वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख : विद्यानिवास मिश्र के ललित निबंधों का सृजन परिदृश्य

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श्‍ौक्षणिक गतिविधियों से जुड़े युवा साहित्‍यकार डाँ वीरेन्‍द्रसिंह यादव ने साहित्‍यिक, सांस्‍कृतिक, धार्मिर्क, राजनीतिक, सामाजिक तथा पर्या...

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श्‍ौक्षणिक गतिविधियों से जुड़े युवा साहित्‍यकार डाँ वीरेन्‍द्रसिंह यादव ने साहित्‍यिक, सांस्‍कृतिक, धार्मिर्क, राजनीतिक, सामाजिक तथा पर्यावरर्णीय समस्‍याओं से सम्‍बन्‍धित गतिविधियों को केन्‍द्र में रखकर अपना सृजन किया है। इसके साथ ही आपने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्‍थापित कर उनके सामाजिक, आर्थिक विकास का मार्ग भी प्रशस्‍त किया है। आपके सैकड़ों लेखों का प्रकाशन राष्‍ट्र्रीय एवं अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर की स्‍तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। आपमें प्रज्ञा एवम्‌ प्रतिभा का अदृभुत सामंजस्‍य है। दलित विमर्श, स्‍त्री विमर्श, राष्‍ट्रभाषा हिन्‍दी एवमृ पर्यावरण में अनेक पुस्‍तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्‍द्र ने विश्‍व की ज्‍वलंत समस्‍या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्‍तुत किया है। राष्‍ट्रभाषा महासंघ मुम्‍बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्‍व0 श्री हरि ठाकुर स्‍मृति पुरस्‍कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्‍बेडकर फेलोशिप सम्‍मान 2006, साहित्‍य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्‍मान 2008 सहित अनेक सम्‍मानो से उन्‍हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्‍च शिक्षा अध्‍ययन संस्‍थान राष्‍ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आार्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।

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प्रो0 विद्यानिवास मिश्र के ललित निबन्‍धों का सृजन परिदृश्‍य

डॉ0 वीरेन्‍द्र सिंह यादव

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अगर किसी दिवंगत व्‍यक्‍ति के प्रति कृतज्ञ होने का कोई अर्थ हो सकता है तो मैं प्रख्‍यात साहित्‍यकार व सांसद तथा पद्यभूषण से सम्‍मानित प्रो0 विद्यानिवास मिश्र जी के प्रति कृतज्ञ हूँ जो मुश्‍किलों को बर्दाश्‍त करते हुए अपने देश की विरासत एवं संस्‍कृति को विदेशों में रह रहे भारतीयों तक पहुँचाते रहे और अपनी साहित्‍यिक सीमाओं को निर्धारित करने से पहले काल कवलित हो गये।

प्रो0 मिश्र जी हिन्‍दी के मूर्धन्‍य साहित्‍यकार थे। आपकी विद्वता से हिन्‍दी जगत का कोना-कोना परिचित है। आचार्य रामचन्‍द्र शुक्‍ल के बाद यदि कोई दूसरे प्रखर प्रतिभावान साहित्‍कार ने हिन्‍दी जगत्‌ में जन्‍म लिया तो उसका नाम प्रो0 विद्यानिवास मिश्र जी ही है। हालांकि आप हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की परम्‍परा में अग्रिम कड़ी हैं। इन आचार्यो को आधुनिक हिन्‍दी का दृढ़ स्‍तम्‍भ कहा जा सकता है। यदि एक बुद्धि की गहराई पर टिका है तो दूसरा हृदय के अन्‍तःकरण को आधार बनाकर फैला है। डॉ0 नगेन्‍द्र के अनुसार-‘‘आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के ऐतिहासिक सांस्‍कृतिक बोधपरक सृजनात्‍मक ललित चेतना को प्रो0 विद्यानिवास मिश्र के निबन्‍धों ने आधुनिक विस्‍तार दिया है। आचार्य द्विवेदी के निबन्‍धों की ललित श्‍ौली का विद्यानिवास के निबन्‍ध सच्‍चे अर्थों में लालित्‍य शोधीय आलोक फैलाते हैं। इनमें लोक सम्‍वेदना और लोक हृदय की पकड़ बड़ी मर्म स्‍पर्शी है।'' प्रो0 मिश्र संस्‍कृत साहित्‍य को वर्तमान जीवन के परिवेश से देखते हैं और निबन्‍धों को ज्ञान की ऊष्‍मा से झुलसाते नहीं वरन्‌ उनमें सांस्‍कृतिक सरसता एवं तरलता के हमें दर्शन होते हैं।

हिन्‍दी की ललित निबन्‍धों की परम्‍परा को उन्‍नति के शिखर पर पहुँचाने वाले कुशल शिल्‍पी का जन्‍म गोरखपुर जिले के पकड़डीहा गाँव में 14 जनवरी, 1926 ई0 को हुआ था। आपकी प्रारम्‍भिक शिक्षा गोरखपुर में हुई थी। उच्‍च शिक्षा हेतु आपने गोरखपुर विश्‍वविद्यालय को चुना। यहाँ से स्‍नातक तथा परास्‍नातक संस्‍कृत विषय से किया। गोरखपुर विश्‍वविद्यालय ने ‘पाणिनीय व्‍याकरण की विश्‍लेषण पद्धति' पर आपको डॉक्‍टरेट की उपाधि प्रदान की। लगभग दस वर्षों तक हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मेलन, रेडियो, विन्‍ध्‍य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश के सूचना विभागों में नौकरी के बाद आप गोरखपुर विश्‍वविद्यालय में प्राध्‍यापक हुए। कुछ समय के लिए आप अमेरिका गये, वहाँ कैलीफोर्निया विश्‍वविद्यालय में हिन्‍दी साहित्‍य एवं तुलनात्‍मक भाषा विज्ञान का अध्‍यापन किया एवं वाशिंगटन विश्‍वविद्यालय में हिन्‍दी साहित्‍य का अध्‍यापन किया। आपने ‘वाणरासेय संस्‍कृत विश्‍वविद्यालय' में भाषा विज्ञान एवं आधुनिक भाषा विज्ञान के आचार्य एवं अध्‍यक्ष पद पर भी कार्य किया। राष्‍ट्र ने आपकी साहित्‍यिक सफलताओं को तरहीज देते हुए सासंद नियुक्‍त किया। साथ ही देश ने उनकी सफलताओं और त्‍याग तथा ईमानदारी के लिए पद्य भूषण सम्‍मान से भी विभूषित किया। वर्तमान में प्रो0 मिश्र ‘भारतीय ज्ञानपीठ के न्‍यासी बोर्ड के सदस्‍य थे और मूर्ति देवी पुरस्‍कार चयन समिति के अध्‍यक्ष सहित ज्ञानपीठ के न्‍यासी बोर्ड के सदस्‍य थे।' जीवन का संचालन करने वाली उच्‍चतर सत्ता को किसी भी रूप में प्रत्‍यक्ष या निराकार रूप में जानना व्‍यक्‍ति के लिए बहुत बड़ी बात है क्‍योंकि सृष्‍टा नियमों से परे है। काल गणना के नियम से भी परे। साहित्‍य के महाबली का अंत मार्ग दुर्घटना के रूप में हुआ।

प्रो0 विद्यानिवास मिश्र स्‍वयं को भ्रमरानन्‍द कहते थे और छद्यनाम से आपने अधिक लिखा है। आप हिन्‍दी के एक प्रतिष्‍ठित आलोचक एवं ललित निबन्‍ध लेखक हैं, साहित्‍य की इन दोनों ही विधाओं में आपका कोई विकल्‍प नहीं हैं। आपका सहारा पाकर अनेक लेखक कृतार्थ हुए। ‘साहित्‍य की चोतना', ‘हिन्‍दी की शब्‍द सम्‍पदा', ‘पाणिनीय व्‍याकरण की विश्‍लेशण पद्धति', ‘रीति विज्ञान' आदि इनके आलोचनात्‍मक ग्रन्‍थ हैं। निबन्‍ध के क्षेत्र में मिश्र जी का योगदान सदैव स्‍वर्णाक्षरों में अंकित किया जाएगा। इस तथ्‍य को स्‍वीकारते हुए डॉ0 रामस्‍वरूप चतुर्वेदी लिखते हैं-‘‘लेखक ललित निबन्‍ध के विषय क्रम का निरंतर विस्‍तार करता गया है। भारतीय संस्‍कृति और हिन्‍दी आस्‍था का स्‍वच्‍छ संतुलित विवेचन उनकी केन्‍द्रीय दृष्‍टि है। वृक्षों, वनस्‍पतियों, फूलों का विवेचन होद्व चाहे जीवन की किसी छोटी-बड़ी घटना का वर्णन, किसी न किसी रूप में निबन्‍धकार अपनी दृष्‍टि का संकेत देता है। परिवार-जीवन के विविध रूप भी निबन्‍धों में उसी दृष्‍टि से जहाँ-जहाँ खिले हैं।'' पश्‍चिमी संस्‍कृति का नबली अनुकरण और आज के मानव का खोखलापन प्रो0 मिश्र जी के निबन्‍धों में दर्द बनकर उभरता है। यह सच है कि शिक्षा, संस्‍कृति और साहित्‍य इन ललित निबन्‍धों के तीन नेत्र हैं। इन्‍हीं से हेरते हुए वे ‘नया अर्थ' पाते हैं। मिश्र जी ने स्‍पष्‍ट कहा है कि -‘‘ वैदिक सूत्रों के गरिमामय उद्‌गम से लेकर लोकगीतों के महासागर तक जिस अविच्‍छित्र प्रवाह की उपलब्‍धि होती है उस भारतीय परम्‍परा का मैं स्‍नातक हूँ।''

प्रो0 विद्यानिवास मिश्र के ललित निबन्‍धों की शुरूवात सन्‌ 1956 ई0 से होती है। परन्‍तु आपका पहला निबन्‍ध संग्रह 1976 ई0 में ‘चितवन की छाँह' प्रकाश में आया है। आपने हिन्‍दी जगत को ललित निबन्‍ध परम्‍परा से अवगत कराया। ‘तुम चन्‍दन हम पानी' शीर्षक से जो निबन्‍ध प्रकाशित हुए उनमें संस्‍कृत साहित्‍य के सन्‍दर्भा का प्रयोग अधिक हो गया और पाण्‍डित्‍य प्रदर्शन की प्रवृत्ति के कारण लालित्‍य दब गया जो आपकी पहली दो रचनाओं में मिलता था। तीसरे निबन्‍ध संग्रह ‘आंगन का पंछी और बनजार मन' में परिवर्तन आया। इस तभ्‍य को स्‍वयं निबन्‍धकार स्‍वीकार करता है। ‘चितवन की छांह' मेरे मादक दिनों की देन है, ‘कदम की फूली डाल' मेरे विन्‍ध्‍य प्रवास का, जो बाद में आवास ही बन गया, का फल है और ‘तुम चन्‍दन और हम पानी' मेरे संस्‍कृत अन्‍वेषण की देन है। अब चौथा संग्रह आपके हाथों में है, दुविधा के क्षणों की सृष्‍टि है। इसलिए इसका शीर्षक भी द्विविधात्‍मक है। बरसों तक भोजपुरी वातावरण के स्‍मृतिचित्र उरेहता रहा, उसी में मन चाहे पद पर जब वापस होने की आशंका। इसलिए जहाँ मन ‘आगंन का पंछी' बनकर चहका, वहीं उसका बनजारा मन' उसे विगत और अनागत दिशाओं में रमने-घूमने के लिए अकुलाता भी रहा।''

प्रो0 विद्यानिवास मिश्र के अगले निबन्‍ध ‘मैंने सिल पहुँचाई' के सम्‍बन्‍ध में भी उसकी भूमिका ‘आधार' शीर्षक से दी गयी है, जिसमें निबन्‍धकार ने स्‍वयं यह बताया है-‘‘प्रस्‍तुत निबन्‍ध संग्रह, अगर सच कहने की दजाजत मिले तो अनिबन्‍ध संग्रह है। (‘अ' का बड़ा जोर है आजकल) पहली बात तो यह कि अललित है। इसमें भ्रमरानन्‍दी ढंग की कुछ चिटि्‌ठयाँ हैं, कुछ अध्‍यापक के जीवन की निष्‍क्रिय पतंगबाजी है, कुछ संस्‍कृत के विद्यार्थी की तोता-रटन और कुछ राष्‍ट्रीयता के लिए वेसुरा प्रलाप, कोई प्रतिमा खड़ी करने की संकल्‍प नहीे है, और शक्‍तिशाली युगानुकूल जीवित माध्‍यम के लिए कोई सुगबुगाहट भी नहीें है।''

प्रो0 विद्यानिवास मिश्र जी के महत्‍वपूर्ण निबन्‍ध संग्रह है। ‘बसन्‍त आ गया पर कोई उत्‍कण्‍ठा नहीं'। इसमें कुल बाईस निबन्‍ध संग्रहित हैं। इसमें समकालीन परिवेश के ज्‍वलंत प्रश्‍नों पर लेखक ने विचार प्रस्‍तुत किये हैं-उदाहरण के लिए-युद्ध और व्‍यक्‍तित्‍व, राष्‍ट्रभाषा और समस्‍या, हिन्‍दी बनाम राजनीति, हिन्‍दी का विभाजन, अन्‍धी जनता औैैेेर लगंड़ा जनतन्‍त्र। एक विश्‍ोष बात यह कि संग्रह में चार निबन्‍ध संस्‍मरणात्‍मक पद्धति में लिखे गये हैं। (हिमालय ने उन्‍हें बुला लिया, हिन्‍दर के अपराजेय योद्धा ः भैया साहब, भाई और निबन्‍धकार द्विवेदी जी) इन निबन्‍धों में राहुल सास्‍ंकृत्‍यायन, श्री नारायण चतुर्वेदी, हजारी प्रसाद द्विवेदी और अज्ञेय जी को आधार बनाया गया है। इस संग्रह के अन्‍तिम आठ निबन्‍ध-‘बर्फ और धूप', ‘हिप्‍पबंध' , गुजर जाती है धार पर मुझ भी' ,‘अस्‍ति की पुकार ः हिमालय', ‘अभी-अभी हूँ नहीे' , ‘बसन्‍त आ गया पर कोर्ठ उत्‍कण्‍ठा नहीं', बन्‍दऊ तब' ,‘इन टूटे हुए दियों से काम चलाओं' अच्‍छे ललित निबन्‍ध हैं।

प्रो0 मिश्र जी का अगला निबन्‍ध संग्रह है-‘मेरे राम का मुकुट भीग रहा है' इसमें आपके सत्रह विशिष्‍ट निबन्‍ध प्रकाशित हुए हैं। इनमें से पहले नौ निबन्‍ध लेखक द्वारा विन्‍ध्‍य प्रदेश के भिन्‍न-भिन्‍न स्‍थानों की यात्रा या उत्‍सव, आयोजनों में जाने के समय की मधुर स्‍मृतियों के संजोये रहने वाले संस्‍मरणों की पद्धति पर लिखे गये हैं।-‘मुकुट' ,‘मेखला' ,‘नूपुर' ,‘विन्‍ध्‍य की धरती का वरदान' ,‘अमर कण्‍टक की सालती स्‍मृति' ,‘राष्‍ट्रपति की छाया' ,‘बेतवा के तीर पर' ,‘होइहें शिला सब चन्‍द्रमुखी' ,‘रेवा से रीवा' ,‘कलचुरियों की राजधारी गुर्गी' ,‘रूपहला धुँआ'। श्‍ोष आठ निबन्‍ध सही अर्थों में ललित निबन्‍ध हैं, इनमें उन्‍मुख भटकन, लोक संस्‍कृति की अभिव्‍यक्‍ति और साहित्‍यिक चिन्‍तन की लाचारी का चित्रण किया गया है-मेघदूत का सन्‍देश, ‘स्‍वाधीनता युग के कठघरे में हिन्‍दी' ,‘सावनी स्‍वाधीनता' ,‘एक निर्वासित श्‍यामा' ,‘अयोध्‍या उदास लगती है' ,‘खामोशी की झील' ,‘राधा माधव हो गयी' ,‘बालू के दूह' और ‘मेरे राम का मुकुट भीग रहा है'। इा संग्रह के ललित निबन्‍धों के बिषय में दी गयी ‘अज्ञेय जी' की यह टिप्‍पणी दृष्‍टव्‍य है-‘‘ललित निबन्‍ध नाम रूढ़ हो गया है, परन्‍तु साहित्‍य लोक संस्‍कृति के निकट संस्‍पर्श से भी आ सकता है। संस्‍कृत काव्‍य के गहन ज्ञान से भी और सबसे बढ़कर लेखक के मनोजगत में विचार-स्‍मृति और कल्‍पना के उस योग से जिसे भावना ने एक मधुर रंगत दी हो। उनके निबन्‍ध लालित्‍य उछलते नहीं, पाठक के मन में उपजते हैं, यही उनकी रोचकता का रहस्‍य है।''

प्रो0 मिश्र जी के अन्‍य निबन्‍ध संग्रह हैं। ‘कहनी अनकहनी' ,‘पश्‍यन्‍ती' ,‘परम्‍परा पर कोई बन्‍धन नहीं'। इनका अंतिम संग्रह तारों के आर-पार ललित लेखन की परम्‍परा की अन्‍तिम कड़ी है। इसमें तेरह निबन्‍ध संग्रहीत हैं। इनमें सभी उच्‍चकोटी के ललित निबन्‍ध हैं। ‘मधुबन जाऊँगा रे' लोक जीवन एवं लोक संस्‍कृति का चित्रण प्रस्‍तुत करता है। ‘उर्दू-मोह का नया मोड़' ,शीर्षक निबन्‍ध में लेखक की खीझ का अभिव्‍यक्‍तीकरण है।

प्रो0 मिश्र जी ने दो विषय प्रधान निबन्‍धों के संग्रह भी हिन्‍दी साहित्‍य को प्रदान किये हैं-‘परम्‍परा बन्‍धन नहीं' ,‘निज मन मुकुर'। इनके अतिरिक्‍त इधर पिछलें वर्षों में जो आपके ललित निबन्‍ध संग्रह प्रकाशित हुए हैं, उनमें ‘कौन तू फुलवा बीननिहारी' ‘बीत गया है' ,‘अंगद की नियति' ,‘गांव का मन' ‘श्‍ौफाली झर रही है' ,आदि उच्‍चकोटि के निबन्‍धों से माँ भारती की झोली भरी है। डॉ0 द्वारिका प्रसाद सक्‍सेना के अनुसार-‘‘विद्यानिवास मिश्र एक श्रेष्‍ठ ललित निबन्‍ध है। आपने इतने रोचक एवं सरस निबन्‍ध लिखे हैं कि वे हिन्‍दी साहित्‍य की अपूर्व निधि बन गये हैं, उनमें भाषा और साहित्‍य का अदभुत्‌ श्रंगार हुआ है तथा अभिव्‍यंजना श्‍ौली के क्षेत्र में एक विलक्षण परिवर्तन आया है। आपने अपने विचारों, भावों और कल्‍पनाओं से एक ओर विवेच्‍य विषय को रमणीयता एवं कमनीयता प्रदान की है तथा दूसरी ओर विविध अप्रस्‍तुत प्रसंगो के बिम्‍ब-प्रतिबिम्‍बात्‍मक नियोजन से अपने कथन को अधिकाधिक प्रभावोत्‍पादक, रोचक एवं आकर्षण बनाने का स्‍तुत्‍य प्रयत्‍न किया है।'' संस्‍कृत तथा भाषा विज्ञान के प्रकांड विद्वान के रूप में प्रतिष्‍ठित प्रो0 मिश्र जी के निबन्‍धों में लालित्‍य के अतिरिक्‍त विचार-समृद्धि भी है। आपने समीक्षात्‍मक, विचारात्‍मक और संस्‍मरणात्‍मक निबन्‍धों को भी लिखा है। आपके निबन्‍धों में ललित श्‍ौली के अतिरिक्‍त, सूत्र श्‍ौली, व्‍यंग्‍य श्‍ौली, विश्‍लेषणात्‍मक श्‍ौली और कवित्‍व-पुर्ण भावात्‍मक श्‍ौली के उत्‍कृष्‍ठ उदाहरण मिल जायेगें। आपके निबन्‍धों की भाषा तत्‍सम होने पर भी उसकी शक्‍ति को अक्षुण्‍ण बनाये रखती है।

निष्‍कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि प्रो0 मिश्र जी का लेखन आधुनिकता की मार देशकाल की विसंगतियों और मानव की यंत्र का चरम आख्‍यान है जिसमें वे पुरातन से अद्यतन और अद्यतन से पुरातन की बौद्धिक यात्रा करते हैं। ‘‘मिश्र जी के निबन्‍धों का संसार इतना बहुआयामी है कि प्रकृति, लोकतत्‍व, बौद्धिकता, सर्जनात्‍मकता, कल्‍पनाशीलता, काव्‍यात्‍मकता, रम्‍य रचनात्‍मकता, भाषा की उर्वर सृजनात्‍मकता, सम्‍प्रेषणीयता इन निबन्‍धों में एक साथ अन्‍तग्रंर्थित मिलती है।''

सम्‍पर्क ः वरिष्‍ठ प्रवक्‍ता हिन्‍दी विभाग, दयानन्‍द वैदिक स्‍नातकोत्तर महाविद्यालय उरई-जालौन (उ0प्र0)-285001 भारत

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख : विद्यानिवास मिश्र के ललित निबंधों का सृजन परिदृश्य
वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख : विद्यानिवास मिश्र के ललित निबंधों का सृजन परिदृश्य
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