-हसन जमाल अर्सा-दराज़ तक ये बात सुनी जाती रही थी कि ज़रा-ज़रा सी बात पर इस्लाम ख़तरे में पड़ जाता था. अब जो वक़्त ने करवट बदली, तो आज ...
-हसन जमाल
अर्सा-दराज़ तक ये बात सुनी जाती रही थी कि ज़रा-ज़रा सी बात पर इस्लाम ख़तरे में पड़ जाता था. अब जो वक़्त ने करवट बदली, तो आज इस्लाम नहीं, मुसलमान ख़तरे में पड़ गया है. इस्लाम तो पहले की तरह फल-फूल रहा है और वो भी बिना तलवार के ज़ोर के. हिंदुस्तानी मीडिया, ख़ास तौर से हिन्दी मीडिया तो इस सचाई को उजागर नहीं होने देना चाहता कि आजकल अमेरिका और यूरोपीय मुल्कों में ईसाई अपने मज़्हब से बेज़ार होकर इस्लामी ता’लीमात के तहत इस्लाम के दायरे में आ रहे हैं और पुरसुकून व डिस्प्लीन्ड ज़िंदगी गुज़ारते हुए बज़ाहिर ख़ुश नज़र आते हैं. मज़्हब बदलने के बा’द उन्हें अपने मुल्कों की हुकूमतों व अवाम की नाराज़ी, भेदभाव व ज़ोर-जुल्म को भी बरदाश्त करना पड़ रहा है. ये नव मुसलिम इस्लाम को तो अच्छा मानते हैं, लेकिन मुसलमानों को अच्छा नहीं मानते. उन्हें ता’ज्जुब होता है कि इस्लाम में एक मुनज़्ज़म ज़िंदगी की बेशुमार ख़ूबियां हैं, वो आज के मुसलमान में क्यों नज़र नहीं आतीं? एक रौशन ख़याल व लोक-परलोक में संतुलन वाला मज़्हब क्यों एक उज्जड़, दक़ियानूस व दहशतगर्द मज़्हब की शक्ल में सामने आ रहा है?
दुनिया में मुसलमानों की ता’दाद तक़रीबन 120 करोड़ है जिसमें रोज़-अफ़्जूं इज़ाफ़ा हो रहा है – चाहे वो नव मुस्लिमों की वज्ह से या परिवार नियोजन पर ख़ातिरख्वाह अमल न करने के सबब से, लेकिन ये ख़ुशी की बात नहीं है, बल्कि इस सचाई पर ग़ौरो-फ़िक्र करना चाहिए कि अपनी तमामतर ख़ूबियों के बावजूद आज इस्लाम और इसके पैरोकार बदनाम, पसमांदा और कमज़ोर क्यों हैं? क्यों दहशतगर्दी के लफ़्ज़ व दुष्नाम मुसलमान के नाम के साथ चिपक के रह गए हैं और इसमें रोज़-ब-रोज़ इज़ाफ़ा क्यों हो रहा है?
यह साबित है कि पश्चिमी मीडिया अपने मफ़ादात और ख़ुराफ़ात की ख़ातिर इस्लाम और मुसलमान को बदनाम करने की साज़िश में बरसों से लगा हुआ है, जिसकी आंच भारत तक भी आ चुकी है और हिंदुत्ववादी ताक़तें अपनी बरसों की पाली-पोसी नफ़रतों के तहत फ़ज़ा बिगाड़ने की कोशिशों में जुटी हुई हैं. गुजरात उसका हालिया नमूना है. अक्सरीयत व अक़्लीयत में जितनी दूरियां आज पैदा हो चुकी हैं, उतनी पहले कभी न थीं. चंद मिसालों से ये साबित नहीं किया जा सकता कि आम बहुसंख्यकों में पहले की तरह भाईचारा व प्रेम है. नफ़रत फैलाने वाली तंज़ीमें पढ़े-लिखे लोगों तक के ज़ेहन बदलने में कामयाब हो चुकी हैं. ये आग कैंसर की तरह अंदर ही अंदर फैलती जा रही है. बाहर की पुरसुकूनी महज़ छलावा है, इसलिए अब ये ज़रूरी हो गया है मुसलमान ख़्वाबे-ग़फ़्लत से बेदार हो जाएं और कुछ ऐसे इक़्दाम उठाएं जिनसे नफ़रत, गुस्से, अलगाव व बेयक़ीनी के धारों को बदला जा सके. मुसलमानों को यह साबित करना पड़ेगा कि वे पुरअम्न लोग हैं और दहशतगर्दी से उनका कोई ता’ल्लुक़ नहीं है.
दुनिया भर में अर्सा-दराज़ से ‘जिहाद’ के नाम पर मा’सूम लोगों का ख़ून बहाया जा रहा है, इम्लाक बरबाद की जा रही हैं, और क़त्लो-ख़ून का बाज़ार गर्म किया हुआ है. उससे दहशतगर्दों के मक़्सद तो पूरे नहीं हुए, अलबत्ता आम मुसलमान ख़तरे में पड़ गए हैं. उन पर चौतरफ़ा हमले हो रहे हैं. पश्चिमी दानिश्वर और सियासतदां चाहे ‘सभ्यताओं का टकराव’ बता कर मुसलमानों को निशाना बना रहे हैं, पर ज़िंदा हक़ीक़त को वो भी नहीं झुठला सकते. गोरी क़ौमों की मफ़ाद परस्ती और सामराजी बालादस्ती दुनिया बख़ूबी जानती है. तेल पर क़ब्ज़ा करने और इस्राइल की हिफ़ाज़त के लिए सभ्यताओं का ये संकट पैदा किया गया है, ताकि मुसलिम मुल्क हक़ीक़ी तरक़्क़ी करके अपना सर न उठा सकें. दहशतगर्द तो सिर्फ़ चंद हज़ार होंगे, लेकिन करोड़ों मुसलमान हक़ व इन्साफ़ से महरूम किए जा चुके हैं. दहशतगर्द बज़ाहिर हक़ व इंसाफ़ के लिए गुरिल्ला जंग कर रहे हैं, लेकिन उनका तरीक़े-कार बिल्कुल ग़लत व इस्लाम के मुनाफ़ी है. ये धर्मयुद्ध हरगिज़ नहीं है और इसे ‘जिहाद’ का नाम नहीं दिया जाना चाहिए. ये लड़ाई जुग़राफ़ियाई, सियासी, समाजी व अस्लाही ज़ियादः है, इस्लामी हरगिज़ नहीं. अगर इस्लामी होती तो सारे मुसलिम मुल्क एक होते. इस मस्अले का हल मेज़ी मुज़ाकरात से निकाला जाना चाहिए, न कि इंसानी जानों की क़ीमत पर अस्लहों से. अफ़सोस की बात ये है कि आलमे-इस्लाम को इस झूठे ‘जिहाद’ की डट कर मज़म्मत करनी चाहिए थी, जो उसने नहीं की, इसीलिए भटके हुए मज़्लूमों ने गुरिल्ला जंग को ही वाहिद हल समझ लिया है. अफ़सोस इसका भी है कि दुनिया पश्चिमी मीडिया के ग़लत प्रोपेगंडों की हवा में बह गयी और मुसलमानों पर हो रहे जुल्मों पर ख़ातिरख़्वाह ध्यान नहीं दिया गया. ख़ुद मुसलिम मुल्कों के दरमियान भी इत्तिहाद व एका नहीं है जिसका ख़म्याज़ा ख़ुद उन्हें भुगतना पड़ रहा है. अगर मुसलिम मुल्कों में एकता होती, तो अमेरिका और उसके पिछलग्गुओं को इराक़ को तहस-नहस करने और अफ़ग़ानिस्तान को फिर से क़बीलाई दौर में धकेलने की जुर्अत न होती. सद्दाम हुसैन ने अपने दौर-ए-हुकूमत में अपने अवाम पर बेशक ज़ियादतियां की होंगी - कौन नहीं करता – लेकिन अमरीका की ये जुर्अत कैसे हो गयी कि एक ख़ुदमुख़्तार व आज़ाद मुल्क में फ़ौजी ताक़त के बल पर जुम्हूरीयत क़ाइम करने आ गया! उसे सऊदी अरब जैसे मुल्कों की फ़िक्र क्यों नहीं होती, जहाँ हनोज़ बादशाहत क़ाइम है. दुनिया को बेवकूफ़ बनाने और उसे गुमराह करने के ये गंदे खेल अब बंद होने चाहिएं. बुश पॉलिसियों के ख़िलाफ़ दुनिया भर में और ख़ुद अमरीका में भी एहतिजाजी मुज़ाहरे हुए, जुलूस निकाले गए, आज भी जगह-ब-जगह उनका विरोध हो रहा है. इसके बावजूद सामराजी ताक़तों की न तो पॉलिसियां बदलीं, न हालात बदले और न मुर्दा यूएनओ में जान आयी. तो क्या, अब वो वक़्त नहीं आ गया है जब नाइंसाफ़ियों व नाहक़ों के घोड़ों की लगाम खींचने के लिए दुनिया को कुछ और कारगर तरीक़े तलाश करने चाहिएं? वरना वक़्त यूं ही अपनी चाल चलता रहेगा. कभी चंगेज़-हलाकू आएंगे, कभी हिटलर-मुसोलिनी आएंगे और कभी बुश-ब्लेयर आएंगे और बरबादियों का सामान करके चलते बनेंगे. एक तरफ़ तो ये कहा जाता है कि दुनिया आलमी गांव बन चुकी है, दूसरी तरफ़ इस गांव में ख़ैरियत व हिफ़ाज़त से रहने की किसी को गारंटी नहीं. न ताक़तवर मुल्कों में, न कमज़ोर मुल्कों में. अमेरिका व ब्रिटेन को आज जितना बड़ा ख़तरा लाहक़ है, उतना पहले कभी नहीं रहा. इसके लिए जितना दहशतगर्द ज़िम्मेदार हैं, उतना ही ये मुल्क भी हैं, जिन्होंने हक़ का गला घोंटा और नाइंसाफ़ी का दामन पकड़ा. ख़्वाह अरब मुल्कों के बीच इस्राइल का क़ियाम हो, चाहे फ़िलिस्तीनियों को अपनी ही ज़मीन से बेदख़ल करना हो, चाहे काश्मीरियों की आवाज़ को नज़रअंदाज़ करना हो या चेचन्या की आज़ादी की आवाज़ को दबाना हो. जब तक इस दुनिया में मज़्लूमों की बरवक़्त सुनवाई की रवायत क़ाइम नहीं होगी, तब तक मा’मूली फोड़े नासूर बनते रहेंगे.
ये दहशतगर्दों का ही किया-धरा है कि पश्चिमी मुल्कों में स्कूली बच्चे / बच्चियों को भी नहीं बख़्शा जा रहा है. कहीं लड़कियों के स्कार्फ़ पर पाबंदी लग रही है, कहीं मर्दों की दाढ़ी पर. जो चीज़ कल्चर का हिस्सा रही है, वही दहशतगर्द अनासिर की शनाख़्त बनने लगी है. यूं समझिए, बनाई जा रही है. 11 सितम्बर क्या हुआ, ‘कम सेप्टेंबर’ हो गया!
ये क़ुदरत का उसूल है कि ताक़त का मुक़ाबला ताक़त से ही किया जा सकता है. चाहे वो किरदार की ताक़त ही क्यों न हो. महात्मा गांधी ने सूरज गुरुब न होने वाली ब्रितानी ताक़त का मुक़ाबला अहिंसा से किया था. काश! मुसलमान उनसे सबक़ ले सकें. आबादियों के इज़ाफ़े से ताक़तों का मुक़ाबला नहीं किया जा सकता. उसके लिए अंदरूनी तौर पर सही मा’नों में मज़्बूत होना पड़ेगा. कभी मुसलमान इल्म, हिकमत, साइंस – हर मुआमले में गोरी क़ौमों से बढ़ कर थे, आज वे पिछड़ कर सर बचाने की हालत में क्यों आ गये? उन्हें साइंसी तरक़्क़ी से किसने रोका था? क्या मुसलिम मुमालिक महज़ कन्जूमर बन कर ऐशो-इशरत की ज़िंदगी बसर करने के लिए रह गए हैं? उन्हें अपने माज़ी के रौशन व ताबनाक दौर का वापस लाना होगा, तभी वो गोरे-मुल्कों के शाना-ब-शाना खड़े होकर अपना लोहा मनवा सकेंगे और आज की तरह उन्हें कोई हड़का न सकेगा. अगर ऐसा न हुआ, तो मुसलमानों को तबाहियों व बरबादियों से कोई नहीं बचा सकेगा, शायद ख़ुदा भी नहीं. ख़ुदा भी उसी की मदद करता है, जो ख़ुद अपनी मदद करता है!
*-*-*
स्थापित और प्रतिष्ठित रचनाकार - जनाब हसन जमाल ‘शेष - दो जबानों की एक किताब’ नाम की साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक सरोकार की पत्रिका निकालते हैं.
अर्सा-दराज़ तक ये बात सुनी जाती रही थी कि ज़रा-ज़रा सी बात पर इस्लाम ख़तरे में पड़ जाता था. अब जो वक़्त ने करवट बदली, तो आज इस्लाम नहीं, मुसलमान ख़तरे में पड़ गया है. इस्लाम तो पहले की तरह फल-फूल रहा है और वो भी बिना तलवार के ज़ोर के. हिंदुस्तानी मीडिया, ख़ास तौर से हिन्दी मीडिया तो इस सचाई को उजागर नहीं होने देना चाहता कि आजकल अमेरिका और यूरोपीय मुल्कों में ईसाई अपने मज़्हब से बेज़ार होकर इस्लामी ता’लीमात के तहत इस्लाम के दायरे में आ रहे हैं और पुरसुकून व डिस्प्लीन्ड ज़िंदगी गुज़ारते हुए बज़ाहिर ख़ुश नज़र आते हैं. मज़्हब बदलने के बा’द उन्हें अपने मुल्कों की हुकूमतों व अवाम की नाराज़ी, भेदभाव व ज़ोर-जुल्म को भी बरदाश्त करना पड़ रहा है. ये नव मुसलिम इस्लाम को तो अच्छा मानते हैं, लेकिन मुसलमानों को अच्छा नहीं मानते. उन्हें ता’ज्जुब होता है कि इस्लाम में एक मुनज़्ज़म ज़िंदगी की बेशुमार ख़ूबियां हैं, वो आज के मुसलमान में क्यों नज़र नहीं आतीं? एक रौशन ख़याल व लोक-परलोक में संतुलन वाला मज़्हब क्यों एक उज्जड़, दक़ियानूस व दहशतगर्द मज़्हब की शक्ल में सामने आ रहा है?
दुनिया में मुसलमानों की ता’दाद तक़रीबन 120 करोड़ है जिसमें रोज़-अफ़्जूं इज़ाफ़ा हो रहा है – चाहे वो नव मुस्लिमों की वज्ह से या परिवार नियोजन पर ख़ातिरख्वाह अमल न करने के सबब से, लेकिन ये ख़ुशी की बात नहीं है, बल्कि इस सचाई पर ग़ौरो-फ़िक्र करना चाहिए कि अपनी तमामतर ख़ूबियों के बावजूद आज इस्लाम और इसके पैरोकार बदनाम, पसमांदा और कमज़ोर क्यों हैं? क्यों दहशतगर्दी के लफ़्ज़ व दुष्नाम मुसलमान के नाम के साथ चिपक के रह गए हैं और इसमें रोज़-ब-रोज़ इज़ाफ़ा क्यों हो रहा है?
यह साबित है कि पश्चिमी मीडिया अपने मफ़ादात और ख़ुराफ़ात की ख़ातिर इस्लाम और मुसलमान को बदनाम करने की साज़िश में बरसों से लगा हुआ है, जिसकी आंच भारत तक भी आ चुकी है और हिंदुत्ववादी ताक़तें अपनी बरसों की पाली-पोसी नफ़रतों के तहत फ़ज़ा बिगाड़ने की कोशिशों में जुटी हुई हैं. गुजरात उसका हालिया नमूना है. अक्सरीयत व अक़्लीयत में जितनी दूरियां आज पैदा हो चुकी हैं, उतनी पहले कभी न थीं. चंद मिसालों से ये साबित नहीं किया जा सकता कि आम बहुसंख्यकों में पहले की तरह भाईचारा व प्रेम है. नफ़रत फैलाने वाली तंज़ीमें पढ़े-लिखे लोगों तक के ज़ेहन बदलने में कामयाब हो चुकी हैं. ये आग कैंसर की तरह अंदर ही अंदर फैलती जा रही है. बाहर की पुरसुकूनी महज़ छलावा है, इसलिए अब ये ज़रूरी हो गया है मुसलमान ख़्वाबे-ग़फ़्लत से बेदार हो जाएं और कुछ ऐसे इक़्दाम उठाएं जिनसे नफ़रत, गुस्से, अलगाव व बेयक़ीनी के धारों को बदला जा सके. मुसलमानों को यह साबित करना पड़ेगा कि वे पुरअम्न लोग हैं और दहशतगर्दी से उनका कोई ता’ल्लुक़ नहीं है.
दुनिया भर में अर्सा-दराज़ से ‘जिहाद’ के नाम पर मा’सूम लोगों का ख़ून बहाया जा रहा है, इम्लाक बरबाद की जा रही हैं, और क़त्लो-ख़ून का बाज़ार गर्म किया हुआ है. उससे दहशतगर्दों के मक़्सद तो पूरे नहीं हुए, अलबत्ता आम मुसलमान ख़तरे में पड़ गए हैं. उन पर चौतरफ़ा हमले हो रहे हैं. पश्चिमी दानिश्वर और सियासतदां चाहे ‘सभ्यताओं का टकराव’ बता कर मुसलमानों को निशाना बना रहे हैं, पर ज़िंदा हक़ीक़त को वो भी नहीं झुठला सकते. गोरी क़ौमों की मफ़ाद परस्ती और सामराजी बालादस्ती दुनिया बख़ूबी जानती है. तेल पर क़ब्ज़ा करने और इस्राइल की हिफ़ाज़त के लिए सभ्यताओं का ये संकट पैदा किया गया है, ताकि मुसलिम मुल्क हक़ीक़ी तरक़्क़ी करके अपना सर न उठा सकें. दहशतगर्द तो सिर्फ़ चंद हज़ार होंगे, लेकिन करोड़ों मुसलमान हक़ व इन्साफ़ से महरूम किए जा चुके हैं. दहशतगर्द बज़ाहिर हक़ व इंसाफ़ के लिए गुरिल्ला जंग कर रहे हैं, लेकिन उनका तरीक़े-कार बिल्कुल ग़लत व इस्लाम के मुनाफ़ी है. ये धर्मयुद्ध हरगिज़ नहीं है और इसे ‘जिहाद’ का नाम नहीं दिया जाना चाहिए. ये लड़ाई जुग़राफ़ियाई, सियासी, समाजी व अस्लाही ज़ियादः है, इस्लामी हरगिज़ नहीं. अगर इस्लामी होती तो सारे मुसलिम मुल्क एक होते. इस मस्अले का हल मेज़ी मुज़ाकरात से निकाला जाना चाहिए, न कि इंसानी जानों की क़ीमत पर अस्लहों से. अफ़सोस की बात ये है कि आलमे-इस्लाम को इस झूठे ‘जिहाद’ की डट कर मज़म्मत करनी चाहिए थी, जो उसने नहीं की, इसीलिए भटके हुए मज़्लूमों ने गुरिल्ला जंग को ही वाहिद हल समझ लिया है. अफ़सोस इसका भी है कि दुनिया पश्चिमी मीडिया के ग़लत प्रोपेगंडों की हवा में बह गयी और मुसलमानों पर हो रहे जुल्मों पर ख़ातिरख़्वाह ध्यान नहीं दिया गया. ख़ुद मुसलिम मुल्कों के दरमियान भी इत्तिहाद व एका नहीं है जिसका ख़म्याज़ा ख़ुद उन्हें भुगतना पड़ रहा है. अगर मुसलिम मुल्कों में एकता होती, तो अमेरिका और उसके पिछलग्गुओं को इराक़ को तहस-नहस करने और अफ़ग़ानिस्तान को फिर से क़बीलाई दौर में धकेलने की जुर्अत न होती. सद्दाम हुसैन ने अपने दौर-ए-हुकूमत में अपने अवाम पर बेशक ज़ियादतियां की होंगी - कौन नहीं करता – लेकिन अमरीका की ये जुर्अत कैसे हो गयी कि एक ख़ुदमुख़्तार व आज़ाद मुल्क में फ़ौजी ताक़त के बल पर जुम्हूरीयत क़ाइम करने आ गया! उसे सऊदी अरब जैसे मुल्कों की फ़िक्र क्यों नहीं होती, जहाँ हनोज़ बादशाहत क़ाइम है. दुनिया को बेवकूफ़ बनाने और उसे गुमराह करने के ये गंदे खेल अब बंद होने चाहिएं. बुश पॉलिसियों के ख़िलाफ़ दुनिया भर में और ख़ुद अमरीका में भी एहतिजाजी मुज़ाहरे हुए, जुलूस निकाले गए, आज भी जगह-ब-जगह उनका विरोध हो रहा है. इसके बावजूद सामराजी ताक़तों की न तो पॉलिसियां बदलीं, न हालात बदले और न मुर्दा यूएनओ में जान आयी. तो क्या, अब वो वक़्त नहीं आ गया है जब नाइंसाफ़ियों व नाहक़ों के घोड़ों की लगाम खींचने के लिए दुनिया को कुछ और कारगर तरीक़े तलाश करने चाहिएं? वरना वक़्त यूं ही अपनी चाल चलता रहेगा. कभी चंगेज़-हलाकू आएंगे, कभी हिटलर-मुसोलिनी आएंगे और कभी बुश-ब्लेयर आएंगे और बरबादियों का सामान करके चलते बनेंगे. एक तरफ़ तो ये कहा जाता है कि दुनिया आलमी गांव बन चुकी है, दूसरी तरफ़ इस गांव में ख़ैरियत व हिफ़ाज़त से रहने की किसी को गारंटी नहीं. न ताक़तवर मुल्कों में, न कमज़ोर मुल्कों में. अमेरिका व ब्रिटेन को आज जितना बड़ा ख़तरा लाहक़ है, उतना पहले कभी नहीं रहा. इसके लिए जितना दहशतगर्द ज़िम्मेदार हैं, उतना ही ये मुल्क भी हैं, जिन्होंने हक़ का गला घोंटा और नाइंसाफ़ी का दामन पकड़ा. ख़्वाह अरब मुल्कों के बीच इस्राइल का क़ियाम हो, चाहे फ़िलिस्तीनियों को अपनी ही ज़मीन से बेदख़ल करना हो, चाहे काश्मीरियों की आवाज़ को नज़रअंदाज़ करना हो या चेचन्या की आज़ादी की आवाज़ को दबाना हो. जब तक इस दुनिया में मज़्लूमों की बरवक़्त सुनवाई की रवायत क़ाइम नहीं होगी, तब तक मा’मूली फोड़े नासूर बनते रहेंगे.
ये दहशतगर्दों का ही किया-धरा है कि पश्चिमी मुल्कों में स्कूली बच्चे / बच्चियों को भी नहीं बख़्शा जा रहा है. कहीं लड़कियों के स्कार्फ़ पर पाबंदी लग रही है, कहीं मर्दों की दाढ़ी पर. जो चीज़ कल्चर का हिस्सा रही है, वही दहशतगर्द अनासिर की शनाख़्त बनने लगी है. यूं समझिए, बनाई जा रही है. 11 सितम्बर क्या हुआ, ‘कम सेप्टेंबर’ हो गया!
ये क़ुदरत का उसूल है कि ताक़त का मुक़ाबला ताक़त से ही किया जा सकता है. चाहे वो किरदार की ताक़त ही क्यों न हो. महात्मा गांधी ने सूरज गुरुब न होने वाली ब्रितानी ताक़त का मुक़ाबला अहिंसा से किया था. काश! मुसलमान उनसे सबक़ ले सकें. आबादियों के इज़ाफ़े से ताक़तों का मुक़ाबला नहीं किया जा सकता. उसके लिए अंदरूनी तौर पर सही मा’नों में मज़्बूत होना पड़ेगा. कभी मुसलमान इल्म, हिकमत, साइंस – हर मुआमले में गोरी क़ौमों से बढ़ कर थे, आज वे पिछड़ कर सर बचाने की हालत में क्यों आ गये? उन्हें साइंसी तरक़्क़ी से किसने रोका था? क्या मुसलिम मुमालिक महज़ कन्जूमर बन कर ऐशो-इशरत की ज़िंदगी बसर करने के लिए रह गए हैं? उन्हें अपने माज़ी के रौशन व ताबनाक दौर का वापस लाना होगा, तभी वो गोरे-मुल्कों के शाना-ब-शाना खड़े होकर अपना लोहा मनवा सकेंगे और आज की तरह उन्हें कोई हड़का न सकेगा. अगर ऐसा न हुआ, तो मुसलमानों को तबाहियों व बरबादियों से कोई नहीं बचा सकेगा, शायद ख़ुदा भी नहीं. ख़ुदा भी उसी की मदद करता है, जो ख़ुद अपनी मदद करता है!
*-*-*
स्थापित और प्रतिष्ठित रचनाकार - जनाब हसन जमाल ‘शेष - दो जबानों की एक किताब’ नाम की साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक सरोकार की पत्रिका निकालते हैं.
न तो मुसलमान और न ही इस्लाम खतरे में है । केवल सभ्यता के दुश्मन और मजहबी-अंधे ही खतरे में हैं । उनका गन्दा खेल अब और ज्यादा दिन नही चलेगा ।
जवाब देंहटाएंएक ही रास्ता है - बदलो या बर्बाद हो जाओ ।
पूरी तरह से बक़व।स है....फ।लतू
जवाब देंहटाएंमूख़॔तापूण॔ लेख़ है
जवाब देंहटाएंAap kya chaahte hain janaab?Agar kisi desh mein koi apna majhab badalkar musalmaan ban raha hai to 'Hindi media' is baat ki charcha kyon kare?
जवाब देंहटाएंAap jaise buddhijeevi kahte nahin thakte ki majhab ek jaati maamla hai.Lekin ye bhi chaahte hain ki videshon mein paida hone waale 'nav muslims' ki jaankari media de.Chit bhi aapka aur pat bhi!
Main ye nahin kahta ki aapne sab kuchh bakwaas likha hai, lekin aapke lekh mein confusion jagah jagah dikhaee deta hai.Imaandari se likhiye.Musalmaano ki sari samasyaon ke liye kisi aur majhab ke logon ko dosh dena kahan tak jaayaj hai.Aapne hindu kattarpanthiyon ki baat ki.Musalmaano ki samasyaon ke liye unhein doshi bataaya.Musalmaano ki samasyaon ke liye musalmaan doshi nahin hain?
बेहतर लेख अच्छे अंदाज़ में.
जवाब देंहटाएंअनवर साहब को इस बेहतर लेख के लिए मुबारकबाद