ओमप्रकाश कश्यप का बाल उपन्यास : मिश्री का पहाड़

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मिश्री का पहाड़ (बालउपन्‍यास) ओमप्रकाश कश्‍यप BPSN PUBLICATION G-571, ABHIDHA, GOVINDPURAM GHAZIABAD, UP-201013 --- सर्वाधिकार...

मिश्री का पहाड़

(बालउपन्‍यास)

ओमप्रकाश कश्‍यप

BPSN PUBLICATION

G-571, ABHIDHA, GOVINDPURAM

GHAZIABAD, UP-201013

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सर्वाधिकार : लेखक

मूल्‍य : 175 रुपये

प्रथम संस्‍करण : 2009

प्रकाशक : बीपीएसएन पब्लिकेशन

जी-571, गोविंदपुरम्‌,

गाजियाबाद-201013

आवरण संयोजन : लेखक

कंप्‍यूटरीकृत : लेखक

Mishri Ka Pahad (Novel) : by Omprakash Kashyap

Price : Rs. - 175.00

 

इस बाल उपन्यास का मुफ़्त पीडीएफ़ ई-बुक यहाँ से डाउनलोड कर पढ़ें

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भूमिका

सुखद संयोगों के साथ...

इस उपन्‍यास में का प्रकाशन एक सुखद ऐतिहासिक संयोग है. उसके बारे में आप शीघ्र जान जाएंगे. शुरुआत अरस्‍तू से जिसने मनुष्‍य को पारिभाषित करते हुए उसको विवेकशील प्राणी की संज्ञा दी. उसकी दी गई परिभाषा आज तक सर्वमान्‍य है. अरस्‍तु ने यह भी कहा था कि बालक का मस्‍तिष्‍क कोरी सलेट के समान होता है, जिसपर कोई भी इबारत उकेरी जा सकती है. उसकी बात को आगे बढ़ाते हुए सतरहवीं शताब्‍दी के महान चेक शिक्षाशास्त्री जॉन अमोस कॉमिनियस(1592-1670) ने कहा था-

‘यह ठीक है कि बच्‍चे का मस्‍तिष्‍क कोरी सलेट होता है, जिसपर हम मनचाही इबारत लिख सकते हैं. लेकिन एक अर्थ में यह उससे भी बढ़कर है. सलेट की सीमा होती है. हम उसपर उसके आकार से अधिक कोई इबारत लिख ही नहीं सकते. जबकि मानव-मस्‍तिष्‍क अनंत क्षमतावान होता है. उसपर जितना चाहे लिखा जा सकता है, क्‍योंकि वह निस्‍सीम है,(डाइडेक्‍टिका मेग्‍ना, 1628-32).'

कॉमिनयस का कहना था कि बच्‍चे स्‍वभावतः अच्‍छे होते हों, इतने कि उन्‍हें सद्‌गुणों की खान कहा जा सकता है. किंतु उनके व्‍यक्‍तित्‍व को निखारने के लिए शिक्षा अनिवार्य है. कॉमिनियस ने ये विचार उस समय और समाज में व्‍यक्‍त किए थे, जहां एक सर्वमान्‍य मान्‍यता थी कि पाप मनुष्‍य के साथ

उसके जन्‍म से जुड़ा है. अतः उसको पाप के गर्त से उबारने के लिए शिक्षा (धार्मिक) अनिवार्य है. इस मान्‍यता के चलते तत्‍कालीन समाज में शिक्षा के नाम पर बलप्रयोग सामान्‍य बात थी. ‘डाइडेक्‍टा मेग्‍ना' जिसका अभिप्राय है-संपूर्ण शिक्षण-कला, में कॉमिनियस ने शिक्षा-पद्धति को लेकर मौलिक विचार प्रस्‍तुत किए गए थे. उसका कहना था कि न केवल अमीर और ताकतवर वर्ग के बच्‍चों, बल्‍कि गांवों, कस्‍बों, शहरों में रहने वाले अभिजात्‍य और सामान्‍य, गरीब और अमीर, झोपड़ियों और अट्‌टालिकाओं में रहने वाले सभी लड़के-लड़कियों को शिक्षा के लिए अनिवार्यतः स्‍कूल जाना चाहिए. ये विचार तत्‍कालीन यूरोपीय समाज में क्रांतिकारी थे. ‘डाइडेक्‍टा मेग्‍ना' को चतुर्दिक सराहना मिली और प्रायः सभी यूरोपीय भाषाओं में उसका अनुवाद किया गया. यह पुस्‍तक वर्षों तक कई यूरोपीय भाषाओं में बेस्‍टसेलर बनी रही. लेकिन कॉमिनियस की प्रसिद्धि केवल इसी पुस्‍तक के कारण नहीं है. बच्‍चों के बीच शिक्षा को सरल एवं ग्राह्‌यः बनाने के लिए उसने सचित्र पुस्‍तक, ऑरबिस सेंसुलियम पिक्‍चस्‌ (1658), जिसका अर्थ है-चित्रों की दुनिया, भी तैयार भी की थी. वह पुस्‍तक वास्‍तव में एक लघु ज्ञानकोश थी, जिसमें बच्‍चों के काम की जानकारी चित्रों के साथ प्रकाशित की गई थी. ‘ऑरबिस सेंसुलियम पिक्‍चस्‌' को विश्‍व की पहली सचित्र पुस्‍तक होने का गौरव प्राप्‍त है. लोकशिक्षा के प्रसार हेतु अमूल्‍य योगदान तथा उसके क्षेत्र में अपने मौलिक एवं क्रांतिकारी प्रयोगों के लिए कॉमिनियस को ‘आधुनिक शिक्षाशास्‍त्रा का पितामह' कहा जाता है. चेक और स्‍लॉविया गणराज्‍य अपने इस महान सपूत के जन्‍मदिवस 28 मार्च को ‘शिक्षक दिवस' के रूप में मनाते हैं.

लोकशिक्षा के क्षेत्र में महान योगदान देने वाले कॉमिनियस का निजी जीवन बहुत ही कष्‍टमय एवं संघर्षपूर्ण था. बचपन में ही अनाथ हो जाने वाले कॉमिनयस ने घोर अभावों के बीच अपनी शिक्षा पूरी की. तत्‍पश्‍चात वह अध्‍यापन कार्य में जुट गया. अपने सुधारवादी नजरिये के कारण उसको परंपरावादियों के घोर विरोध का सामना करना पड़ रहा था. सहसा भीषण युद्ध छिड़ जाने से उसको जान बचाकर भागना पड़ा. उसकी जवान पत्‍नी और दो छोटे बच्‍चे पहले ही प्‍लेग की बलि चढ़ चुके थे. अपने ही देश में भगोड़े की तरह यहां से वहां भागते कॉमिनियस को अपनी जान बचाने के लिए युद्ध से तहस-नहस हो चुकी झोपड़ियों, गुफाओं यहां तक कि वृक्ष के खोखले तनों में छिपकर जान बचानी पड़ी. इस बीच वह सुधारवादियों के संपर्क में आया. लेकिन खुशहाल जिंदगी उसको तब भी न मिल सकी. 42 वर्षों तक वह भीषण अभाव एवं तनाव-भरा जीवन जीता रहा. यहां तक कि उसकी दूसरी पत्‍नी भी, चार छोटे-छोटे बच्‍चों को छोड़कर असमय मौत के मुंह में समा गई. भागदौड़ और संघर्षपूर्ण जिंदगी के बीच कॉमिनियस ने 154 पुस्‍तकें लिखी थीं. मगर उसका घर जहां उसका बेशकीमती पुस्‍तकालय तथा पुस्‍तकों की मूल पांडुलिपियां सुरक्षित थीं, उपद्रवियों के गुस्‍से की भेंट चढ़कर राख हो गए. भारी विरोध तथा उथल-पुथल के बीच आर्थिकरूप से विपन्‍न, 64 वर्षीय कॉमिनियस को अंततः पोलेंड में शरण लेनी पड़ी, जहां वह मृत्‍युपर्यंत मित्रों के सहारे जीवित रह सका. वह एकेश्‍वरवाद में भरोसा रखता था तथा समाज में नैतिक गुणों की स्‍थापना के प्रति पूरी तरह समर्पित था. विपरीत परिस्‍थितियों में रहकर भी उसने अपनी सृजनात्‍माकता को कभी भी मंद नहीं पड़ने दिया.

तो संयोग यह है कि इन पंक्‍तियों के लिखे जाने और दुनिया की पहली सचित्र पुस्‍तक के प्रकाशन के बीच ठीक साढ़े चार सौ वर्षों का अंतराल है. यद्यपि यह कोई सचित्र पुस्‍तक नहीं है. लेकिन इस उपन्‍यास की मूलभावना कहीं न कहीं कॉमिनियस के संदेश से मेल खाती है, इस सुखद संयोग के कारण उस महान शिक्षाशास्त्री का स्‍मरण इस अवसर पर अत्‍यावश्‍यक था.

जिन दिनों इस उपन्‍यास के लिखने की योजना बनी, उन दिनों हैरी पॉटर के चर्चे हवा में थे. जे. के. रोलिंग की इस पुस्‍तक--श्रृंखला को लेकर सबके अलग-अलग विचार थे. हैरी पॉटर के पाठक और प्रशंसक उसको दूरदर्शन के ऊपर शब्‍द की जीत के रूप में उल्‍लिखित कर रहे थे. अपने दावे के पक्ष में उनके पास हैरी पॉटर की रिकार्डतोड़ बिक्री के रिकार्ड थे. भारत समेत प्रायः सभी ऐशियाई देशों में इस उपन्‍यास को लेकर एक आलोचनात्‍मक दृष्‍टिकोण बना रहा था. वह पहला अवसर था जब किसी पुस्‍तक की जबरदस्‍त आलोचना हो और वह बिक्री के कीर्तिमान भी बनाए. हैरी पॉटर ने भारत में बिक्री के कितने कीर्तिमान बनाए यह तो ज्ञात नहीं है, लेकिन अधिकांश समीक्षकों और लेखकों ने इस पुस्‍तक को आड़े हाथों लिया था. सिवाय उन बाजार-पोषित पत्रकारों-समीक्षकों के, जिन्‍होंने हैरी पॉटर की आलोचना को हिंदी बेल्‍ट के लेखकों की कुंठा माना और उनकी रचनाशीलता पर सवाल खड़े किए.

उस समय एक पल के लिए विचार आया था कि हैरी पॉटर की तरह ही भारतीय परिवेश में फंतासी का सहारा लेकर एक उपन्‍यास की रचना की जाए. कथानायक हैरी की भांति चामत्‍कारिक और अतिंद्रीय शक्‍तियों का स्‍वामी हो. उपन्‍यास के कुछ आरंभिक अध्‍याय यह सोचकर लिखे भी. लेकिन बहुत जल्‍दी लगने लगा कि हैरी पॉटर, हैरी पॉटर के देश में ही ठीक है. वे खा-पीकर इतने अघाए हुए लोग हैं कि आगे उन्‍हें लुढ़कना ही लुढ़कना है. भारतीय परंपरा मुक्‍ताकाश में बहुत अधिक उड़ने की इजाजत भी नहीं देती. यहां तो देवताओं को भी धरती पर उतरकर कभी माखन चुराना पड़ता है; तो कभी मर्यादा पुरुषोत्तम की भूमिका में आना पड़ता है. हिंदी उपन्‍यास के लिए अपने देश की मिट्‌टी की गंध से रचा-बसा नायक ही ठीक रहेगा. इसलिए सारे प्रलोभन छोड़, हैरी पॉटर की चामत्‍कारिता को किनारे रखकर टोपीलाल को कथानायक की जिम्‍मेदारी सौंप दी गई. टोपीलाल ने भी अपनी जिम्‍मेदारी को बाखूबी निभाया. कुछ ही दिनों में वह कथानायक होने के साथ-साथ कथाप्रेरक भी बन गया. लिखना जिनका स्‍वभाव या मजबूरी है वे जानते हैं कि और जब कोई कथापात्र प्रेरक बनकर कहानी का सूत्र अपने हाथों में थाम ले तो लेखक की भूमिका कलम थामकर अपने पात्रों के पीछे घिसटते जाने की हो जाती है. वही इस पुस्‍तक में भी हुआ.

अब यह उपन्‍यास आपके हाथों में तो उचित होगा कि आभार-ज्ञापन के बहाने उन सभी को याद कर लिया जाए जिनके माध्‍यम से ये लेखकीय आयोजन सफल हो पाते हैं. इनमें डॉ. प्रकाश मनु, देवेश, सुरंजन, सुभाष चंदर जैसे मित्र-हितैषी तो हैं ही, मेरी पत्‍नी और परिवार के चारों सदस्‍य भी सम्‍मिलित हैं. इनमें सबसे अधिक योगदान मेरी धर्मपत्‍नी विमलेश कश्‍यप का है जो घर में खुद को इसलिए अत्‍यधिक व्‍यस्‍त रखती हैं, ताकि मुझे कंप्‍यूटरघसीटी के लिए अधिक से अधिक समय मिल सके. मैं इन सबका आभारी हूं. चलते-चलते एक संयोग की चर्चा और. आज जब मैं इस भूमिका को समापन की ओर ले जा रहा हूं, मेरे बेटे प्रदीप का जन्‍मदिवस भी है. मुझे यह दोहराने में कतई संकोच नहीं है कि बच्‍चों के लिए कहानियां लिखना मैंने तब आरंभ किया था, जब वह छोटा था, उसको सुनाने के लोभ में मैं कहानियां पर कहानियां रचता जाता था. मेरी अधिकांश कहानियां जो पाठकों द्वारा पसंद की गईं, प्रदीप के कानों से गुजरने के बहुत बाद शब्‍दों के कलेवर में ढल सकीं. अब तो वह युवावस्‍था में कदम रख चुका है और प्रबंधन के क्षेत्र में उच्‍च शिक्षा ग्रहण कर रहा है. उसकी जिज्ञासा अब केवल बच्‍चों की कहानियों से तृप्‍त नहीं होती. पर मैं बच्‍चों के लिए अब भी लिखता हूं. इसलिए कि बच्‍चों के लिए लिखते सहज मैं स्‍वयं को जितना मुक्‍त एवं आनंदमय अनुभव करता हूं, बड़ों के लिए लिखते समय मुक्‍तता का वह एहसास और आनंद मेरी पहुंच से दूर, बहुत दूर चला जाता है. शायद इसलिए कि बच्‍चों के लिए लिखना, लेखक का बचपन की ओर लौटना भी है!

त्‍वदीयं वस्‍तु गोविंदम्‌ तुभ्‍यमेवः समप्‍यते!

ओमप्रकाश कश्‍यप

ईमेल - opkaashyap@gmail.com

अक्‍टूबर, 15, 2008

गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश.

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मिश्री का पहाड़

आज से ठीक चौदह साल पहले टोपीलाल का जन्‍म हुआ. माता-पिता थे बेहद गरीब. अनपढ़, ईमानदार और भले. मेहनती और सूझबूझ वाले, मेहनत-मजदूरी करके पेट भरते. भला सोचते, भला ही करते. रोजगार की तलाश में गांव से शहर तक आए थे. शहर की सीमा पर एक होटल बन रहा था. हाथ का हुनर काम आया. दोनों को वहीं काम मिल गया. अपने श्रम-कौशल से उन्‍हें मान मिला; और सम्‍मान भी. दिन बीतने लगे. एक दिन वे काम पर जुटे थे. होटल के कंगूरे की चिनाई का काम चल रहा था. तभी औरत के पेट में दर्द उठने लगा. पति ने सहारा दिया. वह उसको इमारत के एकांत स्‍थल पर ले गया. थोड़ी देर बाद ही बच्‍चे की किलकारी हवा से लोरी गाने का आग्रह करने लगी. बेटे को ठीक-ठाक जन्‍म देने के बाद मां ने उसके पिता से पूछा- ‘नाम क्‍या रखोगे?'

उस समय पति के हाथ में एक टोपी थी. उससे वह माथे पर आए पसीना सुखाने के लिए हवा झल रहे थे. पत्‍नी के एकाएक सवाल करने पर वे जवाब न दे सके. भीतर से छलकती खुशी को होंठों से दबाते हुए प्रश्‍न-भरी निगाहों से टोपी हिलाने लगे.

‘समझ गई, दूसरों से हटकर है, अच्‍छा है.'

‘क्‍या?'

‘टोपीलाल, है ना?'

‘हैं!' पुरुष चौंक पड़ा, बोला-‘तुम्‍हें पसंद है?'

‘तुम्‍हारा दिया हुआ नाम भला नापसंद क्‍यों हो.' अबोध शिशु को प्‍यार से निहारते हुए मां मुस्‍करा दी.

इस प्रकार बातों-बातों में बच्‍चे का नामकरण संस्‍कार भी संपन्‍न हो गया. उसके जन्‍म के समय एक और खास बात हुई. वह थी उसके मां को बहुत कम प्रसव पीड़ा. घर से बाहर प्रसव का सकुशल निपट जाना किसी चमत्‍कार जैसा ही था. यही नहीं प्रसव का काम निपटाकर उसकी मां ने पिता को वापस काम पर भेज दिया था. उसके बाद तो वे पूरा काम समेटकर ही घर लौटे थे. इस बात की चर्चा टोले के लोग महीनों तक करते रहे.

टोपीलाल के पिता राजमिस्त्री थे. पति-पत्‍नी दोनों साथ-साथ काम करने जाते. टोपीलाल के पिता नहीं चाहते थे कि उसकी मां काम करे. वह भी मजदूरी. इससे बाकी मजदूरों के आगे उनकी हेठी होगी, ऐसा उनको लगता था. इसलिए जब पहली बार उसकी मां ने काम पर साथ चलने कोे कहा तो उन्‍होंने साफ मना कर दिया था.

‘इसमें शर्म कैसी?'

‘मेरी घरवाली होकर मजदूरों के साथ काम करो, मुझे अच्‍छा नहीं लगेगा.'

‘और जो पति-पत्‍नी दोनों तुम्‍हारे लिए मजदूरी करते हैं, उनपर क्‍या गुजरती होगी, कभी सोचा है? मुझसे पूरे दिन घर में बिना काम के नहीं बैठा जाता. तुम यदि अपने साथ काम पर नहीं रखना चाहते तो मैं दूसरी जगह काम की तलाश करूं.'

‘यह क्‍या बात हुई?'

उस दिन टोपीलाल की मां की ही चली. वह काम पर जाने लगी. उसके पिता नहीं चाहते थे कि वह ज्‍यादा मेहनत करे. मिस्त्री होने के कारण वह चाहते थे कि कोई हल्‍का-फुल्‍का काम दे दिया जाए. लेकिन टोपीलाल की मां बिना मान-गुमान के सबके बराबर मेहनत करती. मजदूर औरतों के साथ प्‍यार से बोलती-बतियाती. जरूरत हो तो उनकी मदद भी करती.

बेटे के जन्‍म के बाद टोपीलाल के पिता ने सोचा था कि चलो इसी बहाने वह कुछ दिन आराम कर लेगी. इसलिए बोले-

‘इस हालत में तुम्‍हारा कड़ी मेहनत करना क्‍या ठीक होगा?'

‘क्‍यों जब मैं पहले जैसी स्‍वस्‍थ हूं तो पहले जैसा काम क्‍यों नहीं कर सकती?'

‘फिर भी लोग तो यही कहेंगे कि मैं बहुत कठोर हूं. बच्‍चे के जन्‍म के तीसरे ही दिन तुम्‍हें काम पर जोत दिया.'

‘मैं उन्‍हें बता दूंगी कि मैं अपनी मर्जी से काम करने आई हूं.'

‘ऐसी जिद किसलिए? फिर हमारे सामने कोई मजबूरी भी नहीं हैे. घर का खर्च तो मेरी कमाई से चल ही जाता है.'

‘इसलिए कि मैं मानती हूं कि जो कर सकता है उसको काम करना ही चाहिए. बिना मेहनत के खाने का किसी को अधिकार नहीं है.'

‘मुझे नहीं लगता कि इस हालत में तुम ईंट और गारे से भरी परात सिर पर उठा सकती हो?'

‘हां, यह तो मैं भी सोचती हूं; और तुम कहोगे तो उठाऊंगी भी नहीं.'

‘फिर वहां जाकर क्‍या करोगी?' टोपीलाल के पिता अचरज में थे.

‘मिस्त्रीगिरी! तुम्‍हारे साथ इतने दिनों तक काम करते हुए मैं भी काफी कुछ सीख चुकी हूं. फिर एक बच्‍चे की मां हूं, अब तो मुझे भी तरक्‍की पाने का अधिकार है, क्‍यों?'

उसके बाद वही हुआ जो टोपीलाल की मां ने ठाना हुआ था. दो दिन के टोपीलाल को जमीन पर सुलाकर वह कन्‍नी और वसूली लेकर पति के सामने बैठ गई. मजदूरिनें उसकी हिम्‍मत देख दंग रह गईं. बाकी मिस्त्रियों ने मुंह चिढ़ाया. कहा कि कुछ देर की त्रियाहठ है, किंतु उसको सधे हाथों से ईंट पर ईंट चिनते हुए देख सबकी बोलती बंद हो गई.

टोपीलाल के जन्‍म के तीसरे ही दिन देश की शायद सबसे पहली महिला राजमिस्त्री का जन्‍म हुआ.

एक औरत और राजमिस्त्री, लोगों ने इसे भी चमत्‍कार ही माना.

सचमुच, चमत्‍कार ही तो था.

बीच की एक और घटना दिमाग चाट रही है.

होटल का काम पूरा हुआ तो टोपीलाल छठा वर्ष का पार कर चुका था. उसी के कमरों में लोट लगाते, सीढ़ियों पर धमा-चौकड़ी करते हुए वह बड़ा हो रहा था. हुनरमंद हाथों के परस से होटल की इमारत चमचमा रही थी. बाकी की कसर बिजली के लट्‌टुओं ने पूरी कर दी थी, जो जगह-जगह रंग-बिरंगी आभा बिखेर रहे थे. जगमगा रहे थे यहां-वहां. आखिरी दिन कारीगरों और मजदूरों का हिसाब करने के लिए मालिक ने सबको जमा किया था. होटल पूरे शहर मेंं निराला था. ठीक उसके मालिक की कल्‍पना के अनुरूप. सुरुचि एवं संपन्‍नता का बेमिसाल नमूना. मालिक उनके काम से प्रसन्‍न था. मजदूरी के अलावा सबको कुछ न कुछ भेंट में देने का इंतजाम भी उसने अपनी ओर से किया था. ताकि यादगार बनी रहे.

टोपीलाल का जन्‍म उसी होटल में हुआ था. वह दुनिया का शायद पहला होटल था, जिसमें पति-पत्‍नी दोनों ने राजमिस्त्री की कमान संभाली थी. यह बात भी मालिक की जानकारी में थी. टोपीलाल के लिए उसने खासतौर पर कपड़े बनवाए थे. मालिक उसे अपने लिए शुभ मान रहा था.

शाम का समय. मैदान में डेढ़-दो सौ की भीड़. पंडाल, कुर्सी और मेज को अस्‍थायी कार्यालय के रूप में सजाया गया था. मजदूरों के बच्‍चे एक ओेर खेल रहे थे. कुछ होटल को हसरत-भरी निगाहों से देख रहे थे. उनकी अपनी ही मेहनत का कमाल, खून-पसीने से खड़ी हुई आलीशान इमारत. हुनरमंद हाथों की कारीगरी की बेमिसाल पेशकश. उसको देखकर कोई भी स्‍वयं पर गुमान कर सकता था. वक्‍त खुशी का था और शायद दुःख का, एक-दूसरे से बिछोह का भी था.

यूं तो टोले के अधिकांश मजदूर-मिस्त्री आपस में परिचित थे. परंतु जीवन-संघर्ष में हर बार कुछ न कुछ पीछे छूट जाते. उनकी भरपाई करने नए लोग शामिल हो जाते. वक्‍त उन सबसे विदा लेने का था, जिनके साथ सुख-दुख-भरे इतने साल बिताए थे. पसीने की अदला-बदली की थी. दुख में आंसू बहाए, सुख में हिस्‍सेदारी की थी. वर्षों से वे साथ-साथ काम करते आए थे. आगे काम की तलाश उनमें से न जाने किस-किस को, कहां-कहां ले जाए. इसके बाद फिर कभी मिलने का अवसर मिले भी या नहीं. ऐसी चिंताएं लोगों को सता रही थीं.

ऐसे वक्‍त पर कुछ लोगों की आंखें भरी हुई थीं. तो कुछ उतनी देर के लिए दार्शनिक बन चुके थे. जिंदगी में मिलना और बिछुड़ना तो सत्‍य सनातन है, यह कहकर वे मन को झूठी तसल्‍ली देने की कोशिश कर रहे थे. कुछ यह सोचकर खिन्‍न थे कि जिस इमारत को उन्‍होंने अपने खून-पसीने और हाथों के हुनर से प्राणवंत बनाया, आज के बाद कोई उसमें शायद ही भीतर आने दे या कोई उनको पहचाने भी. उनके जीवन की यही त्रासदी थी. वे ईंट-गारे को जीवन देकर उसे इमारत में ढालते. कन्‍नी और गुनिया लेकर उसका अंग-अंग तराशते. कोरी मिट्‌टी में प्राण-प्रतिष्‍ठा करते. लेकिन काम पूरा होते ही उसमें रहने का अधिकार खो बैठते थे.

ऐसे लोग होटल की ओर टकटकी लगाकर देख रहे थे. यह सोचकर कि आगे कभी लौटे तो दरवाजे पर बड़े-बड़े दरबान खड़े दिखाई देंगे. उन जैसों को वे शायद ही भीतर आने दें. इसलिए विदाई बेला में वे अपने हाथों के कमाल को भीगी पलकों से, आखिरी बार जी भ्‍ररकर देख लेना चाहते थे. सहेज लेना चाहते थे उसके रूपाकार, उससे निर्माण से जुड़ी स्‍मृतियों को.

मजदूरी बांटने का काम प्रारंभ हो चुका था. मालिक एक-एक को आवाज देकर बुला रहा था.

‘टोपीलाल!' मुनीम की ओर से आवाज लगी. इसी के साथ तालियों की आवाज गूंज उठी. टोपीलाल के पिता उसे लेकर आगे बढ़ें, उससे पहले ही टोपीलाल स्‍वयं आगे बढ़ गया. एक पांच-छह साल के बच्‍चे को भरे विश्‍वास के साथ आगे बढ़ते देख लोग दंग रह गए. तालियों का वेग दुगुना हो गया.

‘नाम क्‍या है?' नन्‍हे टोपीलाल से मालिक ने पूछा.

‘ट्‌...ट्‌...टोपीलाल!' नन्‍ही, हकलाती-सी जुबान से जवाब मिला.

‘क्‍या टोंटीलाल?' मालिक बचपन में लौट गया. सबकी हंसी छूट गई.

‘नईं, टोपीलाल...टोपीलाल!' टोपीलाल ने दोहराया.

‘तो टोपी कहां छोड़ आए?' मालिक ने मजाक किया. एक बार फिर मैदान हंसी से उछलने लगा.

‘मेरी जेब में रखी है.' टोपीलाल ने बिना सकुचाए जवाब दिया. कभी उसकी मां ने उसके लिए एक टोपी सिली थी. जिसको वह अक्‍सर अपनी जेब में रखता था. उसने जेब से टोपी निकालकर तत्‍काल पहन भी ली. टोपीलाल की हाजिरजवाबी पर एक बार फिर जोरदार तालियां बजीं. मालिक भी खुशी से नहा उठा. उसने अपने हाथों से टोपीलाल को कपड़े भेंट किए, जिनमें एक रेशम की टोपी भी थी. मालिक टोपीलाल को अपने हाथों से टोपी पहना ही रहा था कि अचानक वह परेशान हो उठा.

टोपीलाल वापस जाने लगा. तभी मालिक की ओर से आवाज आई--

‘ठहरो, वापस आओ बेटे!' टोपीलाल रुक गया.

‘जरा अपने कपड़ों की जेब तो देखो. मेरी घड़ी शायद उसमें गिर गई है.' मालिक ने कहा.

मालिक की घड़ी की गुमशुदगी की खबर मिलते ही एकाएक हड़कंप मच गया. कर्मचारियों में अफरातफरी मच गई. एक ने मालिक को खुश करने के लिए दौड़कर टोपीलाल को पकड़ लिया. आनन-फानन में उसकी तलाशी ली गई. लेकिन घड़ी वहां नहीं थी. सभी परेशान. मालिक अपनी महंगी घड़ी को लेकर चिंतित था. उससे भी अधिक परेशान थे उसके कर्मचारी. हालांकि वे परेशानी का दिखावा ही अधिक कर रहे थे.

‘मैंने देखा, अभी कुछ देर पहले तक तो घड़ी साहब के हाथ में थी, बड़ी जल्‍दी छिपा दी!' एक कर्मचारी ने टोपीलाल को डांटा.

टोपीलाल चुपचाप खड़ा था. उसके माता-पिता को काटो तो खून नहीं. दोनों स्‍वयं को अपमानित महसूस कर रहे थे. विदाई की बेला में यह कैसा अपशगुन. काम पूरा होने की जो खुशी थी, वह गायब हो चुकी थी. कर्मचारियों ने टोपीलाल को पकड़ रखा था.

‘मालिक इसके पास घड़ी भला कहां से आई? आपके दिए कपड़ों के सिवाय इसके पास कुछ और नहीं है.' टोपीलाल के पिता ने गिड़गिड़ाकर कहा. उसकी मां भी आगे आकर फरियाद करने लगी-

‘मेरा टोपीलाल चोर नहीं है मालिक.'

‘यह बहुत शैतान है, कुछ भी कर सकता है.' कर्मचारियों के बीच से आवाज आई. सबने देखा वह बिशंभर था. टोपीलाल के माता-पिता से ईर्ष्‍या करने वाला. किसी को उसकी बात पर भरोसा न हुआ, लेकिन दूसरे कर्मचारियों को टोपीलाल को तंग करने का बहाना मिल गया.

मालिक परेशान था. उसका मूड खराब हो चुका था. घड़ी महंगी थी. पर मालिक की हैसियत के आगे कुछ भी नहीं. वह अपने लिए कभी भी दूसरी घड़ी खरीद सकता था. लेकिन सबके सामने से घड़ी का अनायास गायब हो जाना उसको परेशान कर रहा था. चोर का पता लगना भी जरूरी था. आखिर उसने सारे कर्मचारियों को एक ओर खड़ा हो जाने का आदेश दिया. फिर टोपीलाल को अपने पास बुलाया, प्‍यार से पूछा-

‘बता दो बेटे, मुझे अच्‍छी तरह से याद है, तुम्‍हें बुलाने से पहले घड़ी मेरी कलाई पर बंधी थी.'

‘मुझे नहीं मालूम.' मालिक के पूछने पर टोपीलाल ने जवाब दिया. चोरी के इल्‍जाम से वह घबरा गया था.

‘मालिक यह झूठ बोलकर चोरी का इल्‍जाम दूसरों पर डालना चाहता है.' एक कर्मचारी टोपीलाल पर गुर्राया.

‘तुम कैसे कह सकते हो?' बिना झिझके टोपीलाल ने कहा.

‘इसलिए कि घड़ी सबके सामने, अभी-अभी गायब हुई है. उस समय केवल तुम मालिक के पास थे.'

‘मालिक के पास तो उनके नौकर और कर्मचारी भी हैं. उनसे भी तो पता करना चाहिए. चोर हमारे टोले का नहीं है.'

‘फिर भी घड़ी की चोरी तो हुई है.'

‘तो यह तो मालिक और उसके कर्मचारी जानें.' टोपीलाल ने निडर होकर कहा.

‘कर्मचारी तो सभी पीछे हैं, फिर उनमें इतनी हिम्‍मत कहां कि मालिक की घड़ी की चोरी कर सकें.'

टोपीलाल के दिमाग में बार-बार कुछ खटक रहा था. कि जैसे कुछ याद करना चाहता हो. किंतु विचार दिमाग में टिकने से पहले ही हवा हो जाता था.

मालिक के आदेश पर टोपीलाल को एक ओर बिठा दिया गया. मजदूरी बांटने का काम रुक चुका था. बाकी मजदूर भी पेशोपेश में थे. कुछ इस बात को लेकर परेशान थे कि मालिक का मूड खराब होने के बाद अब ठीक-ठाक ईनाम नहीं मिल पाएगा. लेकिन एकाध के मन में छिपे संदेह की बात जाने दें तो, उनमें से कोई भी टोपीलाल को चोर मानने को तैयार नहीं था.

सहसा टोपीलाल उठकर खड़ा हो गया. सभी उसकी ओर देखने लगे. उसने कहा-

‘अगर मैं चोर पकड़वा दूं तो आप मेरी मां और बापू को जाने देंगे?'

‘हम तुम्‍हें ईनाम भी देंगे.' मलिक ने खुश होकर कहा. उस समय टोपीलाल का दिमाग बहुत तेजी से सोच रहा था. उसको लगा कि घड़ी अगर मालिक की कलाई से गायब हुई तो वह अवश्‍य ही खुलकर गिरनी चाहिए. पर गिरकर जाएगी कहां! नीचे! फर्श पर! लेकिन फर्श पर गिरती तो नजर में आ जाती! फिर कहां गई? यकायक उसकी आंखें चमक उठीं.

‘मालिक घड़ी आपके उस नौकर के पास है, जिसकी आंखों के नीचे गहरा काला दाग है.' टोपीलाल ने रहस्‍य से पर्दा हटाया. इसपर सभी चौंक पड़े.

‘चंदगी...! अभी तक तो वह यहीं था, अचानक कहां चला गया?' टोपीलाल की बताई पहचान पर मालिक के पीछे खड़े एक कर्मचारी के मुंह से निकला. सहसा सबकी आंखें चमक उठीं. चंदगी की खोज की जाने लगी.

‘मालिक पुलिस बुलाकर इसे पकड़वा दीजिए. यह आपका कीमती समय बरबाद कर रहा है.' इस बीच पीछे से दूसरे कर्मचारी की आवाज आई.

‘चुप रहो इतने सारे लोगों के सामने हमारी घड़ी गायब हुई है. उसका इल्‍जाम इस बच्‍चे पर लगाने पर पुलिस क्‍या हमारी बात मानेगी. उल्‍टे हमारी ही हंसी होगी. तुम चंदगी को फौरन बुलाओ.' मालिक ने डांटा. इस पर कर्मचारी पीछे खडे़ आपस में खुसर-पुसर करने लगे.

कुछ देर के बाद चंदगी को खोज लिया गया. वह टोकरी को साफ करने के लिए उठाकर ले गया था. वह एक बार पहले भी चोरी के आरोप में पकड़ा जा चुका था. उस समय तो मालिक ने उसपर दया करते हुए छोड़ दिया था. टोपीलाल ने जैसे ही उससे घड़ी लौटाने को कहा, उसका चेहरा पीला पड़ गया. मालिक समेत सभी का ध्‍यान उसकी ओर चला गया. मालिक ने घूरकर उसकी ओर देखा तो वह घबरा गया और उसके पैरों पर गिर पड़ा. गिड़गिड़ाकर माफी मांगने लगा.

चोरी का भेद खुल चुका था. सभी टोपीलाल की बुद्धि पर हैरान थे. घड़ी चंदगी तक कैसे पहुंची, और टोपीलाल को उसके बारे में कैसे पता चला, यह एक रहस्‍य था.

‘वह तो बहुत पीछे खड़ा हुआ था, मेरे पास आया तक नहीं.' मालिक हैरान था.

‘आया था मालिक, टोकरी उठाने के लिए.'

मालिक को याद आया. चाय के खाली कप, रद्‌दी कागज वगैरह डालने के लिए एक डस्‍टबिन का इंतजाम किया गया था. उसी को उठाने के लिए चंदगी आगे आया था.

‘तुम्‍हें कैसे पता चला कि घड़ी डस्‍टबिन में गिरी है, और चंदगी के पास है?' मालिक ने पूछा.

‘मेरे पापा चोर नहीं हैं, मैं भी चोर नहीं हूं.' टोपीलाल ने भोलेपन से कहा. घड़ी मिल जाने से टोपीलाल के पिता की हिम्‍मत वापस लौट आई थी. वे आगे आकर बोले-

‘मालिक मेहनतकश लोग ईमानदार से जीते, अपने पसीने की कमाई खाते हैं. उनमें इतनी हिम्‍मत कहां कि आपकी महंगी घड़ी रख सकें. इतनी महंगी घड़ी को हमारे पास देखकर कोई भी चोरी का इल्‍जाम लगा लेगा. इसलिए यह काम आप ही के आदमियों का हो सकता है, इसका हमें विश्‍वास था. सबके सामने घड़ी की चोरी तो संभव न थी. इसीलिए संभावना यही थी कि वह अपने आप खुलकर गिर गई हो. यही सोचते हुए इसे आपके नौकर द्वारा डस्‍टबिन उठाने की घटना याद आ गई. तब इसको यह अनुमान लगाते देर

न लगी कि जो कर्मचारी उसे लेकर गया है, घड़ी उसके पास हो सकती है, क्‍यों बेटा?'

टोपीलाल ने ‘हां' के पक्ष में अपनी गर्दन हिला दी.

‘शाबास!' मालिक के मुंह से अनायास निकला. छह साल की आयु में टोपीलाल को मिली यह पहली कामयाबी थी. इस घटना के बाद उसके चाहने वाले उसको जासूस टोपीलाल के नाम से पुकारने लगे. लोगों ने मान लिया कि बड़े सोच के लिए उम्र में बड़ा होना जरूरी नहीं है. असाधारण व्‍यक्‍तित्‍व साधारण वेश में भी सामने आ सकता है. -

आज जब हम यह कहानी आपको सुनाने जा रहे हैं तो टोपीलाल चौदह वर्ष का हो चुका है. इतने वर्ष भी एकाएक नहीं बीते. हालांकि टोपीलाल का प्रयास रहा कि हंसते-खेलते समय यूं ही उड़ जाए. उड़ता ही रहे, जैसे नीले आसमान में पतंग और होली के रंग. उडे़ जैसे पंछी. कुलांचे भरे, जैसे जंगल में हिरन, उछले-खेले जैसे पानी में गोते खाती नीलमछरिया. तैरे ज्‍यों नदिया में रंग-बिरंगी नाव, झील में बत्तखें.

हर रात वह ऐसे ही रंग-बिरंगे सपने देखता. नए-नए अरमान सजाता. लेकिन जब भी वह अपने हमउम्र बच्‍चों को उनके हाथों में तख्‍ती, बगल में बस्‍ता लटकाए देखता तो उसका मन बुझ-सा जाता. उसे लगता कि कुछ उसके हाथों से फिसलता जा रहा है, जो उसको फिर जिंदगी में कभी भी नहीं मिलने वाला. इतना सोचते ही उसका मन बुझ-सा जाता. आशा निराशा में ढल जाती.

एक बार उसके पिता को स्‍कूल के लिए नए कमरे बनाने का काम मिला. दिन में स्‍कूल के एक हिस्‍से में चिनाई का काम चलता. दूसरे में बच्‍चेे पढ़ाई करते. उस समय टोपीलाल को न तो पतंग उड़ाने में मजा आता, न लुका-छिपी का खेल खेलने में. ऊपर से स्‍कूल में पढ़ रहे बच्‍चे जब उसको हेठी नजर से देखते तो उसपर घड़ों पानी पड़ जाता. मन की सारी उमंग धराशायी हो जाती.

यूं तो अपने टोले के सभी बच्‍चों में टोपीलाल सबसे तेज और बुद्धिमान माना जाता. लोग, उसकी तारीफ करते. जो काम दूसरे बच्‍चे नहीं कर पाते थे, उसके लिए टोपीलाल को ही याद करते. टोपीलाल उनके विश्‍वास की रक्षा भी करता. अपने काम से वह हरेक का दिल जीत लेता. किंतु जब वह छोटे-छोटे बच्‍चों को पढ़ते हुए देखता तो उसकी सारी खुशी हवा हो जाती. मन बुझ-सा जाता. उस समय उसका न दूसरों की मदद करने को मन करता, न खेल-कूद में ही आनंद आता.

पिता निश्‍चिंत थे. उन्‍होंने जैसे पहले ही तय कर रखा था-

‘मेरा टोपीलाल बड़ा होकर हम सब राजमिस्त्रियों से आगे जाएगा. उसके हाथों को छूते ही कन्‍नी-वसूली नाचने लगेंगी. ईंटों में छुअन-भर से जान आ जाएगी. अभी तक दुनिया में सात अजूबे हैं. कोई आश्‍चर्य नहीं अगर आठवां अजूबा मेरे बेटे के बड़े होने का इंतजार

कर रहा हो.'

दूसरे मजदूरों की तरह टोपीलाल के पिता के सपने भी छोटे थे. पेट भरने और जिंदगी की मामूली सुविधाओं तक सिमटे हुए. उनके लिए टोपीलाल के पिता को पढ़ाई जरूरी नहीं लगती थी-

‘किताबों में आंख वे फोड़ें जिन्‍हें दफ्‍तरों में जी-हुजूरी करनी हो. मेरा बेटा...' पिता के मुंह से अपनी तारीफ सुनकर टोपीलाल का मन मग्‍न हो जाता. पल-भर के लिए सपनों की ऊंची और कलंगीदार तस्‍वीर उसके सामने होती. लेकिन स्‍कूल में जब बच्‍चों की कक्षाएं लग रही होतीं, और माता-पिता काम पर होते तब उसको सबकुछ सूना और बेकार लगने लगता. मन होता कि उड़कर बाकी बच्‍चों के बीच पाठशाला में जा बैठे, शब्‍दों के साथ बतियाए, अक्षरों के साथ कानाबाती करे.

और इस तरह टोपीलाल का अनमनापन बढ़ता ही जा रहा था. पतंग उड़ाना, लुका-छिपी का खेल खेलना सब पीछे रह गया. उसका कल्‍पनाशील मन जो कभी पंछी-सा निर्बंध आसमान में तैरता, निर्मल-पावन नदी-सा हहर-हहर हहराता, हिरन छौनों जैसा कुलांचे भरता था, वह उदासी से घिरने लगा. और तो और दूसरों के बताए काम में भी वह गलती करने लगा.

टोपीलाल बिगड़ता जा रहा है, अक्‍सर यह लोग कहने लगे. मां से कोई बात छिप पाती है, एक दिन उसकी मां ने पूछ ही लिया. जवाब में टोपीलाल बोला-

‘मां सब कहते हैं कि मैं बहुत तेज हूं. लेकिन.'

‘आखिर बात क्‍या है, बेटा?'ष्‍

‘क्‍या तेज-तर्रार होना ही सबकुछ होता है? उस दिन मैंने सुना, मास्‍टरजी पढ़ा रहे थे कि हम जो जानते हैं उसको दूसरों तक पहुंचाना भी हमारा धर्म है. वे बता रहे थे कि ज्ञान बांटने से और भी बढ़ता है. परंतु जब किसी को ज्ञान समेटना ही न आए तब?'

मां बहुत दिनों से टोपीलाल के हरकतों पर नजर रखे हुए थी. उसकी बेचैनी की राई-रत्ती खबर रखती थी. बेटे के दिल की बात समझते मां को देर न लगी-

‘मैंने तेरे बापू से कहा था तुझे स्‍कूल भेजने को.'

‘सच! फिर बापू ने क्‍या जवाब दिया था?' टोपीलाल की बांछे खिल गईं.

‘उन्‍होंने जो कहा वह गलत कहां है. हमारा कोई एक ठिकाना तो है नहीं!'

‘तो क्‍या हुआ मां, जबतक हम यहां हैं तब तक तो...'

‘ठीक है, मैं कल मास्‍टर जी से बात करके देखूंगी.'

टोपीलाल उछल पड़ा. वह हमेशा ही अपनी मां की सूझ-बूझ का कायल रहा था. कामयाबी की पूरी-पूरी उम्‍मीद थी. उस रात उसने सपना देखा कि वह भी ड्रेस पहनकर स्‍कूल जा रहा है. पुस्‍तकों से बतिया रहा है. दूसरे बच्‍चों की तरह उसका नाम भी पाठशाला के रजिस्‍टर पर चढ़ चुका है-

‘टोपीलाल, पाठ याद करके लाए?'

‘जी हां!'

‘तो सुनाओ?' कक्षा अध्‍यापक का स्‍वर उसके कानों में पड़ता है, और वह बिना एक भी पल गंवाए पूरा पाठ सुना देता है. अध्‍यापक चकित हैं. पूरी कक्षा दांतों तले उंगली दबाए है.

‘देखा.' अध्‍यापक महोदय बाकी कक्षा को संबोधित करते हैं, ‘तुम सब कितने आलसी और कामचोर हो. टोपीलाल से सीखो...एक ही दिन में सारा पाठ याद कर दिया. धन्‍य हैं इसके माता-पिता.' टोपीलाल ऐसे सपने पूरे दिन देखता रहा. अगले दिन उन सब पर पानी फिर गया.

‘आधे से ज्‍यादा सत्र निकल चुका है, मास्‍टरजी ने कहा है कि इस समय दाखिला नहीं हो सकता.' मां ने ऐसा बताया, मानो कहते हुए मनों बोझ से दबी जा रही हो.

‘मां तुम उनसे कहतीं कि मेरा बेटा होशियार है, वह बाकी बचे समय में ही पूरी तैयारी कर सकता है?'

‘उनका कहना था कि जिस कक्षा में तुम दाखिला लेना चाहते हो, उसके सभी बच्‍चे तुमसे नौ-दस साल छोटे हैं. वे तुम्‍हारा मजाक उड़ाएंगे.'

‘कोई बात नहीं, मैं किसी का भी बुरा नहीं मानूंगा. अगर कोई मुझे टोकेगा तो मैं उससे कहूंगा कि देखो मैं इस उम्र में भी शुरुआत कर सकता हूं. सीखने की कोई उम्र थोड़े ही होती है.'

‘मैंने उनसे सब कहा था. वह एक-एक बात जो हमारे पक्ष में जाती हो. लेकिन उन्‍होंने मेरी एक न सुनी.' मां का कलेजा फटा जा रहा था. टोपीलाल की निराशा सिर उठाने लगी. आंखों के आगे अंधेरा छा गया.

बात आई-गई हो गई. लेकिन टोपीलाल उदास रहने लगा. उसका खेलना छूट गया. वह जगह भी उसकी आंखों में गढ़ने लगी. वह रोज सोचता कि स्‍कूल का काम जल्‍दी से जल्‍दी पूरा हो ताकि वह यहां से कहीं दूर जा सके.

नए कमरों की चिनाई का काम तेजी से चल रहा था. पिं्रसीपल साहब चाहते थे कि काम समय रहते पूरा कर लिया जाए. ताकि अगले साल से आगे की कक्षाओं की पढ़ाई शुरू की जा सके. स्‍कूल में बच्‍चे बढे़ंगे, इसके लिए अतिरिक्‍त पानी की भी जरूरत होगी. नगर निगम की सप्‍लाई कुछ घंटों तक सीमित थी. बाकी समय हैंडपंप से काम चलाया जाता था, परंतु उसका पानी खारापन लिए हुए था.

पिं्रसीपल साहब नलकूप लगवाना चाहते थे. लेकिन समस्‍या थी कि उसको लगवाया कहां जाए. इससे पहले भी एक-दो जगह बोरिंग करा चुके थे. लेकिन कहीं का चोहा बहुत

नीचे मिलता, तो कहीं पर निसोत खारापन लिए हुए. हैंडपंप का खारा पानी होने के कारण बच्‍चे अब भी परेशान थे. संख्‍या बढ़ते ही समस्‍या विकराल हो जाने वाली थी. प्रिंसीपल साहब चाहते थे कि ट्‌यूबवैल ऐसी जगह लगवाया जाए जहां पानी का -ोत भी अच्‍छा हो; और उसमें भरपूर मिठास भी हो. किंतु धरती के गर्भ में ऐसे ठिकाने का पता लगाना एक भारी समस्‍या थी.

‘साहब पुराने जमाने में ऐसे लोग थे, जिनके तलवे धरती की धड़कनों को पढ़ लिया करते थे. जो चलते-चलते जहां भी ठहर जाते, वहीं मीठी जलधार बहा देते. ऐसे परोपकारी लोगों ने ही कुएं-बाबड़ी बनवाए. उनका मीठा पानी आज भी जन्‍म-जन्‍मांतर की बुझाने का सामर्थ्‍य रखता है.'

‘ऐसे लोग अब कहां से लाऊं? प्रिंसीपल साहब बोले, ‘बजट पहले ही बढ़ चुका है. एक बोरिंग खराब हुआ तो दूसरा बोरिंग कराने की अनुमति शायद ही मिल पाए.' परेशानी उनकी पेशानी पर लिखी थी. कोई अनपढ़ भी उसको बांच सकता था. अध्‍यापक, मजदूर और कारीगर सभी गर्दन झुकाए खड़े थे. संकट सबके सामने था, लेकिन उससे उबरने का मार्ग किसी को नहीं सूझ रहा था.

‘सर! आपके हिसाब से बोरिंग करना कहां ठीक रहेगा?' प्रिंसीपल साहब के ठीक पीछे से आवाज आई. उन्‍होंने पलटकर देखा. एक लड़का पीछे खड़ा उनसे सवाल कर रहा था. उसके चेहरे पर आत्‍मविश्‍वास था. आवाज में वह बल जो जीवन से गहरे जुड़ाव के बाद ही आ पाता है. उन्‍होंने पहचानने का प्रयास किया, लेकिन नाकामयाब रहे. बस इतना तय कर पाए कि वह उनके स्‍कूल के बच्‍चों में से नहीं है.

‘क्‍यों?' एक अनजान बालक को जवाब देने में उन्‍हें अपनी हेठी महसूस हुई.

‘बस यूं ही कि अगर सभी जगह पर मीठा पानी हो तो बोरिंग करना कहां पर ठीक रहेगा?'

‘इसमें सोचना...ट्‌यूबवेल कोई बीच मैदान में तो लगवाएगा नहीं, उसे किसी कोने में ही होना चाहिए.' प्रिंसीपल साहब ने बताया.

‘कौन-सा कोना?' अगले सवाल पर प्रिंसीपल साहब तिलमिलाए. परंतु इतने लोगों के बीच जब वे स्‍वयं कुछ न सोच पा रहे हों, तो समस्‍या के निदान के लिए एक बालक पर गुस्‍सा दिखाने का साहस न कर सके. उन्‍होंने एक ओर संकेत कर दिया.

‘अगर वहां भी खारा पानी निकलेे तो?'

गुस्‍से को दबाते हुए प्रिंसीपल साहब ने दूसरे कोने की ओर संकेत कर दिया.

‘इसके अलावा?'

प्रिंसीपल साहब झुंझला पड़े. फिर भी उन्‍होंने अगले ठिकाने की ओर इशारा कर दिया. विद्यालय में सबके सामने, उनसे इतने सारे सवाल-जवाब करने वाला टोपीलाल था. उस समय उसके माता-पिता सहित सभी मजदूर-कारीगर डरे हुए थे.

बरसात का मौसम गुजरे पखवाड़ा ही बीता था. जमीन में अब भी नमी थी. आम की गुठलियां जहां-जहां फेंकी गई थीं. वहां-वहां आम के नन्‍हे पौधे नजर आ रहे थे. स्‍कूल के बच्‍चे उन्‍हें उखाड़कर उनसे पपीहा बनाकर खेलते. टोपीलाल को भी पपीहा बजाने में आनंद आता था. उस समय टोपीलाल के हाथों में एक थैला था. थैले में भरी हुई थी गीली मिट्‌टी.

कुछ देर तक मैदान में इधर-उधर घूमता हुआ वह उन पौधों को देखता रहा. फिर उनमें से एक जैसे कई पौधे चुने. उन्‍हें सावधानीपूर्वक उखाड़कर थैले में रखी गीली मिट्‌टी में दबा लिया. ताकि पौधे मुरझाएं नहीं. उन पौधों को उसने बराबर हिस्‍सों में बांटा और उन स्‍थानों पर रोप दिया, जहां प्रिंसीपल साहब नलकूप लगवाना चाहते थे.

लोग तो अपने काम में लगे रहते. टोपीलाल रोज जाकर अपने पौधों को देख आता. चार-पांच दिनों में ही परिवर्तन साफ नजर आने लगा. एक जगह के पौधे पूरी तरह सूख चुके थे. दूसरे कोने में वे बचे रहने के लिए संघर्ष कर रहे थे. जबकि एक कोने में लगे पौधे खिले-खिले थे, मानो वहीं पर उगे हों. यह देखकर टोपीलाल के चेहरे पर चमक आ गई. अपनी खुशी को दबाए रखना उसके लिए कठिन हो गया. उसने उसी समय प्रिंसीपल के कमरे की ओर दौड़ लगा दी और उनके दरवाजे पर बैठे चपरासी की परवाह न करते हुए वह सीधा उनके कार्यालय में घुस गया.

‘मैंने पता लगा लिया साहब!' प्रिंसीपल साहब कुछ समझ पाएं, उससे पहले ही वह बोल उठा. उस समय उसकी सांस धौंकनी की तरह चल रही थी. एक गंवार-से दिखने वाले लड़के को देखकर पिं्रसीपल साहब को गुस्‍सा आया.

‘मैंने पता लगा लिया.' टोपीलाल ने अपने शब्‍दों को दोहराया. जैसे इससे अधिक कुछ कहना उसको आता ही न हो. तब तक प्रिंसीपल साहब उसको पहचान चुके थे.

‘आराम से बताओ, क्‍या कहना चाहते हो.'

‘आप उत्तर दिशा में ट्‌यूबवैल लगवाइए, वहां पर मीठा पानी ही मिलेगा.'

‘यह तुम कैसे कह सकते हो?'

‘मैं आपको दिखाता हूं, आइए साहब.' कहने के साथ ही वह पलट गया. जैसे बहुत जल्‍दी में हो. प्रिंसीपल साहब और उनके कार्यालय में मौजूद बाकी सभी लोग उसके पीछे हो लिए.

‘मां ने एक बार एक कहानी सुनाई थी. मैंने सोचा कि क्‍यों न उसी को आजमाया जाए. और अंतर एकदम साफ नजर आ रहा है. आप अपनी आंखों से देखते ही मान जाएंगे.' आगे-आगे चलता हुआ टोपीलाल कह रहा था.

अंततः टोपीलाल द्वारा बताए गए स्‍थान पर ही बोरिंग कराया गया. फिर जैसा उसने कहा था, वही हुआ. पानी इतना मीठा था, जैसे अमृत. ऊपर से इतना शीतल कि जन्‍म-जन्‍मांतर की प्‍यास बुझा सके. सभी प्रसन्‍न थे. प्रिंसीपल साहब की खुशी का तो

ठिकाना ही नहीं था.

आखिर वह दिन भी आया, जब स्‍कूल की नई बिल्‍डिंग तथा नलकूप का उद्‌घाटन था. उस दिन बाहर से आए अधिकारियों तथा बड़े-बड़े लोगों की उपस्‍थिति में प्रिंसीपल साहब ने कहा था-

‘पीढ़ियों से कही-सुनी जाने वाली हमारी कहावतें और लोककथाएं यूं ही नहीं हैं. इनमें हमारे बुजुगोंर् का वर्षाें का अनुभव और ज्ञान छिपा हुआ है. ये हमारे पारंपरिक ज्ञान का अद्‌भुत भंडार हैं. किंतु बड़े दुःख की बात है कि नए को समेटने की आपाधापी में हम पुराने को भूलते जा रहे हैं. मैं इस लड़के का बहुत अहसानमंद हूं. इसने मुझे, बल्‍कि हम सब को हमारी गलतियों का एहसास कराया है.

मैं यहां उपस्‍थित अपने अधिकारियों से प्रार्थना करता हूं कि नियमों में ढील देकर भी इसे स्‍कूल में दाखिल करने की अनुमति प्रदान करें. इस शर्त के साथ कि आगे जो भी कहानी या कहावत यह सुने, उसपर खुलकर प्रयोग करे. उसका पूरा खर्च यह स्‍कूल उठाएगा.'

उनका भाषण समाप्‍त होते ही कार्यक्रम-स्‍थल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंजने लगा. टोपीलाल तथा उसके माता-पिता की खुशी का तो ठिकाना ही नहीं था. उनके साथ काम करने वाले बाकी मजदूर भी स्‍वयं को गौरवान्‍वित अनुभव कर रहे थे.

इस तरह टोपीलाल को स्‍कूल में दाखिला मिल गया.

कहानी हो या पाठ, जो पढ़ने-सुनने के बाद उसको भली-भांति गुनते हैं, उनके लिए रास्‍ता बनाने मंजिलें खुद आगे आ जाती हैं.

यह तो अब की कहानी हुई. इससे बाद का हिस्‍सा भी कम मनोरंजक नहीं है. सुनने के साथ गुनना कितना जरूरी है, यह टोपीलाल ने तभी जाना था.

तो चलो उसी पर आते हैं-

टोपीलाल जब कुछ बड़ा हुआ तो टोली के बच्‍चों के साथ खेलने लगा. उस समय बाकी बच्‍चों के माता-पिता की अपेक्षा होती थी कि वह अपने से छोटे बच्‍चों का खयाल रखे. सड़क पर वाहनों का जमघट रहता है. बच्‍चों को उधर जाने से रोके. जितना वह खुद पढ़ चुका है, उतना दूसरों को पढ़ाए, जो वह स्‍वयं जानता है, उसके बारे में बाकी बच्‍चों को भी बताए.

इससे हालांकि टोपीलाल के अपने मनोरंजन में खलल पड़ता था. लेकिन जब टोली के बड़े लोग कह रहे हों; और उन्‍हें उसके माता-पिता का भी समर्थन प्राप्‍त हो तो वह ज्‍यादा कुछ कर ही नहीं सकता था. वह खुद को तो इतना समझदार मानता था कि शहर के किसी भी कोने में घूमकर वापस आ सके. किंतु बाकी बच्‍चों के साथ रहने से वह बंध-सा गया

था. इससे उसके लुका-छिपी के खेल में भी खलल पड़ा था. उस खेल में छोटे-बड़े सभी बच्‍चे हिस्‍सा लेते. धमाचौकड़ी के बीच, क्‍या पता असावधानी में कोई बच्‍चा सड़क के उस पार चला जाए तो. कोई दुर्घटना हो गई तो, सब उसी को दोष देंगे. किसी को बुराई का मौका टोपीलाल बिलकुल नहीं देना चाहता था. बच्‍चों के मामले में तो हरगिज नहीं.

टोपीलाल ने मनोरंजन का नया तरीका निकाला. उसने एक ही स्‍थान पर बैठकर खेले जाने वाले खेल खेलना शुरू कर दिया.

उन दिनों उनका समूह एक बहुमंजिला इमारत को पूरा में लगा था.उन्‍हीं दिनों टोपीलाल को सड़क पर एक गत्ता मिला. जिसपर एक ओर कुछ छपा हुआ था. शायद किसी बच्‍चे का गिर पड़ा हो. टोपीलाल ने वह उठा लिया. गत्ते के एक ओर अलग-अलग रंग के चौकोर खाने बने थे. कुछ आड़े-तिरछे चित्र, रंग-बिरंगी धारियां.

टोपीलाल कई बार बच्‍चों को ऐसे ही गत्ते के चारों कोनों पर बैठे देख चुका था. गौर से उसको देखते, गर्दन झुकाए गोटियों की चाल चलते हुए. इतना तो वह समझता ही था कि यह कोई खेल है. वह गत्त्ो पर टकटकी गढ़ाए देर तक खेल को समझने का प्रयास करता रहा. घंटों तक, परंतु कुछ भी पल्‍ले न पड़ा.

‘बिना मदद के इसको समझना मुश्‍किल है.' टोपीलाल ने माना. लेकिन मदद किससे ली जाए? जिन बच्‍चों के साथ वह खेलता था, वे सभी उससे छोटे थे. उनमें से कई तो टोपीलाल को अपना मार्गदर्शक मानते. बात-बात पर उसके पास मदद के लिए आते. संभव है कि बच्‍चों में से कोई इस खेल के बारे में जानता हो. लेकिन अपने से छोटे बच्‍चों से पूछकर वह अपनी हेठी नहीं करना चाहता था.

टोपीलाल को पहले ही इस बात का क्षोभ था कि जो बच्‍चे स्‍कूल जाते हैं, उन्‍हें उससे अधिक ज्ञान है. कुछ दिन के लिए स्‍कूल जाकर उसने देख भी लिया था. जिन प्रश्‍नों का उत्तर देने में वह अटक जाता, उन्‍हें उससे छोटे बच्‍चे आसानी से हल कर देते थे. वह दूसरे बच्‍चों के बराबर आने का भरसक प्रयास करता. रात-दिन पढ़ता, परिश्रम करता. परंतु घर में कभी पुस्‍तकों का टोटा पड़ जाता तो कभी कॉपियों का. दिन में बच्‍चों की देखभाल करनी पड़ती, रात में बिल्‍डिंग में घुप्‍प अंधेरा छा जाता. दिये की रोशनी में मच्‍छर इतना परेशान करते कि पढ़ना हो ही नहीं पाता था. पढ़ाई में पिछड़ा तो पाठशाला से उसका मन भी ऊबने लगा-

‘मुझे उनके बराबर आने में समय लगेगा.' उसने स्‍वयं को समझाने की कोशिश की.

उस दिन के बाद वह डटकर मेहनत करने लगा. तभी स्‍कूल का निर्माण कार्य पूरा हो जाने के कारण उसके माता-पिता समेत पूरा समूह वहां से रवाना होने की तैयारी करने लगा. भरे मन से टोपीलाल को भी स्‍कूल से अलविदा कहना पड़ा. उसके बाद उनका समूह जहां गया, वहां से पाठशाला काफी दूर थी.

टोपीलाल को अपने माता-पिता से भी शिकायत थी. चाहता था उसके माता-पिता

अपने समूह से अलग हो, एक स्‍थान पर टिककर कार्य करें. उसके भविष्‍य के बारे में सोचें. तभी उसको आगे पढ़ने का अवसर मिल सकता है. मां उसकी बात को समझ सकती है, यही सोचकर उसने अपना सुझाव मां के साथ रखा-

‘मां, बापू तो बाकी सब मिस्त्रियों से अच्‍छे कारीगर हैं!'

‘हां, हमारे समूह के कई मिस्त्री उनके सिखाए हुए हैं. वे उन्‍हें अपना गुरु मानते हैं.'

‘तुम भी कुछ कम नहीं हो, मां?' टोपीलाल ने अपनी बात मनवाने के उद्‌देश्‍य से प्रशंसा की.

‘मुझे भी तो तेरे पिता ने ही सिखाया है!' कहते हुए उसकी मां मुस्‍करा दी, मानो उसका मंतव्‍य समझ चुकी हो.

‘मां! तुम और बापू शहर में कहीं भी रहकर काम कर सकते हो. दोनों को आसानी से काम मिल जाएगा. संभव है इससे हमारी आमदनी भी बढ़ जाए. फिर हम अपना मकान भी बना सकते हैं.' वह कुछ और न समझ बैठे, इसलिए टोपीलाल ने अपना मंतव्‍य साफ कर देना ही उचित समझा-

‘मां, हम लोग यदि एक ही स्‍थान पर रहें तो मैं आसानी से पढ़-लिख सकूंगा.'

‘तू पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बने, यह तो मैं भी चाहती हूं. लेकिन अलग रहने की बात, इसके लिए तेरे बापू शायद ही तैयार होंगे.'

‘पर वे तो सदा ही मेरा भला चाहते हैं, क्‍यों?'

‘सो तो है. वे कहते हैं कि हमारा एक निजी परिवार है, छोटा-सा, जिसमें सिर्फ हम तीनों शामिल हैं. इसके बाहर हमारा बड़ा परिवार भी है. उसमें हमारा पूरा समूह आता है, जिसमें पचास-साठ परिवार हैं. सबके सुख-दुःख से हमारा वास्‍ता है. नफा-नुकसान सबके साझे हैं.'

‘परंतु मां, वे हमारे सगे थोड़े ही हैं!' टोपीलाल ने तर्क करने का प्रयास किया. हालांकि वह जानता था कि उसकी मां साधारण स्त्रियों में से नहीं है, उसके पास हर तर्क की काट हो सकती है. और हुआ भी यही...

‘केवल सगा होना ही अपनत्‍व की कसौटी नहीं होती. एक देश, एक शहर, एक गांव, एक बस्‍ती और एक जैसा व्‍यवसाय करने वालों में भी अपनापा होता है. इस समूह के साथ हम वर्षों से रहते आए हैं. सब एक-दूसरे की अच्‍छाई और बुराइयों से भली-भांति परिचित हैं. सब एक-जैसा खाते-पहनते हैं. संकट में सब एक-दूसरे की मदद करते हैं. इसके अलावा एक बात और है, बेटा.' कहते हुए मां कुछ पल को रुकी, फिर जैसे निर्णय पर आती हुई बोली-

‘किसी भी अकेले इंसान की तरक्‍की का उस समय तक कोई मोल नहीं है, जब तक कि उसके अपने लोग, संगी-साथी, भाई-बंधु पिछड़े हुए हों. पड़ोसी भूखा हो तो अपना पेट भरा होने में कोई बड़प्‍पन नहीं है. आदमी को सबके भले में ही अपना भला देखना चाहिए.'

‘लेकिन समूह में तो बिशंभर जैसे लोग भी हैं मां, जो बापू से जलते हैं.' टोपीलाल ने फिर तर्क किया.

‘ऐसा नहीं बेटा! कहावत है कि घर में चार बर्तन एक कोने में पड़े हों, तो कभी न कभी जरूर खड़क उठते हैं. तुम्‍हारे बिशंभर काका ऊपर से चाहे जैसे दिखते हों, दिल उनका बिलकुल साफ हैं. याद है पिछली बार जब तेरे पिता बीमार पड़े थे?'

उस घटना के बारे में टोपीलाल को ज्‍यादा याद दिलाने की जरूरत नहीं पड़ती. वह उसके दिमाग में सर्वाधिक डरावनी स्‍मृति के रूप में दर्ज है. उसके पिता को तेज बुखार चढ़ा था. गर्मी के दिन थे. बुखार का इलाज चल ही रहा था कि हैजा ऊपर से सवार हो गया. मां उस समय काम पर, घर से बाहर थी. टोपीलाल घर पर अकेला. पिता की बिगड़ती हालत देखकर वह पड़ोस में मदद के लिए पहुंचा. उस समय बिशंवर काका ने भागदौड़ कर परिवार की जैसी मदद की थी, उसे वह कैसे भूल सकता है! भुला पाना संभव ही नहीं है.

बीती घटना को याद करने के साथ ही टोपीलाल के चेहरे पर उदासी झलक आई. उसकी मां ने फौरन ताड़ लिया. टोपीलाल को सीने से लगाकर, पीठ पर प्‍यार से हाथ फिराने लगी- ‘घबरा मत! समूह में तुम्‍हारे जैसे और भी कई बच्‍चे हैं. मैं तुम्‍हारे पिता से बात करूंगी कि काम की तलाश में बस्‍ती से दूर न जाया करें. उसके बाद तुम सब अच्‍छी तरह पढ़ सकोगे.'

मां के तकोंर् ने तो टोपीलाल को उलझा दिया था. किंतु निष्‍कर्ष उम्‍मीद जगाने वाला था. इसलिए उसकी उदासी छंटने लगी. उसी दिन से वह इस प्रतीक्षा में था, जब उसका समूह लंबे समय के लिए किसी ऐसे स्‍थान पर ठिकाना करेगा, जहां वह अपनी पढ़ाई दुबारा आरंभ कर सके. वह मां से अत्‍यधिक प्रभावित भी था.

‘मां के पास हर समस्‍या का हल, हर तर्क का जवाब है.' गत्ते को हाथ में थामे टोपीलाल सोच रहा था.

और वह गलत भी नहीं था.

(क्रमशः अगले अंकों में जारी… )

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रचनाकार: ओमप्रकाश कश्यप का बाल उपन्यास : मिश्री का पहाड़
ओमप्रकाश कश्यप का बाल उपन्यास : मिश्री का पहाड़
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