत तो तुरंत देती है। पर उसके साथ दिक्कतें भी बहुत हैं। डॉक्टर के पास जाओ बीमारी क्या है, कैसे हुई, कब हुई सब पूछ लेंगे। फिर तमाम टेस्ट हैं। तब जाकर दवा लिखेंगे। दवा के तमाम साइड इफेक्ट हैं। मैं तो हमेशा एमबीबीएस से ही दवा लेता हूँ, इसलिए सब जानता हूँ। पर क्या किया जाये और कुछ चारा ही नहीं है।’’ श्रीपाल ने अपनी बात का दूसरा हिस्सा पूरा किया और अंत में वे अपने सबसे महत्वपूर्ण विचारों पर आये, ‘‘पहले के वैद हुआ करते थे। बस नब्ज़ देखते थे और पूरी बीमारी पता कर लेते थे। नब्ज़ देखकर यह तक बता देते थे कि आदमी क्या खाकर आया है। पर आदमी क्या करे, अब वैसे वैद रहे नहीं और उसे एलोपैथी की शरण में जाना पड़ता है।’’ ‘‘नबज से तो सारी बीमारियां जुड़ी ही हैं। अगर आदमी नबज देखना सीख जाये, तो समझ लो वैद हो गया।’’ नब्ज़ की बात चली, तो चम्पत ने उसकी महत्ता बतायी। ‘‘वैदों का मुक़ाबला आज के डाक्टर क्या कर पाएंगे। वैद तो ऐसे होते थे कि पेशाब देख के बीमारी बता देते थे। बताते हैं पिपरिया में एक वैद थे। कोई व्यक्ति शीशी में भैंस की पेशाब भर कर ले गया। देखते ही वैद जी बोले, भली-चंगी है। खूब दाना-चारा खा रही है और खूब दूध दे रही है।’’ सतपाल ने वैद्यों की विलक्षणता का आख्यान सुनाया, तो कुछ लोग हँसने लगे।

सुजान के चेहरे पर हँसी नहीं आयी। वे निर्विकल्प शून्य में ताक रहे थे। बड़े काका ने यह महसूस किया। जितने मूड उतनी सोच। बात शुरूकर दें, तो बात से बात निकलती चली जाएगी। लोग भूल ही जाते हैं कि यहाँ किसी के दुःख में खड़े हैं। उदास स्वर में उन्होंने पूछा, ‘‘बहू कैसी है?’’

सुजान अपने में लौट आये, ‘‘अभी बलराम ने दवा दे दी है। कह रहे हैं हालत में सुधार है। बाक़ी ऊपर वाला जाने।’’ स्वर उनके अवरुद्ध गले में अटक कर रह गया। उन्होंने हल्के से गले को खँखारा।

बड़े काका ने उनके कंधे पर हाथ रख कर सांत्वना दी, ‘‘हिम्मत रख। ऊपर वाला सब ठीक करेगा।’’ ‘‘घर में एक हँसुली है। कल सबसे पहले उसे बेचकर पैसे का प्रबंध करेंगे। फिर कासगंज ले जाएंगे।’’

सुजान मन की बात होठों तक लाने की कोशिश कर रहे थे, पर स्वर गले में ही बिंध कर रह जा रहा था। ‘‘भगत जी क्या कहते हैं?’’ बालकिशन ने पूछा।

‘‘कहते क्या हैं।’’ सुजान ने जैसे उनकी बात का उत्तर न देकर यों ही शब्दों को उछाल दिया, ‘‘बिरमदेव हैं, चुड़ैल साथ में है। खुद तो कुछ नहीं करते हैं, चुड़ैल को शै दे देते हैं। वही दवा नहीं लगने दे रही। जब तक उसका प्रबंध नहीं होगा, कोई दवा काम नहीं करेगी। कह रहे थे, परसों मंदिर पर थाली बजेगी, उसी में तुम्हारा भी प्रबंध कर देंगे।’’ उनके स्वर में गहरी अनिश्चितता थी। लगता उनका इन सब बातों से विश्वास ही उठ गया है। फिर आशा की एक किरण दिखाई देती। ‘‘कुछ नहीं कह रहे हैं भगत जी। तुम्हें इलाज कराना है, तो कल सीधे कासगंज ले जाओ। न कोई बिरमदेव है, न कोई चुड़ैल है। सब ढोंगबाज़ी है और कुछ नहीं।’’ रमेश को लोग उजड्ड कहते हैं। एक बार पानी लगाते हुए, काली अँधेरी रात में ताज़ी जली लाश के पास तापता रहा और रात भर उससे बीड़ी जलाकर पीता रहा। कहते हैं जो नहीं मानता है, उससे भूत भी डरते हैं।

सुजान ने उसकी बात का बुरा नहीं माना। बोले, ‘‘पता नहीं होते हैं कि नहीं होते हैं। लोग कह रहे हैं तो मान लेते हैं। कल कासगंज तो ले ही जाएंगे। उन्हें जो करना है, वे करें।’’ ‘‘जब घिन्नी अटकती है, तो अच्छे-अच्छे पानी माँग जाते हैं।’’ बालकिशन ने रमेश को लक्ष्य किया। रमेश भी कहाँ दबने वाला था। तुरंत प्रतिक्रिया दी,‘‘अटक गयी घिन्नी। आज तक नहीं अटकी, तो अब क्या अटकेगी। हम से कहो, उसी थान पै चार जूता लगा दें। न घिन्नी अटकेगी, न घिन्ना अटकेगा।’’

पता नहीं, बालकिशन पर इसकी क्या प्रतिक्रिया हुई, पर चम्पत एकदम उत्तेजित हो गया, ‘‘इतने ही बड़े तीसमारखां हो, तो पोखर वाले पीपल पर मूत के ही दिखा दो।’’ ‘‘चलो। अभी चलो मूत के दिखाते हैं।’’ रमेश उठ कर खड़ा हो गया। सतपाल ने बात संभाली, ‘‘बेकार की बातें क्यों कर रहे हो? ऐं? इन बातों से कोई फ़ायदा निकालता है? मूत के दिखा दो कि हग के दिखा दो। बद्तमीजी की बातें।’’

माहौल में हल्का-सा तनाव आ गया। सभी चुप थे। श्रीपाल ने माहौल को थोड़ा हल्का करने की कोशिश की, ‘‘मूत भी देगा, तो तेरा कोई क्या बिगाड़ लेगा। तू खुद ही जिन्न है। जिन्न से जिन्न थोड़े ही टकराएगा।’’

चम्पत ने बात आगे बढ़ाई, ‘‘सही कह रहे हो भइया। इतने बड़े जिन्न के आगे छोटा जिन्न तो वैसे ही नहीं टिकेगा।’’

सतपाल को लगा, बात कहीं फिर न बढ़ जाये। उन्होंने बात वही ख़त्म करनी चाही, ‘‘अब छोड़ो उस बात को। इन बातों में कुछ रखा है? बेकार की बातें।’’

बालकिशन ने इसे अपनी तौहीन समझा। थोड़े ऐंठ कर बोले, ‘‘मोहनपुर वाले हमारे समधी हैं। उनका एक डाक्टर से बौहार है। उसकी बहू बीमार थी। समधी वैसे मामलों में थोड़ा जानते हैं। उन्होंने बताया इस पर ऊपरी चक्कर है। डाक्टर हेंकड़ी में था। बोला-कुछ चक्कर-वक्कर नहीं होता। अपना इलाज चलाया। एटा, आगरा, दिल्ली कहाँ-कहाँ नहीं दिखाया उसने। देखते क्या हैं, एक दिन मुँह अँधेरे ही मोटर साइकिल लिए आ धमका। डाक्टर हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया। सो, घिन्नी अटकती है, तो अच्छे-अच्छे हेंकड़ी भूल जाते हैं।’’ जिस तरह बालकिशन ने हेंकड़ी पर ज़ोर दिया, उसे सुनकर रमेश चुप रहने वाला नहीं था, परन्तु सतपाल ने बात पूरी होते ही प्रश्न कर दिया, ‘‘आज शाम को मंदिर पर एक आदमी लड़की के साथ दिखाई दे रहा था। कोई खोर-खटका वाला था क्या?’’ ‘‘होगा कोई। वहाँ तो हर समय कोई न कोई आता ही रहता है।’’ जवाब चम्पत ने दिया। ‘‘पूरी रात यहीं बैठा रहेगा? सोना नहीं है क्या?’’ मम्मी ने आवाज़ दी, तो मैं उठ खड़ा हुआ। ‘‘क्या टेम हो गया?’’ चम्पत ने पूछा।

‘‘बारह बजने वाले हैं।’’ मैंने घड़ी देख कर बताया।

 

रात के तीन बजे थे। तिखाल में एक दीपक जल रहा था। सुजान जगती ताई का सिर गोद में रखे थे।

वे जगती ताई के चेहरे को देख रहे थे। एकदम निष्पंद, निर्जीव। उनका मन बेचैन था। बेचैनी के आलम में कुछ सूझ नहीं रहा था। मन में तरह-तरह की आशंकाएं उठ रही थीं।

अगर जग्गो को कुछ हो गया तो? कैसे रहेंगे वे उनके बिना? उनके सिवा इस दुनिया में उनका है ही कौन? नहीं, जग्गो को कुछ नहीं होगा। उनके अंदर हाहाकार मचा हुआ था।

सुजान का दिल बैठने लगा। वे बड़े ध्यान से जगती की नब्ज़ देख रहे थे। उनकी आँखें डबडबा आयीं।

कंधा झकझोरा, ‘‘जग्गो।’’ ‘‘......’’

वे कभी नब्ज़ देखते। कभी उनकी गर्दन व माथे को छूकर देखते। रुंधे कंठ से अटकती हुई आवाज़ में बोले- ‘‘ज...ज....जगो ....कुछ बोलो ऽऽऽ ।’’ ‘‘प...अ...अ ....नी।’’

उन्होंने चारपाई के नीचे से गिलास उठाया और सिर ऊंचा कर मुँह से लगा दिया। एक घूँट भर कर उन्होंने मुँह हटा लिया।

दीपक की लौ मद्धिम पड़ती जा रही थी। शायद उसका तेल समाप्त हो गया। जब कभी जंगले से हवा का झोंका आ जाता, जैसे-तैसे वह अपने आप को संभाल पाती। कमरे का वातावरण एकदम निस्पंद था। जैसे उसने स्तब्धता की चादर ओढ़ ली हो। इस गहन स्तब्धता में सुजान को लगा, उनसे कोई कुछ कह रहा है। उन्होंने ध्यान दिया, कहीं कुछ नहीं था। उन्हें पुनः कोई स्वर सा सुनाई दिया। उन्होंने फिर कानों पर ध्यान दिया, तो लगा एक स्वर है जो उनके अंदर से आ रहा है- ‘जगती मेरे सुख-दुःख की साथिन। मैं तेरे बिना कैसे रह पाऊंगा?’

दीपक बुझ चुका था। सुजान की चैतन्यता कमरे के अंधकार में विलीन थी। हृदय के चीत्कार से मष्तिस्क की ग्राह्य शक्ति क्षीण हो गई थी। दिन की पहली किरण ने जंगले से झाँका, तो उनकी चेतना वापस लौटी। उन्होंने जगती को गौर से देखा। चेहरा डरावना हो गया था। एक ताबीज़ उनकी छाती पर रखा था, कई गले में इधर-उधर लटक रहे थे। उन्होंने हाथ से ब्लाउज छुआ, उन्हें लिजलिजा-सा लगा। उन्हें आभास हुआ कि वे रो रहे हैं। अपने आप दिलासा देते हुए उन्होंने आंसू पोंछे तो वे और अधिक वेग से उमड़ पड़े।

सुबह मम्मी ने मुझे जगाया। उदास होकर बोलीं, ‘‘जगती मर गयीं।’’ मैं चारपाई से उठकर सीधा सुजान के घर पहुँचा। आँगन में लोगों की भीड़ जमा थी। जगती ताई के पलंग के पास खून पड़ा था। एक औरत ने जिज्ञासा प्रकट की, ‘‘सुना था भगत जी कह रहे थे, ऊपर का चक्कर है। बिरमदेव हैं पर खून की उल्टियाँ तो जिन्न के खटका में होती हैं?’’ ‘‘बुरा समय था बेचारी का। जब बुरा समय आता है, तो बिरमदेव जिन्न सब सवार हो जाते हैं।’’ दूसरी औरत की आँखें भर आयीं, तो उसने आँचल से आँखें पोंछी।

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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: मंतव्य 2 - राम प्रकाश अनंत का लघु उपन्यास : लालटेन
मंतव्य 2 - राम प्रकाश अनंत का लघु उपन्यास : लालटेन
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