कविता मानस की पीड़ा -सीमा सचदेव ( पिछले अंक से जारी...) मानस की पीड़ा भाग 20. जानकी का दर्द श्री राम की जय , राजा राम की ज...
कविता
मानस की पीड़ा
-सीमा सचदेव
(पिछले अंक से जारी...)
मानस की पीड़ा
भाग20. जानकी का दर्द
श्री राम की जय , राजा राम की जय
हर तरफ यह जय जयकार हुए
श्री राम का हुआ राज्याभिषेक
खुश है अवध का जन हर एक
सबसे खुश तो माता सीता
आधा जीवन वन में बीता
वह आज बनी है महारानी
देकर कितनी ही कुर्बानी
मुश्किल कितना वन में रहना
वनवासी बन कर ही जीना
खाए केवल पत्ते और फल
पर राम प्रेम था उसका बल
महलों की राजकुमारी का
मिथिला की जनक दुलारी का
नंगे पैरों वन में चलना
और घास के ऊपर ही सोना
आसान नहीं यह किसी के लिए
फिर भी जाती थी जीवन जिए
जहां काँटे ही थे हर पग पर
वह खुशी से चली थी उस पथ पर
हर पल खतरा मँडराता था
पर उसको न भय सताता था
पति की खातिर वह वन को गई
और खुशी से उसके साथ रही
है राजकुमारी नहीं था मन में
बस खुश रही छोटे से आँगन में
छोटी सी घास की थी कुटिया
तीलो से बनाई थी खटिया
खाने के नाम पे फल पत्ते
कभी पके तो कभी खाए कच्चे
पत्ते ही पहने थे तन पर
पर जरा शिकन न थी मन पर
वह महलों की रहने वाली
और मखमल पर सोने वाली
फूल खिले जब हँसती थी
सबके ही मन में बसती थी
जो चलती थी बस फूलों पर
वन में थी चली वह शूलों पर
भूख है क्या जो नहीं जानती
वह कई कई दिन भी रही भूखी
कई बार तो पानी भी न मिला
फिर भी उसका मुख रहा खिला
क्या दर्द है ? कभी जताया नहीं
किसी पीड़ा को भी बताया नहीं
न राम कभी सोचे मन में
सीता को रखा है वन में
हर पल यह सोच हँसती रहती
अपना दुख मन में ही रखती
राम को कभी जताया नहीं
खुद का अहसास कराया नहीं
मारी उसने वह हर इच्छा
जो छोड़ नहीं सकती पीछा
इच्छा औ खुशी बस राम ही था
हर स्वास में उसका नाम ही था
पति की खातिर क्या त्याग किया
पतिव्रता का एक इतिहास बना
अपहरण का दर्द सहा उसने
कभी सोचा भी न था जिसने
उसका भाग्य ऐसा होगा
रावण उसको कभी हर लेगा
भाग्य का चक्कर था सारा
था राम फिरा मारा- मारा
वानर भालू की ले सेना
और रावण के संग युद्ध करना
पर अब था उसका अच्छा भाग
उसकी किस्मत भी गई जाग
वनवासी से बन गई रानी
यह सत्य है , न मिथ्या कहानी
राज्याभिषेक तो हो ही गया
और राम भी राजा बन गया
प्रजा भी सारी खुश तो थी
खुशी भी तो यह सच्ची थी
पर भाग्य ने फिर ली अंगड़ाई
सीता फिर वन में ही आई
केवल धोबी की बातों से
नहीं सोए राम थे रातों में
उस पत्नी का त्याग किया
जिसने था हर पल साथ दिया
जो रही जिन्दा बस पति के लिए
और कितने ही दर्द सहे
अग्नि परीक्षा क्या कम थी
सोचती सीता आँखें नम थी
वह कैसे कहे ? वह है पावन
जब राम का ही नहीं मानता मन
वन के असह कष्ट थे सहे
बस पति का साथ पाने के लिए
उसी पति ने उसको त्याग दिया
कहा फिर से वन जाने के लिए
वह गर्भवती यह नहीं सोचा
दे दिया था भाग्य ने धोखा
कितनी मजबूरी थी उसकी
न मृत्यु न जिन्दगी थी उसकी
फँस गई थी वो दोराहे पर
मर जाए, मन में चाहे मगर
क्या करे जो बच्चा गर्भ में है
यह जिम्मेदारी उस पर है
मरकर उसको भी मारेगी
ऐसा अपराध वह न करेगी
जीना होगा बच्चे के लिए
सह दर्द जो भाग्य ने है दिए
बेबस कितनी थी वह नारी
जिसे मिली थी सुख-सुविधा सारी
वह भटक रही थी अब वन में
हलचल थी बस उसके मन में
वह नारी क्यों हुई बेचारी
कभी थी जो राम की शक्ति सारी
राम अब भी उसका कन्त ही था
दुर्भाग्य का कोई अन्त न था
महलों में भी सब जन बेबस थे
श्री राम के आगे वो क्या करते
उस माँ की आँखें भी देखी
जो कहती थी सीता को बेटी
रोता देखा वह भाई उसने
भाभी को कहा बहना जिसने
बेबस थी उसकी वे बहने
सीता को कहा था माँ जिन्होंने
वह बेटा भी रोता देखा
जो उसके लिए लंका था गया
सन्देस सुनाया था जिसने
मुद्रिका दिखाई थी उसने
पर अब वह क्या कर सकती है
न जिन्दा न वह मर सकती है
जाए तो अब वह कहाँ जाए
दर्द अपना किसे दिखलाए
मिल गए थे उसे ऋषि वाल्मीकि
सीता के लिए थी जगह सटीक
ऋषि आश्रम वह रह पाएगी
अब वहीं पे जीवन बिताएगी
ऋषि के आश्रम में रहते हुए
मानसिक पीड़ा को झेलते हुए
दिया दो बच्चों को उसने जन्म
वही बन गया था सीता का करम
बच्चों के लिए मान ही लिया
अपना हर दर्द छुपा ही लिया
बच्चों की खातिर न रोई
सहा दर्द को कभी भी न सोई
नहीं दर्द मिटा सकी वह दिल से
और जिन्दा रही अपने बल से
जिसकी ऐसी ही किस्मत थी
क्या उस नारी की हिम्मत थी
प्रणाम उस नारी की शक्ति को
पति प्रेम औ उसकी भक्ति को
जो सहती रही उफ् तक न की
कभी भी कोई शिकायत न की
हर पल पीड़ा तो सताती थी
ह्रदय क्या रूह रुलाती थी
देखो उस नारी का साहस
न दर्द किसी को बताती थी
देखते ही बच्चे हुए बडे
माँ की छाया में पले बढ़े
लव कुश था उनको नाम दिया
माँ - बाप का फर्ज था पूरा किया
ऐसे संस्कार दिए उनको
पूरी दुनिया तरसे जिनको
क्या उन दोनों में थी शक्ति
यह माँ सीता की थी भक्ति
माँ बन कर ऐसा करम किया
हर नारी को सन्देश दिया
नारी ही जीवन शक्ति है
नहीं उसके बिना कही मुक्ति है
माँ देती है गुण बच्चों को
नहीं मिलते जो अच्छे अच्छों को
लव कुश में ऐसी शक्ति थी
क्यों न हो ? माँ जो सीता थी
हनुमान को बांधा था उन्होने
सागर था पार किया जिसने
युद्ध में लक्ष्मण को हरा दिया
उसकी सेना को डरा दिया
क्या अद्भुत वह माँ के जाए
माँ के गुण उनमें थे आए
ऐसे बच्चों से युद्ध करने
श्री राम थे युद्ध में स्वयं आए
वह भी तो उनको हरा न सके
शक्ति का भेद भी पा न सके
अरे ! कौन है दोनों यह बालक
अब सोच रहा था जग पालक
यह राम के है , ऋषि था बोला
बच्चों का भेद उसने खोला
सीता ही इनकी माता है
पिता-सुत का तुम्हारा नाता है
अब राम को था अहसास हुआ
क्यों सीता को वनवास दिया
कहने लगे जाकर के सिया को
अब क्षमा करो अपने पिया को
यही होगा उचित अब साथ चलो
मुझे क्षमा करो , मुझे क्षमा करो
माता सीता कुछ न बोली
उस दर्द से नहीं जुबां खोली
जो दर्द था उसे भाग्य ने दिया
नहीं उसके साथ इन्साफ किया
उसे कोई गिला नहीं राम से है
जीवन ही राम के नाम से है
वह दर्द और नहीं सह सकती
नहीं अब वह जिन्दा रह सकती
बच्चों को राम को सौंप दिया
और स्वयं को फर्ज से मुक्त किया
वह पावन है करेगी साबित
नहीं करेगी वह किसी को आहत
तब सीता ने ललकारा था
धरती माता को पुकारा था
हे माँ ! जो तुममें शक्ति है
मेरे मन में राम की भक्ति है
जो मैं रही राम की सदा केवल
नहीं कभी हुई मन में हलचल
तो हे माँ अब तुम आ जाओ
मुझे अपनी गोदी में ले जाओ
वह अग्नि परीक्षा भी कम थी
शायद अग्नि में नहीं दम थी
आज फिर से परीक्षा मैं दूँगी
और अब यह साबित कर दूँगी
नारी कमजोर नहीं होती
उस सी कोई शक्ति नहीं होती
यह सुन कर हाहाकार हुआ
भयभीत सारा संसार हुआ
तूफान उठे बिजली कड़की
जलधारा उलटी बह निकली
त्रैलोकी भी लगी काँपने
धरती लगी अपनी जगह मापने
उसके लिए गोदी भी छोटी है
वह नारी की असली कसौटी है
बेटी पे गर्व धरती माँ को
लिए गोदी में जो सारे जहाँ को
उस धरती पे सिया की जगह नहीं
कभी चैन से जीवन जिया ही नहीं
वह माँ के गर्भ में आएगी
वही पर वह शान्ति पाएगी
पलटी फिर से सिया की किस्मत
देखते ही फट गई थी धरत
सीता तो उसमें समा ही गई
जा माँ के गर्भ में लेट गई
राम तो बस देखता ही रहा
कहने को कुछ भी नहीं रहा
कितने ही दर्द समेटे हुए
धरती के गर्भ में लेटे हुए
सीता माँ यहाँ से चली गई
कितने प्रश्नों को छोड़ गई
जिनका नहीं मिला कोई उत्तर
नारी रह गई बनकर पत्थर
क्यों नारी ही सब सहती है
बेशक वह नर की शक्ति है
प्रणाम तुम्हें सीता माता
तेरे दर्द की जाने न कोई गाथा
तुमने था कितना त्याग किया
उस त्याग को कोई नहीं जानता
नहीं खत्म हुआ नारी का त्याग
न जाने कैसी लगी है आग
जो नहीं बुझ रही है बुझाने से
पीछे नहीं कोई भड़काने से
माँ बोलो कभी तुम आओगी
आकर यह आग बुझाओगी
इस अहम की दुनिया में हे माँ
सबको इनसाफ़ दिलाओगी
इनसाफ़ तो सीता को भी न मिला
कब तक चलेगा यह सिलसिला
भारत की पावन भूमि पर
नर-नारी में रहेगा कब तक फासला
******************************************
(समाप्त)
-------------
संपर्क:
सीमा सचदेव
एम.ए.हिन्दी,एम.एड.,पी.जी.डी.सी.टी.टी.एस.,ज्ञानी
7ए , 3रा क्रास
रामजन्य लेआउट
मरथाहल्ली बैंगलोर -560037(भारत)
COMMENTS