आध्यात्मिकता से एकता एवं समन्वय : अध्याय : ३ आध्यात्मिकता और धर्म - लेखक : डॉ. निरंजन मोहनलाल व्यास - भाषांतर : हर्षद दवे

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आध्यात्मिकता से एकता एवं समन्वय लेखक डॉ. निरंजन मोहनलाल व्यास भाषांतर हर्षद दवे -- प्रस्तावना | अध्याय 1 | अध्याय 2 | अध्याय : ३ आध्यात्म...

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आध्यात्मिकता से एकता एवं समन्वय

लेखक

डॉ. निरंजन मोहनलाल व्यास

भाषांतर

हर्षद दवे

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प्रस्तावना | अध्याय 1 | अध्याय 2 |

अध्याय : ३

आध्यात्मिकता और धर्म

धर्म (रिलिजन) शब्द लेटिन शब्द 'रिलिजियो' से आया है जिसे प्राचीन रोम के अनुसार उस के दो अर्थ बताते हैं. एक, निकटता (मनुष्य एवं ईश्वर के बीच का बांड) और दूसरा अर्थ नैतिक कर्तव्य (मनुष्य के द्वारा ईश्वर की भक्ति करने का कर्तव्य). एक या दूसरे रूप में विश्व के अधिकतर लोगों पर धर्म का गहरा प्रभाव है और यह अधिक से अधिक लोगों के विचारों पर प्रभावक है. कुछ लोग ईश्वर की भक्ति बड़ी ऊंची आवाज में, संगीत एवं उत्साह के साथ, नृत्य करते हुए करते हैं, जब कि शेष लोग शांतिपूर्वक मौन रहकर भक्ति करते हैं. कुछ धर्म इस जीवन के बाद के जीवन पर विचार प्रकट करते हैं, सारे धर्म वर्तमान समय के या मृत्यु के बाद के जीवन में अच्छे आचरण को ही प्रोत्साहित करते हैं.

धर्म जीवन की बड़ी समस्याओं के समाधान प्रस्तुत करने की कोशिश करता है. संसार में दुःख एवं यातना क्यों हैं? क्या मृत्यु के बाद भी कोई जीवन है? इस धरती पर मुझे मेरा जीवन कैसे जीना चाहिए? यदि इस सृष्टि का सृजन ईश्वर ने किया है तो फिर ईश्वर का सृजन किस ने किया? अलबत्ता, ऐसे प्रश्न पूछने के लिए हमारा धार्मिक होना आवश्यक नहीं. तत्त्वज्ञान और विज्ञान ऐसे ही प्रश्न प्रस्तुत करते हैं. परंतु हमारा अधिकतर इतिहास, हमारा तत्त्वज्ञान और विज्ञान स्वयं विश्व की धार्मिक समझदारी के हिस्से के अंश हैं. दोनों मानव सृजन गहन विस्मय का रहस्य जानने में साझेदार बने हैं. यहां ऐसी बातें भी हैं कि जिन का बुद्धिगम्य अथवा तर्कबद्ध पूर्णरूप से स्पष्टीकरण दे पाना संभव नहीं है.

विश्व के धर्मों के अधिकतर लोग किसी दिव्य अथवा आध्यात्मिक उपस्थिति पर (अस्तित्व पर) विश्वास रखते हैं. हम ऐसे अस्तित्व का अनुभव कर सकते हैं. ऐसे अनुभवों को कई बार ईश्वरीय कहा जाता है. हम किसी भी समय, मस्जिद या मंदिर में अथवा रात के समय आकाश में अपलक दृष्टि से देख रहे होते हैं तब या फिर किसी प्रियजन की मृत्यु हो जाने पर इस की अनुभूति होती है. वह 'कुछ' अपार्थिव है जिस का हम संतोषप्रद स्पष्टीकरण नहीं दे पाते हैं. किंतु यह ऐसा सूचित करता है कि जिसे हम देख सकते हैं उस के उस पार के कोई अगम्य विश्व जैसा भी कहीं है. कहीं पर दैवी तत्त्व होने की यह भावना दुनिया के प्रत्येक धर्म के हार्द में अपना अस्तित्व रखती है. श्रेष्ठ धर्मों का सर्वोत्तम पहलू सर्वधर्म समानता पर विश्वास रखने में है. इस से हम प्रत्येक धर्म के दिव्य तत्त्व के प्रति उचित आदरभाव से कैसे पेश आना चाहिए यह सीख सकते हैं और अन्य धर्म के प्रत्येक सर्जन के प्रति भी इसी प्रकार की भावना रख सकते हैं.

ह्यूस्टन स्मिथ अपनी पुस्तक 'वर्ल्ड्स रिलिजन्स' में मनुष्य में जन्मजात पाए जाते धर्म की छ: विशेषताएँ दर्शाते हैं:

प्रथम विशेषता है आधिपत्य : धर्म शास्त्र उतना ही जटिल शास्त्र है जितना कि सरकारी तंत्र और चिकित्साशास्त्र. अतः धर्मशास्त्र में प्रवीण माने जाते लोग जो कि आध्यात्मिक क्षेत्र में उन्नति कर पाए हों उनकी राय ले कर जीवन में उचित मार्गदर्शन पाया जा सकता है.

धर्म की दूसरी विशेषता है उस की धार्मिक विधियाँ (कर्मकांड). धर्म और धार्मिक विधियाँ हर्ष या शोक के अवसर पर होती हैं. दोनों में सामूहिक अभिव्यक्ति पाई जाती हैं. दुखद घटना घटी हो तब अथवा हम सब हर्ष से नृत्य कर रहे होते हैं तब. हम केवल इतना ही नहीं चाहते कि अन्य लोग हमारे साथ हो किंतु हम यह भी चाहते हैं कि उन लोगों के साथ हमारे संबंध अधिक घनिष्ठ बने. और इस प्रकार हम अपने एकाकीपन से मुक्ति पाते हैं. उस समय हम उन्हें अपने निजी समझते हैं.

भले ही धर्म का प्रारंभ कर्मकांड से होता हो, परंतु हमारा मन तुरंत कुछ स्पष्टीकरण पाने के लिए सोचने लगता है. हम कहाँ से आते हैं? हम कहाँ जा रहे हैं? हम यहां क्यों हैं? इत्यादि प्रश्नों का समाधान होना चाहिए. ऐसे में तत्संबंधित जवाब और सिद्धांत कुछ धार्मिक विश्वासों के अंतर्गत समाविष्ट हो जाते हैं.

धर्म की चौथी विशेषता है परंपरा. उस से मनुष्य में पुरातन काल का, भूतकाल का जो ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी आज तक सुरक्षित रहा है उसे बनाए रखने की और वंशानुगत जारी रखने की तरफ झुकाव उत्पन्न होता है.

धर्म की पांचवी विशेषता है ईश्वरकृपा. वह परमतत्त्व हमारे साथ है और उस पर भरोसा किया जा सकता है ऐसा दृढ़ विश्वास एवं श्रद्धा.

धर्म की छठवीं और अंतिम विशेषता यह है कि उसकी गतिविधि रहस्यमय है. यह अनादी और अनंत का निर्देश करती है इसलिए मानवी का मर्यादित मन उस की थाह नहीं पा सकता क्योंकि यह अपरिमेय (जिसे नापा नहीं जा सकता) है.

धर्म के बारे में जब किसी भी प्रकार का अवरोध उत्पन्न होने पर इस की ये छः विशेषताएँ सहायक बनती हैं.

v धार्मिक दावों का आलोचनात्मक मूल्यांकन:

एच.एम्.हार्ट्सहोम निर्देश करते हैं कि जिसके बारे में वे ऐसी सर्वोपरि धारणाएं रखते हैं उन का विवेचन नहीं हो सकता. अटल धार्मिक वचनों के विवादास्पद रूप को समझाते हुए वे कहते हैं:

'हरेक युग में धर्म की निंदा करनेवाले और आलोचना करनेवाले पाए जाते हैं. ऐसा होने के कम से कम दो कारण हो सकते हैं. पहला यह कि, धर्म भी अन्य सभी मानवसर्जित संस्थानों की तरह मनुष्य के मिथ्याभिमान, अज्ञानता और भूल के पात्र है. दूसरी, मनुष्य होने के नाते बिना सोचे-समझे हमारा अस्तित्व नहीं हो सकता. और सोचने का अर्थ है संदेह रखना, गहन जांच करना, गुण-दोष देखना. धार्मिक लोगों को अनिवार्य रूप से ऐसी आलोचनाओं का सामना करना पडा है. जब बात हमारे विशवास की हो तब इस विषय में किसी प्रकार के शक-संदेह हमें स्वीकार्य नहीं है. हमारी ईश्वरों के प्रति हमारी श्रद्धा ही हमारे जीवन का आधार है. यह हमारे जीवन को अर्थपूर्ण करने के लिए इतना मूल्यवान साधन है कि जिससे हम अपने जीवन को सार्थक करते हैं. यह ऐसा आधारस्तंभ है जिसे हम अपने सर्वस्व के बदले में भी गँवा नहीं सकते. लोग ईश्वर के प्रति इतने रक्षात्मक कभी नहीं थे. धार्मिक मनुष्य अपने गुण-दोष देखने के लिए तत्पर नहीं होते. हमारी धार्मिक आलोचनाएं मुश्किल से अपने स्वयं के ईश्वर से संबंधित होती है. किंतु हम औरों के देवी-देवताओं की बेखटक, बेहिसाब धडल्ले से आलोचना करते हैं. परंतु जिन देवी-देवता हमारे तीर्थस्थानों में स्थित हैं उन्हें हमें मुश्किल से दांव पर लगते हैं. दरअसल हम इतने इर्ष्यालू हो कर हमारे देवताओं की रक्षा करते है कि इस के बारे में हम खुद नहीं जानते. फिर भी, जब हम सर्व धर्म का परिचय पाते हैं तत्पश्चात हम ऐसी समझदारी दिखाते हैं कि हमें इस प्रकार की धार्मिक आलोचना करने से दूर रहना चाहिए. शायद प्रत्येक धर्म के विभिन्न दृष्टिकोण को समझने में उनके अर्थ की भूमिका के महत्व का अंदाजा लगा सके इसीलिए भी हमारा धार्मिक आलोचनाएं करना उचित नहीं. कई तथाकथित धार्मिक लोग अपने भाषण से और अपनी मान्यताओं का पक्ष लेनेवालों की सहानुभूति से ऐसे संदेह प्रस्तुत करते हैं या फिर ऐसी समस्याओं का सर्जन करते हैं कि जिन के बारे में हमें कुछ नहीं मालूम. कई बार ऐसा होता है कि जब हम अपने धार्मिक विश्वास को बनाए रखने के लिए जो बहस करते हैं वही जाने-अनजाने में दूसरे लोगोंके धार्मिक विश्वास की आलोचना बन जाती है.

v आध्यात्मिकता विश्व के प्रत्येक प्रमुख धर्मों का एक हिस्सा है:

आध्यात्मिकता के विशिष्ट गुणधर्म और उस की परिभाषाओं के वैविध्य को भलीभांति समझने के लिए विश्व के विविध धर्मों की प्रमुख मान्यताओं का विश्लेषण सहायक बन सकता है: अर्थयुक्त एवं उपयुक्त परिचर्चा के लिए और स्पष्ट समझदारी विकसित करने हेतु इन धर्मों को पांच समूह में विभाजित किया गया है:

(१) भारतीय उपखंड से उत्पन्न धर्म:

अ) हिंदू धर्म.

ब) बौद्ध धर्म.

क) जैन धर्म.

ड) सिख धर्म.

(२) मध्य पूर्व के देशों से उत्पन्न धर्म: (यहूदी/हिब्रू और अरबी धर्म)

अ) यहूदी धर्म.

ब) ख्रीस्त धर्म.

क) पारसी (जरथ्रुष्ट) धर्म.

ड) ईसाई धर्म. (इस्लाम). (जिसमें बहाई एवं सूफी पंथों के धर्मों का समावेश होता है.)

(३) दूर पूर्व के देशों से उत्पन्न धर्म: (चीन एवं जापान के धर्म)

अ) ताओ धर्म. (चीन: लाओ त्सू)

ब) कन्फ्यूशियस धर्म.

क) शिंटो धर्म. (जापान)

(४) अन्य समुदाय के धर्म: (जिस में आदिवासियों के धर्मों का समावेश होता है.)

अ) मूल ऑस्ट्रेलिया के और न्यूजीलैंड की मावरी जाति के धर्म.

ब) अफ्रिका के मूल धर्म.

क) उत्तर अमरीका एवं दक्षिण अमरीका (एमेझोन) इंडियंस के धर्म.

ड) अजटेक, इंका एवं मायन्स लोगों के धर्म. (मध्य व दक्षिण अमरीका)

(५) अतीत के प्राचीन धर्म: (जिनका पालन अब कहीं पर नहीं होता)

अ) प्राचीन इजिप्त.

ब) प्राचीन ग्रीस.

क) प्राचीन रोम.

ड) नोर्स और सेल्टिक धर्म. (प्राचीन उत्तर योरप के धर्म.)

भिन्न भिन्न लोग कई बार अलग अलग भाषाएँ बोलते हैं. कुछ लोग एक दूसरे से काफी दूर बसते हैं और कुछ ही समय के पहले वे एक दूसरे से विशेष रूप से परिचित नहीं थे या उन के बीच कोई सीधा संवाद नहीं हुआ था. इस में सब से अधिक प्रभावक बात यह थी कि इन धर्मों के अध्ययन के दौरान उन सब का विश्वास यह है कि मनुष्य का शरीर भौतिक तत्त्वों से (जिन्हें हम पंच-तत्व से जानते हैं) बना हुआ है. और जीवन के एकसमान पहलू पर विश्वास रखते हैं: यह हकीकत है कि मनुष्य शरीर पदार्थ का मतलब कि भौतिक तत्त्वों से बना हुआ है और यह आत्मा से अलग है. आत्मा को चेतना, जीवात्मा, जीवनशक्ति, चैतन्य या प्राण भी कहते हैं, जो मृत्यु के समय शरीर को छोड़ जाती है. मृत्यु के पश्चात इस आत्मा या जीवात्मा का क्या होती है यह एक रहस्य है. विभिन्न धर्म इस सन्दर्भ में अलग अलग मान्यताएं प्रस्तुत करते हैं. फिर भी, भिन्न भिन्न विश्वास या श्रद्धा रखनेवाले धार्मिक पंडित अपने अनुयायिओं को ऐसा उपदेश देते है कि ये मान्यताएं, अवधारणाएं, विश्वास बिलकुल वास्तविक हैं. यहां इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि बौद्ध धर्म स्पष्ट रूप से आत्मा या चैतन्य की परिचर्चा नहीं करता है किंतु बौद्ध धर्म कर्म एवं पुनर्जन्म के सिद्धांतों में विश्वास रखता है जिसमें परोक्ष रूप से आत्मा का नए शरीर में जाना सूचित होता है.

इस अध्याय का नीचे दर्शाया हुआ अंश विविध धर्मों की अवधारणाओं की समीक्षा करता है और वह प्रमुख रूप से आध्यात्मिकता से कैसे संबंधित है यह दर्शाता है:

(१) भारतीय उपखंड से उत्पन्न धर्मों की प्रमुख धारणाएं:

अ) हिंदू धारणाएं:

i. वे एक सर्वव्यापी परम अस्तित्व पर विश्वास करते हैं जो विश्वव्यापी एवं गुणातीत है, वही सर्जक और परम सत्ता है.

ii. वे कर्म और कार्य-कारण के सिद्धांत पर विश्वास करते हैं कि जिस से मनुष्य अपने ही विचार, अपने शब्द और कर्मों के द्वारा अपने भविष्य का निर्माण करता है.

iii. उनका विश्वास है कि परम तत्व के ज्ञाता और आध्यात्मिक रूप से जागृत गुरु या सद्गुरु के मार्गदर्शन की आवश्यकता रहती है. इस के अलावा उस मनुष्य को स्वयंशिस्त , अच्छा आचरण, शुद्धिकरण, आत्म निरिक्षण और ध्यान के द्वारा मन को शांत करने की आवश्यकता भी रहती है.

iv. उन का मानना है कि सभी जीव पवित्र है और उन्हें प्रेम और उच्च आदरभाव के साथ देखना चाहिए. वे अहिंसा पर विश्वास करते हैं.

v. उनकी धारणा है कि कोई एक धर्म मुक्ति के मार्ग की ओर ले जाता है ऐसा नहीं है परंतु सभी धर्मों के मार्ग ईश्वर को पाने के अलग अलग मार्ग हैं, इसलिए मनुष्य को सहनशीलता और समझदारी विकसित करनी आवश्यक है.

ब) बौद्ध धारणाएं:

i. उनका विश्वास है कि यह महान सर्वोपरि अस्तित्व की ऐसी परम अवस्था है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता.

ii. वे चार उत्तम सत्य पर श्रद्धा रखते हैं: (१) दुःख का अस्तित्व है. (२) इच्छा दुःख का कारण है. (३) इच्छा से पूर्ण रूप से मुक्ति मिल जाणे पर दुःख का अंत होता है. (४) इच्छा से मुक्ति पाने के लिए हमें अष्ट-मार्गीय (आठ मार्ग) जीवन का अनुसरण करना चाहिए.

iii. वे मध्यम मार्ग अपनाने में विश्वास करते हैं. विवेकपूर्ण संतुलित जीवन जीना और जीवन में कहीं भी भोग या त्याग में बहुतायत नहीं बरतनी चाहिए.

iv. वे अष्ट मार्गीय जीवन का अनुसरण करते हैं, जिस में सही विचार, सच्चा ध्येय, सही वाणी, सही कार्य, सच्चा व्यवसाय, सही प्रयत्न, सच्ची परवाह और सच्चा ध्यान इत्यादि का समावेश होता है.

v. वे प्रत्येक जीव के प्रति निस्वार्थ प्रेम और करूणा रखने की बात को महान मानते हैं. उन का विश्वास है कि ईश्वर को समर्पित पदार्थ ही सर्वोत्तम नैवेद्य है, यही सच्ची आहुति है.

क) जैन धारणाएं :

i. वे २४ तीर्थंकरों की वंश परम्परा पर विश्वास करते हैं (भवतारक). उन के साधु महावीर अंतिम तीर्थंकर थे और सब से पहले उन का पूजन होता है और उन के प्रति भक्तिभाव रखा जाता है.

ii. वे समग्र जीवन की पवित्रता पर विश्वास करते हैं. सूक्ष्म, छोटे या बड़े, किसी भी प्रकार के जीवों की हिंसा नहीं करनी चाहिए. क्यों कि भले ही अनजाने में हुई हो पर ऐसी हिंसा से भी कर्म (बंधन) उत्पन्न होते हैं.

iii. जैन धर्म का पालन करानेवाले लोगों का विश्वास है कि प्रत्येक मनुष्य की आत्मा शाश्वत एवं व्यक्तिगत है और प्रत्येक मनुष्य को अपनी कोशिशों से ही अपने आप पर विजय पानी चाहिए. और मोक्ष या मुक्ति पाने के लिए निम्न कक्षा की सांसारिक बातों से ऊपर उठ कर स्वर्गीय दिव्यता की ओर जाना चाहिए.

iv. वे इस बात पर विश्वास करते हैं कि जीवन का चक्र कर्म के सिद्धांतों पर आधारित है. इस में हमारे कर्म (अच्छे या बुरे) हमें बंधन में बंधते हैं. कर्म के बंधन से शुद्धिकरण, तप और संयम से ही मुक्ति पाई जा सकती है.

v. वे अपने आगम और सिद्धांतों के पवित्र ग्रंथों में विश्वास रखते हैं, जो मनुष्य के नैतिक और आध्यात्मिक जीवन का मार्गदर्शन करते हैं.

vi. वे तीन बातों को अत्यंत मूल्यवान समझते हैं: सही (सम्यक) ज्ञान, सही श्रद्धा और सही आचरण.

ड) सिख धारणाएं :

i. ईश्वर सर्वोपरि है ऐसा उनका विश्वास है. वे उसके सर्वशक्तिमान, अविनाशी और व्यक्तिगत सर्जक, ऐसे समयातीत (कालातीत) अस्तित्व के रूप में विश्वास रखते हैं और उसे सतनाम कहते हैं क्योंकि केवल उसका ही नाम सत्य है.

ii. उनका विश्वास है कि मनुष्य सचाई से जीवन व्यतीत करते हुए, नि:स्वार्थ रूप से सेवा करते हुए और इस पवित्र नाम का जाप जपते हुए और गुरु नानक की प्रार्थना करते हुए आध्यात्मिक उन्नति की ओर जा सकता है.

iii. उनका विश्वास है कि दिव्य सत्य को समझने से मुक्ति(मोक्ष) मिलती है और मनुष्य का सौ प्रतिशत सही मार्ग श्रद्धा, प्रेम, पवित्रता और भक्ति है.

iv. ईश्वर को पाने के लिए मार्गदर्शक के रूप में कोई गुरु की आवश्यकता है ऐसा उनका विश्वास है. यह गुरु ऐसा होना आवश्यक है कि जो परमेश्वर में तल्लीन हो और जो सही दिव्य प्रकृति की आत्मा को जागृत करने में समर्थ हो.

(२) मध्यपूर्व के देशों से उत्पन्न धर्म:

अ) यहूदी धारणाएं :

i. इन का विश्वास है कि ईश्वर और सर्जक एक है जो कि अपार्थिव (अशरीरी) और गुणातीत है. यह अनंत स्वरूप है, फिर भी इस संसार का और जीवमात्र का पालन-पोषण करते हैं. ईश्वर अच्छे लोगों को अच्छे फल देता है और दुष्ट लोगों को सजा देता है.

ii. वे कानून, न्याय, उदारता और प्रामाणिकता का दृढतापूर्वक अनुसरण करते हुए ही जीवन जिया जाना चाहिए इस बात पर विश्वास करते हैं.

iii. उनका विश्वास है कि इश्वरने हिब्रू लोगों के साथ एक अनन्य आध्यात्मिक करार किया है और तदनुसार मनुष्यजाति के लिए नियत एकेश्वरवाद और धर्मनिष्ठा के सर्वोच्च मानदंडों का समर्थन करने की बात प्रस्थापित की है.

iv. उनका विश्वास है कि धार्मिक विधि, प्रार्थना, पवित्र उत्सव और पावन धार्मिक दिनों का पालन करते हुए हमारे घर को ईश्वर का मंदिर बनाना यह प्रत्येक परिवार का कर्तव्य है.

ब) ख्रिस्त धारणाएं :

i. इन का विश्वास है कि ईश्वर परमपिता है, सृष्टि के सृष्टिकर्ता (स्रष्टा) है जो अपने सर्जन पर अर्थात मनुष्य पर उनसे अलग रहकर हमेशा के लिए उन पर शासन करते हैं.

ii. उनका विश्वास है कि आत्मा एक ही जीवनकाल के दौरान देह में रहती है किंतु यह अमर है और सारे विचार एवं कर्मों के लिए वे ईश्वर जिम्मेवार मानते हैं.

iii. वे मनुष्यजाति की भलाई में और जीवन के सकारात्मक पहलूओं पर विश्वास करते हैं. वे सदभाव और श्रद्धा व प्रेम के अमूल्य मूल्य का आदर करते हैं.

iv. वे पवित्र-त्रय में पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के मिलन से बने एक ईश्वर पर विश्वास करते हैं, जो कि वास्तव में स्वयं को पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के रूप में प्रकट करता है. शैतान को दुष्टता, भ्रान्ति एवं अन्धकार के रूप में, व्यक्ति रूप में दर्शाते हैं.

क) जरथुष्ट्र (पारसी) धारणाएं :

i. उनके विश्वास के अनुसार सृष्टि में दो महान अस्तित्व हैं. एक अहुर मझदा, कि जिसने मनुष्य का तथा जो कुछ भी उत्तम, सुन्दर और सत्य है उन सब का सृजन किया है. दूसरा अस्तित्व, एंग्रा मैन्यू, जो कि दुष्ट, कुरूप और विनाशक भावों को सक्रिय रखता है.

ii. वे इस बात पर विश्वास करते हैं कि झोरोस्तर, जो कि जरथुष्ट्र के नाम से भी जाने जाते हैं यह ईश्वर के प्रथम श्रेष्ठ पयगम्बर हैं.

iii. उनका विश्वास है कि शुद्धि पहला सद्गुण है, सत्य दूसरा और सदभावना तीसरा सद्गुण है - और उनका यह विश्वास भी है कि मनुष्य को चाहिए कि वह अच्छे विचार, शब्द और कर्मों से स्वयं शिस्त का पालन करें.

iv. वे इस बात पर यकीन करते हैं कि शादी के द्वारा आत्मसंयम का पालन अच्छे से किया जा सकता है. चिंतन से कार्य अच्छा होता है और क्षमा करने की भावना बदला लेने की भावना से उत्तम है.

v. वे ईश्वर का सात तत्वों/गुणों के रूप में स्वीकार करते हैं: शाश्वत प्रकाश, अधिकार एवं न्याय; साधुता (अच्छाई) और प्रेम; आत्मबल, पवित्रता और श्रद्धा, स्वास्थ्य और पूर्णता व अमरत्व (शाश्वतता) और इनका ऐसा भी विश्वास है कि उनकी (सप्त ईश्वर की) श्रेष्ठ भक्ति अग्नि के द्वारा यथार्थ रूप से हो सकती है.

ड) इसलामी धारणाएं :

i. वे इस बात पर विश्वास करते हैं कि अल्लाह सर्वोपरि सर्जनहार एवं पालक है, वह सर्वज्ञ एवं गुणातीत है फिर भी अच्छे-बुरे का निर्णायक है. वह मनुष्यों का अंतिम न्यायाधीश है (वह क़यामत के दिन का निर्णायक है.)

ii. वे विश्वास के पांच स्तंभों पर यकीन करते हैं.

ü हर रोज पांच बार प्रार्थना करना.

ü भिक्षा देना, दान करना.

ü नौंवे महिने में उपवास करना. (रोजा रखना)

ü पवित्र मक्का की यात्रा करना.

ü 'अल्लाह के सिवा कोई ईश्वर नहीं और महम्मद उसका पयगम्बर है' इस घोषणा का श्रद्धा पूर्वक स्वीकार करना.

iii. वे ईश्वर की शुद्ध सर्वोपरिता और महानता पर विश्वास करते हैं. उनके नाम की भक्ति अन्य रूप में या मूर्ति के रूप में नहीं कर सकते ऐसा उन लोगों का विश्वास हैं.

iv. उनका विश्वास है कि मनुष्य की आत्मा अमर है, यह एकबार देह धारण करती है और उसके बाद मृत्यु पश्चात वह धरती पर अपने आचरण और कर्मों के अनुसार स्वर्ग या नरक में जाती है.

v. उनका विश्वास है कि किसी भी हालात में सत्य का पालन करना चाहिए, भले ही ऐसा करने से चोट लगे या दर्द महसूस हो.

vi. उनका विश्वास है कि मुक्ति सिर्फ ईश्वर कृपा से ही मिलती है, परंतु मनुष्य के प्रयत्नों से नहीं मिलती, फिर भी उसे चाहिए कि वह अच्छे कार्य करें और पाप, जैसे कि नशा करना, ब्याज लेना या जुआ खेलने से दूर रहना चाहिए.

(३) दूर पूर्व के देशों से उत्पन्न धर्म: (चीन एवं जापान के धर्म)

अ) ताओ धर्म की धारणाएँ: (चीन - लाओ त्सु)

i. उनका विश्वास है कि जो शास्वत है वह 'ताओ' अथवा 'मार्ग' के द्वारा समझा जा सकता है, वह सृष्टि की नैतिक और भौतिक सारी बातों को सम्मिलित करता है; सदगुण का पथ स्वर्ग (देवलोक) की ओर जाता है; यह संपूर्ण है और उसका वर्णन नहीं हो सकता. जिस का वर्णन हो सकता है वह शाश्वत ताओ नहीं है.

ii. उनका विश्वास है कि मनुष्य जब नम्रता, सरलता, शरणागति, स्वस्थता के साथ सहज रूप से कर्म का पालन करता है तब वह शाश्वत के साथ जुड़ता है.

iii. उनका विश्वास है कि जीवन का लक्ष्य और पंथ अनिवार्य रूप से एक समान है और केवल उन्नत लोग ही ताओ को पाने के बाद उन्हें जान सकते हैं. उन को इस बात का ज्ञान स्वयं - अपने आप होता है - परलोक के संकेत कभी अनिष्टकारी नहीं होते.

iv. उनका विश्वास है कि समग्र सर्जन एक है. भौतिक क्षेत्रों की आध्यात्मिकता पर और मनुष्य के भाईचारे पर उनका बड़ा विश्वास है.

ब) कन्फ्यूशियस धर्म की धारणाएं:

i. वे हरेक बात में एक सर्वोपरि शासक के अस्तित्व पर विश्वास करते हैं. वे निति के सिद्धांतों को स्वर्ग कहते हैं. ये सिद्धांत और कायदे व्यक्तिगत न होते हुए भी उन के आदेश पर मनुष्यजाति का अटल विश्वास है.

ii. उनका विश्वास है कि जीवन का हेतु मनुष्य के अस्तित्व को आदरभाव से स्वीकार करना है और मनुष्य को चाहिए कि वे अधिक अच्छे मनुष्य बनने के लिए उन के द्वारा दर्शाए गए शिष्टाचार अथवा सदगुण व्यवस्थित रूप से अपनाएं.

iii. वे इस सुनहरे नियम पर विश्वास करते हैं: 'आप के साथ दूसरों का जैसा आचरण आपको पसंद न हों, ऐसा आचरण आप दूसरों के साथ कभी न करें.'

iv. उन का विश्वास है कि मनुष्य का स्वभाव मूलभूत रूप से अच्छा है और परिस्थितिवश या प्रकृति विरोधी विसंवादिता से ही दुष्टता आकार लेती है.

v. उनका विश्वास है कि मनुष्य स्वयं अपने जीवन का और नसीब का मालिक है. वह खुद अपनी मरजी के अनुसार बर्ताव करने के लिए स्वतन्त्र है. वे इस बात पर भी भरोसा करते है कि मनुष्य को चाहिए की उसे परोपकारी वृत्ति, सरलता, उचित आचरण, सयानापन और निष्कपटता जैसे सद्गुण विकसित करें.

vi. उन का विश्वास है कि मनुष्य में सब से ज्यादा आवश्यक परिवार(संस्था) है और उनका ऐसा भी विश्वास है कि धर्म परिवार एवं राज्य को आधार प्रदान करता है.

क) शिंटो धारणाएँ: (जापान)

i. वे 'ईश्वर के मार्ग' पर विश्वास करते है, कमि-नो-मिचि, जो प्रकृति की पवित्रता का समर्थन करती है और अदभुत रूप से उस अलौकिक दिव्यता को प्रकट करती है.

ii. उनका विश्वास है कि कोई एक ही सर्वोपरि सत्ता (अस्तित्व) नहीं है, किंतु सृष्टि के सारे आश्चर्यों के बीच बहुत बड़ी मात्रा में अनेक ईश्वर हैं. मतलब कि यह सर्वोपरि अस्तित्व नहीं है, अपितु वह सचेतन रूप से, चेतना से सर्वत्र व्याप्त है.

iii. उनका विश्वास है कि शरीर एवं आत्मा की स्वच्छता, शुद्धि, पवित्रता ही साधुता है और अशुद्धि धर्म की मर्यादा का भंग (पाप) है.

iv. वे नैतिक आध्यात्मिकता, सद्गुण, प्रामाणिकता और न्यायप्रियता तथा धार्मिक नैतिकता का ही अनुसरण करने जैसे सर्वोच्च मूल्यों जैसे बुनियादी सिद्धांतों पर विश्वास करते हैं.

v. उनका विश्वास है कि जो कुछ भी है वह दिव्य चेतना (आत्मा) है और विश्व में एक ऐसी बंधुत्व भावना है जिस में सब मनुष्यों का दिव्य चेतना के साथ गहरा संबंध होता है और चाहे कुछ भी कहिए किंतु विश्व में अनिष्ट जैसा कुछ भी नहीं है.

(४) अन्य समुदायों के धर्मों की धारणाएं:

अन्य समुदायों के धर्मों की मूलभूत विशिष्टताएं ये है कि उनके बारे में कुछ भी लिपिबद्ध जानकारी उपलब्ध नहीं है. उन का आधार केवल मौखिक शब्द ही है. अधिकतर जानकारी पीढ़ियों से संपोषित कथाएँ हैं.

इन धर्मों का आध्यात्मिक अंश प्रकृति का आदर, सूर्य, धरती, वृष्टि और सामूहिक जीवन में संवादिता तथा परिवार के प्रति कर्तव्य है.

अजटेक्स, इन्का एवं मायान सभ्यताएं प्रगतिशील थीं. वे सूर्य की और पूर्वजों के आत्माओं की उपासना करते थे. वे सहकार प्राप्त करने के लिए और भक्ति करने के लिए स्मारकों का उपयोग करते थे तथा प्रभावकारी स्थापत्यों के निर्माण और मंदिरों की भव्य रचना करते थे.

अफ्रिका के समुदाय भी आत्मा तथा प्रकृति की पूजा करते हैं. उन का विश्वास है कि मनुष्य और प्राकृतिक जगत के बीच के संबंधों में विच्छेद के कारण मानवीय दुःख और बीमारियाँ उत्पन्न होतीं हैं. परम उच्च शक्तिओं का पूजन कर के उन के बीच संतुलन स्थापित किया जाता है.

(५) भूतपूर्व प्राचीन धर्मों की धारणाएं:

इस समय के धर्मों ने एक समान आध्यात्मिक उत्सुकता बहुत संतोषजनक रूप से दर्शाई थी और उन्होंने ऐसे कई आध्यात्मिक प्रश्नों के उत्तर दिए थे जो वर्तमान धर्मों से पूछे जाते हैं. परंतु प्राचीन धर्मों का महत्व इसलिए कम हो गया कि कवि और तत्वचिंतक ऐसा समझने लगे कि ये पौराणिक और दूर के ईश्वरों से जीवन से संबंधित सभी बातों का स्पष्टीकरण पाने का मार्ग संतोषप्रद नहीं है. विशेषरूप से सुकरात और उस के शिष्य प्लेटो और अरस्तू ने विश्व का संचालन कैसे होता है और सार्थक जीवन कैसे जिया जा सकता है इस की समझदारी प्रस्तुत की और जो विचारधारा को विकसित की, जिसे पाश्चात्य विश्वने सही मानकर स्वीकार कर लिया.

उपर्युक्त विचारों में विभिन्न धर्मों का जो परिचय मिला इस के उपरांत कुछ अन्य धार्मिक अवधारणाएं भी वर्तमान समय में विकसित हुई हैं. यह विशिष्ट धार्मिक सिद्धांतों की धारणाओं का सारांश यहां पर प्रस्तुत किया गया है:

(६) अन्य धार्मिक सिद्धांतों की धारणाएं:

i. वे मूलभूत एकता और सारे धर्मों के एकसमान स्रोत पर विश्वास करते हैं. (बहाई/सर्व मुक्तिवाद)

ii. उनका विश्वास है कि मनुष्य की स्वाभाविक आधात्मिकता सैद्धांतिक प्रश्नावली से प्रेम करने में और मानवबंधुओं को सही माने में सहायक होने में मानवता ज्यादा अच्छी तरह से व्यक्त होती है. (मानवतावाद)

iii. वे धर्मों की एकता पर विश्वास करते हैं. प्रभावक भक्ति, साधना और सेवा करने में भी वे यकीन करते हैं. उन का विश्वास है कि सत्य साईंबाबा दिव्य तत्व के जिवंत अवतार है. (साईंवाद)

iv. उनका विश्वास है कि जीवन के वर्तमान और अतीत के अनुभवों के विश्लेषण के द्वारा आध्यात्मिक प्रगति होती है और इस से पूर्व कर्मों का सीधे ही अंत हो जाता है. (सायंटोलोजी)

v. उनका विश्वास है कि मनुष्य के अंदर के दैवी तत्व के सिवा कोई ईश्वर नहीं और इस अस्तित्व की मुक्ति के सिवा कोई सत्य नहीं. वे इस बात पर भी विश्वास करते है कि सारे धर्म मनुष्य को केंद्र में रखते हैं, जिससे दमन, भय और गरीबी उत्पन्न होती है. (रजनीशवाद)

vi. कुछ लोगों का विश्वास है कि मनुष्य की पवित्रता की विवेकबुद्धि और समझदारी स्वाभाविक रूप से औपचारिक भक्ति किए बगैर, ईश्वर के मंदिर मसजिद में गए बगैर या फिर कोई धार्मिक विधि किए बगैर और धार्मिक मत अथवा सम्प्रदाय के शास्त्रों का अनुकरण किए बगैर भी परिपूर्ण हो सकती है. (विविध श्रद्धा/विश्वास)

vii. उनका विश्वास है कि धर्म मानवी को जोड़ते हुए और सीधे ही रहस्यमय अनुभवों से बना हुआ है जो हरेक धार्मिक अपेक्षा रखनेवालों का हेतु होना चाहिए. (रहस्यवाद)

viii. उनका विश्वास है कि ईएसपी (अतीन्द्रिय अनुभव), आत्मा की सूक्ष्म यात्रा, पूर्वजन्म का ज्ञान इत्यादि गुप्त शक्तियां प्राप्त करना उसी आध्यात्मिक मनुष्य का सर्वोच्च और परम लक्ष्य होना चाहिए. (गुह्यविद्या)

ix. वे इस बात पर विश्वास करते हैं कि परमेश्वर का ऐसा कोई आदेश नहीं जो पहले से जाना जा सके. मृत्यु स्थायी और अटल है; ईश्वर का अस्तित्व नहीं है. उनका ऐसा भी विश्वास है कि जब हमारी चेतना उत्कृष्ट रूप से जाग्रत होती है उस समय का हमारा जीवन सर्वोत्तम जीवन होता है और ऐसे जीवन में हो रही क्रियाएँ सृजनशील होती हैं.(अस्तित्ववाद)

विश्व में इस समय जिन धर्मों का पालन किया जाता है उन्हें दो समूहों में विभाजित किया जा सकता है : पूर्व के देशों के धर्म और पश्चिम के देशों के धर्म. इन दोनों समूहों में कुछ दृष्टिकोण एवं अभिप्राय एकसमान होते हुए भी उन के दृष्टिकोण में कुछ मूलभूत भिन्नताएं भी पाई जाती हैं. ऐसी तुलना यह समझने में उपयोगी है कि पश्चिम के कई लोग क्यों योग, मौन, ध्यान और विपश्यना (मन को शांत करने की पद्धति) की ओर मुड रहे हैं.

नोट: इस प्रकरण के कुछ अंश - एक से छः - हिमालय अकादमी पब्लिकेशंस, हवाई, अमरीका द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'ट्रुथ इज वन, पाथ्स आर मेनी' से लिया गया है.

v पूर्व के और पश्चिम के धर्मों के बीच भिन्नता:

पूर्व का दृष्टिकोण

१) व्यक्तिगत, आतंरिक और अधिकतर ईश्वर का रहस्यमय अनुभव इस धर्म का महत्वपूर्ण सार है. प्रत्येक मनुष्य अपने जीवनकाल के दौरान ईश्वर के बारे में जान सके और आख़िरकार जानना ही चाहिए. व्यक्तिगत रूप से निर्णय करने की और आत्मनिरिक्षण करने की आवश्यकता है.

२) धार्मिक सिद्धांत सूक्ष्म, जटिल और कहीं पर परस्पर विरोधाभासी भी लगते हैं. भक्ति करंने की और विविध धारणा करने की अनुमति दी जाति है. अन्य रास्तों का ईश्वर की मरजी मानकर स्वीकार किया जाता है.

३) प्रेम ईश्वर है और वह आत्मा के साथ अत्यंत जटिल रूप से ऐक्य बनाए हुए है. यह कर्म के अनुसार चलता है और अंत में मोक्ष की ओर गति करता है. नरक भौतिक स्थान नहीं है, न ही यह शाश्वत है. यह केवल कर्म के दुःख और बंधन भोगने तक अस्तित्व रखता है.

४) मनुष्य को अपनी इच्छानुसार स्वरूप की भक्ति करने की अनुमति है, क्यों कि अंततः प्रत्येक मार्ग ईश्वर की ओर ले जाता है. पाप (खराब कर्म) मन की बात है, आत्मा की नहीं. आत्मा शुद्ध है. यहां क़यामत का दिन नहीं है क्यों कि न ईश्वर न्याय करते हैं, न ही वे सजा फरमाते हैं.

५) यहां मूलभूत रूप से कोई खराब नहीं. सब अच्छे हैं. सब ईश्वर के ही अंश हैं. विश्व की या मनुष्य की कोई भी ताकत ईश्वर का विरोध नहीं कर सकती; यद्यपि हमारा बौद्धिक मन हमें इस ज्ञान से वंचित रखता है.

६) धर्म समग्र विश्व के साथ संबंधित है, शाश्वत है. यह मनुष्य इतिहास के बस की बात नहीं, उस से ऊपर है. इतिहास चक्राकार (गोल) है. ईश्वर का अस्तित्व यहां और अभी होने के प्रमाण पर दृढ़ विश्वास किया जाता है.

७) ईश्वर एक, संपूर्ण व अखंड है. सारे धर्म यही कहते हैं. सर्व जीवों की नियति आत्मा की उन्नति हेतु प्रभु कृपा द्वारा भिन्न भिन्न रास्ते से अनेकविध अनुभव प्राप्त करना है.

८) इस सृष्टि के सर्जन, पालन और विनाश का चक्र निरंतर चलता है. यह जगत प्रलयकाल आने पर खतम हो जाता है; यहां ईश्वर और जगत जैसे द्वैत नहीं है, यहां केवल ऐक्य है. (अद्वैत मत)

९) भक्ति उपासना व्यक्तिगत है, उपासना कर्मकांड और विधि पर आधारित एवं ध्यान अभिमुख है. पवित्र मंदिर के प्रति केंद्रित रहता है. घर में भी देवी देवताओं का स्थापन कर प्रतिदिन पूजन होता है और भक्तिमय वातावरण का सर्जन होता है.

१०) समय के सन्दर्भ में प्रबुद्ध होने का और मुक्त होने का (मोक्ष पाने का) ध्येय इसी जीवन में पाना है. उस की शाखा द्वैत या अद्वैत कोई सी भी हो सकती है.

११) मनुष्य की दुर्दशा आत्मा की अपरिपकवता है. आत्मा हमेशा प्रगतिशील होती है, जो अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जाती है, मृत्यु से अमरत्व की ओर ले जाती है.

पश्चिम का दृष्टिकोण

१) ईश्वर के बारे में ज्ञान प्राप्त करना यह मनुष्य के लिए मिथ्या अहंकार की बात है. धर्म का आधारभूत तत्व अनुभव नहीं, परंतु विश्वास और श्रद्धा है. यह समाज द्वारा निर्णय करने की तथा बाह्य दृष्टि महत्वपूर्ण है.

२) धार्मिक सिद्धांत सरल, स्पष्ट और बौद्धिक व तार्किक लगते हैं. भक्ति और विश्वास औपचारिक और आवश्यक हैं. अन्य मार्गों को सह लिया जाता है, किंतु उनका आदर सन्मान नहीं किया जाता.

३) क़यामत के दिन (जजमेंट डे) आत्मा के भौतिक रूप को जीवन मिलता है और ईश्वर शुद्ध आत्माओं को स्वर्ग भेजता है तथा पापियों को नरक में. नरक एक भौतिक स्थान है जहाँ पर शरीर जलता है और कायम ऐसी स्थिति में (अवस्था

में) रहता है.

४) केवल एक ही मार्ग ईश्वर की ओर ले जाता है. अन्य मार्ग गलत व निरर्थक है. प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए की वह सही धर्म का स्वीकार करे, यदि इस में वह असफल रहता है तो वह पापी बन जाता है, जिस का पूरा हिसाब क़यामत के दिन होता है.

५) यहां पर हकीकत में विश्व में दुष्ट तत्व हैं. एक ऐसी जीवंत शक्ति है जो कि ईश्वर की इश्छा का विरोध करती है. वह दुष्ट तत्व शैतान की काया धारण करती है और उस के अंदर शैतान का कुछ अंश मनुष्यों की वृत्तियों में रहता है.

६) धर्म ऐतिहासिक है, जिसकी शुरुआत पयगम्बर अथवा घटना के साथ होती है. यहां भूतकाल पर या भविष्य में मिलनेवाले बदले या सजा पर जोर दिया जाता है. इतिहास सीधी रेखा जैसा है, इस का कभी पुनरावर्तन नहीं होता.

७) सही ईश्वर एक ही है और एक ही सही धर्म है. इस का जो स्वीकार करते है वे प्रभु कृपा के अधिकारी बनते हैं; शेष सब यदि पश्चाताप करके ईश्वर की ओर नहीं जाते हैं तो वे हमेशा के लिए नरक के अधिकारी होते हैं.

८) विश्व का सर्जन ईश्वर के द्वारा हुआ है. और भविष्य में एक समय उस का हमेशा के लिए विनाश होनेवाला है. वह (ईश्वर) उस से (जगत से) स्पष्ट रूप से भिन्न है और वह सर्वोपरि (सर्वोच्च) रहते हुए शासन करता है. वे विश्व के द्वैत होने पर जोर देते हैं.

९) भक्ति-उपासना सामूहिक, सरल विधि के अनुसार होती है. यह चर्च, गिरजाघर या मसजिद में विशेषतः रविवार के दिन (ख्रिस्ती) या शनिवार के दिन (यहूदी) (सब्बाथ के दिन) होता है.

१०) (पाप से) मुक्त होना जगत के अंतिम दिन पर संभव बनता है, जब समय का अंत होता है तब जीवन में प्रबुद्ध होना अर्थपूर्ण नहीं है. जगत निश्चित रूप से द्वैत है. उस के रहस्यमय पंथ हैं, जिन में गौण, महत्व के नहीं हो ऐसे विकल्प हैं.

११) ईश्वर की इच्छा का उल्लंघन करने से और उस पर विश्वास नहीं रखने से या उनके क़ानून का स्वीकार नहीं करने से मनुष्य की दुर्दशा (अधोगति) होती है.

v पूर्व के और पश्चिम के धर्मों में समानता:

पूर्व का दृष्टिकोण

१) सर्वोच्च देवता को सभी आत्माओं के और सभी वस्तुओं के तथा कम देवत्व रखनेवाले देव देवीयों के और अन्य बड़े देवों के सर्जनहार समझे जाते हैं.

२) अधिक उन्नतिशील प्रगति के लिए सद् गुणयुक्त एवं नैतिक जीवन जीना जरुरी है. अधार्मिक विचार, कृत्य एवं शब्द हमें ईश्वर की निकटता का ज्ञान प्राप्त करने से रोकते हैं.

३) यहां इन्द्रियों से संबंधित अनुभवों से अंतरात्मा का विशेष महत्व है. आत्मा अमर एवं शाश्वत है और यह ईश्वर में मिल जाती है.

पश्चिम का दृष्टिकोण

१) सर्वोच्च देवता सभी आत्माओं और सभी वस्तुओं के सर्जनहार हैं. देवदूतों में और स्वर्ग के समुदाय पर विश्वास करते हैं.

२) धर्म नितिशाश्त्र एवं नैतिक आचरण पर आधारित होना चाहिए क्यों कि इस से विरोधी बातें हमें ईश्वर से दूर ले जाती हैं या उन से विमुख कर देती हैं.

३) संसार की वस्तुओं की अपेक्षा यहां अंतरात्मा का महत्व अधिक है. आत्मा अमर तथा शाश्वत हैं और यह हमेशा ईश्वर की उपस्थिति में ही अपना अस्तित्व रखती है.

इस अध्याय के अनुरूप सुविचार

ब्राझिल के एक धर्मवेत्ता ने दलाई लामा से प्रश्न पूछा: उत्तम धर्म कौन सा है? यह धर्मवेत्ता ने सोचा था कि दलाई लामा प्रत्युत्तर में कहेंगे कि तिब्बत का बौद्ध धर्म या फिर पूर्व के किसी धर्म का नाम बताएँगे. किंतु दलाई लामा ने स्मित करते हुए कहा कि: 'उत्तम धर्म वही है जो आप को पूर्ण रूप से ईश्वर के पास ले जाता है और जो आप को एक अच्छा मनुष्य बनाता है.'

इतना समझदारी भरा सुन्दर जवाब सुनकर उसने दलाई लामा से दूसरा प्रश्न किया: ऐसा क्या है जो मुझे अच्छा मनुष्य बना सके? जवाब था:

ü दयालु बनिए, सहानुभूति रखें, अनुकम्पायुक्त व्यवहार करें.

ü संवेदनशील बनिए, विचारशील बनिए.

ü विरक्त बनिए, अलिप्त रहिए.

ü प्रेमपूर्ण बनिए.

ü मनुष्य के कल्याण की भावना रखें.

ü जिम्मेवार बनिए.

ü प्रामाणिक बनिए.

जो धर्म आपको ऐसे गुण सिखाता है वह उत्तम धर्म और वह आपको अच्छा मनुष्य बना सकता है.

पलभर शांत रहने के बाद आगे कहा: 'मेरे भाई! आप कौन से धर्म का पालन करते हैं या फिर आप धार्मिक है या नहीं यह मैं नहीं जानना चाहता. मेरे लिए जीवन में आप अपने साथियों से, आपके परिवारजनों के साथ, आपके कार्य में समाज में और दुनिया में किस प्रकार का आचरण करते है यह अत्यंत महत्वपूर्ण है. याद रखने जैसी बात यह है कि आप के कार्य के और विचारों के तरंग समूचे विश्व में फैलते हैं. कार्य-कारण का नियम केवल विज्ञान के लिए ही उपयुक्त है ऐसा नहीं है, यह मनुष्य के संबंधों पर भी उतना ही लागू होता है. आप अच्छा आचरण करेंगे तो दूसरे लोग आप के साथ अच्छा आचरण करेंगे. खराब आचरण करोगे तो आपको खराब वर्तन का सामना करना पड़ेगा. हमारे दादा-दादी ने हमें सुन्दर सत्य सिखाया है: जो आप दूसरों के लिए चाहोगे वह आप को अवश्य मिलेगा. सुख पाना और सुखी होने का आधार हमारे आचरण एवं व्यवहार पर निर्भर करता है, नहीं कि नसीब पर.'

और अंत में दलाई लामा ने कहा कि: 'आप के विचारों के प्रति सचेत रहें, वे आप के शब्द बन जाते हैं. आप के शब्दों के प्रति सचेत रहें, क्यों कि वे आचरण बन जाता हैं. आचरण आदत बन जाती है. आदत हमारा चारित्र्य निर्माण करती है और चारित्र्य हमारी जीवनयात्रा तय करती है जो आख़िरकार हमारा जीवन बन जाता है और सत्य से ऊंचा अन्य कोई धर्म जगत में नहीं है.'

v पतंजलि ने योगसूत्र में कहा है कि जीवन जीने में किसी मंदिर की आवश्यकता नहीं है. आवश्यकता है केवल सृष्टि और सृष्टि के अन्य प्राणीयों के साथ हमारे व्यवहार पर कड़ी नजर रखने की. यह नियम सनातन धर्म का, मनुष्य धर्म का है. उसका पालन करने से मन अवश्य शांत व स्वस्थ रहता है. वह हमें अंतर्मुख होने में सहायक बनाता है और अंतर्मुख होने पर ही हम अपने भीतर छिपे 'मैं ' को समझ सकते हैं.

v धार्मिकता का अर्थ धर्म पालन से संबंधित विचार एवं आचरण है. जब कि आध्यात्मिकता का अर्थ आत्मा से संबंधित विचार और आचरण.

v धार्मिकता एवं आध्यात्मिकता के बीच भिन्नता निम्नानुसार हैं:

धार्मिकता

मानव सर्जित है.

बदलती रहती है, अनित्य है.

अनुकरणीय है.

बहिर्मुखी है.

अनेक प्रकार हैं.

इच्छानुसार है.

पालन पोषण हमें करना पडता है.

आध्यात्मिकता

कुदरती है.

नित्य है.

अनुभूतिजन्य है.

अंतर्मुखी है.

एक ही प्रकार है.

अनिर्वायता है (अस्तित्व के लिए)

यह हमारा पालन पोषण करती है.

v अपने अस्तित्व के लिए हमें आध्यात्म की आवश्यकता धर्म से भी अधिक है.

v धर्म के लिए युद्ध होते हैं और उसे फिर 'धर्मयुद्ध' भी कहा जाता है. अध्यात्म में युद्ध को स्थान नहीं.

v आशांति और शांति का आधार अध्यात्म है. धर्म में अशांति उत्पन्न होती है परंतु अध्यात्म से प्रसन्नकर शांति से ही शांति का एहसास मिलता है.

v आध्यात्म का आधार आप स्वयं, आप की आत्मा है, जब कि धर्म का आधार आप का मन और आप के विश्वास हैं.

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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)

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रचनाकार: आध्यात्मिकता से एकता एवं समन्वय : अध्याय : ३ आध्यात्मिकता और धर्म - लेखक : डॉ. निरंजन मोहनलाल व्यास - भाषांतर : हर्षद दवे
आध्यात्मिकता से एकता एवं समन्वय : अध्याय : ३ आध्यात्मिकता और धर्म - लेखक : डॉ. निरंजन मोहनलाल व्यास - भाषांतर : हर्षद दवे
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