मेरा जन्म शहर में हुआ. शहर में ही बड़ी हुई. पिताजी से बचपन में गांव के बारे में सुनती थी. किताबों में गांवों के बारे में पढ़ती थी. बखार-भर ध...
मेरा जन्म शहर में हुआ. शहर में ही बड़ी हुई. पिताजी से बचपन में गांव के बारे में सुनती थी. किताबों में गांवों के बारे में पढ़ती थी. बखार-भर धान, गोशाला-भर गाय. इकहत्तर के युद्ध में अपनी आँखों से गांव देखा, मगर उसे भी ठीक-ठीक गांव नहीं, कस्बा कहा जा सकता है. वह भी ज्यादा दिनों तक नहीं. मेड़ पर चलते हुए, पोखर में तैरना सीखते-सीखते पाँच छह महीने बीत गए. फिर हमें शहर लौटना पड़ा था.
दरअसल गांव मैंने रेलगाड़ी की खिड़की से देखे हैं. रेल का टिकट लेते समय मेरी शर्त रहती है कि मेरी सीट खिड़की के पास होनी चाहिए. सर्दी हो या गर्मी, मैं खिड़की खोलकर गांव देखती हूँ. कहीं पुआल से छायी हुई झोपड़ियाँ, तो कहीं मिट्टी के आँगन में पुआल का ढेर. पेड़ की छांह में बैठी गाय जुगाली कर रही है. गांव की जो चीज मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित करती है वह है सीमेंट के बने पक्के घाटवाले स्वच्छ पानी के पोखरे और बगरग-पीपल के पेड़ों की छांव. पेड़ की छांह में बैठकर दूर तक फैले धान के हरे-भरे खेतों को देखते रहने पर मेरा मन भर जाता है.
उस दिन गांव में दिन भर घूमने का मौका मिला. मैं काफी उमंग उल्लास में थी. इकहत्तर में जैसा देख चुकी थी, लाल हरे रंगों वाले फूल कढ़े कांच के गिलास में पानी देंगे. पेड़ पर आम अमरूद जामुन जो भी होगा, तोड़कर सामने रख देंगे. पीठ पर हाथ फेरते हुए कुशल मंगल पूछेंगे. टीन का बक्सा खोलकर फूलदार चीनी मिट्टी की बड़ी प्लेट निकाल लायेंगे और उसमें गरम गरम भात देंगे. साथ में खेत की ताजा सब्जी पोखरे की मछली. मेरी आँखों में गांव की तस्वीर ऐसी ही थी. इस बार जब गांव गई तो मेरे चारों तरफ बच्चों की भीड़ इकट्ठी हो गई. वे चुपचाप मुझे घूर रहे थे. इतने सारे लोगों के एकटक देखते रहने से कुछ अजीब सा लगता है. मैं अपनी असहजता दूर करने के लिए आँगन में टहलने लगी. घर की बड़ी लड़कियाँ मुझे अजीब निगाहों से देख रही थीं. स्त्रियाँ अपने अपने काम में लगी रहीं. मेरे लिए किसी ने पेड़ से डाभ (पानी वाला नारियल) नहीं तोड़ा, कोई तेजी से अमरूद के पेड़ पर चढ़कर मेरे लिए अमरूद नहीं तोड़ लाया. मानों मैं एक अद्भुत शहरी प्राणी आ गई हूं. मुझे भूख प्यास नहीं लगती और मैं फल फूल भी खाना नहीं जानती.
जिस घर की मेहमान थी, दोपहर पार हो गई, लेकिन कोई मुझसे पूछने नहीं आया कि मुझे भूख भी लगी है या नहीं. कुछ खायेंगी भी या नहीं. आखिर करीब साढ़े तीन बजे एक स्त्री मेरे लिए खाना लेकर आई - भात और साथ में मुनगे की दाल. मैंने पूछा, ‘आप लोगों ने खाना खाया?' महिला ने सिर हिलाया, ‘नहीं.'
खाते समय गले में चावल अटक रहा था. खा नहीं पा रही थी. महिला पास में खड़ी ही रही. मैंने पूछा, ‘आपके कितने बच्चे हैं?' बोली, ‘ग्यारह!'
ग्यारह? मैं चौंक गई. किसी के ग्यारह बच्चे भी होते हैं? पूछा, ‘सभी आपके पेट से हैं?'
महिला ने आँचल से मुँह ढंककर कहा, ‘हाँ.'
भात सानते हुए पूछा, ‘यहाँ परिवार कल्याण वाले नहीं आते हैं?'
‘आते हैं.'
‘वे कुछ बताते नहीं हैं?'
‘उन्हें घुसने नहीं दिया जाता.'
‘कौन घुसने नहीं देता?'
‘सिराज के पिताजी.'
‘सिराज के पिताजी', यानी उस स्त्री के पति. मैंने पूछा, ‘आपके बेटे कितने हैं?'
‘सात'
सोचा, सम्भव है बेटे की आस में कई बच्चे हो गए हों, जैसा कि आमतौर पर होता है - एक बेटे की चाहत में बहुत सारे बच्चे हो जाते हैं. लगातार लड़कियों का जन्म होता रहे और ग्यारहवें नम्बर पर लड़का हो. इसके बाद उत्पादन रुके. लेकिन यहाँ तो ग्यारह में सात लड़के हैं!
पूछा, ‘क्या कोई पढ़ता लिखता भी है?' स्त्री ने आँचल खींचकर कहा, ‘नहीं.'
मुझसे खाना खाया नहीं गया. हाथ धो लिए. ये मेरे दूर के रिश्तेदार हैं. मैं तो गांव में घूमने आई थी - गांव की हरी-भरी जिंदगी का आनंद उठाने.
‘इतने सारे बच्चों को खिला-पिला सकती हैं?'
इतने में ही सिराज के पिता आ गए. उनसे भी यही सवाल किया. उन्होंने कहा, ‘अल्लाह के बंदे हैं, अल्लाह ही खिलाते हैं.'
‘अल्लाह ही खिलाते हैं, मतलब?' खाना तो आप ही को जुटाना पड़ता है. दिन भर की मेहनत के बाद जो जुट पाता है, वही तो खाते-खिलाते हैं. आप न खिलाएँ तो देखिए कि अल्ला खिलाते हैं या नहीं. फिर अल्लाह आप को अंडा मछली दूध क्यों नहीं खिलाते?
सिराज के पिता चुपचाप मुस्कराए. मैंने पूछा, ‘परिवार कल्याण वालों को घर में क्यों नहीं घुसने देते?' बरामदे में बैठे हुए सिराज के पिता उदास आंखों से आँगन की ओर देखते रहे. बोले, ‘वह सब मानने पर गुनाह होगा.'
‘परिवार कल्याण करने पर गुनाह होगा?'
‘हाँ! जीव अल्लाह देता है, उसे मैं क्यों मारूंगा? अल्लाह ने कहा है - तुम यदि जीव को बना सको, तभी उसे मार सकते हो. अल्लाह की दी हुई नियामत को मारने पर निश्चय ही नरकवास होगा.'
ये रईसुद्दीन, सिराज के पिता, दोजख में जाने के डर से जन्मरोध नहीं करेंगे. वे बहिश्त में जाना चाहते हैं. सबको बहिश्त का लालच होता है. रईसुद्दीन ने दाढ़ी रखी है. सिर पर टोपी भी लगाते हैं. पाँच वक्त नमाज भी पढ़ते हैं. मैंने पूछा, ‘अरबी में जो सूरा पढ़ते हैं, इसका अर्थ मालूम है?'
रईसुद्दीन हंसकर बोले, ‘नहीं, अल्लाहनामा में पढ़ने को कहा गया है, इसीलिए पढ़ता हूँ. हम लोग अनपढ़ गंवार हैं. अर्थ कैसे जानेंगे?'
गांव का मतलब सिर्फ हरी भरी धान की खेती, सिर्फ स्वच्छ पानी की पोखर नहीं है. वृक्ष की छाया भर नहीं है. गांव का अर्थ गांव के लोग भी तो हैं. वे ग्यारह संतान पैदा कर परिवार की गरीबी बढ़ाते हैं. दरिद्रता का चाबुक उनकी पीठ पर पड़ता है. वे बहिश्त के लालच में जीवन तक को किस्मत के हाथों सौंप देते हैं. और, किस्मत मनुष्य नामक उन मूर्ख, निरीह प्राणियों के साथ खेल खेलती है.
पढ़े-लिखे शहरी लोग तरह-तरह के दर्शन जानते हैं. मार्क्सवाद जानते हैं, अर्थनीति-राजनीति का जोड़ घटाव जानते हैं. नहीं जानते तो सिर्फ उनका उद्धार करना नहीं जानते. अलौकिकता के घेरे से बाहर आकर अपने खूबसूरत हरे-भरे गांव की रक्षा करना नहीं जानते.
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साभार - नष्ट लड़की - नष्ट गद्य
लेखिका - तसलीमा नसरीन
अनुवाद - मुनमुन सरकार
प्रकाशक:
वाणी प्रकाशन
21 ए, दरियागंज, नई दिल्ली - 110002
आईएसबीएन नं.- ISBN 81-7055-381-4
बहुत अच्छा लिखा है । और यही सब लिखने के कारण उन्हें देश निकाला हो गया !
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती