कहानी : बुआ

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- विजय शर्मा याद नहीं पड़ता उसने कभी मुझे प्यार किया हो, कभी दुलारा हो, पुचकारा हो. हमेशा दुत्कारा था मुझे उसने. मैं उसकी झिड़कियों की ...


- विजय शर्मा

याद नहीं पड़ता उसने कभी मुझे प्यार किया हो, कभी दुलारा हो, पुचकारा हो. हमेशा दुत्कारा था मुझे उसने. मैं उसकी झिड़कियों की आदी हो गई थी. दिन में कम-से-कम तीन-चार बार वह मेरे लिए अवश्य कहती `मर क्यों न गई पैदा होते ही?', `तू पैदा ही क्यों हुई?', `हे भगवान! क्या होगा इसका!' मैं इतनी ढ़ीठ, इतनी बेहया हो गई थी कि उसके कोसने का इंतजार करती. सूरज पश्चिम से निकल आए पर उसका कोसना नहीं रुक सकता था. उसका स्वभाव ही चिड़चिड़ा था, दिन भर भुनभुनाती रहती, दूसरों के काम में नुक्स निकालती रहती. कभी मेहतरानी को देर से आने पर डाँटती, कभी मेहरी के धोए बरतनों से शिकायत रहती, कभी धोबी के लाए कपड़ों पर कलफ़ या इस्तरी ठीक नहीं होती, पर सबसे ज्यादा मैं उसकी आँखों में खटकती थी. ऐसा भी नहीं था कि वह प्यार जताना नहीं जानती थी, उसे दुलार करना, मीठा बोलना न आता हो. पर मुझसे खास खार थी, मुझे देखते ही कोई चिंगारी उसके अन्दर सुलग उठती और वह भड़क जाती. मेरा बाल मन उसे खिजा कर आनन्द लेता. पर अक्सर मैं भी सोचती, `भला मैं पैदा ही क्यों हुई?'

सुबह मेरे सोकर उठने के पहले ही उसके अत्याचार शुरु हो जाते. कान मरोड़ कर उठाना सामान्य बात थी. भरे जाड़े में मेरे ऊपर लोटा भर पानी उड़ेल देना, मुझे खाट सहित उठाकर खड़ी कर देना रोजमर्रा की बात थी. जब तक मैं मुँह धोकर आती वह चौके में नाश्ता बना रही होती. मेरे लिए होती रात की बची बासी रोटी. अगर कभी ताजे पराठे देने पड़ गए तो मेरे लिए खास कर कम घी लगा कर बनाती. पराँठे के संग सबको दूध मिलता, मैं माँगती तो बड़ी मुश्किल से मलाई बचा कर चुल्लू भर दे देती. बिस्कुट का पूरा पैकेट मेरे सामने खाली कर देती, आस-पास के दूसरे बच्चों को बुला-बुला कर देती मैं वहीं खड़ी रहती तब भी मुझे एक बिस्कुट उठा कर न देती.

उसकी अंगुलियाँ बड़ी दक्ष थीं. वो सिलाई, बुनाई-कढ़ाई में बड़ी कुशल थी. रात दिन बैठ कर स्वेटर बुनती और चौबीस घंटों में स्वेटर सलाइयों से उतार फेंकती, मगर याद नहीं पड़ता कभी मेरे लिए एक टोपी बुनी हो. कसीदाकारी में उसका हाथ बड़ा साफ था, साटिन स्टिच इतनी सुन्दर, इतनी नीट फिर कभी मैंने किसी की नहीं देखी, मगर भूल से मेरे लिए कभी एक फ्रॉक न बनाई, फूल काढ़ना तो दूर की बात रही.

आप सोच रहे होंगे मैं कोई अनाथ या सौतेली संतान थी और वो मेरी सौतेली माँ, या मैं कोई नौकर और वो मेरी मालकिन. नहीं, ऐसा कुछ नहीं था. मैं अनाथ या सौतेली संतान नहीं थी, न ही वो मेरी सौतेली माँ. न मैं नौकर थी और न ही वो मेरी मालकिन. मैं तो उसकी सगी अपनी थी, अपना खून. मैं उसकी सगी भतीजी थी, उसके अपने सगे भाई की सगी संतान और वो मेरी अपनी, सगी बुआ थी. उसी भाई की बेटी जिस पर वो जान छिड़कती थी. जिस भाई के लिए वो अपने हाथों से तरह-तरह के व्यंजन बनाती, जिसके लिए वो नए-नए डिजाइन के स्वेटर बुनती थी. मैं उसके उसी भाई की संतान थी, बड़ा करीबी रिस्ता था हमारा. एक खून, एक खानदान.

मेरी यह बुआ मेरे पिता की बड़ी बहन थी. बड़ी दबंग औरत थी. लम्बी-चौड़ी बुआ मुझे कभी बदसूरत नहीं लगी पर उसे सुन्दर नहीं कहा जा सकता था. खासकर सुन्दरता की परिभाषा-परिधि में जो रूप- गुण आते हैं वो उसमें अनुपस्थित थे. गोरा चम्पई रंग, बड़ी-बड़ी कजरारी आँखें, लाल-लाल होंठ, उठी हुई सुतुवाँ नाक, अनार के दानों जैसे कतार में सजे हुए छोट-छोटे चमकते दाँत, पतली कमर, लम्बे- घने चमकीले काले बाल - यही है न कालिदास से ले कर आज तक की सुन्दरता की परिभाषा. पर लम्बे-घने-काले-चमकीले बालों के अलावा अन्य सभी गुण नदारद थे उसमें. वो साँवले रंग की थी. साँवला भी शायद सुन्दर की श्रेणी में आता यदि वह खुलता हुआ होता, पर उसका साँवला रंग काले की ओर झुकता था. आँख और नाक विशिष्ट न थे, बड़े सामान्य से थे. हाँ दाँत अवश्य विशिष्ट थे, पर उल्टी दिशा में. आकार में कुछ बड़े और आगे को उभरे हुए.

वो खूबसूरत नहीं थी, ये बात मुझे बहुत बाद में पता चली. उसे ही पहले कहाँ पता थी, उसके माता-पिता ने उसे पहले कभी बताया ही नहीं था कि वो बदसूरत है. उसे बहुत बाद में पता चला कि वह खूबसूरत नहीं है, इतना ही नहीं उसे जताया गया कि वह बदसूरत है. खूबसूरत नहीं है यह नहीं बताया जाता तो कोई प्रलय नहीं आ जाती पर बदसूरत है यह बता-जता कर प्रलय लाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी गई. आठ बेटे जनने के बाद उसकी माँ यानी कि मेरी आजी (दादी) ने देवी की पूजा की और प्रार्थना की कि इस बार उसे बेटी देना वरना कन्यादान का पुण्य पाने का सौभाग्य उन्हें कैसे मिलेगा. आठ बेटों में से कई पैदा होते ही मर गए, कई दो साल पूरा करते-न-करते पूरे हो गए. केवल मेरे एक ताऊ बचे थे. उनकी प्रार्थना बड़ी बलवती रही होगी, उनकी प्रार्थना में बड़ी शक्ति रही होगी, तभी आठ बेटों के बाद उनकी बेटी पैदा हुई थी और इसके बाद पेट-पोंछना हुए थे मेरे पिता. सारे परिवार में बस यही एक कन्या थी, इसलिए सिर चढ़ी थी.

घर धन-धान्य से भरा-पूरा था, सो खूब लाड़-प्यार से पाला-पोसा गया था उसे. पिता की आँखों की पुतली थी, दोनों भाई जान छिड़कते थे, माँ हथेली पर लिए फिरती थी, एक मिनट के लिए आँखों से ओझल नहीं होने देती. इस नेह-छोह की वर्षा के बीच घर में कभी किसी को उसकी बदसूरती नजर नहीं आई, उनके लिए वह खूबसूरत हँसती-बोलती गुड़िया थी. यह नन्हीं सी-जान पान-फूल की तरह दुलार पा कर बढ़ती गई. लड़की होशियार थी जल्दी काम-काज में माँ का हाथ बँटाने लगी. रसोई बनाना, सीना-पिरोना सीखने लगी. हाथ साफ था और उसका मन लगता था काम-काज में. आस-पड़ोस की चाची-भाभी को कुछ सीते-पिरोते देखती तो चट सीख लेती. राह चलते स्वेटर का कोई पैटर्न आँख में बस जाता, बस झटपट घर आ सलाई-ऊन ले बैठती और नमूना बना कर दम लेती. गजब की लगन थी छोरी में कढ़ाई-बुनाई की. जो भी उसके हाथ के क्रोशिए या सूई का काम देखता तारीफ किए बिना न रहता. माँ के मना करने पर भी पिता ने घर पर मास्टर रख कर लिखने-पढ़ने का ज्ञान करा दिया. लड़की जहीन थी, जल्दी सीखती थी, खास कर उसने लिखने में तेजी से महारत हासिल कर ली. मोती जैसे सजे सुन्दर अक्षर पिरोती थी कागज पर. लाड़-प्यार में पलने के कारण जबान की खुली थी, लिखने में भी उसका जवाब नहीं था. और इसी गुण के चक्कर ने उससे पति को लम्बे-लम्बे खर्रे लिखवाए. पत्र क्या पोथा होते थे, जिनमें वह अपने कलपते वैवाहिक जीवन का रोना रोती, अपनी भड़ास निकालती. इसी लिखने की आदत, इन्हीं पत्रों ने मुझे उसके दिल की तह तक पहुंचने में मदद की, पर ये सब बहुत बाद की बातें हैं और तब तक बहुत देर हो चुकी थी.

उसकी कसीदाकारी के चर्चे उसकी होने वाले ससुराल में पहुँचे और वह पसन्द कर ली गई. घर में रेडियो कवर, चादर, मेजपोश, यहाँ तक कि परदे तक में उसके हाथों का कमाल नजर आता था. बाद में इन्हीं लेसों, तकिया गिलाफों, ऊन के छोटे-बड़े गोलों के बीच मुझपर यह रहस्य खुला कि आखिर वह मुझसे इतनी नफरत क्यों करती थी, जब कि मुझसे बड़े मेरे तयेरे भाई और मेरी बड़ी बहन के साथ वह इतनी कठोर न थी, उनके साथ वह दुर्व्यवहार नहीं करती थी. उन दोनों के साथ उसका व्यवहार अच्छा था. मेरे प्रति किए गए दुर्व्यवहार का रहस्य मुझ पर जब तक खुला तब तक काफी देर हो चुकी थी.

शादी तय होने के बाद उसने रच-रचकर अपना दहेज तैयार किया. दो बड़े ट्रंक भर कर दहेज सहेजा था उसने. होने वाली सास, जेठानी, ननद के लिए दिन-रात आँख फोड़कर यह सब तैयार किया था. अपने लिए भी काफी कुछ बनाया था. दूर की भाभी के रिश्तेदार थे लड़के वाले. उसी भाभी से तारीफ सुन कर अपने बाँके जवान देवर के लिए गुणवंती लड़की देखने जेठानी खुद आई थी. लड़की के हाथ का खाना खा, विदाई में कसीदाकारी किए पाँच कपड़े और सोने की मोहर पाकर इतनी निहाल हुई जेठानी कि देवर के सामने तारीफ़ों के पुल बाँध दिए. तारीफ़ों के झुंड में वे असली बात बताना भूल गईं या छिपा गईं पता लगाना मुश्किल है. होने वाले सास-ससुर भी सुन कर खुश थे काफी तगड़ा दहेज मिल रहा था. छोटा बेटा था, उन्हें पूरा विश्वास था इस बार कोई कसर न रहेगी और इसी से उनकी बेटी की नैया पार लग जाएगी. उन्हें भी अपनी बेटी ब्याहने की जिम्मेदारी पूरी करनी थी. दूर की सोच रहे थे वे लोग, दो भाइयों के बीच की बहन है माँ-बाप के बाद भी मायके से कुछ-न-कुछ ला सकेगी. उनकी उम्मीदें पूरी होती दीखतीं थीं. आसार अच्छे थे. तीज-त्योहार पर आशा से ज्यादा सामान आने लगा था सगाई होते ही.

और कसर नहीं रही. बड़े धूम-धाम से शादी हुई. दहेज और विदाई दोनों भरपूर हुई. हर बाराती को कपड़े और नगदी मिली. खास-खास रिश्तेदारों की खास मिलनी और विदाई हुई. सोने चाँदी के जेवर, चाँदी के बरतन, लड़के को चेन, घड़ी, अंगूठी के साथ साइकिल मिली, वह भी रेले साइकिल डायनेमों वाली. बहुत बाद तक चर्चा रही इस शादी की. रोज कहाँ होती हैं ऐसी धूमधाम वाली शादियाँ जिसमें बाराती अघा कर लौटते हैं. सो सात फेरों के बाद विदा होकर घूँघट में लिपटी-सिमटी गठरी बनी वह ससुराल पहुँची.

उसके मन में इस बात को लेकर कभी सन्देह नहीं था कि ससुराल में सब उसे हाथों-हाथ लेंगे, उसके हुनर की खूब तारीफ होगी. उसे आदत थी अपने काम की तारीफ सुनने की. बड़ी मधुर कल्पना की थी उसने अपनी ससुराल की. भरा-पूरा घर था. लड़का पढ़ा-लिखा खूबसूरत नौजवान था. दुह्ले की खूबसूरती की चर्चा वह अपनी सहेलियों से सुन चुकी थी, जो छिप कर जनवासे में उसे देख आईं थी. द्वाराचार के समय खूब ठिठोली हुई, लड़कियाँ दौड़-दौड़ कर आँखों देखी खबरें उसे सुना रहीं थी ं. लड़के की होशियारी की झलक उसे कोहबर में मिल चुकी थी. चुन-चुन कर छन्द सुनाए थे उसने. सुन कर सारी स्त्रियाँ लड़कियाँ पानी-पानी हो गईं थीं . दिलफेंक नौजवान था वह.

सपनों में खोई, दहेज से लदी-फँदी षोडशी को मान था अपने पीहर पर, अपने हुनर पर और ससुराल में भी इसी मान-सम्मान की कल्पना की थी उसने. उसे क्या मालूम था ससुराल में उसका स्वागत कुछ दूसरे ढ़ंग से होने वाला था. अँगूठी खेलाई की रस्म के समय परात में दूध घुले पानी में अँगूठी ढूंढने के बहाने दूल्हे ने उसका हाथ पकड़ कर दबा दिया था, सिहर गई थी वह, बड़ी मीठी पुलक दौड़ गई थी उसके सारे शरीर में. ऐसी ही सिहरन तब भी हुई थी जब मंडप में लावा परछने के समय उसने सबकी आँखों के सामने रिवाज के मुताबिक पीछे से उसे अँक्वार में भरा था. उसकी बाँहों का घेरा शरीर के गिर्द जरा ज्यादा तंग हो गया था सिकुड़-सिमट गई थी वह, रोमांचित हो उठी थी.

अँगूठी खेलने की रस्म तक सब ठीक-ठाक था, फिर सब बुझ गया. किसी को कुछ कहना सुनना न पड़ा, शुरू होने के पहले ही सब समाप्त हो गया. चौथारी पर जब भाई लिवाने आया वह फूट-फूट कर रोई. भाई कुछ समझ न सका. ससुराल में भाई से किसी ने सीधे मुँह बात न की, वह गुमसुम मायके लौट आई.

बातें मुझे वक्त-बेवक्त टुकड़ों में पता चलीं. पूरी बात न उसने किसी को बताई न कोई उससे पूछ सका. वैसे भी बातें पता चलने न चलने से क्या ये दुनिया रुकने वाली है? सब अपने ढंग से चलता रहेगा.

साल में एकाध दिन ससुराल जाने का सिलसिला करीब दस सालों तक चलाता रहा. दुल्हे मियाँ छटे-छमाहे, तीज-त्योहार पर आते, खूब खातिरदारी करवाते. घरवाले इस फिराक में रहते कि किसी तरह सब ठीक हो जाए. वह परेशान रहती. घर में बहू-बेटियाँ थी और उसे पति के शोहदेपन की आदतें मालूम थीं . पति-पत्नी का संग निभ न सका. फिर उसने एक दिन वह भी बन्द कर दिया. एक दिन उसने आत्महत्या करने की धमकी दे कर ससुराल जाने से सदा के लिए इंकार कर दिया. उसके जि ी स्वभाव से घर वाले परिचित थे, भाइयों की हिम्मत फिर उसे ससुराल भेजने की नहीं हुई. और तब मेरी माँ ने कहा था- `अब बन्नों रानी यहीं बैठ कर हमारी छाती पर मूँग दलेंगीं'.

मेरी माँ, ताई और बुआ में आए दिन ठनी रहती. ताई और माँ को उसका इस घर में रहना फूटी आँख न सुहाता. बुआ सदा उन दोनों के खिलाफ आजी (दादी) के कान भरती रहती. उसे डर था कहीं उसकी माँ का मन उससे न फिर जाए. बाद में मुझे पता चला कि उसे उसकी माँ के ताने भी सहने पड़े थे. कुछ दिन वह गुमसुम रही फिर सलाइयाँ और फिर पहले की तरह सलाइयों के साथ जबान चलने लगी. वह और कठोर और जि ी होती गई. और कुछ और वर्षों के बाद सिर दर्द, पेट दर्द ले कर पड़ी रहने लगी, जिसे घर की औरतों ने नकल गाछना से ज्यादा न माना समझा. मैं भी इसे काफी समय तक इसे उसका बहाना मानती रही. पर ये सब बाद की बातें हैं.

इस बीच कुछ ऐसा हुआ कि उसकी ओर मेरी भावनाएं बदलने लगीं. पहले भी मैं उसके प्रभाव में थी भले ही वह नकारात्मक था पर इस बार उसने कुछ ऐसा किया कि मेरे हृदय में अचेतन रूप से उसके लिए एक अच्छी जगह बनने लगी.

दसवीं के बाद घर में सब मेरी पढ़ाई के खिलाफ थे. मेरी बड़ी बहन अपनी ससुराल जा चुकी थी. सबका विचार था मेरी शादी करके गंगा नहा लिया जाए. मगर वह अड़ गई. वो मेरी ढाल बन कर खड़ी हो गई. जि ी वह थी ही उसने निर्णय सुना दिया कि जब तक मुझे पढ़ने के लिए हॉस्टल नहीं भेज दिया जाएगा वह अन्न-जल ग्रहण नहीं करेगी. उस समय उसका यह व्यवहार मेरी समझ के बाहर था. अचानक मेरे प्रति यह ममता क्यों? मैं स्वयं स्पष्ट न थी शादी और पढ़ाई में से क्या चुनना बेहतर है, मेरी समझ में नहीं आ रहा था. मेरा मन डांवांडोल था. वैसे भी तब मैं इतनी मजबूत न थी कि अपने विचार परिवार के सामने रख पाती और यह भी मालूम था कि कोई मेरी सुनने वाला नहीं है. सो उसने जब मुझे आगे पढ़ाने की ठान ली तो कभी मैं सोचती कि वह मेरे भले की सोच रही है, कभी लगता जरूर इसमें उसकी कोई चाल है. यह मुझे नजरों से दूर करना चाहती है. चिढ़ती है मुझसे इसीलिए हॉस्टल भेज कर घर से दूर निकाल फेंकना चाहती है. कभी लगता सिर फिर गया है इसका, घर वालों के खिलाफ सोचती रहती है. वह बहुत चिड़चिड़ी, लड़ाकिन हो गई थी. सारे वक्त उसकी जिह्वा जहर उगलती रहती. वह किसी से ढंग से बात न करती. उससे बात करने का मतलब था आ बैल मुझे मार वाली कहावत चरितार्थ करना. मैं तो उसके सामने पड़ने से भी कतराती थी.

खैर उसकी जिद का नतीजा यह हुआ कि मैं कॉलेज में भर्ती करवा दी गई और हॉस्टल चली आई. चैन की साँस ली मैंने हॉस्टल जा कर, बड़ी राहत मिली. खुली हवा में साँस लेने का अवसर मिला. घर की कलह-क्लेश, रोक-टोक और सबसे ज्यादा उससे छुटकारा पाने की खुशी हुई. अब छुट्टियों में घर लौटने पर खीज होती. जब घर जाती पाती उसके उदर शूल बढ़ गए हैं. बड़ी विचित्र थी मेरे मन की स्थिति, कहाँ मुझे उसका अहसानमन्द होना चाहिए, कहाँ मैं सोचती, मर जाए मेरी बला से. मैं क्यों चिंता करूँ. मैं खूब मस्त थी, कुछ उम्र का तकाजा था, कुछ कॉलेज, हॉस्टल का वातावरण, कुछ संग-साथ का असर. घर जाती बड़े उत्साह से पर घर पहुँचते ही सारा उत्साह बुझ जाता, सारी खुशी पर पानी फिर जाता. सारा घर उसकी तीमारदारी में जुटा रहने लगा था. मै हॉस्टल से घर आती तो स्वयं को विशिष्ट मेहमान सोचती, आशा करती सब मेरी खोज-खबर लेंगे, मैं दो-चार दिन के लिए घर आती हूँ तो मेरी विशेष खातिरदारी करेंगे, पर किसी को मेरी चिंता न थी. सब उसकी चिंता में लगे रहते. मैं कसम खाती अगली बार छुट्टियों में घर न आऊँगी और हॉस्टल लौट आती.

एक बार घर जाने पर पता चला कि उसे कैंसर है, वह भी काफी एडवांस स्टेज पर. पहली बार मुझे धक्का लगा. उसके लिए मेरे मन में करुणा उपजी. बेचारी! उसका बोलना कम हो गया था, आँखों के चारों ओर स्याह घेरे पड़ गए थे. कुछ खा-पी नहीं पाती थी, जो दो-चार चम्मच भीतर जाता वह दुगने वेग से बाहर आ जाता.

फिर जब अगली बार मैं घर आई तो देखा आँखों के गिर्द काले घेरे और स्याह हो गए थे. चलना-फिरना दूभर हो गया था. दर्द के दौरे पड़ते तो वह पेट पकड़ कर दोहरी हो जाती. ज्यादातर वह लेटी रहती या तकियों के सहारे बैठी रहती. तब भी वह जब-तब लिखती रहती. अब वह चाहती थी कि मैं उसके पास बैठूँ , उससे बातें करूँ. मुझे उसका यह व्यवहार तनिक न सुहाता. उन दिनों मैं उड़ी-उड़ी फिरती थी, रोगी के पास बैठना, उसकी बातें सुनना, उसकी तीमारदारी करना मुझे नहीं रुचता था. खासकर ऐसे व्यक्ति की देखभाल जिससे मेरा छत्तीस का आँकड़ा था, जिसके मरने की कामना मैं सदैव करती थी. उन दिनों मुझे रोना-धोना अच्छा नहीं लगता था.

मैं एक-एक कर कक्षाएं फलाँगती जा रही थी, कॉलेज का अंतिम वर्ष आ गया था, वह भी अपने अंत की ओर जा रही थी. मेरे मन में उसके लिए करुणा उपजती, शारीरिक कष्ट देख कर दया, सहानुभूति उमड़ती, पर मैं दिखाना नहीं चाहती थी. मैं उससे दूर-दूर रहती.

और जब मैं इस लायक हुई कि उसके मन में झाँक सकूं, उसके रूखे, कठोर व्यवहार के लिए उससे जवाब-तलब कर सकूं, वह तन के साथ मन की वेदना समेटे दूर, बहुत दूर जा चुकी थी. अभी भी उसका व्यवहार मेरे लिए अनसुलझी गुत्थी था. हाँ मैं बदल रही थी. अपने अलावा दूसरों में मेरी रुचि जाग्रत हो रही थी. जन और जीवन के प्रश्नों ने मेरे मन में हलचल मचानी शुरू कर दी थी. मैं अपने आसपास के लोगों, उनके संबंधों के रहस्यों को जानने-समझने को उत्सुक हो उठी थी. यह परिवर्तन अचानक नहीं हुआ था, मेरा यह बदलाव मेरे एक मित्र की संगति का प्रभाव था, जो दूसरों की चिंता में घुलता रहता था, जिसे दूसरों के दुख-दर्द अपने लगते थे. पहले मैं उसे चिढ़ाती थी काजी जी क्यों दुबले? शहर के अन्देशे से. पर धीरे-धीरे उसका रंग मुझपर चढ़ने लगा. उसने मुझे मार्क्स, राहुल सांकृत्यायन, फ्रायड, नीत्से, रजनीश, जे. कृष्ण मूर्ति, डिकेंस और न जाने किस-किस से मिलाया. वह एक और लम्बी और अलग कहानी है जिसे मैं फिर कभी और सुनाऊँगी. अभी आप इतना ही जान लीजिए कि मैं परिवर्तित हो रही थी. मेरे सम्वेदना तंत्र का परिमार्जन हो रहा था, खैर इस सबका विस्तार फिर कभी बाद में. अभी मैं अपनी उस तिल-तिल कर मरती बुआ की कहानी सुना रही हूँ. कैंसर ने उसका शरीर खोखला कर दिया था. शायद उसकी जीने की इच्छा मर चुकी थी. उसने हथियार डाल दिए थे. जिन्दगी भर जिसने हार न मानी वह मौत से हार गई. पर मेरे लिए वह एक अनसुलझी पहेली थी.

बुआ चली गई पर मेरे लिए उसका मेरे प्रति व्यवहार अभी भी एक पहेली था. कहीं कुछ था जो मेरी समझ, मेरी पकड़ में नहीं आ रहा था. क्यों करती थी वह मेरे संग इतना बुरा व्यवहार? बाद में वह सबके प्रति कठोर हो गई थी पर मेरे प्रति वह कभी नरम न थी, प्यार-प्रेम दूर की बात है. मेरा मन कहता जरूर कोई रहस्य था. मेरा मन यह भी कहता कि एक-न-एक दिन मुझे यह रहस्य पता चलेगा. मगर कैसे? कब? मेरा मन बड़ा अस्थिर रहता, मेरे मन में उसके व्यवहार की तह में जाने की एक तड़प-सी थी. मगर वह जा चुकी थी. वास्तविकता का पता कैसे चले?

बुआ मर गई थी. पर मुझे चैन न था मेरे मन में बुआ एक अजीब पहेली बन कर अटकी हुई थी. जाने के बाद भी मैं उसे लेकर परेशान थी. एक गुत्थी थी वह मेरे लिए और मुझे लगता था जब तक मुझे उसका सूत्र नहीं मिल जाता मैं चैन से न जी सकूँगी. पर कहाँ था वह सूत्र क्या था उस पहेली का क्लू.

और एक दिन. बुआ के गुजरने के करीब आठ महीने बाद.

गर्मी के दिन थे. दोपहर को घर के सब प्राणी सो रहे थे, मुझे नींद नहीं आ रही थी. घर आई सारी पत्रिकाएँ मैं चाट चुकी थी. पुस्तकें थीं, पर उन्हें पढ़ने का मन नहीं कर रहा था. बड़ी बोरियत हो रही थी. समझ नहीं आ रहा था दोपहर कैसे काटूँ . इधर-उधर डोलती हुई मैं बक्सों वाले कमरे में पहुँच गई. नजर एक ट्रंक पर पड़ी. पहले उस पर सदा ताला पड़ा रहता था, आज नहीं था. मैंने न मालूम किस रौ में आकर ट्रंक का ढक्कन खोल दिया, मेरे सामने खुल गया एक अलग अध्याय, एक अलग रहस्य. ढेरों बने-अधबने, छोटे-बड़े लेस के नमूने, रंग-बिरंगी ऊन के गोले, बची-खुची ऊन की छोटी-छोटी गोलियां. मेरे किसी काम के न थे ये सब, पर मैं उलटती-पुलटती गई. एक खूबसूरत मेजपोश में लपेट कर कुछ रखा था, परत खोलते मैं ठगी-सी रह गई. याद नहीं पड़ता वह कभी गर्भवती हुई हो या उसके कभी कोई बाल-बच्चा हुआ हो. सजाकर रखे गए थे नन्हें-नन्हें मोजे, टोपी, और कढ़ाई किए हुए सुन्दर झबले. किसके लिए बनाए थे उसने ये सब? कोरे क्यों रखे थे? किसी को दिए क्यों नहीं? यहाँ क्यों रखे हैं छिपाकर? मैंने एक और गठरी खोली तब मुझे कुछ मिला. कुछ ऐसा जिसने मेरे मन में बुआ के मेरे प्रति व्यवहार की गुत्थी को सुलझाने में मदद की. जिसने मेरे जिन्दगी देखने का नजरिया बदल दिया. सच जीवन से जो सूझ हमें प्राप्त होती है वह बेशकीमती बात और कहाँ से मिलती है.

रहस्य की एक गठरी मेरे हाथ लगी थी, जाने-अनजाने जिसकी मुझको तलाश थी. शायद उसका यह रहस्य मुझपर ही खुलना था इसीलिए अब तक सुरक्षित बचा था. कहते हैं खजाने पर जिसका हक होता है गड़ा धन उसी को मिलता है. शायद मैं ही उसकी असली हकदार थी. यह रहस्य मेरे हाथ आना था. मेजपोश को वैसे ही लपेट कर मैंने अपने कब्जे में ले लिया. उसके नीचे एक तह की हुई साड़ी के बीच दबी थी उस रहस्य की कुंजी. जरूर मेरे लिए ही था यह सब. मैं काँप रही थी, भय लग रहा था मुझे. कहीं कोई देख न ले. स्वार्थी की भाँति सब अकेले ही जानना-पाना चाहती थी. मैंने सारी सामग्री हथिया ली. बक्स बन्द कर वहाँ से निकल सारी चीजें अपने कमरे में लाकर छिपा दीं. अपने ही घर में चोरों जैसा व्यवहार था मेरा. यह पूरा रहस्य मैं स्वयं पाना चाहती थी. अकेले पूरा जानना-समझना चाहती थी.

अब मेरे सामने एक थाती थी, जिसे मैं परिवार की आँख बचा कर देख रही थी. जिसकी चीजें थी वो अब जिन्दा न थी. आज मैं आपके साथ सब बाँट रही हूँ, उस समय किसी को दिखाना नहीं चाहती थी. सब कुछ छिपा कर रखा था. बहुत कुछ था उसमें. उसमें एक लड़की की दबी-घुटी आकांक्षाएँ थीं, एक स्त्री की अभिलाषाएँ थीं, उसकी बेबसी थी, लाचारी थी और सबसे बढ़कर थी एक नारी की दूसरी नारी के प्रति चिंता और था भय. `जो मेरे साथ गुजरा है' वह दोहराया न जाए. और थी इस सब से उपजी कुंठा. उससे उपजी खीज. यहाँ वह पूरी तरह नंगी थी मेरे सामने. यह उसका असली रूप था, दूसरों से छुपा हुआ. उसका यह व्यक्तित्व मेरी नजरों के सामने खुल रहा था. वह चिड़चिड़ी, कठोर औरत भीतर से बड़ी भयभीत, बड़ी निर्बल, बड़ी असहाय थी. उस स्त्री के सपने टूट कर बिखर गए थे. वह नहीं चाहती थी कि उसकी भतीजी भी उन्हीं अँधेरों से गुजरे. कितना डरी हुई थी वह मेरे लिए.

हाँ , मेरे सामने `मेरे प्राणनाथ' सम्बोधन वाले पति को लिखे गए कभी पोस्ट न किए गए ढेरों पत्र थे. उसके पति का एक भी पत्र न था. और थी उसकी अनियमित लिखी गईं कई डायरियाँ. किसी की निजी डायरी पढ़ना गुनाह है पर लिखने वाली अब न थी और मेरी जिज्ञासा इतनी तीव्र थी कि उस समय मैं कोई भी गुनाह करने को तैयार थी, ये तो कागज के पुलिन्दे थे. मैं दिन-रात सबसे छिपाकर उनमें खोई रहती. जैसे उसकी अँगुलियाँ और जबान चलती थी वैसे ही उसकी लेखनी भी खूब चली थी, जो पत्र और डायरी के रूप में मेरे सामने थी. अक्षर थे सुन्दर और जबान कड़वी, लेखनी दु:ख में डूबी. परत-दर-परत एक नई औरत, एक नई बुआ मेरे सामने खुलती जा रही थी. बहुत कुछ था उन कागज के पन्नों पर स्याही से रंगा-पुता. सब आपको सुनाने लगूँ तो एक पोथा तैयार हो जाएगा. सब सिलसिलेवार न था. उन्हें तरतीब से लगा कर उतना ही आपके सामने रख रहीं हूँ जो इस कहानी से जुड़ा है. मेरे सामने पुरुष से ज्यादा स्त्रियों द्वारा सताई गई नारी की गाथा थी, वही आपके हवाले कर रही हूँ.

`जगत की दुल्हन (मेरी माँ) बड़ी खूबसूरत है.' ...

`जेठानी ने छल किया था.' ... `खूबसूरत जेठानी खूबसूरत देवर को खोना नहीं चाहती थी, इसीलिए चुनकर मुझसे शादी करवाई'... `सास ने घूँघट उठाकर मुँह दिखाई की रस्म की और तुरंत घूँघट गिरा कर हट गईं.'... `जब पहली रात जेठानी मुझे कमरे में ले जा रही थी तो उसने कहा था `अरे देवर जी के कमरे में जाते ही बत्ती बुझा देना वरना तुम्हारा रंग देखकर दीपक खुद ही बुझ जाएगा. घूँघट उठाने के पहले अंधेरा जरूर कर लेना. काला रंग इस परिवार में अभिशाप माना जाता है.' ...

उसकी डायरी में ढेरों एंट्रीज `हे भगवान' से शुरु होती थी. इतनी बार सम्बोधन और इतने आरोप सुनकर भगवान परेशान हो गया होगा. पन्ने-के-पन्ने भरे थे इस सताई गई औरत के दु:ख से.

पुरुष से ज्यादा औरतों के द्वारा प्रताड़ित की गई थी वह, जो ऊपर से अकड़ी रहती थी पर भीतर से बड़ी असुरक्षित थी. कितनी बार उसने भगवान से मौत मांगी थी, वह तंग आ गया होगा शिकायत सुन-सुन कर.

`आज दुलहन ने फूल सी बच्ची को जनम दिया है'. ... फिर कई एंट्रीज उसी बच्ची (मेरी बहन) के बारे में थीं. `एकदम गुड़िया जैसी है. उसे आज लाल फ्रॉक पहनाई थी बिलकुल वीरबहूटी लग रही थी. ...... मेरी बेटी होती तो क्या इतनी गोरी इतनी सुन्दर होती? .... हो भी सकती थी. .... मुन्ना (मेरा तैयेरा भाई) मेरे पास सोता है ...... मैं माँ बनती तो मेरा बच्चा मेरे संग सोता. .......अगर अपने पिता पर जाता तो गोरा चिट्टा. सलोना होता. कैसा प्यारा दीखता. पर कहीं चरित्र भी उन्हीं जैसा होता... अच्छा हुआ जो संतान न हुई.'

..... भाभी, दुलहन कुछ कहती नहीं हैं पर मैं सब समझती हूँ. जब तक अम्मा है सब ठीक है, बाद में क्या होगा?' ..... `अम्मा दुलहन को बहुत मानती है, उसके फिर बच्चा होने वाला है. ......अगर इस बच्चे को मैं गोद ले लूँ. .... क्या जगत और दुलहन मान जाएँगे? ... क्या अपना बच्चा मुझे दे देंगे?' ... यह बच्चा मैं थी. शायद इसी बच्चे के लिए उसने ये कपड़े बनाए थे.

`दुलहन जचगी के लिए पीहर गई है.' ... फिर काफी दिन बाद लिखा था `खबर आई है लड़की हुई है'... `दुलहन बच्ची लेकर आ गई है सब कहते हैं उस पर मेरी छाया पड़ी है, लड़की क्या है उल्टे तवा की पेंदी है. बिलकुल मेरे जैसी बदसूरत और काली. हे भगवान ये क्या किया?' ... `आज माँ ने भी मुझे काली होने का ताना दिया है, ससुराल के साथ घर वाले भी मेरे रंग को दोष देकर छुटकारा पा लेना चाहते हैं.' .... `आज बातों-बातों में दुलहन से बच्ची गोद लेने की बात चलाई सुनते ही तुनक कर बोली उसे रहने दो. अपना रंग तो दे ही दिया है अब गोद लेने की बात करके इसकी किस्मत मत खराब करो. इसे लेने का सपना मत देखना. अगर इतना ही शौक चर्राया है तो अपना पैदा कर लो. किसने रोका है?' ...

पति को लिखे सारे पत्र `मेरे प्राणनाथ' से शुरु हो कर `चरणों की दासी' पर आकर समाप्त होते थे. पत्रों से ही पता चला कि फूफा ने पहली रात में ही मुँह फेर लिया था. सुन्दरता के पीछे भागने वाला उन्हें गले न लगा सका. वो उन्हें गले पड़ा ढोल लगती. जितना बुआ उनके कदमों में पड़ा रहना चाहती थी उतना ही वह दुत्कारी गई. जिस पुरुष ने उसको आँख उठाकर न देखा वह उसके चरण धोकर पीने को तैयार थी. जिसने उसे काली होने की इतनी बड़ी सजा दी उसी के नाम का लाल सिन्दूर वह आजीवन अपनी माँग में भरती रही. उसी की मंगल-कामना के लिए करवा चौथ के व्रत साल-दर-साल रखती रही. पुरुष ने उसे कभी न अपनाया पर वह उसकी मानसिक गुलामी में जकड़ी रही, इस दासता को झटक न सकी.

डायरी से ही मुझे पता चला उसे बड़ा भय था अपनी भतीजी यानी मेरे लिए. कहीं उसकी भतीजी के साथ वह सब न घटे जो उसके साथ घटा. वह चाह कर भी अपना प्रेम मुझपर न लुटा पाती. मुझे देखते ही उसे गुस्सा आता. मेरे रंग का दोषी वह स्वयं को मानती थी, तभी अपने साथ-साथ मेरी मृत्यु की कामना अपने भगवान से करती रहती ताकि मुझे वह सब न भुगतना पड़े जो वह भोग रही थी.

उसकी कठोरता की परत कितनी कमजोर थी. अपनी बेबसी को उसने अपना भाग्य मान लिया था. अपराध न करके भी सजा भुगत रही थी, अपराधबोध से ग्रस्त थी. अपने साथ अपनी भतीजी के रंग का दोष भी अपने माथे ले लिया था. विवाह की पहली रात जो घाव उसे मिला था वह भीतर-भीतर से सदा हरा बना रहा. ऊपर खुरंट पड़ गया, वह कठोर होती गई. पर अपमान की इस भीतरी चोट ने, इस घाव ने कैंसर बनकर उसकी कोख चाट डाली. वह घुलकर तिल-तिल कर मरी.

एक और एंट्री थी `अब मैं उनके पास कभी न जाऊँगी. चाहे घर वाले काट कर फेंक दें. घर में मैं किससे क्या कहूँ , किसको बताऊँ, क्या बताऊँ? वो जब यहां आते हैं मेरा जी धुक-धुक करता रहता है, निगरानी करती रहती हूँ. घर की बहू-बेटियों के लिए उनके मन में कोई इज्जत नहीं है, नजर में कोई कीमत नहीं है. हमेशा लार टपकती रहती है. अपनी भाभी के साथ जो करते हैं वह मैंने किसी से नहीं कहा, क्या कहूँ? उन लोगों को भी कुछ न कह सकी, क्या होता कहकर? मगर यहाँ लार टपकाई तो माफ नहीं कर सकूँगी. खुद मर जाऊँगी पर पहले उन्हें मार डालूँगी. पहले सोचती थी शराब की झोंक में बकते हैं पर ऐसा है नहीं, लम्पट हैं. शरम नहीं आती ऐसी बातें करते. कहते थे अगली बार आना तो अपने संग ... ले आना, चख कर देखेंगे तीखी है या तुम्हारी जैसी बेजान, ठंडी ... मैं ठंडी हूँ, बेजान हूँ. अपनी भाभी के रूप का परदा पड़ा है आँखों पर. मुझे घिन आती है जब ऐसा आदमी मुझे छूता है. छूते ही मेरी आत्मा तक ठंडी पड़ जाती है'. ...... .... `कैसे-कैसे लांछन लगाए जेठानी ने मुझपर. सबको अपने जैसा समझती है. कहती है कोई यार होगा तभी मायके में पड़ी रहती हूँ, ससुराल नहीं आना चाहती. जब वहाँ जाती हूँ , क्या होता है? .... मुझे सामने बैठाकर रासलीला रचाई जाती है. घिन आती है मेरे बिस्तर पर मेरे सामने ...... पर मजाल क्या मैं आँख फेर सकूं. दोनों मिलकर सवार हो जाते हैं. .... चाहते हैं मैं उनकी रंग रंगेलियों में संग दूँ. ......'

ये एंट्रीज उन दिनों की है जब लाख मान-मनौवल, कलह-क्लेश के बाद भी उसने ससुराल जाने से इंकार कर दिया था. घर में अपना अटल निर्णय सुना दिया था यदि उसे वहाँ भेजने की कोशिश की गई तो वह जान दे देगी. पति के लिए भी घर वालों को चेता दिया था अब से उस व्यक्ति का घर में कोई स्वागत-सत्कार नहीं होगा. पता नहीं उसकी बात में कैसा दम-खम था इसके बाद किसी ने उसे ससुराल भेजने की जुर्रत नहीं की. फूफा को न जाने क्या और कैसे कह दिया था वे फिर कभी हमारी देहरी पर नहीं आए. बुआ के मरने पर भी नहीं. मर गई पर फिर कभी उसने ससुराल की चौखट नहीं लांघी.

इसी तरह एक दिन मेरी पढ़ाई के लिए अड़ गई. उसकी डायरी में एंट्री थी `मैं चाहती हूँ ये खूब-पढ़ जाए, पढ़-लिखकर अपने पैरों पर खड़ी हो जाए, खूब आगे निकल जाए. इतना ऊपर उठ जाए कि कोई इसे इसके काले रंग का ताना न दे सके. खुद कमाने लगेगी तो काला रंग रास्ते में नहीं आएगा, बाधा नहीं बनेगा. पैसा पास रहेगा तो किसी का मोहताज नहीं होना पड़ेगा. अगर आज मैं पढ़ी-लिखी होती तो मुझे दूसरों पर आश्रित नहीं रहना पड़ता. पढ़ाई और पैसा बहुत काम आता है.'

मेरी बुआ नारीवादी नहीं थी उसे शायद नारी स्वातंत्र्य के किसी आन्दोलन की जानकारी न थी, पर जीवन से मिली ठोकरों, जीवन से मिली सीख ने उसे नारी स्वावलम्बन का मूलमंत्र थमा दिया था. वह स्वयं उनका उपयोग पूरी तरह भले न कर पाई पर दूसरों खासकर मेरे लिए रास्ता खोल गई. काश! आज वह होती. आज जो मैं हूँ उसमें बहुत से लोगों का योगदान है, पर उसमें उसके पत्रों, डायरियों का हाथ भी है जिन्होंने जीवन के प्रति मेरा नजरिया बदल डाला, जिसने मुझे अन्याय के सामने कभी न झुकने की प्रेरणा दी.

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रचनाकार संपर्क - विजय शर्मा, १५१, न्यू बाराद्वारी, जमशेद्पुर ८३१००१. फोन: ०६५७-२४३६२५१.

ई-मेल: vijshain@yahoo.com

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