हजारीप्रसाद द्विवेदी की कहानियाँ : भारतीय नीतिकथा की वाचिक परम्परा की प्रस्तुति -डॉ. मेराज अहमद आधुनिक हिन्दी साहित्य में आचार्य हजारी...
हजारीप्रसाद द्विवेदी की कहानियाँ : भारतीय नीतिकथा की वाचिक परम्परा की प्रस्तुति
-डॉ. मेराज अहमद
आधुनिक हिन्दी साहित्य में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का नाम किसी विशिष्ट विशेषण के साथ लिया ही नहीं जा सकता है, क्यों कि साहित्य के प्रत्येक क्षेत्र में ही उनका देय विशिष्ट है। चाहे गुरु रूप हो या अध्यापक का, जैसी ख्याति उनकी है किसी भी साहित्यकार के लिएर् ईष्या का विषय हो सकती है। संस्कृत साहित्य के प्रकांड पंडित, रवीन्द्र साहित्य के मर्मज्ञ द्विवेदी जी को ज्योतिषाचार्य होने का गौरव भी प्राप्त है। रचनाकार के रूप में तो उनका फलक अत्यन्त विस्तृत है। उनका सृजन विषय, काल, स्वरूप और दृष्टिकोण के धरातल पर अद्वितीय है ही, शोधार्थी के रूप में ऐतिहासिक दृष्टिकोण पर आधारित उनका अध्ययन और विवेचन-विश्लेषण अत्यन्त गम्भीर है। निबन्धकार के रूप में द्विवेदी जी ने हिन्दी गद्य में विशिष्ट शैली का निर्माण करके भारतीय-संस्कृत की आधारभूमि पर विविध संदर्भों को विषय के रूप में चुनकर हिन्दी निबन्ध साहित्य को नये प्रकाश से युक्त किया। हिन्दी के ऐतिहासिक उपन्यासों को नये तेवर के साथ आधुनिकता की भावभूमि पर प्रस्तुत करके अपार लोकप्रियता प्राप्त की। द्विवेदी जी का इतिहासकार और समीक्षक रूप भी श्लाघ्य है। उन्होंने छुट-पुट रूप से कविता, संस्मरण और अनुवाद का भी कार्य किया। उनके फलित ज्योतिष की भी यदा-कदा चर्चा हो जाती है, परन्तु आश्चर्यजनक रूप से न तो स्वयं उन्होंने न ही उनसे सम्बन्धित कार्यों में ही उनकी कहानियों की किसी ने चर्चा की। जब कि उनकी कहानियाँ भी मिलती हैं।
द्विवेदी जी के साहित्य के विविध रूपों के अतिरिक्त व्यक्तित्व और कृतित्व पर भी कई एक शोध कार्य हो चुके हैं।1 उनके उपन्यासों के अध्ययन के अनन्तर प्रसंगवश भी इन कहानियों का कोई उल्लेख कदाचित नहीं हुआ है। कहानियों की संख्या सीमित है, संभवत: इसी लिए ऐसा हुआ हो? लेकिन गुलेरी जी ने तो केवल न कुछ कहानियाँ ही हिन्दी साहित्य को देकर जो स्थान हिन्दी कहानी साहित्य में बना लिया वह तथ्य इस संभावना को तो एक सिरे से ही खारिज कर देता है। कहानियों का साहित्यिक महत्व भी कभी-कभी इसका कारण हो सकता है, लेकिन प्रश्न यह उठता है कि जबतक किसी भी सामग्री का अध्ययन किया ही नहीं जायेगा तब तक तो इस दृष्टिकोण से सोचना ही उचित नहीं होगा। यहाँ पर गौरतलब यह है कि उनकी कहानियाँ किसी संग्रह के रूप में उपलब्ध नहीं। संभवत: उन्होंने इन्हें इस लायक समझा ही न हो कि उसे लोगों तक लाया जाय। इसी लिए विद्वानों की दृष्टि उनपर न पड़ी हो? यद्यपि ग्रंथावली के प्रकाशन के बाद भी एक लम्बा समयान्तराल व्यतीत हो चुका है।
उल्लेखनीय यह है कि द्विवेदी जी जैसे विराट साहित्यिक व्यक्तित्व के समग्र मूल्यांकन का आयोजन कदाचित पूरा हो ही नहीं सकता जबतक कि उनके उपलब्ध तमाम साहित्य को अध्ययन की परिधि में न रखा जाय। संख्या, आकार और साहित्यिक दृष्टि से अपरिपक्व होने के बावजूद उपर्युक्त कारणों से आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की कहानियों का अध्ययन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। 'आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी' ग्रन्थावली के ग्यारहवें भाग में उनकी कुल आठ कहानियाँ संग्रहीत हैं। दो को छोड़कर आकार में सभी कहानियाँ अत्यन्त लघु हैं। 'धनवर्षण', 'मन्त्र-तन्त्र,' 'व्यवसायबुद्धि', 'बड़ा कौन है?', 'बड़ा क्या है?' 'देवता की मनौती,' 'प्रतिशोध,' और 'अछूत'।
ग्रंथावली में संग्रहीत पहली कहानी 'धनवर्षण' प्राचीन भारतीय कथा परम्परा में प्रस्तुत नीतिपरक कहानी है। इसमें धैर्य की महत्ता को स्थापित करते हुए लालच के दुष्परिणामों का उद्घाटन हुआ है। ब्राह्मण गुरु ऐसा करामाती मन्त्र जानते हैं जिसके द्वारा विशिष्ट नक्षत्रयोग के आने पर धन की वर्षा होने लगती है। लेकिन उनके अधैर्य के कारण यही धनवर्षण उनके प्राण ले लेता है। यात्रा के दौरान मार्ग में गुरु अपने शिष्य के साथ एक डाकू समूह के द्वारा अपहृत हो जाते हैं। शिष्य धनवर्षण के लिए मना करके उन्हें छुड़ाने के लिए धन की व्यवस्था करने जाता है, लेकिन वह अपनी जान बचाने के लिए धनवर्षण करते हैं। डाकू वह धन लेकर उन्हें डाकुओं के दूसरे समूह को सौंप देता है। दूसरा समूह भी धनवर्षण के लिए कहता है, लेकिन धनवर्षण का योग तो अब एक वर्ष बाद आने वाला है इसलिए अब वह ऐसा नहीं कर सकते। डाकुओं को उनकी बात पर विश्वास ही नहीं होता है। ''क्यों रे दुष्ट बम्हन, इन लोगों के लिए अभी वर्षा हुई और हम लोगों के लिए साल भर बाद!''2 कहते हुए डाकू उन्हें मारकर फेंक देते हैं और दोनों समूह लड़कर कटमर जाते हैं। अन्त में केवल दो डाकू बचते हैं। धन को अकेले हड़पने के लालच में एक दूसरे को भात में ज़हर मिलाकर खिला देता है तो दूसरा पहले की हत्या कर देता है। सबकी इहलीला समाप्त हो जाती है। इस प्रकार कहानी में अतार्किक घटनाओं की भरमार है। इसका उद्देश्य मात्र कहानी को लक्ष्य की तरफ ले जाना, जो कि नीति कथाओं की खास विशेषता होती है। नीति कथाओं में कथा-विकास की स्वाभाविकता के बजाय कथाकार का लक्ष्य उद्देश्य की प्राप्ति होता है। अपहरण द्वारा धन उगाही की प्रणाली का तर्कसंगत चित्रण कहनी को अवश्य समसामयिकता के भावबोध से सम्पृक्त करते हुए इस तथ्य का भी संकेत करता है कि अपहरण का कृत्य आधुनिक प्रवृत्ति नहीं, यह सार्वकालिक है।
ग्रन्थावली में प्राप्त दूसरी कहानी 'तन्त्र-मन्त्र' भी 'धनवर्षण' की शैली में प्रस्तुत की गयी कहानी है। इसका विषय मानवता की भावना के उद्धाटन पर आधारित है। शासक वर्ग की निरंकुशता और षडणयन्त्रकारी प्रवृत्ति का रेखांकन कहानी की महती उपलब्धि है। वस्तुत: प्रत्येक काल की व्यवस्था में इस प्रकार की शक्तियाँ सदैव ही सक्रिय रही हैं, परन्तु उन्हीं के समानान्तर सकारात्कमक शक्तियों की गतिविधियाँ ही समाज को संतुलित रखने का कार्य करतीं हैं। समाज की इसी वास्तविकता के उद्घाटन के उद्देश्य से कहानी का ताना-बाना बुना गया है। एक कर्मठ व्यक्ति द्वारा आरम्भ विकास के कारण गाँव की शान्ति व्यवस्था को मुखिया सह नहीं पाता है तो गाँव वालों की झूठी शिकायत राजा से कर देता है। राजा सबको हाथी द्वारा कुचल कर मरवा देने की आज्ञा देता है, परन्तु निश्चित समय पर हाथी आगे बढ़ते ही नहीं। राजा को लगता है कि उन लोगों के पास तन्त्र-मन्त्र की कोई शक्ति है, लेकिन उनकी शक्ति तो अहिंसात्मक कृत्यों और सत्य विचारों3 में निहित है। इस शक्ति का उद्धाटन तो कहानी को विषय के आधार पर महत्वपूर्ण बनाता लगता है, लेकिन घटनाओं का बाहुल्य और उनका अतार्किक प्रस्तुतिकरण कहानी को न केवल साधारण बनाता है, अपितु आधुनिक कहानी की परम्परा से इसे दूर कर देता है।
तीसरी कहानी 'व्यवसाय बुद्धि' भी पहली दो कहानियों की ही परम्परा की कहानी है। कहानीकार ने प्रस्तुत कहानी के माध्यम से बुद्धि के महात्म्य को स्थापित करने का प्रयास किया है। बुद्धि का प्रयोग करते हुए एक मरे हुए चूहे द्वारा एक व्यक्ति व्यवसाय आरम्भ करके अपार धन का स्वामी बन जाता है। घटना बहुला इस कहानी में भी कोई ऐसा तथ्य नहीं है जिसे किसी विशिष्टता के संदर्भ में रेखांकित किया जा सके। दूसरी दो कहानियाँ 'बड़ा कौन है?' और 'बड़ा क्या है?' भी नीतिपरक कहानियों की परम्परा की कड़ी हैं। यह कहानियाँ पहली तीन कहानियों की अपेक्षा आकार में अत्यन्त लघु हैं। 'बड़ा कौन है?' में जैसे को तैसे की अपेक्षा बुरे के लिए अच्छे व्यवहार की महत्ता स्थापित की गयी है। कहने के लिए इसे हम गाँधीवादी दर्शन की व्याख्यात्मक कहानी के रूप में कह सकते हैं, परन्तु इसमें कलात्मकता का अभाव इसके प्रभाव को खंडित कर देता है। कमोबेश इसी पद्धति की प्रस्तुति 'बड़ा क्या है?' भी है। इसमें सद्चरित्र की महत्ता को श्रेष्ठ बताने के क्रम में एक विद्वान और चरित्रवान ब्राह्मण की स्वयं की परीक्षा लेने की घटनाओं का तान-बाना बुना गया है। इसी परम्परा की कहानी 'देवता की मनौती' को हिंसा और बलि के निषेध की भावना से प्रस्तुत किया गया है। द्विवेदी जी न केवल बलि को धर्म-विरूद्ध आचरण बताते हैं, अपितु यह भी सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं कि, यदि सत्ता चाहे तो इन परम्पराओं को बिना लोगों की भावनाओं को आहत किए चातुर्य-नीति के बल पर ही समाप्त कर सकती है।
आकार में अन्तिम दो कहानियाँ अन्य कहानियों की अपेक्षा बड़ी हैं। पहली 'प्रतिशोध' है। इसमें जो जैसा बोवेगा वैसा काटेगा की उक्ति को कथात्मक अभिव्यक्ति के द्वारा चरितार्थ करने का प्रयास किया गया है। मालिक सेठ नौकर और बौद्ध भिक्षु के संबंधों के अनन्तर घटित घटनाओं के संयोजन के माध्यम से कथा के केन्द्रीय विषयों को अभिव्यक्त करते हुए यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है कि, 'जो दूसरों को दुख देता है वह दरअसल स्वयं को दुख देता है। जो दूसरों की भलायी करता है वह अपनी ही भलायी ही करता है।'4 निश्चित रूप से यह बड़ा महत्वपूर्ण जीवन दर्शन है और कालनिर्पेक्ष भी है। ''यदि जो कष्ट मैं उसे देने जा रहा हूँ वही कष्ट अगर वह मुझे दे तो मुझे कैसा लगेगा?''5 उक्त जीवन दर्शन के लिए कहानी में उठाया गया प्रश्न तर्कपूर्ण भी है, परन्तु इसकी प्रभावोत्पादकता में घटनाओं की अतार्किक रूप से बहुलता और रूप की पुरातनता बाधा डालती है।
ज्ञान छद्म नाम से लिखी गयी और ग्रन्थावली में प्रकाशित उनकी अन्तिम कहानी 'अछूत' का शीर्षक यह भ्रम पैदा करता है कि कदाचित बौद्ध धर्म और संस्कृति के मर्मज्ञ व्याख्याकार आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी प्रस्तुत कहानी के माध्यम से दलित और अछूत जीवन के कतिपय ऐसे प्रसंगों का संकेत करें जो सकारात्मक और उनके प्रति सहानुभूतिपूर्ण सोच को जन्म दे। कहानी अपने आरम्भिक ब्योरों मे आशा का संचार करती दिखती है। द्रष्टव्य है, ''नीमू के शरीर पर फटा कुरता तथा घुटनों तक मैली धोती पड़ी हुई थी। राय बहादुर के यहाँ बेगार पर गया था; वहाँ से उसे अभी ही छुट्टी मिली थी। वह ठिठुर रहा था; पर क्या करता-गरीब जो ठहरा! इस मेंह अंधियारी रात्रि में पाँच मील अपनी झोपड़ी तक जाना मौत का सामना करना था। किन्तु यहाँ पर एक अछूत को भला कौन आश्रय देता?''6 इस यथार्थ के चित्रांकन के बाद कहानी में एक पतिता के स्वयं ही को घृणा की दृष्टि से देखने के चित्रण का प्रसंग लगता है कि यथार्थ को और भी गहरा करेगा लेकिन तभी घटनाओं का मोड़ उसे त्याग और बलिदान के परम्परागत संदर्भ की तरफ घसीट ले जाता है। इसके बाद कहानी में विशिष्टता केवल इतनी ही बचती है इसे हम उनकी एकमात्र तार्किक घटनाओं के समायोजन युक्त कहानी के रूप में देख सकते हैं, परन्तु घटनाओं का तार्किक समायोजन और युग सापेक्ष पृष्ठभूमि ही किसी रचना को आधुनिक विशेषण से अभिग्रहीत करने के लिए पर्याप्त नहीं होती। आधुनिकताबोध के लिए साहित्य में आधुनिक दृष्टिकोण के अभिव्यक्ति की आवश्यकता होती है। स्पष्ट रूप से वह 'अछूत' में भी दृष्टिगत नहीं होता है। भाषा प्रयोग की दृष्टि से सभी कहानियाँ अवश्य विशिष्ट हैं।
वस्तुत: द्विवेदी जी की समग्र कहानियाँ भारतीय कथा परम्परा में प्राप्त नीतिपरक कहानियों की परम्पराकी बुद्धिबोध की कहानियाँ हैं। शैली के कारण तो कभी-कभी यह भ्रम होने लगाता है कि इन्हें लिखा भी गया है या कि सत्संग में कथावाचक के रूप में वाचा गया है। इस संदर्भ में उल्लेखनीय यह है कि द्विवेदी जी ने स्वयं भी इस तथ्य को संकेत किया है कि उन्होंने रोजी-रोटी के लिए कथावाचन का कार्य किया है।7 कहानियाँ स्वयं भी इसका संकेत करती हैं कि वह कथा की वाचिक परम्परा की कहानियाँ हैं। देखिए-''अच्छा, घन के लिए ही न डाकू हमको नाना प्रकार के कष्ट दे रहे हैं!..यही सोचकर उन्होंने कहा...कहना व्यर्थ ही है..उन्होंने जवाब दिया...''8 इस प्रकार के संकेत पाय: सभी कहानियों में हैं। ''किसी गाँव में...''9, ''बहुत दिनों की बात है...''10 ''किसी देश में...''11 ''बहुत पहले की बात है...''12 इत्यादि वाक्यों से आरम्भ कहानियों में से एक में तो बाकायदा लक्ष्य की पुष्टि के लिए काव्य का भी प्रयोग किया गया है। उल्लेखनीय यह भी है कि द्विवेदी जी जहाँ अपने उपन्यासों में संस्कृतनिष्ठ और प्रांजल भाषा का प्रयोग करते हैं, वही आश्चर्यजनक रूप से समस्त कहानियों की शब्दावली और वाक्यविन्यास दोनों स्तरों पर अति साधारण और जनसामान्य के लिए बोधगम्य है। कदाचित भाषा का यह प्रयोग वाचन के आग्रह के कारण ही हो? 'गोलमाल' और 'जोगाड़' जैसे शब्दों का प्रयोग भी इनके वाचिक परम्परा की कथा होने की गवाही देता है।
संदर्भ:-
1-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कृतित्व, डा0 सान्ध्य प्रभा, ग्रंथायन, अलीगढ़, सं0 1991
2-हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली-11, सं0 जगदीश नारायण, डा0 मुकुन्द द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, 1981 पृ0-126
3-वही, पृ0-129
4-वही, पृ0-140
5-वही, पृ0-139
6-वही, पृ0-143
7-हजारी प्रसाद द्विवेदी के पत्र, सं0 डा0 मुकुन्द द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, 1983, पृ0 72
8- हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली-11, पृ0-126
9- वही , पृ0-125
10-वही, पृ0-127
11-वही, पृ0-129
12-वही, पृ0-131
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संपर्क:
डॉ. मेराज अहमद,
प्रवक्ता, हिन्दी विभाग,
ए0एम0यू0 अलीगढ़।
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