दो व्यंग्य रचनाएँ: मुर्गा और आदमी • आर. के. भंवर सड़क पर चहलकदमी करता हुआ एक मुर्गा परेशान दिख रहे आदमी को रोक कर बोला -- क्यों गुर...
दो व्यंग्य रचनाएँ:
मुर्गा और आदमी
• आर. के. भंवर
सड़क पर चहलकदमी करता हुआ एक मुर्गा परेशान दिख रहे आदमी को रोक कर बोला -- क्यों गुरू, हमीं क्या कटने के लिए पैदा हुए हैं। छुरी हवा में लहराई और हम हो गये जबे—। आखिर ये सब कब तलक चलेगा ?
आदमी ने, जो पहले से ही और वाकई परेशान था, उसकी बात सुनते ही कुकुड़ू- कूं की ओर मुखातिब हुआ , देखो भाई तुम सिर्फ एक बार कटते हो और हमारे हिन्दू संस्कारों के अनुसार तुम संसार में आवाजाही के बंधनों से मुक्त हो जाते हो। पर मैं तो रोज-बरोज कटता हूं। किस-किस के वास्ते और कब-कब कटता हूं .. ये बताना इतना आसान नहीं। कटने पर मेरी परिस्थितियां नहीं देखी जाती, कटवाने वाले का फरमान सुना जाता है। अब तो कटने की आदत पड़ गई है। सच बताऊ मुर्गा भाई, पहले पहले बहुत दिक्कत हुई थी। इसके बाद तो कटने की आदत पड़ गई है। तुम शायद न जानते होगे, इस मामले में मेरी प्रेरणा तुम ही हो मुर्गा भाई।
दो कदम पीछे हटकर मुर्गा कुछ नाराजगी से बोला, क्या बके जा रहे हो तुम। मैं किसी के लिए प्रेरणा नहीं, तुम अपना काम जैसे चला रहो हो, चलाओ, अरे मुझे तुम्हारे से क्या लेना-देना ! कसाई से मेरा सम्बन्ध जन्म जन्मांतरों का है, किसी योनि में वह मुर्गा बनता है तो किसी योनि में मैं कसाई। ये सब हमारे यहां चलता रहता है। पर तुम्हारी जात में हमें कुछ संदेह रहता है। तुम्हारे यहां करनी और कथनी में गहरी खाई है। इसलिए आदमी जो कहता है, वो करता नहीं। ऐसा हमारे यहां नहीं होता। अब देखो मैं सीधे कसाई के पास कटने के वास्ते जा रहा हूं। कटूंगा भी और अपनी आगे की पीढ़ी के लिए रास्ता भी साफ करूंगा।
आदमी इस बार झल्लाया, ये जो तुरत दान महा कल्याण वाली थिरेपी है, इसमें कोई खास दम नहीं। इसमें कोई संघर्ष नहीं है। उत्तेजना नहीं है। अंगूठा दिखाने का मौका नहीं है। और फिसलने पर हर-हर गंगे कहने का गोल्डेन चांस नहीं है। अब ये क्या है कि बात की बात में गये और छुरी के तले धार-धार हो गये। शी... शी इतनी खामोश कटाई, क्या फायदा मिला। अरे मरो तो शहादत मिले, ऐसे लोगों को ढेर पैसा देकर मरो जो मरने पे कह सके – कि इनकी भरपाई अब नहीं हो सकेगी, इसीलिए हम एक बार नहीं बार-बार कटते हैं। ये अलग बात है कि बार-बार कटने की हमारी नियति है।
मुर्गा फिर बोला तुम लोग बाथरूम में गिरने को भी शहादत मान लेते हो और रेल की पटरियों से छेड़छाड़ करने को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी। अब क्या कहा जाए, तुम्हारी जात और तुम्हारा सोच-साच कुछ अलग ही है, जिसमें अपना भला अपनी सिद्ध, भई वाह, अब फिसलने पर हर गंगे नहीं, बल्कि अपन की ये स्टाईल है। आजादी के छह दशक में हमसे, कुत्ते भाई, सांप जी, गिद्ध जी, बगुला जी, लोमड़ी बहिन से तुमने कुछ न कुछ लिया है, और उसके बदले उन्हें कुछ भी दिया नहीं है। ये सब तुम्हारी प्रगति की सीढ़ियां बनी है। अब ये डर लगने लगा है कि इनकी तुलना कहीं आदमी से न होने लगे।
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चिंता जिन करियो, हम हूँ न !
• आर. के. भंवर
डोंट वरी। नो फिक्कर। परेशानी काहे की ? सब निपट जायेगा, हम हूँ न, ऐसे तमाम हमदर्दियाना बातें अब जिंदगी से गुम होती जा रही हैं। इनकी जगह अब तू ही जानें फिर तेरा काम जाने, मेरे से क्या लेना-देना, या --- बोल दिया न कि तेरी किस्मत का ढक्कन ही ऐसा है या .. ये तो होना ही था, अब झेल, ऊपर वाले ने तेरे को झेलने के वास्ते ही तो बनाया है।
--- अब इस भीड़नुमा समाज में वह बिल्कुल अकेला है। कोई नहीं है जो उसकी पीठ पर हाथ रखकर ये कहे कि चिंता जिन किहौ हम तौ हन । ऐसा कहना मात्र अगले के लिए एक जबर्दस्त सामाजिक सुरक्षा का बंदोबस्त कर देता है। समाज से धीरे धीरे मेलजोल, सांझापन और परस्पर सहयोग की भावना खलास होती जा रही है। मानवीय सम्बंधों में अब दूरियां अधिक हैं। पड़ोस में आदमी रहते है या उनके कुत्ते, क्या मतलब ? कौन मरा और कब मरा, क्या लेना-देना ? अपनी खिड़की पूरी बंद रहे या थोड़ी सी खुली रहे बस !
ये चिंता जिन किहौं वाला `हम´ जो है, उसे खोजना पड़ेगा, यह कहीं गुम हो गया है । इससे हम में भरपूर ताकत थी। मुठि्ठयां बंध जाती थीं तो मजाल क्या कि सत्ता का साया हो या दरोगे की बदमगजी, कोई रत्ती भर बिसात नहीं रखती थीं। ये वही बेलौस ढंग से `हम´ था 1857 के विद्रोह में और ये `हम´ ही था देश की आजादी के जनम दिन तक। मेरा रंग दे बसंती चोला या सर कटा सकते है पर सर झुका सकते नहीं --- ये भी `हम´ ने गाया होगा वह भी अंदर की आवाज से। ऐसी आवाज कि जिसके हजारों हम अपनी आजादी के वास्ते दीवाने हो गये थे। जब जब `हम´ पीछे धकेला गया है और `मैं´ आगे आया है, दिक्कतें ही दिक्कतें शुरू हुई हैं। सत्ता की रेवड़ी बंटने के समय `हम´ पर्दे के पीछे धकेल दिया गया और काबिज हो गया `मैं´। नतीजा सामने है। आजादी के छह दशक बाद भी उनका मैं सत्ता की मजबूती के वास्ते क’मीर मुद्दे कह मुरछाई चुहिया को गोबर सुंघाता रहा है। सीमा विवाद, पानी विवाद, भाषा विवाद `हम´ के तिरोहित होने और `मैं´ के प्रकट होने से देश की छाती पर बेवजह जकड़े हुए हैं। विवाद `मैं´ का बड़ा भाई है, जहां पर ये है तो मानकर चलिए कि किसी मैं की पसड़ है। अब तक के अठ्ठावन वर्ष की उम्र वाले आजाद भारत के सारे झगड़ों की जड़ों में ये मैं पल्थी लगाये बैठा है। इसे धकियाना होगा। अगर ये समय रहते नहीं गया तो पानी बांध के ऊपर से बहुत आगे निकल जायेगा।
जाओ भाई `मैं´ ---- अब जाओ, `हम´ को अपनी जमीन पर पांव धरने दो। हम नहीं हैं इसीलिए आदमी अकेला है और अकेले आदमी की दिक्कतें भी हजारों हैं। सर पर हाथ रखने वाले मुंह फेरे हुए हैं। किसे सुनाएं और सुनाने से पहले उसकी सुनें। सुनीसुनौव्वल में वह आदमी गुमसुम है। सोचता है कि समय कब बदलेगा। वह पीछे जायेगा कि नहीं और गया पीछे तो वह कलेजे वाला आदमी जो पूरे दम से कह सके चिंता जिन किह्यो हम हन न, मिलेगा कि नहीं । तब तनाव, चिंतायें, मुसीबतें मिल बांट कर झेली जाती थीं, सबके हिस्से में बस थोड़ी-थोड़ी आतीं थीं। फुरसत की चटाई पर मिल बैठकर समाधान निकाल ही लेते थे। एक दूसरे पर इतनी निश्चिंतता, इतना भरोसा और इतना दम, अंदर कहीं किसी कोने में भी दूसरे पर संशय जन्म ही नहीं लेता था। तब के उस आदमी के चेहरे पर जो प्रफुल्लता थी, वह आज के आदमी के चेहरे पर नहीं है। क्यों ? फिर आगे की बातों को दोहराना पड़ रहा है। `मैं´ जब खंडित होता है, तो `हम´ की शरण में जाता है। ये हम आता है सामुदायिक दायित्व बोध के कारण, समन्वय-सहभागिता से, एक दूसरे से जुड़ने से, ये हमारी तकलीफ है, इससे हम सब निपटेंगे - की सोच से। जिस समाज में हम की जड़े बहुत गहराई में है, वह समाज मजबूत और खुशहाल रहा है और जहां `मैं´ तरक्कियों चढ़ा हो, तो ऐसी तरक्की दीर्घजीवी नहीं होती क्योंकि `मैं´ खोखलेपन में रहता है।
मैं एक मित्र के यहां गया , असलियत में उन्होंने अपनी कुछ कला कृतियां दिखाने के लिए बुलाया था। पहुंचा तो बड़ी गरमजोशी के साथ हाथ मिलाया, ड्राइंगरूम ले गये, परिवार के सदस्यों से जान पहिचान करायी। सब के साथ चाय चली। फिर उन्होंने अपनी आर्ट गैलरी दिखाई। बेहद उम्दा चित्र .... सभी जैसे सजीव हों, मैं देखते-देखते उनमें सौ फीसदी खो गया। प्रकृति के रम्य रूपों के चित्रांकन में गजब की बारीकी थी। मुझसे रहा नहीं गया, पूछ लिया ये कृतियां सब के सो जाने के बाद बनाते होंगे ? बोले - –नहीं भई, सब के साथ सभी के डिसक्शन के साथ बनाई है। उनमें कोई भी ऐसी कला कृति नहीं है जो मैंने अकेले बनाई हो। मेरे हाथ जब कूचियों से खेलते थे, तब मुझे मेरी बेटी चाय का प्याला लेने को कह, सहभागिता का सुर देती थी। पत्नी और बेटा सब के सब अपने लगन व निष्ठा के साथ , इन चित्रों के नेपथ्य में है। इन सबके सामंजस्य से मैं हूं। उनके `मैं´ के पीछे भी एक विराट `हम´ है। ये वही हम है जो कुछ कर सकने का जज्बा देता है। मुझे लगा कि एक चित्रकार अपने चित्रों के साथ पूरे पारिवारिक संतुलन में है। उसे ऊंचाईयों पर जाने की ललक नहीं है। अकेला ही प्रशस्ति नहीं पाना चाहता है। उसके हम में उपेक्षा व किसी परिजन के प्रति उदासीनता नहीं है। पत्नी, पुत्री, पुत्र सब खुश है। वहां सब एक दूसरे से मुसीबत में यही कहते है चिंता जिन किह्यो हम हूं न।
एक महाशय ऐसे भी जिन्हें जीवन के पांच दशक इस वास्ते खर्च हो गये कि वे कुछ है, सब लोग उन्हें जानें, उन्हें माने या उन्हें मान-सम्मान दें। घर में बेटा उनकी अनसुनी करता , बेटी शादी के एक साल के अंदर ही पवीलियन पर लौट आई और पत्नी .. कोउ नृप होय हमैं का हानी , यानी कि उदासीन सम्प्रदाय की आजीवन सदस्या। अब ये महाशय अपने घर में अपने मैं के कारण अकारण जिल्लत झेलते है । उनके जितने हम थे , उनकी वजह से ही किनारे हट गये।
चिंतायें `हम´ से डरती है और `मैं´ से दिल लगाती है। मैं को अकेला पायें तो दबोच लें। चिंताएं तो चाहती है कि आदमी `मैं´ के फांस में फंसा रहे और `हम´ से दूर रहे। `हम´ चिंताओं पर चौतरफा हमला करता है। वे कट-कट कर गिरती रहतीं हैं, क्योकि `हम´ `मैं´ नहीं है, अकेला नहीं है, वह सर्वजन का अंग है। बहुजन से पोषित है। इसलिए डर किस बात का ? ये दुनिया तितली की तरह रंगबिरंगी है। इसके रंग में कोई मैं का भंग न डाले तो इसकी खूबसूरती के क्या कहने ! आज के तार-तार हो रहे इंसानी मूल्यों के लिए `हम´ को बचाये रखना बेइन्तेहां जरूरी है। यही है जो कहेगा - ! का हो, अब चिंता जिन किह्यो हम हूँ न।
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रचनाकार संपर्क:
आर. के. भंवर
सी - 501/सी, इंदिरा नगर,
लखनऊ(उत्तर प्रदेश) भारत ।
फ़ोन-
91-0522-2345752
91-09450003746
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चित्र – साभार: वोएत्सेक.कॉम
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aaj ke samaj ki sahi dasha darshata hai. Murga katkar shaheed aur aadmi jeete mar raha hai, kya baat hai. bhawour bhai badhai.
जवाब देंहटाएंरवि जी,
जवाब देंहटाएंभँवर जी से परिचय कराने के लिए धन्यवाद। सुन्दर हैं। दूसरी में इतना व्यन्ग्य नहीं है किन्तु बात बिलकुल सत्य है और बहुत अच्छे तरीके से कही है।
dono rachanaye behad achchi hai.UPwale achcha likhate hai. raviji apke prakashan me hindi zindabad. mr. bhanour ki rachanaye aage bhi prakashit kare, abhi hindi me enke yogdan ko janana jaroori hai.
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