- विजय शर्मा साहिर लुधियानवी, सरदार जाफरी तथा राही मासूम रजा की तरह कैफ़ी का जन्म भी एक जमींदार परिवार में हुआ था पर जिन्दगी भर ये सब जमी...
- विजय शर्मा
साहिर लुधियानवी, सरदार जाफरी तथा राही मासूम रजा की तरह कैफ़ी का जन्म भी एक जमींदार परिवार में हुआ था पर जिन्दगी भर ये सब जमींदारी के कुसंस्कारों से लड़ते रहे, गरीबों, शोषितों के पक्ष में खड़े रहे. सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ते रहे, सद्भावना, भाईचारे, कौमी एकता की आवाज उठाते रहे. अपने रचनाकर्म, अपनी निजी जिन्दगी, अपने क्रियाकलापों में ये सदा धर्म निरपेक्षता की, मानवता की पक्षधरता करते रहे. सत्ता के घिनौने चेहरे को अपनी कृतियों में उघाड़ते रहे. राजनीति के दलालों के मुखौटे हटा कर जनता के सामने उन्हें नंगा करते रहे. जुल्म चाहे देश में हो रहा हो या विदेश में ये चुप न बैठे. लोगों को एक जुट हो कर अत्याचार के विरुद्ध लड़ने का इन्होंने आह्वान किया. ये लोग चाहते तो बड़े आराम से अपनी जिन्दगी गुजार सकते थे पर भौतिक सुख साधनों को छोड़ कर इन्होंने स्वयं कठिन डगर चुनी. दूसरों के दु:ख से दु:खी ये आजादी के दीवाने 'आवारा सजदे करते रहे.
वे उन्नीस साल की उम्र में ही सी. पी. आई. से जुड़ गए. इप्टा में उनकी जान बसती थी. वे शुरु से उसमें शामिल थे, मरते दम तक वे उसके लिए चिंतित थे. 1943 में जब कम्युनिस्ट पार्टी का दफ्तर बम्बई में खुला तो वे उसका काम संभालने वहाँ चले गए और उसके पत्र के संपादन में जुट गए. कई बार वे इप्टा के लिए नाटक लिखते और उसे खेलने का प्रबंध करते तथा इससे जो आमदनी होती उसे पार्टी में लगा देते थे. उनकी बेटी बताती है कि उन्हें पार्टी से 45 रुपए मिलते थे जिसमें से 30 रुपए वे पार्टी को अपने खाने के एवज में लौटा देते थे. 15 रुपए यात्रा-खर्च और अपनी चारमीनार के लिए रखते थे. और शादी के बाद जब शौकत भी संग में रहने लगीं तो जिनके खाने के 30 रुपए देने के लिए वे पाँच रुपए रोज पर एक पेपर के लिए व्यंग्य कविता लिखने लगे, महीने के 150 रुपए मिलने लगे पर यह उनके लिए एक सजा के समान था. इसी कारण बाद में शौकत ने भी रेडियो और इप्टा के लिए काम करना शुरु किया. तब जाकर कैफ़ी का रोजाना का यह टॉर्चर रुका.
कैफ़ी आजमी ने बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद राम के बनवास पर एक कविता 'दूसरा बनवास लिखी थी. राम जब बनवास के बाद अयोध्या लौटते हैं और वहाँ बजरंगियों की हरकत देखते हैं तो माथा ठोंक लेते हैं. बनवास से लौट कर राम ने अभी सरयू में पाँव धोने चाहे थे कि उन्हें सरयू का पानी खून से रंगा दीखा. वे बिना पाँव धोए उठ आए. उन्हें अपने नगर, घर, ऑंगन की फिजा रास नहीं आई. और इस ध्वंस से दुखी हो कर पुन: बनवास पर निकल जाते हैं. राम का पहला बनवास जन-जन को साथ ले अन्याय और शोषण के विरुद्ध था पर यह दूसरा बनवास आत्म निर्वासन था उन्होंने अपने घर, अपने प्रदेश में जिस जंगल को पाया उससे भागना ही उनका दूसरा बनवास था.
यह कविता कैफ़ी के जीवन की भी कहानी है. वे समाज को बदलना चाहते थे इसलिए काफी वर्ष पहले घर से निकल पड़े थे. अपनी जवानी के दिनों में वे दुनिया बदलने का सपना पाल रहे थे तभी तो वे कहते थे उन्हें अपनी जनम तिथि याद नहीं पर वे जानते हैं कि उनका जनम एक गुलाम देश में हुआ है जवानी स्वतंत्र भारत में गुजरी है और वे एक समाजवादी देश में गुजरेंगे. चालीस पचास के दशक में बहुत सारे जवान सोचते थे कि वे एक बेहतर देश बना सकते हैं. वे अन्याय, सामाजिक बुराइयों के खिलाफ खड़े हो सकते हैं. बुद्धिजीवियों, सभी भारतीय भाषाओं के बुद्धिजीवियों, को यह विश्वास था और इसीलिए वे एक मंच पर खड़े थे, शोषण और अन्याय के खिलाफ लड़ने को तत्पर थे. हालाँकि उन लोगों का यह सपना जल्द ही बिखर गया. इस पर शोध होना चाहिए क्या कारण है कि जब इतने नौजवान एक लक्ष्य के लिए उत्सर्ग होने को तैयार थे तब यह असफल हो गया.
कैफ़ी मानव मात्र की समानता पर विश्वास करते थे, सब को उनका वाजिब हक दिलाने के पक्ष में थे. वे असमानता के खिलाफ थे. इतना ही नहीं वे असमानता के कारणों की जड़ में जाकर उसका उन्मूलन करना चाहते थे. इसीलिए जब वे औरत आदमी की समानता की बात करते हैं तो औरत को जंजीरों में जकड़ने वाले स्थूल और सूक्ष्म दोनों बंधनों को बेबाकी से न केवल दिखाते हैं बल्कि औरत को सावधान करते हैं और इन गुलामियों से निकल आने की सलाह देते हैं. कैफ़ी आजमी औरत को आदमी की दासी नहीं वरन उसके साथ कदम-से-कदम मिला कर चलने वाली आजाद शख्सियत मानते थे.
'औरत’ में वे कहते हैं
'जन्नत इक और है जो मर्द के पहलू में नहीं
उसकी आजाद रविश पर भी मचलना है तुझे
उठ मेरी जान ! मेरे साथ ही चलना है तुझे.’
यहाँ तक कि वे मुहब्बत तक को औरत की आजादी में रोड़ा मानते थे.
'गोशे-गोशे में सुलगती है चिता तेरे लिए
फर्ज का भेस बदलती है कजा तेरे लिए
कहर है तेरी इक नर्म अदा तेरे लिए
कहर ही जहर है दुनिया की हवा तेरे लिए
यह भी एक कैद ही है, मुहब्बत से निकल
राह का खार ही क्या गुल भी कुचलना है तुझे.’
वे कहते हैं कि मोहब्बत के फूल को भी तुझे कुचल डालना है और इस प्यार की बन्दिश से भी तुझे बाहर आना होगा तभी तेरी असल मुक्ति होगी. वे स्त्री की पूर्ण स्वतंत्रता में यकीन करते थे. उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व के पक्षधर थे. वे उसे कठोर बनने की अपने हकों को हासिल करने के लिए सघर्ष करने का मशवरा देते हैं.
औरत की आजादी के साथ उन्हें समाज की अन्य समस्याओं की भी चिंता थी वे साम्प्रदायिकता को लेकर बड़े परेशान थे. बाबरी मस्जिद की घटना के बाद उन्होंने राम का 'दूसरा बनवास लिखी पर उसके भी काफी पहले उन्होंने साम्प्रदायिक दंगों से दुखी होकर 'लखनऊ तो नहीं लिखी थी जिसमें वे आतिश और मीर अनीस जैसों के लखनऊ को खून में डूबा देख कर मरसिया गायकी की शैली में जार-जार रोते हैं 'ब गौर देखो यह इस्लाम का लहू तो नहीं. तुम इसका रख लो कोई और नाम मौज सा, किया है खून जो तुमने वो वजू तो नहीं
समझ के माल मेरा जिसको तुमने लूटा है पडोसियों ! वो तुम्हारी आबरू तो नहीं. आतिश और मीर अनीस मरसिया गायकी शैली के थे.
कट्टरपंथी विश्वास पर अड़े रहते हैं, उन्हें तर्क से कुछ लेना देना नहीं होता है. आदमी अपने विश्वास अपनी मान्यता के अनुसार ईश्वर की भी रचना करता है. रचना रचनाकार का विस्तार होती है इसीलिए कैफ़ी को डर है कि जब खराब प्रकृति, संकुचित मन वाले लोग खुदा बनाएँगे तो वह कैसे अच्छा होगा, वह उनके जैसा छुद्र मन वाला होगा यदि ऐसा हुआ तब प्रलय आ जाएगी. वे कट्टरपंथी लोगों के ईश्वर तक के प्रति शंकित हैं तुम बनाओ तो खुदा जाने बनाओ कैसा, अपने जैसा ही बनाया तो कयामत होगी.
वे सांप्रदायिकता को ऐसा साँप मानते थे जिसके सब दाँत उखाड़ डाले, सर कुचल डाला, दुम मरोड़ डाली फिर भी वह बार-बार उठ खड़ा होता है इसे पंडित दूध पिलाते हैं, यह शिवालों से फुँफकारता हुआ निकलता है. 'ये हिन्दू नहीं है मुसलमाँ, एं ये दोनों के मगज और खूँ चाटता है. सांप्रदायिकता की काट कैफ़ी ने बड़े सरल शब्दों में दी है वे कहते हैं जिस दिन आदमी हिन्दू मुसलमान न हो कर आदमी बन जाएगा उसी दिन यह साँप अपने आप मर जाएगा क्योंकि तब इसे दूध पिलाने वाला इसे पालने वाला कोई नहीं होगा. 'बनें जब ये हिन्दू मुसलमान इंसान उसी दिन ये कमबख्त मर जाएगा. वे कहते हैं कि तुमने पत्थर से तराश कर जो दीवार बनाई थी उसमें तुम्हें दरार दीखती है या नहीं? यह दरार बड़ी खतरनाक है इसे पाटने का कोई उपाय करो अगर समस्याएँ जटिल हैं तो कोई दैवी उपाय ढूँढो. 'एक पत्थर से तराशी थी जो तुमने दीवार, इक खतरनाक शिगाफ उसमें नजर आता है, देखते हो के नहीं. आगे वे सुझाते हैं,'देखते हो तो सुलह की कोई तदबीर करो, अहद पेचीदा मसाइल हैं सवा पेचीदा, उनको सुलझाओ, सहीफ: कोई तहरीर करो. कैफ़ी हर रूह को शरीर दे कर उसे फौलाद का बना देना चाते हैं ताकि अन्याय का सामना किया जा सके, वे लेनिन नामक अपनी रचना में कहते हैं,'रूहें आवारा हैं दे दो उन्हें पैकर अपना, भर दो हर पाराएफौलाद में जौहर अपना, रहनुमा फिरते हैं या फिरती हैं बे सर लाशें, रख दो हर अकड़ी हुई लाश पर तुम सर अपना.
1942 में वे एक मुशायरे के सिलसिले में हैदराबाद गए वहीं पर उनकी मुलाकात शौकत से हुई दोनों में प्यार हुआ और उन्होंने 1947 में शादी की. पत्नि भी उनको एक ही मिलीं थीं. शौकत की सगाई उनके एक कजिन से हो चुकी थी पर कैफ़ी से मिलने के बाद उन्होंने वह सगाई तोड डाली और जिद पकड़ी की वे केवल कैफ़ी से शादी करेंगी. घर वालों ने लाख समझाया कि वह फक्कड आदमी है, कम्यून में रहता है, पास फूटी कौड़ी नहीं है और तो और टी.बी उसकी खानदानी बीमारी है वह बहुत दिन जिन्दा नहीं रहेगा पर प्यार की दीवानी इन बातों को कहाँ सुनती-मानती. कैफ़ी खून से कविता लिख कर भेजा करते वह भी एक दो नहीं हर डाक में आठ दस पत्र लिखते. शौकत के पिता बेटी को भयावह सच्चाई दिखाने बम्बई ले आए. लेकिन कोई असर न हुआ. अगर कुछ असर हुआ तो वह यह कि शौकत ने वहीं-के-वहीं शादी की जिद पकड ली. शौकत के पिता को बेटी की जिद के सामने हार माननी पड़ी. सज्जाद जहीर की पत्नि के कपड़े पहनने से भी शौकत को उज्र नहीं हुआ बेनाप थे तो क्या हुआ. दोनों ने अपनी शादी की पहली रात न्यूजपेपर बिछा कर उस पर गुजारी. और दोनों पूरी तौर पर पार्टी के काम में जुट गए.
1949 में जब पार्टी गैरकानूनी घोषित कर दी गई तो कैफ़ी भूमिगत हो गए. शौकत से मिलना न हो पाता. एक जगह टिक कर न रह पाते. एकाध को छोड़ कर मित्र कतराने लगे कौन मुसीबत मोल ले. बीमार बच्चे को लेकर शौकत हैदराबाद चली गई पर आन के कारण किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया. बच्चा दवा के अभाव में चल बसा. इन्हीं तंगियों के बीच 1951 में शबाना का जनम हुआ और उसी साल उनके दोस्त शाहिद लतीफ ने कैफ़ी को अपनी फिल्म 'बुजदिल के गाने लिखने के लिए कहा. इस बात को लेकर शैलेंद्र को आपत्ति थी खैर कैफ़ी ने एक गीत लिखा, 'रोते रोते गुजर गई रात रे. इसके उन्हें 500 रुपए मिले साथ ही फिल्मों का रास्ता खुला. यह गीत अंडरग्राउंड रहते हुए लिखा था. पर प्रथम ग्रास में मक्षी गिरी थी, उनका फिल्मी गीतकार रूप न उन्हें रास आया न औरों को. बम्बई फिल्म इंडस्ट्री अंधविश्वासों पर चलती है. वे फिल्म के लिए लकी नहीं माने गए. कुछ थोड़े से गीत जो उन्होंने फिल्मों के लिए लिखे वे आज भी लोकप्रिय हैं. कौन भूल सकता है 'अर्थ का गाना 'तुम जो इतना मुस्कुरा रही हो... बाद में गुरुदत्त ने 'कागज के फूल के गीत लिखवाए, जो खूब चले, जिनकी शौहरत आज भी कायम है.
इस दौरान वे मदनपुरा में राज मजदूरों के साथ खाते-सोते थे तभी 'मकान लिखा जिसमें मजदूरों के दु:ख दर्द को शब्द दिए हैं. मजदूर की दशा या यूँ कहें दुर्दशा देख कर वे चुप नहीं हैं. वे उन्हें एकजुट होने, साथ मिल कर अपने हक की लड़ाई लड़ने की सलाह देते हैं. अगर सब मिल कर प्रयास करेंगे तो कोई न कोई खिडकी अवश्य खुलेगी कोई न कोई हाल जरूर निकलेगा. मजदूर जो मकान बनाता है खुद फुटपाथ पर सोने को मजबूर है उसके सर पर न छत है न दरो दीवार. शायर से यह देखा नहीं जाता है वह 'मकान’ में कह उठता है
'आज की रात बहुत गरम हवा चलती है
आज की रात न फुटपाथ पे नींद आएगी’
वह सब को आवाज दे कर उठाता है 'सब उठो मैं भी उठूँ तुम भी उठो और इस तरह जब सब उठ खड़े होंगे तो कोई न कोई राह निकल आएगी 'कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी.
गरीबों का तब भी शोषण हो रहा था जब आदमी बन्दरों से विकसित हो कर पेड़ों पर से उतरा ही था 'ये जमीं तब भी निगल लेने पे आमादा थी पाँव जब टूटी शाखों से उतारे हमने, इन मकानों को खबर है न मकीनों को खबर, उन दिनों की जो गुफाओं में गुजारे हमने और जब मकान बन कर तैयार हो गए तो इन्हीं मजदूरों की उसमें घुसने के मनाही हो गई दरवाजों पर इन्हें अन्दर जाने से रोकने को पहरे बिठा दिए गए मालिक कोई और बन बैठा, 'बन गया कसर तो पहरे पे कोई बैठ गया मजदूर को मिला इमारत बनने के बाद बचे हुए मलबे पर सोना. पर उसके पास उसकी नस-नस में मेहनत की ताकत है. एक और नज्म में वह कहता है 'गम न कर हाथ अगर तेरे कलम हो जायें.
तेलंगाना आन्दोलन के प्रति उनके मन में सहानुभूति थी जहाँ 'जईफ मायें, जवान बहनें झुके हुए सर उठा रहीं हैं, सुलगती नजरों की ऑंच में भीगी भीगी पलकें सुखा रहीं हैं, लहू भरी चोलियों, फटे ऑंचलों से पर्चम बना रहीं हैं, तराना-ए-जंग गा रहीं हैं. आगे वे कहते हैं आज जिन्दगी ने खुद शासन सम्भाल लिया है, 'हयात अंगड़ाई ले के अपना निजाम अब खुद सम्भालती है. वे सत्ता के रखवालों को सावधान करते हैं कि इधर रुख मत करो यहाँ शहीद सोए हुए हैं, 'लहू से सीना-ए-गीती के दाग धोए हैं, जगा के खाक की किस्मत, शहीद सोए हैं. कहीं की फौज सही उधर का रुख न करे, यहाँ जमीन में बम मनचलों ने बोए हैं. अत्याचार हद से गुजर गया है सितम से दबना अब मुमकिन नहीं है. शोषण के खिलाफ खड़े लोगों को इससे बड़ी श्रद्धांजलि और क्या होगी.
पार्टी का कार्डधारी मेम्बर होने उसका तन-मन-धन से काम करने और इप्टा से जुड़ा होने के बाबजूद उनकी शायरी रोमांटिक थी, उन्होंने मिस्टिक रचनाएँ भी की और बाद में सामाजिक चेतना, जनाकांक्षाओं को भी अपने काव्य का विषय बनाया. अपने बाद के जीवन में उन्हें इस्लाम या किसी धर्म की कट्टरता पर कोई आस्था नहीं रह गई थी परंतु नास्तिक होने के बाद भी अंत तक उनकी रचनाओं में धामक प्रतीक किसी न किसी सन्दर्भ और प्रतीक के रूप में आते रहे असल में वे मानवीय सरोकार के रचनाकार थे और अपनी बात लोगों तक पहुँचाने के लिए उन्हें इन प्रतीकों का इस्तेमाल करना पड़ा. जिससे बात करनी हो जिस तक अपनी बात पहुँचानी हो उसी की भाषा का प्रयोग अत्यावश्यक हो जाता है और भाषा तो विचारों के संवहन का माध्यम है.
मई 1943 में इप्टा की विधिवत स्थापना के समय से ही वे उससे जुड़े थे और ताउम्र जुड़े रहे. यहाँ तक कि जो उनका पहला काव्य संग्रह 'झंकार आया उसमें भी नाट्यतत्व भरपूर उपस्थित है. यह नाट्यतत्व उनके दूसरा बनवास में भरपूर उपस्थित है. व्यक्ति को जो सोच सम्वेदना एवं संस्कार उसे बचपन से मिलते हैं वह उन्हीं के तहत जीवन भर सोचता समझता है विचारों में परिवर्तन होने पर भी वह इनसे उबर नहीं सकता है उसके मुहावरे वही रहते हैं हाँ वह इनका भिन्न अर्थ के लिए उपयोग करता है. इस्लामिक पारीवारिक पृष्ठभूमि होने के कारण कैफ़ी पर मसए का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था और उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है कि उन पर इस पद्धति का बड़ा गहरा असर है. सरदार जाफरी ने भी इसी तरह की स्वीकारोक्ति की है. मसया के प्रमुख और प्रसिद्ध तथा सर्वप्रिय शायर मीर अनीस के शहर लखनऊ में जब दंगे हुए तो कैफ़ी का दिल रो पड़ा और उन्होंने 'लखनऊ तो नहीं लिखा.
प्रगतिशील अन्दोलन से कैफ़ी को जोड़ने में जिन लोगों की प्रमुख भूमिका है उनमें सरदार जाफरी और सज्जाद जहीर का नाम गर्व के साथ लिया जा सकता है. सज्जाद जहीर प्रगतिशील आन्दोलन के अग्रणी थे उन्होंने बहुत लोगों को कम्युनिस्ट पार्टी से जोड़ा. उनके कारण कैफ़ी इस पार्टी में रच बस सके. वे पार्टी की राजनैतिक चेतना से प्रभावित थे. वे एक नया जहाना खोज रहे थे नई जमीन खोज रहे थे,'मैं ढूँढता हूँ जिसे वो जहाँ नही मिलता, नई जमीं नया जमाना नहीं मिलता, कहाँ मिला उन्हें यह जमाना यह जमीन.
हमारे देश में अपनी बात आम जनता तक नाटक के रूप खासकर नुक्कड नाटक के रूप में ले जाना एक सस्ता और सुलभसाधन है. सरकार, राजनीतिक पार्टियाँ और गैर सरकारी स्वयंसेवी सस्थाएं इनका आज भरपूर प्रयोग करती हैं और नुक्कड नाटक की शुरुआत करने, उसे स्थापित करने में इप्टा का महत्वपूर्ण हाथ है. बंबई के साम्प्रदायिक दंगों के दौरान कैफ़ी ने एक व्यंग्य गीत 'चना जोर गरम लिखा और उसे नाटक रूप में स्वयं ही प्रस्तुत भी किया. इतना ही नहीं उन्होंने इसे दंगाग्रस्त इलाकों में जाकर लोगों के बीच खेला. फाकामस्ती और जुनून के साथ वे काम करते थे. इप्टा से उनका जुड़ाव व्यवस्था एवं संगठन के स्तर पर ज्यादा था. बम्बई में उनके साथ सैयद मोहम्मद मेंहदी भी थे कानपुर मजदूर सभा की सक्रियता के दिनों से दोनों का साथ था जो बाद में भी बना रहा.
शायर, पार्टी मेम्बर, पत्रकार, अभिनयकर्ता हर रूप में कैफ़ी की समझ बड़ी सुलझी हुई थी. वे अपनी बात बड़े सीधे सादे ढंग से कहते थे. और सामाजिक राजनीतिक धामक बुराइयों, समस्याओं का अपने तई बड़ा सरल सा उपाय भी सुझाते थे. सच जीवन को अगर हम सीधे सरल तरीके से जीएँ तो सब कुछ कितना आसान होगा. वे गूढ़ रहस्यात्मक आध्यात्मिक बातों को बड़ी सीधी-सादी भाषा में बिना उलझाए कहते हैं. रवींद्रनाथ ठाकुर ने भी कहा है 'तोमार आकाश तोमार बाताश ये ई तो सबई सोझासूझी.’ तुम्हारा आकाश है तुम्हारी हवा है और यह बात बड़ी सीधी सी है.
कैफ़ी ने कई अभिनव प्रयोग किए जैसे 'हीर रांझा की सारी कथा को काव्यात्मक शैली में पिरोना अपने आप में अनोखा प्रयास था. उन्होंने अतीत से लोक इतिहास से कई चरित्र उठाए. मिर्जा गालिब की जीवनी पर 'आखिरी शमा रचा. जिसे एम एस सथ्यु के निर्देशन में कई शहरों के साथ लाल किले के दीवाने आम में भी मंचित किया गया. इस्मत चुगताई की एक अप्रकाशित कहानी पर उन्होंने शमा जैदी के साथ मिल कर 'गर्म हवा की पटकथा लिखी. जिस पर एम एस सथ्यु ने 'गर्म हवा फिल्म बनाई.
1971 के बाद भारत पाकिस्तान युद्ध और बांग्ला देश मुक्ति के बाद दो राष्ट्र सिद्धांत की कलई खुल गई. धर्म और सम्प्रदाय विशिष्ट के लिए बना राष्ट्र जाति और भाषा के कारण बंट गया. और सही अर्थों में पहली बार विभाजन को मुद्दा बना कर एक फिल्म बनी. 'गर्म हवा विभाजन पर बनी फिल्मों में अग्रणी ही नहीं श्रेष्ठ फिल्म भी है. इसमें इप्टा की पूरी भागीदारी थी. संवाद और गीत कैफ़ी साहब ने लिखे थे. मूल कहानी को कैफ़ी ने एक मोड़ दे दिया. स्टेशन मास्टर को विभाजन की दुविधा में फंसा विभाजन से सीधे प्रभावित दिखाया. वह टूटने लगता है. पाकिस्तान जाने का फैसला करता है पर अधिकारों के लिए लड़ते जुलूस निकालते लोगों को देख, जिसमें उसका बेटा सिकन्दर भी शिरकत करने लगता है को देख कर, देश छोड़ने का अपना इरादा बदल देता है और अपने शहर में रहने को पलट पड़ता है. इसमें दिखाया गया है कि सांप्रदायिकता के जहर के कारण जिन लोगों को शक के घेरे में रखा जाता है जिनके देशप्रेम और वफादारी पर लांछन लगाए जाते हैं वे किस द्वंद्व और दुविधा से गुजरते हैं. वे न तो पाकिस्तान के समर्थक हैं न ही उसके जासूस. हाँ इसमें शक नहीं साम्प्रादायिकता की आग भडकाने वाले बार बार दंगों को हवा देने वाले अल्पसंखकों के मन में ऐसे विचार ला दें तो आश्चर्य नहीं. सथ्यु गर्म हवा में राजनीतिज्ञों के खेल का पर्दाफाश करना चाहते थे और फिल्म की पटकथा एवं संवादों ने उनके मकसद को कामयाबी दिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है.
पचास के बाद इप्टा टूट और बिखराव के कगार से गुजर रही थी. प्रगतिशील आन्दोलन के सक्रिय कार्यकर्ता शकील सिद्दीकी कहते हैं कि उस दौरान इप्टा निष्क्रिय अवश्य हो गई परंतु बहुत सारे रंग कर्मियों के समान बलराज साहनी व कैफ़ी की सोच व सम्वेदना में सक्रिय रही. और आज पूरे देश से इप्टा अगर गायब नहीं हो पायी तो इसका श्रेय सबसे ज्यादा वे कैफ़ी को देते हैं. वे बम्बई इप्टा के अध्यक्ष बनाए गए थे और उन्होंने उसे नई जिन्दगी दी थी. वे उसके लिए टिकट तक बेचते थे. उन्होंने यूथ एवं बाल इप्टा की स्थापना करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
राष्ट्रीय स्तर पर इस आन्दोलन को सक्रिय रखने की कैफ़ी की चिंता को याद करते हुए सिद्दीकी कहते हैं कि उनकी चिंता सिद्दीकी को विचलित कर देती है क्योंकि वे उस दौरान उनसे मिले जब वे प्रगतिशील लेखक संघ की लखनऊ इकाई के सचिव थे और कैफ़ी पक्षाघात से पीडित लखनऊ मेडिकल कॉलेज में भर्ती थे. मिलने पर कैफ़ी कहते 'इप्टा के लिए भी कुछ कीजिए हर मुलाकात में वे किसी न किसी बहाने से इप्टा का जिक्र ले आते और जोर देते कि लखनऊ में इप्टा का आन्दोलन फिर से खड़ा हो. वे कहा करते, 'इप्टा न सही ड्रामें तो आप लोग कर सकते हैं’, अवामी जज्बात की तर्जुमानी करने वाले ड्रामें स्टेज कीजिए, इप्टा अपने आप बन जाएगी. और इन बातों में उनकी सहधमणी शौकत पूरी तरह सहमत होती थीं.
कैफ़ी का मन लोक से पूरी तरह से जुड़ा था. वे जनाकांक्षाओं को बहुत अच्छी तरह समझते थे और उनकी भलाई के लिए अपने तई सक्रिय रहते थे. उन्होंने गोरखपुर तथा आजमगढ़ में इप्टा की इकाइयाँ गठित करवाई. इस लेखक को आजमगढ़ की इप्टा इकाई की सक्रिय भागीदारी देखने का अवसर मिला जब वह लघु पत्रिका सम्मेलन में भाग लेने आजमगढ़ गई थी. कैफ़ी अस्वस्थ होते हुए भी इप्टा के कार्यक्रमों में शिरकत करने ग्रामीण अंचलों में जाते थे जिससे कलाकारों में नया जोश उमड आता था.
उनकी इन्हीं बातों से उत्साहित हो कर युवा रचनाकारों ने इसका जिम्मा लिया और राकेश ने जो बाद में इप्टा के सचिव बने अनिल बर्बे की कहानी 'थैंक्यू मिस्टर ग्लाड का नाट्य रूपांतरण कर डाला. जब कैफ़ी साहब ने उसे सुना तो खुश होकर तुरंत उसके मंचन के लिए तैयार हो गए. नक्सलवाद से कैफ़ी भावनात्मक स्तर पर जुड़े थे. और यह कहानी मृत्युदंड पाए एक नक्सलाइट और जेल अधीक्षक के मानसिक तनाव व संवेदना की दुविधा को खोलती है सो उन्हें अच्छी लगनी ही थी. नक्सल आन्दोलन के प्रति उनके भाव को इससे समझा जा सकता है कि अपनी बीमारी के दौरान उन्होंने चारू मजुमदार पर एक नज्म कही थी.
वे सदैव जनपक्षधरता की बात करते थे, सांप्रदायिकता का आधार संकीर्ण विचार ओछी मनोवृत्ति, द्वेष, घृणा, हिंसा आदि होते हैं. धामक कठमुल्लापन और सांप्रदायिकता के खिलाफ वे पक्के इरादे से बोलते थे. उनका अधिकाँश काव्य इसका उदाहरण है. इप्टा के द्वारा भी वे यह करना चाहते थे. इसी के तहत उन्होंने लखनऊ से अयोध्या तक की सांस्कृतिक यात्रा 89 की थी. वे इसके अगुआ थे. उनका नारा था कि यदि इसको (सांप्रदायिकता को) खतम करना है तो इप्टा को जिन्दा रखना होगा. 85 सितम्बर में आगरा कंवेंशन में वे इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए गए थे. वे इप्टा के सम्मेलनों में सर्वाधिक भाग लेने वालों में से एक थे. उन्होंने उसे यूनेस्को के इंटरनेशनल थियेटर इंस्टिटयूट से जोड़ने के लिए बहुत मेहनत की इसके लिए पैसों का इंतजाम किया. 25 मई, 1993 को इप्टा की स्वर्ण जयंति पर एक विशेष डाक टिकट जारी किया गया पर उसे जारी करने के पीछे कैफ़ी की काफी मेहनत और लगन थी. इप्टा भारतीय जननाट्य संघ का पहला राष्ट्रीय महाधिवेशन 25 मई 1943 को बम्बई में हुआ था जो साल भर चला था. जगह-जगह पर सम्मेलन हुए थे.
फासिज्म के उदय और ब्रिटिश उपनिवेशवाद के शोषण के विरुद्ध भारतीय जनता की संघर्ष चेतना की अभिव्यक्ति था इप्टा. बंगाल का अकाल इसका तात्कालिक कारण बना. नाटक, नृत्य, संगीत और फिल्म से जुड़े कलाकारों ने इसकी नींव डाली. इसमें वैज्ञानिको, राजनीतिज्ञो, सामाजिक कार्यकर्ताओं, चित्रकारों सभी ने अपनी भूमिका निभाई. यू. पी. इप्टा के अध्यक्ष जितेंद्र रघुवंशी के अनुसार कैफ़ी साहब को इप्टा पर बड़ा नाज था. इसके पहले सम्मेलन में प्रोफेसर हीरेन मुखर्जी ने कहा था ''मैं चाहता हूँ कि आप सब जो कुछ भी हमारे भीतर सबसे अच्छा है, उसे अपनी जनता के लिए अपत कर दें, जो इतने लम्बे अरसे तक दबा कर रखी गई थी. पर जो अपने असली रूप में शानदार ढंग से वापस आ रही है. लेखक और कलाकार-आओ, आओ. अभिनेता और नाटककार, तुम सारे लोग, जो दिमाग या हाथ से काम करते हो, आओ और अपने आप को स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय का एक नया वीरतापूर्ण समाज बनाने के लिए समर्पित कर दो. और लोग जुट गए. आज इस प्रकार के आन्दोलनों की पहले से ज्यादा आवश्यकता है.
इप्टा की स्वर्ण जयंति पर पटना में उन्होंने कहा, ''इप्टा एक ग्रुप नहीं, एक आन्दोलन है. इप्टा ने दूसरे कलाकारों के लिए भी बाँहें फैलाई हैं. हमारा मकसद जनता को सौंदर्यात्मक रूप से बेहतर कला देना है. हम सास्कृतिक सवालों पर बातचीत जारी रखेंगे. उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में जोर दे कर कहा कि मुझे मार्क्सवाद पर पहले से ज्यादा यकीन है. कैफ़ी को इप्टा पर बड़ा भरोसा था. उनका मानना था कि आज जब फिरकापरस्ती का फरौग हमारी आजादी जमहूरियत और सेक्यूलरिज्म के लिए जबरदस्त खतरा बन गया है, हम उसका मुकाबला करने की जिम्मेदारी सिर्फ राजनीति पर नहीं छोड़ सकते जो हर कदम यह सोच कर उठाती है कि इसमें उसके वोट बढेंगे या टूटेंगे. वे मानते थे कि आज मुल्क जितने खतरों में घिरा हुआ है उनका मुकाबला करने और उन्हें शिकस्त देने के लिए इप्टा को और ज्यादा मजबूत और ज्यादा सरगर्म करना जरूरी है.
कौम को लड़ते-झगड़ते देख कर कैफ़ी का दिल जार-जार रोता है वे चराग जलाते हैं तो उसकी रौशनी में उन्हें इस लड़ाई झगड़े से माँ के ऑंचल के पैबन्द खुलते दिखाई देते हैं
'इक दिया नाम का यकजिहती (जोड) के
रौशनी उस की जहाँ तक पहुँची
कौम को लड़ते झगड़ते देखा
माँ के ऑंचल में जितने पैबन्द
सब को इक साथ उघड़ते देखा’
वे देख रहे थे कि लोग लौट-लौट कर वहीं आ जाते हैं बार-बार उन्हीं गलत बातों को दोहराते है. वे शहरों का उजड़ना देख रहे थे जिस्म से रूह तक फैली रेत को उन्होंने महसूस किया था तभी वे कह सकें फिर वहीं लौट आता हूँ ... इन्हीं दीवारों से टकराता हूँ. मजारों का हिसाब रखना भी बन्द कर दिया गया है. शायर आगे कहता है एक आदत है जिए जाना भी. इस रचना का बड़ा सटीक नाम उन्होंने रखा है 'दायरा. सच हम उसी दायरे में बिना सोचे-समझे गोल-गोल घूँमें चले जा रहे हैं उससे बाहर निकलने की बात नहीं सोचते हैं. उससे बाहर निकलने की ख्वाइश कितनों में होती है.
शायर को सब पराए लगने लगे हैं वो कारवाँ को जल्द-से-जल्द यहाँ से गुजर जाने की सलाह देता है.
'सब अजनबी हैं यहाँ कौन किस को पहचाने
यहाँ से जल्द गुजर आओ काफिले वाले’
वो मसीहा बनने का दावा करने वालों को भी नहीं छोड़ता है कहता है 'मसीहा बैठे हैं छुपके कहाँ खुदा जाने.’
जोड़ देंगे तेरे बाजू में यह बाँहें अपनी. लोगों में एका होने के बाद शोषकों की क्या मजाल कि वे किसी का शोषण कर सके.
शबाना अपने पिता को विद्रोह का कवि मानती है. जब भी जहाँ भी शोषण, अत्याचार, दमन देखता है कवि अपनी आवाज उठाता है. साम्प्रदायिकता का नमूना है बाग्ला देश. धर्म के नाम पर देश का बँटवारा कितना बेबुनियाद है यह जल्द ही साबित हो गया जब अमेरिका के पिच्छलग्गू पश्चिमी पाकिस्तान ने अपने ही मुल्क पर मुफ्त में पाए टेंकों से हमला किया. किसी देश की आत्मा को टैंकों से नहीं कुचला जा सकता है. क्योंकि कोई मुल्क केवल नक्शे पर खीची लकीरें नहीं होता है वह तो दीवानों का अरमान होता है तभी वे कहते है मैं इक अर्मान हूँ दीवानों का मैं इक ख्वाब हूँ कुचले हुए इंसानों का ...
वे देश के कातिलों और देश के दीवानों में बड़ा खूबसूरत फर्क दिखाते हैं 'फर्क इतना है के कातिल मिरे मर जाते हैं... मैं न मरता हूँ न मर सकता हूँ.
आगे वे कहते हैं कि कितने दीवानों को तुम मारोगे, कितनों को जंजीर पहनाओगे देखो थक जाओगे. उन्हें अपने कातिलों के थक जाने की भी चिंता है. यह कुछ कुछ वैसा ही हो गया कि जब एक युवक अपनी प्रेमिका के कहे पर अपनी माँ का दिल निकाल कर ले जा रहा था तो उसे ठोकर लगी और वह गिर पड़ा तो उसकी माँ का दिल जो उसके हाथ से छिटक कर दूर गिर पड़ा था उससे आवाज आई बेटे तुझे चोट तो नहीं लगी. ऐसा ही नरम दिल था कैफ़ी का.
कैफ़ी बड़े आशावादी और जीवट वाले थे वरना 9 फरवरी 1973 को दौरा पड़ने और लकवा मारने के बाद इतने बरसों तक अपनी अपंगता को अपने काम के बीच न आने देना साधारण व्यक्ति के बस का काम नहीं है. उन दिनों वे दिन रात लग कर लगातार आठ दिन काम कर रहे थे एक स्क्रिप्ट में जुटे हुए थे. काम के जुनून में नींद रोकने के लिए गोलियाँ ले रहे थे और लगातार पी रहे थे उनका रक्तचाप भी बढ़ा हुआ था. आठ दिन के बाद जब वे कोमा से बाहर आए तभी उन्हें पक्षाघात हुआ. इसी समय उन्होंने 'धमाका’ की इमला लिखवाई. जिसमें उन्होंने दिमाग के अन्दर होने वाले धमाके को शब्द दिए हैं और इसको चारू मजूमदार की याद में समपत किया है. पर वे बहुत जिद्दी थे ह्वील चेयर में न बैठने की कसम खायी और लगातार वर्जिश करके बीमारी को पीछे ढकेलते रहे.
जब कैफ़ी अस्पताल में बिस्तर पर पड़े हुए थे उन्होंने 'जिन्दगी लिखी जिसमें बिस्तर पर पड़े एक व्यक्ति के भावों की अभिव्यक्ति है जो मौत के करीब है. वह अपने बेटे को अपने करीब चाहता है. यहीं से वह चिंतन शुरु करता है, जिन्दगी के बारे में विचार करने लगता है वह सोचता है भले ही जिन्दगी बेकार हो पर सदियों से आदमी ने इसी जिन्दगी के लिए जद्दोजहद की है. वह आसानी से मरने को तैयार नहीं. वह वैदिक काल, बौद्ध काल, ईसा और इस्लाम के समय को याद करता है. वह अपने फालिज की बात याद करता है पर अंत में वह अमरत्व की बात सोचता है क्योंकि रात जिस मौत का पैगाम लेकर आई थी उसे उसके बीबी बच्चों ने खिड़की के बाहर फेंक दिया है. सुबह होने पर उसे रात की लाश समुन्दर में मिलती है. एक रचना में कई सदियाँ, कई दर्शन, कई विचार एक साथ सिमट आए हैं.
और हो क्यों नहीं जिसकी चार-चार बहनें उसके बचपन में गुजर गई हों जिसने बचपन की कच्ची उम्र में अपने चारों ओर बीमारियाँ और दुखों की भीड देखी हो जो बचपन से ही गमजदा हो और बाद में जब उसका संसार फैले वह पूरी मानवता को अपना मानने-जानने लगे और देखे कि मानवता खून के ऑंसू रो रही है, शोषित हो रही है, दमित हो रही है तो वह कैसे दुखी न हो. पर वह आम जन की शक्ति में विश्वास करता है उसे जनता पर पूरा भरोसा है तभी वह बांग्लादेश के सन्दर्भ में विश्वास के साथ कह पाता है 'कौन से हाथ में पहनाओगे जंजीरें, बताओ,
'के मिरे हाथ तो सात करोड
कौन सा सर मिरी गर्दन से जुदा कर दोगे
मेरी गर्दन पे हैं सर सात करोड.’
कैफ़ी को राष्ट्रपति और मंत्री रबर के खिलौने लगते हैं कितनी सटीक है यह उपमा आज के सन्दर्भ में कितनी खरी है जब हमारे स्वतंत्र एवं लोकतांत्रिक देश के नेता अमेरिका के इशारों पर नाच रहे हैं देश को विकास के नाम पर उनके हाथ में बेच देने को उद्धत हैं 'सदर मिट्टी का और रबर के वजीर.
उन्हें सब कुछ इंतिशार (बिखरा हुआ) लग रहा है. प्रगतिशील आन्दोलन में जब सुस्ती आ गई थी वे बहुत बेचैन थे वे लोगों को आगे बढ़कर जिम्मेदारी उठाने के लिए उकसा रहे थे. उन्होंने लिखा
'कोई तो सूद चुकाये, कोई तो जिम्मा ले
उस इंकलाब का जो आज तक उधार सा है.’
शायर हताश होने के बाद भी निराश नहीं है उसकी उम्मीद कायम है
'हाँ मगर एक दिया नम है जिसका उम्मीद
झिलमिलाता ही चला जाता है.
संवेदनशील व्यक्ति खून-खराबे के खिलाफ होता है. जहाँ भी हिंसा होती है वह उसके विरुद्ध खड़ा होता है, अपनी आवाज उठाता है. लोगों को सावधान करता है, कातिलों को ललकारता है, वह उन्हें बताता है कि जो वे कर रहें हैं उसके परिणाम से वे खुद भी नहीं बच पाएँगे. कैफ़ी केवल भारत की बदहाली, बांग्लादेश के कत्ले आम से ही परेशान नहीं थे उन्हें बेरूत की गलियों में बहते खून से भी तकलीफ होती है,-
'कौन वोह लोग हैं दुश्मन आजो दी के
नाम बतलायेंगी बैरूत की जख्मी गलियाँ ... एक इक बूँद को जिस वादी में तरसे थे हुसैन
तेल के चश्मे हैं नासूर उसी वादी के’
नासूर तो नासूर होता है कभी भरता और सूखता नहीं है. आज भी इस नासूर को रिसता हुआ हम देख सकते हैं. यह नासूर अब केवल बेरूत की गलियों में सिमटा नहीं है इसने फैल कर सारी दुनिया को अपने आगोश में ले लिया है. अगर हम अब भी न चेते तो दुनिया के नेस्तानाबूद होने में देर न लगेगी.
धर्म कभी न कभी मनुष्य को रास्ता दिखाने आता है पर स्वार्थी लोग उसे अपने फायदे के लिए औरों को भटकाने का काम करते हैं. वे वोट की राजनीति करते हैं और इसी लिए समय समय पर धर्म खतरे में है का नारा उछलते हैं ताकि उनकी रोटी सांप्रदायिकता की आग पर सिंकती रहे. जब तक लोग आपस में कटते मरते रहेंगे इनकी दाल आराम से गलती रहेगी. राही मासूम रजा इन धामक कठमुल्लों के हाथ से धर्म छीन लेना चाहते थे उनका कहना था यदि ऐसा कर लिया जाए तो इन फुकनों की हवा निकल जायेगी. कैफ़ी आजमी भी यही विचार रखते हैं. वे 'इब्लीस (शैतान) मज्लिस बर्खास्त करने का एलान करते हैं.
धर्म उदारता सिखाता है, इंसानियत की सीख देता है. सांप्रदायिकता बड़ी खतरनाक बात है. यह संकीर्ण मानसिकता को बढ़ावा देती है. यह समाज को, उन्नत-से-उन्नत समाज को, हैवानियत के गर्त में ढकेल देती है, बर्बरता और सांप्रदायिकता जुड़वाँ बहने हैं. पूरी संस्कृति को मटियामेट करके भी जिनकी प्यास नहीं मिटती है. उदाहरण हमारे सामने हैं.
कैफ़ी आजमी प्रगतिशील कवियों में जरा हट कर हैं. एक ओर वे धर्म की घेरेबन्दी की खाक उड़ाते हैं, कठमुल्लों से सावधान करते हैं, उन्हें साँप की संज्ञा से नवाजते हैं, दूसरी ओर उन्होंने बहुत सारे मासूम, नाजुक गीत लिखे. देखने में खूबसूरत कैफ़ी जब मुशायरों में जाते हो जाहिर है सुनने वाले उन पर सदके जाते थे. उन्होंने शायरी घुट्टी में पायी थी. उनके अब्बा शायरी के पारखी थे और घर में किताबों का खासा संग्रह था. उनके तीनों बड़े भाई बायकायदा शायर थे. इस बात को लेकर उन्हें अपने भाई से रश्क होता था और तो और उन्होंने जब ग्यारह बरस की उम्र में पहली बार गजल कही तो बुजुर्गों ने माना नहीं कि उन्होंने अपने भाई की चुराई हुई गजल नहीं कही है. यहाँ तक कि भाई के कहने पर भी नहीं. पर वे बाकायदा इम्तहान देकर शायर का खिताब पाया. 'कैफ़ी नाम उनके पिता ने उन्हें तखल्लुस के रूप में दिया था जब उन्हें विश्वास हो गया कि उनका यह बेटा भी गजल और नज्म लिख/कह सकता है. इतना ही नहीं उनकी यह पहली गजल बेगम अख्तर की आवाज के जादू में बँध कर आज भी हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के गजल पसन्दीदों की खास पसन्द है. और जिसे सुन कर आज भी लोग कहते हैं 'जी खुश तो हो गया मगर ऑंसू निकल पड़े. जी हाँ यही उस गजल की आखिरी पंक्ति है.
बाद में उस जमाने के रिवाज के अनुसार वे हजरत आरजू लखनवी से इस्लाह लेने गए. मगर उस्ताद ने कैफ़ी की वही गजल सुन कर उनकी उम्र पूछी और मुस्कुरा कर कहा 'अगर तुम्हारे कलाम में जबान की कमी हो तो मैं उसे जरूर ठीक कर सकता हूँ लेकिन ऐसा करने से तुम्हारे फिक्र की गर्मी भी चली जाएगी. ग्यारह बरस के सीने में जो गर्मी होती है वह 65 वर्ष के सीने में नहीं हो सकती. और शायर के रूप में नाम कमाने के लिए आशीर्वाद देकर भेज दिया. उस्ताद की उम्र उस समय 65 बरस थी. भाग्य से ऐसे उस्ताद मिलते हैं.
शायरी की तरह उन्हें विद्रोह भी खानदानी विरासत में मिला था वे खुद लिखते हैं 'दादा मर्हूम ने कम्पनी के खिलाफ नफरत का जो बीज नील के खेतों में बोया था, वह एक दिन मेरे सीने में फूटा और फूला फला. उन्होंने 9-10 बरस की उम्र में ही लड़कों को इकट्ठा करके गोरे कलेक्टर पर धावा बोलने का प्लान बना लिया था. जब वे लखनऊ आये तब राजनीति में लगे और प्रभात फेरियों के लिए नज्में लिखने लगे. और शियों के सबसे बड़े शिक्षा गृह 'सुल्तानुल मदारिस में उन्होंने अंजुमन बना कर बाकायदा हड़ताल की. इसी दौरान उनसे गजल गोई छूट गई और वे विरोध की शाइरी करने लगे. इसी समय वे आजम हुसैन साहब के 'सरफराज में छपने लगे.
उनकी दीनी तालीम का किस्सा बड़ा मजेदार है. पिता सय्यद फत्ह हुसैन रिजवी ने अपने इस सबसे छोटे बेटे को फातिह: पढ़ना सीखने के लिए 14 साल की उम्र में एक दीनी शिक्षा गृह में भर्ती किया था ताकि कम-से-कम एक बेटा तो उनका फातिह: पढ़ सके बाकी के बेटे इंग्लिश शिक्षा पा रहे थे. पर होना कुछ और ही था. प्रगतिशील लेखिका आयशा सिद्दीकी कहती हैं 'कैफ़ी साहब को उनके बुजुर्गों ने एक दीनी शिक्षा गृह में इसलिए दाखिल किया था वहाँ यह फातिह: पढ़ना सीख जायेंगे. कैफ़ी साहब इस शिक्षा गृह में मजहब पर फातिह: पढ़ कर निकल आये.
राही ने लिखा, 'जाहिदेतंग ने मुझे काफिर जाना और काफिर ही समझता है मुसलमान हूँ. कैफ़ी के साथ भी ऐसा ही हादसा हुआ. जब उनका 1973 में 'आवारा सिज्दे प्रकाशित हुआ तो शाही इमाम तक को सहन नहीं हुआ. किताब जब्त करने और कैफ़ी को जेल में डालने के नारे लगने लगे. कानपुर में उसकी बड़ी खिलाफत हुई. पर इसी पर उन्हें ढेरों पुरस्कार मिले. और इसे वे अपनी सबसे ज्यादा इज्जत बख्शने वाली रचना मानते हैं उनका कहना है कि अगर किसी संग्रह में इसके अलावा अन्य नज्मों और गजलों को शामिल कर लें तो पेज बढ़ जाएँगे पर मान मर्यादा में कोई बढोतरी न होगी.
पाकिस्तान बनने पर उनके परिवार के अधिकाँश लोग पाकिस्तान चले गए. कैफ़ी अगर चाहते तो आसानी से पाकिस्तान जा सकते थे पर उन्होंने ऐसा नहीं किया. पर जिस वतन में वे रह गए उसकी बदहाली देख कर वे बहुत दुखी रहते थे. देश की दुर्दशा से वे सदा चिंतित रहते थे. वे स्वप्न दर्शी थे उन्होंने अपने वतन की खुशहाली के ख्वाब देखे थे. उनके स्वप्नों का वतन इंकलाब का वतन था वो उस वतन के हाथ चूमना चाहते हैं जिसने कई बंधनों को तोड़ा है जो आजादी के लिए कुर्बान होने को तैयार है उनके ख्वाबों के वतन में फूल ही फूल हैं उसका दामन कभी खाली नहीं है. अपनी 'वतन के लिए नामक रचना में वे अपने इन्हीं मनोभावों को शब्द देते हैं 'मेरे ख्वाबों के वतन चूम लेने दे मुझे हाथ अपने जिन से तोड़ी है कई जंजीरें ... तूने लिखीं हैं नई तकदीरें इंकलाब के वतन.
इस्लामिक संस्कारों के बावजूद वे मानते हैं कि इस वतन में 'पहले कब आया हूँ कुछ याद नहीं
लेकिन आया था कसम खाता हूँ
फूल तो फूल है काँटों पे तेरे
अपने होठों के निशाँ पाता हूँ.
इसी वतन के लिए नजराने के रूप में वह अपनी आवारा नजर लाया है उसके रंग में मिलाने के लिए वह अपना 'कतराएखून ए जिगर लाया है.
'हाकिम ए शहर यह भी कोई शहर है
मस्जिदें बन्द हैं, मैकदा तो चले
इस को मजहब कहो या सियासत कहो
खुदकुशी का हुनर तुम सिखा तो चले
इतनी लाशें मैं कैसे उठा पाऊँगा
आप ईटों की हुर्मत बचा तो चले
बेल्चे लाओ खोलो जमीं की तहें
मैं कहाँ दफ्न हूँ कुछ पता तो चले.’
बाद में उनके सब भाई बहन पाकिस्तान चले गए शायद इसी कारण वे बहुत चुप रहते थे. इन्हीं गमों को छुपाते हुए उन्होंने लिखा होगा 'क्या गम है जिसे छुपा रहे हो. वो अंतरमुखी प्रवृति के व्यक्ति थे खाना तक माँग कर नहीं खाते थे. उनकी पत्नि और बेटी की जिम्मेदारी थी यह देखना कि उनकी थाली में खाना है या नहीं. सीधे इतने कि अपने बच्चों के नाम रखने के काबिल भी अपने आप को नहीं मानते थे. बेटी के पैदा होने पर एक दुआ लिख दी,
'अब और क्या तेरा बीमार बाप देगा तुझे
बस एक दुआ की खुदा तुझको कामयाब करे
वो ताँक दे तेरे ऑंचल में चाँद और तारे
तू अपने वास्ते जिसको भी इंतकाब करे.’
दुआ कबूल हो गई पर बेटी का नाम रखना टालते गए, ग्यारह बरस तक बेटी को केवल मुन्नी पुकारा गया. सरदार जाफरी जो एक तरह से उनके मेंटर भी थे ने मुन्नी को शबाना नाम दिया जो एक नामी एक्टर और एक्टिविस्ट है. आया उनके बेटे को बाबा कहती थी इसीलिए उनके दोस्त मसूद सिद्दीकी द्वारा अहमर आजमी बना दिए जाने के बाद भी वह बाबा आजमी के नाम से ही जाना जाता है. और किताब का नाम साथी हसन कमाल ने 'सरमाया सुझाया तो वही रख लिया.
शुरु-शुरु में कैफ़ी सुर यानि तरन्नुम में अपनी रचना सुनाते थे और अक्सर अपेक्षित वाहवाही नहीं मिलती थी और वे बड़े दुखी रहते थे. शबाना के अनुसार उनके अब्बा के पास सुर का कोई हुनर नहीं है. तो एक बार वे मुशायरे में तरन्नुम में गा रहे थे, मुशायरे में भारत कोकिला सरोजिनी नायडू बैठी थीं. कैफ़ी उनसे तारीफ की उम्मीद कर रहे थे पर तारीफ न मिलनी थी ना मिली. मिलती कैसे? वे बड़े नाउम्मीद हुए. मुशायरे के बाद सरोजिनी नायडू ने उन्हें अपने पास बुला कर समझाया, 'जवान तुमने जो सुनाया वह बड़ा अच्छा था. लेकिन तुम तरन्नुम में सुनाओगे तो कोई ध्यान नहीं देगा. तुम्हारी आवाज भी बड़ी अच्छी है क्यों नहीं तुम तह्तुल्लफ्ज (गद्य की भाँति सीधे पढ़) में सुनाते हो. और बात कैफ़ी को समझ में आ गई. वे गाने की जगह पढ़ने लगे और वाहवाही लूटने लगे.
उनका सुदर्शन व्यक्तित्व उनकी रोमांटिक कविता के साथ बड़ी खूबसूरती से मैच करता था बल्कि वह उनकी रचना में इजाफा करता था. इस बात का उन्हें नाज था. जहाँ भी मुशायरे में वे जाते औरतों की भीड़ उनके इर्द गिर्द जुट जाती. इसी का एक मजेदार वाकया है शौकत जब उनसे पहली बार मिलीं सरदार जाफरी भी वहाँ शिरकत कर रहे थे. शौकत उन्हें जानती थीं जाहिर है उन्होंने पहले सरदार से ऑटोग्राफ माँगा. कैफ़ी को यह नागवार गुजरा. जब शौकत उनके पास पहुँची तो जमाने के रिवाज के अनुसार कैफ़ी ने उनकी खूबसूरती पर शेर लिख तो दिया पर बड़ा खराब शेर लिखा और जब शौकत ने कैफ़ीयत माँगी तो बड़ी मासूमियत से बता दिया कि वे पहले सरदार जाफरी के पास क्यों गई थीं. उन्हें यह अच्छा नहीं लगा इसीलिए ऐसा लिखा. भला कौन न कुर्बान हो जाए ऐसी अदा पर, शौकत फिदा हो गई इस अदा पर. शायद जमींदारी के खून का कोई कतरा रह गया था. यही तनिक सी तिनक साहिर लुधियानवी और राही मासूम रजा में भी बाकी थी. ये तिनक इन लोगों को विशिष्ट भी बनाती थी.
जब कैफ़ी ने शौकत से प्रेम और शादी की तब भी धर्म के ठेकेदारों की भौंहें चढ़ गई थीं. पर इंकलाब के दीवाने इन बातों की परवाह नहीं करते हैं, (अपनी) 'मेरी आवाज सुनो के लिए ऐसी 'झंकार पैदा करते रहते हैं. 'आवारा सजदे करते रहते हैं.
शबाना को बचपन में अपने अब्बा विशिष्ट तो नहीं पर कुछ अलग कुछ हट कर लगते थे क्योंकि बाकी सब बच्चों के पिता सामान्य पिता थे पर उसके पिता कवि थे और अन्य पिताओं की भाँति रोज-रोज निश्चित समय पर काम करने नहीं जाते थे. इतना ही नहीं जहाँ और पिता पैंट-शर्ट पहनते थे उसके पिता कुर्ता-पायजामा पहनते थे. और उसके पिता का अखबार में बराबर जिक्र होता था. तो शबाना को उस उम्र में लगता था, 'बहुत बात है इन में. जो वो उन्हें अलग सोचती थी अनोखा नहीं. दूसरी बात जो शबाना याद करती हैं वह है उनका चुप-चुप रहना, खासकर जब वे माँ-बेटी खूब बोलने वालीं हों.
सांप्रदायिकता के खिलाफ उनके विद्रोह का बड़ा संवेदनशील चित्रण फिल्म 'नसीम में हुआ है. जिसमें उन्होंने नसीम के बाबा की भूमिका बड़ी सहजता और कुशलता से निभाई है. यह फिल्म 6 दिसम्बर की पृष्ठभूमि पर बनी है. इस प्रतीकात्मक फिल्म में दिखाया गया है कि जब बाबरी मस्जिद टूट रही है उसी समय नसीम के बाबा की मय्यत उठ रही है चुपचाप. एक प्राचीन संस्कृति की समाप्ति का इससे सटीक फिल्मांकन शायद ही हो सके. एक प्राचीन संस्कृति जिसके संवाहक वे स्वयं थे.
1964 में कम्युनिस्ट पार्टी के बँटवारे से कई लोगों के, कई उन लोगों के सपने टूट गए जिन्होंने पार्टी को अपना सर्वस्व दे रखा था. इससे भारत के प्रगतिशील और जनतांत्रिक मूल्यों में विघटन की, दरार की स्थिति पैदा हो गई. कैफ़ी भी इससे बहुत निराश थे.
कैफ़ी बड़े तुनक मिजाज और एकांतप्रिय व्यक्ति थे साथ ही बड़े सम्वेदनशील भी. जमींदार परिवार में जन्म लेने के बाद भी वे मानते थे कि वे जमींदार नहीं एक किसान हैं. उनके अन्दर अपनी जमीन अपने गाँव के प्रति बड़े कशिश थी वे अपने गाँव लौटना चाहते थे. लौटना राही मासूम रजा भी चाहते थे पर बम्बई जाने के बाद वे अपने गाँव कभी न लौट सके. कैफ़ी भाग्यशाली थे. वे अपने घर गए. उन्होंने अपनी जमीन, अपने गाँव, अपने गाँव के लोगों के लिए बहुत कुछ किया. अंत तक उनका अवचेतन भारतीय ग्रामीण वातावरण से बाहर न निकल सका. कैफ़ी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के एक पिछड़े गाँव मजवां में 1919 (?) में जन्मे थे, जहाँ पिछली सदी के आठवें दशक तक पोस्टऑफिस और पक्की सड़क तक नहीं थी. जब उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हें सम्मानित किया और उनके नाम पर एक हाई वे का नाम रखा तो उन्होंने भी वहाँ स्कूल और अस्पताल खोले.
कैफ़ी को अपनी ही जमीन के लिए कोर्ट कचहरी करनी पड़ी. अंत में उन्हें बड़ी त्रासदी से गुजरना पड़ा. उन्हें शारीरिक पक्षाघात तो 1973 से था ही, बाबरी मस्जिद के आघात ने उन्हें और तोड़ दिया. और गुजरात की घटना के बाद 10 मई 2002 को साँस और दिल में हुए इंफैक्शन से बम्बई के एक अस्पताल में गुजर गए. कितना त्रासद है एक स्वप्न द्रष्टा का अपने जनम और जवानी के दिनों से बदतर हालात में समाज को लाचारी के साथ देखना. जी तोड़ कोशिशों के बाबजूद देश का साप्रदायिकता की गिरफ्त में जकड़ते जाना, देश में विद्वेष, हिंसा, अन्याय का बोलबाला होना, और एक शायर जिसकी दिली ख्वाईश थी एक समाजवादी देश में अंतिम सांस लेने की, उसका गोदरा कांड और गुजरात को रिसते देखते हुए दम तोड़ना. इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है. पर इस बात का संतोष होना चाहिए कि कैफ़ी ताउम्र अन्याय के खिलाफ आवाज उठाते रहे, सारी जिन्दगी संघर्षशील रहे और जो व्यक्ति अपना कर्तव्य ईमानदारी तथा लगन से करता है, उसकी मृत्यु दु:ख का बायस नहीं होनी चाहिए. हमें ऐसे लोगों पर गर्व होना चाहिए और शायर तथा प्रगतिशील एक्टिविस्ट कैफ़ी आजमी पर हमें गर्व है और सदा रहेगा. तभी उनकी मृत्यु पर श्रद्धांजलि देते हुए खय्याम ने उन्हें 'आज के मिर्जा गालिब’ कहा था.
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रचनाकार सम्पर्क:
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ई-मेल: vijshain@yahoo.com
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Great article. Thanks for sharing.
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा आलेख है, विजय जी. बधाई.
जवाब देंहटाएंअगर आप इसी तरह उर्दू लेखकों-शायरों पर एक पूरी शृंखला ही लिख दें तो कैसा रहे? मुझे तो इंतज़ार रहेगा. एक बार फिर से बधाई.