वोटिंग के बाद मतगणना से पूर्व प्रायः कहा जाता है कि प्रत्याशियों का भविष्य डिब्बों या मशीनों में बंद हो गया है लेकिन डिब्बों या म...
वोटिंग के बाद मतगणना से पूर्व प्रायः कहा जाता है कि प्रत्याशियों का भविष्य डिब्बों या मशीनों में बंद हो गया है लेकिन डिब्बों या मशीनों में किसका भविष्य बंद होता है, प्रत्याशियों का या मतदाताओं का? प्रजातंत्र में मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करके अपने प्रतिनिधि का चुनाव करते हैं और चुने गए प्रतिनिधियों की मुट्ठी में होता है उसे चुनने वाले मतदाताओं और राष्ट्र का भविष्य। इस प्रकार वोटिंग के बाद मतगणना से पूर्व डिब्बों या मशीनों में बंद होता है मतदाताओं और राष्ट्र का भविष्य। हम अपने हर कर्म द्वारा अपने भाग्य का ही निर्माण करते हैं इसलिए नामांकन की प्रक्रिया से लेकर चुनाव परिणाम तक हर जगह हमारा मूल्यांकन ही तो होता है।
यह सारा संसार हमारे मनोभावों की चित्रशाला है। सामूहिक समग्र चिंतन का ही परिणाम है यह दृश्य जगत। जीवन का हर क्षेत्र प्रभावित है इससे। भौतिक समृद्धि हो अथवा सामाजिक व्यवस्था सभी कुछ मनुष्य के स्वयं के तथा समाज के सामूहिक विचार एवं कर्म का ही प्रतिफल है। राजनीति भी इससे भिन्न नहीं है। कहा जाता है कि चुनाव के दिन अगर आप वोट नहीं डाल रहे हैं तो आप सो रहे हैं, बिलकुल ठीक बात है, लेकिन यदि आप वोट डाल रहे हैं तो भी क्या गारंटी है कि आप सो नहीं रहे हैं? आप वोट नहीं डालते तो भी आपका मूल्यांकन हो रहा है और अगर आप वोट डालते हैं तो इससे भी आपका मूल्यांकन हो रहा है इसमें संदेह नहीं।
अंग्रेज़ी में कहा जाता है कि डोंट जज अदरवाइज़ यू विल बी जज्ड। बिल्कुल ठीक कहा गया है। जब भी हम किसी घटना पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं अथवा किसी चीज़ का चुनाव करते हैं या किसी का मूल्यांकन करते हैं तो इस प्रक्रिया में सबसे पहले हमारा ही मूल्यांकन हो जाता है। प्रजातांत्रिक व्यवस्था में चुनाव एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। जब हम अपने जन प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं तो हम प्रत्यक्ष रूप से तो किसी एक उम्मीदवार का चुनाव ही करते हैं लेकिन परोक्ष रूप से हमारा अपना मूल्यांकन ही हो जाता है।
चुनाव में जीत बेशक एक प्रत्याशी की होती है लेकिन मूल्यांकन समग्र रूप से मतदाताओं का ही होता है कि उन्होंने किस को चुना है और किस को नहीं चुना है। हम प्रायः शिकायत करते हैं कि ग़लत लोग चुनाव जीतकर आ जाते हैं। इसका सीधा-सा अर्थ है कि ग़लत लोग चुनाव नहीं जीतते बल्कि ग़लत लोगों द्वारा उन्हें विजयी बना दिया जाता है और इसके मूल में होते हैं हमारे निहित स्वार्थ। कहीं कोई पार्टी विशेष के नाम पर विजय पा रहा है तो कहीं कोई धर्म, जाति, संप्रदाय अथवा क्षेत्र विशेष के नाम पर जीत हासिल कर रहा है। यहीं हमारा मूल्यांकन हो जाता है।
क्या हमने कभी ऐसे व्यक्ति को वोट दिया है जो हमारी विरोधी पार्टी अथवा अलग विचारधारा का हो लेकिन समग्र रूप से अच्छा हो? हमारी विरोधी पार्टी अथवा अलग विचारधारा का प्रत्याशी चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो लेकिन हम उसे वोट नहीं देते अपितु इसके उलट अपनी विचारधारा के समर्थक या अपनी पसंदीदा पार्टी के निकम्मे उम्मीदवार को ही विजयी बनाने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देते हैंं। कहीं पार्टी के नाम पर मोहर लगती है तो कहीं तथाकथित धर्म, जाति, संप्रदाय अथवा क्षेत्र विशेष के नाम पर बटन दबा दिया जाता है। क्या इससे मतदाता का ही मूल्यांकन नहीं हो जाता?
एक पुस्तक, पत्रिका अथवा कलाकृति को ही ले लीजिए। जब भी हम उस पर कोई प्रतिक्रिया देते हैं या उसकी आलोचना-समालोचना करते हैं तो उसमें सबसे पहले प्रतिक्रिया देने वाले की योग्यता का ही पता चलता है कि उसे उस विषय या कला का कितना ज्ञान है। उसका दृष्टिकोण सकारात्मक है या नकारात्मक है। वह कृति का मूल्यांकन कर रहा है अथवा अपनी अज्ञानता या अपनी अपेक्षाओं के अभाव का रोना रो रहा है। उसकी दृष्टि व्यक्तिपरक है या समाजपरक है। वह विषय को समझ भी रहा है अथवा धूल में लट्ठ मार रहा है या फिर मात्र औपचारिकतावश कुछ शब्द प्रशंसा के और कुछ सुझाव देकर खानापूर्ति कर रहा है। जो भी हो मूल्यांकन व्यक्ति का हो रहा है कृति का नहीं। गणतंत्र के इस यज्ञ में हम भी कहीं वोट रूपी आहुति देने की मात्र खानापूर्ति तो नहीं दे रहे हैं?
किसी व्यक्ति के घर में किस प्रकार की पुस्तकें अथवा कैसा अन्य साज़ो-सामान है इसी से उसकी रुचियों और व्यक्तित्व का पता चलता है। मँहगे फर्नीचर और अन्य साज़ो-सामान से पता चलता है कि व्यक्ति आर्थिक रूप से समृद्ध है लेकिन उसकी पुस्तकों , कलाकृतियों और संगीत के संग्रह से उसकी वास्तविक साहित्यिक, सांस्कृतिक तथा कलात्मक अभिरुचि और चयन की योग्यता का पता चलता है। चुनाव भी हमारी योग्यता का मूल्यांकन है।
चुनाव से समाज का समग्र मूल्यांकन हो जाता है और समाज के मूल्यांकन से व्यक्ति का मूल्यांकन इसमें संदेह नहीं। क्या हममें सचमुच सही चुनाव करने की योग्यता का विकास हो चुका है इस पर एक बार फिर से ग़ौर करने की निहायत ज़रूरत है। दूसरे व्यक्तियों अथवा वस्तुओं का चुनाव या मूल्यांकन करने से पूर्व एक बार स्वयं का मूल्यांकन करने से संभव है हममें अपेक्षाकृत सही चुनाव करने की योग्यता उत्पन्न हो जाए।
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सीताराम गुप्ता,
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