राकेश कुमार की कहानी : पारस पत्थर

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(कवयित्री अजन्‍ता शर्मा के जन्‍म दिन 30 अप्रैल को उन्‍हें सादर समर्पित) पारस पत्‍थर ब रसात का महीना था, रिमझिम गिरते सावन की मस्‍त फुहा...

(कवयित्री अजन्‍ता शर्मा के जन्‍म दिन 30 अप्रैल को उन्‍हें सादर समर्पित)

पारस पत्‍थर

रसात का महीना था, रिमझिम गिरते सावन की मस्‍त फुहारें मन को अपनी हल्‍की हल्‍की ठण्‍डक से आह्‌लादित कर रही थी, यदा कदा चमकती बिजली के साथ बादलों की गड़गड़ाहट से समूचा वातावरण क्षण भर को भयाक्रांत होकर स्‍तब्‍ध सा हो जा रहा था, धरती का प्रकृति के साथ प्रणय के बीच बदलों की क्रूरता के इन अद्‌भुत क्षणों को निहारने की मन की उत्‍कंठा को मैं रोक नहीं पा रहा था। दिन भर की ऑफिस की थकान मिटाने के लिये मैं झरोखों से इस अनुपम दृश्‍य का आनंद ले रहा था और साथ ही स्‍वयं को तरोताजा करने के लिये इण्‍टरनेट के सामने बैठा किसी मनोरंजक साइट की तलाश में हर पन्‍नों को खंगाल रहा था ।

वैसे भी जब कभी मैं इण्‍टरनेट के सामने बैठता तो प्रायः उस साइट की तलाश में भटकता जहां से मैं अपने साहित्‍य की भूख मिटा सकूं या फिर ऐसे लोगों तक अपनी साहित्‍यिक उपलब्‍धियों को पहुंचा सकूं जो मेरे प्रयासों की कद्र कर सके। एक साहित्‍यकार की सबसे बड़ी कमजोरी शायद यही होती है कि वह अपने कठिन प्रयासों से उकेरे शब्‍दों के अंर्तजाल से रचित अपने सृजन का एक छोटा सा प्रतिफल पाठकों की शाबाशी के रूप में चाहता है। साहित्‍य को अपने शौक से पूजा और साधना की चरम सीमा तक पहुंचाने वाला साहित्‍यकार किसी धन और ऐश्‍वर्य का कदाचित कभी भूखा नहीं होता वह तो एक योगी की भांति अपने प्रयासों को समाज को समर्पित कर अपनी रचना को एक प्रेरणास्‍त्रोत और संदेश के रूप में प्रस्‍तुत करना चाहता है। इस संदर्भ में कवियित्री अजंता शर्मा का वह कथन अनायास याद हो आता है कि एक कवि की रचना तब सार्थक हो जाती है, जब पाठक उसे अपने आसपास की घटनाओं से संबंधित करने में सफल हो जाते हैं..।

खैर ... पर मैं वास्‍तव में आज तो इण्‍टरनेट पर अपनी चंद रचनाओं की प्रविष्‍टि की तलाश में भटक रहा था। यद्यपि बीच-बीच में कभी-कभी मन होता कि स्‍तरीय साहित्‍यिक पत्रिकाओं को अपनी रचनाएं प्रेषित कर एक वृहद पाठक वर्ग समूह के बीच अपनी बातों को कविता अथवा कहानी के रूप में प्रस्‍तुत करूं लेकिन मन में एक भय सा पैदा हो जाता । वैसे भी जब मैंने नब्‍बे के दशक के प्रारंभिक वर्षों में स्‍नातक की परीक्षा पास की थी और कुछ रचनाएं स्‍तरीय पत्रिकाओं को प्रेषित करने का जोखिम उठाया था तब मैंने गहरे जख्‍म खाये थे, अब फिर से इन स्‍तरीय पत्रिकाओं के संपादकों को अपनी कहानियां प्रेषित करना मेरे लिये किसी खर्चीले शौक से कम नहीं था और फिर इसके अलावा अपनी रचनाओं के साथ वापसी का पता लिखा लिफाफा डालना तो जैसे इस उम्र में हदय रोग की नींव के लिये सुंदर नर्सरी तैयार करने के बराबर था । वैसे भी कहा जाता है कि 30 से 45 वर्ष की उम्र बीमारियों के अंकुरण के लिये सर्वाधिक मुफीद उम्र होती है। तमाम तरह की बीमारियां अपने प्रणय प्रसंगों के लिये इस उम्र को सर्वाधिक उपयुक्‍त पाती हैं और मैं इस उम्र में किसी भी तरह की बीमारियों को निमंत्रित करने का रिस्‍क नहीं लेना चाहता था ।

वैसे तो पुरातन हिंदू ग्रंथों में मनुष्‍य के उम्र को 25-25 वर्षो के साथ ब्रहमचर्य, गृहस्‍थ, वानप्रस्‍थ और सन्‍यास आश्रम में बांटा गया है पर मैं आज के संदर्भ में प्रणय प्रसंगों के आधार पर इसका वर्गीकरण कुछ अलग रूप में करता हूं । हो सकता है मेरी बात से बहुत से साहित्‍यकार एव विद्वान इत्‍तफाक न रखते हों लेकिन मुझे अपनी बात बेबाकी से रखने में कभी संकोच नहीं होता।

मै मनुष्‍य के उम्र को 60 वर्ष की परिधीय सीमाओं में समेटता हूं और 60 के पश्‍चात के उम्र को ईश्‍वर द्वारा खुद के साथ प्रणय प्रसंगों के लिये दिये गये उपहार के रूप में देखता हूं । मेरा यह मानना है कि 0-15 वर्ष की उम्र एक ऐसी अवस्‍था होती हैं जिसमें प्‍यार और प्रणय अपने वात्‍सल्‍य के अद्‌भुत रूप में मनुष्‍य को अपने पावन और निर्मल रूप का अहसास कराती है, इस उम्र में मनुष्‍य लिंग के आधार पर भेदभाव से कदाचित्‌ काफी दूर होता है। 15-30 वर्ष की उम्र किसी कमसीन युवती एवं युवक के बीच आकर्षण का उम्र होता है, व्‍यक्‍ति के जीवन का सर्वाधिक संवेदनशील एवं सुखद कहा जाने वाला यह उम्र ही सभी रूपों में व्‍यक्‍ति के विकास की दशा और दिशा तय करता है। 30 -45 वर्ष की उम्र जैसा कि मैंने पहले भी उल्‍लेख किया कि यह अवस्‍था बीमारियों के अंकुरण के लिये सर्वाधिक उपयुक्‍त एवं अनुकूल समय होता है। इस उम्र में अंकुरित हुई बीमारियां ही साठ वर्ष की उम्र के पहले ही सेवानिवृत्‍ति के अवसर प्रदान किये बिना घर को संपन्‍न बनाने में मदद करती है । और 45 - 60 वर्ष की उम्र मृत्‍यु को जीवन संगिनी के रूप में स्‍वीकार करने, उससे परिणय करने एवं अंततः आलिंगनबद्ध हो जाने के लिये अवसर प्रदान करती है ।

बहरहाल ! मैं इण्‍टरनेट के सामने बैठा हुआ उन कवियों की तलाश में भटकने लगा जो मेरी तरह साहित्‍य की भूख मिटाने साधना में जुटे होते हैं और ऐसे ही कवियों के संकलन को अंतरजाल में समेटे एक साहित्‍यिक पत्रिका में पाकर मन प्रफुल्‍लित हो उठा । मन में एकाएक खयाल सा आया कि इन कवियों की सूची में अपना नाम संकलित कराने के लिये जो भी तरीके होते होंगे वे आज कर ही लिये जायें। कहते हैं अवसर सफलता का संदेश लेकर दबे पांव आती है और जिंदगी भर की असफलता ने शायद मुझे यही सिखाया था कि मैं कहीं न कहीं थोड़ा सा चूक गया था, पर आज मैं किसी भी हाल में चूकना नहीं चाहता था, लेकिन घड़ी की सुईयां शाम के साढ़े पांच बजा रही थी आफिस से सभी लोग जा चुके थे, बाई जैसे मेरे आफिस से निकलने की प्रतीक्षा में बाहर खड़ी अपने सहकर्मी साथी के साथ कुछ बुदबुदा रही थी, वह जैसे कहना चाह रही हो कि सारे लोग आफिस से जा चुके हैं। लेकिन मेरे अंदर का जुनून आज तो किसी प्रकार की बुदबुदाहट और अटकलों पर कोई ध्‍यान नहीं देना चाहता था । मैं तो संपादक के पते तलाशने में जुटा था और आज उसे किसी भी कीमत पर पा ही लेना चाहता था ।

कहते हैं जहां चाह वहां राह, थोड़ी ही देर में मुझे संपादक का ई-मेल पता मिल गया, अभी संपादक के पते तक पहुंच ही पाया था कि बाई के धैर्य की सीमाएं समाप्‍त हो गयी और उसने साहस जुटाकर कह ही डाला - सर शाम के छः बजे रहे हैं, आपकी बस चली गयी होगी। बाई ने ऐसा कहकर मेरी सारी एकाग्रता भंग कर दी। वह मेरी दिनचर्या के बारे में सब कुछ जानती थी ।

मैंने कहा - बस थोड़ी देर और मैं एक बहुत जरूरी काम कर रहा हूं । वैसे भी हम एक सरकारी कंपनी में काम करते हैं जहां काम की सारी वरीयताएं ए बी सी के फार्मूले के आधार पर निर्धारित होती हैं । ए अर्थात -पहले अपना काम, फिर बी-यानि उसके बाद बीबी का काम और फिर सी यानि शेष समय बच गया तो कंपनी का काम उस समय मैं अपना काम कर रहा था जो मेरे लिये किसी टॉप प्रायरिटी से कम नहीं था ।वैसे सरकारी कंपनियों में काम करने वाली बाईयों के सेंस बहुत तेज होते हैं - बाई एक समय के बाद ऑफिस में लोगों के रूकने के वक्‍त से किसी के घर की सारी बातें जान लेती हैं, वे समझ जाती है कि साब की बीबी मायके गयी है या फिर घर में कुछ झगड़ा हुआ है या फिर वे समझ जाती है कि साब अपना खुद का काम कर रहे हैं ।

खैर मैं इस तरह के किसी संभावनाओं अथवा आशंकाओं के पचड़ों में आज पड़ना नहीं चाहता था। मैंने आनन फानन में संपादक को ई मेल करते हुये लिखा कि मैं आपकी अंतरजाल पर प्रदर्शित साहित्‍यिक पत्रिका में अपनी रचनाओं की प्रविष्‍टि चाहता हूं, कृपया मेरा मार्गदर्शन करें ।और इस तरह उन्‍हें अपना ईमेल प्रेषित कर घर चला आया। मुझे अनुमान था कि मेरा ईमेल मिलते ही संपादक महोदय अपनी त्‍वरित प्रतिक्रिया देंगे । पर यह मेरा भ्रम था और भ्रम की सांसें दीर्घजीवी नहीं होती हैं। हर एक घण्‍टे में अपने एकाउंट को खोलकर देखते हुये मेरी आंखों की तरलता सूख गयी और उबासी आने लगी। रात्रि के 11 बज रहे थे, पत्‍नी ने अपने धैर्य को विराम देते हुये कहा - क्‍या बात है? कुछ परेशान हैं, चलिये लाईट ऑफ करिये और सो जाईये, सुबह जल्‍दी उठना होता है। मैं चाहकर भी कुछ बोल न सका, मैं अपनी पत्‍नी से किसी भी हाल में पंगा नहीं लेना चाहता था, मैं तो दूसरों की गलतियों से सीखकर कदम बढ़ाने वालों में से रहा हूं और पत्‍नी से पंगा करने वालों का बुरा हश्र मैंने लोगों को अपनी जिंदगी में भुगतते बहुत बार देखा था । वैसे भी जल में रहकर मगर से भला क्‍या दुश्‍मनी? पत्‍नी से पंगा लेने का अर्थ ही होता है, मधुमक्‍खी के छत्‍ते में हाथ डालना, बेवजह तमाम तरह की परेशानियों को बिन बुलाए मेहमान की तरह आमंत्रण देना, तनावों से मुहब्‍बत करना और अपनी जिंदगी को बाढ़ में हिचकोले खाती किसी लकड़ी के टुकड़े की तरह फेंक देना और मैं ऐसा कोई रिस्‍क हरगिज नहीं लेना चाहता था। मैं करवटें बदलता रात गुजारता हुआ भोर के आगमन की प्रतीक्षा में सो गया ।

सुबह आफिस आने की जल्‍दबाजी में मेरे पास वक्‍त की प्रायः कमी होती है, जैसे- तैसे तैयार होकर ऑफिस पहुंचा और उस साहित्‍यिक पत्रिका के साईट को खोलकर बैठ गया। मैं कवियों की सूची को अपलक निहारता हुआ बैठा ही था कि मेरे माउस ने पहले ही क्रम पर अंकित एक कवयित्री को क्‍लिक कर दिया । मैं थोड़ी देर के लिये तो जैसे अचरज में पड़ गया कि उस कवयित्री का बाहर के पृष्‍ठों एवं अंदर के पृष्‍ठों में नाम में काफी असमानता थी, लेकिन भला मुझे उस कवयित्री के नाम से आखिर क्‍या लेना देना हो सकता था ? मैं तो उसकी रचनाओं का रसास्‍वादन मात्र करना चाहता था । एक दबी कुचली नारी की व्‍यथा एवं साथ ही अपनी महत्‍वाकांक्षाओं को मूर्त रूप देने के लिये उद्यत उस स्‍त्री के हठ, इन दोनो विरोधाभासी परिस्‍थितियों को एक ही साथ रेखांकित करती उस कवयित्री की रचना को पढ़कर मन गद्‌गद हो गया । वैसे भी मैं उन संस्‍कारों में पला बढ़ा था जहां बचपन से यह सिखाया जाता है कि - जिस घर में स्‍त्री की कद्र नहीं होती उस घर में देवताओं का वास नहीं होता । उस कवयित्री की रचना ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया और मै उसकी प्रतिक्रिया दिये बिना न रह सका।

दूसरे दिन सुबह जब अपना मेल अकाउंट खोला तब उस कवयित्री की अत्‍यंत शालीन प्रतिक्रिया ने मेरे हृदय के तारों को झंकृत कर दिया। अभी तक केवल साहित्‍य की किताबों में यह अवश्‍य पढ़ा था कि स्‍त्रियां पुष्‍प की तरह कोमल, गंगा की तरह पावन, किसी घने वृक्ष की तरह शीतल छांव प्रदान करने वाली एवं सरिता की तरह अविरल प्रवाहमान होती है । उसकी दो पंक्तियों की प्रतिक्रिया ने ही मुझे अंदर तक अभिभूत कर दिया ।

मैं एक बार फिर से उसकी तस्‍वीरों को झांककर देखना चाहता था कि कम शब्‍दों में अपने पाण्‍डित्‍यपूर्ण प्रतिक्रिया से मेरे अंतर्मन को छू लेने वाली उस महिला के शब्‍दों एवं रूपलावण्‍य में कहीं कोई समानता है भी या फिर महज यह एक संयोग है ।

मैंने तुरंत उसकी दूसरी रचना पढ़ी और अपना दूसरा ई मेल किया। कुछ घण्‍टों बाद मेरे दूसरे मेल पर उसकी प्रतिक्रिया पाकर तो जैसे मैं स्‍तब्‍घ सा रह गया । अत्‍यंत संक्षेप और सधी हुई प्रतिक्रियाओं के साथ इस मेल में उसने लिखा - लगता है आपको मेरी पहली चिट्‌ठी मिली, आपकी प्रतिक्रिया पाकर मैं धन्‍य हुई, आखिर आपने किस साईट पर अपनी कृपादृष्‍टि डाली है ।

एक विदुषी स्‍त्री की इन पंक्‍तियों को मैं जैसे कई बार पढ़ लेना चाहता था । वैसे भी मेरे मन में किसी साहित्‍यकार, कवि अथवा कवयित्री के प्रति बचपन से काफी इज्‍जत होती । मेरा प्रायः आज भी मानना होता है कि बिना मां सरस्‍वती की कृपा के कोई भी अपने भावों को रचनाओं के रूप में सृजन नहीं कर सकता । दुनिया में सारी विधाएं हासिल करने के लिये प्रशिक्षण संस्‍थान होते होंगे पर साहित्‍य सृजन के लिये किसी कोचिंग संस्‍थान को अस्‍तित्‍व में आते मैंने आज तक नहीं देखा है। यह तो ईश्‍वर की कृपा होती है और ईश्‍वर उसे इसी निमित्‍त धरती पर कदाचित भेजता भी है।

तीसरे दिन मुझे उसका तीसरा ई मेल मिला। इस ई मेल में उन्‍होने हिंदी में थोड़े शब्‍दों में पत्र लिखते हुये कहा - मित्रों मैं अपनी साहित्‍यिक पत्रिका में छपी कुछ रचनाएं आपके रसास्‍वादन हेतु प्रेषित कर रही हूं, अपनी प्रतिक्रिया अवश्‍य दीजियेगा। साथ ही उन्‍होने नीचे अपना मोबाइल नं. भी बड़ी बेबाकी व साहस से दे दिया । मैं उसका ई मेल पाकर प्रसन्‍नता से फूला नहीं समा रहा था, साथ ही इस बात पर अचरज भी हो रहा था कि मुझ जैसे एक अंजान व्‍यक्‍ति को जिससे परिचय हुये मात्र दो ही दिन हुये थे, मोबाइल नं. देना क्‍या उस युवा कवयित्री का दुस्‍साहस था या फिर मेरे प्रति उसका अटूट विश्‍वास । मैं अपने पुराने ई मेल को पुनरावलोकन कर आखिर यह देख ही लेना चाहता था, कि मैंने उन चिटि्‌ठयों में ऐसी क्‍या बात लिखी थी, जिससे उस कवयित्री ने मुझ पर अपना विश्‍वास व्‍यक्‍त करते हुये अपना मोबाइल नं. बिना मांगे दे दिया वरना किसी लड़की के मोबाइल नं. पाने के लिये न जाने कितने सालों तक उसका विश्‍वास अर्जित करना पड़ता है।

किसी अन्‍जान व्‍यक्‍ति के प्रति ऐसा अटूट विश्वास भारत की धरती पर जन्‍मी स्‍त्री के सिवा दुनिया में मेरे विचार से कहीं और देखने को नहीं मिलती । यह भारत की धरती का ही विश्‍वास है कि महज बहती हुई एक नदी की धाराओं की चंद बूंदों से लोग मोक्ष का अहसास पा लेते हैं, पत्‍थर के एक टुकड़े को पूजकर न जाने आज तक कितने हिंदुओं ने गिरिजाघर की प्रार्थना और मस्‍जिद की नमाज सा प्रतिफल प्राप्‍त किया है। यह वही भारतीय स्‍त्री का प्रतीक थी, जिसके आगे सारी दुनिया आज भी नतमस्‍तक होती है ।

बहरहाल मैं स्‍वयं को उससे बातें करने की लालसा से रोक नहीं पा रहा था, मेरा मन बार- बार यह सोच उद्वेलित होने लगा कि कम शब्‍दों में अपनी बात कहने की विद्वता को समेटी उस विदुषी के स्‍वरों एवं शब्‍दों में कितना शहद और पाण्‍डित्‍य होगा, लेकिन मन में सहसा विचार आने लगा कि कहीं वह अन्‍यथा न सोच ले, वह यह न समझ बैठे कि मैं भी उन्‍हीं सामान्‍य लड़कों की तरह हूं, जो लड़कियों से बातें करने की लालसा अधिक देर तक रोक नहीं पाते । मेरी ऐसी छबि किशोरावस्‍था से लेकर युवावस्‍था तक कभी नहीं रही और मैं ऐसी छबि से नितांत गुरेज करता रहा, जिसके कारण लड़कियों से दूर रहना मेरी फितरत में रहा, कभी मन में विचार आये भी तो उसे अपने संस्‍कारों से दबाने में कामयाब भी रहा ।

मैं आखिर अपने मन की उत्‍कंठा को बहुत देर तक दबाये न रख सका और थोड़ी ही देर में मेरे मोबाइल ने उसके सेलफोन में घण्‍टी बजा दी । मोबाइल के प्रत्‍येक रिंग के साथ मेरे दिल की धड़कने किसी अन्‍जाने भय से तेज घड़कनें लगी, दो पल को ही सही मेरा मन उन आशंकाओं में खो गया कि कहीं वह ओवर रियेक्‍ट कर बैठी तब मेरे पास क्‍या जवाब होगा ? कहीं यह मेरा प्रथम और आखिरी वार्तालाप तो नहीं होगा ? मैं अधीर होकर बहुत जल्‍दी तो नहीं कर रहा ? इन्‍ही सवालों की कल्‍पना में उलझा ही था कि उधर से आयी एक मधुर आवाज ने मेरे मन के तारों को झंकृत कर दिया। मैंने उनसे फोन करने के लिये क्षमा मांगते हुये अपनी बात प्रारंभ की और अपना परिचय दिया । मुझे पहचानने में उन्‍हें बहुत देर नहीं लगी, उन्‍होने अपनी लेखनी में प्रयुक्‍त सारगर्भित शब्‍दों की तरह अपनी वाक्‌पटुता का परिचय देते हुये कहा - इसमें क्षमा मांगने वाली कौन सी बात है ? आप मुझे जब चाहें फोन कर सकते हैं ।

क्षण भर को मुझे ऐसा लगा कि इस महिला को तो जैसे मैं बरसों से जानता हूं , उसकी मधुर वाणी में एक स्‍त्री की सहृदयता, कोमलता, सहजता और एक विदुषी कवयित्री का पावन चरित्र स्‍पष्‍ट परिलक्षित हो रह थी । यद्यपि उससे वार्तालाप की अवधि नितांत ही अत्‍यल्‍प थी, तथापि उन क्षणों में मैंने उसके बड़प्‍पन और उदारता को काफी करीब से महसूस किया। हिमगिरी के शिखरों की भांति उसके उज्‍जवल चरित्र और रवि की देदीप्‍यमान किरणों की भांति उसकी प्रखरता ने मुझे अंदर तक अभिभूत कर दिया ।

आज मैं उसकी मित्रता का कायल था, और ईश्‍वर को लाख-लाख शुक्रिया अदा कर रहा था । मैं जीवन भर ऐसे ही किसी मित्र की तलाश में अपने उम्र के मित्रता के पन्‍नों को रंगने के लिये कोरा छोड़ रखा था। कहते हैं, बहुत अच्‍छा मित्र बड़े भाग्‍य से मिलता है और शायद आज वही दिन था, जब मेरे भाग्‍य ने भी मेरी सुधी ली थी, वैसे भी कहा जाता है कि व्‍यक्‍ति के पास कोई कमी न भी हो, तो भी उसे मित्र अवश्‍य बनाना चाहिये, सागर यद्यपि परिपूर्ण होता है फिर भी चंद्रमा की राह देखते रहता है ।

एक बहुत अच्‍छा मित्र, एक श्रेष्‍ठ इंसान, विदुषी व्‍यक्‍तित्‍व और उस पर कवयित्री की प्रखरता। ईश्‍वर ने जैसे मुझे आज छप्‍पर फाड़ कर दिया था, वैसे भी इंतजार का फल बहुत मीठा होता है, और मैंने भी अवसर आने पर जीवन में एक अच्‍छे मित्र देने का जिम्‍मा ईश्‍वर के उपर छोड़ दिया था।

इस बीच मैं उनसे कंप्‍यूटर के बारे में ईमेल के जरिये कुछ कुछ सीखने लगा था ।

हम दोनो के बीच ईमेल से बस कुछ ही पत्राचार हुये थे कि उन्‍होंने अचानक लिखना बंद कर दिया। इन दिनों में मुझे उसके ईमेल प्राप्‍त करने की आदत हो गयी थी, उनका कोई पत्र न मिलने से मन व्‍यथित हो गया, मन ही मन खुद को कोसने लगा कि किसी अन्‍जान व्‍यक्‍ति से समीपता की भला इतनी क्‍या जरूरत थी ? किसी को अपनी कमजोरी बनाना क्‍या अच्‍छा था ? लेकिन मन और भावनाएं तर्कों पर यकीन नहीं करती । मैं अपने पुराने प्रेषित पत्रों को उलटपलट कर देखने लगा और आखिर इस निष्‍कर्ष पर पहुचने का प्रयास करने लगा कि आखिर शब्‍दों के प्रयोग में मैंने कहां त्रुटि की है ? तमाम तरह के विश्‍लेषणों के पश्‍चात मैंने जो निष्‍कर्ष निकाला उससे सार रूप में यही छनकर बाहर आ सका कि मैंने उन्‍हें एक पत्र में लिखा था - मैं एक सच्‍चे मित्र के रूप में जीवन भर अपनी भूमिका का निर्वाह करूंगा।

मुझे लगा शायद वह मेरी मित्रता स्‍वीकार करने की इच्‍छुक नहीं थी और मैंने उन्‍हें मित्र कहने में जल्‍द बाजी कर दी । मैंने उनके दिये हुये सेलफोन पर फोन करना चाहा लेकिन अब की बार उन्‍होने मेरा फोन काट दिया। अब तो मैं यह पूरी तरह मान बैठा कि जिंदगी के हसीन पल मेरी किस्‍मत में ज्‍यादा दिनो तक के लिये नहीं होते हैं । वैसे भी मैं उन लोगों में सा जो जर्मन दार्शनिक डील्‍थे के इस कथन पर यकीन करते हैं कि - जीवन एक रंगमंच है जहां कष्‍टों के सामान्‍य नाटक में प्रसन्‍नता एक संयोगिक घटना है ।

मैं काफी उदास रहने लगा, मेरी उदासी पर मेरे घर के लोग भी परेशान रहने लगे, किंतु मैं किसी को यह बताने की हिम्‍मत नहीं जुटा पा रहा था कि एक अच्‍छे इंसान के रूप में मिली एक शालीन महिला की मित्रता को चंद दिनों में ही मैंने खो दी है। मित्रता खोने का अहसास मुझे जीवन में पहली बार हुआ था । वैसे तो सफलता के नजदीक पहुंचकर असफल होने अथवा हाथ में आयी उपलब्‍धियों के हाथ से फिसल जाने का अनुभव मुझे जीवन में कई बार हुआ था लेकिन मित्रता के वियोग का मेरा यह नितांत नया अनुभव था। मन को अनेक तरह की सांत्‍वनाओं से तसल्‍ली देने का प्रयास करने लगा। अब तो आंखों में जहां एक ओर पश्‍चाताप के आंसू थे तो मन गुस्‍से से भरा हुआ था, मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि मुझे आखिर किस अपराध की इतनी बड़ी सजा दी गयी है ।

मैंने उन्‍हें एक पत्र लिखा जिसमे उनसे यह जानना चाहा कि आखिर मैंने ऐसा कौन सा अपराध किया है, जिसकी सजा के रूप में मित्रता के संबंध विच्‍छेद का उपहार दिया गया है । मैं उनकी सत्‍यनिष्‍ठा से लेकर सहृदयता पर कई तरह के सवाल उठाये। आज तो जैसे मैं अंतिम रूप से अपने हृदय के सारे गुबार निकाल ही लेना चाहता था ।मैंने अंत में यह भी कह दिया कि आज के बाद अपने मेल एकाउंट और उसके फोन नं. सदा के लिये डिलीट कर दे रहा हूं ।

वह क्षण मेरे जीवन के कठिन क्षणों में से एक था और मैं ऑफिस में बैठा उस बेरहम वक्‍त को बड़ी जिल्लत के साथ पलों को घण्‍टों में गिनता हुआ बिता रहा था। मुझे कुछ पलों के लिये ऐसा लगा जैसे मेरा वजूद ही संकट में है। एक अंजान व्‍यक्‍ति से जिसे मैंने कभी देखा नहीं, जाना नहीं के प्रति इतना गहरा लगाव, क्‍या यह मेरे अति भावुकता का प्रतीक थी जो आज मेरी कमजोरी के रूप में उभर कर सामने आ रही थी या फिर मेरा बचपना था जो शायद अभी तक गया नहीं था, जैसा कि मेरे घर के लोग मुझे हमेशा कहा करते । बस इसी उधेड़बुन में तमाम तरह के विश्‍लेषण करता सिर औंधाए बैठा हुआ था कि अचानक मेरे सेलफोन की घण्‍टी घनघना उठी । एक अंजान एस.टी.डी. नं. को देखकर क्षण भर को तो जैसे मैं गद्‌गद सा हो गया कि हो न हो उन्‍होने ही फोन किया हो लेकिन मैंने सोचा कि आखिर उसे मेरा नं. कहां से मिलेगा और वह इतनी संवेदनशील तो हो नहीं सकती कि मेरे एक बार फोन करने पर मेरे नं. सहेज कर रख ले ।

मैंने तमाम तरह की आशंकाओं को मन में समेटे फोन उठा ही लिया, जैसे ही फोन उठाया उधर से एक मधुर आवाज ने मेरे अंदर की आशंकाओं को सिरे से खारिज कर दिया । एक ही सांस में बोलते हुये जैसे कहने लगी - आपने यह सब क्‍या लिखा है ? आप जरा सी बात पर इतने उद्वेलित हो जाते हैं ? क्‍या आप मेरी परेशानी समझने को बिल्‍कुल तैयार नहीं ? मैं किन संकटों से गुजर रही हूं, क्‍या आपने कभी सोचा है ? आप ही बताइये कि क्‍या आपका इतना उद्वेग ठीक है ?

मैं उसकी मधुर शीतल आवाज को पाकर गद्‌गद हो चुका था, मेरी सारी शिकायतें जैसे एक ही क्षण में फुर्र हो चुकी थी । मैं उसकी हर बात पर केवल जी-जी करता उसके बड़प्‍पन के आगे नतमस्‍तक हुआ कुछ भी बोलने की स्‍थिति में नहीं था । मैं तो बस उसे केवल जी भरकर सुनना चाहता था। अपने 10 मिनट के एकतरफा वार्तालाप में यह कहकर उसने फोन समाप्‍त की कि अब आपको कोई शिकायत तो नहीं है? मैं अभी व्‍यस्‍त हूं, समय मिलने पर जरूर लिखूंगी । आपको कभी कोई दिक्‍कत हो तो कहियेगा ।

आज एक बार फिर से मैंने उसके विराट एवं विशाल व्‍यक्‍त्‍त्‍वि, आचरण की पवित्रता एवं जीवंत स्‍नेह के दिग्‍दर्शन किये थे । अब तो उसने मेरे मन में पूजा की जगह ले ली थी, उसके लौह व्‍यक्‍त्‍त्‍वि के आगे मैं शून्‍य था, उसके अद्‌भुत एवं अंबर तक उंचे कद के आगे मैं खुद को बौना महसूस कर रहा था । सोच रहा था कि मुझ जैसे एक अपरिचित व्‍यक्‍ति के साथ इस विदुषी महिला का अपार स्‍नेह क्‍या सचमुच उसकी उदारता थी या फिर मुझ पर किन्‍हीं साधु संतो की कृपा। उसके इस क्षणिक स्‍नेह ने मेरे अंदर अपूर्व साहस का संचार किया और जैसे मेरे अंदर का अहिल्‍या की भांति श्रापित साहित्‍यकार प्रभुराम के चरणों का स्‍पर्श पाकर जीवित हो उठा था । मेरे अंदर का जज्‍बा आज मुझे ललकार रहा था और अंदर तक यह अनुभूति हो रही थी कि एक स्‍त्री के चंद शहद से लब्‍जों में अद्वितीय ताकत होती है ।

मेरे अंदर के जज्‍बे ने जैसे संकल्‍प ले डाला कि इण्‍टरनेट और दूरभाष के जरिये की यह छोटी सी मुलाकात मेरे अंदर एक साहित्‍यकार को जन्‍म देगी ।मैंने अगले मेल में उन्‍हें लिखा कि मुझ पर भरोसा रखें मेरे व्‍यक्‍तित्‍व और मेरी दोस्‍ती पर सदैव आपको गर्व होगा ।

इस तरह चंद गलतफहमियों के बादल छंटते हुये हम दोनों एक दूसरे के बहुत निकट आ गये, वह अब केवल मित्र ही नहीं पथप्रदर्शक और हर मुश्‍किलों में परछाईं की तरह साथ खड़ी रहने वाली दोस्‍त बन चुकी थी । उसके बडप्‍पन का मैं कायल हो चुका था ।

अब तो जैसे मेरे अंदर का एक गद्य विधा के रूप में जन्‍मा साहित्‍यकार कुछ लिखने को बुदबुदा रहा था और इस अवसर पर मेरे अंदर इस विधा को जन्‍म देने वाली उस विराट व्‍यक्‍तित्‍व की मलिका से मैं केवल शुभकामनाएं चाहता था, वैसे भी हर अच्‍छे कार्यो में अब मैं उसकी शुभकामनाएं अवश्‍य लेने लगा था ।

मैंने उन्‍हें मेल में एक दिन लिखा - मैं एक नोवेल लिखना चाहता हूं, मुझे आपके शुभकामनाओं की निहायत जरूरत है ।

उन्‍होने तुरंत लौटते हुये ई-मेल से लिखा - आपके हर सृजनात्‍मक कदम पर मेरी शुभकामनाएं सदैव आपके साथ रहेंगी, भरोसा रखें ।

और इस तरह मैं नोवेल लिखने में जुट गया । उपन्‍यास की इस नयी विधा के रूप में साहित्‍य सृजन करते हुये मैं पन्‍नों को रंगने लगा, जब कभी कहीं दिक्‍कतें होती उसकी तस्‍वीरों के आगे शीश झुका उसी एकलव्‍य की भांति प्रेरणा पाता जिस तरह कभी एक विश्‍वास ने उसकी सहायता द्रोणाचार्य के रूप में की थी ।

मैं लिखते लिखते एक दिन थक गया, मेरे अंदर की ताकत जवाब देने लगी थी, मैंने उन्‍हें एक दिन पत्र लिखा - मैं इस विधा में कहीं भटक सागया हूं, मुझे लगने लगा है कि मैं बहुत ज्‍यादा निबंधात्‍मक होते जा रहा हूं ।क्‍या आप मेरे साथ संयुक्‍त रूप से नहीं लिख सकतीं ?

उन्‍होने एक प्‍यारा सा ईमेल करते हुये लिखा - आप कहां तक आगे बढ़ पाये हैं, मैं देखना चाहूंगी, जहां तक संयुक्‍त लेखन का प्रश्‍न है, तो आप जानते हैं कि मेरे पास वक्‍त की बहुत कमी होती है और फिर मेरी गद्य में रूचि भी नहीं हैं, आप लिखिये जहां पर दिक्‍कतें होंगी मैं आपके साथ खड़ी हूं, चिंता न करें ।

और इस तरह हर कदम पर उसकी सहायता प्राप्‍त करते मेरा नोवेल समापन की ओर बढ़ने लगा। एक दिन फोन पर मैंने उनसे कहा- आप जानती हैं, इस उपन्‍यास में आपका बहुत बड़ा योगदान है, मैं इसे आपको समर्पित करना चाहता हूं ।

आप ऐसा न कहें, यह आपका बड़प्‍पन है। मैंने तो सिर्फ आपको कहीं- कहीं प्रेरित किया है ।

मैंने कहा - आप ऐसा कहकर मेरी नजरों में देवता बनना चाहती हैं? जो मैं होने नहीं देना चाहता।

आप ऐसा क्‍यों सोचते हैं ?

इसीलिए कि देवता सिर्फ देता है, लेता नहीं - देयते इति देवता । और आप मुझे भगवान के रूप में तो स्‍वीकार हैं, लेकिन देवता के रूप में कतई नहीं ।मैं आपसे जो पाया उसे ही आपको समर्पित कर रहा हूं, मेरा इसमें कुछ भी नहीं है । त्‍वदियं वस्‍तु गोविदं, त्‍वयमेव समर्पये ।

ठीक है जैसा आपको उचित लगे करें, परंतु कहीं पर भी ओवेर रियेक्‍ट मत करियेगा, मुझे दिखावे से सख्‍त चिढ़ है । वैसे भी प्‍यार और सम्‍मान, मन में हो तो ज्‍यादा अच्‍छा लगता है, इसे प्रदर्शन के बैशाखी की जरूरत नहीं होनी चाहिये और मैं जानती हूं कि आप मुझे बहुत प्‍यार करते हैं और शायद सम्‍मान भी, इसे बताने की जरूरत नहीं है ।

मैंने कहा - ठीक है मैं पहले पन्‍ने पर आपके नाम का उल्‍लेख करते हुये इसे आपको सादर समर्पित कर रहा हूं।

तीन चार महीने बाद अचानक मुझे किसी जरूरी काम से दिल्‍ली जाना हुआ, जैसे ही ट्रेन मथुरा से आगे बढ़ी मैंने उन्‍हें फोन से यह सूचना दी कि कुछ जरूरी काम से मैं दिल्‍ली आ रहा हूं ।

उन्‍होंने मुझसे कौतुहल से पूछा - घर आओगे ?

मैंने कहा - मैंने तो आपका घर नहीं देखा, फिर दिल्‍ली मेरे लिये नया शहर है और वैसे भी शाम की गाड़ी से मेरा वापसी का रिजर्वेशन है। मुझे दिल्‍ली में सिर्फ दो घण्‍टे का एक छोटा सा काम है। मुझे तुरंत वापस होना है, फिर कभी आना हुआ तो जरूर आऊंगा ।

उन्‍होने मुझे कहा - मैं आउंगी आपसे मिलने, आप निजामुद्‌दीन स्‍टेशन पर उतरियेगा।

मैं उसके अनुरोध को ठुकरा न सका । ट्रेन निजामुद्‌दीन स्‍टेशन पर आते ही धीमी हो गयी, मैं खिड़की से झांककर बाहर देखने लगा, शायद वह एक नजर में दिख जाये । मैंने जैसे ही प्‍लेटफार्म पर कदम रखे ,उसे मेरी नजरें तलाशने लगी । मैंने इसके पहले उसे कभी नहीं देखा था, सिर्फ एक साहित्‍यिक पत्रिका के एक अंक में प्रकाशित उसकी कविताओं के साथ उसकी सफेद काली तस्‍वीरे देखी थी जिससे उसके रंग एवं वर्ण का आकलन काफी कठिन था । उसे पहचानने में मुझे जो मददगार हो सकती थी वह केवल यही था कि वह पावर के चश्‍मे लगाती थी ।

अब तो प्‍लेटफार्म पर मैं उन महिलाओं को तलाशने लगा जो पावर के चश्‍मे लगाये हुये प्‍लेटफार्म पर खड़ी थी । मैंने अपने मोबाइल पर नजर डाली तो बैटरी खत्म होने से पावर ऑफ हो चुका था। मेरे पास अब उनसे संपर्क हेतु कोई साधन नहीं था और न ही उनका मोबाइल नं. मेरे पास कहीं लिखा हुआ था।

मुझे अब लगने लगा कि मैं उन्‍हें अब तलाश नहीं पाउंगा, इसी बीच मेरी नजर एक गौर वर्ण कमल की तरह नेत्र, और बार-बार सामने को आती अपनी घनेरी जुल्‍फों को पीछे की ओर सरकाती एक महिला पर पड़ गयी। नारंगी साड़ी में लिपटी वह अत्‍यंत शालीन एवं भद्र महिला एक ओर जहां अपनी विद्वत आभा को समेटे सभ्‍यता की साक्षात्‌ प्रतिमूर्ति लग रही थी तो दूसरी ओर किसी प्‍याले में भरे नारंगी जाम से कम भी नहीं। एक पी.सी.ओ. के बगल में खड़ी हल्‍के पावर के चश्‍में लगायी वह महिला एकदम परिपक्‍व लग रही थी, उनका ध्‍यान सिर्फ उस आगंतुक की तलाश में था जिनसे वह मिलने आयी थी। मैं भी उसी के बगल में खड़े होकर पी.सी.ओ. वाले से कहा - भाई साहब जरा मेरा सेलफोन चार्ज कर दोगे ?

उसने मुझे उपर से नीचे तक देखा फिर एहसान जताते हुये कहा -अरे भाई साहब, सुबह का वक्‍त है, ग्राहकी का टाईम हैं, आप लोग भी... , लाईये दीजीये ।

मेरा सेलफोन चार्ज होने लगा, इस बीच कई बार वह महिला मुझे पलटकर देखती फिर अपने मोबाइल से रिंग करती हुई धीमी आवाज में गुस्‍से से कहती- शट्‌ट यार ! गजब आदमी है, मोबाइल बंद करके रखा है ।

थोड़ी ही देर में मेरा सेलफोन काम चलाने लायक चार्ज हो गया ।मैंने उन्‍हें जैसे ही रिंग किया,पास ही खड़ी महिला का सेलफोन घनघना उठा । मैं फोन से बात करने के पहले ही खुशी से उछल पड़ा - अरे आप ...।

ओह आप ... । मैं कब से खड़ी आपकी राह देख रही हूं ।

मुझे क्‍या मालूम था कि मेरे बगल में खड़ी हुई आप ही हैं ।

मैं खुशी से फूला नहीं समा रहा था। मेरी आंखों से खुशी के आंसू निकलने को जैसे बेताब थे, दिलों की धड़कने इस कौतुहल भरे क्षणों में अनायास ही बढ़ गयी थी ।

मेरी आंखों में आंखे डालकर वह देख ही रही थी कि मेरी आंसू की एक बूंद ने उसके पंकज की भांति पुष्‍प से पदों का प्रक्षालन कर दिया ।

उन्‍होंने मेरी आंखों के आंसू पोंछते हुये कहा - अरे आप तो बच्‍चे की तरह हो, रोने लगे ।

नहीं खुशी ज्‍यादा हो गयी थी, इसलिये छलक पड़े ।

उन्‍होंने मेरे गालों में फैले आंसुओं पर उड़कर चिपके अपने लंबे झड़े हुये एक बाल को अपने हाथ से निकालते हुये कहा- दिल्‍ली में पानी ठीक नहीं है, बाल बहुत झड़ते हैं ।

घर नहीं जाओगे ? उन्‍होंने लंबी सांस भरते हुये कहा ।

मैं तो आपको पहले ही बता ही चुका हूं कि मुझे शाम की गाड़ी से वापस जाना है। आपसे मिलने की इच्‍छा थी वह भी आपके दर्शन पाकर पूरी हो गयी ।

वैसे भी मैं आपसे कहा करता था ना, कि अन्‍जान आदमी पर ज्‍यादा भरोसा नहीं करना चाहिये। मैं तो अभी भी आपके लिये अन्‍जान हूं ।

हां, इस अंजान शब्‍द ने ही मेरे जीवन की परिभाषा बदल दी । आप कहा करते थे ना कि एक अच्‍छा दोस्‍त मिलना जिंदगी की सबसे बड़ी उपलब्‍धि होती है और ईश्‍वर की कृपा भी। मुझ पर भी आपसा दोस्‍त देकर ईश्‍वर ने असीम कृपा की है ।

पर आपने तो मुझे अपने सबसे बेहतर दोस्‍त के रूप में कभी स्‍वीकार ही नहीं किया। पत्र में तो आपने कभी नहीं लिखा ।

आपमें और मुझमें यही फर्क है, आप सब कुछ कहकर भी वह नहीं कह पाते जो मैं अपनी खामोशी से कह जाती हूं। आपको पता है खामोशी हम जैसे विद्वानों की सशक्‍त भाषा होती है, और ऐसा कहकर वह खिलखिला पड़ी।

चलिये घर चलते हैं, बेटे से मिल लीजीयेगा, जल्‍दी छोड़ दूंगी प्रामिस ।

थोड़ी ही देर में हम घर पहुंच गये । बेटे को पाकर मैं उसे गोद में उठा लाड़ करने लगा। उससे बातें करते हुये स्‍कूल के बारे में पूछने लगा ।

आप चाय पीयेंगे या कॉफी ?

आप जानती हैं मैं कुछ नहीं पीता ।

कुछ तो लेना होगा ।

जी पानी पिला दीजीये ।

ठीक है आपको जल्‍दी है इसलिये मैं नहीं रोकूंगी, अब की बार परिवार को लेकर दिल्‍ली आना हुआ तो घर जरूर आईयेगा ।

नहीं मैं तो आ चुका - हमारी देहरी को पवित्र करने के लिये अब हम आपकी प्रतीक्षा करेंगे ।

देखिये अगले साल तक कोशिश करूंगी, पति की छुटि्‌टयां रही तो अब की बार हम उधर ही घूमने का प्‍लान करेंगे ।

उन्‍होने जाते-जाते कहा - यह एक लिफाफा है, घर जाकर खोलियेगा ।

मैं टैक्‍सी में बैठकर निकलने लगा और वह हाथ हिलाकर अभिवादन करती हुई दूर तक देखती रही जब तक कि मैं उसकी आंखों से ओझल नहीं हो गया ।

एक अंजान व्‍यक्‍ति के प्रति किसी महिला का अटूट विश्‍वास, स्‍नेह और हर कदम पर अपूर्व सहयोग। क्‍या सचमुच यही तस्‍वीर भारत का वास्‍तविक प्रतिनिधित्‍व करती है या फिर वह जो प्रतिदिन समाचार पत्रों में हिंसा, आतंक और अपराध के रूप में समाचार पत्रों में दिखाया जाता है ।

मैं सोच रहा था कि उस महिला का बड़प्‍पन मेरे लिये क्‍या किसी दैवीय प्रसाद की तरह था या फिर अन्‍जानों के प्रति भी सहदयता दिखाने की भारतीय स्‍त्री का वह नमन करने योग्‍य मिसाल, जिसके आगे आज भी भारत की धरती पर देवता नतमस्‍तक होते हैं ।

मैं ट्रेन में बैठे हुये उस लिफाफे को खोलकर देखने की इच्‍छा को रोक नहीं पा रहा था, और अंततः खोल ही बैठा - उसमें एक चेक और छोटा सा हाथों से लिखा पत्र था, पत्र में उन्‍होने लिखा था - मैं आपके प्रकाशक द्वारा मुझे आपको देने के लिये दी गयी रायल्‍टी राशि भेज रही हूं, यद्यपि यह अमाउण्‍ट काफी कम है लेकिन उम्‍मीद करती हूं कि इसे आप खर्च नहीं करेंगे। आप ही कहा करते थे ना, कि यह हमारे संयुक्‍त प्रयासों का प्रतिफल है, मैं चेक के पीछे अपना ऑटोग्राफ दे रही हूं, इसे सम्‍हाल कर रखियेगा, मै जब कभी आपके घर आयी तो ड्राइंग रूम में सजी तस्‍वीरों के बीच इसे देखना चाहूंगी ।

शुभकामनाओं सहित ।

आपकी

पत्र को पढ़ने के बाद अब न तो मेरे पास कहने के लिये कुछ शब्‍द थे और न ही सोचने को कोई विचार ।

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COMMENTS

BLOGGER: 3
  1. आदरणीय राकेश जी

    मैं तीन बातें कहना चाहूँगा--
    १. इसे कहानी नहीं अपितु संस्मरण कहना अधिक उचित होगा. क्योंकि कहानी में एक कथानक का होना अति अनिवार्य होता है जो इस रचना में नहीं है. इसमें आपने अजन्ता जी से अपनी मुलाक़ात का संस्मरण प्रस्तुत किया है.
    २. एक तरफ तो आप उनके लिएबहुत सुन्दर सुन्दर विशेषण लिखते हैं और दूसरी तरफ यह लिखते हैं -- "किसी प्‍याले में भरे नारंगी जाम से कम भी नहीं". सौंदर्य दर्शाने के लिए इस तरह का विशेषण कितना उचित है. निम्न वाक्य का भी लिखा जाना मुझे उचित नहीं लगा--- "मैं जानती हूं कि आप मुझे बहुत प्‍यार करते हैं". चूंकि अजन्ता जी आपकी कहानी की काल्पनिक नायिका नहीं हैं. आप एक संस्मरण के आधार पर लिख रहे हैं तो व्यक्तिगत बातों को कुछ और रूप में लिखा जाना चाहिए था.

    ३. विशेषणों तथा प्रसंगों की पुनरावृत्ति, आरम्भ से मध्य तक निबन्धात्मक शैली और स्वागत का विस्तार इत्यादि कथ्य को कमजोर कर रहे हैं. लेखन में बहुत बिखराव है. साधना की आवश्यकता है.

    यह सब मैंने एक पाठक की हैसियत से मुझे जो लगा लिखा है. आशा है मेरे कहे को आप सकारात्मक रूप में लेंगे और अगली बार आपकी लेखनी से एक बेहतर कहानी पढ़ने को मिलेगी.

    सादर
    प्रताप

    जवाब देंहटाएं
  2. मै प्रताप नारायण जी की आलोचनाओ के सन्दर्भ मे कहानी से सम्बन्धित विभिन्न बिन्दुओ पर अपने विचार रखना चाहून्गा-

    1.जहा तक मुझे ग्यान है हम सन्समरण उसे कहते है जब कोई लेखक किसी व्यक्ति या पात्र का अपने साथ बीती हुई घटनाओ या प्रसन्गो को प्रस्तुत करता है.यह कहानी तो पूर्णतया काल्पनिक है जिसमे कोई भी घटना या प्रसन्ग कही से भी सत्य या सत्य के निकट नही है, फिर यह सन्स्मरण कैसे हो सकता है?

    2.एक पात्र जब एक नायिका से मिलता है तब वह प्रारम्भ मे उसके बाहरी आवरण से प्रभावित होता है जिसमे उसका सौन्दर्य एवम व्यक्तित्व प्रमुख होता है, कहानी के अनुसार- वह उस स्त्री को तब बिल्कुल नही जानता जब वह उसके समीप खडा हुआ है, ऐसी स्थिति मे एक पुरूष पात्र उसके सौन्दर्य को उसी नारन्गी जाम की तरह देखने का प्रयास करता है,यद्यपि उसे जानने के बाद उसके प्रति श्रद्धा या सम्मान जाग जाता है, यह विडम्बना है कि आज पुरूष कही ना कही उस ओछी मानसिकता का शिकार है जहा वह एक अन्जान स्त्री को सिर्फ उसी नजरिये से देखता है या देखने का प्रयास करता है, मैने इस कहानी मे उस जगह पर यही बताने कोशिश की है.

    जब पूरी कहानी ही काल्पनिक है तब तीसरे प्रश्न के उत्तर की कही आवश्यकता ही नही है.

    3.कहानी कही भी पूरी तरह निबन्धात्मक नही है, कहानी मे एक नायक और नायिका के वार्तालाप के अन्श दूरभाष के द्वारा अधिकतम हुये अत: उसे यथास्थान समेटने का प्रयास किया गया है साथ ही आवश्यकतानुसार अन्य स्थानो पर प्रत्यक्ष वार्तालाप के अन्श भी दिखाने का मैने प्रयत्न किया है.
    4. चूकि कहानी का स्वरूप ही कुछ इस तरह का है जिसमे एक भारतीय स्त्री के उज्जवल चरित्र को रखने का प्रयास किया गया है अत: स्वागत विस्तार कदाचित मेरी नजर मे एक आवश्यकता रही हो.और जहा तक कथानक का प्रश्न है तो मै उसे कमजोर नही कहून्गा,भारतीय स्त्री के विशाल व्यक्तित्व को समूची कहानी मे सार रूप मे एक मजबूत कथावस्तु की तरह मैने समेटने का प्रयास किया है.

    5. कहानी को अजन्ता जी जैसी विराट व्यक्तित्व की महिला से या फिर किसी अन्य के साथ सम्बन्धित करके देखना कहानी को निरपेक्षता के साथ अन्याय होगा साथ ही यह अजन्ता जी जैसी विशाल कद की महिला के प्रति हमारी नकारात्मक सोच भी होगी, कहानी पूरी तरह काल्पनिक है , अजन्ता जी के एक कथ्य को कहानी मे उद्ध्रित करना प्रसन्गवश विवशता हो सकती है. अजन्ता जी एक विदूषी स्त्री है, मै उन्हे कभी मिला तो नही लेकिन उनकी कविताओ से आकलन करता हू.

    अत: पाठक इसे निरपेक्ष होकर पढे तो निश्चय ही यह कहानी भारतीय स्त्री के उज्जवल पक्ष का रेखान्कन करती है

    जवाब देंहटाएं
  3. मेरी टिप्पणी में अजन्ता जी के नाम का उल्लेख किया जाना मेरी भूल थी. मैंने कहानी दुबारा पढ़ी तो मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ. मेरी टिप्पणी के कारण लेखक, पाठक और अजन्ता जी को जो भी मानसिक कष्ट हुआ उसके लिए मुझे बहुत खेद है और मैं सबसे क्षमा प्रार्थना करता हूँ .

    जवाब देंहटाएं
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नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद 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रचनाकार: राकेश कुमार की कहानी : पारस पत्थर
राकेश कुमार की कहानी : पारस पत्थर
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