कहानी // दुर्गा की प्रतिमा //अमिताभ वर्मा

SHARE:

चौड़ी सड़क। मध्यम आकार का मकान। छोटा-सा दरवाज़ा, मकान के पिछवाड़े। दरवाज़े से अंदर दाख़िल हों, तो सामने तंग-सा एक गलियारा पड़ता है। इसी गलियारे में...

snip_20171028163321

चौड़ी सड़क। मध्यम आकार का मकान। छोटा-सा दरवाज़ा, मकान के पिछवाड़े। दरवाज़े से अंदर दाख़िल हों, तो सामने तंग-सा एक गलियारा पड़ता है। इसी गलियारे में एक कामचलाऊ रसोईघर है। इतना छोटा, कि बाहें फैलाएँ तो दीवारों से टकरा जाएँ। गलियारे से दो सीढ़ी ऊपर एक कमरा है। कोई बारह फ़ुट बाई बारह फ़ुट का होगा।

सुबह साढ़े दस बजे इस कमरे में एक लड़की दिखा करती है। हूर या परी तो नहीं; पर सुतवाँ नाक, घुटना चूमते काले घने बाल, गेहुँआ रंग और हँसमुख चेहरा उसे भीड़ से अलग ज़रूर कर देते हैं। ग़ौर करें, तो कमरे में देखने लायक कुछ है ही नहीं उस लड़की के सिवाय। न मँहगी पेंटिंग, न सजावटी सामान - टेलीविज़न तक नहीं है इस कमरे में।

फिर भी, लड़की ख़ुश है। हर शाम साढ़े चार बजे मुँह धोने, दाँतों के बीच क्लिप फँसा कर बाल काढ़ने, सजने-सँवरने और बाहर जाने के कपड़े पहनने के बाद वह बेताबी से दीवारघड़ी ताका करती है। घड़ी की टिक-टिक में मोटर साइकिल की धक-धक का पुट आते ही उसकी बाँछें खिल जाती हैं। वह बिजली की तेज़ी से दरवाज़ा खोला करती है। एक लड़का अंदर आता है, ब्रीफ़केस कमरे में रखता है, और पाँच मिनट के अंदर दोनों फुर्र हो जाते हैं। दोनों बाज़ार में घूमते हैं, कुछ खाते हैं, बतियाते हैं, एक-दूसरे की आँखों में ख़्वाब देखते हैं, और लौट आते हैं टीन के दरवाज़ेवाले अपने स्वर्ग में।

लड़के के बाल थोड़े घुंघराले हैं। लड़की को अक्सर उन बालों में उँगलियाँ फिराने का मन होता है। लड़के को बेतरतीब बाल पसंद नहीं। लड़की को लड़के के कंधे पर हाथ रखने में मज़ा आता है - गर्दन की भूरी चमड़ी पर चूड़ियों का रंग निखर आता है।

आज भी लड़की कुछ ऐसा ही नज़ारा देख रही थी कि लड़का बोल उठा, ’’सुमि!’’

’’हूँ ऽऽऽ ... ’’ सौम्या ने जैसे नींद में कहा।

’’मुझे एक जॉब ऑफ़र मिला है। कलकत्ता में। यहाँ से दस हज़ार ज्यादा मिलेंगे हर महीने।’’

’’स ऽऽऽ च?’’ सौम्या की ख़ुमारी हवा हो गई। ’’कब जाना होगा?’’ फिर सँभलते हुए बोली, ’’वैसे तो अब भी कोई तक़लीफ़ नहीं, पर बढ़े हुए दस हज़ार रुपयों का इस्तेमाल तो हो ही जाएगा।’’

लड़का सौम्या के भोलेपन पर मुस्कराया। उसने मन-ही-मन सोचा, ’’काश! जीना उतना आसान होता जितना सौम्या समझती है।’’

उसके लिए सौम्या गुलाब पर गिरी शबनम की मानिंद थी। सूरज की किरण हो या हवा का झोंका, शबनम को सबसे बचा कर रखना पड़ता है। ज़माने की बुराइयों, अनुभवों की खटास - सबका ज़िक्र किए बिना छोटा-सा उत्तर दिया उसने, ’’उनके पास तीन कैंडिडेट हैं। पता नहीं मेरा सेलेक्शन होगा भी या नहीं।’’

उसके सपनों के देवता से कोई बेहतर-भी हो सकता है, यह सौम्या की कल्पना से बाहर था। वह बोली, ’’आप ही का सेलेक्शन होगा, सुमित! अपने को अंडर एस्टिमेट क्यों करते हैं?’’

दूसरे दिन सौम्या ने भगवान की तस्वीर के आगे थोड़ी ज़्यादा देर तक हाथ जोड़े।

एक महीना हो गया सौम्या-सुमित को कलकत्ता आए। काली-पीली टैक्सियाँ, टन टन करती ट्रामें, हाथ रिक्शे, नुक्कड़ पर एग रोल की दूकान, और कलाई में शंख का कड़ा पहने मकान मालकिन - सौम्या के जीवन में एक नया अध्याय जुड़ गया। बस, शाम को सुमित के साथ घूमना बन्द हो गया। वह सुबह जल्दी जाता और शाम ढले घर लौटता। कभी-कभी तो रात हो जाती। सौम्या खिड़की के पास खड़ी रहती नीचे गली की ओर टकटकी लगाए। कॉरपोरेशन के टिमटिमाते बल्ब के गंदले उजाले में भी उसे सुमित का साया साफ़ नज़र आ जाता। उसे देखते ही सौम्या के चेहरे पर हज़ारों वॉट के बल्ब जैसे एक साथ चमक उठते। वह ज़ीने से दौड़ती हुई नीचे उतरती, दरवाज़ा खोलती। परेशान-सा सुमित अंदर आता। खाना खाने के बाद पति-पत्नी में बातें होतीं। सौम्या के पतंग की डोर से लम्बे सवालों का जवाब सुमित हाँ-हूँ में देता और जल्दी ही नींद के आगे घुटने टेक देता। सौम्या मुस्कराती, सुमित के बालों में उँगलियाँ फिराती, तनख़्वाह में बढ़े दस हज़ार रुपयों से किश्तों में फ्रि़ज ख़रीदें या टेलीविज़न, सोचती, और सो जाती।

सौम्या की मुस्कुराहट पूनम के बाद के चाँद की तरह घटती गई। सुमित को सिर्फ़ चार हज़ार रुपयों का फ़ायदा हुआ, क्योंकि कम्पनी की सामर्थ्य उससे अधिक की न थी। चार हज़ार रुपये की बढ़त की बलिवेदी पर सौम्या की मुस्कुराहट ही सती नहीं हुई, सुमित का आराम, चैन और स्वास्थ्य - सब न्यौछावर हो गए। इतवार की छुट्टी गई। रात दस बजे तक, और कभी-कभी रात भर दफ़्तर में सिर ख़पाना आम बात हो गई। तीन महीने पहले तक हमेशा ख़ुश रहने वाला सुमित हमेशा चिड़चिड़ा, परेशान रहने लगा। ख़ाँसी ने उसके ठहाकों को बेदख़ल कर दिया। सौम्या के टेलीविज़न-फ्रि़ज के ख़ुशगवार ख़्वाब परेशानी की भेंट चढ़ गए।

सौम्या अक्सर सोचती, यह तो लेने के देने पड़ गए। सुमित का तेज़ी से गिरता स्वास्थ्य तनख़्वाह में सिर्फ़ चार हज़ार रुपयों की बढ़ोत्तरी से ज़्यादा कचोटता उसे। गर्मी की एक दोपहर छत से लटके पंखे को घूमता देख उसने सोचा, ’’ज़िंदग़ी भी क्या-क्या खेल खिलाती है। आदमी सोचता कुछ और है, और हो जाता है कुछ और!’’ उसे सुमित पर गर्व भी हुआ और प्यार भी आया। आख़िर उसी की ख़ुशी के लिए तो सुमित इतनी ज़द्दोज़हद कर रहा है! अभी, जब वह पंखे की ठंडी हवा में लेटी है, सुमित न जाने किस परेशानी से जूझ रहा होगा। पता नहीं, उसने ठीक तरह से खाना भी खाया होगा या नहीं। उसे एक पल के लिए ही सही, आराम करने की फ़ुर्सत मिली भी होगी या नहीं।

वह खिड़की के पास परेशान-सी खड़ी हो गई। सड़क उसके जीवन की ही तरह सूनी थी, जिस पर लू के थपेड़े साँय-साँय चल रहे थे उसकी मुश्क़िलों की तरह। उसकी निगाह बरबस ही अटक गई तीन बच्चों पर। नीली स्कूल ड्रेस में, कंधे पर बस्ता लटकाए, बच्चे उत्साह में चले जा रहे थे, गर्मी से पिघलती सड़क और लू के थपेड़ों से बेख़बर।

सौम्या के मस्तिष्क में एक विचार कौंधा - क्या मैंने पढ़ाई-लिखाई सिर्फ़ पंखे की हवा खाने या खाना पकाने के लिए की थी? ख़ास करके अब, जब मेरे पति के कंधे गृहस्थी के बोझ से चरमरा रहे हैं, क्या मैं उन्हें थोड़ा-सा सहारा भी नहीं दे सकती? सुमित का गिरता स्वास्थ्य मेरे आत्मसम्मान को भला कैसे गँवारा हो रहा है? आज तो नारी आत्मनिर्भर है। पायलट, वैज्ञानिक, सैनिक - नारी हर रूप में मौजूद है आज।

बस, सौम्या ने कमर कस ली। मकानमालकिन के पास गई, पड़ोसियों के पास गई, न जाने किस-किस से क्या-क्या बात की, पर एक सप्ताह बीतते-न-बीतते उसके घर दो बच्चे आने लगे। वह दोपहर में उन बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती। सौम्या हँसमुख भी थी, कुशाग्र बुद्धि भी। सौम्या को बच्चे भाए, बच्चों को सौम्या। हफ़्ते-दो-हफ़्ते में छात्रों की संख्या दो से चार और चार से आठ हो गई। सौम्या दो महीनों में पाँच-साढ़े पाँच हज़ार रुपये महीना कमाने लगी।

थोड़ा-थोड़ा ही सही, जैसे-जैसे सौम्या की आमदनी में इज़ाफ़ा होता गया, उसका आत्मविश्वास भी बढ़ता गया। कलकत्ता की उमस भरी रात में सुमित का बार-बार जाग कर घड़े का पाना पीना सौम्या से देखा न गया। सौम्या ने किश्तों पर फ्रि़ज ख़रीद लिया। उस रात सौम्या ने अच्छे कपड़े पहने, आइसक्रीम जमाई, और बैठ गई सुमित के इंतज़ार में पलक-पाँवड़े बिछा कर। सुमित रोज़ रात की तरह क़रीब दस बजे घर में दाख़िल हुआ। सौम्या को सजी-धजी देख कर चौंका - ’’क्या बात है, भाई? कहीं से आ रही हो क्या?’’

सौम्या भला उस छोटे-से घर में फ्रि़ज का क्या सरप्राइज़ दे पाती! नई चीज़ें चमकती भी कुछ ज़्यादा हैं। सुमित की नज़र फ्रि़ज पर पड़ी तो आग बबूला हो उठा - ’’अब तुम इतनी मँहगी चीज़ें भी ख़रीदने लगीं बिना पूछे-माते? इधर मेरी नौकरी पर बनी है, और उधर तुम हो कि फ़िज़ूलख़र्ची में पैसे उड़ाए जा रही हो! कैसे भरेंगे इसके पैसे? आख़िर तुम कब समझोगी कि जब दो जून की रोटी को ही लाले पड़े हों, तो ... ख़ैर! छोड़ो। भला तुम समझ भी कैसे सकती हो? तुम्हें सजने-सँवरने से फ़ुरसत मिले, तब तो!’’

सौम्या को काटो, तो ख़ून नहीं! उसका सर कभी अपराघबोघ से झुक जाता, तो कभी अपमान से उसका हृदय सुलग उठता। दाँतों में साड़ी का पल्लू दबाए उसने सिसकियाँ जज़्ब कीं, सुमित के लिए खाना परोसा, और औंधे मुँह निढाल हो गई बिस्तर पर। दिल में कहीं एतबार था कि सुमित हौले-से उसकी पीठ पर हाथ फेरेगा, फुसफुसाते हुए पूछेगा, ’’सो गईं क्या?’’, और तब तक खाना नहीं खाएगा जब तक वह गुस्सा थूक कर मुस्करा न देगी।

लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। सौम्या को लेटे-लेटे ही पता लग गया कि सुमित ने कब खाना खा लिया, और कब वह बिस्तर की दूसरी तरफ़ आ कर लेट गया। कितनी जल्दी नींद भी आ गई उसे!

आघी रात को सौम्या उठी, और आइसक्रीम बहा डाली नाली में। आइसक्रीम के साथ न जाने क्या-क्या और बहा डाला आँसुओं ने। आत्मनिर्भर होने का उसका निश्चय और दृढ़ हो गया।

सौम्या ने उस दिन से पढ़ाने में और ज़्यादा दिल लगाना शुरू कर दिया। पहले सिर्फ़ एक घंटा पढ़ाती थी; अब वह दोपहर तीन बजे से शाम सात बजे तक पढ़ाने लगी। क़रीब तीस बच्चे पढ़ने आते उससे।

उसे वह दिन अब बहुत दूर नहीं लगा जब वह अपना एक छोटा-सा स्कूल चला पाएगी। नन्हे-नन्हे बच्चे रिक्षे में पहुँचेंगे उसके स्कूल। वह उन्हें बहुत प्यार से पढ़ाएगी, उनकी छोटी-से-छोटी ज़रूरत का ख़याल रखेगी।

एक दिन शाम सात बजे वह बच्चों के आख़िरी बैच को विदा कर ही रही थी कि सुमित घर में दाख़िल हुआ। आम तौर पर पत्नी पति को घर जल्दी आया देख कर ख़ुश होती है, लेकिन सौम्या भौंचक रह गई। मानो उसकी चोरी पकड़ी गई हो। सुमित इन दिनों छोटी-छोटी बातों पर उसे झिड़क दिया करता था। आज तो जैसे पहाड़ ही टूट पड़ा।

’’अच्छा! तो अब दो रुपल्ली का ट्यूशन लेना भी शुरू कर दिया तुमने। तुम्हारे ऐशो-आराम के लिए मेरी तनख़्वाह काफ़ी नहीं, यह जताने का अच्छा तरीक़ा ढूँढा है तुमने!’’

सौम्या में आज पता नहीं कहाँ से इतना आत्मविश्वास आ गया। वह न तो हिचकिचाई, न ही घबराई। बस, इतना बोली, ’’जिस बात के लिए आप आज मुझे ताना दे रहे हैं, एक दिन उसी बात के लिए भगवान् का शुक्र अदा करेंगे।’’

पति-पत्नी के बीच तनाव और गहरा गया। जो दो प्राणी टीन के दरवाज़े के घर में एक-दूसरे की आँखों में स्वर्ग तलाशा करते थे, वे बेहतर सुविधाओं वाले घर में एक-दूसरे से कतराने लगे। सुमित का तो जैसे मन ही उचट गया। रोज़ तड़के दफ़्तर के लिए रवाना होने वाला सुमित अब कभी आठ बजे निकलता तो कभी नौ बजे। कभी-कभी तो साढ़े नौ भी बज जाते। वापसी का भी वही हिसाब। कभी छः बजे लौट आता तो कभी रात के दस भी बजा देता।

सौम्या को धक्का-सा लगा। आदमी अपनी दिनचर्या में इतनी फेरबदल तभी करता है जब किसी को रंगे-हाथ पकड़ना चाहता हो, या किसी से बचना चाहता हो। रंगे-हाथ पकड़ना! ऐसा कौन-सा अपराध कर रही थी सौम्या जो सुमित उसे रंगे-हाथ पकड़ना चाहता था?

सौम्या का मन आक्रोश से भर उठा - ’’जब ये मेरी जासूसी कर सकते हैं, तो मैं भी ऐसा ही करूँगी।’’ पहले वह सुमित की जेब में रखे काग़ज़ के टुकड़ों पर ध्यान न देती थी। पहले सुमित के कपड़े बिना निरीक्षण के धो दिए जाते थे। पहले वह सुमित के हाथ-ख़र्च का ब्यौरा नहीं रखती थी। अब सब बदल गया। अटूट प्रेम के कल्पवृक्ष को संदेह का दीमक चाटने लगा।

सौम्या ने देखा, सुमित की जेब में पड़े बस-ट्राम के टिकट रोज़ एक समान नहीं होते। जेब में अक्सर मूँगफली के छिलके और दानों के टुकड़े मिलते। कभी-कभी उसकी कमीज़-पतलून पर गीली मिट्टी के दाग़ होते। एक दिन घास के टुकड़े भी चिपके मिले।

सौम्या का माथा ठनका। वह समझ गई, सुमित दफ़्तर के अलावा भी कहीं और जाता था! अक्सर किसी बग़ीचे में बैठता-लेटता था। किसके साथ? वह कौन थी जिसकी वजह से सुमित सौम्या से उखड़ा-उखड़ा रहता था?

दशहरे को पाँच दिन बाक़ी थे। सौम्या के छात्रों के दशहरे के दो दिन बाद तक छुट्टी के अनुरोध की वजह से ट्यूशन सात दिनों के लिए बंद था। सुमित की छुट्टी सिर्फ़ दशहरे के दिन थी। वह नौ बजे दफ़्तर के लिए निकला तो सब्ज़ी ख़रीदने के बहाने सौम्या भी झोला ले कर निकल पड़ी।

गली के आगे सुमित बाईं ओर मुड़ा बस-स्टॉप की ओर, और सौम्या दाईं ओर, हाट की तरफ़। दो अलग-अलग रास्तों पर मुड़ते समय पति-पत्नी ने ऐसे हाथ हिलाया जैसे जान छूटी हो।

दस कदम बढ़ कर सौम्या ने पीछे मुड़ कर देखा। सुमित बस स्टॉप की ओर बढ़ा जा रहा था। सौम्या भी पलट कर पेड़ों, गाड़ियों, खोमचों की आड़ में सुमित के पीछे हो ली। सुमित ने दो बार पलट कर देखा, पर सौम्या दोनों बार पकड़े जाने से बाल-बाल बच गई।

सुमित के एक पैर को बिबादी बाग़ की खचाखच भरी बस के पायदान के एक छोटे-से हिस्से पर जगह मिली। दरवाजे़ के हैंडल को पकड़ने की स्पर्धा करते दर्ज़नों हाथों में एक हाथ सुमित का भी था। उसका दूसरा पैर और ब्रीफ़केस वाला हाथ हवा में झूल रहा था।

सौम्या का कलेजा मुँह को आ गया। सोचा, सुमित को बस से उतर कर अगली बस का इंतज़ार करने को कहे, लेकिन वह बस से क़रीब दस फ़ुट दूर थी। जब तक बस के पास पहुँच पाती, बस चल पड़ी।

दफ़्तर जानेवालों की चाल की चुस्ती सुमित की चाल में न थी। प्रेमिका से छुप कर मिलनेवालों की चाल का उमंग भी न था। वह तो बस, उद्देश्यहीन-सा चल रहा रहा था। कभी एक दूकान के आगे ठिठकता तो कभी दूसरी के। इसी तरह पंद्रह-बीस मिनट की चहलकदमी के बाद सुमित एक पार्क में दाख़िल हो गया।

सौम्या ठिठक गई। थोड़ी देर तक सुमित को ताकती रही। सुमित निश्चिंत भाव एक पेड़ से पीठ टिका कर बैठ गया था, शून्य में कुछ तलाशता। सौम्या हैरान थी - ’’ये आराम से यहाँ क्यों बैठ गए हैं? दफ़्तर क्यों नहीं जा रहे?’’

सौम्या ने पर्स से एक चिट निकाली, सुमित के दफ़्तर का पता पढ़ा, और अनुमान लगाया कि दफ़्तर पास ही कहीं होगा। दस मिनट के अंदर वह सुमित के दफ़्तर के सामने थी। दफ़्तर के दरवाज़े पर पीतल के दो मोटे-मोटे ताले लगे थे। दीवार पर बंगला में नोटिस लगी थी।

’’ओह! तो सुमित के दफ़्तर में भी दशहरा की छुट्टी है, जिसकी नोटिस लगी है। देखो तो! अब सुमित को मेरा इतना-सा साथ भी मंज़ूर नहीं कि छुट्टी घर में बिताएँ।’’

सौम्या सीढ़ियाँ उतरने लगी। तभी ख़याल आया, ज़रा ये भी पता कर लिया जाए कि छुट्टी कब से कब तक है। सीढ़ियाँ दोबारा चढ़ कर वह एक बार फिर दफ़्तर के सामने खड़ी हो गई। बंगला पढ़ना उसे आता न था। सोच ही रही थी कि क्या किया जाए, कि एक आदमी चाय के गिलास लिए गुज़रा। सौम्या को कुछ पूछने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। वह ख़ुद ही बोल उठा, ’’इधर छुट्टी हो गया! खैला सोमाप्तो!’’

’’छुट्टी हो गई? अरे आज ऑफ़िस ख़ुला ही कब जो छुट्टी हो गई?’’

’’ऑपिश पोनोरो दीन थेके बौंदो।’’

’’ऑफ़िस पंद्रह दिनों से बंद है? क्यों? ख़ुलेगा कब?’’

’’क्या जाने कौब खुलेगा, खुलेगा भी कि नेहीं। कोम्पानी का बाबू लोग को भी पाता नेहीं। ओ दैखो, ए बाबू रोज आता है। इसको मालूम होगा।’’ चायवाले ने सीढ़ियाँ चढ़ कर आते सुमित की ओर इशारा किया।

सौम्या सुमित को देख कर मुस्कराई - कुछ वैसे ही जैसे टीन के दरवाज़े वाले घर में मुस्कराया करती थी। हकबकाया-सा सुमित भी मुस्करा उठा। इससे पहले कि कोई कुछ बोल पाता, सौम्या ने सुमित का हाथ थामा और सीढ़ियाँ उतरने लगी।

’’तुम ... यहाँ?’’ सुमित ने झेंपते हुए पूछा।

’’हाँ!’’ छोटा-सा उत्तर दिया सौम्या ने।

’’मैं तुम्हें इस बारे में बताने ही वाला था ... ’’ सुमित सफ़ाई देने लगा।

सौम्या चुप रही।

दोनों बस-स्टॉप की ओर बढ़ने लगे।

’’तुम यहाँ आईं क्यों?’’

’’अपनी गृहस्थी और आपके सम्मान की रक्षा के लिए!’’

सुमित के मुँह में शब्द आने से पहले बस आ गई। बस में ज़्यादा भीड़ नहीं थी। सौम्या महिलाओं वाली सीट पर बैठ गई। सुमित को बस में पीछे सीट मिल गई।

लगभग आधे घंटे की यात्रा के दौरान पति-पत्नी विचारों के झंझावात झेलते रहे। बस से उतरने से ले कर घर पहुँचने तक दोनों चुपचाप रहे। सुमित चुपचाप बैठ गया कोने में। सौम्या कपड़े बदल कर रसोई में घुस गई।

सुमित ने धीरे से कहा, ’’मेरे टिफ़िन का डिब्बा भी है।’’

सौम्या ने सामान्य लहजे में कहा, ’’हाँ, बस थोडा़-बहुत कुछ और बना लेती हूँ। डिब्बे का खाना भी गर्म कर लूँगी।’’

सुमित के दिल का चोर ऐसे सामान्य व्यवहार के लिए तैयार न था। अगर सौम्या रूठती, या ग़ुस्सा होती, तो सुमित भी आसमान सर पर उठा लेता। बोलता, कि सौम्या के इसी अप्रिय आचरण ने उसे पंद्रह दिनों तक चुप रहने, आफ़िस जाने का नाटक करने पर मजबूर कर दिया था। लेकिन, सौम्या तो यूँ शान्त थी जैसे कुछ हुआ ही न हो।

सौम्या ने खाना परोसा। दोनों चुपचाप खाते रहे। खाना ख़त्म हुआ। सौम्या ने बर्तन समेटे। सुमित अख़बार पढ़ने का नाटक करने लगा। सौम्या रसोई से बाहर आ कर सुमित के पास बैठ गई। बोली कुछ नहीं, बस, सुमित का हाथ थाम लिया उसने।

सहानुभूति भरा स्पर्श पाते ही सुमित के अन्दर न जाने कब का ज्वार फूट पड़ा। उसकी आँखें छलक उठीं। ’’मैं क्या करता? मेरा क्या दोष है, बोलो? कैसे बताता कि मेरी कम्पनी अचानक बन्द हो गई?’’

सौम्या ने सुमित के बालों में उँगलियाँ फेरते हुए कहा, ’’कम्पनी के बंद होने में आपका कोई दोष नहीं। आप तो मन लगाकर, ख़ून पसीना एक कर, काम करते रहे। पंद्रह दिन इंतज़ार भी कर लिया कि कम्पनी शायद फिर ख़ुल जाए। अगर ख़ुल गई और नौकरी वापस मिल गई, तो बहुत अच्छी बात है। लेकिन इसके लिए वहाँ रोज़-रोज़ जाने की क्या ज़रूरत है? एक फ़ोन ही काफ़ी होगा।’’

’’तुम समझती नहीं, सुमि! अगर मैं रोज़ बाहर नहीं जाऊँगा तो मुहल्लेवालों को पता चल जाएगा कि मैं बेकार हूँ। क्या इज़्ज़त रह जाएगी हमारी? मकान मालिक घर ख़ाली करने को कहेगा। दुकानदार सामान देने में हिचकिचाएँगे।’’

’’आपकी बात सोलहों आने सही है। लेकिन काम पर जाने का नाटक आख़िर कब तक चलेगा? सच कभी-न-कभी सामने आ ही जाएगा। तब कितनी भद होगी!’’

’’तो क्या करूँ? दूसरी नौकरी इतनी जल्दी कहाँ मिलेगी? और वह भी इस परदेस में? जब तक नौकरी हाथ में रहती है, दूसरी नौकरी के प्रस्ताव आते रहते हैं। लेकिन हाथ से नौकरी जाते ही सारे प्रस्ताव भी बंद हो जाते हैं। कोई बात करने को तैयार भी होता है तो पिछली तनख़्वाह से कम पैसों पर।’’ सुमित रुआँसा हो गया।

’’बात बिलकुल सच है। हमारी समस्या गम्भीर है। इस अनजान शहर में नौकरी के बिना कितना समय काट लेंगे हम? एक महीना? दो महीने? क्या गारंटी है कि दो महीनों में कम्पनी वापस ख़ुल जाएगी या दूसरी नौकरी मिल जाएगी? किसके आगे हाथ फैलाएँगे? और, कोई देगा भी तो क्यों और कब तक?’’

सुमित ने हाथों में सर थाम लिया। ’’काश! दस हज़ार रुपयों के लालच में मैंने नौकरी न छोड़ी होती। अब तो वह लोग भी जवाब नहीं दे रहे।’’

’’ऐसा नहीं कि कोई रास्ता ही नहीं हमारे आगे। एक रास्ता है।’’

’’कौन-सा रास्ता?’’ सुमित उत्सुक हो गया।

’’बच्चों को पढ़ाने का।’’

’’मैं भला बच्चों को क्या पढ़ाऊँगा? और उससे क्या कमाई हो जाएगी?’’

’’बच्चे मुझसे बहुत सारे विषय पढ़ते हैं, पर कुछ विषय पढ़ने किसी दूसरे के पास जाते हैं। मुझे मालूम है, आपको वे सारे विषय बड़ी अच्छी तरह से आते हैं। और रही पैसों की बात, तो वो कुछ इतने कम भी नहीं।’’

’’देखो! क्या गारंटी है कि बच्चे मुझसे पढ़ेंगे? और कितने पैसे मिल जाएँगे इस माथापच्ची से?’’

’’बच्चों को अभी दो जगहों पर जाना पड़ता है। अगर सारे विषय एक ही छत के नीचे अच्छी तरह पढ़ा दिए जाएँ तो वे कहीं और क्यों जाएंगे? रही कमाई की बात, तो हर बच्चा सात सौ रुपये देता है।’’

’’वही तो! छः-सात बच्चों को पढ़ा भी दिया तो क्या मिलेगा? चार-पाँच हज़ार रुपये?’’

’’बच्चों की संख्या छः-सात नहीं, तीस है। आपने उस दिन सिर्फ़ एक बैच देखा था। जहाँ कुछ नहीं मिल रहा, वहाँ इक्कीस हज़ार रुपए मिल जाएँगे। दफ़्तर जाने का ख़र्च भी बचेगा। हम तो दस हज़ार के लालच में शहर और लगी-लगाई नौकरी छोड़ आए थे! साल बीतते-न-बीतते हमारे पास बहुत से बच्चे आने लगेंगे।’’

’’इक्कीस हज़ार! कहाँ चालीस हज़ार की नौकरी और कहाँ इक्कीस हज़ार की कमाई! ... लेकिन ये कमाई अपनी होगी। आत्मसम्मान की होगी। किसी का भविष्य बनाने की होगी। कम्पनी ख़ुलने या दूसरी नौकरी की उम्मीद में बैठने से कहीं अच्छा है कुछ सार्थक करना। ठीक है!’’ सुमित उत्साहित हो गया।

शाम हो रही थी। सौम्या ने बत्ती जला कर भगवान के आगे हाथ जोड़े। सुमित ने भी हाथ जोड़े। ढाक की आवाज़ और जयजयकार सुनाई दी। दुर्गा की प्रतिमा पंडाल में स्थापित होने जा रही थी।

------------------

परिचय :

अमिताभ वर्मा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय प्रौद्योगिक संस्थान से खनन अभियांत्रिकी में स्नातक हैं। उन्होंने निजी क्षेत्र की विभिन्न कम्पनियों में पैंतीस वर्ष कार्यरत रहने के बाद 2016 में अवकाश ग्रहण किया। वे आकाशवाणी से बतौर समाचार सम्पादक और समाचार वाचक सम्बद्ध रहे हैं। उनके तेरह-तेरह एपिसोड के दो धारावाहिक नाटक - बाल-श्रम के विरुद्व ’अब ऐसी ही सुबह होगी’ तथा कन्या-संरक्षण पर ’नन्ही परी’ - आकाशवाणी पर प्रसारित हुए। वे सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के टेलिविज़न तथा रेडियो कार्यक्रमों में अभिनय तथा पटकथा लेखन द्वारा योगदान करते रहे है। उनकी रचनाओं का संकलन, ’कृतिसंग्रह’, बहुत सराहा गया। उन्होंने एक अंग्रेज़ी पुस्तक, ’स्टेइंग इन्सपायर्ड’, भी लिखी है। अभी हाल में उनकी ई-बुक - कहानी-संग्रह ’उसने लिखा था’ - प्रकाशित हुई है।

COMMENTS

BLOGGER: 1
रचनाओं पर आपकी बेबाक समीक्षा व अमूल्य टिप्पणियों के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.

स्पैम टिप्पणियों (वायरस डाउनलोडर युक्त कड़ियों वाले) की रोकथाम हेतु टिप्पणियों का मॉडरेशन लागू है. अतः आपकी टिप्पणियों को यहाँ प्रकट होने में कुछ समय लग सकता है.

नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: कहानी // दुर्गा की प्रतिमा //अमिताभ वर्मा
कहानी // दुर्गा की प्रतिमा //अमिताभ वर्मा
https://lh3.googleusercontent.com/-s85vRuY5Qtk/WgFvGrsoOgI/AAAAAAAA8Zs/qmjuSR-_ECw5Ypu1QPjXST4FsYREtcKFQCHMYCw/snip_20171028163321_thumb?imgmax=800
https://lh3.googleusercontent.com/-s85vRuY5Qtk/WgFvGrsoOgI/AAAAAAAA8Zs/qmjuSR-_ECw5Ypu1QPjXST4FsYREtcKFQCHMYCw/s72-c/snip_20171028163321_thumb?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2017/11/blog-post_7.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2017/11/blog-post_7.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content