स्मृतियों में हार्वर्ड - भाग 4 // सीताकान्त महापात्र // अनुवाद - दिनेश कुमार माली

SHARE:

भाग 1 भाग 2   भाग 3 9. कार्लो फुएंटेस – अजन्मा क्रिस्टोफर मैक्सिको के प्रसिद्ध उपन्यासकार, लेखक, आलोचक और राजदूत कार्लो फुएंटेस सेंटर फॉर इ...

भाग 1 भाग 2  भाग 3

9. कार्लो फुएंटेस – अजन्मा क्रिस्टोफर

मैक्सिको के प्रसिद्ध उपन्यासकार, लेखक, आलोचक और राजदूत कार्लो फुएंटेस सेंटर फॉर इन्टरनेशनल एफेयर (सीएफआईए) के कूलिज हॉल की छह ठवीं मंजिल पर मेरे पड़ोसी थे। हम प्रायः कैंटीन में चाय या लंच के समय साहित्य पर चर्चा करते थे। वह भी एक वर्ष के लिए सीफा में लैटिन अमेरिकन स्टडीज के प्रोफेसर रॉबर्ट एफ कैनेडी के पास आए थे। उनका साल पूरा होने जा रहा था। उन्होंने एक साल पहले कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में साइमन बॉलीवर प्रोफेसर के रूप में काम किया था। हार्वर्ड वाले कैंब्रिज विश्वविद्यालय को कैंब्रिज कहते है,क्योंकि हार्वर्ड में स्थित छोटे शहर कैंब्रिज और हार्वर्ड की स्थापना इंग्लैंड के कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के शिक्षित लोगों ने की थी।

हम अक्सर उनके कमरे में या मेरे कमरे में एक-दूसरे से बातें करते थे। हमारी बातों के भीतर ओक्टेविओ पाज़ आ जाते थे। मैक्सिको के विश्व प्रसिद्ध कवि और हम दोनों के दोस्त थे। अक्सर हम विभिन्न विषयों पर जैसे तीसरी दुनिया के आर्थिक विकास के साथ जुड़ी समस्याएं, पश्चिमी देशों की उदासीनता, भारत और मेक्सिको जैसे देशों की प्राचीन संस्कृति और आधुनिक समय में होने वाले परिवर्तनों के साथ परंपरा के समायोजन से संबंधित समस्याएं, इतिहास और उपन्यासों के बीच घनिष्ठ संबंध, अंग्रेजी अनुवाद में उनके द्वारा पढ़ी हुई मेरी कविताएं, ओड़िशा के आदिवासी लोगों की मौखिक कविताओं पर मेरा अनुवाद, अभी-अभी पूरे हुए उनके उपन्यास 'क्रिस्टोफर अनबॉर्न' और उनके निबंध संग्रह 'माईसेल्फ विद अदरर्स' (जिन्हें वह पूरा करने जा रहे थे) चर्चा करते थे।

कार्लो को पढ़ाई से प्यार था। मुझे भी ऐसा ही महसूस हुआ। वे रचनात्मक लेखन और अध्यापन की निम्न शब्दों में तुलना करते है: "लेखन अत्यंत अकेला व्यवसाय है; आप अपने आपमें बहुत ज्यादा हैं। यह हवा में होने जैसा है। अध्यापन युवा लोगों के संपर्क में रहने का एक अच्छा तरीका है, उनके विचारों से अपने रसों को फिर से प्रवाहित करने के लिए।"

कार्लो कहते हैं कि स्पैनिश साहित्य पर सर्वेंट्स का काफी प्रभाव है। उन्होंने कहा कि 'क्रिस्टोफर अनबॉर्न' ' में डॉन कुइज़ोटेस की 'ला मांचा' परंपरा का पालन करने की भरपूर कोशिश की है, जो स्टीम, दिइडो आदि की रचनाओं में परिलक्षित होती है। इसके अतिरिक्त, स्टेंडहॉल, बाल्ज़ैक और दोस्तयोवेस्की की रचनाओं में व्याप्त वाटरलू परंपरा को आत्मसात करने का भी प्रयास किया था। मैंने गौर किया है कि जितना मैं दोस्तयोवेस्की के उपन्यासों का सम्मान करता हूँ, उतना वे भी। उन्होंने आधुनिक उपन्यासों के अवक्षय के बारे में अपनी राय दी। उनके अनुसार इसके तीन कारण हैं: कथावस्तु का क्षयमान संकुचन, शैली में सांद्रता का अभाव और महाकाव्यों में दृष्टिकोण की कमी। शायद ये तीनों कारण एक दूसरे से जटिलता से जुड़े हुए हैं। इस संबंध में उनके कई अनुत्तरित सवाल हैं।

"वर्तमान साहित्य क्षणिक चीजों के साथ ही क्यों जुड़ा रहेगा ? भविष्य के सपने ,विगत युग के घाव और उत्साह के पीछे क्यों नहीं देखेगा? हम अपने समय के प्रतीक क्यों नहीं खोजेंगे ? क्या उसके लिए उचित कथा-वस्तु और भाषा-शैली की खोज नहीं करेंगे ? हम इतने कम में क्यों संतुष्ट हैं? हमारे सामने बड़ा कैनवास, पृष्ठभूमि कहां है? “

मैं उनसे पूरी तरह सहमत हूं। लेकिन मुझे आश्चर्य है कि अनंत काल हमेशा हमारे पहुंच से परे है। क्या काम्यू का ‘महामारी’ या हेमिंग्वे का 'द ओल्ड मैन एंड द सी’ हृदयस्पर्शी उपन्यास नहीं है ? क्या कोएडीसी ने 'डिसग्री' जैसे उपन्यास नहीं लिखे हैं? यह सच है कि होमर से कज़ानजाकिस, टॉल्स्टॉय से गार्सिया मार्केज़ ( द हंड्रेड इयर्स ऑफ सोलीट्यूड ) और मारिया वर्गास (द फिस्ट ऑफ द गोट) के उपन्यासों में महाकाव्य की परंपरा मिलती है। वह भी मेरे विचारों से पूरी तरह सहमत हुए। मगर क्षणिक अनन्त के आह्वान के लिए दक्षता की आवश्यकता है। इसके लिए बहुत से लोगों ने पहले कोशिश की थी, मगर विफल रहे। कार्लो स्पेनिश उपन्यास के क्षेत्र में प्रसिद्ध कारवेंटस पुरस्कार से पुरस्कृत थे, अपने समग्र उपन्यास और अन्य रचनाओं के लिए। मैंने उनके नवीनतम उपन्यास के अंतिम मसौदे को पढ़ा था। हमने उस पर भी कुछ चर्चा की थी।

वह मेरी राय से सहमत थे कि उनका उपन्यास महत्वाकांक्षा पर आधारित एवं सामान्य स्पेनिश उपन्यासों के प्रवाह का व्यतिक्रम था। उपन्यास का नायक अजन्मा शिशु है। उपन्यास में नौ अध्याय हैं। बच्चे के गर्भ के नौ महीनों के लिए एक-एक अध्याय समर्पित है। "यह एक अलग दृष्टिकोण से मैंने कथावस्तु के प्रवाह में मैक्सिको के विगत पांच सौ वर्षों के इतिहास को बहुत ही सूक्ष्म तरीके से प्रयोग में लाया है।" एक हल्के स्वर में षड्यंत्रकारी की तरह वे कहने लगे, "क्या हम सभी क्रिस्टोफर नहीं हैं? क्योंकि हमने अभी तक कोई जन्म नहीं लिया है। अभी तक हम इतिहास के अंधेरे से, माँ के गर्भ से पृथ्वी के विशाल आंगन पर नहीं आए हैं। उपन्यास में मैं कुछ कहना चाहता हूँ, मानो सपने में, हमारे इतिहास के साथ, हमारे पूर्वजों के साथ, हमारे माता-पिता के साथ और हमारे जीन्स के साथ है।"

उन्होंने आगे कहा कि इस पुस्तक का औपचारिक विमोचन अमेरिका में कोलंबस के आगमन के पांच सौ वर्ष के अवसर पर किया जाएगा। मैंने उनसे पूछा, “ क्या आपने क्रिस्टोफर कोलंबस के नाम पर उपन्यास के नायक का नाम तो नहीं रखा है?” मुस्कराते हुए उन्होंने मना किया और कहा कि यह केवल संयोगवश है।

मैंने उन्हें अंग्रेजी में अनूदित मेरा एक कविता-संग्रह और भारतीय आदिवासियों की मौखिक कविताएं भेंट किया था। बाद वाला संकलन मेरे द्वारा अनूदित एवं संपादित था, जिसका शीर्षक 'द अवेकन्ड विंड' था। जिसमें आदिवासी जीवन का सार्वभौमिक दृष्टिकोण, व्यक्ति, समूह, पूर्वज, प्रकृति, देवता सभी को याद करते हुए एज़्टेक, इंका और पूर्व संस्कृतियों की इतिवृत दर्शाया गया था।उनकी जीवन-शैली में निर्बाध शांति की तलाश के महत्व, परिवार और गांव की बड़ी सत्ता जो सीमित व्यक्तिगत सत्ता को मजबूत बनाती है, मौत के प्रति स्वाभाविक दृष्टिकोण सभी उनके आराध्य आदर्श थे। उनका मानना था कि आधुनिक समाज को इनका पालन करना चाहिए। ये सब मेक्सिको की सांस्कृतिक परंपरा में भी ध्यान देने योग्य हैं। राजनीतिक-आर्थिक परिवर्तन की वजह से यह परंपरा निश्चित रूप से आहत हुई है। लेकिन यह अभी भी जीवित है और इसे जीवित रखना चाहिए। सन 1591 में हर्नैंड कॉर्टिज के आगमन और मेक्सिको के स्पेनिश साम्राज्य का हिस्सा बनने से पहले मेक्सिको उस उच्च सांस्कृतिक समुदाय का एक हिस्सा था, जिसमें चीन, जापान, भारत, इक्वाडोर, पेरू, पोलिनेशिया आदि शामिल थे। उस समय मेक्सिको का टियोतिहुआकन दुनिया का सबसे बड़ा शहर था और सबसे विकसित संस्कृति का प्रतीक भी। शहर में दो लाख लोगों की आबादी थी। जब मैंने उनसे मेरे टियोतिहुआकन जाने के बारे में बताया तो उन्होंने मेरे साथ इस बारे में व्यापक चर्चा की। सूर्य पिरामिड, चंद्र पिरामिड और दोनों के संयोग से अल्प-दैर्ध्य मृत्यु के रास्ते की बात, उत्खनन के बाद प्राचीन सभ्यता चर्चा के विषय बने। सूर्य-आराधना के लिए एक जवान आदमी की बलि देकर उसका खून छाया और उजाला देखकर सूर्य भगवान को अर्पित किया जाता था। पृष्ठभूमि इस प्रकार थी: एज़्टेक के सामूहिक विचार थे कि सूर्य हमें रोज किरणें देते हैं। वह सभी अनाजों (विशेष रूप से मक्का, जो वहाँ पैदा होता था) के जनक हैं। वह हर सुबह उगते हैं और हर शाम को अस्त हो जाते हैं। लेकिन किरण बांटते-बांटते किसी दिन सूर्य किसी दिन बहुत कमजोर हो गया और कभी पूर्व में नहीं उगा तो हर जगह अंधेरा छा जाएगा और पृथ्वी पर जीवन असंभव हो जाएगा। कहीं ऐसी घटना नहीं घट जाए इसलिए, समुदाय के सबसे सबल युवक के खून से उन्हें तर्पण देना उचित है। सभी सूर्य पिरामिड के नीचे एकत्र होते हैं। पुजारी युवक के साथ शीर्ष पर इंतजार करता है। उगते हुए सूर्य को नरबलि देकर अपने कर्तव्य का पालन कर हर्षोल्लास के साथ वे लोग घर लौटते हैं।

उन्होंने मारिया स्तोत्र और आदिवासी लोगों की नर-बलि प्रथा के बारे में पढ़ा था।उन्होंने कहा, "वे लोग सूर्य को नरबलि देते थे और आपके कंध धरती को, बस फर्क इतना ही है।" जहां आज मैक्सिको है, वहाँ कभी टेनोचिट्लान शहर झील के बीचोबीच हुआ करता था। वहां सड़कें थीं। अच्छी संचार सुविधा थी। वे मानते थे कि उनका शहर पृथ्वी के केंद्र में स्थित है। उनका यह भी विश्वास था कि स्पेन के कार्टेज की साजिश से वह सभ्यता नष्ट हो गई थी। स्पेनिश सभ्यता, एज़्टेक सभ्यता और आदिम आदिवासी प्राचीन सभ्यताओं के खंडहरों पर स्थापना की गई थी उस शहर की, दुनिया का सबसे बडे शहर पुराने मैक्सिको सिटी की तरह, वह आज उस झील में दफन है। शहर पहाड़ियों से घिरा हुआ था। इसलिए शहर के धुआं-धूल निष्कासित नहीं हो पाते थे,लोगों की आँखें जलती थीं, रोग फैल रहे थे। कार्लो ने मज़ाक में कहा, "मैंने इस शहर का नाम ‘मेक-सिक-ओ-सिटी’ रखा है। अर्थात् यह सिटी बीमार करती है। जब मैं शहर से दूर रहता हूं, तो मुझे घर की याद आने लगती है,मगर लोगों की अपसंस्कृति और व्यवसायी मनोभाव मुझे दुखी करते हैं।"

हमारी प्राचीन परंपरा अब नई जिंदगी की तलाश कर रही है। अग्निस्नान और जल-स्नान द्वारा धूल-धूसरित स्थिति उबरकर प्राणदायी संस्कृति में बदल जाएगी। कार्लो की याद आने से उनके लिए लिखी गई हमारे प्रसिद्ध कवि-मित्र ओक्टेवियो पाज़ की कविता 'कॉनकॉर्ड' याद आ जाती है:-

पानी के ऊपर

तालपेड़ों के नीचे

सड़कों पर पवन ,

प्रशांत बाल्टी से

झरने का काला पानी

नीचे गिरता हुआ

पेड़ों तक और

होठों तक उठता आकाश।

वे इससे सहमत हैं कि नई सभ्यता निश्चित रूप से किसी दिन आएगी, पुरानी जमीन के आकाश ऊपर उठकर होंठों तक पहुँच जाएगा।

10. नाबोकोव और नीली तितली

"सात साल की उम्र से आयताकार तस्वीर वाले सूर्य-प्रकाश के बारे में मेरा जो कुछ अनुभव है, उसमें केवल एक ही जुनून हावी था। यदि सुबह मेरी पहली नज़र सूर्य पर पड़ती थी, तो मेरे मन में मेरा पहला विचार आता था उन तितलियों के बारे में, जो उसके लिए खतरा हो सकती थी। "

उपरोक्त कुछ पंक्तियाँ प्रसिद्ध रूसी उपन्यासकार व्लादिमीर नाबोकोव की आत्मकथा 'स्पीक मेमोरी' से ली गई हैं। मुझे यकीन है कि नाबाकोव के मेरे जैसे कई अन्य पाठकों और प्रशंसकों को यह नहीं पता होगा कि लोलिता और कई अन्य उल्लेखनीय रचनाओं के सर्जक नाबोकोव का तितलियों के लिए प्रति अपरिमित अमर आकर्षण था। यह आकर्षण खींच लाया उन्हें बीसवीं सदी के चौथे दशक में छह वर्षों तक हार्वर्ड के म्यूजियम ऑफ कम्पेरेटिव जूलॉजी में अनुसंधान सहयोगी के रूप में काम करने के लिए। जीव वैज्ञानिकों में अलग-अलग राय थी, उनके तितलियों के संग्रहण, वर्गीकरण, विश्लेषण के तरीकों और उनके बारे में लिखे गए अनुसंधान लेखों के बारे में । कुछ जीव वैज्ञानिक उन्हें उच्च कोटि के विज्ञान-सम्मत और शोध-आधारित आलेख मानते हैं। तो कुछ उन्हें शौकिया काम का दर्जा देते हैं। दो प्रख्यात शोधकर्ताओं ने 1981-82 में नाबोकोव के अनुसंधान क्षेत्र को 'पथ-प्रदर्शक' मानते हुए उनके सम्मानार्थ नीली तितलियों की एक विशेष प्रजाति का नाम 'मेडेलिनिया लोलिता' दिया।

यूनिवर्सिटी के म्यूजियम ऑफ कम्पेरेटिव जूलॉजी में मेरे एक साल प्रवास के दौरान “नाबोकोव की तितलियां” नामक एक बड़ी प्रदर्शनी का आयोजन किया गया था जिसमें उनके संग्रहीत अध्ययन,गवेषणा,वर्गीकरण के नमूने प्रदर्शित किए गए थे। उनके सभी शोध लेख भी वहाँ रखे गए थे। यह प्रदर्शनी मेरे लिए एक यादगार थी।

अपनी आत्मकथा में, नाबोकोव ने कहा है, "मैंने बहुत सारे देशों की अलग-अलग जलवायु में विभिन्न परिधानों में जैसे कभी नाविक की टोपी तो कभी निकर पहने सुंदर बच्चे तो फ्लैनेल बैग और सिर पर बेरेट पहने सर्वदेशीय और देश निष्कासित पतले आदमी तो कभी टोपीविहीन हाफपैंट पहने मोटे बूढ़े आदमी के रूप में तितलियों का अन्वेषण किया है।"

मैंने अपने आईएससी के दौरान चौथे वैकल्पिक विषय के रूप में जूलॉजी का अध्ययन किया था। लेकिन मैंने एक प्राणी के रूप में तितली का अध्ययन नहीं किया था। मैं बचपन से तितलियों को प्यार करता था और वे अपने रंग-उड़ान के साथ मेरी कविताओं में आई थीं। समझ में नहीं आने के बावजूद भी मैंने प्रदर्शनी के बीस शोध पत्रों पर अपनी निगाहें डालीं। जीव-विज्ञान प्रयोगशाला में आईएससी छात्र के रूप में 1953-55 की प्रेक्टिकल क्लास में मैंने मेंढक को इधर-उधर काट दिया तो ट्रे का पानी रक्ताक्त हो गया था और ईसा मसीह की तरह क्रूस पर चढ़े मेंढक के प्रति मेरे मन में दया-भाव आ रहा था।यह सारा दृश्य मेरे स्मृति-पटल पर तरोताजा हो गया था। मुझे रेवेन्सा कॉलेज के जूलॉजी के प्रोफेसर बसंत कुमार बेहुरिया भी बहुत याद आने लगे।

प्रदर्शनी ने मुझे नाबोकोव की बहुत पहले पढ़ी हुई एक कविता याद दिला दी। कविता का शीर्षक था 'ऑन डिस्कवरिंग ए बटरफ्लाई'। कविता इस प्रकार थी:-

The features it combines mark it

as new to science, shape and shade the special tingle

akin to moonlight, tempering its blue

the dingy underside, the checkered fringle

I found it and named it, being versed

in taxonomic Latin

I thus became

godfather to an insect and its first

describer — and I want no other fame.”

मुझे इस कविता ने मंत्रमुग्ध कर दिया था। मुझे यह कविता विचित्र लग रही थी।

“ मुझे कुछ भी यश नहीं चाहिए।चाँदनी की तरह विशिष्ट आभा खेल रही थी उसके पेट के नीचे।”

क्या सचमुच में यह तितली-प्रेमी लेखक कह सके कि तितली के सिवाय यश नहीं चाहिए ? अन्य लोगों की तरह मैंने भी बचपन में कई रंग-बिरंगी तितलियों को देखा था। मैं उनके पीछे भागता था और उनके जीवन के विभिन्न चरणों को नजदीक से देखता था। नाबोकोव की कविता पढ़ने के बाद मैंने नीली तितलियों को नए दृष्टिकोण से देखा। मैं इस मायने में बहुत भाग्यशाली था कि मेरे भुवनेश्वर के सत्यनगर घर में कुछ नीली तितलियां (निश्चित रूप से कम से कम एक या दो) दिखाई पड जाती थीं। मुझे अपने लॉन पर एक बार उनका एक नीला पंख मिला था, जो किसी अप्सरा के पंख की तरह था। मैंने अकारण घर के लड़के को डांटा , "तो तुमने इस तितली को मार डाला!" विनम्र तरीके से सिर हिलाने के सिवाय वह क्या कर सकता था! मैंने उस नीले पंख को उठाकर अपनी डायरी में रखा। वह अभी भी डायरी में है। कई बार पन्ने टटोलते समय वह पंख मिलता है तो मेरी स्मृतियाँ आसमान में उड़ने लगती हैं।

हार्वर्ड में अनुसंधान सहयोगी के रूप में अपनी कार्यकाल पूरा करने के बाद, नाबोकोव वेलेस्ले कॉलेज में अंशकालिक प्रोफेसर बने। बाद में वे कॉर्नेल विश्वविद्यालय में पूर्णकालिक प्रोफेसर बन गए। हालांकि, उन्होंने सन 1977 में अपनी मृत्यु तक तितलियों पर अनुसंधान कार्य जारी रखा।

प्रदर्शनी में मुझे नाबोकोव की रचनाएं, समालोचनाएं और पत्र आकर्षित कर रहे थे। आलोचक लेखक जॉन वायेन ने 21.12.59 के 'न्यू रिपब्लिक' में लिखा था: "वास्तविक जीवन में श्री नाबोकोव एक प्रसिद्ध लेपिडोपिस्टिस्ट (तितली विशेषज्ञ का वैज्ञानिक नाम) हैं और उन्होंने उनसे एक आदत सीखी है। वे एक सीधी रेखा में उड़ नहीं सकते हैं । तितली के जीवन का उद्देश्य आपके जितना गंभीर हैं,उतना मेरे लिए भी, मगर इसकी सुरक्षात्मक उड़ान को भोलेपन कहकर निंदा की जाती है।" वेन ने नाबोकोव की रचनाओं की भाषा-शैली में बहु-रैखिक (रैखिक नहीं) और वक्र-रैखिक गतिशीलता को निश्चय देखा होगा, तभी ऐसी टिप्पणी दी है।

5 जुलाई, 1977 को नाबोकोव के निधन पर 'टाइम्स' में आया था ,

"उनकी मुख्य आवर्ती कथावस्तु मनुष्य का विषय है, जो अपने पर्यावरण से अलग होकर संतुष्टि प्राप्त करता है, वास्तविक प्रसन्नता के रूप में, किसी दृढ़ खोज में, चाहे वह कला हो, शतरंज हो, साहसिक यौनता या आश्चर्य की बात क्यों न हो .... " शायद नीले रंग की तितली इस आनंद की आखिरी खोज थी- “आश्चर्य की क्षणिक प्रस्तुति।”9 नंबर चंसी स्ट्रीट

नाबोकोव हार्वर्ड में क्रेगि सर्कल के अलावा 9 नंबर चंसी स्ट्रीट में भी रहे थे। 9 नंबर चंसी स्ट्रीट मेरे 7 कॉनकॉर्ड एवेन्यू के निवास से पांच मिनट की पैदल दूरी पर थी। मैं अक्सर वहाँ अपने दोस्त विजय मिश्रा से मिलने जाता था।

नाबोकोव ने सन 1945 में हार्वर्ड से अपनी बहन ऐलेना सिकारोस्की के नाम कई पत्र लिखे थे। पत्रों के क्रमांक भी लिखे गए थे। 26 वें पत्र का एक अंश उनकी भाषा में: "प्रिय ऐलेना, तुमने मुझे अपनी दिनचर्या के बारे में पूछा। मैं आठ या आठ बजे के आस-पास जागता हूं, और हमेशा एक आवाज सुनकर जैसे मित्युशेंका (नाबोकोव का पुत्र) बाथरूम जा रहा हो। कहीं स्कूल के लिए देर न हो जाए, सोचकर वह विषादग्रस्त हो जाता है। 8.40 बजे स्कूल बस उसे मोड से उठा लेती है। वेरा (नाबोकोव की पत्नी) और मैं खिड़की से उसे जाते हुए देखते हैं। वह मोड पर इधर-उधर देखता है, बहुत दुबला-पतला लग रहा है, धूसर सूट पहन रखा है। सिर पर लाल जॉकी कैप और कंधे पर झूल रहा है नीले रंग का स्कूली बैग। लगभग नौ-साढ़े नौ बजे मैं भी अपने दोपहर का भोजन (दूध फ्लास्क और दो सैंडविच) लेकर बाहर निकल जाता हूँ। पंद्रह मिनट में संग्रहालय आता है (हम हार्वर्ड के उपनगर में रहते हैं), फिर विश्वविद्यालय टेनिस कोर्ट...... फिर मेरे संग्रहालय में - पूरे अमेरिका में प्रसिद्ध (और जैसा यूरोप में हुआ करता था) म्यूजियम ऑफ कम्पेरेटिव जूलॉजी , हार्वर्ड विश्वविद्यालय का वह हिस्सा, जो मेरा नियोक्ता है। मेरी प्रयोगशाला 4 वीं मंजिल के आधे हिस्से में फैली है। इसमें से ज्यादातर तितलियों की स्लाइडिंग अलमारियों की पंक्तियाँ हैं। मैं इस शानदार संग्रह का संरक्षक हूं। हमारे पास सन 1840 से आज तक की दुनिया भर की तितलियाँ हैं। मैं अपना व्यक्तिगत शोध कर रहा हूं, और दो साल से अधिक समय के अमेरिकी 'ब्लूज़' पर मेरा काम टुकडों-टुकड़ों में प्रकाशित हुआ है, मुझे काम करने में मजा आ रहा है,लेकिन मैं पूरी तरह से थक जा रहा हूँ। मेरी आँखें खराब हो गई हैं और मैंने मोटे-मोटे नंबर वाले चश्मे पहन लिए हैं।"

उसके बाद उन्होंने लिखा," माइक्रोस्कोप के चमत्कारिक क्रिस्टलीय दुनिया में, जहां नीरवता का राज्य है, अपने ही क्षितिज से घिरे, एक अंधेरे सफेद में।”

“ रॉकी पर्वत में हमारी यात्रा के दौरान यूटा (नाबोकोव के बेटे) मेरे साथ शिकार पर चलता है, मगर उसके पास तितलियों के प्रति कोई जुनून नहीं है।”

“लगभग पांच बजे सर्दी के नीले अंधेरे से पहले मैं घर आ जाता हूं, शाम के अखबार पढ़ने के समय। स्कूल से मित्युशेंका (नाबोकोव के बेटे) भी इसी समय घर आता है।"

नाबोकोव के बारे में दो और पंक्तियां। उन्होंने स्विट्जरलैंड से दो पत्र लिखे थे। पहला, 6 जनवरी,1969 को अपने मित्र फ्रैंक टेलर को लिखा था और दूसरा, 15 अप्रैल, 1975 को अपनी पत्नी वेरा को (अपनी मृत्यु से दो साल पहले)। उन्होंने पहले पत्र के पहले पेज पर तितली का स्केच बनाया था और दूसरे पत्र के अंत में, जो दूसरे प्रकार की तितली थी।

11.जॉन केनेथ गालब्रेथ : सामूहिक दारिद्र्य का स्वरूप और धनाढ्य समाज

मैंने हाल ही में सुना कि प्रसिद्ध हार्वर्ड अर्थशास्त्री जॉन केनेथ गालब्रेथ का सत्तानवें साल की उम्र में निधन हो गया है। मेरी स्मृति मुझे 1987-88 के हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की ओर ले गई, जहां मैंने एक साल बिताया था। उस समय वे यूनिवर्सिटी के इकोनॉमिक्स डिपार्टमेंट में एमेरिटस प्रोफेसर थे और मैं उनसे लिटवार हॉल के रूम नंबर 207 में दो-तीन बार मिला था। मैंने उनके घर 30, फ्रांसिस एवेन्यू में कई बार मुलाकात भी की थी, जो देश-विदेश के अर्थशास्त्रियों, आर्थिक समाचारों के विश्लेषकों, छात्रों और अमेरिका और अन्य देशों के प्रतिष्ठित लोगों के लिए एक आकर्षक जगह थी। मैं अक्सर अर्थशास्त्र के वरिष्ठ प्रोफेसर स्टीफन मार्गलिन से मिलने लिटवार हॉल में जाया करता था। जिनका कमरा गालब्रेथ के कमरे के पास था, जो अधिकतर बंद रहता था। मैंने सुना था कि वे वहां बहुत कम आते हैं । इसलिए जितनी जल्दी हो सके मैं उनसे मिलना चाहता था। मैं पहले से ही उनकी पुस्तकें पढ़ चुका था। वे भारत में अमेरिका के राजदूत थे और जॉन एफ॰ कैनेडी उनका बहुत सम्मान करते थे।

मैंने उनके कमरे में उनसे मिलने की इच्छा व्यक्त करने छोटा पत्र छोड़ दिया था। पत्र में मैंने अपना पता और संक्षिप्त परिचय लिख दिया था। चार दिन बाद मुझे उनका पत्र मिला। वे एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका द्वारा पुरस्कृत होने के लिए मुख्यालय से बाहर जा रहे थे। उन्होंने मुझे अपने पत्र में लिखा है कि जब वे मुख्यालय लौटेंगे, तब उनसे संपर्क करें। वास्तव में, वापस आते ही उन्होंने मुझे अपने निवास पर मिलने के लिए समय दिया।

विश्वकोश ब्रिटैनिका के विशेष पुरस्कार की खबर स्थानीय अख़बार बोस्टन ग्लोब और राष्ट्रीय समाचार पत्रों जैसे न्यूयार्क टाइम्स और वाशिंगटन पोस्ट तथा हार्वर्ड यूनिवर्सिटी गैजेट में प्रकाशित हुई थी। यह पुरस्कार उन्हें व्यापक स्तर पर सर्व-साधारण के लिए आर्थिक सिद्धांत विषय पर उनके काम के लिए दिया गया था।

वह हार्वर्ड के विद्वानों और राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें 'कैम्ब्रिज का कैसंड्रा' कहा जाता था। उनकी अद्यतन प्रकाशित पुस्तक का नाम था, 'परिप्रेक्ष्य में अर्थशास्त्र' । मुझे लगता है कि इस विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री के बारे में संक्षिप्त में कुछ कहना ठीक रहेगा।उनका जन्म 15 अक्टूबर 1908 को कनाड़ा के ओन्टारियो प्रांत में हुआ था। यह यू.एस.ए. और कनाड़ा की सीमा पर स्थित है। वह लंबे समय तक अमेरिकी आर्थिक संघ के अध्यक्ष थे। वह कई वर्षों तक अमेरिकी राष्ट्रपति के औपचारिक और अनौपचारिक सलाहकार थे। वह दुनिया भर के कई विश्वविद्यालयों में एक विजिटिंग प्रोफेसर थे। कई विश्वविद्यालयों ने उन्हें मानद डिग्री प्रदान की थी। वह राष्ट्रपति कैनेडी के कार्यकाल के दौरान भारत में अमेरिका के राजदूत थे। उन्होंने कई किताबें लिखी हैं। वे अर्थशास्त्र की कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय समितियों के सदस्य थे। उन्होंने लंबे समय तक हार्वर्ड विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया है। हार्वर्ड में पॉल एम॰ वारबर्ग प्रोफेसर के रूप में थे।उन्होंने मुख्य रूप से चार प्रमुख विश्वविद्यालयों में पढ़ाया था। जिनमें स्थानीय गुलेफ़ विश्वविद्यालय, कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, इंग्लैंड के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय और अंत में हार्वर्ड में शामिल थे। उनकी चर्चित पुस्तकों में थी 'द एफीलुएंट सोसाइटी', 'द ग्रेट क्रैश', 'द कल्चर ऑफ़ द कंटेनमेंट’, ‘द नेचर ऑफ द मास पोवर्टी’ आदि।

वे एडम स्मिथ के एक बड़े प्रशंसक थे। उन्हें स्मिथ की ‘थ्योरी ऑफ मॉरल सेंटिमेंट’ पढ़ने में आनंद आता था। उन्होंने अर्थशास्त्र में नैतिकता के बारे में एक लंबा निबंध लिखा था (अमर्त्य सेन के लेखन में भी परिलक्षित होता है), जो मुझे बहुत अच्छा लगा था। उन्होंने इस निबंध में लिखा था कि समकालीन आत्म-स्वार्थ अथवा सुविधाओं को ध्यान में रखकर बहुत समय से आर्थिक नीतियां बनाई जा रही हैं, जिनकी करताली से सराहना की जाती है, मगर वास्तविकता के साथ उनका कोई संबंध नहीं होता है।

उन्होंने एक बार ऐडम स्मिथ के बारे में लिखा था कि उनके प्रशंसकों ने उनके प्रति सबसे ज्यादा अन्याय किया है, क्योंकि उनमें से बहुत से उन्हें ठीक से पढे भी नहीं थे।

गालब्रेथ ने समकालीन अर्थशास्त्र की गंभीर आलोचना की थी क्योंकि ज्यादातर लोकप्रियता और राजनीतिक लाभ के लिए उन्हें तैयार किया जाता है। उन्होंने ऐसे दृष्टिकोण और नीतियों को 'पारंपरिक ज्ञान' कहा। वास्तव में, उन्होंने खुद इस वाक्यांश को गढ़ा था और आजीवन इस पारंपरिक ज्ञान की आलोचना करते रहे थे।

अमेरिका की समकालीन आर्थिक नीतियों के संदर्भ में उनका मानना था कि धनिकों पर कम कर लगाकर आर्थिक विकास नहीं लाया जा सकता था। इस तरह की नीति उन लोगों द्वारा सराही जाती है, जिन्हें इससे लाभ होता है। लेकिन यह राष्ट्र के आर्थिक विकास के लिए अनुकूल नहीं है।

जिस दिन उन्होंने मुझे मिलने का समय दिया था, उसी समय मैं उनके घर पहुंचा। उनका घर मेरे एपार्टमेंट से ज्यादा दूर नहीं था। फिर भी मैं निर्धारित समय से पहले वहाँ पहुंच गया। कॉलिंग-बेल बजाने पर एक आदमी मुझे उनके ड्राइंग रूम के भीतर ले गया। उनका अध्ययन कक्ष ड्राइंग रूम से जुड़ा था, जिसमें कई रैक किताबें थीं। वह आदमी एशियाई लग रहा था। मैंने उसका परिचय पूछा। मुझे आश्चर्य हुआ, जब उस आदमी ने मुझसे हिंदी में उलटा प्रश्न पूछा, भारत में मेरा घर कहाँ है? बाद में पता चला कि गालब्रेथ के दिल्ली प्रवास के समय से उनके साथ है। वह कहने लगा, “ साहिब मेरे ऊपर इतना भरोसा करते हैं और मेरे ऊपर पूरी तरह से निर्भर है। मैं साहिब के परिवार के सदस्य की तरह हूँ। मैं उन्हें छोड़कर और कहीं जाने का सपने में भी नहीं सोच सकता।मैंने अपने जीवन में कभी भी ऐसा अच्छा इंसान नहीं देखा।”

उनके घर की दीवारें भारत की तस्वीरों और कला वस्तुओं से भरी हुई थीं। चारों तरफ भारतीयता की महक थी । मुझे तो पहले अपना ही घर लगा। दीर्घकाय गालब्रेथ ने ड्राइंग रूम में प्रवेश करते ही मुझे पूछा, “ चाय लोगे या कॉफी?’ मैंने कहा, “चाय ” तो उन्होंने कहा,“ मुझे भी चाय ज्यादा पसंद हैं।” मैंने उन्हें पुरी के रेलवे होटल (जब अमेरिकी राजदूत के रूप में पुरी गए थे) के विशेष रूप से उनके लिए किए गए सात फुट बिस्तर के बारे में याद दिलाया। मैंने उन्हें बताया कि उस बिस्तर को अभी भी एक स्मृति-चिन्ह के रूप में होटल में रखा गया है। हँसते हुए उन्होंने कहा, "जब मैं होटल छोड़ रहा था, तो होटल वाले मुझसे उस बिस्तर को नई दिल्ली भेजने के लिए पूछह रहे थे। मैंने उत्तर दिया कि क्या आप लोग नहीं चाहते कि मैं फिर से पुरी आऊँ। तब जाकर मामला खत्म हुआ था।"

उन्होंने मुझे हार्वर्ड की असहनीय सर्दी, शून्य से नीचे तापमान और हाड़कंपाती उत्तरी ठंडी हवा के बारे में पूछा। वे कहने लगे , "तुम्हें बहुत कष्ट हो रहा होगा। क्योंकि ओड़िशा में सर्दियों का मौसम लगभग नहीं के बराबर है।" उन्होंने मुझे पहले पांच मिनट में सहज कर दिया। उन्होंने दिल्ली में अपने प्रवास, नेहरू के संबंध और ओड़िशा सहित भारत के आस-पास की यात्राओं के बारे में बातचीत की। उन्होंने कहा, "आई जस्ट लव इंडिया एंड चेरिश माय मेमोरिज ऑफ इंडिया।"

हमने अमेरिकी अर्थव्यवस्था, फेडरल बैंक, राष्ट्रपति केनेडी के कार्यकाल, नई दिल्ली में श्रीमती गांधी के साथ उनकी मुलाकात, उनकी पुस्तकें आदि के बारे में कई विषयों पर चर्चा की। मैं कई मामलों में उनकी राय जानना चाहता था, लेकिन मुझे एहसास हुआ कि यह हमारी पहली बैठक में संभव नहीं होगा। मेरा बायोडाटा पहले से ही जानने के कारण भारत के आर्थिक विकास, सरकारी नीतियों, सामूहिक दारिद्रय, गरीबी रेखा आदि विषय पर पूछह ने के लिए उनके पास भी बहुत सारे सवाल थे। हर विषय पर इधर-उधर से सवाल पूछह रहे थे। मुझे लगा कि उन्हें हर विषय पर सम्यक ज्ञान है और वे ज्यादा जानने के लिए उत्सुक हैं। इस प्रकार मैंने इस बैठक में बहुत कुछ कहा। मैंने यह भी कहा था कि मैं अधिक समय के लिए फिर से मिलना चाहूंगा। उन्होंने स्वीकृति दे दी।

उन्होंने मेरे सवालों के बहुत ही उचित उत्तर दिए थे। उनकी आवाज गंभीर थी, उनके वाक्य नपे-तुले शब्दों और संयमित भाषा में गठित थे। उन्होंने कहा, "समग्र पुस्तक लेखन की तुलना में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान कीमतों में नियंत्रण रखने के लिए नियुक्त कमेटी के अध्यक्ष के रूप में मेरा काम सबसे संतोषजनक और शायद सबसे महत्वपूर्ण है। इसकी तुलना में प्रथम विश्व युद्ध के समय फेडरल बैंक ने जो काम किए थे, वे काम बिलकुल संतोषजनक नहीं थे।"

मैंने देखा कि उनकी फेडरल बैंक और उसके नीति-निर्धारण प्रणाली के बारे में मजबूत राय थी। उन्होंने सामान्य तरीके से एलन ग्रीनस्पैन (फेडरल बैंक के प्रमुख) की प्रशंसा की। मगर उन्होंने यह भी कहा, "हमने उनके जैसी नाटकीयता कभी नहीं देखी।"

मैंने उनसे पूछा, “क्या आपने अमेरिकी सरकार को कई मुद्दों पर,विशेषकर निवेश संबंधित मुद्दों पर सलाह दी थी?” उन्होंने कहा, "मोटामोटी नहीं। कारण हर कोई अच्छी सलाह को भूल जाता है। मगर गलत सलाह रहती है और उनकी तारीफ की जाती है।"

उनके कहने के अंदाज से मुझे याद आ गया कि उनकी रचना-शैली की अद्भूत सादगी, सुंदरता और तीक्ष्णता है। अर्थशास्त्र जैसे कठिन विषय पर इतना स्पष्ट रूप से लिखा जा सकता है, यह जानकर समकालीन अर्थशास्त्री आश्चर्यचकित भी थे और ईर्ष्या भी करते थे।

'द एफीलुएंट सोसाइटी' उनकी बहुचर्चित किताब थी। जब मैंने उनसे इसके बारे में पूछा, तो उन्होंने उत्तर दिया, "आपने किताब में 'अवकाश के लिए आवंटित वाक्यांश' का प्रयोग देखा होगा। अभी का समय बहुत खराब हैं। अगर मैं इसे फिर से लिख सकता तो मैं उस किताब का नाम 'द डिप्रेस्ड इकोनॉमी' रखता। तो बहुत ज्यादा पुस्तक प्रेमियों के पास पहुंचती। अब इस पुस्तक की मांग नहीं है।"

उन्होंने आगे कहा," मैंने 'इकोनोमी इन पर्सपेक्टिव' पुस्तक में अर्थशास्त्र और राजनीति के उचित आत्मसात के बारे में चर्चा की है। रोज़गार को कम करने और मांग को कम करने के बीच तालमेल नहीं है।"

मैंने पूछा," मतलब क्या दोनों घटक एक-दूसरे के विपरीत हैं? मांग कम करने के लिए रोजगार का स्तर घटाना पड़ेगा? " उन्होंने कहा," मैं आपको दो चीजें बताऊंगा। सबसे पहले, हम केनेसियन अर्थशास्त्र में देख सकते हैं कि बेरोजगारी (जब मांग में वृद्धि हुई है) और मुद्रास्फीति (जब मांग कम करने के प्रयास किए गए हैं) एक-दूसरे से संबंधित होते हैं। दूसरी, हम दूसरे विश्व युद्ध के समय से ध्यान नहीं दे रहे हैं। राजनीतिक दृष्टिकोण से मांग बढ़ना अपेक्षाकृत आसान है, यह तब संभव है जब कर की दरें कम हो जाती हैं और सरकारी खर्च बढ़ जाते हैं। परंतु उसका उल्टा काम करना राजनैतिक दृष्टिकोण से बहुत ज्यादा कष्ट-साध्य है।"

उन्होंने एक और वाक्य पर बल दिया, 'समस्याएं आंशिक तौर पर अर्थशास्त्र की हैं तो आंशिक रूप से विचारधारा की। मैं जो सुझाव दे रहा हूं वह राजनीतिक रूप से मुश्किल है, लेकिन मजदूरी और कीमतों को बाजार में छोड़ने की मजबूत विचारधारात्मक प्रतिबद्धता भी है।"

उन्होंने अपनी पुस्तक ‘द नेचर ऑफ द मास पोवर्टी’ पर हस्ताक्षर कर मुझे देते हुए कहा, “ यह मेरी पसंदीदा किताब है। अर्थशास्त्री के रूप में मेरी सबसे बड़ी विफलता यह है कि दुनिया में व्यापक गरीबी के कारणों और उपचारों का निदान करने में वे अक्षम थे।” उन्होंने विराम लेते हुए कहा, "यह पूरी तरह से अर्थशास्त्र की विफलता है। हमें इतने सारे सिद्धांतों का दावा करना चाहिए? हमें बहुत सलाह देनी चाहिए? हमें इतनी बड़ी-बड़ी बयानबाजी करनी चाहिए?"

फिर से रुककर कुछ कहने लगे," जब मेरी पत्नी ने तुलनात्मक साहित्य में पीएचडी कर रही थी तब उसने मुझे कहा कि कैनेस के सेमिनारों पर गुस्से से कहा था- तुलनात्मक साहित्य की 'जनरल थ्योरी' की प्रस्तावना में कैनेस ने कहा था कि कुछ ऐसे अन्य विषय भी हैं, जिसके बारे में उन्होंने अच्छी तरह से सोचा नहीं है।प्रस्तावना पढ़ने के बाद मैंने किताब बंद कर दी और निर्णय लिया कि कैनेस के इस विषय पर सोचने के बाद ही मैं इसे पढ़ूँगी।"

मैं गालब्रेथ के हास्य-विनोद के बारे में जानता था और मुझे अच्छा लगता था। मैंने उनकी पुस्तक 'चाइना पैसेज' की दो घटनाओं के बारे में याद दिलाया।तीन सदस्यीय आर्थिक प्रतिनिधिमंडल के प्रमुख के रूप में चीनी सरकार के निमंत्रण पर गालब्रेथ बीजिंग गए हुए थे। उन्होंने लिखा, "मैंने देखा है कि हमें हवाई अड्डे से होटल तक ले जाने के लिए आया हुआ आदमी बार-बार मुझे सिर से पाँव तक देख रहा था। फिर अपनी छोटी कार की तरफ उदास आँखों से देख रहा था। उसके दुख को दूर करने के लिए मैंने तुरन्त कहा, 'आई एस्योर यू आई एम क्वाइट कोलेप्सेब्ल।' मैंने उन्हें 'चाइना पैसेज' की एक और घटना याद दिलाई। चीन की यात्रा के दौरान वह बीमार हो गए थे। एक चीनी डॉक्टर उन्हें देखने आया और उनसे कई सवाल पूछे। जैसे गर्म चीजें अच्छी लगती हैं या ठंडी? कौन-सी करवट सोना अच्छा लगता है? इत्यादि। सब-कुछ सुनने के बाद उसने मुझे आश्वस्त किया कि मैं बच जाऊंगा। इस घटना को याद कर वह हंसते हुए कहने लगे, “तुम्हारी याददाश्त बहुत तेज है।” कई अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट से लेकर कैनेडी तक विशिष्ट मुद्दों पर गालब्रेथ की सलाह मांगते थे। उन्होंने जेएफके के बारे में कहा, "शुरू में, वह समस्या संबन्धित समाधान के बारे में फोन से पूछह ते थे। बाद में पूछह ते कि मैं क्या कर रहा हूं, मैं क्या देखता हूँ, भारत के बारे में क्या सोचता हूँ। अंत में, न तो उन्होंने मुझे फोन किया और न ही मैंने। उसके बाद हम दोनों ने सुरक्षित दूरी बना ली।"

उनके साथ किताबों से भरे उनके ड्राइंग रूम में एक घंटा बीत चुका था। उनके स्टेनो ने उन्हें याद दिलाया कि एक मैक्सिकन पत्रकार उनकी पांच से सात मिनट से प्रतीक्षा कर रहा है। जैसे ही मैं उठना चाह रहा था, उन्होंने मुझे रोक दिया, "एक मिनट और।" वह अंदर गए और वापस लौटे एक किताब के साथ। हस्ताक्षर कर वह किताब मुझे दी। शीर्षक था 'द स्कॉच' । हँसते हुए कहने लगे, "इस किताब का व्हिस्की से कोई संबंध नहीं है।यह मेरे जीवन की वह कहानी है, जब तक विश्वविद्यालय में मेरा आगमन नहीं हुआ था। कनाड़ाई हमें इसी नाम से बुलाते थे। ‘स्वांत सुखाय’ के मैंने यह किताब लिखी थी। यह अर्थशास्त्र की किताब नहीं है।"

एक दिन फिर आऊँगा, कहकर मैं उनके घर (30, फ्रांसिस एवेन्यू) से रवाना हुआ।

12. अमर्त्य सेन: कल्याण विकास अर्थशास्त्र के नए क्षितिज और स्टीव मार्गलिन

स्टीव मार्गलिन अमेरिकी अर्थशास्त्री के रूप में चिर-परिचित नाम है।उन्होंने ऑर्गेनाइजेशन ऑफ कोपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) के लिए कई योजनाएं तैयार की हैं। विभिन्न देशों में उन्हें लागू करवाकर आर्थिक विकास के नए-नए रास्ते प्रशस्त किए हैं। उनका कमरा लिटवार हॉल में गालब्रेथ के कमरे के पास था। गालब्रेथ और मार्गलिन एक-दूसरे की प्रशंसा करते नहीं थकते थे।

स्टीव मार्गलिन विश्व बैंक द्वारा भारत में सिंचाई के क्षेत्र की कई परियोजनाओं की मार्गदर्शक एवं जनक हैं। वे माइक्रो-इकोनॉमिक्स पर आधारित नई परियोजनाएं तैयार कर कार्यान्वयन करवाने में सफल हुए हैं। इस संबंध में उनका ज्ञान विश्व बैंक और ओईसीडी द्वारा अत्यधिक सराहा गया है। ओईसीडी के लिए उन्होंने कई तथ्य-आधारित दस्तावेज तैयार किए हैं।

वह लंबे समय से मेरे निजी दोस्त हैं। उस समय मैं योजना आयोग के विशेष सचिव के रूप में जल संसाधन प्रभाग का कार्य देख रहा था। विश्व बैंक के माध्यम से हम एक-दूसरे के करीब आए। उन्होंने विश्व बैंक की टीम के सदस्य बतौर कई बार सिंचाई (विश्व बैंक द्वारा वित्त पोषित) से संबंधित योजना के कार्य का निरीक्षण किया था।

मेरे हार्वर्ड में प्रवास के समय स्टीव 'डोमिनेटिंग नॉलेज' नामक पुस्तक का संपादन कर रहे थे। इस संकलन में वे अपने निबंध में इस तथ्य पर बल दे रहे थे कि अनेक अर्थव्यवस्थाओं में निजी आय महत्वपूर्ण उत्स नहीं है। कभी-कभी उसके साथ जड़ित रहती है समुदाय के प्रति सामूहिक जिम्मेदारी और कभी-कभी समुदाय के ऊपर अधिक शक्ति के अस्तित्व में दृढ़ विश्वास। निबंध का नाम था 'म्युचुअल रिलेशनशिप ऑफ टेक्ने एंड एपिस्टेम-मैंने जमेंट एंड कॉन्फ्लिक्ट' । निबंध मुख्यतः ओड़िशा के नूआपाटना के बुनकरों पर आधारित था। स्टीव ने व्यापार के प्रति बुनकरों के दृष्टिकोण, उनके सामाजिक संबंधों और धार्मिक मान्यताओं के बारे में अध्ययन करने के लिए बहुत बार नूआपाटना आए थे। उनके निबंध की मुख्य बात थी कि प्रौद्योगिकी के उदय, विकास और व्यावहारिक क्षेत्र में इसका इस्तेमाल व्यक्ति, समाज और विश्वास की अनदेखी करके नहीं किया जा सकता है। उन्होंने नूआपाटना के बुनकरों का उदाहरण दिया, जो अपने ताँतों (चरखों) को भगवान मानते हैं, वे अपने परिवार के पालन-पोषण में सहायक बुनाई-कला के अस्तित्व को बड़े वरदान के रूप में मानते हैं।

स्टीव ने नूआपाटना से एक छोटी किताब खरीदी,जिसमें बुनकरों की अपने कार्यों में वस्त्र-चयन पद्धति में सर्वोच्च देवता को आह्वान करने वाली प्रार्थना लिपिबद्ध थी। यह विश्वास से संबंधित है, जिसने व्यक्ति और समुदाय के व्यावहारिक ज्ञान,कर्म-कौशल, आर्थिक दृष्टिकोण सभी को प्रभावित किया है। यह सब विश्वास, ज्ञान, व्यावहारिक दृष्टिकोण, सामाजिक संबंध और अपने से वृहत्तर स्थिति के आह्वान से मिलकर बनता है।सामग्रिक रूप से, उन्होंने इसे एपिस्टेम कहा,जो तकनीकी(टेक्ने) से संबन्धित दूसरा पक्ष है। जब तक यह बात समझ में नहीं आएगी,तब तक उत्पादन प्रक्रिया को सही ढंग से समझा नहीं जा सकता है। उन्होंने अपने निबंध को अंतिम रूप देने के बाद मुझे अपनी लिखित राय देने का अनुरोध किया था और मैंने वैसा ही किया। पुस्तक प्रकाशित होने पर निबंध की शुरुआत में उन्होंने मेरी राय का स्पष्ट उल्लेख किया था। मुझे हार्वर्ड से लौटने के दो साल बाद अर्थात् सन 1990 में वह पुस्तक मिली। स्टीव इस किताब में निम्न पंक्तियाँ लिखकर मुझे भेजी थी: ' सीताकान्त के लिए, जो सांख्य और योग का समान समानता के साथ अभ्यास करता है' पुस्तक में शामिल सभी निबंध सामूहिक रूप से विकास अर्थशास्त्र के कई नए क्षितिज खोलते हैं। इस पुस्तक का विशेष रूप से दुनिया के विकास अर्थशास्त्रियों ने भरपूर स्वागत किया।

मेरे प्रवास के दौरान अमर्त्य सेन कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी ऑफ इंग्लैंड से हार्वर्ड में लामोंट प्रोफेसर के रूप में आए। उन्हें अर्थशास्त्र और दर्शन विभाग में प्रोफेसर नियुक्त किया गया था। उन्होंने अर्थशास्त्र में नैतिकता पर कई महत्वपूर्ण पुस्तकें और निबंध लिखे हैं। दोनों स्टीव और मैं उनकी नियुक्ति से बहुत खुश थे। कारण विश्वविद्यालय में ऐसी दोहरी नियुक्ति मिलना बहुत दुर्लभ था।

श्री सेन के लिटवार हॉल में अपने कमरे में बैठने के बाद स्टीव एक बार मुझे उनके पास ले गए और मेरा उनसे परिचय करवाया। वे मेरी पूर्व नौकरियों, कैंब्रिज में मेरे एक साल प्रवास में विकास अर्थशास्त्र का अध्ययन और विकास के सामाजिक पहलुओं पर मेरी पीएच.डी॰ के काम के बारे में विस्तार से जानना चाहते थे।

मैं उनसे कई बार लिटवार हॉल में मिला था और कई विषयों पर चर्चा भी की थी।

उनकी पहल पर एक आलोचना गोष्ठी का गठन किया गया था। जिसका उद्देश्य दुनिया के विभिन्न जगहों के वास्तविक परिपेक्ष्य और उदाहरणों द्वारा नियमित रूप से विकास अर्थशास्त्र के बारे में चर्चा करना था। हर महीने की आखिरी शुक्रवार शाम को लिटवार हॉल के छोटे सम्मेलन कक्ष में गोष्ठी की बैठक करने का निर्णय लिया गया। इसमें शामिल होने का आमंत्रण पाकर मैं बहुत खुश हुआ था। श्री सेन, स्टीव, रिचर्ड हैरिस और तीन अन्य अर्थशास्त्र संकाय से, डेविड मेबरी-लुईस, नृतत्व विभाग के प्रमुख और अन्य तीन , केनेडी स्कूल ऑफ गवर्नमेंट से दो और मैसाचुसेट्स प्रौद्योगिकी संस्थान (एमआईटी) से तीन और बोस्टन विश्वविद्यालय से एक अर्थशास्त्री इस बैठक में भाग लेते थे। मुझे विशेष रूप से डेविड मेबरी-लुईस का निबंध याद है, जो अमेज़ॅन नदी के रेन-फॉरेस्ट के अंचलों में सड़कों के निर्माण और अन्य विकास प्रक्रियाओं के सामाजिक प्रभाव के बारे में था। मुझे भारत में अकाल के लंबे इतिहास के संदर्भ में अर्थशास्त्र और विकास के प्रयासों के विभिन्न पहलुओं पर श्री सेन का आख्यान भी याद है। मैं बड़े समुदाय के अंदर अवरुद्ध छोटे से आदिवासी समाज में विकास के प्रयासों के विभिन्न पहलुओं, विशेषकर उनकी सामाजिक स्थिति, शिक्षा और धार्मिक विश्वासों के बारे में एक निबंध पढ़ चुका था। मैंने संथाल समाज का विशद अध्ययन किया था। मैंने अपने निबंध का शीर्षक रखा “विकास एवं रीति-रिवाज”।

हर महीने संगोष्ठी के समापन पर एक रात्रि-भोज का आयोजन किया जाता था, किसी प्रोफेसर के घर में या फ़ैकल्टी क्लब में। स्टीव हार्वर्ड में नहीं रहते थे। वह सप्ताहांत में दो सौ मील दूर अपने घर लौट जाते थे, क्योंकि उनकी पत्नी वहां के स्थानीय कॉलेज में पढ़ाती थीं।

अमर्त्य सेन ने अपने निबंध के प्रारम्भ में मैक्स लूचाड़ो का उद्धरण दिया था। यह इस प्रकार था: “The people who make a difference are not the ones with credentials but the ones with the concern.” (And the Angels Were Silent)

अमर्त्य सेन के वक्तव्य का मूल था, विकास अर्थशास्त्र में मानव जिम्मेदारी प्रमुख है। यह केवल विकास ही नहीं बल्कि इसके पीछे वास्तविक समता है। यह केवल साम्य ही नहीं, बल्कि उस साम्य का गुणात्मक पहलू है। वे सशक्तिकरण के बारे में भी बोले। सशक्तिकरण अर्थात् आम आदमी को अपनी सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर निर्णय लेने की स्वतंत्रता, शक्ति और सभी संभावित अवसरों को प्रदान करना है।

उन्होंने अक्सर चर्चा के दौरान कहा, "क्या अर्थशास्त्र डिस्मल साइंस बना रहेगा? क्या यह केवल गणितीय समीकरणों और आंकड़ों की थ्योरी तक सीमित रहेगी ? क्या यह केवल इकोनोमेट्रिक विश्लेषण में ही काम आती रहेगी, जो विशेषकर पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं के लिए व्यावहारिक उपयोगिता के कारण महत्वपूर्ण है, परंतु तीसरी दुनिया की दयनीय आर्थिक स्थिति, सामाजिक मूल्य, अकाल, भूखमरी, गरीबी रेखा और सरकारी मशीनरी की अक्षमता को समझने, निराकरण करने और इन समस्याओं को सुलझाने में यह बहुत उपयोगी नहीं है।

उस समय तक वैश्वीकरण के विचार ज़ोर नहीं पकड़े थे। अर्थशास्त्रियों को अभी तक इस विचार से बहकाया जाता है। लेकिन अमर्त्य सेन के अनुसार एक ओर बाजार अर्थशास्त्र की कमजोरियों को दूर करने और दूसरी ओर राज्य-नियंत्रित विकास कार्यक्रमों की अक्षमताओं को ध्यान में रखते हुए भविष्य में निर्णय लिए जाने चाहिए।

उनका मानना था कि अगर किसी को ठीक से 'चिंता' नहीं है, अगर कोई प्रेम और स्नेह नहीं है (आम आदमी के लिए, विशेषकर उपेक्षित हैं या निचले तबके वाले) तो अर्थशास्त्र की आंकड़े-आधारित सारी थ्योरी अर्थहीन हो जाएगी, जो अब तक होता आ रहा है और इस वजह से आर्थिक दृष्टिकोण से विकसित देशों और तीसरी दुनिया के बीच दूरियाँ बढ़ गई हैं। उनके और जीन ड्रेज द्वारा अकाल पर किए गए शोध ने अर्थशास्त्रियों की आँखें खोल दीं। अमर्त्य सेन की भाषा में, आज का सवाल बहुत विशिष्ट है: "... सरकार के अधिक या कम होने का नहीं, बल्कि सुशासन का; सामाजिक सुरक्षा और सशक्तिकरण का सवाल है ।"

यही वजह थी कि उन्होंने भारत में शिक्षा और स्वास्थ्य पर हो रहे अत्यंत कम खर्च की गंभीर आलोचना की थी। उन्होंने इन दोनों विभागों पर अधिक व्यय किए जाने की वकालत की थी।

उनका मानना है कि " अकाल भोजन की कमी के कारण नहीं, बल्कि प्रशासन की कमी के कारण पड़ते हैं।" अमर्त्य सेन के बारे में समकालीन अर्थशास्त्रियों के विचार ध्यान देने योग्य है।

" वे स्मिथ, रिकार्डो, मार्क्स, कैनेस और कालेकी जैसी ही लीग में हैं ... वे ऐसे मुद्दों पर काम करते हैं,जिन पर अर्थशास्त्र को काम करना चाहिए..... यह मानव दर्शन है जो डिस्मल साइंस की अंतरात्मा है।"

मुझे मालूम नहीं कि अर्थशास्त्र को डिस्मल साइंस क्यों कहा जाता है। लेकिन अमर्त्य से पहले अर्थशास्त्र गणित, सांख्यिकी और विभिन्न थ्योरी (मांग, आपूर्ति, बाजार आदि) तक ही सीमित था। अर्थशास्त्र ने पहली बार मनुष्य का चेहरा देखा, गरीबी और समाज में आम आदमी के स्थान पर सवाल खड़े किए। अब यह राजनीतिक अर्थव्यवस्था तक सीमित न रहकर कल्याणकारी अर्थशास्त्र के मूलसूत्रों को खोजने लगी।

सभी नोबेल पुरस्कार विजेता रॉबर्ट सोलो की राय से अवगत हैं । उन्हें 'आर्थिक पेशे का विवेक रक्षक' कहा जाता है। अमर्त्य को अर्थशास्त्र की पारंपरिक परिधि की बहुत ज्यादा जानकारी है। वह इकोनॉमिक थ्योरी के विशेषज्ञ है। दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स, ऑक्सफ़ोर्ड, कैम्ब्रिज और हार्वर्ड आदि में अर्थशास्त्र के क्षेत्र में अपना अमूल्य योगदान दिया है। लेकिन उन्हें पूछी जाने वाली समस्याओं में हैं: दुर्भिक्ष के कारण, आर्थिक विकास के साथ व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संबंध, प्रत्येक की आत्मोन्नति के लिए सुविधाएं प्रदान करना, सशक्तिकरण और अर्थशास्त्र में नैतिकता- अर्थशास्त्र के इन नए-नए पहलुओं को सुलझाने में वे अग्रणी थे। जीन ड्रेज़ उनके साथ थे, अकाल के बुनियादी कारणों का निर्धारण करने में उनका दाहिना हाथ थे। अमर्त्य आर्थिक विकास में शिक्षा और स्वास्थ्य के महत्व पर जोर देते रहे हैं। उन्होंने भारत सरकार को प्राथमिक शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की अनिवार्यता पर चेताया। उन्होंने गरीबी की नई परिभाषा दी है। उनका मानना है कि विकास कार्यों में सुशासन की कमी है,संसाधनों की नहीं। वे कहते हैं, "..सवाल सरकार के अधिक या कम होने का नहीं है, बल्कि सवाल है सुप्रशासन का, सवाल केवल समानता का नहीं है बल्कि समानता के प्रकार का है।" वास्तव में ‘डिस्मल साइंस’ के क्षेत्र में वे एक महान विकल्प हैं।

मेरे और स्टीव के साथ चर्चा करते समय अमर्त्य हमेशा परोक्ष रूप से 'हार्ड बॉयल्ड इकोनॉमिक थ्योरिस्ट' को वर्तमान स्थिति का जिम्मेदार मानते है। जब उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला था तो प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों ने कहा था:"वे स्मिथ, रिकार्डो, मार्क्स, कैनेस और कालेकी के बराबर लीग के थे।"

पूर्व आयोजित आलोचना गोष्ठी के उनके निबंध के पहले पैराग्राफ को उद्धृत करते हुए यह अध्याय समाप्त करूंगा: "बाजार, राज्य और आर्थिक विकास, सार्वजनिक वित्त और नीति-निर्धारण में उनका हस्तक्षेप, विकास के मॉडल-निर्माण सिद्धांत आदि गरीब, वंचित, अकाल-ग्रस्त लोगों के लिए क्या मायने रखते हैं? विकास और सामाजिक न्याय, समता और कल्याण, दुर्भिक्ष और कु-प्रशासन और सामाजिक मूल्यों के अवक्षय के बारे में ‘डिस्मल साइंस’ के पास कुछ कहने को है या इसे सिर्फ वित्त के सीमित क्षेत्रों के कम और कम से ज्यादा और ज्यादा निकालने में महारत हासिल है? "

13. सिआमस हिनि, थॉमस ट्रान्स्ट्रोमर, चिनुआ आचिबि और जोसेफ ब्रोडस्की

सिआमस हिनि और आयरिश परंपरा

आयरिश कवि सिआमस हिनि एक साल के लिए अंग्रेजी विभाग में बोयलस्टोन प्रोफेसर ऑफ रेटोरिक एंड लेंग्वेज के रूप में आए थे। वह एक और हॉल में रहते थे, जो सीएफआईए हॉल के करीब था। वह भी मेरी तरह अकेले रहते थे। उनका परिवार आयरलैंड में था। मैं शुरु में उनके पद के बारे में भ्रमित था। 'भाषा' अर्थात् लेंग्वेज सही है। मगर शब्द 'रेटोरिक' का प्रयोग अपमानजनक अर्थ में किया जाता है। मेरा मानना था कि जब कविता में इस शब्द का इस्तेमाल किया जाता है तो वह खराब हो जाती है। बाद में सिआमस के साथ इसके बारे में चर्चा करने पर वास्तविक अर्थ समझ में आया।

पहली बार फोन करते समय वे नहीं थे। वे आयरलैंड चले गए थे क्योंकि आगे छुट्टियां थीं। बाद में फोन पर बातचीत हुई और हम एक-दूसरे से मिले। मैं लामोंट हॉल में उनके काव्य-पाठ की संध्या पर उपस्थित था। इसी तरह वे भी उपस्थित थे मेरे काव्य-पाठ के समय। स्वीडिश कवि थॉमस ट्रान्स्ट्रोमर जब अपने कविता-पाठ के लिए लामोंट हॉल में आए थे, उस शाम हम दोनों उपस्थित थे। लामोंट पुस्तकालय के पास वाले हॉल में नियमित कविता-पाठ होता रहता था।

उनके साथ कई विषयों पर चर्चा हुई। खासकर डबल्यू॰बी॰यीट्स की कविताओं पर। उन्होंने कहा, “ यीट्स की कविताएं विरोधाभासी हैं, मगर उनकी काव्य-वस्तु और भाषा-शैली प्रभावशाली है।फिर भी सामान्य जीवन को अतिक्रम कर अन्य सांसारिक अवस्था में ले जाने वाली उनकी कविताएं कुछ अप्राकृतिक-सी लगती हैं।” मैंने पूछा, "क्यों? क्या आप पूरी तरह से नास्तिक हैं? दैनिक सांसारिक जीवन को पार कर किसी अन्य वास्तविकता तक पहुंचना संभव नहीं है? बेशक, इस शब्द का वास्तविक अर्थ नहीं हो सकता है हालांकि, असत्य भी नहीं है। एक व्यक्ति अपने दैनिक जीवन में पूरी तरह से तुच्छ हो सकता है,मगर कभी-कभी उसका सांसारिक अस्तित्व के ऊपर या उसके पीछे दिखाई देने वाली दूसरी वास्तविकता का स्वरूप आँखों में नहीं पड़ता है? क्या हम इसे वास्तविकता का एक विस्तारित या नया क्षितिज नहीं कह सकते?" वे मेरे तर्कों से पूरी तरह सहमत नहीं थे लेकिन वे ऐसी वास्तविकता के अस्तित्व से इंकार भी नहीं कर सकते थे। उनकी राय में विभिन्न प्रकार की वास्तविकता (या साधारण वास्तविकता के ऊपर या उसके पीछे की वास्तविकता) निम्न वास्तविकता से उत्पन्न होती है। दूसरे शब्दों में, कविता रोजमर्रा की जिंदगी पर निर्भर है,मिट्टी से जुड़ी हुई होती है। उसके भीतर सब-कुछ खोजना पड़ेगा, जीवन के सारे रंग-रूप,सब रंगहीनता और रूपहीनता की स्थिति,हमारे सपने और स्वप्न-भंग के अद्भूत सम्मिश्रण की इतिवृति,स्वर्ग और नर्क के येट्सनीय आपोकालिप्स और हमारे जीवन की क्षण-भंगुरता की चिरंतनता के भीतर।

उन्होंने संक्षेप में बताया कि वे वामपंथी दृष्टिकोण वाली कविताओं के प्रति उदासीन हैं, भले ही उनमें मानवीय पक्ष क्यों नहीं हों। उनका मानना था कि कविता लिखते समय कोई भी पूर्व निर्धारित दृष्टिकोण नहीं होना चाहिए, क्योंकि इस वजह से कवि के मौलिक अनुभव व्याहत होने की ज्यादा संभावना है।कवि के लिए इतिहास ‘अनुपस्थित’ घटनाएं और उनका विश्लेषण सब गौण हैं। मुख्य है निरुता स्वयं-अनुभूत अनुभवों के विविध स्वरूप। उनके अनुसार काव्य-पुरुष अनुभवों को बहुत सारे स्तरों पर खुद समझने की चेष्टा करता है : मानसिक अथवा चिंतन स्तर पर,हृदय या प्राण या आवेग स्तर पर,सम्पूर्ण असंकलित रक्त-स्रोत,स्नायु और सारे इंद्रिय अनुभवों में। सब मिलकर बनता है उसका अनुभव। मैंने पूछा था, आप कहीं दूसरे शब्दों में एलिअटीय ‘स्पीनोजा एंड द स्मेल ऑफ कुकिंग’ के समीकरण तो नहीं बता रहे हैं? वे लगभग सहमत हुए थे। हम दोनों इस बात से सहमत थे कि अनुभव में,किसी के भी अनुभव में,बहुरूप को सम्पूर्ण रूप में करायत करना,चेतना और हृदय में लिपिबद्ध करना अत्यंत ही कठिन है। उससे भी ज्यादा कठिन है उसे भाषा में पिरोना, सही शब्दों की तलाश करना। मेरा सवाल था कि अनैतिहासिक अथवा इतिहास की अनुपस्थिति की आवश्यकता पर बल देने पर भी भाषा-इतिहास से संग्रहीत कर तिनकों से बने घोसलें में असंकलित इतिहास अपरोक्ष रूप से क्या कविता के भीतर नहीं आएगा ? इसलिए इतिहास से चिंतन स्तर पर खुद को मुक्त करने का प्रयास करने पर अनुभव के आत्म-प्रकाश स्तर पर इतिहास दूसरे रास्ते से मुड़कर लौट नहीं आता है ?

उन्होंने अपनी कविताओं से बहुत सारे अंश पढ़कर अपने दृष्टिकोण, अपने काव्य-दर्शन के विविध विभाव प्रतिपादित किए थे। काव्य-जगत के सामूहिक रूप के विषय पर उनके प्रगाढ़ अध्ययन और ज्ञान ने मुझे बहुत खुशी प्रदान की। फ़ैकल्टी क्लब में या उनके अपार्टमेंट में या मेरे अपार्टमेंट में कई बातों पर साहित्यिक चर्चा हुई थी। हम दोनों एक-दूसरे को बेहतर ढंग से समझने लगे। मुझे उनकी विनम्रता और खुलापन बहुत पसंद आया। उस समय तक उन्हें नोबेल पुरस्कार नहीं मिला था। परंपरा के प्रति उनका दृष्टिकोण नीचे लिखी कविता में देखा जा सकता है। कविता बहुत प्रसिद्ध है और सिआमस ने लामेंट हॉल में कविता स्वयं पढ़ी थी। अनुवाद का कुछ अंश नीचे दिया गया है:-

खुदाई

मेरी उंगली और मेरे अंगूठे के बीच

बंदूक की तरह मेरी कलम आराम कर रही थी।

तभी मेरी खिड़की के नीचे से

सुनाई पड़ी एक स्पष्ट आवाज

कंकड़ मिली मिट्टी में कुदाल धँसने की :

मैंने नीचे देखा

मेरे पिता मिट्टी खोद रहे थे।

छोटे-छोटे फूलों की क्यारियों पर

पिता के हाथों से चलती कुदाल

बीस साल पहले छंद-बद्ध होकर

जैसे वे आलू खोद रहे थे ।

अपने मैले जूतों पर बैठकर

कुदाल-धार को घुटनों के आगे दृढ़ता से ,

चलाते थे। ऊंची-ऊंची सूखी लताएँ

ढ़क देती थी कुदाल की तेज धार को

नए आलू को ऊपर खींचकर,

हम कड़े आलू की शीतलता को हथेली से अनुभव करते।

हे भगवान! एक बूढ़ा इतनी कुदाल चलाता है !

जैसे उसके बूढ़े पिताजी चलाया करते थे !!

हर दिन मैं

मेरे दादा के लिए

गाँव के किसी आदमी से

दूध-बोतल पर कागज की ठीपी देकर

लाता था।वह सीधे खड़े होकर

दूध पीकर फिर खुदाई में जुट जाते थे।

मेरी उंगली और मेरे अंगूठे के बीच

विश्राम करती कलम से

मैं खुदाई करूंगा।

सिआमस की कविता में परंपरा की उपजाऊ मिट्टी खुदाई करने के बहुत स्पष्ट संकेत है।

मैंने पहले कहीं कहा है कि मैं हार्वर्ड आते समय स्टॉकहोम में दो दिन रुका था और पहली बार साहित्य-संध्या में थॉमस ट्रान्स्ट्रोमर से मिला था। उन्होंने मेरी कविताओं का स्वीडिश भाषा में अनुवाद किया था। मैंने ओड़िया में मेरी दो कविताएं पढ़ी थीं, स्टॉकहोम की साहित्य-संध्या में।उन्होंने 'मृत्यु और स्वप्न' का अनुवाद पढ़ा था। मैंने थॉमस पेंगुइन की आधुनिक यूरोपीय कवि श्रृंखला में पहले पढ़ा था। सन 1974 में उस संकलन में थॉमस और फिनलैंड के कवि पावो हबीकोको की कविताएं एक साथ प्रकाशित हुई थीं। वे स्वीडन के शीर्षस्थ कवि हैं और उनकी कविताओं के कई अंग्रेजी अनुवाद अमेरिका में प्रकाशित हुए है। उन्हें अमेरिका में साहित्यिक संगठनों द्वारा नियमित रूप से काव्य-पाठ के लिए आमंत्रित किया जाता है। अमेरिका में उनके कई प्रशंसक हैं, जो नियमित रूप से उन्हें पढ़ते हैं। मैं यूनानी कवि स्ट्रैटिस हविरस (लमोंट की काव्य-संध्या के संयोजक) से पता चला कि उनका शीघ्र ही लमोंट लाइब्रेरी में काव्य-पाठ होने जा रहा है। उसके बाद मुझे थॉमस की चिट्ठी भी मिली। वह हार्वर्ड में अपने दोस्त के घर में रह रहे थे। वहाँ कई स्थानीय कवि, सिआमस हिनि, डोनाल्ड हॉल और उनकी पत्नी कविता जेन कैन्यन आदि कविता पाठ में आए थे। लमोंट लाइब्रेरी और थॉमस की यात्रा के प्रायोजक ( नाम याद नहीं है) ने काव्य-पाठ के बाद फ़ैकल्टी क्लब में एक रात्रिभोज का आयोजन किया था। उनसे मिलने का मुझे फिर से मौका मिला है। उस दिन उनकी पढ़ी हुई छह ह कविताओं में से मैंने दो का अनुवाद किया है (जो मेरे अनूदित कविता-संकलन में शामिल हैं)। उनकी कविताओं की विशेषता और गुणवत्ता के बारे में किसी भी पाठक को स्पष्ट अनुमान हो सकता है।

रेलपथ

चांदनी रात के दो बजे

रेलगाड़ी रुकी

खेतों के किनारे

शहर में रोशनी की कतारें

शीतल, टिमटिमाती

बहुत दूर क्षितिज पर।

जैसे खोया हुआ

एक आदमी गहरे सपने में

फिर जब लौटा अपने कमरे में

उसे याद नहीं कि

वह कहाँ गया था।

अथवा किसी भयंकर बीमारी से

परेशान मनुष्य सारे दिन

छह टपटाता हो जैसे

निष्प्रभ शीतल दिगंत में।

ट्रेन सम्पूर्ण गतिहीन

रात दो बजे : विपुल चांदनी में

कुछ सितारें।

आमने-सामने

फरवरी में जीवन

चलने में असक्षम

अनिच्छा से उड़ते खग

चेतना टकराती भूचित्र से

बंधी हुई नौका जैसे

शक्तिहीन होती पोल से।

मेरी तरफ पीठ किए

खड़ी थी वृक्षावली

गिरे हुए सूखे पत्ते

गहरी बर्फ पर

और उस पर पाद-चिह्न ।

एक-दूसरे की तरफ कूद पड़े हम ।

लामेंट लाइब्रेरी में आयोजित कविता पाठ के दूसरे दिन फ़ैकल्टी क्लब में मैंने उनके साथ दोपहर का भोजन किया था। हम दोनों ने दो-दो कविताएं अपनी मूल भाषा और उनके अंग्रेजी अनुवाद में सुनाने का तय किया। उन्होंने मूल कविताओं पर इसलिए जोर दिया क्योंकि उन्हें स्टॉकहोम के काव्य-पाठ में मेरी कविताओं का ओड़िया उच्चारण पसंद आया था। वह उनकी पुनरावृत्ति चाहते थे। मुझे उनकी मूल स्वीडिश कविता पसंद नहीं आई थी, फिर भी मैं ध्यान से सुन रहा था। कहने की जरूरत नहीं है, कविता में अंतर्निहित संगीत उसका अन्यतम विशिष्ट गुण है। उस दिन उनके द्वारा पढ़ी हुई दो कविताओं में से एक का ओड़िया अनुवाद करने का लोभ-संवरण नहीं कर पाया।

दंपति

वे बत्ती बुझा देते हैं।

पूरी तरह बुझने से पहले

एक पल के लिए श्वेत-आभा झलकती है।

उसके बाद ग्लास के अंधेरे में

बिन्दु बन लुप्त हो जाती थी;

होटल की दीवारें आकाश में

ऊपर उठती जाती थीं ।

प्रेम की गतिशीलता

खत्म हो जाती

और उनकी सारी गुप्त चिंताएं

आपस में मिल जाती हैं।

जैसे एक स्कूल के बच्चे की

कॉपी में बने चित्र के रंग गीले होने पर

मिल जाते हैं।

अंधेरा,नीरवता।

शहर की सारी चीजें

अधिक से अधिक निकट आ जाती है। तृषित

खिड़कियों की तृष्णा अब गायब हो जाती है।

सारे घर आस-पास। इकट्ठे ऐसे

भावहीन चेहरों की तरह

मनुष्य की उस भीड़ से मिलने को आतुर।

ट्रान्स्ट्रोमर का जन्म सन 1931 में स्टॉकहोम में हुआ था। वह पेशे से मनोवैज्ञानिक थे। वह अपनी पत्नी और दो बेटियों के साथ वास्तार्स नामक एक छोटे शहर में रहते थे। तब तक उनके सात कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके थे। तेईस साल की उम्र में उनके कविता संग्रह 'सत्रह कविता' ने स्वीडिश कविता प्रेमियों को एक शक्तिशाली नूतन स्वर प्रदान किया था। उनकी कविताओं में अपने छोटे शहर का अंधेरा, बर्फ से भरी सर्दी और गर्मी के शुरुआती दिन परिलक्षित होते हैं। आज लिखते समय मुझे पता चला है कि ‘स्ट्रोक’ के कारण विगत नौ सालों से चल-फिर नहीं पा रहे हैं। वे व्हीलचेयर पर अपना जीवन बीता रहे हैं। कविता नहीं लिख पाने के कारण वे बोल देते हैं। जैसे मेरे एक और कवि-मित्र बैंगलोर के जयनगर में रहने वाले गोपालकृष्ण आडिगा भी ऐसा ही करते थे।

मार्टिन एल्वुड ने मेरी कविताओं का स्वीडिश भाषा में अनुवाद किया है। वह एक कवि, नाटककार, कहानीकार और सर्वोपरि अनुवादक संकलक हैं। दोनों अंग्रेजी और स्वीडिश-फिनिश भाषाओं में सिद्धहस्त एल्वुड द्वारा अनूदित और संपादित 'मॉडर्न स्कैन्डिनेवियन पोएट्री' बहुत प्रशंसित संकलन है। अमेरिका के प्रसिद्ध प्रकाशक न्यू डायरेक्शन ने इस पुस्तक को प्रकाशित किया है। इसमें नॉर्वे, स्वीडन, फिनलैंड, डेनमार्क, आइसलैंड, ग्रीनलैंड और एस्किमो समुदाय ‘सामी’ की लोक कविताएं संकलित हैं। एल्वुड और उनके मित्र फ्रेडनहोम ने अंधे स्वीडिश कवि लेनार्ट दाहल की कविताओं का अनुवाद किया है,जिसका शीर्षक है 'द हाउस ऑफ डार्कनेस' । लेनार्ट दाहल लघु कहानी संग्रह 'द फुलनेस ऑफ टाइम' और 'सिक्स प्लेज' के प्रसिद्ध लेखक हैं। 'द हाउस ऑफ डार्कनेस' में संकलित कविताएँ काफी हृदयस्पर्शी हैं।

दोनों ने स्वीडिश कवि नील्स फेर्लिन का कविता-संग्रह 'विद प्लेण्टी ऑफ कलर्ड ल्यार्ट्न’ के बहुत सारे अनुवाद संकलित किए है। मार्टिन ने अन्य स्वीडिश कवियों का अंग्रेजी में भी अनुवाद किया है। मैं बहुत भाग्यशाली था कि ऐसे बुद्धिमान और प्रसिद्ध साहित्यिक ने स्वीडिश भाषा में मेरी कविताओं का संग्रह तैयार किया था। उन्होंने कविता-संग्रह का नाम 'डेथ एंड ड्रीम' (डोड ओच ड्रम) रखा था। उन्होंने मुझे लिखा, "मैंने तुम्हारी कविताओं में दो चिरंतन सत्य की जुगलबंदी पाई है इसलिए मैंने इस किताब का यह नाम देने का फैसला किया है। मुझे आशा है कि आप किताब के इस शीर्षक से सहमत होंगे।" पेर्ज़ोना प्रेस ऑफ स्वीडन ने सन 1985 में इस कविता-संग्रह प्रकाशित किया था और इसकी प्रस्तावना आलोचक और कवि हेलमैन लैंग ने लिखी थी। एल्वुड ने इसे समीक्षार्थ थॉमस ट्रान्स्ट्रोमर के पास भेजा। थॉमस ने मुझे इस पुस्तक के बारे में लिखा:"स्वीडिश अनुवाद में आपकी कविताएं जीवंत, रंगीन और 'विदेशी' लग रही हैं, लेकिन मेरी स्वीडिश कल्पना की तुलना में अधिक विदेशी नहीं है! मुझे लगता है कि अनुवाद में बहुत कुछ खो जाता है लेकिन कथावस्तु बनी रहती है और मुझे आपकी कविताएँ पढ़कर बहुत खुशी हुई।"

जब मैं इन दिनों का यह पत्र पढ़ता हूं, तो मुझे स्टॉकहोम और हार्वर्ड में उनके कविता-पाठ,उज्ज्वल चेहरा और अंतरंग स्वर –सब याद आने लगते है। मैंने पहले भी अन्यत्र कहा है स्टॉकहोम समारोह में जिस कविता को मैंने ओड़िया में पढ़ा, थॉमस ने उसी कविता का स्वीडिश अनुवाद पढ़ा था। कविता 'मौत और सपने' संकलन में है। 'विदूषक' और 'मुर्गो की लड़ाई' दो कविताएं पढ़ी गई थीं। जब मैं हार्वर्ड में था,तब मुझे नियमित रूप से थॉमस के पत्र मिलते थे। उन्होंने एकाधिक बार मुझे लिखा था कि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है।अंत में, उनके साथ दो-तीन बार मुलाक़ातें, काव्य-पाठ और बातचीत उनके हार्वर्ड आने के कारण संभव हुई थीं। बाद में जब मुझे पत्र से उनके स्ट्रोक की खबर मिली तो मुझे बहुत दुख हुआ था। मैं उन्हें कवि के रूप में प्यार करता था। पेंगुइन यूरोपीय कवि श्रृंखला में थॉमस और पावो हाविको के कविता-संग्रह का मैं पहले ही उल्लेख कर चुका हूँ। मगर थॉमस के एकक कवि के रूप में दो कविता संग्रह भी उस समय प्रकाशित हुए थे। रॉबिन फुल्टन द्वारा अनूदित पहला कविता-संग्रह 'सलेक्टेड पोएम्स' (1987) था। जब मैं हार्वर्ड में था, तब यह संकलन प्रकाशित हुआ था। लेकिन मुझे स्टॉकहोम में उनसे यह संकलन मिला था। दूसरे संग्रह का शीर्षक भी 'सलेक्टेड पोएम्स(1945-86)' था। इसे रॉबर्ट हास और छह ह अन्य द्वारा संकलित और अनूदित किया गया था।यह भी सन 1987 में प्रकाशित हुआ था।

मैं अपने परिवार के साथ स्टॉकहोम से होते हुए हार्वर्ड गया था। मैं स्टॉकहोम में केवल तीन दिन बिता सकता था। मैं स्वीडन के अन्य शहरों में अपने भारतीय साहित्यिक मित्रों से नहीं मिल पाया था। क्योंकि मुझे निर्दिष्ट तिथि तक हार्वर्ड जाना था। अन्य भारतीय लेखकों में प्रोफेसर पी लाल, अयाप्पा पानिककर, कुर्तुलेन हैदर, अरुण कोलटकर, अनंत मूर्ति और कुँवर नारायण शामिल थे। अब जब मैं इन नामों पर नजर डालता हूं तो पता चलता है अयप्पा, कुर्तुलेन और अरुण इस दुनिया में नहीं हैं। अरुण दोनों मराठी और अंग्रेजी में कविता लिखते थे। उनका अँग्रेजी कविता-संग्रह 'येजुरि' अत्यधिक प्रशंसित रहा है।

स्टॉकहोम में तीन कार्यक्रम थे। मेरे दोस्त थॉमस ट्रान्स्ट्रोमर ने तीनों में भाग लिया था। पहला था 'आधुनिक भारतीय साहित्य में परंपरा का नवीनीकरण– कथावस्तु और भाषा' । हम सभी ने इस सत्र में अपने विचार व्यक्त किए थे। यह स्वीडिश लेखक संघ द्वारा आयोजित किया गया था,जिसमें कई स्वीडिश लेखकों ने भाग लिया था। उन्होंने कई सवाल पूछे थे। थॉमस द्वारा पूछे गए प्रश्न सबसे अधिक व्यावहारिक थे। जिससे उनके दूरदर्शिता और साहित्यानुरागी व्यक्तित्त्व की झलक मिलती है। क्या सचेतनता लेखक का इच्छाकृत उद्यम है या बचपन के परिवेश, सामाजिक रीति-रिवाजों और मूल्यों से उत्पन्न होकर वह उनके तंत्रिका-तंत्र, धमनी-शिरा, हृदय और मस्तिष्क में घोंसला बना लेता है ? उन्होंने कहा कि उनका दूसरे विकल्प में दृढ़ विश्वास है। उन्होंने यह भी बताया कि स्वीडिश लोककथाओं, लोक-संस्कृति, शास्त्रीय स्वीडिश कविता और इंगमर बर्गमैन की कई फिल्मों में यह बात प्रतिबिंबित हुई हैं। अपनी बात साबित करने के लिए उन्होंने अपनी कुछ कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद पढे थे। मैं उनकी राय से पूर्णतया सहमत था। दो अन्य सत्र कविता-पाठ के लिए आयोजित किए गए थे। एक लेखक संघ द्वारा अपने संस्थान में तो दूसरा स्टॉकहोम यूनिवर्सिटी में। इन दोनों सत्रों में थॉमस और कवि जेल एस्पामार्क ने अंग्रेजी अनुवाद के साथ अपनी कविताएं पढ़ी थीं।

चिनुआ आचिबि: 'एंट हिल्स ऑफ़ सवाना'

चिनुआ आचिबि तीन दिनों के लिए हार्वर्ड आए थे। वह मैसाचुसेट्स कॉलेज में उस समय पढ़ा रहे थे। वह अपने उपन्यासों के कुछ अंश पढ़ने और उन पर प्रकाश डालने के लिए सपरिवार वहाँ आए थे। चिनुआ आचिबि नाइजीरिया के प्रमुख उपन्यासकार हैं। नोबेल पुरस्कार प्राप्त नाइजीरिया के ओले सोयिंका ने मुख्यतः कविता और नाटक लिखे थे, मगर आचिबि ने उच्च-श्रेणी के उपन्यासों जैसे 'थिंग्स फाल अपार्ट',' एरो ऑफ गॉड ', ‘नो लोंगर एट एज' और 'एंट हिल्स ऑफ़ सवाना' की रचना की थी। उनके दो कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए थे: 'बीवायर सोल ब्रदर' और 'क्रिसमस इन बी-आफ्रा’। उनके 'द ट्रबल विद नाइजीरिया' और 'होप्स एंड इम्पेड़ीमेंट' नामक दो निबंध-संग्रह, लघु कहानी-संग्रह 'गर्ल्स ऑफ वॉर एंड अदर स्टोरीज' प्रकाशित हुए थे। अफ्रीकी लेखकों ने सहकारी आधार पर एक प्रकाशन संस्था का गठन किया है। जो पेंगुइन प्रकाशन के नक्शेकदम पर अफ्रीका के विभिन्न देशों की कविता, उपन्यास और नाटक प्रकाशित करता है। इस संस्था के गठन में आचिबि ने सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अधिकांश अफ्रीकी लेखक अंग्रेजी में लिखते हैं। इसलिए वहाँ अनुवाद की समस्या नहीं हैं। कुछ लेखक, जो अफ्रीकी भाषाओं में लिखते हैं,यह संस्था उनके अंग्रेजी-अनुवाद करने की जिम्मेदारी लेता है। इस प्रकार से विभिन्न अफ्रीकी देशों के प्रमुख लेखकों की दो सौ से अधिक पुस्तकें इस प्रकाशन संस्था द्वारा प्रकाशित हुई हैं।

इस संस्था का यूरोप और अमेरिका के प्रमुख प्रकाशन-गृहों के साथ लेन-देन का संबंध है। मैंने आचिबि के उपन्यास 'थिंग्स फाल अपार्ट', और ‘नो लोंगर एट एज' बहुत पहले पढे थे। दूसरे उपन्यास का नायक विदेश में कई साल बिताने के बाद अपने देश लौटता है।वह अपने देश, समाज और संस्कृति से प्यार करता था। लेकिन वह अपने परिवर्तित स्वरूप और समकालीन राजनीतिक-आर्थिक दृष्टिकोण से बदले हुए समाज के साथ तालमेल नहीं बैठा पा रहा था। इस उपन्यास में मानसिक संघर्ष के साथ-साथ सांस्कृतिक संघर्ष को अच्छी तरह से दर्शाया गया है। मगर उनका उपन्यास 'थिंग्स फाल अपार्ट' दोनों पाठकों और आलोचकों द्वारा अत्यधिक सराहा गया है। सन 1959 में इसके प्रकाशित होते ही यू.एस.ए. में बीस लाख से अधिक प्रतियां बिक गई थी। इस उपन्यास का पचास भाषाओं में अनुवाद हुआ और एक करोड़ से अधिक प्रतियों की बिक्री हुई थी। यह चिंनुआ की सबसे अच्छी कृति है। कुछ आलोचक इस उपन्यास की तुलना ग्रीक त्रासदी से करते हैं। मैंने दूसरों से सुना था और उन्होंने चर्चा के दौरान सहमति भी जताई कि अमेरिका में प्रति वर्ष कम से कम एक लाख प्रतियां बिकती हैं।

एक दुर्घुष शक्तिशाली चरित्र ओकोन्को के चारों तरफ यह उपन्यास घूमता है। उसका जीवन मुख्यतः भय और क्रोध से परिचालित होता है। संक्षेप में, विद्रूप और सहानुभूति के दृष्टिकोण से चिनुआ जीवंत चरित्र बनाने में सफल हुए हैं, जिसे समझना मुश्किल है और जिसकी आत्महत्या पाठकों को दुखी कर देती है। यह उपन्यास अफ्रीकी जीवन से ओत-प्रोत है, मगर देश,काल,पात्र की सीमा पारकर उपन्यास का चरित्र ओकोन्को कालजयी बन गया है। दक्षिण अफ्रीका के उपन्यासकार नादीम गार्दीमोरे की भाषा में, "चिनुआ आचिबि को जीवंतता, उदारता और महान प्रतिभा का जादू यशस्वी उपहारस्वरूप मिला है।"

'थिंग्स फाल अपार्ट 'उनका सबसे पसंदीदा उपन्यास है। उनका कहना है कि इस उपन्यास में वे खुद को सबसे शक्तिशाली और स्पष्ट तरीके से अभिव्यक्त कर पाए हैं। मैंने उन्हें बताया था कि यह उपन्यास मुझे भी बेहद प्रिय है। उन्होंने कहा कि 'बिवयार सोल ब्रदर' और 'क्रिस्मस इन बी-आफ़्रा' उनके दो प्रिय कविता-संकलन हैं। 'एंट हिल्स ऑफ़ सवाना' सन 1987 में बुकर पुरस्कार के अंतिम चरण तक पहुंचा था और उनका उपन्यास 'एरो ऑफ गॉड' को न्यू स्टेटमैन-कैम्पबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था। अन्य नाइजीरियाई पृष्ठभूमि वाले उपन्यासों की तुलना में 'एंट हिल्स ऑफ़ सवाना' समग्र अफ्रीका के इतिहास और वर्तमान के आधार पर लिखा गया है। साहित्यिक आलोचकों का मानना है कि समकालीन उपन्यास जगत में यह उच्च कोटि की रचना है। मैंने हार्वर्ड प्रवास के दौरान यह उपन्यास पढ़ लिया था और मुझे यह बहुत अच्छा लगा था। लेकिन उनका उपन्यास 'थिंग्स फाल अपार्ट’ ही मेरा सबसे पसंदीदा था। मैं कविता-पाठ के बारे में जानता था, लेकिन उपन्यास-पाठ कैसे होता है,मैं यह जानने के लिए उत्सुक था। आचिबि ने पहले उपन्यास की कथा-वस्तु पर प्रकाश डाला, फिर उन्होंने उपन्यास की रचना-प्रक्रिया और उसके बारे में अपने दृष्टिकोण के बारे में विमर्श किया और अंत में उन्होंने कुछ चयनित अंश पढ़े । उसके बाद प्रश्नोत्तर के लिए कुछ समय निर्धारित था, उसमें आचिबि ने कोएट्जे और नादीम गारडिमोरे (दो अफ्रीकी उपन्यासकार) के उपन्यासों पर चर्चा की थी।उपन्यास-पाठ के बाद फ़ैकल्टी क्लब में रात्रिभोज था, उसमें आचिबि ने मेरे कुछ विशिष्ट प्रश्नों का उत्तर दिया। मुझे लगा कि आचिबि नाइजीरिया के नोबल पुरस्कार विजेता ओले सोयिंका की कृतियों पर विशेष अनुकूल भाव प्रदर्शित नहीं कर रहे थे। उनकी टिप्पणी इस प्रकार थी: " केवल सोयिंका ही क्यों, अफ्रीका के कई नामी लेखक पश्चिमी पाठकों को अपने बारे में समझाने का असाधारण प्रयास करते हैं। ऐसे प्रयासों से मुझे बहुत दुख होता है। ऐसा लगता है कि वे केवल पश्चिमी पाठकों के लिए ही लिखते हैं, न कि संसार के समस्त साहित्य प्रेमियों के लिए।"

आचिबि मुख्यतः उनके उपन्यासों के लिए जाने जाते है, लेकिन मैं उनकी कविताओं को पसंद करता हूं। बी-आफ्रा के गृहयुद्ध, उसकी भयावहता,अनाहार और अकाल की बर्बरता के परिप्रेक्ष्य में आता है क्रिसमस। आचिबि एक रोमन कैथोलिक थे। वह कुछ हद तक आस्तिक थे। कविता-संग्रह 'बी-आफ़्रा में क्रिसमस' ने मेरे दिल को छुआ था। टाइम्स पत्रिका में प्रकाशित अधमरी मां की गोद में मरते हुए बच्चे की तस्वीर मुझे याद आने लगी। उस चित्र का शीर्षक 'पिएटा ऑफ बी-आफ्रा' था। ईसा के सूली पर चढ़ने के बाद उनकी माँ मरियम की गोद में लेटा हुआ ईसा मसीह की तस्वीर। ओड़िशा के ‘न अंक’ अकाल के दृश्य जिसे मैंने नहीं देखे थे (मुझे फकीर मोहन की आत्मकथा से ही पता चला था) ने मुझे मर्मांतक पीड़ा दी। आचिबि अपनी पत्नी के साथ रहते थे। उन्होंने कहा, "मेरे चार बच्चे हैं,वे चार उपन्यास हैं।" चिनुआ का जन्म 1930 में नाइजीरिया में ओगिडी नामक गांव में हुआ था।स्नातक होने के बाद वे एक्सटर्नल ब्रॉडकास्टिंग के निदेशक बने थे। बाद में उन्होंने नाइजीरिया विश्वविद्यालय में सीनियर रिसर्च फ़ेलो का काम किया। व्याख्यान देने के लिए कई विश्वविद्यालयों में उन्हें आमंत्रित किया था।

उन्होंने कहा कि सन 1972-76 एवं 1987-88 में मासाचुसेट विश्वविद्यालय में एवं एक साल कनेकटिके में हार्वर्ड बहुत परिचित और प्रिय क्षेत्र था । लंदन के संडे टाइम्स ने उन्हें 'बीसवीं शताब्दी के 1000 मीटर की लाइफलाइन’ कहा था। इसका कारण यह था कि वे आधुनिक अफ्रीकी साहित्य (जो वास्तव में अफ्रीकी था) के प्रवक्ता थे।

उन्होंने कहा कि उन्होंने बच्चों के लिए कुछ लिखा है। मैंने कहा, “आपका बाल-साहित्य मैंने नहीं पढ़ा है।” वे अफ्रीका के अन्य तीन नोबेल पुरस्कार विजेताओं को जानते थे और उन्होंने उन्हें पढ़ा भी था। नादिम गार्डिमोर के उपन्यास उनके प्रिय थे। उन्होंने सोयिंका के नाटक और कविताएं भी पढ़ी थीं । उन्हें नाटक ज्यादा समझ में नहीं आते थे। उनके अनुसार नाटक केवल प्रदर्शन वाली कला है। चिनुआ सपत्नीक हार्वर्ड आए थे, अपना उपन्यास-पाठ,उन पर चर्चा और साक्षात्कार करने के लिए। हार्वर्ड में तीन दिन रहने के बाद वे न्यूयॉर्क लौट गए। उनके काव्य-पाठ और रात्रिभोज में कार्लो फ्यून्टेस और सिआमस हिनि भी आए थे। मैंने पहले ही कहा है कि कार्लो और सिआमस मेरी ही तरह एक साल के फ़ेलोशिप पर हार्वर्ड आए थे।

(क्रमशः अगले भागों में जारी...)

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: स्मृतियों में हार्वर्ड - भाग 4 // सीताकान्त महापात्र // अनुवाद - दिनेश कुमार माली
स्मृतियों में हार्वर्ड - भाग 4 // सीताकान्त महापात्र // अनुवाद - दिनेश कुमार माली
https://lh3.googleusercontent.com/-N21McQw72So/WsSfIKmkaHI/AAAAAAABApk/8HAFqXfXnSAYc6w0W4YFOHQm-p4wpT3VQCHMYCw/image_thumb3?imgmax=800
https://lh3.googleusercontent.com/-N21McQw72So/WsSfIKmkaHI/AAAAAAABApk/8HAFqXfXnSAYc6w0W4YFOHQm-p4wpT3VQCHMYCw/s72-c/image_thumb3?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2018/04/4_4.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2018/04/4_4.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content