मुझे कुछ याद नहीं . -2

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मुझे कुछ याद नहीं ( मूल गुजराती उपन्यास मने कांई याद नथी का अनुवाद) लेखक - हरिसिंह दोडिया (पहली किश्त यहाँ पढ़ें) 5 बसवेश्वरसिं...

मुझे कुछ याद नहीं

(मूल गुजराती उपन्यास मने कांई याद नथी का अनुवाद)

लेखक - हरिसिंह दोडिया


(पहली किश्त यहाँ पढ़ें)

5

बसवेश्वरसिंह राठौर शायद अपने इकलौटे बेटे की तीव्र उत्कंठा को महसूस कर रहे थे। किन्तु आज तक के जीवन में उन्होंने कभी भी भाव प्रकट ही न किये थे। उनकी प्रकृति ही कुछ अलग थी। कड़ा अनुशासन, हँसी से नफरत, अकेले रहने की आदत, ये सब उनकी महत्वपूर्ण विशेषताएँ थीं। अपने इकलौटे बेटे के साथ भी वे मेच नहीं हो पाये थे किन्तु...

उन्होंने ऐनक से ताक कर देखा।

बीजेन्द्र की पलकें अभी तक बंद थीं। शायद मधुर भावों के बंधन में बंध चुका था। उसके पास का फोटो चिमनी की रोशनी में चमक रहा था।

जोश से पुकार मचाने की इच्छा उन्होंने दबायी, किन्तु पुत्र को अनुशासन हीनता से जगाने के लिए वे खाँसना न टाल सके।

बीजेन्द्र ने आँखें खोलीं, पास के दरवाजे की ओर देखा। फिर मन ही मन शरमा कर बैचेनी महसूस करने लगा।

उसके हाथ से उस युवती का फोटो सरक नीचे जा गिरा था।

उसने इधर-उधर देख, सहजता से, मुडे न, वैसे फोटो को उठा लिया। नज़र अनायास ही उस चेहरे पर थिर हो गई। मन ही मन निर्णय ले लिया। ऐसी सुंदर युवती पत्नी के रूप में, यदि स्त्री विहीन घर में आये तो उससे अच्छा ओर क्या हो सकता है !

वह अब तक सोच ही में डूबा था वहाँ बसवेश्वरसिंह के बोझिल कदमों की आहट का आभास उसे हुआ।

जानबूझकर उसने उन कदमों की ओर अनदेखी की।

कुछ ही देर में तो उसके कंधे पर बोझिल हाथ रखा गया। और उसके साथ ही भारी आवाज़ सुनाई दी, ‘निर्णय ले लिया ? '

बीजेन्द्र बैचेन हो उठा। वह चुप ही रहा।

‘तुझे अब निर्णय कर लेना चाहिये। अब तू सब कुछ समझ सके वैसा जिम्मेदार अफसर है'। बाजू की कुर्सी पर बसवेश्वरसिंह राठौर बैठे।

युवा लड़के की शादी की बातें वह योग्य रीति से रख नहीं पा रहे थे। साठ के पास की उम्र में बहुत बैचेनी हो रही थी। किन्तु अनुशासन के अतिरिक्त वे ओर कुछ समझते ही न थे। इसलिए दूसरी कौन-सी बात करें ? कौन-सी हकीकत बयान करें ?

कुछ देर वे मूँछ पर हाथ फेरते रहे। फिर आँखों से एनक उतार काँच साफ करते रहे। फिर भी बेचैनी कम नहीं हो रही थी। अत: डिबिया से चिरूट निकाल, जलाकर धुऑं निकालते रहे।

बोझिल खामोशी कमरे में छा गई थी।

बीजेन्द्र बेचैनी महसूस कर रहा था। बसवेश्वरसिंह राठौर बेटे की परेशानी जानते थे। किन्तु मजबूर थे। स्वभाव आड़े आ रहा था। एक के बाद एक चिरुट का कस लेते उन्होंने कुर्सी में सीधे बैठते हुए पेन निकाल बीजेन्द्र की ओर रखा।

युवा बेटे ने पिता के हाथ से पेन ले लिया। और तुरंत उस फोटो पर लिखा-‘यस'। और पेन और फोटो पिता की और सरकाकर खड़ा हो गया।

बसवेश्वरसिंह राठौर ने पढ़ा। फिर ‘हाँ' में सिर हिला रहे हो वैसे सिर झुकाकर अपने कमरे में चले गये।

डाइनींग टेबल सजाया गया तब तक वे कुछ लिखते रहे। शायद पत्र लिख रहे थे। और फिर आराम से खाना खा रहे हो वैसे दोनों खाते रहे।

पहाड़ियों से घिरे इस प्रदेश में शाम जल्दी उतर आयी थी। बीजेन्द्र बाहर जाना चाहता था, सारी रात टहलकर बिताना चाहता था। और इसी अनुमान से अपने कमरे की खिड़की खोल बाहर देखा।

ठंडी हवा का झोंका कमरे में आ गया। अंधकार इतना घना था कि दस फिट दूर की वस्तुएँ दिखाई नहीं देतीं थीं। ऐसे अंधकार ही में युवाओं को टहलना चाहिये। ऐसा सोच उसने होलबूट पहने। गर्म कोट पहन मफलर गले में लपेटा। और कुछ भी कहे बिना निकल पड़ा।

बाहर तो कुछ देर उसे कुछ दिखा ही नहीं।

कहाँ जाना, किस ओर जाना, कहाँ पहुँचना, कुछ भी निश्चित नहीं था।

मन ही मन दिशा निश्चित करने का प्रयास उसने कर देखा। किन्तु कुछ भी सूझ नहीं रहा था। अंत में छोटे-छोटे दीपक की-सी रोशनी की ओर वह चलने लगा।

अल्शेशियन बादशाह की याद हो आयी। वह जिंदा होता तो इस समय उसके साथ होता। किन्तु...

ठंडे पवन को चीरते हुए वह आगे बढा।

अब तो जरा-सी भी रोशनी नहीं दिखती थी। उसे लगा कि वह ढलान उतर नीचे पहुँच चुका है।

जिधर पैर ले जा रहे थे, जा रहा था।

देर तक वह घूमता रहा। आकाश के तारों को गिनता रहा, पीले पंखों में कत्थई रंग की छींटवाले ‘पीली' और फिर रास्ते के किनारे खड़ी युवती को याद करता रहा।

मजे की लड़की थी। पीले पंखवाली कोमल तितली जैसी।

बीजेन्द्र का मन करने लगा कि कोलतार के रास्ते पर निकल पडना चाहिये। किन्तु इस वक्त, इस रात्रि में कुछ याद नहीं आ रहा था। सड़क की ओर निकलने वाला लाल मिट्टी वाला रास्ता वह भूल गया, यदि उसी रास्ते से जाता तो उस बोर्ड के पास रुकता। रात के अंधकार में कुछ दिखेगा नहीं। किन्तु बोर्ड के शब्द ‘जलपाइगुरी-130 किलोमीटर' ऐसा बोर्ड मन ही मन वह पढ़ लेता। सोच में डूबा वह देर रात तक पहाड़ियों के बीच यों ही टहलता रहा। अल्शेशियन बादशाह की कब्र के पास दौड़ जाने की इच्छा हो आयी। किन्तु...

घर की ओर वह चलने लगा। किन्तु अब वह घर, घर की दिशा, पगदंडी जैसे रास्ते को वह भूल गया था।

कुछ देर वह सामने की ओर चलता रहा। सभी दिशाएँ समान लग रही थीं।

थोड़े दूर जाकर उसने निर्णय बदला। एक चक्कर लगा वह दूसरी ओर घूमा।

अब तो कुछ भी दिखता न था। न कोई मकान, न कोई आबादी, न कोई रोशनी और न ही कोई दिया।

अब ?

उसे कोई भय न था। मन हँसना चाह रहा था। खिलखिलाकर हँसने की इच्छा उसने दबा दी। किन्तु फिर भी चेहरे पर हँसी फूट ही निकली।

कुछ पल वह हँसता रहा।

यहाँ न कोई अनुशासन, न कोई रोकटोक, न किसी की शर्म, न संकोच, कुछ भी न था। वह था, अंधेरी रात थी। दिन के उजाले में हरी हरी दिखती पहाड़ियाँ थीं।

कुछ सोचते-सोचते अंधेरे ही में वह चलने लगा। वह कहाँ जा रहा है, किस ओर जा रहा है, कुछ पता न था। अनजान बनकर पहाड़ियों के बीच रास्ता भूल जाने का भी एक अनोखा आनंद था।

किसी निश्चित जगह पर जा रहा हो वैसी त्वरा से आगे बढ़ते हुए उसने सोचा, मनुष्य जितना अधिक जानता है, उतना ही भूलता है। सबसे अच्छा तो यही है कि कुछ भी न जानना। अनजान बने रहना ही अच्छा...

यकायक उस सुंदर युवती का स्मरण हो आया। वह तो उसके बारे में कुछ भी जानता न था। वह भी उसे नहीं जानती होगी। दोनों अजनबी। और अनजाने में ही दोनों मिलेंगे तब ?

पैर से कुछ लिपट गया। होल बूट थे अत: कोई तकलीफ न हुई। शायद कोई जीव था... साँप था... या कि अजगर।

बड़े अजगर मनुष्य को भी निगल जाते हैं - बीजेन्द्र को याद हो आया। यदि कोई अजगर उसे निगल लें, तो ?

अपना आधा शरीर अजगर निगल गया है- की कल्पना उसने की। अजगर के पेट की गरमी, उमस और टूटती हड्डियों की पीड़ा...

वह अभी सोच ही रहा था कि तेजी से दौड़ता हुआ कोई प्राणी दूसरी पहाड़ी की ओर भाग गया।

शायद स्यार था, खरगोश भी हो सकता है।

अंधेरे में पहचाना नहीं गया।

प्रगाढ अंधेरा कितना सुंदर लग रहा था।

उसे अपने एक मित्र की याद हो आयी।

सैनिक स्कूल में दोनों साथ थे। सुंदर था, अच्छे घर का था। उसकी शादी हो चुकी थी। वह कहता था कि उसकी पत्नी बहुत काली है। काली ही नहीं, मुँह के उपर चकते के निशान थे और एक ऑंख से टेढी। माँ-बाप की इच्छा के कारण उसने शादी की थी। उसने शादी से पहले किसी से वादा किया था।

दोनों वादा तोड़ना नहीं चाहते थे। परिवार खानदानी था। शादी के बिना कोई चारा ही न था। अफसर मित्र पत्नी को देखना भी न चाहता था किन्तु...

बीजेन्द्र ने रास्ता बदला। घने अंधकार में कुछ भी सूझ नहीं रहा था, वह कहाँ जा रहा है, घर किधर था...इस ओर क्या है ? कुछ भी मालूम नहीं हो रहा था। और बेखबर हो वह आगे बढ़ रहा था।

उस युवा मित्र की याद तीव्रता से आ रही थी। वह घर अवश्य जाता था। किन्तु उस ट्रेन में जाता जो उसे रात को घर पहुँचाती। रात में दिया या चिमनी जलाने की मनाही थी। काले काले अंधेरे में पत्नी को प्यार करता और सबेरे तो वापस ट्रेनिंग में आ जाता। बीजेन्द्र ने यों ही अंधेरे में देखा।

वह खड़ा रहा।

चारों ओर देखा। कुछ भी स्पष्ट नहीं दिखता था। वह कहाँ है, सामने क्या है, वह क्या देख रहा है...कुछ भी पता न था। और इसलिए मजा आ रहा था। अनजानी धरती पर अंधेरे में टहलने का मजा वह खोना नहीं चाहता था। वह फिर से चलने लगा।

कितने बजे होंगे ? वह अनुमान करने लगा।

घर से निकले लगभग तीन-चार घंटे बीत चुके होंगे-का अनुमान उसने लगाया। मन में जरा-सा भी रंज न था। बल्कि उसे तो मजा आ रहा था। थकावट का तो नामोनिशान तक न था।

एकदम पास से आ रही उल्लू की चीत्कार सुन वह खड़ा रह गया।

घू... घू... घू... घरर... धू...

फटे कंठ से निकली चीत्कार की भयंकर रूप से प्रतिध्वनि हो रही थी। पहाड़ियों की कठोर काया से टकराकर टूट बिखरती वह ध्वनि दूर दूर बह जाती थी।

उसने उल्लू को देखना चाहा। उल्लू शायद अपने आपको देख रहा होगा। रात को उसे सब कुछ दिखाई देता है- मान्यता बीजेन्द्र को याद आई। फिर उसने यों ही सोचा। यदि वह भी उल्लू की तरह घने अंघकार में देख पाता तो ?

उल्लू के चीत्कार की भयंकर प्रतिध्वनि को पार कर आगे बढ़ गया।

शायद वह किसी पहाड़ी पर होगा। यहाँ से बराबर सामने की ओर प्रकाश का एक वर्तुल आभासित हो रहा था।

सामने की ओर वह बढ़ने लगा।

किन्तु थोड़ी देर ही में भूल गया।

अब प्रकाश दिखाई नहीं देता था।

फिर भी वह बढ़ता गया। आगे, और आगे।

ऐसे ही चलते-चलते यदि कोलतार की सड़क आ जाय तो वह उस बोर्ड के पास रुकेगा...जलपाइगुरी-130 किलोमीटर, के लिखित रूप की कल्पना कर आगे बढ़ जायेगा।

वह और अधिक तेजी से चलने लगा।

उसके पैरों की गति से विचारों की गति अधिक तेज थी। वह सोचते सोचते चल रहा था। बहुत सारे विचार आ-जा रहे थे।

विचोरों में बह वह आगे जा रहा था कि रायफल का बार सुनाई दिया...

वह चौंका, खड़ा रह गया।

प्रतिध्वनि सुनाई दे रही थी ओर वह सोचता रहा...

अल्शेशियन बादशाह की याद आयी। किन्तु वह तो मर चुका है। ‘अब किसकी बारी ? '

उस रायफल के बार जैसा विचार उसके दिमाग में बार-बार प्रतिध्वनित होता रहा था ‘...अब किसकी बारी होगी...अब किसकी बारी होगी...? '

*************

6

बीजेन्द्र जब घर पहुँचा तब घड़ी मे तड़के की सुस्ती थी। चार बज दस मिनट पर सुई अटक गई थी। शायद अभी ही बंद हुई हो।

वह अपने कमरे में गया।

बाजू से कुछ आवाज आ रही थी। खिड़की से उसने देखा, दो नौकर भेंकर के मृत शरीर को व्यवस्थित रूप में चीर रहे थे। खाल उतार चुके थे और अंगों के टुकड़े कर रहे थे।

कुछ देर वह उस मृत पशु को देखता रहा। लाल लाल मांस के पिंड को देख कोई भाव न जन्मा। उसने सोचा, वह जब भूलभूलैयावाली पहाड़ियों के बीच अंधेरे में घूम रहा था तब रायफल के बार की प्रतिध्वनि देर तक सुनाई दे रही थी। वह बार इसी भेंकर के लिए किया गया होगा।

उसने खिड़की बंद कर दी।

बिछौने की तैयारी की।

चिमनी की रोशनी एकदम कम करने के लिए छोटे चक्र की ओर हाथ लंबा किया तो वहीं उसकी नज़र उस फोटोग्राफवाले लिफाफे पर गई।

उसने लिफाफा उठाया।

खाली लिफाफे की ओर वह ताकता रहा।

कुछ याद किया। फोटो तो उसने बसवेश्वरसिंह राठौर को ‘यस' लिख, दे दिया था। शायद गलती की थी। फिर सोचा, नहीं, उसने गलती न की थी। ‘यस' लिखकर ठीक ही किया था।

चिमनी का चक्र घुमा उसने रोशनी को बाहर निकाल दिया। घने काले अंधकार ने कमरे में प्रवेश किया।

बिछौने पर वह टेढ़ा पड़ा रहा।

खुली आँखों से युवती के सुंदर चेहरे को बराबर याद करने लगा।

सुंदर चेहरा मन ही मन देखते-देखते पलकें कब मूँद गई और वह कब सो गया, पता ही न चला।

नास्ते के लिए बसवेश्वरसिंह उसकी राह देख रहे थे।

नौकर ने कहा -‘छोटे साहब अब भी सो रहे हैं'।

उन्होंने कुछ भी न कहा।

नाश्ता कर, चिरूट सुलगाकर, हाथ में वॉकिंग स्टीक ले वे पहाड़ियों की ओर निकल गये तब अपने इकलौटे युवा पुत्र की शादी की सोच के घोडे मन पर सवार हो गये।

* * *

बीजेन्द्र ने अपने हाथ को देखा।

मजबूत हथेली की रेखाओं में हल्दी का पीला रंग विशिष्ट प्रकार से फैल गया था कि उन ‘पीली' पंछियों के पंख उसे याद आ गये। पत्नी के हाथ की हथेलियाँ देखनी बड़ी अच्छी लगी होतीं, किन्तु ट्रेन की भीड़ में यह संभव न था।

फिर भी उसने पत्नी के आकार की ओर देख लिया।

शायद वह शिशे के आरपार देख रही थी। शायद गहरी सोच में पड़ी हो...शायद अपनी ही...

बीजेन्द्र ने हँसना चाहा। उसके भरे-पूरे चेहरे पर हँसी की कुछ रेखाएँ उभर रही थीं।

शादी बहुत उतावली से की गई थी। किन्तु ट्रेन का सफर बहुत लम्बा था। फर्स्ट क्लास में भी जगह न थी। बसवेश्वरसिंह राठौर बाजू के कंपाट्र्मेंट में शायद बर्थ पर नींद ले रहे होंगे। उसे नींद नहीं आ रही थी।

उसने घड़ी में देखा, चार बजकर चालीस मिनट हो चुके थे। छतीस घंटे बीत गये हैं। सुबह सात बजकर सताइस मिनट पर ट्रेन स्टेशन पर पहुँचेगी। उसके बाद तीन घंटे कार में...

दस-ग्याहर बजे तो वह पत्नी को लेकर हरी हरी पहाड़ियों के बीच के अपने घर पहुँच जायेगा।

शरीर में चेतना आ गई।

हरी हरी पहाड़ियों की याद से मन बहलने लगा और सामने सारा प्रदेश छा गया।

ट्रेन चलती रही। घड़ी की सूई चक्कर लगाती रही।

* * *

जयजयवंती ने कार से उतर कर देखा।

उसकी सारी थकावट दूर हो गई।

जहाँ देखो वहाँ बस ढलान ही ढलान, एक-दूसरे में समा जाती पहाड़ियाँ, हरे हरे वृक्ष, उड़ रहे पंछी, लाल मिट्टी की पगदंडियाँ और निर्मल आकाश...

कुछ पल वह देखती रही।

सब कुछ जाना-पहचाना लग रहा था।

उसका मन खिल उठा।

खुशी से पागल हो उसने गृह-प्रवेश किया।

यात्रा की सारी थकान मानो उतर गई थी।

कुछ वस्तुएँ उसने करीने से रखवायीं। नारी विहीन घर में बरसो बाद नारी के कदम पड़े थे।

सारे घर का माहौल ही बदल गया था। और बसवेश्वरसिंह राठौर घर की बदली रौनक को देख-देख चिरुट पी रहे थे।

शाम को जयजयवंती ने स्वयं ही हरी-हरी पहाड़ियों पर जाने का प्रस्ताव रखा।

बीजेन्द्र हँसा। जयजयवंती उसके साथ बहुत जल्दी हिलमिल गई थी।

उसने सिर झुकाया। हाँ में हँसा। जयजयवंती ने भी हँस दिया।

बीजेन्द्र ने पत्नी का हाथ थामकर चूमा। और दोनों हरी-हरी पहाड़ियों की ओर चल पड़े। पंख में पंख पिरोकर उड़ते पंछियों की तरह दोनों दौड़ते जा रहे थे।

पहाड़ी की चोटी पर पहुँच दोनों एक काले पत्थर पर बैठ गये।

आकाश यहाँ से बहुत करीब लग रहा था। हाथ ऊँचा कर पकड़ने लायक।

जयजयवंती ने अपना हाथ यों ही ऊँचा किया।

फिर उसने आकाश की ओर देखा।

ढल रहे सूरज की अंतिम किरणें आकाश रूपी दर्पण में प्रतिबिंबित हो रही थी। आकाश दैदीप्यमान एवम् सुहावना प्रतीत हो रहा था।

बीजेन्द्र आकाश की ओर नहीं किन्तु जयजयवंती के मांसल हाथ की ओर, पहाड़ी कौए की तरह ताक रहा था।

‘यहाँ से आकाश बहुत करीब है न ? ' खिल रहे फूल-सी हँसी बिखेरते हुए जयजयवंती ने कहा।

‘नजदीक लगता है उतना ही। किन्तु नजदीक है तो नहीं... '

‘तो नजदीक है क्या ?'

‘जयजयवंती... ' कहकर बीजेन्द्र ने मानो उसे अपने ही में समा लिया।

सूरज ढलता रहा। किरणें सिमटती रहीं। पंछी अपने-अपने घोंसले की ओर जाते रहे।

‘देखो तो, पहले देखे थे वैसे ही पंछी आ रहे हैं। '-जयजयवंती ने सामने से उड़े चले आ रहे पंछियों की ओर ऊँगली दिखाई।

बीजेन्द्र ने देखा।

उसने कुछ भी न कहा।

‘पीली' पंछियों का समूह कत्थई रंग की छींटवाले पीले पंख फैला पसार हो गया।

‘पंछी आकर्षक हैं'।

‘उनके पंख बहुत ही सुंदर होते हैं'।

‘हा, रंग कितने सुहावने हैं ? '

बीजेन्द्र मौन ही रहा। उड़ते आ रहे दूसरे पंछियों की ओर वह देखता रहा। बाद में सामने की पहाड़ी की ओर आँखें घूमा कर कहा-

‘हमें कोई देख रहा है... '

यकायक विलग हो जयजयवंती ने चारों ओर देखा।

कोई भी न था।

निष्कपट प्रश्रवाचक नजरों से उसने बीजेन्द्र की ओर देखा।

‘मेरा एक दोस्त है। पहले जब मैं यहाँ अकेला आता, तब भी वह मुझे देखता था। आज जब मेरे साथ कोई और है तब भी वह... '

जयजयवंती ने एक बार फिर चारों ओर, पहाड़ियों की तलहटी की रिक्त भूमि को देखा।

कोई न था।

उसका चेहरा मानो कह रहा था- ‘कोई नहीं है...कोई भी नहीं है... '

‘देखो... ' बीजेन्द्र ने बताया।

सामने की पहाड़ी के ऊपर के छोटे वृक्ष की एक टहनी पर बैठ पहाड़ी कौआ चुपचाप, ध्यान से, गर्दन घुमा-घुमाकर इन दोनों की ओर देख रहा था।

जयजयवंती खिलखिलाकर हँस पड़ी।

उसकी हँसी की प्रतिध्वनियाँ पहाड़ियों से टकराकर न जाने कितनी देर तक सुनाई देती रही ...हा हा हा हा हा हा...

**********

7

प्रात: और शाम को घूमने जाने का क्रम निश्चित हो गया।

हरी हरी पहाड़ियाँ मानो उन्हें अपने पास बुलाया करती थीं।

‘पीली'पंछी बार-बार निमंत्रण दे रहे थे।

कोमल तितलियाँ ललचा रही थीं।

और वह पहाड़ी कौआ...

जयजयवंती अकेले ही हँस पड़ी।

बीजेन्द्र ने देखा...फिर कहा, ‘हँसी क्यों ? '

‘पहाड़ी कौए की याद आ गई। उस दिन कितने ध्यान से हमें ताक-ताककर गर्दन झुकाकर देख रहा था ? '

बीजेन्द्र भी हँस दिया।

दोनों देर तक हँसते रहे।

फिर उसे यकायक याद आया। झुककर कहा- ‘पिता जी को कोई भी उनके सामने हँसें वह पसंद नहीं है। जरा संभालना'।

‘इन हरी-हरी पहाड़ियों के बीच तो हमें हँसना ही चाहिये। जितनी इच्छा हो, हँसना चाहिये...दिल खोलकर हँसना चाहिये... '

‘हँसने की यहाँ छूट नहीं है। हँसना हो तो पहाड़ियों पर आना'। दोनों हँस पड़े।

फिर चुप हो गये। थोड़ी ही देर में वे तैयार हो पहाड़ियों की ओर निकल पड़े।

बीजेन्द्र रुक गया।

पहाड़ी की तलहटी की लाल मिट्टी की ओर देखा।

जयजयवंती कुछ समझ न पायी।

‘क्या है ? '

‘यहाँ बादशाह को दफनाया गया है'।

‘बादशाह ? कौन बादशाह ? '

‘अल्शेशियन डॉग'।

जयजयवंती पास गई।

सामान्य गङ्ढा और मिट्टी खुदी गई थी सिर्फ वह जगह दिखती थी।

‘मर गया होगा ? '

‘जानबूझकर मारा गया था'।

‘हडगाया होगा ? '

‘ना'।

‘तो ?'

‘डिसिप्लिन'।

‘डिसिप्लिन ? '

‘हाँ, बादशाह को भी डिसिप्लिन रखनी चाहिये। एक दिन मुझसे दुलार करते-करते डाइनींग टेबल पर चढ़ बैठा। फिर चिकन की तश्तरी में मुँह डाल हड्डी चबाता रहा...और फिर उस पर गोली दागी गई'।

‘तुम ऐसे फौजी अफसर डिसिप्लिन को अधिक महत्व देते हो'।

‘महत्व ही नहीं, मिलिट्री एक्ट में जीवन का दूसरा नाम ही डिसिप्लिन है'।

‘किन्तु यह को एक कुत्ता था। पालतू प्राणी...तुम्हें थोड़ा तो सोचना चाहिये ? अल्शेशियन डॉग कितना महँगा होता है ? '

‘मैंने नहीं, पिताजी ने, मेजर बसवेश्वरसिंह राठौर ने मारा था'।

जयजयवंती मौन ही रही।

खामोशी की एक बड़ी लहर फैल गई।

घीरे से बीजेन्द्र आगे बढ़ा।

थोड़े आगे बढ़कर उसने देखा।

जयजयवंती अब भी वहीं खड़ी थी। खुदी लाल मिट्टी की ओर देख रही थी।

बीजेन्द्र भी खड़ा रहा। उसे बुलाने की इच्छा हुई, किन्तु वैसा न कर पाया। जयजयवंती को बुला न सका।

दौड़ते हुए पहाड़ियों पर चढ़ने की इच्छा को ब्रेक लगती रही।

आहिस्ता आहिस्ता बूढों की तरह दोनों ऊँचे भाग पर पहुँचे।

बादल बिखर रहे थे। खाई की ओर से कुहरा उपर उठ रहा था। ‘पीली' के समूह पहाड़ियों के पीछे से उड़कर सामने की ओर आ रहे थे।

दोनों बैठकर यों ही आकाश को देखते रहे।

थोड़ी देर तक दोनों मौन ही रहे। बैठे बैठे ही कत्थई रंग की छींटवाले पीले पंखों के फैलाव को देखते रहे।

बादशाह के अकुदरती मौत के मान में दोनों मौन रहे।

सामने की पहाड़ी के वृक्ष की टहनी पर पहाड़ी कौआ नहीं था।

बीजेन्द्र ने सोचा, उसने बादशाह की मृत्यु की बात छेड़ी ही न होती तो अच्छा होता।

किन्तु वह मजबूर था। खुदी गई लाल मिट्टी को देख सब कुछ याद हो आया था और वह जयजयवंती से कह बैठा।

वह सोच ही में था कि उसके पैर पर कोमल कोमल तितली आ बैठी।

जयजयवंती ने उस ओर देखा। देर तक देखती ही रही। फिर धीरे से हाथ फैलाकर ऊँगलियों से पकड़ लिया।

थोड़ी फडफड़ाहट, मुक्त होने की तमन्ना, और अब फिर न आने का निर्णय, बीजेन्द्र घड़कते दिल से महसूसता रहा। फिर कहा-‘छोड़ दो, उसके कोमल कोमल पंख टूट जायेंगे... '

जयजयवंती ने दोनों ऊँगलियाँ खोल दीं।

तितली उड़ गई।

ऊँगलियों पर पीले रंग की छींट चित्र के समान उभर आयी थी।

पल भर उसने देखा। फिर बीजेन्द्र की ओर देख आँखों से ही माफी माँग रही हो वैसे घीरे से कहा- ‘सॉरी... '

बीजेन्द्र कुछ न बोला।

तितली उड़ गई। उसका उसे आनंद था। तितली सहजता से उड़ गई थी। आज वह हँस न पाया था। तितली तन्मयता से बैठी थी। जयजयवंती ने उसे पकड़ लिया था।

यदि उसने जयजयवंती से मना किया होता तो वह क्या करती ?

दिमाग में एक सोच उभर आई।

वहीं तो पत्नी ने कहा- ‘मैं तितली तो छोडने ही वाली थी। किन्तु उसके रंग इतने सुहावने थे कि मैं अपने आप को रोक न पायी। मन बेकाबू हो गया। पल भर के लिए मैंने उसे पकड़े रखा। आपने मुझे उस लोभ से मुक्त किया...नहीं तो शायद मेरा लोभ बढ़ता जाता...और ये तो स्त्री का मन...रंगों के मोह में उसकी खत्म हो रही जिन्दगी के बारे में सोचेगी भी नहीं। रंग ही मिट जाते शायद... और... और... और...! '

और कुछ आँसू पलकों पर आ गये।

फिर गोरे गोरे कपोल पर से होते हुए गोद में गिर पड़े।

‘कोई बात नहीं। तितली जिंदा है। वह तलहटी की ओर सुंदरता से उड़ रही है'।- बीजेन्द्र ने कहा।

‘हाँ, मैंने देखी है। किन्तु अपने पंखों के रंग मुझे दे गई... ' कहकर कुछ कुछ पीले रंगवाली ऊँगलियाँ उसने बीजेन्द्र को दिखायीं।

बीजेन्द्र ने देखा। उसने कुछ न कहा। जयजयवंती को दिलासा दे रहा हो वैसे उसकी मांसल पीठ पर हाथ थपथपाने लगा।

‘आई एम सॉरी...वेरी सॉरी... '

बीजेन्द्र मौन रहा।

जयजयवंती देर तक आँखों से स्वीकारती रही। अफसोस व्यक्त करती रही और ऊँगलियों पर लगे पीले रंग को देखती रही।

दोनों खड़े हुए तब सूरज की किरणें चारों ओर फैल चुकी थीं, कोहरा लुप्त होने की तैयारी में था। और लाल मिट्टी वाला रास्ता सेंथी के सिन्दूर की तरह चमक रहा था।

‘जिस दिन मैं यहाँ आया उसी रात टहलने निकला था'।

‘रात्रि अंधकारमय हो तो पहाड़ियों के बीच से रास्ता खोजना मुश्किल हो जाता है'।

‘मैं भ्रमित हो गया था... '

‘फिर ? '

‘बस, यों ही मस्ती में टहलता रहा'।

‘सारी रात ? '

‘घड़ी ही बंद थी'।

जयजयवंती यहाँ आयी तब से, बहुत दिनों से, सेंकडों घण्टों से, हजारों मिनटों से इन हरी-हरी पहाड़ियों को देख रही थी। अब भी देख रही थी। चलते चलते, रुक रुक कर देखती जा रही थी।

फिर सोचा, अंधकारमय रात्रि हो, दस गज की दूरी पर दिखता न हो वैसी रात्रि में कोई घर से निकल कर इन पहाड़ियों की कतार के बीच घूमता रहे...घूमता रहे...तो आश्चर्य नहीं होगा।

सारी पहाड़ियाँ एक-सी थीं। सभी पहाड़ियाँ हरी थीं। सभी पहाड़ियाँ सुहावनी थीं।

कभी कभार घने अंधेरे में वह तो भ्रमित नहीं हो जायेगी न ?

जयजयवंती ने आगे जा रहे बीजेन्द्र की ओर देखा। फिर सोचा कि वह यदि साथ में हो तो कुछ नहीं होगा। वह चारों ओर टहल सकती है, चारों ओर फिर सकती है।

किन्तु अंधेरा हो, घना अंधेरा हो... प्रगाढ अंधकार हो और पति और उसके बीच भी अंधेरा हो तो ?

वेग से चल वह बीजेन्द्र के साथ हो ली।

इच्छा न होने के बावजूद भी दोनों उस खुदी हुई मिट्टी की ओर देख बैठे। बादशाह की याद हो आयी। अल्सेशियन की मृत्यु की याद हो आयी।

दोनों आगे बढ़ते गये।

कम्पाउन्ड के खंभे पर हाथ की लिखावट वाला बोर्ड अब भी लटक रहा था- ‘कुत्ते से सावधान'।

बीजेन्द्र ने देखा। दरवाजे की धार पकड़कर वह खड़ा रह गया। फिर धीरे से साइन बोर्ड उतारा। काँख में दबाकर सीढियों पर पैर रखा ही था कि लंबे झबरे बालों वाला नीले रंग का बड़ा अल्शेशियन कुत्ता जंजीर से बँधा होने के बावजूद जोर से दौड़ आया।

लोहे की जंजीर ने उसे रोका।

बीजेन्द्र ने देखा।

वह फिर घूम गया।

पहले था वैसे ही उसने कम्पाउन्ड के खंभे के गले में वह साइन बोर्ड लटका दिया। और दूसरी ओर से अपने कमरे में आ गया।

जयजयवंती मानो उसी की राह देख रही थी।

बीजेन्द्र के सामने उसने अपनी गोरी बाँह धरी। बीजेन्द्र ने बाँह पकड़ ली। एक झटका सा दे दिया। दोनों टकराये, हँस दिये।

वहींतो खाँसने की आवाज सुनाई दी।

दोनों विलग हो गये। जयजयवंती ने लाज निकाली और दरवाजे की आड़ मे जाकर खड़ी हो गई।

‘डाक...राजपूताना राइफल्स के कमान्डर की है। बहुत महत्वपूर्ण है'।- निशान दिखाते हुए बसवेश्वरसिंह राठौर की भारी आवाज वातावरण में फैल गई।

बीजेन्द्र की आँखें आश्चर्य से भर गईं। लिफाफा उसने ले लिया। और तुरंत एक छोर से चर्र् की आवाज से फाड़कर, खाकी रंग के कागज को अपनी आँखों के सामने खोला।

**********

8

बीजेन्द्र ने धड़कते दिल से पत्र पढ़ा।

इकतीस दिनों की छुट्टियाँ रद्द कर दी गई थीं। तुरंत ही मुख्य केन्द्र पर हाजिर होना था। अंतिम ‘कम सून इमीजेटली' वाक्य के नीचे कमान्डर ने स्वयं अंडर लाइन की थी। उस ओर वह अपलक ताकता रहा।

आज की रात पत्नी के संग अंतिम थी। यहाँ से तड़के तीन बजे के पहले कार से स्टेशन जाने निकलना होगा।

उसने तैयारी शुरू कर दी।

नब्बे दिनों में से साठ दिन भी पूरे बिताये न थे। और वह भी शादी के बाद के दिन...

बीजेन्द्र ने बराबर गिनकर देखा, बत्तीस दिन ही हुए थे। आज तैंतीसवाँ दिन था पत्नी के सांनिध्य में...

कंधे पर सील और पीन लगाते हुए उसने देखा, जयजयवंती उसकी ओर अनिमेष देख रही थी।

काम करते वह अटक गया।

खुले दरवाजे से बाहर देखा।

कोई भी न था।

बटलर शायद खाना पका रहा होगा। नौकर बाहर गया होगा। पिताजी विचार में डूब चुरूट से धुऑं छोड़ रहे होंगे...

एक नज़र बाहर कर वह पत्नी के पास पहुँचा। और उग्र आवेश में उसे उठा लिया। फिर पूछा- ‘क्या देख रही थी ? '

‘बीजेन्द्रसिंह राठौर को... '

‘या फिर एक फौज़ी की जिन्दगी को...? '

जयजयवंती ने कुछ न कहा। वह बीजेन्द्र के बालों में ऊँगली फेरती रही।

‘कमान्डर इन चीफ की सूचना से लिखा पत्र तो तुमने पढ़ा है न ! '

वह कुछ न बोली। उसने दोनों पैर हिलाये।

बीजेन्द्र ने उसे धीरे से नीचे उतारा और आँखों से पहले प्रश्र ही को दुहराया।

फिर भी जयजयवंती मौन ही रही।

बीजेन्द्र पत्र ले आया।

‘तुम्हारे इस सुहावने चेहरे पर मैंने सब कुछ पढ़ लिया है'।

‘मेरे चेहरे पर ? '

‘हाँ'।

‘आश्चर्य है... ' कहकर पत्र को उसने लिफाफे में रखने की कोशिश की। फिर यों ही पत्नी को देखा।

झट से जयजयवंती ने पत्र ले लिया।

पढ़े बिना ही कहा।

‘छुट्टियाँ रद्द हो गई हैं...आपको अभी जाना है। आज रात ही को निकल जाना है...सीमा पर सावधानी से सेना भेजनी है...पड़ोशी देश से खतरा है...बस ऐसा ही न ...बराबर है ? '

‘बराबर है, कमान्डर इन चीफ के कहने पर कमान्डर ने ऑडर किया है। मुझे आज निकलना होगा'।

‘किन्तु मंजूर की गई छुट्टी ऐसे ही, कागज के एक टुकड़े से कैसे रद्द की जा सकती है ? ' जयजयवंती ने संदेह से पूछा।

‘फौजी नियमों में ऐसी व्यवस्था है'।

‘दूसरा कोई चारा नहीं है ? '

‘नहीं'।

‘कोई अफसर घर आकर बीमार हो गया हो तो ? '

‘तो उसे केम्प के अस्पताल के डॉक्टर का सर्टिफिकेट पेश करना पड़ता है'।

‘अगर ऐसा न किया जाय तो ? '

‘अगर ऐसा न किया जाय तो... तो... '

उत्तर देते वह तुतलाने लगा। तुरंत कुछ याद न आया। फिर सूचना याद आयी...

‘डॉक्टरी सर्टिफिकेट अगर समय पर पेश न किया जाये तो गैरहाज्ािर अफसर को गिरफ्तार किया जायेगा। फौजी अदालत में उस पर कारवाई की जायेगी...सजा होगी...कड़ी सजा हो सकती है... '

बीजेन्द्र कहता रहा और जयजयवंती के सुंदर नयनों से आँसू बहते रहे...

बीजेन्द्र ने जब आँसू देखे तो वह अपने उपर काबू न रख पाया।

खाकी शर्ट को बिछौने पर फेंक दिया। हाथ में रखे नंबर गिर घूमते घूमते कौने में चले गये। और मेजर की पट्टी बेपरवा हो फेंक दी गई।

वह मानो शांति का एहसास करने लगा।

उसने फिर से पत्नी को गाढ़ आलिंगन में ले कसा।

वहीं कोई आवाज सुनाई दी।

आलिंगन की पकड़ ढीली हो गई।

हाथों को खुले छोड़ बाहर देखा।

नौकर अंग्रेजी अखबार ले दरवाजे में खड़ा था।

प्रश्र सूचक नज़र से उसने नौकर को देखा।

‘बड़े बाबू ने भेजा है'। - कह वह चला गया।

किसी दिन नहीं और आज पिताजी ने समाचार-पत्र क्यों भेजा होगा ? ऐसे सोचते हुए उसने समाचार पत्र को खोला।

‘युद्ध होने को है। दुश्मनों का इरादा मालूम हो चुका है। सीमा पर तैयारियाँ पूरी कर दी गई है'- शीर्षक को मन ही मन पढ़ते वह सावधान हो गया। अपने पर काबू पा लिया।

कुछ पल समाचार-पत्र पढ़ उसने अपने अंक खोज निकाले। तमगे में पीन लगा शर्ट पर लटका दिया। पट्टियाँ व्यवस्थित करके लगा दीं।

अब उसे युद्ध दिख रहा था।

भारत की सुलगती सीमा थी।

दुश्मनों की धूर्तता थी।

और कमान्डर इन चीफ के ऑडर से लिखे गये पत्र की अंतिम पंक्ति ‘कम सून इमीजेटली' नज़र के सामने उभर रही थी। ये अक्षर धीरे-धीरे बड़े होते जा रहे थे। और बड़े... और अधिक बड़े...

बीजेन्द्र ने खिड़की को खोला।

खूले आकाश के एक बहुत बड़े टुकड़े के बीच घिरे बादलों से भी वे शब्द उभर रहे थे...कम सून...इमीजेटली...

वह अब भी बादलों को देख रहा था कि पत्नी ने आकर खिड़की बंद कर दी।

वह पत्नी को देखता रहा।

उसने कोई विरोध न किया। कुछ कहा भी नहीं।

मुख्य दरवाजा बंद कर दिया गया।

और कुछ देर पहले बीजेन्द्र ने जिस प्रकार तीव्र आवेश में पत्नी को उठाकर जकड़ लिया था वैसे ही जयजयवंती ने बल पूर्वक बीजेन्द्र को एक झटके में उठाया... वह लड़खड़ा गई... और दोनों एक धक्के के साथ बिछौने में जा गिरे।

* * *

‘टक्... टक्... ठप्... ठप्... '

मुख्य दरवाजे पर कोई दस्तक दे रहा था।

बीजेन्द्र की आँखें खुल गई।

अपने से दो-तीन इंच छोटी पत्नी उसे आलिंगन में लेकर ऐसे सो रही थी कि पति से कभी विलग ही न होगी।

बीजेन्द्र उसके भाल पर चुंबन कर बैठा और बर्फ के टुकड़े जैसी ठुड्डी पर हाथ फेरता रहा।

किसी ने फिर से दस्तक दी।

पत्नी से विलग हो उसने दरवाजा खोला।

‘बड़े बाबू डाइनींग टेबल पर कब से आपकी राह देख रहे हैं'। -कह कर नौकर चला गया।

बीजेन्द्र शरमा गया।

वह पत्नी को उठाने गया तो पत्नी ने हाथ में हाथ पिरोकर उसे ही खींच लिया।

मुख्य दरवाजा खुला ही था।

बसवेश्वरसिंह राठौर की गर्जना के विचार नहीं आ रहे थे। सब कुछ भूल गया था और याद इतना ही था कि दोनों पति-पत्नी हैं।

कितना समय गुजर गया, किसीको पता ही न था।

किन्तु जब बीजेन्द्र ने डाइनींग टेबल की घड़ी को देखा तो चौंका। दो बजकर बीस मिनट हो चुके थे। और सेकंड की लाल लाल सुई घुम रही थी।

झटके से वह उठा।

जयजयवंती को भी उठाया।

वह न उठी।

करवत बदल फिर से पड़ी रही।

बीजेन्द्र डाइनींग टेबल के पास गया।

‘लग रहा है कि युद्ध होगा होगा'। सारे समोसे को मुँह में रखकर बसवेश्वर सिंह ने अभिप्राय दिया।

बीजेन्द्र ने कुछ न कहा। इकतीस दिनों की रद्द कर दी गई छुट्टी के बारे में सोच रहा था।

बसवेश्वरसिंह राठौर ने भी ओर अधिक न पूछा। वे युद्ध के अनुभवी थे। जवानी का अनुभव था। घर छोड़ने और युवा पत्नी को अनिश्चित समय के लिए छोड़कर जाने का भी।

मौन ही के साथ खाना समाप्त हुआ।

‘तुझे रात ही को निकलना होगा। कार वाले को कह दिया गया है। सब कुछ तैयार रखना। दो बजे का अलार्म रख देना। मुझे तो वैसे भी देर तक नींद आती नहीं। संभव होगा तो मैं ही तुझे जगा दूँगा... '

आभार जताने की इच्छा हुई किन्तु वह मौन ही रहा।

डाइनींग टेबल से वह सीधा पत्नी के पास गया।

जयजयवंती अब भी सो रही थी।

बीजेन्द्र उसके भोले व सुंदर चेहरे को देखता रहा।

घडी में तीन बजकर पाँच मिनट हो चुके थे।

वह सोया नहीं।

पत्नी के सुंदर चेहरे की ओर देखते-देखते उसने तैयारियाँ पूरी कीं।

शाम को पाँच बजकर पचास मिनट पर दोनों हरी पहाड़ियों की ओर घूमने निकल पड़े।

एक प्रश्र दोनों को सता रहा था।

बीजेन्द्र चला जायेगा। अनिश्चित समय के लिए। युद्ध कब जाहिर होगा, कब पूरा होगा, क्या होगा क्या नहीं ? कुछ निश्चित नहीं था। वहाँ तक अकेले रहना होगा।

लाल मिट्टी वाले रास्ते की ऊँची पहाड़ियों की ओर दोनों मुड़े।

‘हररोज तू यहाँ आती रहेगी तो अकेलापन कम लगेगा ... '

जयजयवंती ने कोई उत्तर न दिया।

सूरज पहाड़ी के नीचे ढल चुका था। शीतल बयार बहने लगी थी किन्तु वे ‘पीली' अभी तक अपने घोंसले की ओर नहीं गये थे।

हररोज जहाँ बातें खत्म ही न होती थीं वहाँ आज मौन था।

‘ये हरी-हरी पहाड़ियाँ, पीले पंखवाले पीली पंछियों, पहाड़ी कौआ और जिसे तूने सबेरे पकड़ा था वैसी तितली... ये सब तुझे मेरी याद देते रहेंगे। तुझे अकेलापन महसूस ही न करने देंगे। मैं पत्र लिखता रहूँगा। तू भी लिखना। शायद युद्ध न भी हो। मैं जल्दी वापस आऊँगा...तू इन पहाड़ियों के बारे में ... अपने विचार लिखना... मैं युद्ध के बारे में बताता रहूँगा... तू विश्व-शांति के बारे में लिखना... अपने मुक्त विचार मुझे हमेशा लिखती रहना... '

जयजयवंती ने कुछ भी कहे बिना अपना हाथ बीजेन्द्र के हाथ पर रख दिया।

बीजेन्द्र देर तक उसे पकड़े रहा।

दोनों जब उठे, शाम हो चुकी थी, किन्तु अंधेरा नहीं था।

हाथ में हाथ रखकर दोनों घर तक आ गये।

रात को दो बजकर बीस मिनट पर निकलने की पूरी तैयारियाँ हो चुकी थीं। पिता जी ने सारा आयोजन किया था।

इस मकान में तीन लोग थे किन्तु तीनों को चैन न था।

रात को साढे नव बजे सभी साथ में खाने बैठे।

किन्तु किसी का भी मन खाने में नहीं लग रहा था।

फिर भी तीनों एक दूसरे को यही जताने की कोशिश में थे कि उन्हें कोई चिंता नहीं हैं।

बीजेन्द्र सबसे पहले उठ गया।

जयजयवंती ने उसकी ओर देखा। फिर साड़ी का छोर खींचकर ठीक तरह से रखा।

बसवेश्वरसिंह ने एक बड़ी डकार ली और खाना खा चुके हो वैसे खड़े हो गये। थोड़ा रुके। बीजेन्द्र और जयजयवंती की ओर देख, ‘गुड नाइट' कह चले गये।

बीजेन्द्र ने देखा। फिर घड़ी की ओर नज़र की। मन ही मन कुछ सोचा। इस वक्त पहाड़ियों पर घूमने का मजा, घूम घूमकर भ्रमित होने का मजा और भूलते भूलते रुकने का मजा...

उसने खिड़की खोल दी। जयजयवंती ने उसे तथा मुख्य दरवाजे को बंद कर दिया और चिमनी का चक्र घुमा अंधेरा कर दिया।

इस पहाड़ी प्रदेश की हरी-हरी पहाड़ियाँ, कत्थई रंग की छींटवाले पीले पंख फैलाकर उड़ते ‘पीली' पंछियों, ध्यान से देखनेवाला पहाड़ी कौआ, कोमल पंखोंवाली तितली, सभी को याद करता रहा, भूलता रहा।

एलार्म बजा।

बीजेन्द्र बिछौने के बाहर कूदा।

चिमनी की रोशनी बढाई।

जयजयवंती का सुंदर मुख उसने हथेलियों में दबाया।

वह फिर बिछौने पर गया।

चिमनी की रोशनी कमरे में फैली हुई थी।

बीजेन्द्र ने जयजयवंती को कसना चाहा।

‘नहीं...'

वह झटके से बैठ गई, पति ने खींचा। वह फिर से खड़ी हो गई। फिर खींची गई...ताकत कर के वह छूटी... फिर बिछौने से दूर हट चिमनी के पास जाकर नाइट गाऊन पसार कर देखा।

लाल दाग देख बीजेन्द्र शरमा गया। कुछ देर बाद समझ में आया, तो हँस दिया। जयजयवंती को उसने फिर से पकड़ में ले लिया तब बंद दरवाजे पर दस्तक हो रही थी- ‘टक्... टक्... टक्... '

**************

9

‘बीजेन्द्रसिंह राठौर'।

‘यस सर'।

कमान्डर इन चीफ ने देखा तो एक युवा सामने खड़ा था।

‘राजपूताना राइफल्स की एक टुकड़ी तुम्हें देने का निर्णय हुआ है'।

‘यस सर'।

कमान्डर इन चीफ ने टेबल रखे विशाल मानचित्र की ओर देखा। फिर लाल रंग वाले विस्तार को पहचान बीजेन्द्रसिंह को पास बुलाकर दिखाया।

पीले रंग के मानचित्र का कुछ हिस्सा लाल रंग का था। कमान्डर इन चीफ वही बता रहे थे।

बीजेन्द्र ने देखा। वह घर से जब निकल रहा था तब युवा पत्नी ने भी नाइट गाऊन में ऐसा ही रंग दिखाया था। देर से वह समझा था। सारी इच्छाएँ रोक दी थीं। ओर वह चल निकला था।

झट से उसने सारे विचार झटक दिये।

सूचनाओं की ओर सारा ध्यान केन्द्रित किया।

कमान्डर इन चीफ जोर दे कर समझा रहे थे कि सबसे बड़ी जिम्मेदारी का काम उसे दिया जा रहा है। और यह देश उस जैसे युवा के पास बहुत बड़ी अपेक्षा रखता है। युद्ध कब शुरू होगा। कहा नहीं जा सकता। शायद अब ही... शायद एक दिन के बाद... कि कभी भी...किन्तु युद्ध का सामना युद्ध ही से करना होगा। सब को एकदम तैयार रहना होगा। और दुश्मन जिधर भी हमला करें उस पर तीनों ओर से टूट पड़ना होगा। दुश्मनों की गिनती ऐसी थी कि हमें पता भी न चले और वे हमला कर दें। किन्तु यहाँ तो सभी को पता था। सभी सचेत हो चुके थे। युद्ध की तैयारियाँ पूरी कर दी गई थीं। सभी अफसरों को बुला ले लिया गया था। जो छुट्टी पर थे उनकी छुट्टी रद्द कर दी गई थीं। तुरंत हाजिर होने का फरमान जारी कर दिया गया

था। मानचित्र तैयार कर लिए गये थे। जासूस अपने कार्य में लग गये थे। कुछ टुकड़ियों को सीमा पर भेज दिया गया था। कुछ जा रही थीं। सारा बंदोबस्त हो चुका था। सहायता के लिए अलग-अलग टुकड़ियाँ भिन्न भिन्न स्थानों पर तैयार खड़ी थीं।

बीजेन्द्र सिंह राठौर ऐसे युवा अफसर को लेकर विमान सीमा की ओर उड़ा तब कमान्डर इन चीफ को संतोष हुआ।

कब, किस ओर से, कैसे हमला होगा, निश्चित न था। इसलिए सभी प्रकार की तैयारियाँ आवश्यक थीं। और उसकी पूरी व्यवस्था की जा चुकी थीं।

* * *

तंबू की खिड़की से बीजेन्द्र ने बाहर झाँका।

रात हो चुकी थी। आकाश से बर्फ की वर्षा हो रही थी। चारों ओर अंधेरा था। बादलों से कभी-कभी अष्टमी का चंद्रमा झाँककर छिप जाता था।

वह ऐसे ही खड़ा रहा।

यों ही दूर-दूर ताकता रहा।

सीमा सारी जाग रही थी। फिर भी रोशनी का कहीं नामोनिशान तक नहीं था। लालटेन को साढ़े आठ बजे तक ही कम रोशनी करके जलाने की छूट थी। फिर अंधेरा ही अंधेरा...

बीजेन्द्र ने तंबू के घने अंधकार को देखा था।

फिर आकाश की ओर देखा।

बर्फ की वर्षा जोर से हो रही थी।

आकाश में बादल इकट्ठे हो रहे थे।

चंद्रमा के दर्शन दुर्लभ थे।

लालटेन बुझा दिया गया था।

बरसते बर्फ के वातावरण में पत्नी के पत्र लहू को गर्म रखे हुए थे।

बीजेन्द्र ने खिड़की से हाथ बाहर किया।

कुछ देर ऐसे ही रखे रहा।

फिर हाथ अंदर खींच लिया। ऊँगलियों पर, हथेली में, नाखून पर बर्फ के कण झम गये थे...चमड़ी तो मानो जड़ हो गई थी।

नींद आ नहीं रही थी। आँखें बंद न हो रही थी। बंद आँखों के सामने युवा पत्नी का सुंदर चेहरा हर वक्त छाया रहता था। उसके सभी पत्रों को, हरेक शब्दों को, हरेक अक्षर को वह पहचानता था, जानता था और प्यार करता था। सब मानो मुहपाठ हो गया था। हरेक पत्र का हरेक शब्द उसके दिल में शिल्प की तरह अंकित हो चुका था। और इस बर्फीली रात में सब याद आ रहा था। तीव्रता से सता रहा था।

पहला ही वाक्य- प्रथम संबोधन...

उसने आँखें बंद कर लीं।

तंबू की खिड़की से बर्फ का सीना चीर कर बहता पवन उसके चेहरे पर थप्पड़ लगा रहा था। किन्तु बीजेन्द्र को उसकी कोई चिंता न थी। वह एकांत में जयजयवंती के गुनगुने सांनिध्य की झंखना और एक-एक शब्द की जुगाली कर रहा था।

‘मेरे युवा अफसर... '

उसकी बंद आँखें खुल गई।

उसने इधर-उधर देखा।

रूपा की घण्टी जैसी आवाज सुनाई दी।

बाहर कोई न था।

क्या जयजयवंती की आवाज थी ?

हरेक पत्र में किया गया संबोधन शिल्प की तरह उसकी नज़र के सामने कोरा जा रहा था...

‘मेरे युवा अफसर...

तुम गये ओर थोड़े दिनों ही में यहाँ बादल घिरने लगे हैं। मेघ हरी-हरी पहाड़ियों पर बरसता रहता है। ‘पीली' पंछी संवनन करने लगे हैं। पहाड़ी कौए ने ऊँची पहाड़ी के सामने के वृक्ष पर घोंसला बनाया है। और आपके जाने के बाद पीले पीले पंखोंवाली तितली को मैंने कभी भी नहीं पकड़ा है। आपको याद है न ? आप थे तब रंगों से मोहित हो मैंने तितली को पकड़ लिया था ? तब मेरा मन नहीं माना था न। पंखों के रंगों ने मेरी ऊँगली पर हल्दी लगायी थी। कितने सुहावने थे वह रंग ? नये-नये रंगों को देखकर मैं तो पागल-सी हो जाती हूँ। मेरे तो होश गुम हो जाते हैं। और जब होश आता है तब तक तो बहुत देर हो चुकी होती है। किन्तु अब मैंने तितली पकड़ना छोड़ दिया है। मन में एक भय-सा बना रहता है कि यदि मैं रंगों से मोहित हो होश खो बैठूँगी तो मुझे रोकेगा कौन ? कोमल तितलियों को मेरी ऊँगलियों के बीच से बचायेगा कौन ? '

तंबू के पास से धीमी आवाज़ आयी।

यादों के मोती टूट कर बिखर गये। ताककर उसने देखा।

तंबू के परदे पर किसी की छाया पड़ रही थी।

‘कौन ? ' धीमे किन्तु भारी आवाज़ से उसने खिड़की ही से पूछा।

‘मैं हूँ सा'ब ‘।

आवाज़ पहचानी थी।

बीजेन्द्र ने परदे को खोल दिया।

रम की बोतल रख एक सैनिक चला गया।

हर तीसरे दिन रम की बोतल मिलता था। किन्तु यहाँ, इस कातिल ठंड में रम का बोतल जल्दी खाली हो जाती। हरेक अफसर देर तक जागते, अपनी पत्नी को, उसके साथ बिताये गये दिनों को याद करते और यादें असह्य बनने पर रम का घूँट लेते और सारे शरीर में आग की तरह गरमी फैल जाती।

बीजेन्द्र ने भी अंधेरे में एक घूँट लिया।

मजा आ गया।

पत्नी की यादें सता रही थीं।

उसके पत्र, पत्र के शब्द, शब्दों में छिपी मधुरता...उसने आँखें बंद कर लीं।

अन्य पत्रों के शब्दों की जुगाली करने लगा।

‘यहाँ अब बारिश रुकनेवाली नहीं है। मैं जब मेघ को अति निकट से देखने जाती हूँ तब पहाड़ी की चोटी पर से उससे बिनती करती हूँ। रुक जा... रुक जा... रुक जा... मेरे युवा अफसर के आने के बाद तू बरसना। किन्तु वह तो मेरी बात सुनता ही नहीं। वह तो मुझे प्यार से भिगो देता है। सारे शरीर को भिगोता है। जल से वह मुझे ऐसे शराबोर कर देता है जैसे प्यार से आप मुझे बेचैन कर देते थे ... '

उसने एक आह ली। न किसी से कहा जा सके और न ही सहा जा सके वैसी थी उसकी स्थिति।

पत्नी के हरेक पत्र के उत्तर उसने दिये थे। यहाँ का उकता देने वाला वातावरण... बर्फ की वर्षा... ठंडी ठंडी हवा... और रम के घूँट...

कार्क खोल फिर से एक घूँट लगायी।

गरमी शरीर में दौड़ रही थी।

अंधेरे ही में उसने सोचा। जयजयवंती प्रेम से भीग जाये, वैसा पत्र लिखना चाहिये। अभी ही लिखना चाहिये... इसी वक्त लिखना चाहिये...

किन्तु...

गाढ अंघकार की ओर उसने गुस्से से देखा। फिर आकाश की ओर देखा। उमड़ रहे बादलों को देखा। हो रही वर्षा का, बाहर हाथ करके मानो नाप ही ले लिया।

कोई भी मानो साथ देने को तैयार न था।

वह खड़ा हो गया। सिर रखने की जगह से अभी ही मिला लाइटर लिया। एक ओर दबाया, चिनकारी हुई। उसने लालटेन जलाना चाहा।

किन्तु फौज़ी कानून में इसकी संपूर्ण मनाही थी।

इधर-उधर के सभी तंबूओं को देखा। कहीं भी रोशनी का नामोनिशान तक नहीं था। वह खुद ही अगर नियम को तोड़े तो फिर कानून बनाने का क्या अर्थ ?

किन्तु कितना विचित्र कानून ?

महान सेनापति नेपोलियन की एक बात उसे याद आयी।

रात में रोशनी करने की मनाही थी। एक युवा अफसर ऐसे कानून पर क्रोधित हो, कानून तोड़ मोमबत्ती जलाकर पत्नी को पत्र लिखने बैठा। उसे कुछ पता ही न रहा। मन पर काबू न था और फर्राटे से पत्र लिखता जा रहा था कि बाहर घुम रहे नेपोलियन ने रोशनी देखी। वह आश्चर्यचकित रह गया। रात में रोशनी करने की कड़ी मनाही थी फिर भी अफसर क्या कर रहा है ? पदचाप भी सुनाई न दे वैसे वह वहाँ पहुँचा। देखा, पूछा। युवा अफसर ने सच बता ही बता दिया। नेपोलियन ने उसे दो ही बात कही- पत्र पूरा कर दो और लिखो कि यह मेरा आखिरी पत्र है... और फिर एक धमाका हुआ और...

बीजेन्द्र ने दरवाजा के खुले परदे को खिसका कर बाहर जाना चाहा। किन्तु वह ऐसा न कर पाया। अंधेरे ही में पत्र लिखने की कोशिश की, किन्तु लिख न पाया इसलिए सोचता रहा। यादों को ताज़ा करता रहा।

सुंदर युवा पत्नी को छोड़कर आये न जाने कितने महीने हुए, कितने दिन हुए, कितने घण्टे बीते, कितने मिनट गुजरे - उसकी गिनती वह करता रहा। आकाश से संध्या सुंदरी धरती पर उतर रही थी। बर्फ के छोटे-छोटे टुकड़े बरस रहे थे।

और वह सोचता रहा।

सोचता ही रहा।

फिर खड़ा हुआ। फिर खिड़की से झाँका। पूरब की ओर का आकाश स्वच्छ लग रहा था। शायद उषा का आगमन होने को है।

उसने बूट पहने। देह को ओवर कोट से लपेट घूमने निकल पड़ा।

बर्फ के टुकड़े बूट के नीचे कुचल रहे थे। कररर, कच... कररर कच...। वह चलता रहा।

लहू के दाग देख एक जगह पर खड़ा रह गया।

किसी हिंसक प्राणी ने किसी को मारा होगा...मृत पशु का रक्त कुछ दूर तक बह जम गया होगा।

वह मुड़ा।

आज जयजयवंती का पत्र मिलना चाहिये।

उस पत्र में कोई नवीनता होगी।

दोनों आँखें उसने बंद कर दीं।


***********

(क्रमशः अगले अंक में)

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COMMENTS

BLOGGER: 4
  1. बेनामी11:50 am

    आप यूहिं लिखते रहें,हम आंनद उटाते रहें।

    जवाब देंहटाएं
  2. साधुवाद इसे पढ़वाने के लिये. :)

    जवाब देंहटाएं
  3. मुझे कुछ याद नहीं उपन्यास रचनाकार पर रखने के लिए मैं आपका आभारी हूँ। इस उपन्यास द्वारा पाठकों को एक नये लेखक की लेखनी का परिचय मिलेगा।
    डॉ.उत्तम पटेल, धरमपुर, जि.वलसाड, गुजरात

    जवाब देंहटाएं
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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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