यात्रा वृत्तांत आंखन देखी (अमरीका मेरी निगाहों से) ( अनुक्रम यहाँ देखें ) - डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल 21 - यात्रा के बाद अपनी दो अम...
यात्रा वृत्तांत
आंखन देखी (अमरीका मेरी निगाहों से)
(अनुक्रम यहाँ देखें)
- डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
21 - यात्रा के बाद
अपनी दो अमरीका यात्राओं में जो कुछ मैंने देखा, उसमें से ज़्यादातर मुझे अच्छा लगा, और ऐसा ही मैंने अपने इन सारे लेखों में, जिन्हे अब तक आप पढ़ चुके होंगे, लिखा भी. कई मित्रों ने इन लेखों पर अपनी असहमति और नाराज़गी ज़ाहिर की है. उनके मन में पश्चिम की, और विशेषकर अमरीका की एक छवि बनी हुई है. उस छवि से भिन्न कुछ भी उन्हें स्वीकार्य नहीं. अगर उन्होंने यह मान लिया है कि अमरीका में अति-भौतिकता, नग्नता, अश्लीलता आदि-आदि है, तो बस, फिर है. आप उससे मना कैसे कर सकते हैं? इससे उन्हें कोई फर्क़ नहीं पड़ता कि उनकी छवि सुनी-सुनाई बातों से निर्मित है और आप आंखन देखी कह रहे हैं. एक अन्य छवि अधिक पुख्ता आधार वाली है. जो मित्र वैचारिक रूप से पूंजीवादी संस्कृति के विरोधी हैं वे सैद्धांतिक आधार पर अमरीका के आलोचक हैं. मैं स्वयं भी उसी पक्ष का हूं, और वैचारिक रूप से अब भी अपने को वहीं खड़ा पाता हूं. इस बात का उल्लेख मैंने इस पुस्तक के कई लेखों में, जहां भी उपयुक्त अवसर आया है, किया है. इस पुस्तक की योजना में बड़े, सैद्धांतिक, वैचारिक मुद्दों को उठाने का अवसर नहीं था, इसलिए स्वभावत:वह पक्ष अछूता रहा है. लेकिन औसत नागरिक जीवन, जैसा मैंने अमरीका में देखा, उसकी प्रशंसा करते हुए कतई संकोच अनुभव नहीं करता. इसे मेरा वैचारिक विचलन नहीं माना जाना चाहिए.
यहां, मैं यह चर्चा करना चाहता हूं कि आखिर क्या कारण हैं कि अमरीका का नागरिक जीवन इतना व्यवस्थित और आनन्ददायक है? खास तौर से दूर से देखने पर यह समाज कैसा लगता है, यह चर्चा, और यह चर्चा भी कि क्या वाकई यह एक सुखी समाज है, जैसा कि आम तौर पर मान लिया जाता है,कुछ आगे चलकर! वस्तुत: जब मैं भारत की चर्चा करते हुए, या उसका हवाला देते हुए अमरीका की प्रशंसा करता हूं तो ऐसा नहीं है कि मेरा भारतीय होना कुछ कम हो जाता है. वास्तव में तो मैं जब अमरीका में था और वहां कुछ भी अच्छा देखता तो मुझे अपना देश याद आता - और मैं सोचता कि काश! मेरे देश में भी ऐसा ही होता. इस बात पर मैं ज़रा भी शर्मिन्दा नहीं हूं, हालांकि मेरे उन मित्रों को यह अच्छा नहीं लगा जो बिना किसी से तुलना किए ही यह तै किए बैठे हैं कि भारत सर्वश्रेष्ठ है. मेरा मानना यह है कि इस तरह तो हम खुद ही अपनी प्रगति के रास्ते बन्द करते हैं. इसमें कोई हर्ज़ नहीं है कि अपनी आंखें खुली रखी जाए और जो भी अच्छा दीखे उसे अपनाने में संकोच न किया जाए.
इन यात्राओं ने मुझे अपने दृष्टिकोण को अधिक व्यापक बनाने का मौका दिया है. मैंने महसूस किया है कि वैचारिक आधार पर धारणा बनाना एक बात है, और उसका बहुत महत्व भी है; पर उस धारणा पर, खुद देख कर पुनर्विचार करना और भी अधिक महत्वपूर्ण है. अमरीका में घूमते हुए, वहां मित्रों से चर्चा करते हुए, और फिर भारत आकर उस सब पर पुनर्विचार करते हुए मेरे सामने कुछ बातें उभरी हैं. यहां मैं उन्हीं को प्रस्तुत कर रहा हूँ.
अब तक मैं यह मानता था कि जनाधिक्य भारत की असल समस्या नहीं है. समस्या का उत्स कहीं और है. जैसे हमारे गैर-ज़िम्मेदाराना रवैये में, अव्यवस्था में, नौकरशाही में, राजनीति में, आदि. अमरीका में जो कुछ मैंने देखा उसने मुझे यह मानने को विवश किया कि अमरीका हमसे इसलिए भी बेहतर है कि वहां हमारे जैसा जनाधिक्य नहीं है. इसके साथ ही अन्य बातें भी हैं. लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि जनसंख्या का दबाव सारी व्यवस्था नष्ट कर देता है. वहां जनसंख्या का हमारे जैसा दबाव नहीं है तो हर जगह खुलापन महसूस होता है. आप किसी भी पार्क में चले जाएं, किसी भी मॉल में जाएं, किसी भी दर्शनीय स्थल पर जाएं, लगता है आप बहुत अच्छी तरह सांस ले सक रहे हैं, आपका दम नहीं घुट रहा है. सब कुछ सुव्यवस्थित रूप से संचालित होता है. यह इसीलिए सम्भव है कि वहां जनसंख्या कम है. कहीं भी वैसी भीड़भाड़ नहीं दिखती जैसी देखने के हम अभ्यस्त हो चले हैं. अमरीका का क्षेत्रफल हमसे अधिक है, जनसंख्या हमसे कम. अमरीका का क्षेत्रफल 9,363,364 वर्ग किलोमीटर है, भारत का क्षेत्रफल 3,166,414 वर्ग किलोमीटर. अब इसके सामने दोनों देशों की जनसंख्या को भी देखें. अमरीका की जनसंख्या 291,587,099 है तो उसी समय (जबके ये आंकड़े हैं) भारत की जनसंख्या है 1,065,462,000. बात और अधिक साफ हो जाएगी अगर आप दोनों देशों के जनसंख्या घनत्व को देखें. अमरीका में जनसंख्या घनत्व प्रति वर्ग किलोमीटर 31.1 है तो भारत में 336.5 प्रति वर्ग किलोमीटर. यह स्थिति और खराब होनी ही है, अगर कोई प्रभावशाली कदम न उठाए गए क्योंकि अमरीका में जनसंख्या वृद्धि दर 14.5 प्रति हज़ार है जबकि भारत में यह दर 26.2 प्रति हज़ार है. दोनों देशों की मृत्यु दर में बहुत कम फासला है. अमरीका में यह प्रति ह्ज़ार 8.5 है तो भारत में 9.[1] फर्क़ तो पड़ना ही है. लेकिन, जैसा मैंने कहा, जनसंख्या का कम होना ही एक मात्र बात नहीं है. मैं एक हद तक अब भी यह मानता हूं कि हमारे देश की समस्या व्यवस्थागत भी है. अब तक हमारे यहां सब कुछ करने का दायित्व सरकार ने अपने सर पर ले रखा था. नेहरु के समाजवादी मॉडल की देन रही यह बात. इस सोच का अपना औचित्य था, इसके फायदे भी हुए, लेकिन सरकार किस तरह काम करती है, यह कहना अनावश्यक है. परिणाम यह कि अगर हमें सौ स्कूलों की ज़रूरत है तो पचास ही खोले जाएंगे, उनका भी बंटवारा तार्किक आधार पर नहीं बन्दरबांट के आधार पर किया जाएगा. उन स्कूलों में जितने शिक्षकों की ज़रूरत होगी, उससे कम ही नियुक्त किये जाएंगे, और जितने नियुक्त किये जाएंगे उनमें से भी जो प्रभावशाली हैं वे अपना डेप्यूटेशन वगैरह करवा कर स्कूल में जाने से बच जाएंगे, वगैरह. यह बात अलग से कि जो किसी तरह स्कूल चले भी जाएंगे, वे पढ़ाएंगे या नहीं. लब्बो-लुआब यह कि हम ज़रूरत के अनुसार संसाधन उपलब्ध कराते ही नहीं. इस कारण, अगर जनसंख्या कम भी हो तो स्थिति में क्या फर्क़ पड़ने का है? अमरीका में आम तौर पर ऐसा नहीं है. ज़रूरत के आधार पर संसाधन उपलब्ध कराए जाते हैं. इससे न केवल अव्यवस्था नहीं होती है, लोगों को खीझ नहीं होती, जनाक्रोश भी नहीं भड़कता. अगर आपको बिजली पानी का बिल जमा कराने के लिए तीन-तीन घण्टे कतार में लगना पड़े, रेल्वे स्टेशन पर प्लेटफॉर्म टिकिट लेने के लिए दो घण्टे जूझना पड़े तो यह भी सोचा जाना चाहिए कि ये सब लोग राजस्व में वृद्धि भी तो कर रहे हैं - इन्हें आधारभूत सुविधा क्यों नहीं उपलब्ध कराई जा रही है? हमने तो कमी पैदा करना अपनी आदत में शुमार कर रखा है. इसी में निहित स्वार्थों का हित भी सधता है. आप टेलीफोन कनेक्शन देने के लिए पांच साल इंतज़ार कराएंगे, गैस सिलेण्डर के लिए दस साल(अभी ये अनुभव बहुत पुराने नहीं हुए हैं), रेल में आरक्षण के लिए तीन माह - और यह तब जबकि इनमें से कुछ भी मुफ्त नहीं है. और असल में तो मुफ्त कुछ भी नहीं है. जो मुफ्त दिखाई देता है वह भी अंतत: आपके हमारे टैक्स से ही तो चलता है. इतना ज़रूर कि जनता के वोट से चलने वाली सरकार बहुत अधिक टैक्स नहीं लगा सकती. लेकिन जो टैक्स वह वसूल कर रही है उसका न्यायसंगत उपयोग तो कर सकती है. बड़े और प्रभावशाली लोगों पर बिजली-पानी-टेलीफोन का करोड़ों रुपये का बकाया चलता रहता है, वे किसी न किसी बहाने इसके भुगतान से बचे रहते हैं. इसका खामियाज़ा भुगतता है वह नागरिक जो पूरी ईमानदारी से अपनी सारी देनदारियां चुकाता है. अगर इसे दुरुस्त कर लिया जाए, तो फिर हमें अधिक जनसंख्या का उतना रोना नहीं रोना पड़ेगा. लेकिन जनसंख्या पर नियंत्रण तो करना ही होगा, भले ही इसके लिए कुछ अलोकप्रिय कदम भी क्यों न उठाने पड़ें.
दूसरी बात जो मैंने अमरीका में महसूस की वह है आम नागरिक में व्यवस्था के प्रति सम्मान का भाव. बात चाहे ट्रैफिक की हो, या क्यू की, धूम्रपान निषेध की या सफाई बनाये रखने की, आम नागरिक सदैव प्रदत्त निर्देशों का अक्षरश: पालन करता मिला. यह सही है कि वहां किसी भी प्रावधान के उल्लंघन पर कड़ी सज़ा का प्रावधान है, पर ऐसा तो हमारे यहां भी है. लेकिन अंतर यह कि हमारे यहां हम जानते हैं कि सज़ा मिलना नियम नहीं अपवाद है, और जो जितना बड़ा है उतना ही वह अपने को तमाम व्यवस्थाओं से ऊपर मानता है, जबकि अमरीका में जो भी व्यवस्था है, वह सबके लिए है. इस कारण आम जीवन बहुत सुगम हो गया है. लेकिन यहीं यह बताना भी आवश्यक समझता हूं कि एक तो अमरीकी समाज में अनावश्यक निषेध नहीं हैं, जैसे कि हमारे यहां हैं. हम तो हर कहीं ‘फोटोग्राफी मना है’ की तख्ती लटका देते हैं. दूसरे, वह समाज अगर निषेध को ज़रूरी समझता है, उसे लागू करता है तो उसके लिए विकल्प भी सुलभ कराता है. अब धूम्रपान को ही लीजिए. अधिकांश जगहों पर धूम्रपान निषिद्ध रहता है. लेकिन व्यवस्था के नियंता यह भी जानते हैं कि लोग धूम्रपान करेंगे, तो वे ऐसे स्थान भी निर्दिष्ट करते हैं जहां जाकर धूम्रपान किया जा सकता है. या कि कचरा फेंकने की बात को ही लीजिए. आदमी है तो कचरा भी होगा. वे लोग जगह-जगह कचरा पात्र उपलब्ध कराते हैं. या वाज़िब दूरी पर शौचालय (और वे भी नितांत साफ-सुथरे) सुलभ कराते हैं. फिर भला गन्दगी क्यों हो? हम ऐसा नहीं करते. हम लिख तो देंगे कि ‘गन्दगी करना मना है’, लेकिन यह नहीं सोचेंगे कि केला खाने वाला उसका छिलका डालेगा कहां, या कि अगर कोई दो घण्टे से बाज़ार में घूम रहा है तो वह कहां जाकर अपनी हाजत रफा करेगा? पान खाना हिन्दुस्तानी की आदत है, हम लिख देते हैं-‘कृपया पीक यहां न थूकें’. क्या यह पर्याप्त है? यह तो कोई नहीं बताता कि यहां न थूकें तो कहां थूकें? गन्दगी तो होनी ही है, और या होना है निषेध का उल्लंघन! या दोनों!
एक बहुत आश्चर्य की किंतु महत्वपूर्ण बात यह कि औसत अमरीकी जीवन में भरपूर ईमानदारी और नैतिकता है. यह कहते हुए मैं और भी अधिक आश्चर्य के साथ अमरीकी राजनीति और सरकार को अपनी प्रशंसा के दायरे से बाहर रख रहा हूं. मुझे अनुभव हुआ कि आम नागरिक खासा नैतिक और ईमानदार है. आप बड़ी से बड़ी मॉल में चले जाएं, किताबों की दुकान में चले जाएं - कोई आपको सन्देह की निगाहों से नहीं घूरता, क्योंकि वह सोचता ही नहीं कि आप चोरी कर भी सकते हैं. व्यापारी जिस तरह बिना कोई हिल हुज़्ज़त किये बिका हुआ माल वापस ले लेता है, या नेट आधारित व्यापार वहां जिस तरह पनप रहा है - वह एक नैतिक समाज में ही सम्भव है. एक छोटे-से रेस्टोरेण्ट की नैतिकता की चर्चा मैं इस पुस्तक में कर चुका हूं. एक और ज़िक्र यहां करूं. जिस शहर रेडमण्ड शहर में हम रह रहे थे, वहां हमारी ही कम्यूनिटी (भारतीय अभिव्यक्ति-कॉलोनी) में एक बिल्डर ने कुछ मकान बनाये थे. उनकी नुमाइश थी. पूर्णत: सुसज्जित मकान, ऐसा लगे कि जैसे इनमें कोई रह रहा है, और अभी-अभी बाहर गया है. फ्रिज, टीवी, कम्प्यूटर, रसोई का सामान, पर्दे, किताबें,खिलौने - यानि वह सब कुछ जो एक बसे हुए घर में होता है. इसलिए कि आप देख कर कल्पना कर सकें कि पूरी तरह सुसज्जित होने पर यह घर कैसा लगेगा. यह तो था मार्केटिंग का एक उम्दा नमूना. आश्चर्य की बात यह कि इस सबकी चौकीदारी के लिए कोई नहीं. आदमी तो दूर, ऐसे भरे-पूरे घर के बाहर ताला भी नहीं. आपको देखना है, कुण्डा खोलिए, अन्दर जाइए, अच्छी तरह देखिए, बाहर आइए, कुण्डा लगाइए, बस! किसी को यह भय नहीं कि ऐसे तो घण्टे दो घण्टे में घर का सूपड़ा ही साफ हो जाएगा. होता ही नहीं. बिना बिल के या दो नम्बर के व्यापार की अवधारणा अमरीका में नहीं है. आजकल सॉफ्टवेयर का ज़माना है, और यह देख-जान कर आश्चर्य होता है कि वहां पायरेसी बहुत ही कम है. इसके विपरीत हमारे देश में पायरेसी को उचित ठहराने के लिए भी तर्क़ गढ़े जाते हैं (जैसे यह कि सॉफ्टवेयर बहुत महंगे हैं). इन अच्छी बातों का श्रेय इस बात को दिया जा सकता है कि अमरीका में इन सबके लिये समुचित कानूनी प्रावधान हैं. हैं तो हमारे यहां भी, पर लागू वे केवल अकिंचनजन पर ही होते हैं, और अकिंचन भी मौका लगते ही वी आई पी की जमात में शरीक होकर तमाम कानूनों-नियमों से ऊपर उठ जाना चाहता है. इसके विपरीत अमरीका में, एक सीमित अर्थ में, कोई वर्ग भेद नहीं है. कानून की निगाह में सब समान हैं. इसलिए, चाहे तो आप कह लें कि कानून के भय से, व्यवस्था को बहुत ही कम तोड़ा जाता है. वैसे भी, आम नागरिक के मन में भरपूर नागरिक बोध है. यह नागरिक बोध केवल डण्डे के बल से सम्भव नहीं है. इसके मूल में शिक्षा और संस्कार भी हैं. दुर्भाग्य यह कि हमारे यहां संस्कारों का गुणगान तो खूब किया जाता है, पालन करने की कतई चिंता नहीं की जाती. गड़बड़ हमारे संस्कारों और परम्पराओं में भी है. मुझे हरिशंकर परसाई की एक टिप्पणी याद आती है. उन्होंने लिखा था कि जिस देश में परीक्षा देने जाता हुआ बालक हनुमान जी के मन्दिर के सामने रुक कर यह कहता है कि हे भगवान, अगर तुम मुझे पास कर दोगे तो मैं तुम्हें सवा रुपये का प्रसाद चढ़ाउंगा, उस देश में भला भ्रष्टाचार कैसे खत्म हो सकता है? इसी तरह मुझे तो यह बात भी गड़बड लगती है कि आप किसी पवित्र नदी में स्नान करें तो आपके पाप धुल जाएंगे. राजस्थान के एक प्रसिद्ध देवता, एक धर्म विशेष के पालकों के व्यापार में हिस्सेदार होते हैं. भक्तों का खयाल है कि भगवान को हिस्सेदार बनाने से उनके व्यापार में बरकत होती है. इस तरह भगवान नैतिक, अनैतिक दोनों ही व्यापारों में शरीक हो जाते हैं. अनैतिक व्यापार पर भी उनकी मुहर लग जाती है. शिक्षा के नाम पर भी हमने संस्कार देने की कोई चेष्टा नहीं की. अगर की होती तो आज जो मूल्यहीनता और संस्कार विहीनता दिखाई देती है, वह कुछ तो कम होती. हमने तो शिक्षा का अर्थ सूचना देने तक सीमित कर रखा है. अगर नैतिक या इसी तरह की शब्दावलि के अंतर्गत कुछ पाठ पढ़ाए भी जाते हैं तो वे विपरीत बाह्य परिवेश के कारण अप्रभावी रहते हैं.
इसी के साथ मैं अमरीका में विद्यमान कार्य संस्कृति की भी चर्चा करना चाहता हूं. मुझे तो वहां हर आदमी भरपूर निष्ठा से काम करता मिला. लगा कि वह जो भी काम कर रहा है, मन से कर रहा है, उसका आनन्द ले रहा है. उसे बेगार की तरह, विवशता में नहीं कर रहा है. अब कुछ लोग इसे पूंजीवाद की देन भी कहते हैं. आपके सर पर हमेशा तलवार लटकी रहती है. स्थाई नौकरी जैसा कुछ भी नहीं है. मेरे पाठक ही सोचें, अगर किसी से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपना काम ठीक से करे तो इसमें बुरा क्या है? फिर, वहां अगर काम न करने या खराब तरह से करने पर दण्ड का प्रावधान है तो अच्छे काम के लिए पुरस्कार का प्रावधान भी है. फलत: ज़्यादातर लोग बेहतर काम करने के लिए प्रयत्नरत रहते हैं. इस कार्य संस्कृति से नागरिक जीवन बहुत सुखद हो जाता है. आपको अपना काम कराने के लिए किसी के आगे गिड़गिड़ाना नहीं पड़ता, इधर से उधर चक्कर नहीं लगाने पड़ते, छोटी-सी बातों के लिए बड़ी-सी सिफारिशों का जुगाड़ नहीं करना पड़ता. वस्तुत: भारत में हम इन स्थितियों पर दो भिन्न दृष्टियों से बात करते हैं. जब हम काम करने वाले की दृष्टि से बात करते हैं तो तमाम तरह की सुविधाओं और सुरक्षाओं की अपेक्षा करते हैं. तब हमें काम के समय में ही नमाज़ पढ़ने जाने की छूट भी ज़रूरी लगती है, देर से आने और जल्दी जाने की अक्सर ज़रूरत महसूस होती है, काम के समय में ही दोस्तों-रिश्तेदारों से सुदीर्घ गपशप की आवश्यकता महसूस होती है, अपना काम दूसरे पर और आज का काम कल पर टालने में कोई संकोच नहीं होता है. लेकिन जब हम काम करवाने वाले की नज़र से देखते हैं तो एकदम मुकम्मिल सेवा की अपेक्षा करते हैं. तब हम सामने वाले को वाज़िब छूट तक नहीं देना चाहते, उसकी सीमाओं को भी नहीं समझना चाहते. इस दोहरे मापदण्ड का एक मज़ेदार उदाहरण इस बात में देखा जा सकता है कि वे सरकारी कर्मचारी भी, जो बिना रिश्वत लिए एक तिनका भी इधर से उधर नहीं करते, इस बात पर स्यापा करते मिल जाते हैं कि स्टेट इंश्योरेंस या जी पी एफ महकमों में बिना रिश्वत कोई काम नहीं होता. एक और मज़ेदार बात यह भी कि हमारा धर्म और हमारी महान संस्कृति हमें क़तई प्रेरित या बाध्य नहीं करते कि हम अपना काम ईमानदारी और निष्ठा से करें. माथे पर लम्बा तिलक लगाए, हाथों में मोटे-मोटे कलावे बांधे, नियम से नमाज़ अदा करने वाले कामचोर, हरामखोर, बेईमानों, भ्रष्टाचारियों को ढूंढने के लिए आपको मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी. एक ढूंढो हज़ार मिल जाएंगे. आप दुनिया के कई हवाई अड्डों को देखने-अनुभव करने के बाद जब दिल्ली या मुम्बई के हवाई अड्डे पर आते हैं तो कार्य संस्कृति का अंतर बहुत प्रखरता से महसूस करते हैं. हरामखोरों के प्रति सहानुभूति रखने वाले इसे गरीबी से जोड़ते हैं. निश्चय ही भारत में गरीबी है, कम वेतन, कम सुविधाएं हैं. पर यही एकमात्र कारण होता तो कम से कम ऊंचा और अच्छा वेतन वाले तो कर्मठ होते.
ऐसी ही और बहुत सारी बातें हैं, जिनका अनुभव कदम-कदम पर होता है. वहां था तो लगता, काश भारत में भी ऐसा ही होता. मन में यह सवाल भी उठता कि आखिर क्यों जो अच्छाई अमरीका में है, भारत में नहीं है. इस सवाल का एक उत्तर इस बात में भी है कि अमरीका की आज़ादी हमारी आज़ादी से बहुत पुरानी है. दोनों देशों की तुलना करते हुए इस बात को नहीं भूलना चाहिए. देशों का चरित्र एक दिन में नहीं बन जाता. वक़्त लगता है. लेकिन देखना यह होगा कि क्या हम सही दिशा में बढ़ रहे हैं? गति बाद की बात है.
लेकिन ऐसा क़तई नहीं है कि अमरीका में रहते हुए मुझे भारत की कमियां ही याद आती रहीं. सच तो यह है वहां के जीवन में बहुत कुछ ऐसा है जिसे किसी भी भारतीय के लिए पचा पाना कठिन है. इस तथाकथित उन्नत समाज में जो घोर व्यक्तिवादिता है अकेले वही हमारे भारत को उस देश से बेहतर सिद्ध करने को पर्याप्त है. लगता है जैसे हर व्यक्ति एक स्वतंत्र और निरपेक्ष इकाई है. अपने परिवेश से एकदम असम्पृक्त. अपने सिवा किसी की कोई परवाह नहीं. लोक व्यवहार में ये लोग भले ही भरपूर शालीन हों, पारस्परिक व्यवहार के मामले में एकदम ठण्डे हैं. परिवारों में हर एक बस अपनी परवाह करता पाया जाता है.अपने सिवा किसी और के लिए सुई भर ज़मीन भी छोड़ने को कोई तैयार नहीं है. यही कारण है कि वहां शादियां दीर्घजीवी नहीं होती. व्यक्ति के अकेलेपन से जितनी समस्याएं हो सकती हैं, वे सब वहां हैं. वे लोग पालतू पशुओं पर अपना पैसा, प्यार और ध्यान लुटाते हैं, पर परिवारजन के लिए उनके पास कुछ भी नहीं है. इसके लिए उनके पास तर्क भी यही है कि पालतू पशु कोई अपेक्षा नहीं रखते. यानि जो अपेक्षा रखते हैं उनके लिए उनके पास कुछ नहीं है. हम लोग तो यह मानते हैं कि यह सृष्टि ही परस्पर आदान-प्रदान पर टिकी है. आपसी सहयोग के कारण ज़िन्दगी कितनी खूबसूरत बन जाती है, यह हम हर रोज़ अनुभव करते हैं, अमरीकी समाज में यह पारस्परिकता नहीं है. उन लोगों को जैसे द्वीप बन कर रहना पसन्द है. अमरीकी अखबारों में पाठकों के पत्रों में जो समस्याएं उठाई जाती हैं वे इस समाज का एक ऐसा चेहरा प्रस्तुत करती हैं जो ईर्ष्या का नहीं दया का पात्र लगता है. ये पत्र ही यह दर्शाते हैं कि यह समाज कितना एकलसुरा है. उस वक़्त लगता है कि सारी बातों के बावज़ूद भारतीय समाज कितना समृद्ध है!
अमरीकी समाज पूंजीवादी समाज है.हर आदमी आपा-धापी में फंसा नज़र आता है. एक व्यावसायिक, औद्योगिक, अर्थ केंद्रित समाज जैसा हो सकता है, वैसा ही वह समाज है. हर आदमी पैसा कमने की धुन में, और ज़्यादा अमीर हो जाने की धुन में कुछ इस तरह डूबा हुआ कि उसे अपने आस-पास का भी कोई भान नहीं. पास के पौधे पर नया फूल खिला है, यह किसे दिखाई देता है? काम के अपने तनाव. काम छूट जाने की तलवार सदा सर पर लटकी हुई. काम का दबाव ऐसा कि नसें अब तड़की, कि अब तड़की. और इस तनाव से मुक्ति के लिए फिर किसम-किसम के व्यावसायिक नुस्खे, जिन्हे खरीदने के लिये काम में और अधिक डूबना ज़रूरी. एक विकट दुश्चक्र! उन्नत जीवन स्तर के निर्वाह की आकांक्षा, और उस आकांक्षा की पूर्ति के लिए पति-पत्नी दोनों का बैलों की जोड़ी की मानिन्द काम में जुटना अपरिहार्य. इसलिए पहले तो परिवार की वृद्धि स्थगित, और जब लगे कि इस बात को टाला नहीं जा सकता, तो आ गए शिशु के लिए दोनों में से किसी के पास भी वक़्त नहीं. कुल मिलाकर एक ऐसे समाज की तस्वीर जिसे देख कर दया भी आए, गुस्सा भी!
भारत में लोग विदेशी, विशेषत: अमरीकी माल के लिए लालायित रहते हैं. लेकिन अमरीकी बाज़ार में घूम कर और वहां मिलने वाले माल की एकरूपता देखकर भयंकर निराशा होती है. वस्तुत: अमरीका में मानवीय श्रम की बड़ी कमी है. इसका एक विकल्प उन लोगों ने आउट सोर्सिंग्स के रूप में खोजा है, लेकिन इस अवधारणा के प्रचलन से पहले वे लोग एक-रूपी मास प्रोडक्शन द्वारा अपनी इस समस्या से निजात पाने की चेष्टा करते रहे हैं. भारत में उत्पादों में जिस तरह का वैविध्य मिलता है वह अमरीका में कल्पनातीत है. हमारे यहां तो प्रदेशों की बात तो छोड़िए, एक ही शहर के भी अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग तरह की चीज़ें मिल जाती हैं. इसके विपरीत अमरीका के एक से दूसरे छोर तक हू-ब-हू एक ही तरह के उत्पादों का मिलना वहां के बाज़ार की दयनीय दरिद्रता का परिचायक है. न केवल उत्पाद, बल्कि खाद्य पदार्थों-व्यंजनों तक में यही उबाऊ एकरूपता देखने को मिलती है. वहां तो श्रंखलाओं (Chains) की अवधारणा आम है, और उनकी खासियत ही यह एकरूपता है. और इस कारण आप चाहे पूर्वी अमरीका में हों या पश्चिमी अमरीका में, उत्तर में हों या दक्षिण में आपको हर जगह मैकडोनल्ड्स,पिज़्ज़ा हट, फेट बर्गर,के एफ सी, सबवे,स्टारबक्स मिलेंगे और यह दावा किया जाएगा कि उनका स्वाद मानक स्वाद है, और यह दावा एकदम सच होगा. कहना अनावश्यक है, इस कारण मानवीय स्पर्श तो लुप्त ही हो जाता है.
एक सवाल मुझे बहुत परेशान करता रहा है. इसका कोई उत्तर मैं नहीं खोज पाया हूं. शायद आप कोई मदद कर सकें. सवाल यह है कि जिस देश के नागरिक इतने अच्छे हैं, वह देश खुद क्यों अच्छा नहीं है? देश से मेरा आशय उस अमरीका से है जिसके बारे में, जिसकी अंतर्राष्ट्रीय भूमिका और छवि के बारे में कुछ भी कहना अनावश्यक है. है न मुश्किल गुत्थी! एक उत्तर यह हो सकता है कि यह दोष तो पूंजीवाद में अंतर्निहित है. मेरा सवाल है, वैसी स्थिति में नागरिकों को भी तो पूंजीवाद से प्रभावित होना चाहिए! मुझे ऐसा महसूस नहीं हुआ. आप क्या सोचते हैं?
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(समाप्त)
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परिचय
जन्म - 24 नवम्बर 1945, उदयपुर (राजस्थान)
शिक्षा - एम ए हिन्दी, पीएच डी
36 वर्ष राजस्थान के विभिन्न महाविद्यालयों में अध्यापन एवं प्रशासन के बाद राजस्थान सरकार क कॉलेज शिक्षा निदेशालय में संयु्क्त निदेशक के पद से सेवा निवृत्त.
अब अपनी मर्जी का लिखना-पढ़ना.
साहित्यालोचन में विशेष रूचि, साथ ही विभिन्न विषयों पर नियमित लेखन.
लगभग दस पुस्तकें प्रकाशित.
हिन्दी की सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन.
आकाशवाणी और दूरदर्शन से भी नियमित प्रसारण.
अंग्रेज़ी से अनेक रचनाओं के हिन्दी अनुवाद.
तीन विदेश यात्राएं.
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सम्पर्क:
ई-2/211, चित्रकूट
जयपुर - 302021
मोबाइल - 9829532504
ईमेल - dpagrawal24@gmail.com
"एकरूपता"
जवाब देंहटाएंदुर्गा जी यह एकरूपता ही अमरीका का भूमंडलीकरण है. अमरीका और उसके समर्थक जिन नीतियों पर काम करते हैं उससे यही एकरूपता बचती है. विविधता में छिपे सौंदर्य को हम भी रौंदने में लगे हुए हैं और तुर्रा यह कि विकास हो रहा है.
बहुत अच्छी लेखमाला रही. आपके लिखने की शैली बहुत अच्छी है.
विविधता की ज़रूरत पर मैंने भी बल दिया है और इस बात पर अपना क्षोभ भी व्यक्त किया है कि अमरीकी बाज़ारों में मिलने वाले उत्पादों में हद दर्ज़े की और उबाऊ एकरूपता है.लेकिन सूचना पट्टों आदि में, मार्ग दर्शक चिह्नों में वहां जो एकरूपता दिखाई दी, चाहे तो उसे मानकीकरण कह दें, वह मुझे अच्छी लगी, और अपने यहां उसका अभाव मुझे खटका. शायद कुछ बातों में मानकीकरण होना भी चाहिये.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया, आप का यह लेख अमरीका रहने वाले भारतीयों के लिए बड़ा उपयोगी है। ऐसा लगता है कि जैसे किसी ने मन में उमड़ते विचारों को शब्दों में पिरोकर सामने रख दिया हो। फिल्मों व सुनी सुनाई बातों से जो छवि अमरीकी समाज की बनी है व वास्तिविकता से कितनी परे है।
जवाब देंहटाएंपंकज
धन्यवाद पंकज जी. आपकी सराहना के लिए कृतज्ञ हूं. मैं जब अमरीका में था तो वहां रहने वाले अनेक स्वदेशी मित्रों की भी यही प्रतिक्रिया थी कि ज़्यादातर लोग अमरीका की, सुनी-सुनाई बातों के आधार पर आलोचना ही करते हैं, आपने (यानि मैंने) पहली बार इसके सकारात्मक पक्ष के सामने रखा है.
जवाब देंहटाएंजहां तक शैली का सवाल है , मेरी कोशिश भी रहती है कि बात को सीधे-सरल तरीके कहा जाए.