अनुज खरे का व्यंग्य : एक लंबी सी फ़िल्म समीक्षा

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एक लंबी सी फिल्म समीक्षा -- अनुज खरे आप भी फिल्मों के भीषण प्रेमी हैं, मैं भी हूं। आज सुबह के अखबार में एक फिल्म की विस्तृत समीक्षा छपी है,...

एक लंबी सी फिल्म समीक्षा

-- अनुज खरे


आप भी फिल्मों के भीषण प्रेमी हैं, मैं भी हूं। आज सुबह के अखबार में एक फिल्म की विस्तृत समीक्षा छपी है, पढ रहा हूं। आप भी पढ लें, ताकि फिल्म देखने का निर्णय कर सकें। मैं अक्सर ही लोगों को अच्छी समीक्षाएं पढ़वाता हूं। ताकि उनके साथ फिल्म देखने का लुत्फ उठा सकूं। क्या? अखबार जरा साइड में कर लूं। आपका दिख नहीं रहा, लीजिए कर दिया। अब ठीक है।
जान देकर तुझे पाऊंगा... कबीले की कसम
(ए/बी/सी) रेटिंग-॰॰॰
                              कलाकार-  युवा कुमार, जवां कुमारी
उत्कृष्ट कृति बनाने के चक्कर में निर्देशकीय कौशल न जाने कहां-कहां, यहां-वहां से गुजर गया। साधारण सी कहानी को जबरदस्ती अतिरिक्त टच देने के प्रयास में कहानी बिखरी-बिखरी सी दिखाई देने लगी है। ‘ट्रीटमेंट’ का सौंधापन इसमें उल्लास तो भरता है, लेकिन नाजुक मोड़ों पर कहानी डिफरेंट एंगल की मांग करती है। खैर, कुछ फिल्म पुराने निर्देशक इसमें भी अपनी सफल फिल्मों की खूबियां दोहराते नजर आए। ‘बीच व बिकनी में देशभक्त के डायलॉग’ के मौलिक दृश्य संयोजन की कल्पना फिल्म की विशिष्टता थी। दृश्यों में खोए दर्शक डायलॉग सुन ही नहीं पाए, जबकि हीरो के अब्बा के मरने के दृश्यों में डायलॉग इतने भारी हो गए कि अब्बा दर्शकों की हूटिंग से पहले ही उन्हीं के बोझ तले दबकर मर गए। निर्देशक की ‘क्लास’ आइटम साँग में उभरकर सामने आई है, जहां फाइट के दृश्य के बीच हीरो दूसरी मंजिल से क्लब के शीशे की छत तोड़ते हुए नीचे गिरता है और धूल झाड़कर आइटम साँग में शामिल हो जाता है। पूरे समय उसके मुंह में खून लगा दिखाया गया है, जिसे वो आस्तीन से लगातार पोंछता रहता है। इसी बीच डांस में विलेन के गुर्गे भी पहुंच जाते हैं। वे भी सारे वाद्य यंत्र बजाते हुए हीरो को घेरते हैं। थोड़ी देर में क्लब में रखे हुए सारे आइटम एक-दूसरे पर फेंके जाने लगते हैं। लड़की आइटम की तरह खड़ी होकर टुकुर-टुकुर देखती रहती है।
पब्लिक भी डर के मारे आइटमों की तरह एक जगह जड़ हो जाती है। हीरो वहां से डायमंड का आइटम लेकर भागता है। विलेन भी म्युजिक के विभिन्न आइटमों को यहां-वहां फेंककर उसके पीछे भागते हैं। पब्लिक सक्रिय हो जाती है। लड़की फिर डांस करने लगती है। निर्देशक का दावा है कि इतना वास्तविक आइटम सांग पहले किसी फिल्म में आया ही नहीं है। यह उनकी सूझबूझ है, क्योंकि वे गिने-चुने मौलिक निर्देशकों में से एक हैं। वहीं, बर्फ की वादियों के दृश्य कमाल के हैं, इतने कमाल के कि पब्लिक को ठंड लगने लगती है। इतनी बर्फ है कि सबकुछ जमा-जमा सा लगता है। हीरो-हीरोईन तक एक पेड़ के इर्द-गिर्द जमे हुए से नाच रहे हैं। ‘ऐसे मौसम में जले गोरा बदन हौले-हौले’ मुंह से भाप निकल रही है, चेहरे के अलावा पूरा शरीर कपड़ों का लबादा बना जा रहा है। गाना जलने-सुलगने का विवरण दे रहा है। कंट्रास्ट का अत्यंत ही उत्तम संयोजन बिठाया गया है। लग शॉट में फिल्माए गए इस दृश्य में बर्फ ही बर्फ दिखती है। हीरो-हीरोईन कहीं रेंगते से दिखाई देते हैं। दृश्य अति उत्तम है। बर्फ में ही कहीं विलेन इस गाने के दृश्यों की फोटो खींच रहा है, ताकि हीरोईन के बाप को दिखा सके। उसके मुंह से भाप निकल रही है, उसके दोनों गुर्गेनुमा दोस्तों के मुंह से भी भाप निकल रही है। विलेन उनसे कह रहा है ‘इस साले को जिंदा इसी बर्फ में ना दफन किया तो कहना, लट्ठे की तरह चीर कर रख दूंगा। मेरी मंगेतर से आंखें लड़ाता है।’ बोलते समय दृश्य में कमाल की एडिटिंग दिखाई देती है।
ऐसा लगता है, जैसे विलेन तले हुए अंगारे खाकर डायलॉग छोड़ रहा है। भाप ही भाप, बर्फ ही बर्फ, हॉल में भी बर्फ, दर्शकों के सीने में भी बर्फ। आधी फिल्म तक तो रोमांस हो या फाइट सब बर्फीले रेस्टोरेंट, खेत, पहाड़, वादियों में ही चलते दिखाए गए हैं। अजीब जमा देने वाली फिल्म है, कसम से। ऐसी सर्दी से दर्शकों के हाथ पॉकेट में ही जम गए तो टिकट खिड़की भी जम जाएगी। फिर वितरकों की सांसें भी जम जाएंगी। अंत में सिनेमा हॉल किसी बर्फीले रेगिस्तान में बदल जाएगा। हालांकि निर्देशक की हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी कि उन्होंने प्रयोगों के प्रति निरंतर आग्रह रखा है। इसी के चलते उन्होंने अपनी दूसरी प्रेमिका को हीरोईन की बहन और भूतपूर्व प्रेमिका को उसकी मां के रोल में रखा है। वे ऐसे आग्रहों को लेकर बेहद दुराग्रही हैं। खैर, फिल्म की कहानी एकदम मौलिक है। मौलिक इसलिए कि पूरी फिल्म में दर्शक इस मौलिकता को बस ढूंढता ही रहता है। बर्फ में, पानी में, चरागाह में, बागानों में यानी लगभग उन सभी जगहों में जहां हीरो-हीरोईन का पीछा करते हुए पहुंचता है। इंटरवल के बाद कहानी में ट्विस्ट आता है, जब बैकग्राउंड एकदम रेगिस्तानी हो जाता है। दर्शक यहां किसी नए ट्विस्ट की उम्मीद करता है, लेकिन परंपरा का आग्रह यहां भी रंग दिखाता है। बर्फ वाले सिक्वेंस गर्म रेतीले रेगिस्तानों में दिखाई देने लगते हैं। डायलॉगों में भौगोलिक क्लाइमेट परिवर्तन की इच्छाएं दिखाने के वशीभूत आग उगलने, जलाने-सुलगाने के स्थान पर ‘दो गोली तेरे सीने में उतारकर अपने बाप का कलेजा ठंडा करूंगा, नुमा हो जाते हैं।’ बैकग्राउंड चेंज के कारण को जानने की उत्सुकता में बैठा दर्शक काफी देर बाद जान पाता है कि पहले वाला हीरोईन का गांव था, अब वाला हीरो का गांव है।
इसके बारे में एक जिज्ञासु दर्शक अपने साथी को बता रहा था कि हीरोईन हीरो के गांव में इंटरवल के दौरान सफर करके पहुंची है। इंटरवल किए ही इसलिए जाते हैं कि इस तरह की तकनीकी व्यवस्थाएं पूर्ण की जा सकें। जो दर्शक इन महानुभाव टाइप जिज्ञासु दृष्टि, प्रवृत्ति के नहीं थे, वे कारण में फंसे रहने के कारण आगे की फिल्म में ध्यान नहीं लगा पा रहे थे। क्लाइमैक्स में हीरो हीरोईन के कबीले वाले बंदूकें लेकर आमने-सामने आ जाते हैं, जिसे दोनों बीच में खडे़ रहकर टालने का प्रयास करते हैं, लेकिन गोलाबारी शुरू होने पर भाग जाते हैं, लाशें गिरती रहती हैं, हीरो-हीरोईन भागते रहते हैं। दृश्य परिवर्तन होता है, अबकी बार दोनों केरल में एक नाव में डूएट गा रहे हैं। नाव दूर जाती दिख रही है, फिल्म खत्म हो जाती है। कुछ सदमा खाए दर्शक ‘अभी पिक्चर बाकी है, कुछ और आएगा’ के इंतजार में बैठे रहते हैं। हॉल वाले आकर ही उन्हें उठाते हैं, घर के लिए रवाना करते हैं। एक्टिंग के नाम पर पूरी फिल्म में तय करना काफी मुश्किल रहा है कि किसने अच्छा काम किया है। सबने इतनी तन्मयता से अच्छा करने का प्रयास किया है कि चारों ओर घटिया-घटिया बिखर गया है। दर्शक कन्फ्यूज हो जाते हैं कि किसका प्रयास सबसे ‘अच्छा’ रहा। हीरोईन पूरे कपड़ों में रही, हीरो पूरे समय गंजी-पजामे में घूमता रहा, झरने से नहाने के चारों दृश्य पुरुषों पर हैं तो कबड्डी खेलने के तीनों शॉट महिलाओं पर फिल्माए गए हैं। कबीलों को मिलाने वाले नकाबपोश लड़की की ‘मां ’ होता है, जो इतना तेज घोड़ा ड्राइव करता है कि दोनों कबीलों में से कोई उसका पीछा नहीं कर पाता। हीरोईन पूरे समय बकरियां चराती रहती है। हीरो सिगरेट-दारू में धुत पडा दिखाई देता है।
हीरोईन को एक बार वह कुछ गुंडों से दारू की बोतल फक-फेंककर बचाता है। (हालांकि गुंडों में वह भी शामिल होता यदि पीने के चक्कर में अड्डे पर छूट नहीं जाता तो)। हीरोईन को उससे प्यार हो जाता है। वह उसकी लत छुड़वाने में लग जाती है। हीरो उसकी बकरियां चुराने में भिड़ जाता है, ताकि रोज शाम के ‘कोटे’ का जुगाड़ किया जा सके। अधिकांश दृश्यों में जानवर बैकग्राउंड में मौजूद  हैं। कई जगह तो लगता है कि जानवरों की कमी के कारण इंसान को ही उनकी खाल पहनाकर बैठा दिया गया हो। हीरो की मदद करने भी अक्सर जानवर पहुंचते हैं। कहने का मतलब है, जानवर फिल्म का स्थायी भाव है। एक बिल्ली जो कुछ ज्यादा ही स्मार्ट थी, ओवर एक्टिंग कर रही थी, को छोड़कर बाकी जानवरों ने ठीकठाक एक्टिंग की है। ओवर एक्टिंग का इल्जाम इंसानों पर ही आया है। पूरी फिल्म में विलेन के छर्रे बेहद प्रभावित करते हैं। शायद उन्हें वास्तविक जीवन से उठाकर सीधे यहां खड़ा कर दिया गया था। गंदे बढे बाल, पीले दांत, बाजू में दारू की बोतल लिए एकदम भोले-भाले हरामखोर। खैर, हीरोईन का रूटीन एकदम फिक्स है, घर से बकरियां लेकर निकलना। इसी बीच हीरो के साथ एकाध गाने में ठुमके लगा लेना, वापस आते समय विलेन की टिप्पणियों पर उसके मुंह पर थूक देना आदि-आदि। उसके पिता भी पूरे समय दारू में टुन्न दिखाए गए हैं।
जब भी थोड़ा होश में आते हैं, बेटी की शादी की चिंता करते हैं। इसी गम में फिर पीकर टुन्न हो जाते हैं। वैसे उनका नाम भी टुन्नी सरदार है। दारू पूरी फिल्म में सर्वत्र उपलब्ध है। ऐसा लगता है कि दारू के दरिये बह रहे हो। जहां हाथ डालो, वहां दारू। हर किरदार या तो दारू पी रहा है या जब नहीं पी रहा है तो पीने के सैटिंग में लगा है। इन कामों से निवृत्त होने के पश्चात् थोड़ा बहुत समय कबीले के विकास की योजनाओं अर्थात् किस लड़की का किस पराए कबीले के लड़के के साथ नैन-मटक्का चल रहा है, आदि के विस्तार में देते हैं। इस दौरान परंपराओं के हवाले, पुरखों द्वारा की गई ऐसी ही किसी गलती का विवरण, जिसके कारण अब वर्तमान रिश्ता संभव नहीं है, आदि के विश्लेषण में लगाता है। इस तरह फिल्म में स्थापित किया गया है कि पात्र अपने कबीले के हितार्थ घोर समर्पित हैं।
फिल्म के गीत-संगीत पक्ष में जलने-सुलगने, अगन-आग, मौसम-ठंडक-पानी-बारिश, ठंडी आहें-बर्फ सी यादें अर्थात् दोनों तासीर के शब्दों की बहुतायत है। संगीत भी बैकग्राउंड की मजबूरी में झींगा..लाला...नुमा कबीलाई हैं, जो हर गाने में इतना डराता है कि लोग उसकी भयानकता से खासे प्रभावित नजर आते हैं। कोरियोग्राफर की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने डांस सिक्वेंसों में किसी शरीफ शफ्फाक कबीले ही ड्रेसें पहनाई हैं, ऊपर से पत्तियां जरूर लपेट दी हैं। अन्यथा तो सीन की डिमांड तो बहुत ही जालिमाना थी। दर्शक अंत तक तय नहीं कर पाता कि वह संगीत की भयानकता या डांस के जंगलीपने में से किससे ज्यादा प्रभावित है। गानों की भयानकता से उत्पन्न इफैक्ट के कारण महिला दर्शक पिक्चर का पूरा मजा नहीं ले पाती क्योंकि छोटे बच्चे इसी दौरान सू-सू की सर्वाधिक जिद करते हैं। कबीले की ड्रेसें इतनी खूबसूरत हैं कि लगता है कि समस्त प्रतिभाशाली ड्रेस डिजाइनरों का जन्म इन्हीं कबीलों में ही हुआ होगा।
डिजाइनर ड्रेसें, डिजाइनर कबीला, सजी-धजी लड़कियों को देखकर तो कई लोग ऐसे कबीलों में रहने के बारे में गंभीरता से विचार करना शुरू कर देते हैं। ओवरऑल एक खास टेस्ट के दर्शकों के लिए यह फिल्म बनाई गई है। बाकियों का तो खाना खराब होना तय ही है। फिल्म टिकट खिड़की पर जादू जगा सकती है बशर्ते जिनके लिए यह फिल्म बनाई गई है, वे दर्शक वे ऐसे खाने में अपना टेस्ट ढूंढने में कामयाब हो जाएं।
पूरी समीक्षा पढने के बाद आपको निश्चित तौर पर समझ में आ गया होगा कि फिल्म कितनी क्लासिकल है। तो क्या तय किया आपने। कब फिल्म चलेंगे?... क्या कहा आपने...! मेरा टेस्ट भुला देंगे...! हमें पागल समझा है क्या...! ऐसी फिल्में बनाता कौन है...! वैसी समीक्षाएं लिखता कौन है...! तू किसका हिमायती है...!! अरे भाईसाहब मैं तो आपको फिल्म प्रेमी जानकर ऐसी समीक्षाएं पढ़वा रहा था। आप तो मुझ पर ही नाराज होने लगे, मेरा कसूर क्या है?
चुप्प..., अबे, चुप हो जा... फिर किसी को समीक्षा पढ़वाई तो...
(बैकग्राउंड से ढेर सारी आवाजें आ रही हैं। मैंने अखबार समेटकर साइड में रख दिया है। खैर इनकी तो जाने दीजिए)।
एक्सक्यूज मी, एक मिनट भाईसाहब, हां क्या आप भी, मेरी तरह फिल्मों के प्रेमी हैं...??
तड़ाक...! तड़ाक...!! तड़ाक...!!!
इति।
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संपर्क
अनुज खरे
सी- 175 मॉडल टाउन
जयपुर
मो. 9829288739
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रचनाकार: अनुज खरे का व्यंग्य : एक लंबी सी फ़िल्म समीक्षा
अनुज खरे का व्यंग्य : एक लंबी सी फ़िल्म समीक्षा
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