असग़र वजाहत की उपन्यासिका : मन-माटी

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उपन्यास मन-माटी -असग़र वजाहत   पते की बात सीधी-सच्ची होती है। उसे बताने के लिए न तो चतुराई की जरूरत पड़ती है और न सौ तरह के पापड़ बेलने ...

उपन्यास

मन-माटी

-असग़र वजाहत

  asghar wajahat (WinCE)

पते की बात सीधी-सच्ची होती है। उसे बताने के लिए न तो चतुराई की जरूरत पड़ती है और न सौ तरह के पापड़ बेलने पड़ते हैं। सीधी-सच्ची बात दिल को लगती है और अपना असर करती है। मैं यहां इन पन्नों में आपके सामने कुछ सच्ची बातें रखने जा रहा हूं। ये बातें गढ़ी हुई नहीं हैं आपकी और हमारी दुनिया में ऐसा हुआ है, हो रहा है और होता रहेगा। कुछ आपबीती है और कुछ जगबीती है।

एक वक्त की बात है। कलकत्ता के पार्क स्ट्रीट इलाके में एक पादरी सफेद लंबा कोट पहने, टोपी लगाये, हाथ में पाक खिताब लिये जोशीली आवाज में कुछ कह रहा था। लोग उसे घेरे खड़े थे। सुन रहे थे।

अकरम को कलकत्ता आये तीन-चार दिन ही हुए थे। उसके बड़े भाई मिस्टर जैक्सन के अर्दली थे। अकरम की उम्र सोलह-सत्तरह साल थी। वह अपने पुश्तैनी गांव अरौली से आया था और आने का मकसद यह था कि बड़े भाई ने उसकी नौकरी लगवा देने का पक्का परोसा दिलाया था।

''दो दिन से पड़ा सो रहा है, उठाओ उसे।'' अकरम जब से आया है सो रहा है। खाना-वाना खाता है, फिर सो जाता है।

''उठ अकरम...उठ।'' अकरम की भाभी ने उसे झिंझोड़ दिया। वह हड़बड़ाकर उठ बैठा। उसके बड़े भाई असलम की कड़ी और खरखराती आवाज आई, ''क्यों? सोने आया है यहां...चल उठ जाके बाजार से दही ले आ, तो तेरी भाभी खाना पका ले।''

अकरम हाथ में पतीली लेकर बाहर आया, गली से निकलकर सड़क पर आ गया। यहां से उसे उल्टे हाथ जाना था लेकिन सामने भीड़ लगी थी। पादरी का चेहरा धूप में लाल हो रहा था। अकरम ने इससे पहले कभी कोई गोरा नहीं देखा था। वह डर गया, लेकिन फिर भीड़ में पीछे छिपकर तमाशा देखने लगा। गोरे पादरी का चोगा पसीने से भीग गया था। उसकी घनेरी दाढ़ी हवा में लहरा रही थी। सीने पर पड़ा हार इधर-उधर झूल रहा था। अकरम उसे एकटक देखने लगा। उसकी बड़ी-बड़ी नीली आंखें इधर-उधर घूम रहीं थीं। वह जहन्नुम में दी जानेवाली तकलीफों के बारे में बात कर रहा था। उसकी आंखें और खौफनाक हो गईं थी। वह तेजी से घूम-घूमकर चारों तरफ जमा लोगों से कह रहा था, ''सच्चा और पक्का मजहब और एक करारी मेम कौन लेगा?'' पादरी की आवाज में कड़क थी, गरज थी, ईमानदारी थी, लालच था। वह सबको घूरकर देख रहा था।

अचानक पादरी की आंखें अकरम की आंखों से टकराईं। पादरी ने गरजकर फिर अपना सवाल दोहराया, ''सच्चा और पक्का मजहब और एक करारी मेम कौन लेगा?''

अकरम को लगा कलेजा उसके मुंह से आकर लग गया है। उसका गला सूखने लगा। जबान पर लगा कांटे उग गये हैं। वह टकटकी लगाये पादरी को देख रहा था। पादरी बार-बार अपना सवाल दोहरा रहा था। हर बार सवाल के बाद अकरम की हालत खराब हो जाती थी। ऊपर आसमान में सूरज चिलचिला रहा था। भीड़ में कुछ अजीब आवाज उठ रही थी। अकरम को लगा उसे अपने ऊपर काबू ही नहीं है।

वह बोल उठा, ''मैं।''

अकरम के चेहरे पर एक अजीब तरह का भाव था। वह गर्मी से झुलस रहा था। आंखें फटी जा रही थीं। पूरे मजमे ने अकरम की तरफ देखा। पादरी के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई। वह आगे बढ़ा और अकरम के आगे हाथ जोड़कर खड़ा हो गया, फिर धीरे-धीरे अकरम का हाथ पादरी के हाथ में चला गया।

अकरम के भाई ने उसे कलकत्ता की हर गली में खोजा, आसपास के गांवों में गया। पुलिस दारोगा से पूछा। अस्पताल, मुर्दाघर, कब्रिस्तान हर जगह जाकर पता लगाया, लेकिन अकरम का कहीं पता नहीं चला। थक-हारकर घर चिट्ठी लिख दी। घर यानी यू.पी. के मेरठ जिले की सरधना तहसील के अरौली गांव। अकरम के बूढ़े बाप और मां को यह खबर मिली तो मां ने रो-रो के जान दे दी। छोटे भाई हैरत में पड़े रहे। बाप ने तौबा कर ली कि अब किसी औलाद को कलकत्ता नहीं भेजेंगे।

अरौली गांव में सब-कुछ वैसे ही होता रहा-जैसा होता आया था। अकरम के लापता हो जाने की बात सब भूलते चले गये।

पाठकों, समय बीतता गया और बीतता गया। दस लाख नौ हजार पांच सौ बार सूरज निकला और डूबा। खेतों में गेहूं लहलहाया और कुंदन की तरह लाल हुआ। नदी में नीला पानी बहता रहा, हवा चलती रही, पत्ते हिलते रहे। मौसम पर मौसम बदलते रहे। बदलते समय के साथ चेहरे भी बदलते रहे। अकरम के वालिद गुजर गये। कलकत्ता में असलम का इंतकाल हो गया। अकरम के छोटे भाई वहीद हैजे से मरे। उनके दोनों बेटों, तक्कू और आबिद ने हल-बैल संभाल लिया।

चैत का महीना है, गेहूं कट चुका है, लगता है पृथ्वी का मुंडन कर दिया गया है। इधर-उधर आम के बागों में कोयलें कूकती फिर रही हैं। आवारा लौंडों के गिरोह सीकल बटोरने की ताक में इधर-उधर घूम रहे हैं। घने पेड़ों के नीचे बुजुर्ग चारपाइयों पर आराम कर रहे हैं। खलिहानों में मढ़ाई चल रही है।

दूर से बैलगाड़ी आती दिखाई दे रही है। इस गांव की बैलगाड़ी नहीं है। किसी और गांव की है। धीरे-धीरे बैलगाड़ी अरौली गांव के गलियारे में आ जाती है। धूल का एक बवंडर उठता है और बैलगाड़ी रुक जाती है। दो-चार लोग बैलगाड़ी के पास जाते हैं। बैलगाड़ी से एक अजीब तरह का आदमी उतरता है। उसने गोरोंवाले कपड़े पहन रखे हैं। सिर पर हैट भी लगाये है। हाथ में छड़ी, कोट की जेब में घड़ी की चेन पड़ी है। सब जने इस आदमी को देख रहे हैं और यह आदमी गलियारे को और इधर-उधर देख रहा है। फिर इस आदमी ने जो किया उससे तो अचंभे का पहाड़ टूट पड़ा। यह आदमी अजीब-सी आवाज में जोर से चिल्लाया और गलियारे में लोटने लगा, रोने लगा। उसका हैट गिर गया, कपड़े धूल में अट गये। घड़ी जेब से बाहर निकल आई पर यह गली में, गर्दे में लोटता और रोता रहा। सबको लगा कि कोई पागल है, पर पागल है तो इतने अच्छे कपड़े कैसे पहने है? बैलगाड़ीवाले ने बताया कि साहब छवलिया स्टेशन पर पसिंजर गाड़ी से उतरे थे। स्टेशन मास्टर ने उसकी बैलगाड़ी करा दी थी। कहा था साहब को अरौली गांव जाना है।

''अरौली में किसके घर आना था?''

''यह तो बात नहीं हुई।''

''नाम-पता कुछ है?''

''नहीं हमारे पास नहीं है।''

बीस-पच्चीस मिनट के बाद यह आदमी धीरे-धीरे उठा अपनी टोपी उठाई। कपड़े ठीक किये और रामचंदर के चाचा के पास गया। वही भीड़ में सबसे बुजुर्ग थे।

''मेरा नाम अकरम है...''

''अकरम?''

''हां...असलम मेरे बड़े भाई कलकत्ता में काम करते थे...मेरा छोटा भाई वहीद है।''

रामचंदर के चाचा का मुंह खुला-का-खुला रह गया। आंखें फटी-की-फटी रह गईं। उसके मुंह से बोल नहीं निकल रहा था।

''आप वसीउद्दीन के लड़के अकरमउद्दीन हो?''

''हां...हां मैं वही बदनसीब हूं।'' साहब फिर रोने लगा।

सब उन्हें लेकर तक्कू के घर की तरफ चले। गांव के गलियारे से वे बैलगाड़ी में नहीं बैठे। पैदल चलते रहे। कहीं-कहीं रुक जाते और किसी मकान या पेड़ को ध्यान से देखते और फिर आगे चलते। सब हैरान थे कि गांव में ऐसा क्या अजीब है जिसे यह आदमी, जो बिल्कुल अंग्रेज लग रहा है, इस तरह देखता, हँसता, रोता या आहें भरने लगता है।

उनके पीछे करीब-करीब पूरा गांव चल रहा है। सबसे पीछे बैलगाड़ी है जिसमें उनका सामान धरा है-पहाड़-जैसे चार बक्से हैं, एक गोल बक्सा है। इस तरह के बक्से गांव में पहली बार देखे गये हैं। यही वजह है कि गांव के लौंडे उन्हें छूकर देख रहे हैं और बैलगाड़ीवाला या दूसरे बड़े लोग उन्हें मना कर रहे हैं।

घर के सामने पहुंचकर यह साहब रुक गये। तक्कू और आबिद भी घर से निकल आये थे। साहब ने सिर पर से हैट उतार लिया। घर को इस तरह देखा-जैसे कोई अपने जवान बेटे को देखता है। दूसरे लोग उन्हें देख रहे हैं और वह घर को देखे जा रहे हैं। गांव में जिसे खबर नहीं थी उसे भी खबर लग गई है और सब अब्बू के घर की तरफ दौड़े आ रहे हैं। कुछ देर खड़े-खड़े मकान को देखने के बाद साहब दरवाजे की तरफ लपके और जोर-जोर से जंजीर बजाने लगे। सब पर हैरत का पहाड़ टूट पड़ा। किसी की समझ में न आया कि जंजीर क्यों बजाई जा रही है? घर के मालिक घर के बाहर खड़े हैं। पूरा गांव घर के बाहर खड़ा है और ये साहब जंजीर बजा रहे हैं। किसको बुला रहे हैं? किस तक आवाज पहुंचाना चाहते हैं? कुछ किसी की समझ में न आया। इतने में हाजी वलीउल्ला और मुंशी करामत अली आ गये। सब लोग मकान के सामने नीम के पेड़ के नीचे चारपाइयों पर बैठ गये। चारपाइयां कम पड़ रही थीं, तो पास-पड़ोस के घरों से आ गईं।

मुंशी करामत अली ने साहब से पूछा, ''पता चला कि आप मरहूम वसीउद्दीन के बेटे हैं और वहीद मियां के भाई हैं।''

उन्होंने कहा, ''हां, मैं ही वह बदनसीब हूं।'' सन्नाटा छा गया। कुछ देर के लिए सब खामोश हो गये लेकिन कव्वों की कांव-कांव जारी रही। ''आप अपने रिश्तेदारों से मिलने आये हैं?'' हाजी वलीउल्ला ने पूछा।

''हां, मैं अपने गांव और घर में रहने आया हूं... मैं अब यहीं रहूंगा।''

चारों तरफ खुसर-फुसर होने लगी।

कुछ सोचकर मुंशी करामत अली ने कहा, ''हां आपको पूरा हक है। आपका मरहूम... की जायदाद में हिस्सा है।''

उन्होंने कहा, ''मुझे जमीन, जायदाद में कुछ नहीं चाहिए... एक तिनका नहीं चाहिए...मैं बस इस घर और इस गांव में रहना चाहता हूं... मुझे किसी चीज की कमी नहीं है। लंदन में मेरा रुतबा है। वहां मेरी शादी हो गई थी। मेरा एक लड़का है जो फौज में है। एक लड़की है जिसकी शादी हो गई है।''

''साहिब, यह आपके भतीजे हैं। आपके भाई तो दस साल हुए गुजर गये थे।'' तक्कूउद्दीन उर्फ तक्कू मियां और आबिदउद्दीन उर्फ अब्बू मियां का मुंशी करामत अली ने तआरुफ कराया। साहब दोनों से लिपटकर रोने लगे।

बैलगाड़ी घर के सामने पहुंच चुकी थी। तक्कू और अब्बू साहब के पहाड़-जैसे बक्से उतार-उतारकर नीचे रखने लगे। साहब ने अपने बूट खोले और नीम के पेड़ के नीचे बिछी चारपाई पर लेटकर ऐसे सोये-जैसे जिंदगी में पहली बार नींद आई हो।

साहब ने बताया कि उन्होंने ईसाई मजहब कुबूल कर लिया है और अब फिर से मुसलमान नहीं होना चाहते। जो कुछ हुआ, हो गया है। साहब महीने में एक बार बैलगाड़ी करके डिगलीपुर गिरजाघर जाया करते थे और अपने हिसाब से इबादत किया करते थे। उन्हें बैठक का एक हिस्सा रहने के लिए दे दिया गया था। साहब ने अपने भाइयों से साफ कह दिया था कि वे जमीन-जायदाद में कोई हिस्सा नहीं चाहते। लंदन में उनके पास पैसे की कमी नहीं है और अरौली वे पैसे के लिए नहीं आये हैं। इस तरह भाइयों के दिल से यह खौफ निकल गया था कि कहीं साहब को जायदाद में हिस्सा न देना पड़ जाए और अंग्रेजों का जमाना है, साहब ईसाई हैं, फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते हैं, कलक्टर-कमिश्नर से मिल सकते हैं। एक कागज भी चला देंगे तो भारी पड़ जाएगा, लेकिन साहब ने ऐसा कुछ नहीं किया। हां, उनके गांव में रहने से छोटे-मोटे अहलकार-जैसे पटवारी और सिपाही गांव से कुछ दबने लगे थे, क्योंकि उन्हें मालूम था कि साहब की पहुंच लंदन तक है और वे वहां से जोर डलवा सकते हैं।

साहब सुबह खाना खाकर घर से निकल जाते थे। जी में आता तो पूरे गांव का चक्कर लगाते। एक-एक गली में घूमते। सलाम-राम-राम करते। लोगों की खैर-खबर पूछते। घूमते रहते। कहीं किसी पेड़ के नीचे दो-चार लोग बैठे होते और साहब से बैठने के लिए कहते तो बैठ जाते। साहब हुक्का नहीं पीते थे, बताते थे कि लंदन में चुरट पीया करते थे। चुरट यहां नहीं मिलता इसलिए और कुछ नहीं पीते। साहब लंदन की और बातें भी बताया करते जिसे गांव के लोग बड़े चाव से सुना करते, लेकिन साहब को बातचीत करना उतना पसंद नहीं था, जितना घूमना। वह गांव के दो-तीन चक्कर लगाकर खेतों की तरफ निकल जाते और पांच-सात कोस का चक्कर लगा लेते।

साहब के पास लंदन से पैसा आता है। साल में दो-तीन बार डाकिया साहब का मनीआर्डर लाता था। साहब पैसा वसूल करके इकन्नी डाकिया को देते थे। साहब अपने पास एक नाड़े में मोतियों-जैसा पिरोकर छेदवाले एक पैसे के सिक्के रखते। जहां मन करता, पैसा निकाल लेते थे।

एक दिन साहब को कैथे के पेड़ पर एक पका हुआ कैथा लगा दिखाई दिया। उन्होंने बशीर से कहा कि मेरे लिए कैथा तोड़ लाओ तो तुम्हें एक पैसा दूंगा। बशीर फट से पेड़ पर चढ़ गया और कैथा तोड़ लाया। इसी तरह साहब को कभी जंगल-जलेबी खाने का शौक होता तो पैसा देकर तुड़वाते थे। बूट खाने का साहब को शौक था। होले भूंजने के लिए साहब पैसा दिया करते। यही वजह है कि साहब जब निकलते तो लौंडों का गिरोह उनके आगे-पीछे रहता।

गर्मियों के दिनों में साहब खूब तड़के, सूरज निकलने से पहले उठ जाते और खेतों की तरफ निकल जाते। कब्रिस्तान में महुए के पेड़ों के नीचे गांव की औरतें महुए बीनतीं तो साहब भी एक-आध महुआ साफ करके खा लिया करते। फिर बाग आ जाते अच्छी कोई सीकल मिल जाती तो धोकर खाते। एक-दो फालसे चखते, चटनी के लिए दो-चार कच्चे आम उठा लेते। पुराही चल रही होती तो खूब मजे में नहाते और गांव लौट जाते।

रात में जहां गुड़ बन रहा होता, साहब वहां पहुंच जाते। कढ़ाव की खुरचन खाते। एक-आध लोटा रस पीते। इधर-उधर की गप्प सुनते और देर तक बैठे आग को देखते रहते। कढ़ाव के ऊपर आते फेन को तकते रहते। नहीं तो ऊपर देख लेते। तारोंभरा आसमान दिखाई देता।

चांदनी रात में गांव के बाहर लड़के कबड्डी खेलते तो साहब जाकर जरूर देखते। कभी खुश होते तो जीतनेवाली टीम के लिए इकन्नी का इनाम भी रख देते। इकन्नी में पांच सेर हलुआ बनता जिसे खिलाड़ी मजे लेकर खाते। साहब को तालाब में तैरना और सिघांड़े तोड़कर लाना बहुत पसंद है। दो मिट्टी के घड़ों की डोंगी बनाकर साहब घंटों तालाब में सिघांड़े तोड़ते रहते, कभी-कभी घर भी ले आते।

पूरे गांव में ही नहीं दस-बीस गांवों में साहब के पास ही घड़ी है। साहब के अलावा अतरौला के नवाब साहब के पास घड़ी है। साहब सुबह घड़ी में कूक दिया करते थे तो लोग जाकर देखते थे कि घड़ी में कूक कैसे देते हैं! टाइम देखना तो साहब के अलावा और किसी को आता न था। ऐरा-गैरा आदमी साहब से टाइम पूछने की हिम्मत न कर सकता था। गांव में दो ही तीन आदमी हैं जो टाइम पूछने साहब के पास आते हैं। साहब डिब्बा खोलकर घड़ी निकालते हैं, ढक्कन उठाते हैं, घड़ी साफ करते हैं, एक आंखवाला चश्मा लगाते हैं और घड़ी में टाइम देखकर बताते हैं। गांव में किसी को घंटा और मिनट की जानकारी भी नहीं थी, इसलिए टाइम किसी की समझ में न आता था।

हाजी करीम टाइम पूछने के लिए अपने नौकर जुम्मन को भेजते थे। उसे साहब जो टाइम बताते थे उसे वह रटता हुआ हाजीजी के घर की तरफ दौड़ता। जुम्मन फिर रास्ते में किसी से बात नहीं करता था, क्योंकि अगर वह बात कर लेता था तो टाइम भूल जाता था और फिर साहब के पास जाना पड़ता था। साहब दोबारा टाइम देखने की बात से चिढ़ जाते थे और कभी-कभी मना भी कर देते थे, तब जुम्मन कहता कि वही टाइम बता दीजिए जो पहले बताया था। इस पर भी साहब को गुस्सा आ जाता था। कहते थे कि टाइम को क्या समझ रखा है? क्या टाइम हमेशा एक रहता है? अरे टाइम तो बदलता रहता है। यह सुनकर लोग अचरज में पड़ जाते थे कि टाइम लगातार कैसे बदलता रह सकता है? कोई ऐसी चीज नहीं है जो लगातार बदलती रही, फिर टाइम क्यों लगातार बदलता रहता है? बहरहाल तरस खाकर साहब फिर टाइम बता देते थे और जुम्मन रटता हुआ हाजीजी के घर की तरफ भाग जाता था।

इलाके में अगर कभी किसी जमींदार या नवाब के यहां अंग्रेजी का कोई खत आ जाता था तो साहब को बुलाया जाता था। साहब को लेने बैलगाड़ी आती थी। साहब उस दिन अपना काला कोट पहनते थे, हैट लगाते थे, गले में सफेद रुमाल बांधते थे। बूट पहनते थे। चश्मा और घड़ी रखते थे। कलमदान लेते थे और बैलगाड़ी पर बैठ जाते थे। एक-दो बार उन्होंने बैलगाड़ी पर कुर्सी रखा दी थी और कुर्सी पर बैठते थे, लेकिन हिचकोलों से कुर्सी एक-दो बार गिर जाती थी। इसलिए साहब अब बैलगाड़ी के डंडे पर बैठते हैं। साहब जब अंग्रेजी खत पढ़ने जाते होते हैं तो उनके घर के सामने लौंडों की भीड़ लग जाती है। साहब के भतीजे तक्कू मियां और अब्बू मियां फूल जाते हैं। किसी को अपने आगे कुछ नहीं समझते हैं। है कोई इलाके में ऐसा जो साहब की तरह अंग्रेजी पढ़-लिख और बोल सकता हो?

एक बार नवाब अतरौला के यहां कलक्टर आ रहा था। नवाब साहब बड़े परेशान थे, उन्होंने साहब के लिए फिटन भेजी थी। उस पर साहबों की तरह बैठकर वो अतरौला गये थे और कहते हैं साहब की अंगे्रेजी सुनकर कलक्टर दंग रह गया था। उसे यकीन ही नहीं था कि इस इलाके में कोई ऐसी अंग्रेजी बोलता होगा।

तक्कू कहता है, ''अब तुम लोग क्या समझते हो? साहब को सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती? अरे वो चाहें तो नायब तहसीलदार तो हो ही सकते हैं। दो-तीन बार नवाब मीर अजमद अली ने उन्हें मनीजर बनाने की बात की है, लेकिन साहब तो मनमौजी हैं। उन्हें गांव में मजा आता है। अरे, ये तो हमारे नसीब हैं कि गांव में साहब-जैसा आदमी रह रहा है। कहां मिलेगा ऐसा आदमी जो लाट साहब से बात कर सकता हो?''

गांव के पुराने लोगों को यह अब तक याद है कि साहब चमचे से दाल खाया करते थे। यह बात आसपास के गांवों में लोगों को भी पता चल गई थी और सबके लिए यह एक अनबूझ पहेली बन गई थी कि साहब दाल चमचे से क्यों खाते हैं? साहब जब आये थे तो उन्होंने अपने एक बक्से में से छुरी, कांटा और चमचा निकाला था। कांटा और छुरी घरवालों के लिए ही नहीं पूरे गांव के लिए नई चीजें थीं और किसी की समझ में न आता था कि ये क्या है?

तक्कू ने डरते-डरते पूछा था, ''चचाजान यह क्या है?''

''ये खाना खाने के लिए है।'' उन्होंने कहा था।

तक्कू की समझ में कुछ न आया था। वह ये तो जानता था कि बर्तन खाये नहीं जाते। क्या साहब बर्तन खाते हैं? ऐसा है तो घर के सब बर्तन साहब खा जाएंगे।

''यह खाते हैं?''

''नहीं, इससे खाना खाते हैं।''

...और साहब ने छुरी, कांटे और चमचे से जो खाना शुरू किया तो घर के बाकी लोग सिर्फ उन्हें देख रहे थे। सब खाना, खाना भूल गये थे। धीरे-धीरे साहब ने छुरी और कांटे को अलग रख दिया, लेकिन चमचे का इस्तेमाल करते रहे। खाना खाने के बाद वह अपने चमचे को खुद धोते, पोंछते और सही जगह पर रख देते थे। गांव में यह बात धीरे-धीरे फैली थी और फिर आसपास तक चली गई थी। लोग कहते थे कि अंग्रेज ऐसा ही करते हैं। वे हाथ से खाना नहीं खाते, क्योंकि हाथ को गंदा मानते हैं। माना जाता था कि अंग्रेज हाजत के बाद पानी का इस्तेमाल नहीं करते हैं, कागज से पोंछ लेते हैं, लेकिन साहब ऐसा नहीं करते।

साहब के चमचे से र्‍यादा उनके कांटे को देखकर लोग हैरान थे। किसी ने कभी ऐसी चीज न देखी थी और यह तो कोई सोच भी न सकता था कि उससे खाना खाया जा सकता है। जिन्होंने साहब का कांटा न देखा था और ऐसे लोगों की बड़ी तादाद थी, उन्हें बताया जाता था कि समझ लो चम्मच में बबूल के बड़े-बड़े कांटे लगे होते हैं चमचे की जगह पर, जिससे साहब खाना खाते हैं। कांटे क्या उनके मुंह में चुभ न जाते होंगे? या कांटे में खाना कैसे आता होगा? मान लो साहब सालन-रोटी खा रहे हैं तो क्या करते होंगे? रोटी तो पूरी-की-पूरी कांटे में फंस जाती होगी। क्या साहब रोटी दांत से काट-काटकर खाते हैं? और साहब कांटे से सालन कैसे खाते होंगे? दो-चार लोग जो साहब के नजदीक आ गये, उनसे कांटा दिखाने की फरमाइश भी करते थे। साहब उन्हें चांदी का बड़ा-सा कांटा दिखाते थे, लेकिन कांटा किसी के हाथ में नहीं देते थे।

कुछ साल के बाद साहब के पास एक खत आया जिसे पढ़कर वह बहुत रोये। बताया कि लंदन में उनकी घरवाली के गुजर जाने का हाल खत में लिखा है। फिर साहब को ध्यान आया। उन्होंने सबसे पूछे कि देखो जब मैं मर जाऊंगा तो क्या तुम लोग लंदन मेरे बच्चों को खत लिख सकोगे? खत अंग्रेजी में होना चाहिए, क्योंकि मेरे बच्चों को उर्दू नहीं आती। अब तो बड़ा मसला पैदा हो गया। गांव के सबसे र्‍यादा पढ़े-लिखे आदमी मुंशीजी को भी अंग्रेजी में चिट्ठी लिखना न आता था। वे फारसी-उर्दू जानते थे। आसपास के गांवों में भी कोई ऐसा न था। हद यह है कि डिगलीपुर गिरजाघर के पादरी को भी अंग्रेजी में चिट्ठी लिखना न आता था। शहर यहां से चालीस कोस पड़ता है। जहां का एक-आध वकील अंग्रेजी में चिट्ठी लिख सकता है।

कोई बात नहीं। एक दिन बात साहब की समझ में आ गई। वह इमली के पेड़ के नीचे लेटे थे और ऊपर से सूखी इमलियां गिर रही थीं। तक्कू रस्सी बट रहा था। उन्होंने तक्कू से कहा, ''सुनो तक्कू, चिट्ठीवाली बात समझ में आ गई है।''

''क्या?''

''हम तुम्हें चिट्ठी लिखकर दे देंगे। हमारे मरने पर डाल देना।''

''हमने आज तक चिट्ठी नहीं डाली है चचाजान...पहुंच तो जाएगी न?''

''हां...यह जो डाकिया आता है...उसे दे देना...चार आने लेगा...चार आने भी मैं देता जाऊंगा।''

''ठीक है।''

साहब खेतों, खलिहानों, तालाबों, नदियों, झीलों और घास के मैदानों में घूमते रहे। न उन्हें गर्मी लगती और न सर्दी। कोई मेला-ठेला ऐसा न होता जिसे साहब छोड़ देते। दस-दस कोस पैदल चले जाते और बरसात के दिनों की नदी तैरकर पार कर लेते। एक रात खाना खाने के बाद साहब ने तक्कू से कहा, ''पर तक्कू एक बात है। खत में मैं ये कैसे लिख पाऊंगा कि मैं कैसे मरा?''

''हां, यह तो है।'' तक्कू ने सोचने का सारा काम साहब पर छोड़ रखा है।

''मान लो मैं चिट्ठी में लिखता हूं कि हैजे से मर गया और मरता हूं बुखार आने से, तो?''

''हां, यह तो है।''

''तो मैं चिट्ठी जल्दी न लिखूं? यानी जब बीमार पड़ूं तो लिखूं?''

''हां, यह तो ठीक है।''

''पर, मान लो मैं सांप काटने से मर गया।''

''हां, यह तो है।''

''सांप काटने के बाद मैं चिट्ठी कैसे लिखूंगा?''

''हां, यह तो है।''

''तो मैं तुम्हें कई चिट्ठियां लिखकर दे दूंगा...जिस तरह मरूं वैसी चिट्ठी डाल देना।''

''हौव।''

''पर, यह तुम्हें याद रहेगा कि कौन-सी चिट्ठी किस बीमारी से मरने पर डाली जाएगी?''

''यह तो है।''

''फिर?''

''हां, क्या किया जाए?''

चलो हर चिट्ठी अलग-अलग आदमियों को दे देंगे। एक आदमी को एक बीमारी तो याद रहेगी।''

''हां, यह ठीक है।''

अस्सी से ऊपर के होकर साहब मरे, पर...।

घुटनों के दर्द की वजह से साहब बिस्तर पर पड़े तो पड़े ही रह गये। महीना हो गया, दो महीने हो गये, साहब पड़े ही रहे, फिर साहब ने दवाएं भी खानी छोड़ दीं...फिर साहब को नींद न आने की शिकायत हो गई। वह न तो दिन में सोते थे, न रात में... फिर अचानक एक दिन अब्बू ने सुना कि साहब नींद में बड़बड़ा रहे हैं। वह उठकर उनकी चारपाई के पास गया। वह जो कुछ बड़बड़ा रहे थे वह अब्बू की समझ में नहीं आया। शायद साहब अंग्रेजी में कुछ कह रहे थे, पर साहब सो भी न रहे थे। अब्बू ने उनसे कुछ पूछा तो देखा साहब जाग रहे हैं, पर उन्होंने यह नहीं माना कि वह अंग्रेजी में कुछ बोल रहे थे।

धीरे-धीरे यह होने लगा कि साहब रात-रातभर अंग्रेजी बोला करते थे। कभी लगता था कि वह किसी पर नाराज हैं, लड़ रहे हैं, गुस्सा कर रहे हैं। कभी लगता था याचना कर रहे हैं। धीरे-धीरे रोनी-सी आवाज में विनती कर रहे हैं। कभी लगता कि साहब बड़े प्यारभरे लहजे में ऐसे बोल रहे हैं-जैसे बच्चों से बोला जाता है। अब्बू और बक्कू ही नहीं घर के सब लोग यही समझते थे कि साहब का दिमाग पलट गया है, लेकिन दिन में साहब की हालत ठीक हो जाती थी। ठीक-ठाक बातचीत करने लगते थे। उन्हें पूरी उम्मीद थी कि गठिया का रोग मौसम बदलतेे ही ठीक हो जाएगा और वह आराम से चल-फिर सकेंगे, लेकिन गर्मियां आईं, फिर बरसात आई और फिर जाड़ा आया पर साहब चल-फिर न सके। उनका वजन भी तेजी से घटता चला गया और उसी तेजी से रात में उनका अंग्रेजी में बड़बड़ाना भी बढ़ता चला गया।

एक रात साहब कुछ नाम ले-लेकर आवाज देते रहे, लेकिन वह लोग कौन हैं, कहां हैं, यह किसी को मालूम न था, गांव के बड़े-बुजुर्गों ने सिर्फ अंदाजा लगाया कि साहब अपने बेटे-बेटी और घरवाली को ही आवाजें दे रहे हैं। उनके पुकारने के जवाब में अगर तक्कू या अब्बू बोल देते तो साहब चुप हो जाते थे, फिर अचानक साहब एक रात चीखने-चिल्लाने और रोने लगे। उनकी सांस भी उखड़ने लगी। मुंह से आवाज निकलनी बंद हो गई और साहब इस दुनिया से रुखसत हो गये।

साहब के मरने की चिट्ठी लंदन नहीं भेजी जा सकी, क्योंकि साहब ने जितनी चिट्ठियाँ लिखवाईं थीं और उन चिट्ठियों में मरने की वजहें लिखवाई थी, उनसे साहब न मरे थे। न तो साहब को जूड़ी देकर तेज बुखार आया था, न हैजा हुआ था, न चेचक हुई थी, न सांप के काटे से मरे थे और न कुएं-तालाब में डूबकर मरे थे, न घर में आग लगने से, न डाकुओं ने हत्या की थी।

साहब के नाम विलायत से जो खत आया करते थे। लगातार अपने हिसाब से यानी तीन-चार महीने में एक खत आता रहा। उसको पढ़ता कौन और जवाब कौन देता? इसलिए तक्कू खतों को साहब के काले बक्से में डाल देता था। होते-होते दो साल हो गये। साहब के पांच खत आये थे।

एक दिन गांव में सुनने को मिला कि कलट्टर साहब इलाके के दौरे पर आ रहे हैं और वे गांव भी आएंगे। गांव में आकर वह साहब के बारे में तहक़ीक़ात करेंगे। यह सुनते ही तक्कू और अब्बू को दस्त लग गया था। दोनों के चेहरे पीले पड़ गये थे। गांव में तरह-तरह की बातें फैल गईं थीं। कोई कहता था कि साहब अपनी मौत नहीं मरे हैं। तक्कू और अब्बू ने उनके सामान पर कब्जा जमाने के लिए उनका गला दबाया था। कोई कहता था कि तक्कू और अब्बू ने साहब की आखिरी वसीयत, कि उनकी लाश गांव में ही दफन की जाए, पूरी नहीं की है और इस बात का पता कलट्टर साहब को चल गया है। कोई कहता था कि साहब कलट्टर साहब के सपने में आये थे और उन्होंने तक्कू और अब्बू के बारे में अंग्रेजी में शिकायत की थी। कुछ लोग बताते थे कि साहब की अंग्रेजन ने अंग्रेजी में लिखकर एक शिकायत शहंशाहे इंगलिस्तान को दी थी। यह शिकायत लंदन दरबार से सात समंदर पार हिंदोस्तान आ गई है। उसी पर कार्रवाई करने कलट्टर साहब आ रहे हैं।

बहरहाल, जितने मुंह थे, उतनी ही बातें थीं। तक्कू और अब्बू में मोहर्रम आ गया था। चूल्हा तक न जलता था और औरतें सोग मनाये बैठी थीं। यह भी कहा जा रहा था कि तक्कू और अब्बू की जमीनें कुर्क हो जाएंगी और दोनों को फांसी पर चढ़ा दिया जाएगा। कोई कहता था कि कम-से-कम काला पानी तो भेज ही दिया जाएगा। तक्कू-अब्बू ने खाना-पीना छोड़ दिया था। दिनभर नीम के पेड़ के नीचे पड़े आपस में पता नहीं क्या-क्या बातें किया करते थे। गांव के बड़े-बूढ़े उन्हें समझाते थे कि डरने की कोई बात नहीं है और जार्ज पंचम के दरबार में ऐसी नाइंसाफी नहीं हो सकती। पूरा गांव गवाही देगा कि साहब अपने आप मरे हैं।

कलट्टर साहब की मोटर के लिए कच्चा रास्ता बनने लगा था और पटवारी ने गांव के खाते में बीस बेगारी लिख दिये थे। तो बीस बेगारी जाया करते थे। एक महीने में रास्ता तैयार हुआ था। नवाब हैदर खां के आम के बाग में बड़ा-सा शामियाना लगा था जहां कलट्टर साब को दरबार करना था। शामियाने के पीछे कलट्टर साब के रहने के लिए फूस का बंगला भी तैयार हो गया था। उसके पीछे डिप्टी कलट्टरों, तहसीलदारों, नायबों और दूसरे अमले के लिए छोटे-बड़े हस्बे-हैसियत बंगले तैयार किये गये थे। पीछे अर्दलियों, गुमाश्तों, नौकरों के लिए झोपडि़यां डाली गई थीं। पुलिस के लिए अलग इंतजाम था। मेरठ से गैस बत्तियां, चोर-बत्तियां, मेज-कुर्सियां मंगवाई गईं थीं। कलट्टर साहब के आने से पहले ही पूरा अमला आ गया था। धोबी, भिश्ती, नाई, बावर्ची, खानसामा सब जमा हो गये थे। पूरे इलाके को सांप सूंघ गया था। किसी की हिम्मत न थी कि जोर से सांस भी ले सके।

कलट्टर साहब ने दरबार किया। आखिरी दिन तक्कू और अब्बू की पेशी हुई। यह दोनों साहब का एक-एक सामान लिए हाजिर थे। यहां तक कि साहब का तकिया, दरी और चादर तक ले गये थे। साहब के कागज पत्तर भी उनके साथ थे। कलक्टर साहब ने उन खतों को खोला जो साहब के मरने के बाद आये थे। उन्हें पढ़ा, तक्कू-अब्बू ने साहब से पहले कोई अंग्रेज न देखा था। वह दोनों साहब का लाल चेहरा और भूरे बाल देखकर खौफजदा हो गये थे। दोनों पत्ते की तरह कांप रहे थे और हाथ जोड़े खड़े थे। उनके हलक और जुबान सूख गईं थीं और कुछ पूछा जाता तो बोल न सकते थे।

कलट्टर साहब को वह खत भी दिये गये जो साहब ने इस बाबत लिखकर दिये थे कि अगर उनकी मौत इस तरह से हो तो 'ये' खत डाला जाए और उस तरह से हो तो 'वह' खत डाला जाए। कलट्टर साहब ने उन खतों को भी पढ़ा। डिप्टी साहब से अंग्रेजी में बातचीत की और हुक्म दिया कि तक्कू-अब्बू जा सकते हैं। दोनों किस तरह घर आये थे, ये इन्हें मालूम नहीं, पर दोनों को तेज बुखार आ गया था और औरतें रात-दिन इनके जिस्म पर पीपल के पत्ते फेरा करती थीं। हकीम शफीउल्ला की दो खुराकें रोज दी जाती थीं। अल्लाह-अल्लाह करके पंद्रह दिन में बुखार उतरा था। साहब का सामान इन्हीं लोगों को दे दिया गया था, पर ये दोनों उसे निगाह उठाकर देखने की हिम्मत भी नहीं करते थे। किस्मत का करना कुछ ऐसा हुआ कि साहब का भतीजा तक्कू का लड़का जावेद पढ़ाई-लिखाई में तेज निकला और गांव, कस्बे और शहर की पढ़ाई पूरी करने के बाद दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कालेज में दाखिल हो गया। तक्कू और अब्बू ही नहीं बल्कि पूरे गांव को यह यकीन था कि जावेद बैरिस्टर बनेगा और फिर किस्मत ने जोर मारा। जावेद कालेज में अव्वल आया और उसे विलायत जाकर पढ़ाई करने का वजीफा मिल गया। विलायत जाने से पहले वह गांव आया। उसने साहब का वह बड़ा-सा बक्सा खोला जिसमें वह अपने खत रखते थे। साहब को मरे बीस साल हो चुके थे, लेकिन बक्से में उनकी एक-एक चीज करीने से रखी थी। जावेद ने साहब के पास लंदन से आये खतों को पढ़ा और कई पते नोट किये।

जावेद को पानी के जहाज पर बैठाने बंबई तक कई लोग गये थे। वह क्ऽफ्क् का साल था और सितंबर का महीना था। जावेद को लंदन भेजने के लिए उसकी मां तैयार नहीं थी और कहती थी कि जावेद को लंदन भेजा तो मैं सांप के बिल में हाथ डाल दूंगी या संखिया खाके सो जाऊंगी, लेकिन जावेद जानता था कि उसका लंदन जाना कितना जरूरी है। उसने मां को समझा लिया था पर मां को यह मालूम था कि लंदन में गोरी औरतें मर्दों को फंसा लेती हैं, इसलिए मां के जोर डालने पर लंदन जाने से पहले जावेद का निकाह भी कर दिया गया था।

जावेद के लंदन जाने के कोई दो महीने बाद उसका एक खत आया था जिसमें लिखा था कि वह साहब के घर गया था। साहब के लड़के राबर्ट से मिला था और साहब की लड़की विक्टोरिया ने भी उसकी अच्छी खातिर-मदारात की थी। वह दोनों अपने बाप यानी साहब को याद करके बहुत दुःखी हो गये थे कि पता नहीं हिंदुस्तान के गांव में साहब की जिंदगी कैसे कटी होगी? लेकिन जावेद ने जब सब-कुछ उन्हें तफसील से बताया तो उनको कुछ चैन आया था। जावेद ने यह भी लिखा था कि ये लोग साहब का सामान, उनके कागज-पत्तर मांग रहे हैं और चाहते थे कि पार्सल के जरिये साहब का पूरा बक्सा लंदन भेज दिया जाए। तक्कू मियां ने साहब का बक्सा सहारनपुर के मुख्तारे-आम बाबू जानकी प्रसाद मिसरा के जरिये लंदन भिजवा दिया था, जजिस पर इक्कीस रुपये तेरह आने खर्च आया था। यह भी बड़ी बात थी कि तक्कू मियां ने बक्सा भिजवाने पर इतना ज्यादा पैसा खर्च कर दिया था।

यह तो हुई जगबीती। अब मैं आपको आपबीती सुनाता हूं। ऊपरवाले वाकये में, अगर कोई लाग-लपेट है तो उसकी जिम्मेदारी सुनानेवाले पर है। अब जो मैं आपको बताने जा रहा हूं वह मेरे अपने साथ हुआ है और जो हुआ है वह सब सच-सच आपके सामने रख रहा हूं।

जब हिंदुस्तान का बंटवारा हुआ तो मेरी उम्र चौदह साल थी। मेरा परिवार बुलंदशहर जिले के डिबाई कस्बे में रहता था। इस कस्बे की एक गली को सैयदवाड़ा कहा जाता है। वहीं हम लोग रहते थे। चारों तरफ मारकाट मची थी। हमारे कस्बे और शहर में कुछ न था, लेकिन लोगों के दिमागों के अंदर उथल-पुथल चल रही थी। अचानक एक दिन मेरठ से मेरे मामू आये और बताया कि पूरा खानदान पाकिस्तान जा रहा है। दिल्ली से स्पेशल ट्रेन चल रही है जिसे मिलेट्रीवालों की हिफाजत में भेजा जा रहा है। इससे पहले गई ट्रेनों में बड़ी मारकाट हुई थी, लेकिन इस ट्रेन के साथ ऐसा नहीं होगा। मामू ने कहा कि बड़ी मुश्किल से मैंने इस ट्रेन के दस टिकट हासिल कर लिये हैं, अगर तुम लोग चलना चाहो तो चलो। हमारे अब्बा और अश्मा ने सोचा कि पूरा खानदान ही जा रहा है तो हम लोग यहां रहकर क्या करेंगे? हमने भी बिस्तर बांध लिया। डिबाई में हम लोगों के साथ ही रिश्ते के एक चचा रहते थे। उनके हवाले घर किया और हम लोग जरूरी समान लेकर तड़के दो इक्कों पर सवार होकर इस तरह निकले कि हमारे जाने की किसी को खबर न हो।

इक्कों से हम अलीगढ़ आये। वहां से दिल्ली पहुंचे। दिल्ली के पास फरीदाबाद रेलवे स्टेशन से स्पेशल छूटनी थी। हम वहां गये। मेरी मां ने मेरी बनियान में पांच हजार रुपये सी दिये थे। छोटे भाई के कपड़ों के साथ भी पैसे सिये थे। अब्बा की शेरवानी के अस्तर में पैसे सिये गये थे।

स्टेशन पर ट्रेन आई तो अजीब-सी लगी। हर चार-पांच डिब्बों के बीच एक खुली हुई बोगी लगी थी जिसमें आर्मीवाले रेत के बोरे लगाये, छोटी-छोटी बैरकों में तैनात थे। गार्ड के डिब्बे के पीछे भी एक आर्मी का मोर्चा-जैसा डिब्बा था और इंजन के आगे भी एक इसी तरह का डिब्बा लगाया गया था। सवारी डिब्बों की खिड़कियों पर लकड़ी के तख्ते जड़े हुए थे।

डिब्बे में छप्पन लोगों के बैठने की जगह थी लेकिन उसमें एक सौ छप्पन लोग बैठे थे। यह बता दिया गया था कि गाड़ी पाकिस्तान आने से पहले नहीं रुकेगी, इसलिए जितना जो इंतजाम कर सकता है, करके बैठे। बेहिसाब सामान ले जाने की इजाजत नहीं थी। जो लोग फालतू सामान ले जाना चाहते थे, उन्हें छोड़ दिये जाने की धमकी दी जाती थी।

ट्रेन रवाना हुई। कब रात हो गई पता ही नहीं चला। जो लोग खिड़कियों के पास बैठे थे, वे झिर्रियों से आंखें लगाये कुछ देखकर बता देते थे। अक्सर स्टेशनों के नाम सुनने में आ जाते थे लेकिन गाड़ी वहां रुकती नहीं थी। कुछ देर बाद, आधी रात के आसपास गाड़ी रुक गई। मिलेट्रीवालों ने ट्रेन के दोनों तरफ मोर्चे लगा लिये। आसपास में अचानक तेज रोशनी दिखाई पड़ी और गोलियां चलने की आवाजें आने लगीं। लोगों ने बताया कि आर्मीवाले फसादियों को भगा रहे हैं। पांच-छह घंटे गाड़ी वहीं खड़ी रही। उजाला हो गया तो पता चला कि इंजन यह देखने के लिए आगे चला गया है कि रेल की पटरियां तो उखड़ी हुई नहीं हैं? इंजन वापस आया। ट्रेन में फिर लगा और ट्रेन चली, लेकिन रफ्तार बहुत ही धीमी थी। जैसे फूंक-फूंककर कदम रख रही हो।

डिब्बे के अंदर उठने की तो छोडि़ए, पहलू बदलने की भी जगह न थी। शुरू-शुरू में तो काफी चीख-पुकार थी लेकिन फिर इस तरह सन्नाटा छा गया जैसे कोई जिंदा ही न हो। दिल्ली से लाहौर तक का सफर अड़तालीस घंटे में तय हुआ था।

अब जो कुछ मेरी जिंदगी में हो रहा था, सपना था। रात में मुझे डिबाई के सपने आते थे। मैं लाख चाहता था कि रात में डिबाई के सपने न आएं, लेकिन यह नामुमकिन था। सालों गुजर चुके थे लाहौर आये। शादी हो गई थी। बच्चे हो गये थे लेकिन डिबाई के सपने आना बंद नहीं हुए। मैं किसी से कुछ कह भी नहीं सकता था। मैंने बीवी को समझा दिया था कि घबराने की कोई बात नहीं है, मुझे डरावने ख्वाब दिखाई देते हैं। वह बिचारी मेरी बात को सच समझी थी और मुझसे हमदर्दी रखने लगी थी।

साल-पर-साल गुजरते रहे। यहां तक कि मैं बूढ़ा होने लगा। मतलब साठ के ऊपर का हो गया, लेकिन मुझे यही लगता था कि मैं डिबाई में रह रहा हूं। यह वही गली है। इसी गली में शियों की मस्जिद है। आगे चलकर पंडित राम आसरे का घर है। लाहौर की किसी गली से गुजरते हुए मुझे पंडित राम आसरे की आवाज सुनाई पड़ जाती।

मैं कांपने लगता हूं। यार, ये क्या है? मुझे चामुंडा के मंदिर के ऊपर पीपल के ऊंचे-ऊंचे पेड़ों के पत्तों के खड़खड़ाने की आवाज सुनाई देती है और फिर किसी डगाल से कोई बंदर धम्म से मंदिर की छत पर कूदता है और मेरा कलेजा दहल जाता है। या अल्लाह, मैं क्या करूं?

दिन में तो मैं फिर भी किसी तरह अपने को काबू में रखता, लेकिन रात होते ही, और सोते ही, मैं कुछ नहीं कर सकता। एक पुरानी फिल्म चलने लगती है, जिसमें रोज नया होता है। आज सुइया के पुल पर हम लोग आम खा रहे हैं। महेश गुठलियां पानी में फेंक रहा है। पता नहीं कैसे वह नाले में गिर पड़ा। हम सबने उसे नाले से निकाला। चामुंडा से बाहर निकले तो तेज लू चल रही है और ऐसी गर्मी थी जिसमें चील तक अंडा छोड़ देती है। हम चार दोस्त कर्बला तक आये और गेट के नीचे बैठकर गोटियां खेलने लगे। आज महेश बहुत हारा। वह रोने लगा तो मैंने उसे गुड़ दे दिया, जो मैं अम्मा से छिपाकर अपनी जेब में रखकर लाया था।

रोज रात को एक पुराना सपना नये तरह से दिखाई देता है।

सत्तर साल पार कर जाने के बाद भी सब-कुछ ऐसा ही रहा तो मुझे ख्याल आया-यह पूरा जनम तो 'इस' संसार में बिता लिया। अब दूसरा जनम जाने कहां होगा तो क्यों न वह जगह देखी जाए जहां जीवनभर रहा हूं। लाहौर में तो मैं रहा ही नहीं।

हिसाब-खिताब देखा, पैसा-वैसा तो ठीक ही है। दोनों बच्चे पढ़-लिख गये हैं। शादियां हो गई हैं, बच्चे हो गये हैं। पूरी तरह सेटल हैं, लेकिन मैं 'सेटल' नहीं हूं। तो मैं अपने को 'सेटल' करने का काम शुरू कर सकता हूं।

भारत के वीजा के लिए अप्लाई किया। वजह बतानेवाले कालम में लिखा 'अपने को सेटेल' करना। इस पर वीजा आफिसर बहुत हँसा। बोला, ''जनाब...कोई समझ में आनेवाली वजह लिखिए। बिजनेस करना, शादी में जाना है, कोई गमी हो गई है। वगैरा...वगैरा...?''

मैंने लिखा, 'क्या गमी हो सकती है?' वह फिर चिढ़ गया और मुझसे पूछे बगैर लिख दिया 'गमी हो गई है।'

रात अपने बेडरूम में लेटकर मैं देर तक भारत के वीजे को देखता रहा और डरता रहा। एक अजीब तरह का डर जिसे बताया नहीं जा सकता। भारत के साथ लड़ाइयां, भारत के खिलाफ नफरतभरा 'प्रोपेगेंडा'। भारत में हिंदू-मुस्लिम फसादात...सब-कुछ आंखों के सामने घूमने लगा, लेकिन फिर खयाल आया मैं भारत कहां जा रहा हूं, मैं तो डिबाई जा रहा हूं जिसे मैं सोते में अब भी देखता रहता हूं, जहां की आवाजें मुझे चाहे-अनचाहे सुनाई देती रहती हैं। चामुंडा के मंदिर के बराबर पीपल के पेड़ पर बंदरों की कें..कें..कें.. मेरे कानों में कहीं भी गूंज जाती है, लेकिन डिबाई जाने के लिए भारत जाना पड़ेगा। भारत में मुझे कोई पकड़ न ले? मुझ पर पाकिस्तानी जासूस होने का इल्जाम तो लगाया ही जा सकता है। मुझे मुसलमान समझकर भी नुकसान पहुंचाया जा सकता है। हिंदू-मुस्लिम फसाद हो गया तो मैं भाग भी न पाऊंगा। जिस-जिस हिंदू को पता चलेगा कि मैं पाकिस्तानी हूं वह नफरत से मेरी तरफ देखेगा। मैं बुढ़ापे में यह सब बर्दाश्त कर पाऊंगा? अगर नहीं तो फिर मैं क्यों जा रहा हूं? तो क्या न जाऊं?...लगा किसी ने सिर पर एक भारी पत्थर मार दिया हो। चामुंडा के मंदिर की छत पर बंदर कूदने लगे...आम के बाग में कुंजड़ों का खटहरा चीखने लगा...मैं जाऊंगा...जरूर जाऊंगा...क्यों कोई मुझे मारेगा? क्या मेरे चेहरे पर लिखा है कि मैं मुसलमान हूं? मैं दाढ़ी नहीं रखता, मेरे माथे पर गट्टस्न नहीं है। मैं कट्टर मुसलमानोंवाले कपड़े नहीं पहनता...कोई मुझे क्यों पहचानेगा कि मैं मुसलमान हूं।

इतने सालों के उतार-चढ़ाव के बाद अब भारत में मैं सिर्फ साजिद रहमान को ही जानता हूं। वह मेरी रिश्ते की एक बहन का सबसे छोटा बेटा है और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में पढ़ाता है। मैंने उसे अपने भारत आने का प्रोग्राम लिखा और उसका जवाब आया कि वह मुझे लेने एयरपोर्ट आएगा और मैं जहां-जहां जाना चाहता हूं, वहां-वहां ले जाएगा। मैंने उसे जवाब दिया था कि मैं सिर्फ डिबाई जाना चाहता हूं, और कहीं नहीं जाना चाहता। सिर्फ एक दिन डिबाई में गुजारकर वापस चला आऊंगा। डिबाई में इसलिए नहीं रुकना चाहता कि वहां रहूंगा कहां?

दिल्ली हवाई अड्डे पर उतरते ही मुझे अनायास लगने लगा था कि मैं सतर्क हो गया हूं। मैं हर काम अपने पूरे होशो-हवास में करने की कोशिश कर रहा हूं। ये नहीं कि कोई मेरे ऊपर निगाह रख रहा है और ये भी नहीं कि मैं किसी भी गलती पर पकड़ा जा सकता हूं पर यह जरूर है कि मुझे सावधान रहना चाहिए। मैं इमीग्रेशन की लाइन में बड़ी शालीनता से खड़ा हुआ। एक-दो लोग मेरे आगे आकर खड़े हो गये थे, लेकिन मैंने कोई एतराज नहीं किया था। जब मेरा नंबर आया तो मेरा दिल धड़क रहा था, लेकिन मैं चेहरे पर पूरी गंभीरता और विश्वास के भाव संजोये हुए था, फिर मुझे लगा कि ये भाव कहीं मेरे अंदर के डर को न रेखांकित कर दें। इसलिए मैं मुस्कुराने लगा, पर अंदर से कांप रहा था। मुझे लगता जरूर कुछ-न-कुछ गड़बड़ हो जाएगी और मुझे वापस लौटाया जा सकता है, लेकिन जब मेरी बारी आई और सिख पुलिस अफसर ने मेरा पासपोर्ट और कागज हाथ से लिए तो मेरी जान ही निकल गई। सिख, सुना था, मुसलमानों से बहुत नफरत करते हैं। उन्हें दंगों वगैरह में बहुत मारा गया था। कत्ले-आम किया गया था। मैं सन्नाटा मारे खड़ा रहा, सिख अफसर ने मेरे कागज देखकर ठप्पे लगाये। कायदे से मुझे आगे बढ़ जाना चाहिए था, लेकिन मैं कुछ सेकंड के लिए वहां खड़ा-का-खड़ा रह गया, फिर खयाल आया कि मैं क्या कर रहा हूं? यह तो पहले अपने आप को 'गिल्टी' साबित करने जैसा काम है। मैं तेजी से आगे बढ़ गया।

दिल्ली हवाई अड्डे के बाहर मुझे साजिद मिल गया। उसके साथ एक साहब और मिले जिनका तआरुफ यह कहकर कराया गया कि यह डा. शर्मा हैं और हिंदी के लेक्चरर हैं। मैं कुछ पसोपेश में पड़ गया लेकिन जल्दी ही यह बात मेरी समझ में आ गई कि साजिद ने बड़ी अक्लमंदी का काम किया है।

होटल में सामान-वामान रखने के बाद साजिद ने मेरा पासपोर्ट देखा और एक बहुत बड़ी गलती का पता चला। मैंने दिल्ली और अलीगढ़ का वीजा लिया था। साजिद ने बताया कि डिबाई तो बुलंदशहर जिले में है और मुझे बुलंदशहर का वीजा लेना चाहिए था। मेरे हाथों के तो तोते ही उड़ गये। या अल्लाह यह मैंने क्या कर डाला! मैं यह क्यों समझे बैठा था कि डिबाई अलीगढ़ जिले में है? वजह यह रही होगी कि हम लोग अलीगढ़ होते हुए ही डिबाई से लखनऊ आया-जाया करते थे। यही वजह थी कि मैं डिबाई को अलीगढ़ जिले में समझ बैठा था।

''अब क्या किया जाए?'' मैंने साजिद से पूछा।

सूरते-हाल पता चली कि अब दिल्ली में नया वीजा लगना तो करीब-करीब नामुमकिन है और यह हो ही नहीं सकता कि बुलंदशहर का वीजा लगवाने इस्लामाबाद जाऊं? रास्ता यह है कि मैं...मैं कांप गया और बेसाख्ता नहीं-नहीं कहने लगा। सत्तर साल की उम्र में, एक अच्छी-खासी हैसियत का आदमी होने के बाद अपने को जेल की सलाखों के पीछे खड़ा देखकर घबरा गया।

''यह मैं नहीं करूंगा।''

''अंकलजी... घबराने की कोई बात नहीं है?'' डा. शर्मा बोले और मैं हैरत से उनका चेहरा देखने लगा। उनके चेहरे पर विश्वास और दोस्ती थी। ये दोनों मुझे समझाते रहे कि कुछ न होगा, लेकिन मेरी परेशानी कम नहीं हुई। मैं न तो नहीं कह सकता था और न हां।

''अंकल आप को देखकर कौन कह सकता है कि आप पाकिस्तानी हैं?'' डा. शर्मा ने कहा।

''मैं तो कह ही रहा हूं कि चलिए।'' साजिद ने कहा

''मैं सब संभाल लूंगा। यह कैसे हो सकता है कि आप पचास साल बाद अपना गांव देखने आये हैं और बिना देखे चले जाएं?''

मैं टुकुर-टुकुर शर्मा की तरफ देखने लगा। जैसे तोता जाल में फंसने के बाद चिड़ीमार को देखता है।

''आपको कुछ न होगा।''

''देखो बेटा, मेरे दिल के दो आपरेशन हो चुके हैं।''

''सर मैं आपसे कैसे कहूं कि कुछ न होगा... मेरे मामा लखनऊ में डी.आई.जी. हैं। मेरे पिताजी रिटायर्ड चीफ इंजीनियर हैं...मेरा भाई आई.आर.एस. में है। आप भी अंकल...।'' शर्मा ने पूरे यकीन से कहा।

तय यह पाया कि मैं आराम करूं, फिर थाने जाकर रिपोर्ट करूं। अपने को 'कंपोज' करूं-लाहौर फोन करके बेगम साहिबा से बात कर लूं और फिर सो जाऊं।

सब-कुछ मेरे लिए नया है। पचास साल पहले की यादें खत्म हो चुकी हैं। रास्ते, इमारतें, पेड़-पौधे, पुल और नदी-नाले लगता है सब नये हैं।

मैं गाड़ी की पिछली सीट पर साजिद और शर्मा के साथ बैठा हूं। ड्राइवर के बराबरवाली सीट पर एक बावर्दी सिपाही बैठा है। यह शर्माजी का कमाल है। उन्होंने मेरा विश्वास बढ़ाने के लिए इस सिपाही का इंतजाम किया है। अब हम पुलिस की हिफाजत में हैं। हमें कौन रोक सकता है? अगर पुलिस ने रोका भी तो पुलिस का सिपाही, डी.आई.जी. आर.के. शर्मा का नाम लेगा और हम आगे बढ़ जाएंगे।

गाड़ी हिचकोले खाती गुजर रही थी। मैं सब-कुछ इस तरह देख रहा था कि जिंदगी में दोबारा यह सब न देख पाऊंगा।

''अब हम डिबाई आ गये हैं।'' शर्मा ने कहा।

मैंने इधर-उधर देखा। ये तो नहीं है। एक कच्ची सड़क बड़े नीले तालाब के पास से मुड़ती थी। सड़क के दोनों तरफ देसी आम के बड़े-बड़े पेड़ थे। आगे थाना था। खपरैल की इमारत के सामने पीपल का पेड़ था। उसके तने के पास एक छोटी-सी मूर्ति रखी रहती थी। बाईं तरफ दारोगाजी की घोड़ी बंधी रहती थी, जिसे कभी किसी ने कहीं और न देखा था। दारोगाजी जब निकलते थे तो बड़ी शान से लखनऊ का कुर्ता-चूड़ीदार पैजामा पहनते और टोपी लगाते थे। उनके पीछे पूरी वर्दी में दो सिपाही हाथ बांधे चला करते थे। दारोगाजी को वर्दी में शायद ही किसी ने देखा हो। दारोगाजी ठाकुर राम सिंह की हवेली तक आते थे और कुछ देर बैठकर लौट जाते थे। थाने के बाद इसी सड़क पर सरकारी अस्पताल था। वह भी नजर नहीं आ रहा है।

''यह डिबाई है?'' मैंने हिचकिचाते हुए पूछा।

''हां अंकल, यह डिबाई है।''

''वह पक्का तालाब कहां है?''

''सामने आप दुकानें देख रहे हैं... उनके पीछे छिप गया है। वैसे भी अब तालाब में कम ही पानी है। पिछले साल यहां बारिश नहीं हुई है...सूखा पड़ा है।''

एक जगह गाड़ी रोक दी गई। सिपाही और ड्राइवर को गाड़ी के पास छोड़ दिया गया और हम लोग आगे बढ़े। अब हम पुराने कस्बे की तरफ जाने लगे।

''अंकल, यहां किस मोहल्ले में आपका घर था?'' शर्मा ने पूछा।

''सैयदबाड़ा।''

हम पूछते-पूछते सैयदबाड़ा आ गये।

''यही है वह मोहल्ला?'' साजिद ने पूछा।

मैं इधर-उधर देखने लगा। कुछ पता नहीं चला क्योंकि पुरानी निशानियां गायब हो चुकी थीं।

''पता नहीं।'' मैं धीरे से बोला और अपने आप पर शर्म आने लगी। आगे बढ़ साजिद ने दो-एक लोगों से पूछा और सबने यही बताया कि यही सैयदबाड़ा है। एक पतली-सी गली के दोनों तरफ मकान बने थे। अब यह तय हो गया कि सैयदबाड़ा यही है। मैं इस गली में इन दो लोगों के साथ अपना मकान तलाश करने लगा। मेरे दिल में एक ऐसी हलचल, ऐसा तूफान और ऐसी बेचैनी थी जिसे बताया नहीं जा सकता। लगता था कि मुझे अपने ऊपर काबू ही नहीं है। पूरी गली देख डाली पर मुझे अपना मकान नहीं मिला। जहां मैं पैदा हुआ था। जहां बचपन और लड़कपन बीता था।

''अंकल और कोई निशानी याद है?'' शर्मा ने पूछा जब हम तीनों हताश एक जगह खड़े थे।

''गली में शियों की मस्जिद थी...हमारा घर मस्जिद से आठवां मकान था।'' मैंने कहा। शियों की मस्जिद जल्दी ही मिल गई।

''यह वही मस्जिद है।'' साजिद ने कहा।

''हां, वही है।'' मैंने खुद अपनी आवाज को कांपते महसूस किया। मस्जिद का लोहे की सलाखोंवाला दरवाजा बंद था। पूछा तो बताया गया कि सामनेवाले घर में चाबी है। साजिद चाबी ले आये। ताला खोला गया। हम मस्जिद में आ गये। मुझे पहली बार लगा कि मैं डिबाई में हूं। ये लोग मुझसे कुछ कह या पूछ रहे थे लेकिन मुझे सुनाई नहीं दे रहा था।

जाड़े की सर्द रात तेज ठंडी हवा चल रही है। आधी रात ओले पड़े हैं लेकिन दादी फ़जर की नमाज के लिए चार बजे उठ गई हैं।

''शज्जू...ऐ शज्जू...उठो...नमाज का वक्त हो गया है।'' मैं बिस्तर पर बेखबर सो रहा हूं।

''शाकिर...उठो...तुम्हीं ने तो कहा था कि...मुझे मस्जिद में अजान देनी है। उठो...।''

मैं बिस्तर पर बेखबर नहीं...कसमसा रहा हूं।

गली में सर्द हवा के तेज झोंके...मैं लिहाफ ओढ़े हूं...मस्जिद के ठंडे पानी से वजू कर रहा हूं।

''अल्लाह हो अकबर...।'' ठिठुरती हुई आवाज कहां तक पहुंच रही होगी मुझे भी नहीं मालूम।

''यह मस्जिद वही है।'' शर्मा ने पूछा।

''वही है।'' मैंने कई बार पूछने पर जवाब दिया।

''लेकिन... वह हौज कहां है जहां पानी होता था?'' आसपास के लोग आ गये हैं। वे बताते हैं जब से नल लगा है, हौज बंद करा दिया गया है।

''...और यह लोहे का दरवाजा?''

''हां पहले लकड़ी का था... हर दो-चार साल बाद बदलना पड़ता था।''

मस्जिद के सहेन से आसमान का उतना ही टुकड़ा दिखाई देता है। अब भी मस्जिद उसी तरह सफेद चूने से पोती जाती है-जैसे उस जमाने में। ये दर, ये दीवारें, ऊपर की छत, मीनारें और मिंबर। मैं खामोशी से यह सब नहीं देख रहा था। मेरे अंदर आवाजों का जमाट था। आवाजें-दादी की-दरुद शरीफ पढ़ने की आवाज, अब्बा की मर्सिया पढ़ने की आवाज, अम्मा की खाना खा लेने की पुकार, आपा की गुडि़या की शादी के गाने की आवाज।

साजिद और शर्मा कुछ अलग खड़े थे। वह चाहते थे कि मैं दिलभर कर वह सब सोच लूं, जो सोचना चाहता हूं। हमने मस्जिद से निकलकर घर गिनना शुरू किये। आठवां घर मेरा होना चाहिए।

''यही है आठवां घर।'' शर्मा ने कहा।

''पहचान रहे हैं आप?''

''नहीं ये नहीं है।'' मैं घर को ऊपर से नीचे देखता हुआ बोला।

''अंकल और कोई पहचान याद है गली की?'' शर्मा ने पूछा

''गली के नुक्कड़ पर छर्‍जू हलवाई की दुकान हुआ करती थी।''

छर्‍जू हलवाई की दुकान तलाश करने में कोई मुश्किल नहीं हुई। मैं हैरान हो गया। पता नहीं क्यों अब तक वैसी ही है ये दुकान-जैसी हुआ करती थी। धुएं से काली दीवारें सामने बड़ी-सी कढ़ाई, तख्त पर मिठाइयों के थाल...दुकान पर एक आदमी बैठा जलेबियां बना रहा था।

''क्यों भाई आप छर्‍जू हलवाई के कौन हैं।'' शर्मा ने पूछा

''मेरे दादाजी थे।'' वह बोला

''यहां इस गली में विकार हुसैन साहब का घर है?''

''वही जो पाकिस्तान चले गये थे?''

''हां-हां, वही।''

''उधर पांचवां घर है।''

''वहां अब कौन रहता है?''

''सराफ बाबू रहते हैं।''

हम घर गिनते आगे बढ़ने लगे।

''यही है रामलाल सराफ।'' दरवाजे पर लगी नेम प्लेट पढ़कर साजिद ने बताया।

''यही घर है अंकल?''

तीन दर गली में खुल रहे हैं। उनके बराबर सदर दरवाजा...तीन सीढ़ियाँ...हां, हां यही है...यही है...मैं घबरा कर गली में आगे बढ़ गया। शर्मा और साजिद दरवाजे पर खड़े रहे।

''आइए, अंदर से तो देख लीजिए।'' साजिद ने कहा।

''बस देख लिया...देख लिया।'' मैं रुका नहीं आगे बढ़ता चला गया। लगा कि एवरेस्ट फतह करके वापस लौट रहा हूं। मैं पीछे मुड़कर भी नहीं देखना चाहता था।

मैं आगे बढ़ता चला गया, मेरा सीना धौंकनी की तरह चल रहा था। मुझे न कुछ दिखाई दे रहा था और न सुनाई दे रहा था। मैं बस आगे निकल जाना चाहता था। अब मेरे अंदर हिम्मत नाम की कोई चीज न बची थी। मैं यह बर्दाश्त ही नहीं कर सकता था कि हर रात सपने में आने वाला मकान मेरे सामने मौजूद है। यह कैसे हो सकता है कि कल्पना सजीव हो उठी हो। मेरे अंदर डर और खुशी के जर्‍बे एकसाथ मिल गये थे। मुझे लगता था बस अब हो चुका...बस अब देख लिया। यह भी लगा कि वह सब अब कहां मिलेगा जिसकी तलाश में मैं आया हूं। वह अब कहीं है तो मेरे अंदर है। मुझे वह सब अपने अंदर ही देखना चाहिए। मेरे पैर रुक ही नहीं रहे थे।

मेरे पीछे से साजिद की आवाज आई।

''चलिए, वे लोग आपको बुला रहे हैं।''

''कौन?''

''सराफ साहब.. शर्मा ने उनसे बात कर ली है।''

मैं रुक गया। मैंने चेहरे से ढेर सारा पसीना पोंछा।

''नहीं, अब वापस चलो।''

''इतनी दूर आ गये हैं...मकान मिल गया है तो अंदर से भी देख लीजिए।''

''देख लिया...।''

''वे लोग बुरा मानेंगे।''

''कौन?''

''सराफ साहब... उन्हें शर्मा ने आपके बारे में बता दिया है।''

सदर दरवाजे पर एक अधेड़ उम्र आदमी कुर्ता-पैजामा पहने खड़े थे। उनके गले में सोने की एक मोटी-सी चेन थी। उनसे मुझे मिलवाया गया। उन्होंने बड़ी गर्मजोशी के साथ हाथ मिलाया और सदर दरवाजे से हम अंदर दाखिल हुए। बाईं तरफ वाली बैठक में आ गये। बैठक सजी हुई थी। उन्होंने तीनों बाहरी दरवाजे खोल दिये। मैं छत की तरफ देखने लगा।

साजिद और शर्मा के लाख छिपाने के बाद भी सराफ साहब को ये पता लग गया कि मैं पाकिस्तान से आया हूं। जाहिर है विकार हुसैन का बेटा और साबिर हुसैन का भतीजा पाकिस्तान से ही आया होगा। यह मकान मेरे चचा साबिर हुसैन ही बेचकर गये थे, क्योंकि पूरे खानदान में उन्होंने ही सबसे बाद हिजरत की थी।

''आपने छत बदलवाई है?''

''हां, पहले लकड़ी की पट्टियां थीं...मैंने दस साल पहले स्लेप लगवा दिया था।'' सराफ बोले। पानी आया, चाय आई, नाश्ता आया, घर के बच्चे सब-कुछ ला रहे थे। सराफ साहब की मेहरबानी से मैं मुत्तासिर हो गया।

''भाई जी, आज भी ये आपका ही घर है...जब तक चाहें, जितने दिन चाहें आराम से रहिए। हमें आपकी सेवा करके अच्छा ही लगेगा।'' सराफ बोले। मैं कमजोर हो गया था कि खामोश था। डर था कहीं रोने न लगूं। सराफजी ने अपनी बहू को बुलाया। उसने मेरे पैर छुए तो मैं अपने आंसू रोक नहीं पाया।

''जी, भगवान की कृपा से भरा-पूरा घर है। मेरे दो बेटे हैं। बड़े की शादी हो गई है। दो बच्चे हैं। दूसरा बेटा दिल्ली में है। मोटर पार्ट्स का काम है उसका। मेरी यहां हार्डवेयर की दुकान है। बड़ा बेटा संभालता है। मैं तो अब कम ही बैठता हूं। घुटनों ने मजबूर कर दिया है।'' सराफ ने तफसील से अपने पूरे खानदान के बारे में बताया।

''अंदर से घर देखेंगे?'' शर्मा ने मुझसे पूछा। वह शायद समझ गया था कि मैं जो चाहता हूं, वह कह नहीं पा रहा हूं। रंगा-चुना साफ-सुथरा आंगन, तीन तरफ बरामदे...बिल्कुल वही...आंखें बंद किये बगैर सपना देख रहा हूं और सपने में भी ये न सोचा था कि एक दिन यहां आ सकूंगा।

''इधर से...इस कमरे से बाहर आने का एक छोटा दरवाजा हुआ करता था?'' मैंने सराफ साहब से पूछा।

''हां, हां है...आइए।'' हम कमरे में आ गये।

''इसी कमरे में मैं पैदा हुआ था।'' मैंने कहा।

''वाह जी, वाह...यह तो हमारे लिए बड़ी बात है।'' सराफ बोले। मकान अंदर से देखकर फिर बैठक में आ गये। अब मेरा गला कुछ खुल गया था। मैंने कहा, 'उधर लकड़ी की एक चौकी होती थी जिस पर अब्बा नमाज पढ़ा करते थे। यहां, इधर कपड़े वाली दो कुर्सियां और सरपत वाली तीन कुर्सियां होती थीं।'

मैं यह सब उन लोगों को नहीं बता रहा था, अपने को फिर से याद दिला रहा था।

कुछ देर बाद मैंने सराफ साहब से पूछा, ''यहां चामुंडा का मंदिर है।''

''हां-हां जी है।'' वह बोले।

''मैं देखना चाहता हूं।'' मैंने गिड़गिड़ाकर कहा।

''हां-हां क्यों नहीं?''

''गाड़ी है हमारे पास...पक्के तालाब पर खड़ी है।''

''तब तो और अच्छा है...।''

''और छुइया का पुल भी देखना है।'' मैंने कहा और सराफ साहब हँसने लगे, ''हां-हां जी, जरूर।'' एक बरसाती नाले पर बने पुल को देखने की दिली ख्वाहिश पर हँसी आना अजीब लगा होगा।

''और कर्बला... ठाकुर साहब की हवेली।''

''हां-हां आपको सब दिखाएंगे।'' वह बोले।

हमारे लिए छुइया की पुलिया गांव की आखिरी हद हुआ करती थी। हमें वहां जाने की मनाही थी, क्योंकि वह सुनसान और वीरान जगह थी। नीचे से नाला बहता था जो बरसात में इतना बढ़ जाता था कि बाढ़ आ जाती थी और गांव के लड़के मछली पकड़ने निकल पड़ते थे। हम बड़ी हसरत से उन लड़कों को मछली पकड़ने के लिए जाते देखा करते थे।

मैं, सुरेश, अमीन, प्रभाकर और महेश दोपहर में सबकी नजरों से बचकर छुइया आते थे। सुरेश कमल के फूल तोड़ने की कोशिश में एक बार नाले में गिर पड़ा था और हमने बड़ी मुश्किल से उसे निकाला था। प्रभाकर अपने घर से गुड़ और चने ले आता था... मैंने सोचा सराफ साहब से सुरेश, प्रभाकर और महेश के बारे में पूछूं, लेकिन फिर डर और घबरा गया... लगा पता नहीं क्या बातें पता चलें और पता नहीं, उनमें से कितनी अच्छी हों और कितनी अच्छी न हों, इसलिए इन दोस्तों की यादें अपने दिल में ही महफूज रखूं।

मैंने झुककर छुइया को देखा। मुझे अपना अक्स ग्यारह साल के उस लड़के का लगा जो इस पुलिया पर बैठकर देसी आम चूसा करता था और गुठलियां छुइया में फेंका करता था, शायद बरसों से छुइया आम की उन गुठलियों के लिए तरस रही है। छुइया के उस पार सड़क के दोनों तरफ आम के बडे-बड़े बाग हैं।

''आम के ये बाग बहुत पुराने हैं।'', मैंने सराफ साहब से कहा।

''हां, बहुत पुराने हैं ... बाग देखेंगे?''

मुझे लेकर ये लोग बाग आ गये। डा. शर्मा ने दो-चार सीकलें ले लीं। मुझे आफर कीं, मैंने मना कर दिया और वे बड़े मजे में खाने लगे।

चामुंडा के मंदिर के सामने गाड़ी रुकी।

''यह मंदिर... इतना बड़ा...।'' मैं कुछ कहना चाहता था लेकिन सराफ बात पूरी करने से पहले बोले, ''मंदिर तो अब भी छोटा ही है...पुजारी के लिए दो कमरे बनाये गये हैं।''

हम मंदिर के अहाते में आ गये। पीपल के वही पुराने और लहीम-शहीम पेड़। मैं उनके पत्तों को हवा में हिलता देखता रहा। हर पत्ते पर मेरा नाम लिखा है। उन पत्तों पर भी जो अभी आजकल में ही निकले हैं, जिनका रंग पीला है और जो कमसिन लड़की के होठों-जैसे मुलायम हैं।

मंदिर की छत और पीपल के पेड़ों पर बंदरों की पूरी सेना मौजूद है। हम तपती दोपहरों में घरवालों को चकमा देकर यहां आ जाते, तब यह मंदिर सुनसान हुआ करता था। देवी बहुत सुकून से यहां आराम करती थी। हम यहां चबूतरे पर बैठ जाते थे और तालाब से तोड़े सिंघाड़े खाते थे। बंदर ललचाई नजरों से हमें देखते थे, जैसे कह रहे हों-'यार सब खाये जा रहे हो.. एक-आध तो हमें भी दे दो...'। इसी मंदिर के चबूतरे पर हाथ गुलेल बनाया करते थे। निशाना साधने की प्रेक्टिस किया करते थे, पर हमारे निशाने शायद गलत लग गये हैं, तब ही तो मैं बेवतन हो गया हूं... महेश और प्रभाकर के साथ देवी के दर्शन करता था, अब मुझे याद नहीं, लेकिन उस जमाने में पूजा की लाइनें याद हो गईं थीं जो मोहन पढ़ा करता था।

हमें देखकर पुजारी बाहर आ गये। उन्होंने दर्शन कराये और कहने लगा कि कमरों की छतों पर स्लैप तो डल गया है लेकिन गिट्टी नहीं पड़ी है। कोई 'श्रद्धालु अगर बीस हजार रुपये दे दे तो गिट्टी पड़ सकती है। सराफ साहब ने कहा, ''ये मेहमान हैं...आप बाद में मुझसे बात करना।'' कर्बला के आसपास कुछ नये घर बन गये हैं, लेकिन कर्बला का फाटक वही है। फाटक के कंगूरे, चौहदी वही है। मीनारों पर काली काई भी वैसी है। अंदर की तरफ दीवार में बनी ताक भी उसी तरह काली है जैसे मैंने देखी थी।

मुझे लाहौर में जो सपने आते थे, वे कितने सच होते थे। सपने में एक-एक 'डिटेल' हुआ करती थी। चामुंडा के मंदिर में आरती, मोहर्रम का जुलूस, छुरियों का मातम, मोहर्रम की सुबह ताजियों का ठंडा किया जाना। चार बजे शाम को फाका शिकनी... मैं अपने सपनों को ही साकार देख रहा था। एकटक, एक नजर में सब-कुछ भर लेना चाहता था।

''मैं कर्बला का चक्कर लगाना चाहता हूं।'' मैंने कहा।

''हां, हां चलिये'', शर्मा मेरे साथ हो लिए। हम गंदी नालियों और कूड़े के ढेर से बचते-बचते कर्बला का चक्कर लगाने लगे।

''वहां तो मोहर्रम बड़े जोर-शोर से मनाया जाता होगा?'' शर्मा ने पाकिस्तान के मोहर्रम के बारे में पूछा, मैंने कोई जवाब नहीं दिया, क्योंकि कोई सही जवाब मेरे दिमाग में नहीं आ रहा था, फिर खयाल आया कि कुछ-न-कुछ तो कहना ही चाहिए। मैंने धीरे से 'हां' कहा और कर्बला के दूसरे फाटक पर वह जगह देखने लगा जहां मैं अलम खडे़ कराता था। जहां अब्बाजान ताबूत रखते थे और जहां ताजिए टिकाये जाते थे। मैं वहां गया और मैंने उस जगह को छुआ तो लगा अब्बाजान, बड़े खालू, बन्ने चच्चा और अम्मा को छू लिया हो।

सब-कुछ देखकर वापस आये तो सराफ साहब के घर खाना तैयार था। मैंने दिल में सोचा, इस एहसान का बदला तो मैं चुका भी न पाऊंगा, क्योंकि सराफ साहब पाकिस्तान क्यों आएंगे? मैंने सोचा, काश मैं अपने साथ कोई अच्छा तोहफा रख लेता और सराफ साहब की बहू को दे देता, फिर खयाल आया कि बहू को तो पैसे भी दिये जा सकते हैं। मैंने बहू को बुलाकर उसे पांच सौ रुपये दिये...सराफ साहब बहुत रोकते रहे, लेकिन मैं नहीं माना। वापस जाने के लिए हम लोग सराफ साहब के घर से निकलकर गली में आ गये। एक छोटी-सी दुकान पर शर्मा ने सिगरेट खरीदी। दुकानदार को पैसे देने लगा तो उसने लेने से इनकार कर दिया। पूछने पर कि पैसे क्यों नहीं ले रहा है, उसने गली के दूसरी तरफ खड़े एक आदमी की तरफ इशारा कर दिया। मतलब यह था कि वह मना कर रहे हैं।

मैं उनके पास गया। कोई पैंसठ-सत्तर साल उम्र रही होगी। चेहरे पर लंबी दाढ़ी, माथे पर सिजदा करने का निशान। दुबला-पतला जिस्म। कुर्ता और तहमद पहने इन बुजुर्ग से पूछा तो बोले, ''मैं तुझसे पैसा लूंगा, पता नहीं कितने साल बाद तो तू आया है। तू मुझे न जानता होगा लेकिन मैं तुझे अच्छी तरह जानता हूं। तेरे बाप को भी जानता था, तेरा चचा मेरे साथ घूमता था।'' मैं हैरान खड़ा रह गया।

इससे पहले कि मैं अपनी आपबीती खत्म करूं आप लोगों को सिर्फ एक छोटा-सा प्रसंग और बताना चाहूंगा। लाहौर में मेरे दोस्त हैं अकरम अहमद। वह लखनऊ से लाहौर आये थे। पहली बार जब मुझसे मिले और पता चला कि हम दोनों मोहाजिर हैं, तो बोले, ''चलिए साहब, अपने देश की कुछ बातें हो जाएं।''

''अपने देश की?''

''हां-हां... हिंदुस्तान की बातें।'' वह राजदारी से बोले। मैं हैरत से देखने लगा।

''आपने सुना नहीं? कहते हैं...'' वे शेर-जैसा कुछ सुनाने लगे ''आंखें है इस देश में मेरी, दिल मेरा उस देश में है। दिन में पाकिस्तानी हूं मैं, रात में हिंदुस्तानी।''

मुझे अपने सपने याद आने लगे।

जैसा कि मैंने आप लोगों से वायदा किया था कि इस दास्तान में कुछ जगबीती है और कुछ आपबीती है और मैं दोनों को सुनाने से पहले बता दूंगा कि जगबीती क्या है और आपबीती क्या है। ...तो अब मैं आपको कुछ जगबीती सुनाने जा रहा हूं।

लाहौर में मेरी कंपनी को चीन से लकड़ी सप्लाई करने का एक बड़ा आर्डर मिला। कंपनी के मालिक और एम.डी. रौशन हबीब, जिन्हें सितार-ए-पाकिस्तान का खिताब भी मिल चुका है, मेरे बॉस थे। उन्होंने आर्डर दिया कि मैं लकड़ी का सौदा करने सूरीनाम जाऊं, जो लकड़ी के इंटरनेशनल बाजार का एक सेंटर है। मैं पारामारीबो के लिए रवाना हो गया। वहां बड़ी तादाद में वो लोग भी बसे हुए हैं जिन्हें डेढ़-दो सौ साल पहले हिंदुस्तान से वहां ले जाया गया था, ताकि उस इलाके में गन्ने की खेती कराई जा सके। इनमें से कुछ तो लौट आये थे लेकिन र्‍यादातर वहीं बस गये हैं।

अपने पारामारीबो में काम के दौरान मैं बहुत से ऐसे लोगों से मिला जिनके पुरखे हिंदुस्तान से वहां गये थे। इन लोगों में डा. अजीज भी थे। अब मैं जिनकी कहानी सुनाने जा रहा हूं। वह हैं डा. अजीज, जो पारामारीबो के जाने-माने डाक्टर हैं। उनकी बड़ी अच्छी प्रैक्टिस है। दूसरे कारोबारों में भी उन्होंने पैसा लगाया है। शहर से सौ किलोमीटर दूर उनका हजारों एकड़ का फार्म है। शहर में कई इमारतें हैं। मुल्क के बाइज्जत और मालदार लोगों में जाने जाते हैं। उन्होंने एक रात मुझे घर खाने पर बुलाया था, जहां जुबैदा भी थी। जुबैदा भी पढ़ी-लिखी खातून हैं और कई तरह के समाजी काम करती हैं। खाना खाने, कॉफी पीने के लिए हम उनकी कोठी के पीछे स्वीमिंग पूल के किनारे आ गये। पूल के अंदर रोशनियां जल रही थीं और नीले पानी में लहरों की परछाइयां तैर रही थीं। एक तरफ पाम के पौधों का अक्स पानी में पड़ रहा था, दूसरी तरफ कैरिबियन के फूलों के पौधे लगे थे। स्वीमिंग पूल के किनारे कॉफी पीते हुए डा. अजीज और उनकी बेगम जुबैदा ने मुझे अपनी जिंदगी का एक दिलचस्प वाकया सुनाया, जो मैं उन्हीं की जबान में आपके सामने रख रहा हूं।

''हमारे परदादा, अलीदीन गिरमिटिया बन गये थे। कलकत्ता से 'क्वीन आफ योरोप' जहाज पर सवार हुए और दो महीने में यहां पहुंचे थे। यहां उस वक्त कुछ नहीं सिर्फ जंगल था। ऐसा-वैसा जंगल नहीं...बिल्कुल 'रेन फारेस्ट'-जैसा जंगल। इतना भयानक जंगल था कि उसमें दो कदम भी नहीं घुसा जा सकता था। इन मजदूरों ने उस जंगल को साफ करने का काम शुरू किया जो उस जमाने में जानलेवा काम था, क्योंकि मशीन के नाम पर कुछ नहीं था। सब-कुछ हाथ से करना पड़ता था। कुछ साल पहले दादा की शादी इन्हीं खानदानों में से किसी खानदान की लड़की से हुई। दादा पैदा हुए। दादा को यह डर था कि कहीं हमारी नस्लें यह भूल न जाएं कि वह कौन हैं? कहां से आये थे? उनका गांव-घर कहां था? उन्होंने एक गीत बनाया जिसमें अपनी जाति, धर्म, पुश्तैनी गांव और इलाके का नाम था। दादा ने यह गाना अब्बा को याद करा दिया और अब्बा ने यह गाना मुझे याद करा दिया। यानी तीन पीढि़यों से होता यह गाना मुझ तक पहुंचा था। मैं हिंदी नहीं सीख सका और न बोल सकता हूं, क्योंकि मेरी पढ़ाई-लिखाई हॉस्टल में हुई थी। सालों-दर-साल गुजरते रहे और जब ये गाना मैं अपने बेटे को याद करा रहा था तो खयाल अाया कि क्यों न अपने गांव, देस, वतन को चलकर देखा जाए। पैसा मैंने काफी कमा लिया था। वह फिक्र न थी जो शायद अब्बा या दादा को रही होगी। मैंने जुबैदा से इस बारे में बात की तो वह भी तैयार हो गई। हमारे पास पते के तौर पर वही गाना था और इक्का-दुक्का बातें पता थीं कि हमारा गांव पहाड़ों के बीच में है। गांव तक जाने के लिए एक छोटे पहाड़ पर चढ़ना पड़ता है। गांव के पास एक झरना है, जहां से गांववाले पानी लाते हैं। एक छोटा-सा तालाब है जहां जानवर पानी पीते हैं और लोग नहाते-धोते हैं।'' डा. अजीज वाकया सुनाते-सुनाते रुके और अपना सिगार सुलगाने लगे। मैंने मौका गनीमत जाना और पूछा, ''वह गाना क्या है?'' डा. अजीज हँसने लगे। सुनिए-

''जत पटाना

गउ समना

मलक देस हरयाना।''

''मैं कुछ नहीं समझा।'' मैंने कहा।

''यही हाल बंबई (मुंबई) में था।''

''बंबई में?''

''हां, मैं और जुबैदा बंबई पहुंच गये और वहां लोगों को हमने ये पता बताया तो कोई कुछ नहीं समझ पाया...एक लंबा सफर करके बंबई पहुंचे थे। पारामारीबो से एम्सटर्डम गये थे। वहां से लंदन आये थे। वहां से बंबई की फ्लाइट ली थी...और गजब ये कि वहां कोई हमारा पता ही नहीं समझ रहा था। खैर, हम ताज होटल में ठहर गये। होटल में भी कई लोगों को गाना सुनाया, लेकिन कोई न समझ पाया।''

''फिर क्या किया?''

''अचानक मेरी समझ में एक बात आई। अगले दिन मैंने बाजार से इंडिया का एक बड़ा नक्शा खरीदा और होटल के कमरे में नक्शा फैलाकर कोई ऐसा लाज तलाश करने लगा जो मेरे गाने में है। हर लाज को तलाश किया, क्योंकि मुझे खुद किसी भी लाज का मतलब नहीं मालूम था।''

''फिर क्या हुआ?'' मैंने बेसब्री से पूछा।

''एक लाज मिला।'' डा. अजीज ने बताया।

''कौन-सा लाज?''

''हरियाणा।'' उन्होंने बताया।

''यह क्या है?''

''दिल्ली के नजदीक एक स्टेट है।''

''फिर?''

''फिर अगले दिन हमने फ्लाइट पकड़ी और दिल्ली आ गये। वहां एयरपोर्ट पर टैक्सीवालों को यह गाना सुनाया...हरयाना को छोड़कर कोई कुछ नहीं समझा।''

''फिर?''

''अब क्या करते? इतनी दूर आना बेकार तो नहीं जाना चाहिए था। टैक्सीवाले से कहा, हरियाणा चलो...।''

''उसने पूछा होगा हरियाणा में कहां?''

''बिल्कुल यही हुआ।''

''तब क्या किया?''

''आखिर एक चालाक किस्म का टैक्सीवाला तैयार हो गया।'' जुबैदा बोली।

''...और उसकी चालाकी हमारे काम आ गई।''

''कैसे?''

''उसने तो यह सोचा था कि दो मूर्ख मिल गये। इन्हें हरियाणा में इधर-उधर घुमाता रहूंगा और खूब पैसे बनाऊंगा, लेकिन हम लोग बेफिक्र हो गये थे कि अब हमें हमारे पते पर पहुंचाने की जिम्मेदारी टैक्सीवाले की है। हमने उसे पता बता दिया है और उसने हमें टैक्सी में बैठा लिया है।''

''फिर?''

''दिनभर टैक्सी चलती रही। हम जगह-जगह रुककर अपना गाना सुनाते रहे। कुछ लोगों को मजा भी आता था। कुछ हमारी मूर्खता पर हँसते थे। कुछ हमें प्रशंसाभरी नजरों से देखते थे। पूरा दिन गुजर गया, रात हो गई। टैक्सीवाला हमें एक ढाबे पर ले गया। ढाबे के मालिक ने पता नहीं उसे क्या समझाया कि टैक्सीवाला हमें लेकर पुलिस स्टेशन आ गया। पुलिस को भी हमने अपना गाना सुनाया। वे भी नहीं समझ सके, पर एक भले पुलिस अफसर ने मदद करने का वायदा किया। हमें करीब ही एक होटल में ठहरा दिया गया। अगले दिन पुलिस अफसर आया और हमें लेकर पुलिस स्टेशन आया। यहां बहुत से बड़े-बूढ़े लोग मौजूद थे। हमसे पुलिस ने कहा कि इन्हें वह गीत सुनाओ। मैंने एक बार सुनाया...दो बार सुनाया...बार-बार सुनाता रहा। वे लोग आपस में बातचीत करते रहे। गाना समझने की कोशिश करते रहे। मैंने बीस बार से अधिक गाना सुनाया होगा, तब कहीं जाकर धीरे-धीरे गाना खुलने लगा। गुत्थी सुलझने लगी। एक बूढ़े ने पूछा कि क्या हम पठान हैं। ये तो मुझे मालूम था। मैंने कहा, पठान हैं...फिर वे आपस में सलाह करने लगे...और पता चला कि गांव का नाम सापना है जहां अब भी पठानों की आबादी है, लेकिन उनमें बहुत से पाकिस्तान चले गये हैं।

टैक्सी करके हम लोग एक गाइड के साथ सापना गांव पहुंचे, वहां चौपाल पर पूरा गांव जमा हो गया। मैंने अपने परदादा का नाम अलीदीन बताया। यह सुनते आये हैं कि परिवार का कोई लड़का सात समंदर पार चला गया था, पर कभी लौटकर वापस नहीं आया। अलीदीन के परिवार का घर इसी गांव में था। लोग मुझे घर दिखाने ले गये। परिवार पाकिस्तान जा चुका था। हमने अपना घर देखा...डेढ़ सौ साल बाद वहां अलीदीन की तरफ से कोई गया।''

''गांववालों का क्या 'रिएक्शन' था?''

''आज हम वी.आई.पी. हो गये थे। जुबैदा ने गांव पर फिल्म बनाई। हम गांव के पास बने एक 'टूरिस्ट रिजार्ट' में रहे। रोज गांव जाया करते थे। हमें वे खेत दिखाये गये जो कभी हमारे थे। चौपाल पर इधर-उधर से लोग आते थे। हमसे मिलते थे।''

''खानदान वालों का कुछ पता चला?''

''वह पाकिस्तान चले गये थे...इतना जरूर पता चला कि जो पाकिस्तान गये थे उनका नाम रफीकउद्दीन था और वह रावलपिंडी में जाकर बसे थे।''

''बस आगे का काम आप मेरे ऊपर छोड़ दीजिए...मैं पाकिस्तान जाकर उन्हें तलाश कर लूंगा।'' मैंने कहा।

कुछ देर बाद डा. अजीज बोले, ''अगर मैं हरियाणा में अपने गांव न जाता तो...उसी तरह अपने को अधूरा महसूस करता-जैसे मेरे वालिद और दादा किया करते थे।''

मैं हैरत से उन्हें देखता रह गया।

...और अब आखिर में आप लोगों को एक वाकया और सुनाता चलूं। यह आपबीती नहीं है, जगबीती है, लेकिन जो कुछ है बिलकुल सच है। सोलह आना सच है। दिल्ली में मेरे एक दोस्त हैं, जो कुछ अजीब किस्म के आदमी हैं, लेकिन मैं उनके अजीब होने की दास्तान नहीं सुनाऊंगा, क्योंकि सिर्फ उसी में सुबह हो जाएगी। बस, ये समझ लीजिए कि वह शोरबे में डालकर जलेबी खाते हैं और अपने हाथ से अपने इंजेक्शन लगाते हैं। वे पक्के सैलानी भी हैं। उनका वतन फतेहपुर है। यह कानपुर और इलाहाबाद के बीच जी.टी. रोड पर एक छोटा-सा शहर है। लीजिए, इतनी बातें बता दीं और दोस्त का नाम तो आपको बताया ही नहीं। इनका नाम शफीकुल हसनैन नकवी है। नाम कुछ टेढ़ा लग सकता है, लेकिन इसमें इनकी कोई गलती नहीं है। इनके वालिद फारसी-अरबी के विद्वान थे। आप जानते ही हैं कि विद्वान हमेशा टेढ़ा काम करते हैं, लेकिन आमलोग उस टेढ़े काम को सीधा कर लेते हैं तो इनके नाम को भी शहरवालों ने सीधा करके सफ्फू मियां कर लिया है। जब थोड़ी औपचारिकता बरती जाती है तो इन्हें सफ्फू नकवी भी कह दिया जाता है। गांववाले उन्हें सप्पू मियां कहते हैं, क्योंकि 'फ' का उच्चारण उनके बस की बात नहीं है।

सफ्फू मियां बड़े बैठकबाज और बातूनी हैं। लाहौर आये थे, तो उनके साथ महफिल जमा करती थी। उन्होंने बताया कि जवानी के दिनों में उन्हें सैर-सपाटे का शौक था। किसी तरह अमेरिका चले गये। हालत ये थी कि जेब में पैसा कम था, लेकिन घूमने की इच्छा की कोई थाह न थी। ग्रेहाउण्ड बस पर बैठे चले जा रहे थे। अगली मंजिल अमेरिका का प्रसिद्ध और खूबसूरत शहर मियामी था, लेकिन ये पता न था कि मियामी में कहां ठहरेंगे? सोचा था पहुंच जाएंगे तो सोचेंगे। खैर, साहब हुआ यह कि बस में उनके बराबर जो लड़का बैठा था, उससे तआरुफ हुआ तो वह पाकिस्तानी निकला। दोनों में बातचीत होने लगी। उसने इनसे पूछा मियामी में आप कहां ठहरेंगे? इन्होंने बताया कि अब तक तो कोई जगह नहीं है। उसने कहा कि क्या आप कुछ पाकिस्तानी स्टूडेंट्स के साथ ठहरना पसंद करेंगे? इन्हें क्या एतराज हो सकता था। तैयार हो गये।

उनका किस्सा अपनी जबानी सुनाने से बेहतर है उन्हीं की जुबान से उनका किस्सा सुनिए।

मैंने फ्लैट की घंटी बजाई। एक पंजाबी-जैसे लगनेवाले लड़के ने दरवाजा खोला। उन्हें मालूम हो चुका था कि मैं वहां ठहरने आ रहा हूं। अच्छा-खासा फ्लैट था। तीन लड़के रहते थे। मुझे एक रात ही रुकना था। मेरा सामान लिविंग रूम में रख दिया। मैं तीनों से मिला। कुछ देर बाद एक मुझसे बोला, ''आप आराम करो...हम पार्टी में जा रहे हैं। रात देर से आएंगे।''

मैं क्या कह सकता था। दो लड़के चले गये और तीसरा किचन में कुछ खाना-वाना पकाने में लग गया। मैंने सोचा, खाना तो मैं भी खाऊंगा। उठकर किचन में आ गया। उसने मेरे सामने एक बियर का कैन रख दिया और बोला, ''बियर तो लेते होंगे?''

''हां, लेता हूं।'' वह भी बियर पी रहा था।

''पाकिस्तान में तो बड़ी पाबंदी होगी?'' मैंने बियर कैन की तरफ इशारा करके पूछा।

''पैसा नहीं है तो बड़ी पाबंदी है, पैसा है तो कोई पाबंदी नहीं है।'' वह बोला। उसकी साफगोई मुझे पसंद आई।

''यही हाल हिंदोस्तान में भी है।'' मैंने पाकिस्तान और हिंदुस्तान को बराबर स्थापित करने की कोशिश जान-बूझकर की थी, क्योंकि मुझे डर था कि कहीं बात दोनों देशों के मुकाबले यानी कौन ज्यादा अच्छा पर न आ जाए। इससे पहले मैं एक-दो ऐसे पाकिस्तानियों से मिल चुका था और इस तरह की बहस में फंस चुका था जिसका अंत हमेशा तल्खी पर ही हुआ था। एक रात की बात है, हिंदुस्तान छोटा ही साबित हो गया तो कौन-सी मुसीबत आ जाएगी?

''आपके दोस्त जिस पार्टी में गये हैं वहां आप नहीं गये?'' मैंने बात मोड़ने की कोशिश की।

''पार्टी-वार्टी में कहीं नहीं गये हैं।'' वह काफी तल्खी से बोला, ''उन्हें भारत के सिखों के साथ गल्ल करने में मजा आता है।''

उसने मजा शब्द इस तरह इस्तेमाल किया कि उसकी सारी कड़वाहट मेरे मुंह में भर गई। मेरी समझ में नहीं आया कि मैं इस बात पर 'वाह-वाह क्या बात है' जैसी बात कहूं या ये कहूं कि 'अरे साहब, हद होती है, यानी उन्हें आप-जैसे पाकिस्तानी के साथ बातचीत में मजा नहीं आता और वे भारत के सिखों के साथ गल्ल करने जाते हैं।' मैं इसी पसोपेश में था कि उसने बात बदल दी। बोला, ''ठीक है...ये तो अपनी-अपनी मर्जी की बात है।''

मैंने जल्दी से कहा, ''हां, ये तो ठीक है...जहां जो खुश रहे वहां जाए।'' मैंने पहली बार महसूस किया था कि पाकिस्तान में उर्दू बोलनेवालों और पंजाबी बोलनेवालों के बीच इतना द्वेष है।

कुछ देर के बाद मैंने पूछा, ''आपकी फैमिली कहां से है?'' उसने अजीब तरह से मेरी तरफ देखा और बोला, ''कराची से।''

कराची? मैं सोचने लगा। यार मोहाजिर तो हिंदुस्तान से कराची गये हैं। यह लड़का अपने को कराची का क्यों कह रहा है? शायद पाकिस्तानियत उसके दिमाग में ज्यादा ही घुस गई है। मुझे कुछ अजीब लगा। मैंने पूछा, ''आपकी फैमिली कराची कहां से गई थी?''

वह और ज्यादा असहज महसूस करने लगा और कुछ देर चुप रहा।

फिर बोला, ''भारत से।'' ये बात उसने काफी नफरत से कही थी-जैसे भारत के प्रति उसके मन में गुस्सा और नफरत भरी हो, उसे इस बात का अफसोस हो कि उसका परिवार भारत में क्यों था और पाकिस्तान में यानी उस इलाके में क्यों नहीं था, जो पाकिस्तान में है।

कुछ देर तक हम लोग खामोश रहे। वह जानता था, उसने मुझे घायल कर दिया है। मैं बेशर्मी पर उतर आया और मैंने पूछा, ''भारत में कहां से?''

उसने घूरकर मुझे देखा। उसे यह बिल्कुल असहनीय लग रहा था कि मैं उसके शुद्ध पाकिस्तानी होने पर सवालिया निशान लगा रहा हूं। उसने अपना जबड़ा सख्त करके और होंठ भींचकर कहा, ''यू.पी. से।''

अब मुझे अगला सवाल नहीं पूछना चाहिए था, लेकिन बियर के दो केन मैं पी चुका था और मेरी हिम्मत बढ़ गई थी। मैंने पूछा, ''यू.पी. तो बहुत बड़ा है भाई... यू.पी. में कहां से?'' वह कुछ देर खामोश रहा, फिर बोला, ''आप नहीं जानते होंगे। यू.पी. का एक छोटा-सा, गुमनाम जिला है फतेहपुर...वहां से हम लोग कराची आये थे।''

''कौन-सा फतेहपुर...जो इलाहाबाद और कानपुर के बीच है?''

वह चिढ़कर और उपेक्षा से बोला, ''हां, वही।''

''वहां तो मैं रहता हूं...फतेहपुर हस्वा भी कहते हैं उसे।''

''हां, वही।'' वह बेखयाली में बोला और फिर सतर्क हो गया।

मैं भी खामोश हो गया। मैं जानता था कि अब 'बॉल उसके कोर्ट' में है। देखो क्या होता है। किचन में मसालों की खुशबू फैल रही थी। कुछ सेकंड की खामोशी भारी पड़ने लगी।

''आप फतेहपुर के हैं।'' वह मरी हुई आवाज में बोला।

''हां...वहीं का हूं...पता नहीं कितनी पीढि़यों से वहां रह रहा हूं।''

वह फिर खामोश हो गया। मैंने उसके खामोश चेहरे पर तूफान देख लिया था। एक रंग आ रहा था और दूसरा जा रहा था। तेज रोशनी में उसके चेहरे की मांसपेशियां थिरक रही थीं।

''वहां कोई खेलदार मोहल्ला है।'' उसने कांपती हुई आवाज में पूछा।

''हां, है?''

अब वह जो कुछ कह या पूछ रहा है, वह इस तरह जैसे उसे अपने ऊपर काबू ही न रह गया हो।

''फतेहपुर जी.टी. रोड पर बसा है?''

''हां।'' मैंने जवाब दिया।

''जी.टी. रोड पर तहसील है?''

''हां, है?''

''उसके सामने से कोई गली खेलदार मोहल्ले तक जाती है?''

''हां, जाती है।''

''गली आगे जाकर मुड़ती है तो वहां मुस्लिम स्कूल है?''

''हां, है।''

''स्कूल के पीछे तालाब है?''

मैं उसके सवालों के जवाब दे रहा था और मेरे दिमाग में अजीब तरह की उथल-पुथल चल रही थी। वह फतेहपुर का आंखों देखा विवरण दे रहा था। उसकी बताई हर बात ठीक थी।

''फतेहपुर में लल्लू मियां कोई जमींदार थे?''

''हां, बड़े जमींदार थे।''

''वहां कोई मोहल्ला बाकरगंज है? जहां जानवरों की बाजार लगती है?''अमेरिका के मियामी शहर के आधुनिक फ्लैट में ये सब नाम, जगहें और लोग अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे थे। किचन की खिड़की से हाई-वे नजर आ रहा था, जिस पर दौड़ती कारों की हेड लाइटें चमक रही थीं।

''क्या आप फतेहपुर गये हैं?'' मैंने उससे पूछा।

''नहीं, कभी नहीं गया?'' वह बोला। उसके लहजे में कुछ न था। न दुःख, न सुख, न ग्लानि, न अवसाद।

''कभी नहीं गये?''

''हां, कभी नहीं गया?'' वह फिर बोला।

''लेकिन वहां के बारे में जो आप बता रहे हैं वह ऐसा लग रहा है जैसे देखा हुआ हो।''

''नहीं, मैंने वह सब नहीं देखा।''

''तो फिर?''

वह स्टूल पर बैठ गया। चिकन शायद पक चुका था। उसने गैस बंद कर दी। बियर का एक और केन खोल लिया और बोला, ''कराची में दादी हमलोगों को जो कहानियां सुनाया करती थीं, वे फतेहपुर की होती थीं। रोज रात को हम दो बच्चे दादी के साथ फतेहपुर पहुंच जाते थे। वहां गलियों में घूमते थे। अमरूद के बाग में ललगुदिया अमरूद खाते थे...।''

वह बहुत देर तक बोलता रहा और मुझे कई बातें याद आती रहीं। मुझे 'साहब' याद आये जो लंदन में तीस साल रहने के बाद अपने गांव वापस आये थे और गांव के गलियारों में लोट-पोटकर रोया करते थे। मुझे डा. अजीज याद आये, जो एक गीत के सहारे अपना वतन तलाश करने सूरीनाम से इंडिया चले आये थे। मुझे डिबाई याद आया जो मेरी नस-नस में बसा हुआ है।

अगर आप लोगों को मेरी बातों पर यकीन न आ रहा हो तो मैं गवाही के तौर पर अपने एक मित्र प्रयाग शुक्ल को आपके सामने खड़ा कर सकता हूं।

प्रयाग शुक्ल हिंदी के प्रतिष्ठित और सम्मानित साहित्यकार हैं। वे भी फतेहपुर के रहनेवाले हैं। हम दोनों का बचपन एक ही जिले में बीता है। यही वजह है कि मैं जब प्रयाग जी को देखता हूं तो मेरे दिल के कोने में एक खुशी की उमंग उठती है। प्रयाग जी के साथ भी ऐसा ही होता होगा।

प्रयाग जी ने मुझे बताया है कि वह यात्राएँ बहुत करते हैं। इन छात्राओं के दौरान दिल्ली-हावड़ा लाइन पर चलनेवाली द्रुतगामी ट्रेनों से भी आते-जाते हैं, जो फतेहपुर-जैसे छोटे स्टेशन पर नहीं रुकतीं। अब देखिए, क्या अन्याय है। महानगर, महानगरों से जुड़ रहे हैं और छोटे शहर पीछे छूट गये हैं।

बहरहाल, प्रयागजी ने मुझसे कई बार कहा है कि रात का चाहे जो टाइम हो, गाड़ी जब फतेहपुर स्टेशन से गुजरती है तो उनकी आंख खुल जाती है। वह पूछते हैं कि गाड़ी किस स्टेशन से गुजर रही है तो बताया जाता है कि फतेहपुर से।

मैं, जी कोई विद्वान नहीं जो आपको क्यों? कैसे? किसलिए? आदि-आदि सवालों के जवाब दे सकूँ। आप स्वयं अकलमंद हैं। जवाब खोज सकते हैं।

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ई-संपर्क : awajahat AT yahoo DOT com

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(कादम्बिनी में पूर्व-प्रकाशित)

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. बेनामी6:35 pm

    adbhut!....aur koi shabd nahin hai mere paas....apni mitti ki khushbu ko yun shabdon me piro dena, main to kahun koi shabdon ka jadugar hi kar sakta hai....is amulya kriti ko ham sab logon tak pahunchane ka bahut-bahut shukriya....aasha hai ki apne mitti ki mahak yun hi failate rahenge....aapka....Ajeet'firdausi'

    जवाब देंहटाएं
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असग़र वजाहत की उपन्यासिका : मन-माटी
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