ओमप्रकाश कश्यप का बाल उपन्यास : मिश्री का पहाड़ (2)

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मिश्री का पहाड़ (बालउपन्‍यास) ओमप्रकाश कश्‍यप BPSN PUBLICATION G-571, ABHIDHA, GOVINDPURAM GHAZIABAD, UP-201013 --- सर्वाधिकार...

मिश्री का पहाड़

(बालउपन्‍यास)

ओमप्रकाश कश्‍यप

BPSN PUBLICATION

G-571, ABHIDHA, GOVINDPURAM

GHAZIABAD, UP-201013

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सर्वाधिकार : लेखक

मूल्‍य : 175 रुपये

प्रथम संस्‍करण : 2009

प्रकाशक : बीपीएसएन पब्लिकेशन

जी-571, गोविंदपुरम्‌,

गाजियाबाद-201013

आवरण संयोजन : लेखक

कंप्‍यूटरीकृत : लेखक

Mishri Ka Pahad (Novel) : by Omprakash Kashyap

Price : Rs. - 175.00

इस बाल उपन्यास का मुफ़्त पीडीएफ़ ई-बुक यहाँ से डाउनलोड कर पढ़ें

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पिछले अंक से जारी…

 

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मां की उन दिनों अच्‍छे राजमिस्त्री के रूप में पहचान थी. किसी इमारत में महीन नक्‍काशी द्वारा जान डालनी हो तो टोपीलाल की मां को ही याद किया जाता. और वह सचमुच कोरी मिट्‌टी में प्राण पूर देती थी. ईंटें उसके स्‍पर्श से बोलने लगतीं, दीवारें छुअन-भर से गर्वीली हो तन जातीं, कंगूरों में जान आ जाती, खूबसूरत सपना साकार होने लगता था.

‘तुम्‍हारी टक्‍कर का राजमिस्त्री पूरे शहर में भी शायद ही कोई हो.' टोपीलाल के पिता मुक्‍तकंठ से उसकी प्रशंसा करते.

‘सबकुछ आप ही का तो सिखाया हुआ है.'

‘गुरु तो गुड़ ही रहा, पर तू शक्‍कर बन गई.' खुशी से उनका जी उमगाने लगता. टोपीलाल का मन भी बाग-बाग हो जाता. जहां कहीं मां का जिक्र होता, वह सांस थामे सुनने लगता. मां की तारीफ सुनना उसको खूब भाता. वह सदैव ऐसे अवसर की प्रतीक्षा में रहता.

जिस समय टोपीलाल अपनी मां के पास पहुंचा, वह सोने की तैयारी में थी. वैसे भी रात हो चुकी थी. दिन-भर की कड़ी मेहनत के बाद वह बहुत ही थक जाती थी. पर टोपीलाल को चैन कहां! टिमटिमाते दिये की झीनी रोशनी में उसने गत्ता मां के सामने रख दिया-

‘इसे तो मैंने वर्षों से नहीं छुआ. जाकर अपने पिता से पूछ.'

‘मुझे तो तुम्‍हीं से सीखना है.' टोपीलाल ने जिद की.

‘ठीक है, चल गोटियां बिछा ले.'

टोपीलाल को बताया गया था कि यह खेल गोटियों से खेला जाता है. गोटियां न होने से वह निराश भी था. उसको गत्ता फेंकने वाले से शिकायत भी थी कि यदि उसने इस खेल से ऊबकर गत्ता फेंका है, तो गोटियों को भी साथ ही फेंक देना चाहिए था. ताकि किसी के काम आ सकें. किंतु यह शिकायत ज्‍यादा देर न टिक सकी.

‘यह जरूर किसी बच्‍चे के थैले से फिसला होगा.' टोपीलाल ने सोचा था, ‘तब तो वह बालक बहुत परेशान होगा.'

टोपीलाल को बहुत दुःख पहुंचा था. जैसे उसने अपनी ही कोई कीमती चीज गुमा दी हो. पर नया खेल सीखने की ललक में वह दुःख ज्‍यादा देर न टिक सका था.

‘मां, बिना गोटियों के क्‍या तुम इस खेल को नहीं सिखा सकतीं?'

‘सिखा भी सकती हूं.' मां ने उत्तर दिया था, ‘लोग तो इसको सांप-सीढ़ी का खेल कहते हैं. परंतु असल में यह है तो जीवन और प्रकृति का खेल ही. जिन्‍हें इस खेल में हम गोटियां कहते हैं, जिंदगी के खेल में ये कुछ भी हो सकती हैं. यहां तक कि मैं और तुम भी. यहां से आगे समझने के लिए पासे ही जरूरत होगी. उसका काम भी ईंट के मामूली टुकड़े से चलाया जा सकता है.'

मां की बातों में गहरा रहस्‍य छिपा था. लेकिन खेल के उत्‍साह में डूबे टोपीलाल को ध्‍यान रहा केवल ईंट के टुकड़े से पासा बनाना. वह उसी समय ईंट का प्रबंध कर लेना चाहता था, लेकिन मां ने टोक दिया-

‘कुछ भी सीखने के लिए धैर्य जरूरी है. कल मैं काम पर नहीं जा रही हूं, घर के

काम से निपटने के बाद...'

मां की बात मानने से पहले टोपीलाल ने कहानी की शर्त जड़ दी.

‘ठीक है, एक छोटी-सी कहानी सुनाती हूं. उसे यदि गुन लोगे तो कल इस खेल का मर्म समझने में आसानी होगी.' मां ने सहमति दी. टोपीलाल के लिए खेल केवल एक खेल था. कहानी सिर्फ एक कहानी. इससे ज्‍यादा उनका कोई उद्‌देश्‍य हो सकता है, उसको मालूम ही नहीं था. इसलिए कहानी सुनने के लिए वह अपनी मां से सट गया.

मां ने कहानी आरंभ कर दी-

एक राजा के दो बेटे थे. एक अच्‍छा था, दूसरा बुरा. एक दूसरों के काम आता. दूसरा सबके काम बिगाड़ देता. एक लोगों से प्‍यार करता, दूसरा उनको दुत्‍कारता. एक मीठे बोल बोलता, ममता की चलती-फिरती मूरत नजर आता, दूसरा लोगों के साथ गुस्‍से से पेश आता, उन्‍हें डराता. एक सचाई और ईमानदारी से काम निकालना चाहता, दूसरे का मकसद था, केवल खुद के भले की सोचना. मनमानी करना...लालच साधना. सच-झूठ जैसे भी संभव हो, वह सहज भाव से कहता-करता. एक सोच-विचारकर काम को पूरा करता. दूसरे को किसी भी तरह मंजिल तक पहुंचने की जल्‍दी रहती. उसके लिए हर तरीके को जायज मानता था. पहले को ‘कर भला सो हो भला' की नीति में विश्‍वास था. दूसरा ‘अंत भला सो सब भला' के चलन को पानी देता था.

माता-पिता हालांकि अपनी प्रत्‍येक संतान को एकसमान प्‍यार करते हैं. लेकिन उन दोनों में से एक मां का लाडला था, दूसरा अपने पिता का.

‘मेरे बेटे में राजा बनने के सारे गुण हैं.' राजा जो दूसरे बेटे को चाहता था, एक दिन रानी को चिढ़ाने के लिए बोला.

‘तुम्‍हारा बेटा सिर्फ तानाशाह बन सकता है, मेरा बेटा तो आज भी लोगों के दिलों पर राज करता है.' रानी ने सहज भाव से कहा. लेकिन राजा तो राजा था, गर्व-गुमान से फूला हुआ. सुनते ही चिढ़ गया. और चिढ़ गया सो चढ़ गया-

‘ठीक है, तुम्‍हारा बेटा करता रहे लोगों के दिलों पर राज, गद्दी का स्‍वामी तो मैं अपने बेटे को ही बनाऊंगा!' हठीले राजा ने अपना निर्णय सुनाया.

रानी नहीं जानती थी कि बात इतनी बढ़ जाएगी...मामूली झाड़ आसमान जा चढ़ेगा. जिसे वह चाहती थी, वह बड़ा बेटा था. नियम से राजा का असली उत्तराधिकारी. न चाहते हुए भी रानी ने अपनी भूल के लिए राजा से माफी मांगी. अपनी गलती का दंड अपने बड़े बेटे को न देने की प्रार्थना की. आखिर राजा पिघला-

‘आज की हमारी तकरार तो महज संयोग है. वरना छोटे बेटे को राजगद्दी पर बिठाने का फैसला तो मैं कभी का कर चुका हूं. राज ताकत से चलता है. सचाई, ईमानदारी, और भलमनसाहत जैसे शब्‍द ग्रंथों में ही शोभा देते हैं. असल में तो वे राजा को कमजोर बनाते हैं. उसकी महत्त्वाकांक्षाओं की राह में रोड़े हैं ये सब. लोग जिससे डरते हैं, उससे

प्‍यार भी करते हैं. तुलसीदास जी ने स्‍वयं रामचंद्रजी के मुख से कहलवाया है-‘भय बिनु होय न प्रीति.'

‘छोटा किसी भी तरह अपनी बात मनवाना जानता है. इसलिए उसमें मुझे चक्रवर्ती सम्राट के सभी गुण नजर आते हैं. मुझे पूरा विश्‍वास है, कि वह पुरखों की इस विरासत को न केवल संभालकर रखेगा, बल्‍कि बढ़ाएगा भी.'

रानी को चुप हो जाना पड़ा. राजा ने मनमानी की. कुछ ही दिन बाद उसने छोटे बेटे को युवराज घोषित कर दिया. बड़ा बेटा निर्द्वंद्व रहा. रानी को लगा कि कहीं अन्‍याय हुआ है. फिर भी वह चुप रही.

परिस्‍थितियां यदि प्रतिकूल हों तो प्रतीक्षा करना भी नीति बन जाता है. और जब राजा अन्‍याय करे तो उसका फल पूरे राज्‍य को भोगना पड़ता है. आखिर यही हुआ भी.

राजा दिल का बुरा नहीं था. परंतु उसके दिल में दबी-छिपी उच्चाकांक्षाएँ उससे गलत निर्णय करा लेती थीं. ऐसा ही उस बार हुआ था.

युवराज बनते ही छोटे बेटे की मनमानियां और अत्‍याचार और भी बढ़ गए. राज्‍य और राजा दोनों की मान-मर्यादा को ताक पर रखकर वह राजकार्य में हस्‍तक्षेप करने लगा. प्रारंभ में तो राजा को सबकुछ भला लगा. लगा कि युवराज होने के कारण वह राजनीति में रुचि दिखा रहा है. लेकिन बहुत जल्‍दी छोटे बेटे की हरकतें उसका जी दुखाने लगीं. युवराज को समझाने की राजा की सारी कोशिशें बेकार गईं.

राजधानी के पार्श्‍व में एक नदी बहती थी. नदी के दूसरे तट पर बसा था एक गांव. छोटा-सा, वहां के किसान मेहनती और भले थे. युवराज अक्‍सर उस गांव से होकर गुजरता. एक दिन वह शिकार से लौटा और सीधे राजभवन में जा धमका. राजा उस समय राजकाज में व्‍यस्‍त था.

‘पिताजी, मैं एक बाग लगवाना चाहता हूं, बहुत बड़ा-इतना कि किसी भी राजा के पास वैसा बाग न हो.' युवराज ने राज्‍य की कार्रवाही में व्‍यवधान डालते हुए कहा.

राजा ने गर्दन उठाई. युवराज की ओर देखकर उसने धैर्यपूर्वक कहा-‘हमारे राज्‍य में बागों की कमी नहीं है. तरह-तरह के, एक से बढ़कर एक बाग हैं. जहां वृक्ष फलों से; लताएं फूलों से लदी रहती हैं. कोयल वहां गाती, मोर नाचते हैं. हमारे तालाबों में कमल-दलों से भरपूर नीलसरोवर हैं. जिनमें रंग-बिरंगी मछलियाँ तैरती रहती हैं. फिर भी तुम एक और बाग लगवाना चाहते हो तो युवराज होने के नाते तुम्‍हें इसका भी अधिकार है. अच्‍छी-सी भूमि देखकर वहां बाग लगवा लो.'

‘मैं चाहता हूं कि एक बहुत बड़ा बाग हो. जिसमें शिकार के लिए हिरन, शेर, चीता आदि भी हों. भूमि मैं तय कर चुका हूं, बस आपकी अनुमति की जरूरत है?'

‘कैसी अनुमति?'

‘जिस भूमि पर मैं बाग लगाना चाहता हूं, उसके बीच में एक गांव आता है, हमें

उसको हटाना होगा?' कहते हुए युवराज ने गांव का नाम और पता बता दिया. सुनते ही राजा चौंक पड़ा.

‘उस गांव के लोग तो बहुत भले हैं. संकट के समय वहां के निवासियों ने कई बार हमारी मदद की है. हम उन्‍हें कैसे उजाड़ सकते हैं?' राजा ने आहत मन से बेटे को समझाने का प्रयास किया.

‘कानून के हिसाब से राज्‍य की समस्‍त भूमि का स्‍वामी राजा होता. इसलिए राजा का अधिकार है कि वह अपनी भूमि के साथ जो जी चाहे करे. फिर हम किसी को उजाड़ कहां रहे हैं. गांव वालों को एक स्‍थान से हटाकर दूसरे ठिकाने पर बसा दिया जाएगा. इसका खर्च भी राज्‍य उठाएगा!'

‘यह नहीं हो सकता. गांव वाले जिस स्‍थान पर बसे हैं, वह उनका अपना है. मैं तुम्‍हें गांव को उजाड़ने का आदेश नहीं दे सकता.' राजा ने कहा. युवराज पांव पटकता हुआ वहां से चला गया. उसके बाद राजा और युवराज में कई दिनों तक भेंट नहीं हुई. धीरे-धीरे दिन बीते गए. बात आई-गई होने लगी.

एक दिन राजा ने राज्‍य-भ्रमण का निर्णय किया. रानी को बताया तो उसने भी साथ चलने की इच्‍छा व्‍यक्‍त की.

‘हमें यात्रा से लौटने में महीनों लग सकते हैं. इस बीच राज्‍य की देखभाल कौन करेगा?'

‘क्‍यों, युवराज तो है!' राजा ने तत्‍काल कहा.

‘जाने क्‍यों मेरा मन घबरा रहा है. महाराज, क्‍या ऐसा नहीं हो सकता कि आप अपने उत्तराधिकारी को लेकर फिर से सोच-विचार कर लें?' रानी गिड़गिड़ाई.

‘यह तुम्‍हारा भ्रम है, फिर भी तुम यदि यही चाहती हो तो यात्रा से लौटने के बाद मैं इसपर अंतिम निर्णय लूंगा.' राजा ने रानी की बात मान ली. वस्‍तुतः वह स्‍वयं भी युवराज की मनमानी से तंग आ चुका था.

महीनों लंबी यात्रा के बाद राजा और रानी लौटे तो वातावरण कुछ बदला-बदला पाया. यात्रा की थकान मिटाने के लिए राजा सीधे राजभवन में चला गया. अगले दिन राजदरबार में लौटा तो वहां सैकड़ों फरियादियों को देखकर चौंक पड़ा. पता चला कि राजा की अनुपस्‍थिति का फायदा उठाते हुए युवराज ने खुद को सम्राट घोषित कर दिया है. राजा के रूप में सबसे पहले उसने सेनापति को गांव खाली करने का आदेश दिया. सेनापति ने सैन्‍यबल के साथ गांव पर धावा बोल दिया. चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई. जिसने भी विरोध जताने का प्रयास किया, सैनिकों ने उसको जेल में डाल दिया.

‘महाराज, सैकड़ों साल से हमारे पुरखे वहां रहते आए हैं. फिर भी यदि युवराज को उस गांव की जमीन इतनी ही जरूरी थी तो हमें संभलने के लिए समय दिया होता. बदले में हमें ऐसी जगह दी जाती जो उपजाऊ हो, जहां हम सब अपने-अपने परिवार के साथ

सुखपूर्वक रह सकें. परंतु जिस स्‍थान पर हमें बसने का आदेश दिया गया है, वहां की जमीन बंजर और ऊबड़-खाबड़ है. पानी का तो नामोनिशां नहीं है.' फरियादियों के मुखिया ने कहा. राजा गर्दन झुकाए सुनता रहा.

‘हुजूर, ऐसे तो हम भूखे-प्‍यासे मर ही जाएंगे.'

‘क्‍या तुमने युवराज को समझाया नहीं था?' राजा ने मंत्री की ओर देखा. उसको विश्‍वास था कि मंत्री पुराना है. प्रजा का हित देखेगा. लेकिन मंत्री का तो स्‍वर ही बदला हुआ था, ‘महाराज, मैं तो इस सिंहासन का भक्‍त हूं. मेरा काम है, सिंहासन पर विराजमान महाराज के कामों को आसान करना. आपके पीछे युवराज इस गद्दी के स्‍वामी थे. उनकी खुशी गांव की जगह पर बाग लगाने में थी, तो मेरा भी फर्ज था कि यह काम जल्‍दी से जल्‍दी पूरा हो. सुंदर से सुंदर बाग लगाया जाए, जिससे महाराज के मन को शांति मिले, और उनका नाम हो.'

राजा को गुस्‍सा आया. उसका मन हुआ कि मंत्री को सलाखों के पीछे डाल दिया जाए. उसने सेनापति की ओर देखा. सेनापति ने गर्दन झुका ली. राजा समझ गया कि उसके पीछे युवराज ने सभी को अपने बस में कर दिया है. राजा ने युवराज को दरबार में बुलाने का आदेश दिया. युवराज आया. सत्तामद से चूर. झूमता हुआ.

‘बेटा, कम से कम मेरे लौटने तक तो इंतजार किया होता?' राजा ने मर्माहत हो युवराज से कहा.

‘आप ही के कारण गांव वालों का सिर सातवें आसमान पर है. मैंने उन्‍हें चार दिन पहले गांव छोड़ने का आदेश दिया था. पर वे नहीं माने. मैं समझ गया कि बिना बल-प्रयोग के काम नहीं सधेगा. इसलिए उस समय राजा होने के नाते मैंने वही किया जो मुझे ठीक लगा.' युवराज के स्‍वर में न प्रायश्‍चित्तबोध था, न करुणा का भाव. थी तो सिर्फ निष्‍ठुरता ...मनमानी करने की आदत, जिद और गुमान. और था अहंकार, जो अज्ञानी के हाथ में अनायास बड़ी ताकत आ जाने से पैदा होता है.

‘तुम बहुत कठोर हो, मैंने तुम्‍हें युवराज बनाकर गलती की है.'

‘युवराज नहीं, सम्राट कहें. अब मैं ही यहां का राजा हूं. आप बूढ़े हो चुके हैं. भलाई इसी में है कि यह सिंहासन मुझे सौंपकर आप पूजा-पाठ में अपना मन लगाएं...' राजा ने नजर उठाकर देखा. उसको लगा कि सिवाय फरियादियों के दरबार में एक भी उसके पक्ष में नहीं है. वह खुद को अशक्‍त एवं मजबूर महसूस करने लगा. बेबसी में आंखों से आंसू बह निकले. धीरे-धीरे वह उठा और बोझिल कदमों से राजमहल की ओर चल दिया.

छोटे राजकुमार ने गद्दी संभाल ली.

राजा को राजमहल में नजरबंद कर लिया गया.

और बड़ा राजकुमार!

राजा ने जब छोटे बेटे को युवराज बनाने की घोषणा की थी, तो बड़े राजकुमार के

दोस्‍तों ने उसको खूब उकसाया था. कहा था कि छोटा राजकुमार उसके अधिकार पर कब्‍जा कर रहा है, कि वह चाहे तो छोटे राजकुमार को रोक सकता है, उसके दोस्‍त उसके साथ हैं, कि दरबार में अपनी पैठ भी कम नहीं. कि उसके एक इशारे पर हजारों लोग मर-मिटने को भी तैयार हैं.'

‘क्‍या सभी दरबारी अपने साथ हैं?' बड़े राजकुमार ने पूछा था.

‘सब तो नहीं सेनापति और मंत्री समेत कुछ को छोटे राजकुमार ने खरीद रखा है. पर घबराने की बात नहीं, उनसे भी निपटा जा सकता है.'

‘निपटना यानी सिंहासन के लिए संघर्ष, यदि हम उसमें नाकाम रहे तो?'

‘राजगद्दी के लिए संघर्ष छिड़ेगा तो बात महाराज तक जाएगी ही. वे भले ही आपके छोटे भाई को युवराज बनाने की घोषणा कर चुके हों, मगर शास्त्रों में बड़े बेटे को गद्दी देने का विधान है. जनता भी आपके साथ है. ऐसे में आप यदि संघर्ष करेंगे तो आपका हक मार पाना संभव नहीं होगा. कम से कम आधा राज्‍य तो मिलेगा ही.'

‘राज्‍य का बंटवारा, उसके बाद?'

‘उसके बाद आप प्रजा पर राज्‍य करेंगे.'

‘प्रजा पर राज!'

‘प्रजा अगर मुझे राजा के रूप में चाहेगी तो खुद राजा बना देगी!'

‘कोई किसी को कुछ नहीं बनाता, यहां जो बनना है, वह अपने आप बनना पड़ता है, जैसे छोटे राजकुमार ने गद्दी हथिया ली.'

‘मुझे इस तरह राजा नहीं बनना. प्रजा को यदि जरूरत हुई, तब जरूर सोचूंगा.'

‘तब करते रहिए इंतजार. छोटे राजकुमार स्‍वार्थी हैं, महाराज की तरह एक दिन आपको भी कैद कर लिया जाएगा.' दोस्‍तों ने कहा. उनकी आवाज में व्‍यंग्‍य था. बड़ा राजकुमार मुस्‍करा कर रह गया. उसकी मुस्‍कान को दोस्‍तों ने कायरता माना. धीरे-धीरे वे उससे दूर हटते गए.

बड़ा राजकुमार कुछ दिन स्‍थिति पर विचार करता रहा. धीरे-धीरे वहां उसका मन ऊबने लगा. एक दिन मां से अनुमति लेकर वह घर से निकल गया. खुले जंगल में घूमते, पेड़, पर्वत, लता-गुल्‍मों, पक्षियों, जानवरों, नदी-तलैया, हवा-धूप से बतियाते हुए उसके दिन बीतने लगे.

उधर छोटे राजकुमार के सपने बहुत बड़े थे. गद्दी पर सवार होते ही उसकी महत्त्वाकांक्षाओं को पंख लग गए. उसने आसपास के छोटे राज्‍यों पर हमला करके उनपर अधिकार जमा लिया. छोटी-छोटी जीतों से उसकी महत्त्वाकांक्षाएं और भी भड़क उठीं. अब उसका इरादा अपने से बड़े राज्‍य को हड़पने का था. वहां का राजा था नीतिसेन. बुद्धिमान, बहादुर और दिलेर. प्रजा का सच्‍चा हमदर्द, सुख-दुःख का खयाल रखने वाला.

मंत्री और सेनापति दोनों ने समझाया. बलवंत की ताकत के बारे में बताया भी. मंत्री

ने सलाह दी कि उसपर हमला करना आत्‍मघाती हो सकता है. सेनापति ने चेताया कि सैनिकों में विद्रोह भरा है, उन्‍हें इस समय युद्ध में ढकेल देना उचित नहीं. मगर छोटा राजकुमार नीतिसेन के राज्‍य पर हमला करने की जिद ठाने रहा. उसके आदेश पर सैन्‍य तैयारियां होने लगीं. उनकी सूचना नीतिसेन तक जा पहुंची. खबर मिलते ही उसने चढ़ाई का आदेश दे दिया. छोटा राजकुमार हड़बड़ा गया. घबराहट में उसने सेनापति को याद किया-

‘महाराज इतनी जल्‍दी युद्ध छिड़ा तो हमारी पराजय निश्‍चित है?' सेनापति बौखलाया.

‘हार तो दरवाजे पर खड़ी है, यह बताइए कि उससे निपटने की हमारी तैयारियां कैसी हैं?' छोटे राजकुमार ने सवाल किया.

‘सेना थकी हुई है, अपने से बड़ी सेना के हमले की खबर से ही उसका मनोबल गिर चुका है.'

‘तुम्‍हारा मतलब है कि मैं हार मान लूं.' छोटा राजकुमार झल्‍लाया.

‘पराजय को सामने देख संधि कर लेना तो कूटनीति है.' मंत्री ने कहा.

‘इससे तो मेरी सारी इज्‍जत मिट्टी में मिल जाएगी...' छोटा राजकुमार परेशान हो उठा।

‘नीतिसेन जैसे बहादुर योद्धा के साथ संधि होने से तो आपका मान ही बढ़ेगा.' मंत्री ने पैंतरा बदला.

‘वह हमारी संधि को मानेगा?'

‘हम उसके आगे अपने खजाने का द्वार खोल देंगे.' स्‍वार्थी मंत्री ने सलाह दी.

मंत्री और सेनापति के कहने पर छोटा राजकुमार समर्पण के लिए तैयार हो गया. बात प्रजा तक पहुंची तो लोग तिलमिला उठे. उन्‍हें यह अपने मान-सम्‍मान पर धब्‍बा लगा. लोग मुंह दबाकर छोटे राजकुमार की आलोचना करने लगे.

उन दिनों बड़ा राजकुमार जंगल में झोंपड़ी डालकर रह रहा था. उसकी दाढ़ी बढ़ आई थी. जंगल में रहते हुए उसको वन-वनस्‍पतियों की पहचान हो गई. कुछ पुरानी शिक्षा काम आई. जड़ी-बूटी देकर वह लोगों का उपचार करने लगा. इससे आसपास के लोग उसको जानने लगे थे. जरूरत के समय उसके पास सलाह के लिए भी चले आते थे. छोटे राजकुमार के समर्पण की चर्चा आरंभ हुई तो कुछ लोग फिर उसके पास सलाह करने पहुंचे.

‘महाराज आप ही मदद करें, हमारे राजा तो अपना मान-सम्‍मान गिरवी रखने की तैयारी कर ही चुके हैं.'

‘इस समय मैं क्‍या कर सकता हूं. नीतिसेन तो सीमा पर आ ही पहुंचा है. अब या तो युद्ध होगा; अथवा समर्पण.'

‘जब राजा और सेनापति युद्ध से पहले ही हार मान चुके हों, सेना का मनोबल गिरा

हुआ हो तो युद्ध की कोई संभावना ही नहीं बचती. इस स्‍थिति में तो केवल समर्पण ही संभव है.'

‘राजा और सेनापति ने ही तो हार मानी है, पर राज्‍य तो प्रजा से होता है. क्‍या प्रजा भी हार मान चुकी है?' बड़े राजकुमार ने पूछा. यह सुनते ही वहां मौजूद लोगों के बीच सन्‍नाटा व्‍याप गया.

‘महाराज प्रजा तो प्रजा है, उसका काम लड़ना थोड़े ही है.' मौजूद लोगों में से एक ने कहा.

‘ठीक कहते हो. प्रजा का काम लड़ना नहीं है. लड़ना सेना और सेनापति का काम है. लेकिन वे तो पहले ही हार मान चुके हैं, ऐसे में प्रजा क्‍या हाथ पर हाथ रखकर बैठी रहेगी? इंतजार करेगी कि कोई आए और उसके मान-सम्‍मान की रक्षा करे, उसको इस संकट से बचाए. अगर समय रहते कोई बचाने के लिए नहीं आया तो क्‍या गर्दन झुकाकर चंद कायरों के फैसले को मान लेगी? अपने स्‍वाभिमान, अपने मान-सम्‍मान को यूं ही मिट जाने देगी? यदि नहीं तो बताएं कि प्रजा का ऐसे में क्‍या कर्तव्‍य है?' बड़े राजकुमार ने सवाल उछाला. लोग कानाफूसी करने लगे. अचानक उनके चेहरे पर तेज व्‍याप गया.

‘हम समझ गए महाराज. हमारी गलती यह है कि हम हमेशा दूसरों की ओर देखते आए हैं. अब हमें हमारी भूल समझ में आ गई है. बलवंत की सेना चाहे जितनी बड़ी हो. हम उसको राज्‍य के मान-सम्‍मान से समझौता नहीं करने देंगे. मर जाएंगे, पर मान नहीं जाने देंगे, लेकिन...'

‘लेकिन क्‍या?' बड़े राजकुमार ने कहा.

‘महाराज युद्ध हो या आंदोलन. उसके लिए कोई ऐसा तो चाहिए ही जो सबसे आगे रहकर नेतृत्‍व की बागडोर संभाल सके.'

‘उसकी तुम फिक्र मत करो. इरादे यदि नेक और दिलों में सच्‍चा जोश हो तो जुलूस में उपस्‍थित हर व्‍यक्‍ति नेता होता है.'

अगले दिन नीतिसेन ने देखा कि सामने से हजारों की तादाद में भीड़ चली आ रही है.

‘महाराज हमें तो बताया गया था कि वह समर्पण की तैयारी कर रहा है, यहां तो बड़े हमले की तैयारी लगती है.' साथ खड़े सेनापति ने नीतिसेन से कहा.

‘लगता है कि उसकी मौत ही उसको मैदान की ओर खींचकर ला रही है. तुम सेना को तैयार रहने का हुक्‍म दे दो.' नीतिसेन ने आदेश सुनाया। वह स्‍वयं भी युद्ध की तैयारियों में जुट गया.

उस समय तक प्रजा सामने आ पहुंची थी. नीतिसेन ने देखा तो दंग रह गया. भीड़ में स्त्री-पुरुष, बूढ़े-बच्‍चे, बीमार-अपाहिज सब थे. कुछ के हाथ में लाठियां थीं, कुछ के हाथ में डंडे. कुछ के हाथ में दरांत, चाकू, कुछ अपाहिज ऐसे भी थे, जो बैशाखी के सहारे अपने

शरीर को संभालने का प्रयास कर रहे थे.

‘यह सब क्‍या है? क्‍या तुम्‍हारे राजा ने तुम्‍हें लड़ने भेजा है?' बलवंत ने जनसमूह का नेतृत्‍व कर रहे युवक से पूछा से पूछा, जो स्‍वयं बैशाखी के सहारे घिसटता हुआ वहां तक पहुंचा था.

‘हमें किसी ने नहीं भेजा. अपने राज्‍य की मान-मर्यादा के लिए हम स्‍वयं लड़ने आए हैं. हम जान देंगे पर अपनी आजादी पर आंच नहीं आने देंगे.'

‘अगर ऐसा है तो अपने राजा को समझाया होता, हम तो अपने राज्‍य में शांतिपूर्वक रह रहे थे. वही हमारे विरुद्ध षड्‌यंत्र रच रहा था.'

‘तो आप राजा से निपटें. किंतु इस राज्‍य को अपने राज्‍य में मिलाने का सपना छोड़ दें.'

‘राज्‍य क्‍या राजा से अलग होता है?'

‘राज्‍य का मान-सम्‍मान सबसे ऊपर होता है. उसके लिए राजाओं की बलि चढ़ाई जा सकती है.'

‘महाराज! आप यदि आदेश दें तो हमारे सैनिक इन भिखमंगों को पलक झपकते धूल चटा दें.' नीतिसेन के सेनापति ने कहा.

‘नहीं, नीतिसेन इतना मूर्ख नहीं है, जो अपनी कीर्ति को इतनी आसानी से मिट जाने दे. मेरी सेना इन निहत्‍थे लोगों से लड़कर इन्‍हें मार तो गिराएगी, मगर इतिहास इन्‍हें ही नायक मानेगा. ये सब अमर हो जाएंगे, जबकि मैं हमेशा ही खलनायक माना जाऊंगा. इसलिए अपने सैनिकों से कहो कि वे हथियार नीचे कर लें. हमारी सेना निहत्‍थों पर वार नहीं करेगी.'

‘परंतु यहां का राजा जो हमारे विरुद्ध षड्‌यंत्र रच रहा था, क्‍या उसको यूं ही छोड़ देंगे?'

‘हरगिज नहीं! तुम अपने आठ-दस सैनिकों को लेकर जाओ और राजा को बंदी बना लाओ?'

‘सिर्फ, आठ-दस!'

‘वे भी ज्‍यादा हैं, देखना तलवार उठाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी.'

यही हुआ भी. छोटा राजकुमार गिरफ्‍तार कर लिया गया. नीतिसेन अपनी सेना सहित वापस लौट गया. छोटे राजकुमार के गिरफ्‍तार होते ही प्रजा ने बुजुर्ग राजा को आजाद करा लिया. तब राजा को अपने बड़े बेटे की सुध आई. उसने अपने सैनिक बड़े बेटे की खोज में चारों तरफ फैला दिए. कुछ ही दिनों में लोगों ने साधु भेष में एक युवक को दरबार में प्रवेश करते देखा. कुछ ने उसे देखते ही पहचान लिया.

‘अरे, ये तो वही महाराज हैं, इन्‍हीं की प्रेरणा से तो हम अपने राज्‍य की इज्‍जत बचाने में सफल हुए हैं.'

राजा को असलियत मालूम हुई तो बहुत प्रसन्‍न हुआ. अपने व्‍यवहार पर खेद प्रकट करते हुए बोला-‘तुम्‍हारी मां ही ठीक कहती थी. मैं गलती पर था. अब तुम्‍हीं इस राज्‍य की बागडोर संभालो.'

‘आप अब भी गलती पर हैं महाराज. राज्‍य का मान-सम्‍मान प्रजा के कारण सुरक्षित है. इसीलिए उचित होगा कि राज्‍य की व्‍यवस्‍था का भार प्रजा को ही सौंप दिया जाए.'

‘हमारे पूर्वज यहां सैकड़ों वर्ष से राज्‍य करते आए हैं.' राजा व्‍यथित था.

‘राजा वह जो राज्‍य और प्रजा के मान-सम्‍मान की रक्षा कर सके. उसके लिए अपने प्राणों की आहुति देनी पड़े तो भी पीछे न रहे. इस राज्‍य पर हमारा अधिकार उसी समय खत्‍म हो चुका था, जब छोटे राजकुमार ने इसे नीतिसेन को सौंपने का निर्णय लिया था.'

‘क्‍या परिवार के किसी एक सदस्‍य के अपराध का दंड उसके पूरे परिवार को देना न्‍याय है?'

‘एक राजा की गलती का दंड उसकी पीढ़ियों को भोगना ही पड़ता है.' बड़े राजकुमार ने कहा.

राजा ने सोचा. अचानक उसके चेहरे पर तेज छा गया, ‘शायद तुम्‍हीं ठीक कहते हो. इस राज्‍य का मान-सम्‍मान प्रजा ने बचाया है. इसलिए अपना राजा चुनने का अधिकार प्रजा को ही है. लेकिन जब तक प्रजा अपना नया राजा नहीं चुन लेती, तब तक तो तुम इस राजगद्दी को संभाल लो. मरने से पहले कम से कम मैं तो यह देख ही लूं कि बड़ा बेटा होने के नाते मैंने तुम्‍हें तुम्‍हारा अधिकार सौंपने में गलती नहीं की.'

बड़े राजकुमार ने बात मान ली. अगले ही दिन से राज्‍य में नए राजा के चुनाव की तैयारियां होने लगीं.

कहानी लंबी थी. पर टोपीलाल बिना पलक झपके सुनता गया. कहानी पूूरी होते ही मां ने टोपीलाल की आंखों में झांका.

‘अन्‍याय हड़बड़ी में रहता है, आपाधापी में वह गलती कर बैठता है; इसलिए कभी भी अपने लक्ष्‍य तक नहीं पहुंच पाता. जबकि न्‍याय की यात्रा लंबी और जीत स्‍थायी होती है. क्‍यों यही कहना चाहती हो ना मां?' टोपीलाल ने मां की आंखों मेंं झांकते हुए कहा.

‘तू ठीक समझा. अब तू उस खेल का मतलब भी आसानी से समझ जाएगा?' मां ने कहा और टोपीलाल को अपने सीने से लगा लिया. अब नींद के आगोश में जाने की बारी थी.

उस रात टोपीलाल को गहरी नींद आई और सुहावने सपने भी.

अगले दिन सेे मां उसको सांप-सीढ़ी का खेल सिखाने लगी. पासे और गोटियों का काम

ईंट और पत्‍थर की टिकुलियों से चलाया गया. काम के दौरान ही वह ईंट के एक छोटे टुकड़े को घिस लाई थी. उसकी लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई एक समान थीं. फिर कील से उसके हर पहलू पर एक से छह तक की गिनतियां लिख दी गईं. टोपीलाल कौतूहल से मां को यह सब करते हुए देखता रहा.

‘मां, अपने बचपन में क्‍या तुम भी ऐसे ही खेल खेला करती थीं?'

‘कभी-कभी, पर हमारे जमाने में ये गत्ता-वत्ता नहीं था. हम तो बस आंगन में खड़िया या गेरू से खाने बनाकर खेलने बैठ जाते थे. गोटियां और पासे तब भी मैं ही बनाया करती थी.'

टोपीलाल को जो सिखाया गया था, वह उसने ध्‍यान से ग्रहण किया. मां के काम पर चले जाने के बाद वह अकेला ही खेलता रहा. अपने दाएं और बाएं हाथ को उसने अलग-अलग टीम बना दिया. बारी-बारी से दोनों हाथों से चाल चलता रहा. अपने इस सोच पर उसको गुमान भी हुआ. एक-दो दिनों में वह खेल में पारंगत हो गया. अगले कुछ दिनों में उसने बाकी बच्‍चों को भी उस खेल में निपुण कर दिया. इससे बच्‍चों को नया खेल मिल गया. वे जमीन पर रेखाएं खींचकर काम चलाने लगे.

इस बीच एक बात टोपीलाल के दिमाग में लगातार करकती रही. खेल के उत्‍साह नेे भी उसको मरने नहीं दिया. जब भी वह गोटियों और गत्त्ो पर बने चित्रों को देखता, उसको मां का कहा याद आ जाता. खेल सिखाने से पहले मां ने कहा था कि यह प्रकृति का खेल है. इसकी गोटियां कुछ हो सकती हैं. अपनी बात को स्‍पष्‍ट करने के लिए मां ने एक कहानी भी सुनाई थी. टोपीलाल जानता था मां कोई भी बात यूं ही तो कहती नहीं.

‘मुझे मां से उसी दिन इस खेल का रहस्‍य जान लेना चाहिए था.' यह सोचते ही टोपीलाल के मन में ग्‍लानिबोध उमड़ने लगता.

खेल जितना ही जरूरी है, खेल की भावना को समझना. उसके हर पहलू की बारीकी से जांच करना. यह सोचते हुए टोपीलाल ने मां की बातों की गहराई तक पहुंचने का भरसक प्रयास किया. मगर बेकार. उस दिन टोपीलाल ने खेल पूरा किया तो उसका इरादा पक्‍का था.

शाम को जैसे ही मां घर के काम से निपटी, टोपीलाल उसके पास पहुंच गया.

‘मां, यह प्रकृति क्‍या होती है?' उसने बात छेड़ी.

‘क्‍या तू सचमुच इससे अनजान है?'

‘जानता तो हूं...' टोपीलाल सकुचाया. जैसे उसकी चोरी पकड़ी गई हो, ‘लेकिन प्रकृति का खेल मेरी समझ से बाहर है.'

मां मुस्‍करा दी, ‘टोपीलाल, तू मेरे सोच से भी ज्‍यादा चतुर है रे...ठीक है, खाना खा ले. आज सोने से पहले हम इस बारे बातचीत करेंगे...वह गत्ता तो है, न? उसको साथ रखना.'

ज्ञान आत्‍मा की जरूरत है. मन में सीखने की सच्‍ची ललक हो तो मस्‍तिष्‍क उल्‍लास से भर जाता है. मां के साथ सोने को चला तो टोपीलाल का मन पर उमंग सवार थी. दिये की मद्धिम रोशनी, सरसों के तेल की हल्‍की-हल्‍की धूम्र-गंध, झींगुरों और तिलचट्‌टों की बेसुरी आवाज के बीच मां ने टोपीलाल को अपने सीने से सटा लिया-

‘अब तू कह, क्‍या जानना चाहता है?' मां ने वात्‍सल्‍य उंडेला.

‘वही, जो मेरी मां चाहती है कि मुझे जानना चाहिए.'

‘हूं, तो सुन! हम सबकी जिंदगियां, इस संसार में जो कुछ भी घटता है या घटने वाला है, वह सब प्रकृति के सनातन खेल का हिस्‍सा है. प्रकृति विराट है. उसको समझने के लिए हमारी बुद्धि बहुत छोटी है. और जब हम उसको समझ नहीं पाते तो उसे तरह-तरह के नाम देने लगते हैं. अपनी समझ के अनुसार उसकी अलग-अलग व्‍याख्‍या करते हैं. कोई उसे किस्‍मत कहता है, कोई भाग्‍य-रेख. कोई कपाल-गाथा. पर मैं इसको खेल कहती हूं. कुदरत का खेल. सांप-सीढ़ी का खेल भी उसी की तरह है, बेटा.'

टोपीलाल ने अपना सारा ध्‍यान मां के शब्‍दों पर एकाग्र कर लिया था. ताकि उसका एक-एक शब्‍द, शब्‍द का प्रत्‍येक भाव, भाव में अंतर्निहित उसका स्‍वाभाविक स्‍फुरण, स्‍वर का उतार-चढ़ाव सीधे दिमाग में उतरता चला जाए. पर मां की जिह्‌वा पर तो उस समय जैसे सरस्‍वती विद्यमान थी. उसकी बातें लगातार जटिल होती जा रही थीं-

‘मैं कुछ समझा नहीं मां?' बात जब सिर के ऊपर से जाने लगी तो टोपीलाल ने टोकना ही उचित समझा.

‘बहुत आसान-सी बात है बेटा. हम जैसा करते हैं, वही पाते हैं. आम का पेड़ लगाओ तो आम का फल और उसकी शीतल छाया मिलती है. बबूल बोने से कांटे...और धूप. लूडो के खेल में जो पासा है, उसकी एक-एक चाल मानो हमारे कर्तव्‍य हैं. हमारे अच्‍छे-बुरे संकल्‍प. अच्‍छे कर्म हमें सीढ़ी बनकर सहारा देते हैं. वे हमें सीधे ऊपर ले जाते हैं. लक्ष्‍य की ओर, जिसको इस खेल में घर बताया गया है.

दूसरी ओर बुरे कर्म हमें पीछे की ओर खींचते हैं, वे हमें नाग की तरह डंसते हैं, नागपाश बनकर हमारे कदमों की बेड़ी बन जाते हैं. वे हमारे विकास को अवरुद्ध कर, पतन का कारण बनते हैं. हमें आसमान से धरती पर ला पटकते हैं. हमारी एक चाल, एक गलत कदम हमें वापस उसी जगह पर ला सकता है, जहां से हमने अपनी यात्रा आरंभ की थी. यानी एक गलती पर उस समय तक का किया-धरा सब बराबर.'

‘पर मां पासे पर तो एक से छह तक अंक लिखे होते हैं. उनमें से कौन-सा अंक कब आता है, यह तो संयोग पर निर्भर है. इसमें हमारा कौशल, अच्‍छा या बुरा कहां है?'

‘ठीक कहते हो तुम? पासे के एक से छह अंक में से किसी एक का आना, संयोग पर निर्भर है. वह अंक कहां ले जाएगा, हमें उठाएगा कि गिराएगा; यानी उसका फल भी हमारे हाथ में नहीं होता. ठीक ऐसे ही जैसे अपने किसी कार्य के परिणाम के बारे में हम

ठीक-ठीक कुछ भी नहीं बता पाते...'

‘तब तो यह जुआ ही हुआ, मां...और जुआ खेलना तो बुरी बात है, क्‍यों?' टोपीलाल ने बीच में टोका.

‘जुए जैसा ही समझो. पर यह एकदम जुआ भी नहीं है. संभावनाओं के बीच कहीं न कहीं ठहराव, कुछ न कुछ पक्‍कापन भी होता है. यह पक्‍कापन यानी सुनिश्‍चितता हमारे अनुभव और विवेक पर निर्भर करती है. लगातार अभ्‍यास द्वारा इसे बढ़ाया भी जा सकता है. अपनी बुद्धि और अनुभव के दम पर आदमी पहले ही अनुमान लगा सकता है, कि उसके किसी काम का क्‍या फल मिलने वाला है.'

‘सीढ़ियां और सांप, याने पुण्‍य और पाप?'

‘हां, इन्‍हें आसान भाषा में पुण्‍य और पाप भी कह सकते हैं. असल में ये हमारे विवेक और अज्ञान के प्रतीक हैं.'

‘मां तुमने यह सब कहां से सीखा है?' टोपीलाल का मन विस्‍मय से भरा था.

‘आदमी अगर अपना दिमाग खुला रखे तो ज्ञान उसके आसपास ही बिखरा होता है? जरूरत तो सही वक्‍त पर सर्वोत्तम मोती चुनने और सहेजने की है.' मां ने बताया.

टोपीलाल का रोम-रोम प्रफुल्‍लित हो उठा। भावावेश में उसने अपनी बांहें मां के गले में डाल दीं. वह दिन-भर की थकी हुई थी. टोपीलाल के मन में और भी कई सवाल थे. लेकिन उसे याद आया कि असंयमी होना उचित नहीं. एक साथ ज्‍यादा जानने के चक्‍कर में मां ने अभी-अभी जो बताया है, उसको भूल सकता है.

टोपीलाल मां के बताए एक-एक शब्‍द को आत्‍मसात कर लेना चाहता था. इसलिए नींद का बहाना करने लगा. मां समझ गई. बराबर की चारपाई पर टोपीलाल के पिता की सांसें बता रही थीं कि वे गहरी नींद में हैं. मां ने हाथ बढ़ाकर दीपक बुझा दिया.

गहराते अंधेरे के बीच दोनों नींद की प्रतीक्षा करने लगे. पर नींद तो खुद पलकों के दरवाजे से झांक रही थी. टोपीलाल को नींद की आतुरता भली लगी. उसने खुद को उसके हवाले कर दिया.

अगले दिन टोपीलाल जगा तो उसके मन में उत्‍साह था. उमंग थी बीते दिन मां से जो सीखा था, उसको सभी बच्‍चों को बता देने की. लेकिन उसको दुःख था कि उसके आसपास जो बच्‍चे रहते हैं, वे सभी छोटे-छोटे हैं. मां की बड़ी-बड़ी बातें उनके दिमाग में नहीं आ पाएंगी. फिर किसको बताया जाए? यह एक ऐसी समस्‍या थी, जिसका उसके पास कोई समाधान नहीं था.

टोपीलाल यदि चाहता तो अपने टोले के बड़े आदमियों को भी लूडो के खेल के मायने समझा सकता था. वे गंभीरता से सुनते भी. पर वह जानता था कि काम से छूटने

के बाद वे सभी बहुत थके होते हैं. ऐसे में उनके आगे ज्ञान की बातें बघारना गलत होगा. हो सकता है, उन्‍हें मालूम भी हो. जैसे मां ने अपने अनुभव से जाना है, वैसे ही वे भी जानते हों. जो मां जानती है, संभवतः उससे भी ज्‍यादा.

‘ऊंह! मां से ज्‍यादा तो वे हरगिज नहीं जान सकते.' टोपीलाल ने अपनी ही बात को काटा, ‘उनका अनुभव मां से बड़ा हो सकता है. पर अनुभव को सहेजने में मेरी मां किसी से भी आगे है. ज्ञान के अनंत महासागर से सही मोती चुनना और सहेजना, मां ने यूं तो नहीं कहा था.' सोचते-सोचते टोपीलाल को अपनी मां पर गर्व होने लगा.

उन दिनों टोपीलाल एक और परिवर्तन अपने बीच अनुभव कर रहा था. उसको लगता कि इन दिनों उसका दिमाग कुछ ज्‍यादा ही उड़ने लगा है. बड़ी अजीब-अजीब-सी बातें सोचता है. कई बार बे सिर-पैर की भी. कभी लगता है कि वह आसमान पर उड़ रहा है. पक्षियों की तरह. पंख फैलाए. कभी विचार आता कि बादलों के नीले मैदान में चांद को फुटबाल बनाकर खेल रहा हो.

कभी-कभी सोचता कि दुश्‍मन देश ने उसके शहर पर हमला कर दिया है. उसके विमान बम बरसाने के लिए शहर की ओर बढ़े चले आ रहे हैं. शहरवासी परेशान हैं. चीख-चिल्‍ला रहे हैं. तब वह अपनी गुलेल निकालकर निशाना साधता है.

‘भड़ाक!' गुलेल से छूटा मामूली कंचा, एक विमान को धराशायी कर देता है. फिर वह दूसरा कंचा गुलेल पर चढ़ाता है और...

‘धड़ाम!' दूसरा विमान भी धरती पर गिरकर धूं-धूं जलने लगता है. दुश्‍मन हैरान है. वह हमला तेज कर देता है. आसमान में दर्जनों विमान एक साथ नजर आते हैं. सांय-सांय...शहर की ओर बढ़ते हुए!

‘जल्‍दी से बड़े कंचों का इंतजाम करो...!' वह बच्‍चों से कहता है.

‘बड़े कंचे तो मलोहरा की दुकान पर मिलेंगे?' बच्‍चे घबरा जाते हैं.

‘तो जाकर मलोहरा से मांगो...नहीं दे तो लूट लो.' लूटने की जरूरत नहीं पड़ती. मलोहरा कंचों की पूरी थैली लिए खुद हाजिर है. उसकी बहादुरी के आगे नतमस्‍तक-

‘ये लो, देश की खातिर पूरी दुकान हाजिर है...इन गुलेल पर चढ़ाकर दुश्‍मन के इन कनकौओं को धराशायी कर दो, हरामखोर जंगी सेना से टकराने का ख्‍बाब पाले हुए हैं।' अनपढ़ मलोहरा अपने देश के जहाजों को जंगी सेना और दुश्‍मन देश के जहाजों को कनकौए कहता है.

वह जोश से भरा हुआ बड़े कंचे को गुलेल पर साधता है. कंचा हवा में सरसराता हुआ आगे बढ़ता है. उसकी तेज रफ्‍तार से आंधियां उठने लगती हैं. दुश्‍मन के तीन विमान उस आंधी में फंसकर नीचे गिर जाते हैं. बिजली की-सी तेज रफ्‍तार से कंचा एक विमान से टकराता है. वह हवा में ही टुकड़े-टुकड़े बिखर जाता है. पहले विमान से टकराने के बाद वही कंचा तुरंत पलटता है और दूसरे विमान को धूल चटा देता है. एक ही वार में

अपने पांच-पांच विमानों को जमीन पर लोटता देख दुश्‍मन घबरा जाता है. वह अपने विमानों को वापस बुलाकर जमीनी हमला शुरू कर देता है.

अब उसके दर्जनों टैंक देश को तबाह करने के लिए सीमा पर चढ़े चले आ रहे हैं. उनपर लगी तोपें दनदना रही हैं. तब वह उछलता है और दुश्‍मन की तोपों से छूटे गोलों को फटने से पहले ही हवा में पकड़कर वापस दुश्‍मन-देश की तरफ फेंक देता है, एक के बाद एक...दुश्‍मन के गोले उसी की धरती को तबाह कर रहे हैं. उसके पसीने छूट रहे हैं, वह हैरान है कि उसके गोले उसी को हताहत कर रहे हैं.

टैंक मिट्‌टी के खिलौनों की तरह टूटते जा रहे हैं. दुश्‍मन की कमर टूट चुकी है. उसके सैनिकों के हौसले पस्‍त हैं. वे हथियार डाल रहे हैं. लोगों के चेहरों पर चमक है. प्रकृति के कण-कण से विजय का उल्‍लास रिस रहा है. कंजूस मलोहरा को अपने कंचों के जाने का गम नहीं. वह खुश है. मग्‍न होकर नांच रहा है.

अगले ही पल वह देखता है कि देश के राष्‍ट्रपति उसको सम्‍मानित कर रहे हैं. शहर वाले उसको अपने कंधों पर उठाए हुए हैं.

एक बार उसने और भी विचित्र दिवास्‍वप्‍न देखा. उसने देखा कि वसंत की शुरुआत में वह भरे-पूरे बाग में है. तितलियां और पशु-पक्षी उससे बतिया रहे हैं. उनकी बोली वह आसानी से समझ सकता है. तभी एक हरियल तोता उसके कंधे पर आकर बैठ जाता है-

‘तोपीलाल-तोपीलाल भूख लगी.' तोता कहता है.

‘मेरे साथ घर चलो. मां कल ही बाजार से हरी मिचेंर् लाई है, खूब खाना.'

‘मिर्च नहीं...आज तो नन्‍ही अमियां खाने का मन है भइया!'

‘अभी से, अमियां तो कम से कम दो महीने बाद मिलेंगी. क्‍यों दोस्‍तो?' टोपीलाल सामने खड़े आम के वृक्ष से प्रश्‍न करता है. आम का बूढ़ा पेड़ गर्दन हिलाता है-

‘मैं तो बूढ़ा हो चला हूं. दस-पांच दिन ज्‍यादा भी लग सकते हैं फल आने में. जो जवान पेड़ हैं, वे तो दो महीने में फलने ही लगेंगे.'

‘पर मुझे तो आज ही खाने का मन है...कुछ करो न!' तोता खुशामद पर उतर आया. उसको रहम आने लगता है. वह मुस्‍कराते हुए अपनी जेब में हाथ डालकर बांसुरी निकालता है. बांसुरी देख पेड़-पौधे, पशु-पक्षी सभी के चेहरे खिल उठते हैं. हवा ठहर जाती है. तितलियां सांस रोककर बैठ जाती हैं.

अगले ही पल वह अपनी बांसुरी में फूंक मारता है. जैसे-जैसे बांसुरी की धुन आगे बढ़ती है, पेड़-पौधों का कायाकल्‍प होने लगता है. लताएं फूलों से लद जाती हैं. आम की डालियों पर बौर झलकने लगता है. अमराई-गंध जड़-चेतन को महकाने लगती है. न जाने कहां से भंवरे और तितलियां आकर उनपर मंडराने लगते हैं. उसके अगले ही पल और भी बड़ा चमत्‍कार होता है. बौर के बीच नन्‍ही-नन्‍ही अमियां नजर आने लगती हैं.

‘धन्‍यवाद तोपीलाल भइया! मैं जानता था कि एक सिर्फ तुम्‍हीं हो जो यह कर सकते

हो।' कहता हुआ तोता फुर्र से उड़कर आम की डाल पर जा बैठता है. और चुनकर हरी-हरी अमियां खाने लगता है.

ऐसी ही न जाने कितनी कल्‍पनाएं, कितने सपने, कितनी उड़ानें टोपीलाल ने भरी हैं. अकेले-अकेले. उस समय वह भूख-प्‍यास सब भूल जाता है. यहां तक कि आपा भी बिसरा देता है।

एक बार की अनोखी बात. वह ऐसे ही सड़क पर घूम रहा था. उन दिनों उनका दल एक बहुमंजिला इमारत के निर्माण में लगा था. मालिक जल्‍दी कर रहा था. इसलिए मां और बापू जल्‍दी ही काम पर निकल जाते. टोपीलाल घर में अकेला रह जाता. उस दिन घर में मन नहीं लगा तो वह सड़क पर आ गया. सड़क पर वाहन आ-जा रहे थे. अपनी ही धुन में मस्‍त. टोपीलाल सड़क के किनारे बने फुटपाथ पर आगे बढ़ने लगा. यकायक उसके दिमाग ने उड़ान भरी. कल्‍पना ने कमान संभाली...आंखें बिंब सजाने लगीं.

टोपीलाल को लगा कि वह स्‍वयं एक साइकिल पर है, मगर उसकी साइकिल कोई ऐसी-वैसी साइकिल नहीं है. जरूरत पड़ने पर वह हवा में उड़ लेती है. पानी पर फर्राटे भर सकती है. उस समय वह अपनी साइकिल पर धीरे-धीरे चला जा रहा था. अचानक शोर मचा. साइकिल के आगे चल रहा ट्रक चरमराया. साइकिल को भी बे्रक लगेे. अचानक वह हवा में उड़ने लगी. पलक झपकते ही साइकिल ट्रक के आगे थी. ट्रक के पीछे आ रही कार का चालक टोपीलाल की तरह फुर्तीला नहीं था. उसकी कार ट्रक से टकराई और उसका आगे का हिस्‍सा पिचक गया. यह देख टोपीलाल के चेहरे पर मुस्‍कान तैर गई...

‘ऐ, आंखें बंद करके चल रहा है क्‍या?' किसी ने टोपीलाल को टोका तो उसका दिवास्‍वप्‍न भंग हुआ. उसके सामने एक लड़का बैठा हुआ था. जूतों पर पॉलिश करने के लिए छोटी-सी दुकान सजाए. टोपीलाल को अपनी भूल का एहसास हुआ. वह एक ओर हट गया.

‘यहां सभी मेहनत करके खाते हैं. और तो और मेरी मां भी काम पर जाती है. बाकी औरतों की तरह वह सिर्फ घर नहीं संभालती. इसलिए मुझे भी कुछ न कुछ करना ही चाहिए.' उस बच्‍चे की ओर देखते हुए टोपीलाल ने सोचा. मगर अगले ही पल उसको लगा कि काम करने से तो उसकी आजादी छिन जाएगी. फिर ये सुहावने दिवास्‍वप्‍न...यह आजादी...!

‘काम के लिए तो अभी मैं बहुत छोटा हूं. फिर मुझे पढ़ना भी तो है...!' टोपीलाल ने मन को समझाया और कुछ ही पहले दिमाग में आए विचार को बाहर कर दिया. पर क्‍या वह इस विचार को सचमुच बाहर कर पाया था।

मनुष्‍य का दिमाग एक रहस्‍यमय अजायबघर की तरह होता है. जिसमें कुछ चीजें करीने

से सजी होती हैं तो ढेर सारी यत्र-तत्र बिखरी रहती हैं. यहां तक कि उसके संचालक को भी उनके बारे में ठीक से पता नहीं होता.

उस दिन वह बाकी बच्‍चों के साथ खेल में मग्‍न था कि सड़क के उस पार से एक लड़की को जाते देखा. हाथों में छोटी-सी पोटली उठाए वह बहुत तेजी से बढ़ती जा रही थी, मानो किसी काम को निकली हो और उसमें बहुत देर हो चुकी हो.

‘आज से पहले तो इसे कभी नहीं देखा.' टोपीलाल ने मन ही मन सोचा. उसी समय उसे सड़क के उस पार से चीखने की आवाज सुनाई दी. टोपीलाल ने चौंककर उसी ओर देखा. एक कुत्ता लड़की के हाथ से पोटली छीनकर भागा जा रहा था. टोपीलाल खेल छोड़कर फौरन उठ खड़ा हुआ. हाथ में पत्‍थर उठाकर वह तेजी से दौड़ा. सड़क पर वाहनों की भरमार थी. उसने पत्‍थर से निशाना साधा. कुत्ता पोटली छोड़कर भाग खड़ा हुआ. टोपीलाल पोटली लेकर लड़की के पास पहुंचा. वह रोए जा रही थी. उसने लड़की को समझाने का प्रयास किया.

‘मां ठीक ही कहती है. मैं कोई भी काम ठीक से नहीं कर सकती.' लड़की सुबके जा रही थी.

‘कौन हो तुम, कहां रहती हो?' टोपीलाल ने सवाल किया. जवाब देने के बजाय लड़की ने एक ओर उंगली से इशारा कर दिया.

‘खाना किसके लिए ले जा रही थीं?'

‘मां के लिए, वहां सड़क किनारे गुमटी लगाती है.' लड़की ने एक ओर इशारा किया, फिर बताती चली गई, ‘मां रोज सवेरे रोटी बनाकर ले आती थी. पर दिन होते-होते रोटियां अकड़ जाती हैं. उसके कमजोर दांतों से कटती ही नहीं. इसलिए मैंने सोचा कि मां को गर्म रोटियां बनाकर पहुंचा दिया करूंगी. मां कहती थी कि यह मुझसे नहीं होगा. आखिर वही हुआ जो मां ने कहा था. मैं कोई काम तरीके से कर ही नहीं सकती.'

लड़की फिर सुबकने लगी.

‘तुम्‍हारे पिता जी क्‍या करते हैं?'

‘नहीं हैं!'

‘क्‍या, मर गए?' टोपीलाल के मुंह से निकला. परंतु अपनी गलती का एहसास उसको जल्‍दी ही हो गया. ग्‍लानिबोध में उसने अपनी गर्दन झुका ली.

‘नहीं, मां को छोड़कर कहीं दूर चले गए हैं.' लड़की का स्‍वर सपाट था, जिसने टोपीलाल को विस्‍मय में डाल दिया.

‘तुम्‍हें भी छोड़ गए?'

‘हां, मैं भी मां की तरह काली जो हूं '

‘ओह!' मारे दुःख के टोपीलाल का कलेजा फटा जा रहा था. आगे भी शब्‍द मुंह से निकाल पाना मुश्‍किल हो गया.

‘उठो, तुम्‍हारी मां को भूख लगी होगी. घर से कुछ रोटियां ले लेते हैं.' रोटियों का नाम सुनकर लड़की के पैरों की जान वापस आ गई. वापस आकर टोपीलाल अपनी मां के पास पहुंचा. उससे कुछ बातें कीं. फिर वापस आकर रोटियां लीं. चूल्‍हे में आग गर्मा रही थी. जल्‍दी-जल्‍दी उन्‍हें गर्म किया. लड़की उसकी ओर चुपचाप देखती रही.

‘अरे! इतनी देर हो गई. मैंने तुम्‍हारा नाम तो पूछा ही नहीं.' दुबारा सड़क पर आते ही टोपीलाल ने लड़की से पूछा.

‘निराली, यही नाम है मेरा. लेकिन सिवाय मां के सब मुझे काली ही कहते हैं. मेरे रंग को देखते हुए उन्‍हें यही नाम ठीक लगता है.' लड़की ने बताया.

‘तुम सचमुच निराली हो. आज के बाद मैं तुम्‍हें इसी नाम से पुकारूंगा. और सुनो, मेरी मां बताया करती है आदमी अपनी गलतियों से भी सीखता है. वह कभी गलत नहीं कहती. एक दिन तो यह बात सचमुच सच भी हो गई.' टोपीलाल ने कहा. लड़की को खुश रखने के लिए वह उसको बातों में उलझाए रखना चाहता था.

‘कैसे?' लड़की जो कुछ देर पहले तक अपने आंसू रोक नहीं पा रही थी, अब उसकी बातों का आनंद लेने लगी थी. टोपीलाल तो यही चाहता था. वह आगे बताने लगा-

‘अभी कुछ दिन पहले की बात है? मां और पिताजी तो काम पर चले जाते हैं. उनके बाद घर की सफाई का छोटा-मोटा काम मुझी को करना पड़ता है. उस दिन मैं झाड़ू लगा रहा था. खेल का समय हो चुका था. बच्‍चे घर के सामने इंतजार कर रहे थे. कुछ ऊबकर घर लौट चुके थे. सभी को जल्‍दी थी. मैं भी जल्‍दी-जल्‍दी काम समेट लेना चाहता था.

(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: ओमप्रकाश कश्यप का बाल उपन्यास : मिश्री का पहाड़ (2)
ओमप्रकाश कश्यप का बाल उपन्यास : मिश्री का पहाड़ (2)
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