सरोजिनी साहू का उपन्यास : पक्षी-वास (2)

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पक्षी-वास   डॉ सरोजिनी साहू का बहु-चर्चित उपन्यास   अनुवाद :- दिनेश कुमार माली     ( पिछले अंक से जारी …) नशे में धु...

पक्षी-वास

 

डॉ सरोजिनी साहू का

बहु-चर्चित उपन्यास

 

अनुवाद :- दिनेश कुमार माली

 

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(पिछले अंक से जारी…)

नशे में धुत्त था धीमरा। बोलने लगा “इसके मुंह में तो मूतना चाहिये, साले के।”

कलंदर झूठ-मूठ का गुस्सा दिखाते हुये बोला “साले लोग, ऐसा बकर-बकर करते रहोगे, तो भागो यहाँ से। मैं दुकान बंद करुंगा।” बोलते-बोलते घुस गया अपनी छोटी सी गुमटी के अंदर।

“क्यों, जायेंगे हम लोग ? कब से जीभ सूखी-सूखी लग रही है? कलंदर, दारु नहीं है तो, महुली दारु तो दे दे।”

कलंदर, चमार और दूसरे अछूतों के लिये अलग गिलास रखा करता था। आजकल आठ-दस कोकाकोला की बोतलों भी रखने लगा था। चमारों के लिए अलग बोतल रखता था। आधे बोतल से थोड़ा ज्यादा दारु लाकर कलंदर ने नीचे जमीन पर रख दिया। “ए लंगड़ा ! तेरा भी पैसा काट दिया, हाँ”

“थोड़े-से चने नहीं दोगे क्या ?” संकुचित होते हुये अंतरा बोला।

“चना क्या फोखट में मिलता है ?”

“फोरेस्ट-गार्ड को तो भूजा हुआ मछली दे रहा है, और हम लोगों के लिये मुट्ठी भर चना भी नहीं ?”

“ऐ, बोल रहा हूँ, मेरे साथ किचर-किचर मत कर। जा, तू यहाँ से ! तेरे रूपये के लिये मैं क्या मर रहा हूँ ?”

कलंदर की नजर थी फोरेस्ट-गार्ड की जेब की तरफ। मुट्ठी भर रूपये आधा बाहर निकले हुये थे। अंतरा को यह बात ठीक से मालुम थी कि कलंदर चिल्लाने से भी मुट्ठी भर चने जरुर देगा। अधिक से अधिक एक रूपया ज्यादा लेगा। सच्ची में अंदर जाकर मुट्ठी भर चना कलंदर निकालता है, पत्ते के दोने में। और फेंक देता है अंतरा की अंजलि में, और बोलता है

“पहले दो रूपया निकाल, चल”

इतने समय तक, अंतरा देशी दारु का स्वाद ले चुका था। दो चना मुंह में डालकर दो-घूंट दारु और उंडेल दिया था।

”ए कलंदर ! एक गिलास दारु और दे।”

कलंदर दुकानदारी के तौर-तरीके अच्छी तरह जानता था। अंतरा के खोंसे में मुट्ठी भर पैसा देख चुका था। धीरे-धीरे वह पूरा पैसा खींच लेगा, अंतरा को इस बात का पता भी नहीं चलेगा। कलंदर बोला “हो गया, हो गया, और मत पी, तू अभी घर जा। तेरी घर वाली तेरा इंतजार करती होगी, यार।”

“बुखार से काफी कष्ट पा चुका हूँ रे कलंदर। बाबू , तू दे तो, मेरी बात सुन, शरीर में से पीड़ा और थकान दूर हो जाने दे।”

कलंदर दूसरे पियक्कड़ों को लेकर व्यस्त था। सभी तो दूसरे लोक के निवासी थे, पीने के बाद। इन सभी निवासियों को, कठ-पुतलियों की भाँति नचा रहा था कलंदर, विश्वनिंयता बनकर। इसी बीच में आ जाते हैं और दो तीन पियक्कड़, कलंदर की गमटी में। वह नये ग्राहकों को अपने वश में करने के लिये लगा हुआ था। तुरंत कलंदर एक गिलास महुली लाकर, उसके गिलास में डाल दिया। इतने समय तक, अंतरा से बीस रूपया खींच चुका था कलंदर। फिर भी, और दस रूपया माँगने लगा। चना खाया, बीड़ी पी, दारु पिया। ऊपर से महुली भी दिया बिना कुछ बोले अंतरा ने पांच का एक नोट कलंदर की तरफ बढ़ा दिया। महुली की एक घूँट मुंह में गया कि नहीं उसे अपनी पुरानी दर्द भरी यादें ताजा हो गयी। चिल्लाकर बोलने लगा -

“मेरा डाक्टर कहां गया रे तू ?”

धीमरा नशे में धुत्त था, बोला-

“क्या रे अंतरा, सपना देख रहा है क्या ?”

“नहीं, नहीं भाई। महुली को देखने से मुझे डाक्टर की याद आ जाती है। वह हट्ठा-कट्ठा जवान कहाँ गायब हो गया ? ऐसा लगता है कि गंजाम का गतेई साहु और यह फोरेस्ट-गार्ड, दोनों मिले हुये हैं। पूरे गांव भर के जवान लड़कों को हाँक-हाँककर भगा ले गये हैं। गांव भर ढूंढ लेने पर भी, एक जवान लड़का और नहीं मिलेगा। पेशियाँ और पिंडलियाँ कितनी बड़ी-बड़ी व सुघड़ हो चुकी थी मेरे डाक्टर की। तीनों बेटों में से सबसे सुंदर, व भरापूरा शरीर का था मेरा डाक्टर।” धीमरा ने उठते-उठते हामी भरी और कहा “तुम ठीक बोल रहे हो, अंतरा।” धूं-धूं कर दुख की ज्वाला से अंतरा का दिल जल रहा था। कौनसे प्रदेश में होगा ? कितना कष्ट पाता होगा ? क्या खाता होगा ? क्या पीता होगा ? शादी कर ली होगी कि नहीं, पता नहीं ?

अठारह साल का हो गया था वह लड़का। कलेक्टर की भाँति भोलाभाला नहीं था। बहुत ही फुर्त्तीला था। खाना खायें या नहीं, कोई फरक नहीं पड़ता। घोड़े के बच्चे की तरह इधर-उधर दौड़ते रहता था। गया था उस साल वह, टेलिफोन लाइन बिछाने के लिये, मिट्टी खोदने का काम करने। तेज-तर्रार लड़का, बाप जैसा हड्डी ढोने वाला नीच काम क्यों करता ? बहुत ही समझदार मेहनती लड़का था वह। कभी-कभी अपनी किस्मत को कोसता रहता था अंतरा। सोचा था, बड़ा वाला लड़का कलेक्टर बनेगा, पर हुआ क्या ? मुंह पर कालिख पुतवा दी, लड़की को भगाकर ले गया था वह। अंतरा गांव भर में मुंह दिखलाने लायक नहीं रहा। इतने समय तक महुली का गिलास खत्म हो चुका था। कलंदर को पूछने लगा “और थोड़ा, दोगे क्या ?”

कलंदर था कि न हिला, न डुला। अंतरा ने बचे हुये एक रूपये के सिक्के को फेंककर बोला “दे रे और थोड़ा, दे, दे।”

हँसते हुए कलंदर कहने लगा “आज तो चमार का भोज हो गया है। मै सतनामी, कि तू सतनामी ? शास्त्र पुराण के बारे में कुछ जानता भी है ?” अंतरा खिसिया कर बोला “साला, दारु बेच बेच कर दिन बिता रहा है और मेरे को शास्त्रों के बारे में पूछ रहा है। देख, सुन -

“संगी साथी चल गये सारे, कोई न निभियो साथ।

नानक इस विपद में टेक एक ही रघुनाथ ।।”

“बस, हो गया। मैं समझ गया। तुम तो ठहरे महाज्ञानी पुरुष। अब, पहले मेरा बकाया चुकता कर, फिर शास्त्र-पुराण सुनाते रहना।”

अंतरा भूल गया था कि कलंदर उसको पाँच रूपया वापिस करेगा। उसको हिसाब किताब नहीं आता था।

ऐसी हालत में, अभी हिसाब करता भी कैसे ? उसके तो थी मन में जलन, शरीर में भी जलन। उँची आवाज में भागवत का पद्य गाने लगा-

“जब करम आपणो फल देने को आवें, उसका हेतु अपने आप खड़ा हो जावें,

बड़े-बड़े अकलमंदो की बुद्धि को फिरावें, पर-वश माया के चक्कर में भरमावे।

नहीं समझ पड़े, करमण की गति अपारा, श्री कृष्ण कहे सुन अर्जुन वचन हमारा।”

इतने समय तक कलंदर, पियक्कड़ों से जितना हो सकता था, लूट रहा था। केवल फोरेस्ट गार्ड ही बिना पैसा दिये पीता था। लाटसाहब जैसे आता था, मुर्गा, मछली आदि की फरमाइश करता था और गले तक पी जाता था। लेकिन नशे में धुत्त होकर होश गँवा बैठता था, तभी कलंदर धीरे से जेब में से सारे के सारे पैसे निकाल लेता था। उसका सूद समेत ब्याज भी वसूल करलेता था। ‘चोरी का पैसा मोरी में’ चला जाता है। दुकान बंद करते समय फोरेस्ट-गार्ड को उठाते हुये बाहर ले जाता था तथा बरामदे में सुला देता था। जान बुझकर कलंदर पांच या दस का एक दो नोट रास्ते में गिराकर आ जाता था ताकि होश आने पर फोरेस्ट-गार्ड नीचे गिरे हुये नोट को देख कलंदर पर शक भी नहीं करेगा।

पर पता नहीं क्यों, अब की बार, अंतरा का गाना उसके सीने में चुभ गया। जैसे कि यह चमार उसकी अंदर की हर बात को जानता हो । अनपढ़ होने के बाद भी, ज्ञान की बातें अच्छी तरह से मालूम है। जो भी हो, बेटा उसका इमानुअल साहिब के साथ रहकर पढ़ाई किया था, देश-विदेश घूमा भी है। बेटे की संगत से कुछ तो ज्ञान जरूर पाया होगा।

बेटा पढ़ाई तो किया, लेकिन न बाप को पूछा, न माँ को और न ही अंतरा की माली हालात में कोई सुधार हुआ। वह तो बेईजू शबर की बेटी को भगाकर ले गया और जाकर रायपुर या भोपाल में बस गया। तब से अब तक उसकी कोई खबर नहीं है ? अंतरा को देखने से कलंदर के मन में दया आती है। बेचारे का बेटा, बेईजू शबर की बेटी को, जब भगाकर ले गया था तो दोनों जातियों मे मारकाट की नौबत आ गयी थी। अपने घर में चिटकनी डालकर, भोर-भोर में, अपने बाल-बच्चों समेत अंतरा वहां से खिसक गया था। कोई बोला, जंगल में छुपा है। तो कोई बोला चला गया है काँटाभाजी, अपने साले के पास। बेटे के गलत काम के कारण ही बाप को इधर-उधर भटकना पड़ा। कोई बोला, रहमन मियां के गोदाम में, चमड़ा धोने, सूखाने और पाँलिस करने का काम कर रहा है बैठे-बैठे। तो किसी ने कहा, कि अंतरा को भोपाल में देखा था, नया धोती, कुरता पहनकर वह बाजार में घूम रहा था अपने बेटे के साथ।

पर कोई भी अपने बाप-दादों की जमीन-जायदाद छोड़कर परदेश में कितना दिन टिक सकता है ? एक दिन शाम के समय अंतरा अपने परिवार वालों के साथ गांव में वापिस लौटा। बुझी हुई आग, हुत-हुतकर फिर से जलने लगी। अंतरा के लिये दुःख जताने वाले लोग अड़ बैठे और उसे अपनी जाति से बाहर निकालने की बात करने लगे। बेईजू शबर तो भात-दाल, कद्दू की सब्जी खिलाकर अपनी जाति में शामिल हो चुका था। जाति भाईयों, पास-पडौस गांव के ओझा तथा बुजुर्ग लोगों को दारु भी पिलाया था उसके लिये। लेकिन अंतरा के घर में चार प्राणी थे। उनको पालेगा या भोजी-भात खिलायेगा।

सवेरे-सवेरे बस्ती वालों की बैठक बुलायी गयी। आखिर में पन्द्रह किलो चावल और दो किलो दाल देने के लिये अंतरा राजी हुआ। सरसी ने बाप के घर से मिले हुये कमरबंध को ‘शा’ के पास गिरवी रख दिया। पास-पडौस वाले उनसे जलन करते थे, इसलिये सरसी ने उनको गाली भी दी। बेटी के लिए रखी हुई थी बेचारी एक मात्र चांदी की कमरबंध। शा के पास से क्या छुड़ाना संभव होगा ? सुख और सपने सब चूल्हे में जाये, चूर-चूर हो जाये। लेकिन जीना तो होगा ही।

ये जीना भी क्या जीना है ? जितने मुंह, उतनी बातें। बस्ती में किस-किस का मुंह रोकोगे ?

“तू तो गांव छोड़कर जा चुका था, फिर क्यों वापिस आ गया ?”

“तेरे बेटे ने तुझे घर से बाहर निकाल दिया, क्या ?”

“क्या, रहमन मियां तुझे दो वक्त की रोटी खिला नहीं पाया ?”

“जाते समय तो चारों जनों को लेकर गया था, वापिस आते समय तीन कैसे हो गये ? एक को मारकर कहीं फेंक तो नहीं दिया ?”

“साले के पास रहकर शहर में काम-धंधा करके पेट पालना चाहिये था। इस बस्ती में फिर क्यों वापिस आ गया ?”

ऐसा क्या था उस बस्ती में। छप्पर वाले दो कमरों का घर, जिसके छप्पर चार साल में एक बार भी वह बदल नहीं पाता था। जमीन-जायदाद का तो सवाल ही नहीं, फिर भी तो अपने गांव-घर की बार-बार याद सताती थी। रहमन मियां के यहां रहकर उसे लग रहा था कि वह पेड़ से गिरे हुये पत्ते के समान हो।

लोगों की बातों का जवाब देने के लिये उसके पास कुछ भी नहीं था । ऐसा भी कोई-कोई कहने लगे कि तीनों बच्चों को कहीं छोड़कर रहमन मियां के गोदाम में सरसी छुप कर गयी थी। अंतरा के कान में अभी तक यह बात नहीं पड़ी थी। रूपया-पैसा लेकर वह लौट आयी थी रहमन मियां के घर से। और उससे भात-दाल खिलायी थी पास-पडौस को। कोई बोला, सब झूठ है। रहमन के पास से रूपया नहीं लायी है, रहमन तो इतना कंजूस है कि मुफ्त में अपने शरीर का मैल भी नहीं देता है। तो क्या वह रूपया देगा ? वह तो गयी थी ‘भूतापाड़ा’, जहां मुर्शिर्दाबादी पठान सब डेरा जमाये हुये थे। वहीं पर तो, परमानन्द ने उसको देख लिया था।

क्या हुआ ? पता नहीं। इधर-उधर की बातों से कुछ दिन तक, चुप्पी सांध लिया था अंतरा ने। बात-बात पर सरसी पर चिढ़ने लगता था। ठीक से खाना-पीना भी नहीं करता था। कुछ दिन बाद अपनी औरत और बच्चों को अकेले छोड़कर, गांव ही छोड़कर चल दिया था।

मंझला बेटा, डाक्टर, अंतरा का सबसे चहेता था। बड़े काम का लड़का था। सचमुच बाप के घर छोड़ने के बाद, मंझले बेटे ने ही संभाला था घर को। इधर-उधर कूली मजदूरी कर माँ के लिये चावल दाल लाता था। सरसी सोचती थी ऐसे समय, अंतरा होता तो देखता कि उसका बेटा घर संभालने के लायक हो गया था। अंतरा मर्द था, इसलिये लोगों की बातें सहन नहीं कर पाया। और घर छोड़ दिया। पर सरसी कहाँ जाती ? रहमन के गोदाम की तरफ सरसी कभी नहीं गयी। भले ही, बेटे को काम न मिला हो, तो वह भूखे ही सो गयी।

अंतरा साल डेढ़-साल के बाद घर लौटा। गांव वाले लोग सोच रहे थे कि या तो वह कहीं खो गया था या कहीं मर गया। अगर वह जिंदा होता तो क्या घर नहीं लौटता, अपने बाल-बच्चों को देखन के लिये ? कोई बोल रहा था कि वह रेल-गाड़ी के नीचे आकर कट कर मर गया। डाक्टर बहुत ही खुश मिजाज स्वभाव का था। जो भी वह कमाता था, एक हिस्सा अपने लिये रखता था, बाकी तीन हिस्से माँ को दे देता था। उसी एक हिस्से में वह खुद के लिये तेल, साबुन, सफल गुट्खा व लाल-पीले रंग का टी-शर्ट खरीदता था। वह हर-रोज दारु नहीं पीता था। कभी-कभार अपने दोस्तों के साथ मन होने से पी लेता था।

अंतरा जब घर लौटा, तो उसने देखा कि उसके बगैर भी उसका घर चल रहा था। डाक्टर ने संभाल ली थी घर की हालत। यही वह बेटा था, जिसने उसकी इज्जत बचायी थी। बड़े बेटे ने तो बदनाम कर कहीं का भी नहीं छोड़ा था।

अब अंतरा ढूँढने लगता था अपनी जवानी, डाक्टर के भीतर। पर उसे इस बात का मलाल रह गया था कि किसी भी बेटे ने अपने पुश्तैनी-धंधे को अपनाया नहीं था।

चमड़ा उतारना, यहाँ तक कि चमड़ा घिसना भी नहीं जानते थे। ढोल बनाना भी उन्हें नहीं आता था। हरि

दास गुंसाई बाबा का कहना था संसार को अच्छी तरह से चलाने के लिये सबको अलग-अलग काम करने चाहिये। सबके अलग-अलग काम करने से ही संसार ठीक से चल रहा है। सब कोई अगर पुजारी का काम करेंगे, तो सड़े-गले मुर्दों को उठाने का काम कौन करेगा ? काम तो काम ही है। इसमें क्या अच्छा और क्या बुरा ? मालपुआ का स्वाद जीभ के लिये तो मीठा होता है, पर जब यह पेट में जाता है तो मल बन जाता है। कोई चीज इस शरीर के लिये मधु है, तो वही चीज इसी शरीर में मल भी बनती है।

“सो गया क्या अंतरा ? साला, जा भाग इधर से ? मैं अब दुकान बंद करुँगा। मेरे लालटेन में अब किरोसीन खत्म हो रहा है।”

अंतरा नींद में झोंके लगा रहा था। बोला -

“जा रहा हूँ, मेरे बाप जा रहा हूँ। उठने की कोशिश करने के बाद भी उठ नहीं पा रहा था। जितनी बार वह उठने की कोशिश करता था, उतनी ही बार वह गिर जाता था।

“अरे जा, भाग, भाग ! मैं क्या तेरे लिये यहाँ बैठा रहूँगा ।”बड़े कष्ट के साथ खड़ा हुआ अंतरा। वह जायेगा, पर कहाँ जायेगा ? लेफ्रिखोल ? सिनापाली ? कांटाभाजी ? भोपाल ? आंध्रप्रदेश ? रायपुर ? कहाँ जायेगा वह ? धरमगढ़ ? पीने के बाद उसे अपना शरीर हल्का-हल्का सा अनुभव हो रहा था। उसे ऐसा लग रहा था जैसे कि वह पहाड़ के उपर चढ़ रहा हो। पर जब उसने अपने पांव आगे बढ़ाये तो ऐसा लगा कि वह कहीं लुढ़क न जायें। याद आ गया उसे वह दिन, जब वह एक अलग आदमी बन कर लौटा था। आधा-बाबा बनकर बात-बात में झलकते थे भजन, कीर्तन व भागवत के गीतों के बोल उसके मुख से। गले में डाली हुई थी तुलसी की माला और धारण किया हुआ था शरीर पर भगवा-वस्त्र। देखने से कोई भी नहीं बोलेगा कि वह चमार सतनामी है ?

सरसी देखकर चकित रह गयी। क्या कर रहे थे ? कहाँ थे इतने दिन ? घर-बार की याद नहीं आयी एक बार भी ? हम क्या खाते होंगे ? कैसे रहते होंगे ? एक बार भी यह विचार दिमाग में नहीं आया ? यह सब सोच रही थी सरसी। पर मुह से कुछ भी आवाज नहीं निकली। मैं औरत जात, तुम्हें कहाँ ढूंढने जाती? आस-पडौस की बातें सुनकर तुम घर छोड़कर भाग गये थे, परन्तु तुम्हारे जाने के बाद उन्होंने क्या-क्या खरी-खोटी मुझे नहीं सुनाई होगी ? कभी कल्पना भी नहीं की होगी । लोग तो यहाँ तक बोल रहे थे कि रहमन मियां ने मुझे रखैल बना रखा है, इसलिये तुम मुझे छोड़कर भाग गये थे।

“ देखो, देखो, इस बच्चे को, जिसने तुम्हारे संसार को संभाल कर रखा है। मिट्टी खोद-खोदकर, पत्थर काट-काटकर इस बच्चे ने अपनी क्या ह ालत बना रखी है ?”

तब तक बाप-बेटे ने एक दूसरे के साथ कुछ भी बात नहीं की थी। किसी भी प्रकार की कोई शिकायत न थी, न ही किसी भी प्रकार का पश्चाताप, न था किसी भी प्रकार का कोई संकोच। मगर कोई किसी के साथ आँख मिलाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। घर के बोझ ने बेटे को उम्रदराज बना दिया था। घर के बोझ से मुक्त होने से बाप, बेटे की तरह किशोर बन गया था। लड़के की मासपेशियों को देखने से अंतरा को लग रहा था, वह बूढ़ा हो गया। वह समझ गया था कि उसके बेटे अपने पुश्तैनी पेशा को नहीं अपना पायेंगे। यद्यपि इस बात का उसको कोई गम न था। पर, चमार होकर चमड़े का काम न जानना, क्या किसी को शोभा भी देताहै ? पर डाक्टर को किसी भी प्रकार की शिकायत नहीं थी अपने पिताजी से।

अंतरा को ऐसा लग रहा था मानों कि वह आकाश में उड़ रहा हो। उसके शरीर पर दो पंख निकल आये हो। वह आकाश में चक्कर काट कर उड़ रहा था। नीचे पड़ी थी मरी हुयी गायों के लाशों के ढ़ेर। वह झपट पड़ेगा क्या उन पर ? सोचते-सोचते वह नीचे की तरफ आ रहा था। नीचे आते ही उसे लगा, कहाँ गायब हो गयी ये सब मरी हुयी गायें ? एक अधमरी गाय पड़ी थी पास में। एक पांव से वह काँप रही थी. छटपटा रही थी। मुँह से झाग निकल रहे थे। एक कौआ उसकी आँख कुरेदने की ताक में था पीठ पर बैठा हुआ। अंतरा ने उसे उड़ाना चाहा। कौआ वहाँ से उड़कर नजदीक जमीन पर जा बैठा। गिद्ध बने, अंतरा की चोंच गाय तक नहीं पहुंच रही थी। पांव नहीं उठ पा रहे थे। कमजोरी लग रही थी उसे । धीरे-धीरे अंधेरा छा रहा था। न तो वह गाय को देख पा रहा था न ही वह अपने आप को।

चैती ने कभी समुन्दर नहीं देखा था। सुना था समुन्दर उतना विशाल होता है कि समुन्दर के उस पार तक हमारी निगाहें नहीं पहुँच पाती। वह असीमित जल-भंडार होता है। जिधर देखो, उधर पानी ही पानी नजर आता है। समुन्दर की लहरें पेट फुला-फुलाकर हाथियों की भाँति झकोले मार रही थी। दस-पन्द्रह हाथ की दूरी तक लहरें पछाडे मार कर गिर रही थी। कितनी सारी सीपियाँ, कितने सारी मछलियां, कितने सारे कछुएँ और कितने सारे मगरमच्छ रहते होंगे समुन्दर के अंदर !

चैती ने सिनेमा में समुन्दर को देखा था। आकाश जितना या उससे भी बड़ा होगा समुन्दर। उसके उपर तैरती जहाजें। ऐसे ही दो-दो समुन्दर पार करने के बाद, तीसरे के बीच मौजूद एक द्वीप पर सन्यासी गया हुआ था। चैती सोच भी नहीं पा रही थी समुन्दर के बीच कैसा होगा वह जापान देश ? पहले-पहले तो कुछ जगहों का फोटो भेजा करता था। नीचे रास्ता, ऊपर रास्ता चिकने रास्ते के उपर दौड़ रही थी खिलानौं की भाँति गाड़ियाँ। लड़कियों का चेहरा लग रहा था जैसे हवा भरे रबर की गुड़ियाओं की तरह हो। पहाड़ पेड़, नदी, नाला, महल, बगीचों के फोटो देखकर चैती सोचती थी इतने सुंदर देश में गया हुया है सन्यासी! पर जहाँ सुन्दर चित्रों की तरह बने हुये हो घर द्वार, रबर की गुड़ियाओं की तरह रहते हो मनुष्य, वहाँ उन लोगों को क्या जरुरत पड़ गयी, जो सन्यासी जैसे एक गंवार को बुला कर ले गये ?

जाने के कुछ ही दिन पहले चैती बोली थी “देख, तू इतने बड़े-बड़े समुन्दर पार करके जायेगा, मुझे तो बड़ा डर लग रहा है ।” हंसकर सन्यासी बोला “तू, क्या पागल हो गयी हो ? मैं इस द्वीप पर पानी-जहाज में बैठकर नहीं जाऊँगा। मैं तो हवाई-जहाज में जाऊंगा ,आकाश में उड़ते हुए गिद्ध की तरह।”

डर गयी थी चैती। पानी में हो या आकाश में। दोनों खतरनाक है। मोटर-गाड़ी होती, तो बात कुछ अलग होती। सैकड़ों लोग जा रहे हैं, आ रहे हैं। वह लोग भी तो चोरी-छुपे मोटर में बैठकर रायपुर चले आये थे। जिस दिन रेलगाड़ी से भोपाल आये थे, तो चैती डरी हुयी थी। इतनी बड़ी गाड़ी में कितने सारे तरह-तरह के लोग बैठे हुये थे। कुछ उतर रहे थे तो फिर कुछ नये लोग चढ़ रहे थे। रुकती-रुकती गाड़ी बढ़ती जाती थी आगे की तरफ। लेकिन उनके उतरने की जगह भोपाल, फिर भी नहीं आ रहा था। अगर भोपाल पीछे छूट गया तो ? फिर रेलगाड़ी चल रही थी और चलते ही आगे बढ़ती जा रही थी।

उस दिन सन्यासी खूब हँसा था। बोला “बुद्धु कहीं की, इतना दूर कोई ट्रेन में जाता है क्या ? जानती हो, दो-दो समुन्दर पार होने के बाद तीसरे समुन्दर के बीच में वह देश ? तेरे लिये समुन्दर के उपर रास्ता बनाया

जायेगा, रेल-लाईन बिछायी जायेगी क्या ?”

चैती को सन्यासी घर में कुछ-कुछ पढ़ाया करता था। जिससे चैती अपना नाम लिखना सीख गयीथी, चिट्ठी पढ़ लेती थी। पढ़ाई में रुचि नहीं होने की वजह से न वह कोई दूसरी किताब पढ़ पा रही थी, न ही वह अपने विचारों में उन्नत हुई थी।

जाने की बात तो कर चुका था सन्यासी, पर जाने के दिन जितने नजदीक आते जा रहे थे, उतना ही उतना मुंह लटकाकर गुमसुम बैठा रहता था। जैसे कि कोई बड़ी चिन्ता उसे सता रही हो। कहीं मन नहीं लग रहा था, न ही था उसका कोई खाने-पीने का ठिकाना। न ही रात को नींद का। चैती बोली

“अगर मन नहीं हो रहा है, तो मत जाओ। तुझे किसीने सौगंध दिलाई है ? कोई जोर-जबरदस्ती कर रहा है क्या ?”

“सौगंध- वौगंध की कोई बात नहीं है चैती। बात कुछ दूसरी है। जो तू नहीं समझेगी।”

“ऐसी क्या बात है? जो मैं नहीं समझ पाऊँगी। मैं भले ही पढ़ी-लिखी, नहीं हूँ, क्या तुम्हारे मन क बातें नहीं पढ़ पाऊँगी? कुछ ही दिनों में चिन्ता से तुम्हारा शरीर जलकर लकड़ी के कोयले की तरह काला हो गया है। क्या मैं नहीं जान पा रही हूँ ?”

सन्यासी ने देखा कि चैती का मन भारी होने लगा है, और थोड़ी ही देर के बाद वह रो पड़ेगी। अपने गांव को याद कर आँसू बहायेगी, बेचारी। इस शहरी जगह में, वह सहज नहीं हो पा रही थी। बहुत ही अकेली हो गई थी। सन्यासी कहने लगा-

“जरा इमानुअल साहब के लिये तो सोच। उनकी बात मैं काट नहीं पाया।”

“क्या कहना चाहते हो? साफ-साफ कहो" चैती ने पूछा ।

“तुम्हें यह जगह अच्छी नहीं लग रही है ? मुझे भी कहाँ अच्छी लग रही है ? चलो, हम लोग अपने गांव वापिस चलें। अपना गांव नहीं तो, सुन्दरीखोल गांव में जाकर रहेंगे, नहीं तो सिनापाली गांव में।”

“मुझे यहाँ कोई असुविधा नहीं हो रही है, रे चैती ! बात यह नहीं है। बात दूसरी है। हमारे यहाँ क्या असुविधा है, बता तो। मिशन में बच्चों को चित्रकला सिखा रहा हूँ। यह कोई बड़ा काम है क्या ? इस में हम दोनों का दाना-पीना चल जा रहा है। गांव जायेंगे, तो खायेंगे क्या? दोनों वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होगी। उसके बाद, क्या गांव वाले हमको इतनी आसानी से अपना लेंगे ? हमारे ऊपर झूठ-मूठ के लांछन नहीं लगायेंगे। हम लोग गांव के माहौल में रह नहीं पायेंगे। सच बोल, क्या तुझे यहाँ कोई पूछता है कि तुम्हारी जात-बिरादरी क्या है ? तेरा गोत्र क्या है ?यहाँ तो, जैसे तूने खाया कि, नहीं खाया, कोई पूछने वाला नहीं। ऐसे ही, यहां तू क्या करती है ? क्या नहीं करती है ? इस तरफ कोई सोचता भी नहीं है।

असली बात क्या, मालूम है ? यह ईमानुअल साहब मेरे लिये तो भगवान है। पिछले जन्म में मैम साहब शायद मेरी माँ थी। नहीं तो, मैं क्या चित्र बनाता, उस पाँच-छ साल की उम्र में ? बुढ़ी टांगरी पहाड़ के उपर बड़े पत्थर पर चाँक लेकर मैं चित्र बनाता था, जैसे हिरण को बाघ ने दबोच लिया है और बना शबर अपने तीर से बाघ को निशाना बना रहा है, समझी चैती। मेरी मां हमेशा जंगल तथा बना शबर की कहानी सुनाया करती थी। जब मुझे नींद नहीं आती थी, भूख लगती थी, या तो बाप को जब याद करता था। इसलिये मेरे मन में यह चित्र बना हुआ था। वह हिरण, क्या हिरण जैसा दिख रहा था ? और क्या बाघ, बाघ जैसा ? फिर भी, मैम साहब मुझे बुलाकर ले गयी और गाड़ी में बैठाया था। ड़र के मारे, मैं पसीना-पसीना हो गया। तभी उसने मेरे हाथ में दो चाकलेट दी थी। ईसाई बस्ती के कैम्प में, समझ, मेरी किस्मत ही बदल गयी। कितने सारे चित्र बनाने के लिये बोली थी मैम साहब ? ठीक समय पर, अगर मेरी माँ नहीं पहुंचती, तो और भी कितने सारे चाकलेट मुझे मिल गये होते।”

बोलते-बोलते चुप-सा हो गया सन्यासी। जैसे कि वह अपने बचपन में लौट आया हो। एक-एक कदम आगे बढ़ने की कोशिश करने पर भी, वह अपने वर्तमान में नहीं पहुंच पा रहा था।

सन्यासी के मटमैले भूरे बालों में ऊंगली फेरते हुये चैती ने कहा-

“इन्हीं बातों को आप कितनी बार सुनायोगे ? तेरे धरम-माँ के बारे में सुनते सुनते मेरे कान भी पक गये हैं।”

ईमानुअल साहिब की बीवी को चैती सन्यासी की धरम माँ के नाम से बोलती थी।

अपने अतीत के अंधेरे में से निकल कर आया हो जैसे, सन्यासी। बोला “एक बार और अगर सुन लेगी तो, तेरे कान क्या बहेरे हो जायेंगे ? दो चाँकलेटें ! समझी, चैती। इन्हीं दो चाकलेटों के खातिर, मैं गाँव छोड़ने को राजी हो गया था। जिस दिन इमानुअल साहिब की बीवी मेरी मां को बोली, दे दे इस बच्चे को, मैं आदमी बना दूंगी। उस दिन, रात भर मेरा बाप घर के बाहर बैठा रहा, बिना पलक झपकाये। जैसे कि मैम साहब मेरे घर में घुसकर मुझे चुराकर ले जा रही हो। मुझे जबरदस्ती से ईसाई बना दे रही हो। सोच रहा था कि वह क्या मुझे आदमी बनाकर पैदा नहीं किया ? जो मैम साहिब मुझे आदमी बनायेगी। मेरे हाथ, पैर सब कुछ तो आदमी जैसे ही है, बड़ा होने पर जवानी भर आयेगी इन अंगों में। मेहनत-मजदूरी करके कमा लूंगा। तब यह आदमी बनाने का मतलब क्या है? सवेरे-सवेरे बाप बोला "जाने दो उसे, यहाँ तो एक वक्त का खाना मिलता है तो एक वक्त का फाँका पड़ता है। मिशन में रहेगा तो दाल-भात खाकर जीवन जी लेगा। हाथी जंगल में पले-बढ़े तो भी, वह राजा का ही होता है। आम के पेड़ पर अगर नीम के फल लगें, तो क्या लोग उसको नीम के फल कहेंगे ? जाने दो। दोनों वक्त का खाना तो मेरे बेटे को मिलेगा, आराम से खाने को।”

माँ की आँखों के सामने जैसे कि गरमा-गरम दो थाली चावल की तस्वीर उभरकर दिखाई देने लगी हो। उसका सारा अहम चूर-चूर होने लगा था। बोली “मैं उसे छोड़ दूंगी जो, पर मेरा बेटा ईसाई नहीं होना चाहिये।”

“ठीक है, ठीक है, बस यह बात मैं मैम साब को कह दूंगा। तू और अभी अपना मन उदास मत कर।”

फिर भी मुझे छोड़ने के लिये माँ की तनिक भी ईच्छा नहीं हो रही थी। मैं सोच रहा था, कि इसमें माँ को क्या असुविधा है ? मैम साहिब तो मुझे मारती-पीटती नहीं थी। पास बैठाकर केवल चित्र बनवाती थी। और बदले में चाँकलेट देती थी। फिर मुझे छोड़ने की बात पर माँ इतनी परेशान क्यों हो रही थी ?

एकदिन सचमुच मैम साहिब मुझे लेने के लिये आ गयी। उसकी बड़ी गाड़ी हमारे घर के सामने खड़ी हो गयी थी। माँ ने मेरी कंघी की। कमर से अपना पल्लू निकालकर मेरा मुंह पोंछा। कुसुम-बेर से भरी छोटी पोटली मेरे हाथ में थमा दी और बोली “मैमसाहिब की सारी बातें तुम मानते रहना। घर याद आने से मैम साहब को बताना। कभी-कभी यहाँ ले आयेगी।”

घर की याद ? आँखों में पानी भर आया। रोने को मन हो रहा था। माँ को पकड़कर खूब रोया। नहीं, नहीं, मैं माँ को छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा। बाप समझा रहा था “जा, मेरे बेटे, उनके साथ जाने से एक दिन तू कलेक्टर बनेगा, गाड़ियों में घूमेगा, अच्छा खाने-पीने को मिलेगा। अच्छा पहनने को मिलेगा। कितनी सारी नय-नयी जगहों पर घूमेगा ?”

“मैं अपनी माँ को कभी देख पाउंगा, क्या ?”

“तुझे मिलने, तेरी माँ को लेकर मैं जरुर आऊँगा।”

“माँ की गोद में से खींचकर, बाप ले गया मुझे जबरदस्ती। और मैम साहिब की गाड़ी में बैठा दिया। तू विश्वास नहीं करेगी, चैती। ये बाहें देख रही हो, इनको इतनी जोर-से खींचा था मेरे बाप ने। कि आज तक इनमें दर्द-भरा हुआ है।”

तकिया के ऊपर मुंह डालकर सिसक-सिसककर रो रही थी चैती।

“क्या हो गया? क्यों ऐसे रो रही हो चैती ?”

चैती के बाल संवारते हुये सन्यासी बोला “माँ की याद बहुत सताती है, रे ! मन ही मन में, माँ को खोजता रहता हूँ। एक दिन भी बाप मिशन में नहीं आया। बोला था, माँ को लेकर मिलने जरुर आयेगा।”

उस बार जगदलपुर मशीन स्कूल से चार दिन के लिये गांव आया था। बचपन से ही बाहर रहने के कारण से गांव-घर, सब कुछ उसको अनजाने से लग रहे थे। किसी के साथ खुले-मन से बातें नहीं कर पा रहा था। यहीं तो अपना घर, अपने लोग, बोर्डिंग-स्कूल में रहते समय जिनको याद करता रहता था। यहाँ की जिन्दगी और वहाँ की जिन्दगी में बहुत अन्तर है। प्रागैतिहासिक पत्थर के ऊपर, यह तो आधुनिक कथा निखारने जैसी बात हो। वही नाक-कान, वही शरीर का रंग, वहीं जबड़े की हड्डी। मिट्टी की वही महक, पर जैसा कि किसने तराश कर अलग चिकना-सा बना दिया हो। वही स्रोत, पर पहचान है जरा हटकर ! जंगल सन्यासी के लिये बड़ा प्यारा था। बचपन से ही वह बूढ़ी टांगरी के उपर कितने सारे चित्र बनाया करता था। काले पत्थर के उपर, जैसे कि वही सका स्लेट हो। गांव में एकाकी, व लीक से हटकर रहने वाला सन्यासी चला आया था जंगल में। ये जंगल ही उसके अपने थे। पेड़, नदी, नाला पहाड़, पत्थर, झरना सभी मूकदर्शक थे। पर सन्यासी को देखते ही गप करना शुरु कर देते थे। पाकेट में से बांसुरी निकालता था सन्यासी। साहड़ा पेड़ के नीचे चिकने पत्थर के उपर बैठकर बाँसुरी के सुर लगाता था। बड़े ही निसंग व करुणा से भरे थे वे बांसुरी के सुर। एक सूना-सा घर, एक खाली-हांडी, आधा-भूखे बच्चे की आँखों से निकल रही निराशा, सुरों का रूप लेती जा रहीं थी। लड़की की तरफ उसकी नजर नहीं, पता नहीं कबसे एक गुच्छा कुरैई के फूल बालों में गूंथकर महुआ पेड़ के नीचे, लाल रंग के फ्राक पहने और छाती के उपर दुपट्टे समान एक गमछा डालकर खड़ी हुई थी वह लड़की। जब सन्यासी का बांसुरी बजाने से ध्यान भंग हुआ तो उसने देखा कि वह लड़की मंद-मंद मुस्कान बिखेरते हुये, पलक झपकते ही झाड़ियों के पीछे गायब हो गयी। सन्यासी ने बांसुरी को अपने जेब में रखकर, उस लड़की को तलाशने लगा। उसने देखा कि वह उदंती नदी के बीच में स्थित पत्थरों पर कूदते-फांदते तेजी से आगे की तरफ दौड़ी जा रही थी।

क्या कर रही थी वह लड़की जंगल में ? उसको डर नहीं लग रहा था ? कौन थी वह ? एक मायाविनी की तरह, हाथों की पहुँच के बाहर, धीरे-धीरे चली जा रही थी।

“ऐ रुक, रुक, कहाँ जा रही है तू ? ऐसे बोलते-बोलते सूखी उदंती नदी को सन्यासी ने पार कर लिया।

उदंती नदी का दूसरा किनारा, पत्थर काटने वाले लोगों के कई गुट, कुछ मर्द और कुछ औरतों के बीच वह लड़की इतने समय तक खो चुकी थी। फिर भी सन्यासी आगे बढ़ते ही जा रहा था- लाल फ्राक व लाल गमछे वाली लड़की को खोजने के लिये। देखा, वह लड़की अपने नाजुक हाथों में हथौड़ी लिये पत्थर तोड़े जा रहीं थी। कोई अगर देखेगा तो उसे यह विश्वास ही नहीं होगा, कि यही लड़की कुछ देर पहल पत्थर तोड़ना छोड़ बांसुरी सुनने चली आयी थी उदंती नदी के उस छोर पर। लड़की तो ऐसा व्यवहार कर रही थी, कि वह बांसुरी वादक को पहचानती ही नहीं। कुछ देर पहले घटी हुई घटनाओं से अनजान सी लगने का बहाना कर रही थी। ऐसा लग रहा था कि वह लड़की, आदिकाल से पत्थर तोड़ते ही जा रही हो अपने होठों पर एक स्थायी गंभीर मुस्कान लिये हुए।

लौट आया था उस दिन सन्यासी। लेकिन उस लड़की ने पलास के फूलों की भाँति उसके ह्रदय में आग लगा दी थी। अगले दिन, फिर अगले दिन। फिर अगले दिन सन्यासी जंगल की तरफ अपने आप अग्रसर होते हुये अपने पांवों को रोक नहीं पाया। धीरे-धीरे उसके बांसुरी के स्वर बदल से गये। झरने की तरह झंकृत हो रहे थे जैसे। चांदनी के तरह फैल रहे थे जैसे। मधुमक्खी के छते से बूँद-बूँद गिरते शहद की मीठी धार की तरह बदल रहे थे जैसे बांसुरी के सुर। कुछ ही दूर गाल पर हाथ देकर बैठी थी वह किशोरी। अपने पत्थर तोड़ने वाले कष्टों को भी भूल गयी थी। भूख को भी भूलकर , उसने अपने ह्मदय के सब बंद दरवाजे खोल दिये थे।

क्या उस समय चैती को भगाकर ले जाना उसकी भूल थी ? अगर प्रेम सभी दुखों का हरण कर लेता है, तो उसको भगाकर ले जाने में क्या दिक्कत थी ? एक दिन हो, एक पल हो, सपनों के साथ जीने में समस्या क्या है ?

अब चैती को छोड़ सुदूर विदेश जाते समय, पता नहीं, क्यों सन्यासी का मन उदास हो जाता था। किसके पास, किसके भरोसे में वह छोड़कर जायेगा चैती को ? अपने मन की बातों को छुपाते हुये सन्यासी ने कहा मुझे विदेश जाकर लौट आने दे। हम लोग अपने गांव चले जायेंगे। तेरे घर जायेंगे। आते समय मेरे माँ-बाप को साथ ले आयेंगे। गांव से दूर एक किनारे पर हम अपना नया घर बनायेंगे, अपने हाथों से दीवार पर तुम “इड़ीताल” के चित्र बनाना।”

इस समय चैती एक अलग दुनिया में थी। वहां सीमेंट, कंक्रीट के घर नहीं, वहाँ मोटरगाड़ी नहीं, भीड़भाड़ नहीं। भोपाल जैसा शहर नहीं। वहां नियम कानून मानने वाले मिशन स्कूल के लोग नहीं। जैसे वह किस निर्जन द्वीप से मुक्त हो गयी हो। जिधर देखेगी, नजर आयेगा खुला आकाश। जिधर पांव रखेगी उधर होगी हरे-भरे घास के गलीचे। किसी भी नाम से अगर पुकारेगी, तो उस तरफ देशी जानी-पहचानी आवाज सुनाई पड़ेगी। कोई बोल रहा होगा “तू चैती है ना ?” झरने की भाँति पहाड़-पत्थरों के बीच में खेत-खलिहान को पार करती हई भागने लगेगी वह उदंती नदी की तरफ। अभी भी चैती तन्द्रा में थी। उसका मुँह था सन्यासी के सीने पर, बालों के अंदर थिरक

रही थी सन्यासी की ऊँगलियाँ. जोर से उसे नींद आ रही थी। अपने अंदर ही अंदर वह देख रही थी।

दूर पहाड़, पास में नदी,

एक छोटा सा घर, एक छोटी सी बाड़ी

दूर जंगल, महुआ के फूल

पास में पहाड़, पास में नदी

नीला आकाश, सवेरे के पंछी

साल के जंगल, मिट्टी के घर

लोरियाँ गीत, बांसुरी के स्वर

रेल नहीं, बस नहीं, नहीं चलती है बैलगाड़ी

पंछियों के गीत, बांसुरी के सुर

माँदर के ताल, झरनों के शब्द

धांगड़ी नाच, पास में घर

पास में नदी

महुँआ के फूल, बांसुरी के सुर

चिड़ियों की चिंचिंहाट, बैलगाड़ी

दूर में पहाड़, दूर में नदी

नीला आकाश, छपरीले घर

झरनों के शब्द

धांगड़ी नाच

दूर में पहाड़, पास में नदी

फूलों का बाग, साल के जंगल

लोरिया गीत, बांसुरी के स्वर

दूर में पहाड़, दूर में नदी

अपनी छाती पर से नीचे गिरे हुये पल्लू को ठीक कर लिया था उसने। उसके ब्लाउज के भीतर छिपी हुई निपुण शिल्पकला बाहर से दिखाई नहीं दे रही थी, फिर भी उस आदमी ने खिल्ली उडाते हुए उसकी छाती को जोर से धक्का दिया।

“साली, बाजार खोलकर बैठी है ? ” फूल की पंखुड़ियों में सिहरन उठने के बदले दर्द-सा घुल गया। दाँत खींचते हुये दर्द को थूक की तरह निगल गयी। इसके बाद साड़ी को फिर से ठीक कर लिया। जैसे कि फूलों के पूरे बगीचे को खरीद लेने की हैसियत रखता हो वह आदमी। किसी का गाल दबा कर लाल कर दे रहा था तो किसी के चूतड़ पर थप्पड़ मार देता था जोर से। सब त्रस्त हिरणियों की तरह अपने-अपने घरों के अंदर छुप जाते थे।

आदमी का नाम था गूड़ा। पूरी बस्ती उसके अधीन थी। उसने बैठायी थी यह बस्ती। टीना चद्दर की दीवारों तथा टीना चद्दर की छते से बने एक कमरे वाले घर का किराया था एक हजार रूपया। बाँस की दीवार और दरवाजा होने पर किराया था सात सौ। मिट्टी से पोता हुआ दीवार वाला, टूटा-फूटा टीना चद्दर और पोलिथीन की छत वाला घर,पांच सौ।

महीना में एक बार पैसा वसूली के लिए गूड़ा खुद आता था। खाने-पीने के बाद पांच सौ रूपया तो इकट्ठा करना मुश्किल था परबा के लिये। हजार रूपये तो उसके लिये बहुत दूर की बात थी।

परबा और झूमरी दोनों मिलकर एक टीना छप्पर से बने दरवाजे वाला घर अपने लिये चुन लिया था सात सौ रूपये में। पर उनके व्यवसाय में दो भागीदार होने से बहुत ही दिक्कत होती थी। एक बाहर खड़ा होने से दूसरे का व्यापार चलता था। अलग-अलग खोली लेने के लिये पैसा नहीं था। बाध्य होकर दोनों इसी शर्त पर सहमत हो गये थे। झूमरी ने बहुत बार परबा को समझाने की कोशिश की थी।

“चल, एक दिन सवेरे-सवेरे यहाँ से भागते हैं । रायपुर इतनी बड़ी जगह, इतने सारे बड़े-बड़े घर, इतने सारे लोग। किसी के भी घर में वासन, बर्तन साफ करनेसे क्या दोनों मिलकर हजार रूपया नहीं कमा सकते हैं ? चल, इज्जत की जिंदगी जियेंगे। और कितने दिन यहाँ बेइज्जती के साथ मुँह में मिट्टी दबाकर पडे रहेंगे ?”

लेकिन वे लोग कभी भी कहीं नहीं जा सकते थे। जैसे कि उनके दुर्भाग्य ने उन्हें बुलाकर यहाँ फँसा दिया हो। यहीं जीयेंगे, और यहीं मरेंगे। बाहर की दुनिया उनकी नहीं थी। बाहर जाने से किसी न किसी की आंखों में आ जायेंगे। यहाँ पैसों के बदले में जो चीज दे रहे थे उसे वहाँ मुफ्त में देना होगा। लोग उन्हें नोंच-नोंचकर खा जायेंगे। यहाँ तो फिर भी इज्जत के साथ जी रहे हैं पर वहाँ हर गली, हर बस्ती में छीः छीः-थू थू करेंगे। कहीं भी थोड़ी सी जगह भी नहीं मिलेगी। कभी-कभी परबा अपने आप को धिक्कारती थी, कभी-कभी वह खूब रोती थी, अपने माँ-बाप, अपने गांव को याद करके।

अभी गूड़ा बस्ती में घूमेगा। फिर शुरु कर देगा तकादा। झूमरी घर के अंदर में पैसा गिन रही थी। इधर उधर से फटे पुराने नोट निकाल कर चटाई के उपर रखकर हिसाब कर रही थी। परबा के लिये वह बोलने लगी

“ऐ कलमुंही अंदर आ, क्या खूंटे की भाँति वहाँ खड़ी है ?”

झूमरी की बात परबा सुन रही थी। सब हिसाब जोड़ने से भी पता नहीं, पांच सौ रूपया होगा भी कि नहीं।

झूमरी काफी चतुर थी। किसी भी तरह वह गूडा को संभाल लेगी जैसे कभी-कभी वह संभाल लेती है परबा को। पता नहीं, झूमरी नहीं होती तो परबा क्या होता? सखी होने पर भी वह माँ जैसे प्यार देती थी। कहती थी “समझी, परबा, यहाँ हमारा कौन है ? न बाप, न भाई, न पति। प्रतिदिन पांच से पचीस पति हमारे होते हैं। चिकनी चुपड़ी बातों से सभी के मन खुश हो जाते हैं। जैसे कि वे नहीं, तो हमारा जीवन बेकार। अपना भंडार खोलकर रख दो उनके सामने जैसे कि वे ही इस भंडार के इकलौते मालिक हो।” कभी-कभी परबा सोचती, भूख जो वहाँ थी, यहाँ भी तो है। जैसे कि भूख ही इसकी सौतन हो। जला-जलाकर उसको मारेगी।

झूमरी घर के अंदर से जोर से चिल्लाकर बोली “अरी हो, करमजली, चांडाली किस आदमी की राह देखने बैठी हो ?” अभी गूड़ा आकर पूरे घर भर का सामान फेंक कर बेइज्जत नहीं करेगा, तो मुझे कहना।”

पिंकी की याद करके परबा के शरीर एक पल के लिए सिहर उठा था।

दूसरे कंगालों की भाँति अगर गूड़ा भी ‘चमडे-मांस’ में लगाव रखने वाला होता तो कोई बात नहीं थी। पूरे बस्ती भर की औरतें उसके पांव पर गिर जाती। गूड़ा बोलता था “तुम जैसी औरतों के मुंह पर, मैं थूकता हूँ। बाहर से जितनी चिकनी हो, अंदर से उतनी ही कमीनी। साली, तरह-तरह के कीटाणुओं से भरा हुआ है तुम्हारा सारा शरीर। तुम्हारे शरीर के इस बाजार में से मुझे कुछ भी नहीं खरीदना है, बे ! मेरा तो सिर्फ रूपयों से मतलब है। इसके बाद तुम लोग रंडी हो, या चंडी ! मुझे कुछ लेना-देना नहीं। साली लोग, पैसा नहीं दे पारहे हो तो अपनी गठरी पोठली बाँधकर भागो यहाँ से। मैं इसको अच्छे लोगों की बस्ती बनाऊँगा। साली, तुम लोगों को खोली देने से बदनामी की बदनामी, एक पैसे का फायदा नहीं। उल्टा पुलिस को भी पालो।”

फिर भी आदतों से मजबूर, मूर्ख लड़कियाँ अपनी मूलपूंजी को खोलकर बैठ जाती थी, गूड़ा जैसे अरसिक, पुरूष को रिझाने के लिये। कोई होठों पर लिपस्टिक लगाकर हंस देती थी तो कोई कपड़ों को घुटने से उपर उठाकर गूड़ा को उनकी सुडोल जांघे दिखाती थी। गूड़ा धमकाता था “दूंगा, जो साली को, खींच के ।”

हर बार गूड़ा चेतावनी देकर जाता था कि अगले महने उन सब को बस्ती में से उठा देगा। लेकिन कभी भी वह अच्छे लोगों का बस्ती नहीं हो पाती थी।

झूमरी आधा रूपया गिनकर उठ आई। “तू क्या बहरी हो गई है, इतने समय से बुला रही हूँ, सुन नहीं रही है क्या ?”

परबा कम बोलती थी। झूमरी की बातों का उसने कुछ जबाव नहीं दिया। लेकिन झूमरी ने परबा के आँसूओं से छलकती हुई आँखो से जैसे कुछ भांप लिया हो। पूछी “गूड़ा, तेरे साथ कोई बदतमीजी किया क्या ?”

“हाँ, छाती उतने समय तक दर्द के मारे दुख रही थी।”

“तू खूंटे की भाँति खड़ी क्यों हुई थी ? चली नहीं आई ? गूड़ा के हाथ में कीड़े पड़ जाये, उसका वंश खत्म हो जाय। आ, आ भीतर आ। पहले ये सात सौ रूपयों को उसके मुंह पर फेंकेगे। उसको जाने दो, गरम सरसों का तेल लगा दूंगी तेरे छाती के उपर, तो तेरी पीड़ा खत्म हो जायेगी।”

झूमरी रूपयों को जमाकर कागज में मोड़कर रखी थी। परबा कोयले की सिगड़ी जमाने लगी। तभी पीछे से चिल्ला उठी, झूमरी।

“अरी ओ, मेरी प्यारी दुल्हन ! किस दुल्हा के लिये थाली सजायेगी, जो सिगड़ी जला रही हो ? समझी रे, परबा, गूडा को जाने दो। दो सूखी इलिश मछली उर्वशी के चूल्हे से भूंज कर ले आना, पखाल खायेंगे।”

परबा सोचती थी कि पहले किसी जन्म में यह झूमरी जरुर कोई रिश्तेदार रही होगी। नहीं तो इतना प्यार, उसके दिल में मेरे लिये नहीं होता। जिस दिन परबा इस नरक में आई उस दिन उसको लाकर झूमरी के जिम्में छोड़ दिया था। बोला था, कि यह लड़की तेरी ही जाति की है। न तो बात करना जानती है, न ही कोई काम-धंधा सीखी है। झूमरी को उस आदमी के उपर खूब क्रोध आया था।

“मैं क्या व्यापार चलाती हूँ ? या कोई आश्रम खोलकर बैठी हूँ जो मेरे पास इसको छोड़ कर जा रहे हो। मैं तो अपना पेट भी नहीं पाल सकती हूँ । बेकार में किसी दूसरे का बोझ क्यों उठाऊ? जा, जा यहाँ से ले जा, उसको।”

उस दिन पहली बार गूडा का नाम सुनी थी परबा, “गूडा बोला है इसको कुछ दिन तेरे पास रख ले, ये खर्चा-पानी के लिये दो सौ रूपया। वह जब कमायेगी, तो सब तेरा ही तो होगा।”

“एक महीने की खुराक, सिर्फ दो सौ रूपये में नहीं होगा। तू और पैसा देकर जा। अच्छा बोल तो सही, यह मेरी खोली में रहेगी तो मेरा धंधा बंद नहीं हो जायेगा ?”

उस आदमी ने कुछ भी नहीं सुना। और चार सौ रूपया झूमरी को पकड़ाकर वहाँ से चला गया। परबा, झूमरी को और झूमरी, परबा को एक घड़ी के लिये टकटक देखती रहीं। झूमरी, परबा को देखकर बिल्कुल खुश नहीं थी। बासन माँज रही थी। चूल्हा लेप रही थी। मन ही मन वह कुछ सोच कर रही थी। लेकिन, चाय पीते समय, कटोरी भर लाल चाय पकड़ा दी परबा को। पूछने लगी

“तेरा गांव कहाँ है ?”

“बीजीगुडा”

“कहाँ है ?”

“सिनापाली”

“सीनापाली, कहाँ ?”

“मुझे नहीं मालूम”

“तू संबलपुर तरफ से आयी है क्या ? मैं गंजाम, आशिका, से आयी हूँ। तू जाति की चमार बोलकर किसी को यहाँ मत बताना। रंडी की नहीं कोई जाति और नहीं कोई पति। फिर यहाँ की औरतें कम खरतनाक नहीं है ? कोई पूछने से बोलेगी तुम यादव घर की बेटी हो। ठीक है।”

उसी दिन से झूमरी की किसी भी बात को अनसुना नहीं करती थी परबा। गुडा लौट जाने के बाद, कुछ सूखी हुई ईलिश मछली को धोकर ‘कड़सी’ में दो बूँद सरसों का तेल डालकर परबा चली गई थी उर्वशी के घर। उर्वशी आलू काट रही थी, छोटे-छोटे टुकड़े टुकड़े कर। उसका बेटा आलू भूँजा के साथ पखाल खाने को जिद्द कर रहा था। परबा पूछी थी

“बहिना, तुम्हारे चूल्हे में आग है क्या ? दो ‘सुखवा’ गरम करती।”

“चूल्हें में कुछ कोयला डाल दी थी कब से यह लड़का पखाल खाने के लिये छटपटा रहा है भूँजे हुआ आलू के साथ। वकील का बेटा है तो, इसलिये हर बात में इतनी जिद्द।”

उर्वशी अपने बेटे को वकील का बेटा कहकर बुलाती थी। यहाँ आने से पहले, बेचारी किसी वकील के द्वारा गर्भवती हो गयी थी। कसमे-वादे, धोखाधड़ी जैसे धारावाहिक कहानी की पुनरावृत्ति हो गयी थी उसके जीवन में। उर्वशी कहती थी कि यह उसकी भूल थी। वह पाप की थी, जिसका फल उसे मिल रहा है। नौकरानी होकर, वकील की बीवी के नहीं होने का फायदा उठाने के कारण से, उर्वशी कहती थी, “मै एक पतिव्रता स्त्री के अधिकार को छीन रही थी। मैं उसका फल नहीं भोगूंगी, तो फिर कौन भोगेगा ? वकील का बेटा पेट में था। उसको मारती भी कैसे ? मेरे तो और कोई सगे-संबंधी नहीं थे। विधवा मामी ने मुझे घर से निकाल दिया। यहाँ आकर मैने वकील के बेटे को जन्म दिया। वकील के घर का बेटा आलू की भूजिया खाने को माँगेगा, तला हुआ गोश्त माँगेगा। इधर-उधर से लाकर दूँगी नहीं तो और क्या करुँगी ?”

उसकी बातें सुनकर झूमरी ने अपना मुंह फेर लिया। वकील घर का बेटा था तो उसके ही घर में छोड़ देती। इस गंदी बस्ती में क्यों रखी हुई हो ? यदि घोड़े के सींग होते, तो क्या यह धरती बचती ?

(क्रमश: अगले अंकों में जारी…)

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: सरोजिनी साहू का उपन्यास : पक्षी-वास (2)
सरोजिनी साहू का उपन्यास : पक्षी-वास (2)
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