मनसा आनन्‍द ‘मानस’ की कहानी : गे-युग

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गाँव की शांति में अचानक तूफान आ गया, कहाँ दबी पडी थी यह अशांति जंगली घास की तरह दो बूंद पडी नहीं की उग आई। मनुष्य, औरतें, बच्चे ही नहीं, ...

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गाँव की शांति में अचानक तूफान आ गया, कहाँ दबी पडी थी यह अशांति जंगली घास की तरह दो बूंद पडी नहीं की उग आई। मनुष्य, औरतें, बच्चे ही नहीं, पेड़, पौघे, पशु-पक्षी सभी आश्चर्य और शौक मे भर गये थे। औरतें गली चौराहों पर खड़ी धूधंट मे ही खुसर-फुसर करती हुई जगह-जगह खडी दिखाई दे रही थी। कैसी कुंभकरणी नींद से एक दम जाग गया था पूरा गाँव। सबसे ज्यादा रौनक चाचा चुन्नी की चाय की दुकान पर थी । दुकान क्या गाँव का तोरण ही समझो, जो गाँव की कथा, पटकथा, रौनक, मेला यहीं से शुरू और यहीं खत्म। गाँव के ब्रह्मांड का केंद्र बिन्दु समझो। चुन्नी चाचा की चुटकी में कुछ ऐसा जस था, अगर उनके हाथ की कोई चाय पी लेता तो फिर हो जाता कायल चाचा की चाय का। बात यहां तक सुनने मे आती है, चुन्नी चाचा की शान मे, किसी ने उनके हाथ की चाय न पी तो समझो जीवन बेकार, नाहक ही आया दुनियाँ में सर खपाई करने के लिए। आज की खुसर-फुसर ने दुकान का सारे कायदे कानून ताक पर रख दिये थे। चाचा का पहले ही पारा सातवें आसमान पर रहता था, आज जो गिनना ही मुश्किल है...अनन्त आसमान ही समझो। कितनी ही क्रोध भरी वाणी चाचा की जबान से निकल रही हो, आप चेहरे पर फैला क्रोध का कोई चिन्ह तक नहीं पाओगे। चेहरा कैसे सपाट रेगिस्तानी रेत की तरह, जहाँ मीलों तक कोई झाड-झुक्कड नहीं सफाचट मैदान, कोरा, निर्मल, भाव रहित। गजब कलाकार थे हमारे चुन्नी चाचा, कोई नाटक-नौटंकी वाले की निगाह में आ जाते तो फिर छुट्टी थी तुम्हारे दिलीप, शाहरूख को कोई घास भी नहीं डालता बेचारों को। चलो जो भी होता है, अच्छा ही होता है, वरना तो हमारे गाँव का रौनक मेला तो उठ चुका होता अब तक। अरे नाम होता, अब कोई कम नाम है गाँव का, ये सब किसके दम से है। चाचा चुन्नी चाय वाले कह लो या‘‘दसघरे वाले‘‘ दोनो पर्यायवाची वन गये है।

घटना यूँ घटी गाँव के प्रधान रतन चौधरी की बेटी ने मनखू धानक के लड़के से कोर्ट मे विवाहा कर लिया। अब बोलो बचा कुछ कहने को, अनहोनी बात हो गई। दादा बुलाकि, रामसरूप, महाशय जिले सिंह, होलदर कबूल...। चारों चौकडी लम्बा धुटनों तक मुँह लटकाये, आग बबूला हो, चिन्तित बैठे सर धुन रहे थे।

दादा बुलाकि--‘‘इब तै बहन-भाई के ब्याहा की कमी रहगी‘‘

महाशय जिले सिहं सर पर दयानन्द स्टाईल साफा बान्धे, कली का बंगाली कुर्ता पहने, हाथ मे मोटा-सोटा लिए हुऐ कहाँ--‘‘कलजुग आग्या भाई शामी जी (दयानन्द जी ) ने पहला ही कै दी थी या बात, या तै सरूआत से भाई बुलाकि।‘

होलदार कबूल--‘‘मेरा तै इशा मन कर सै साले न झांगड दे गेर के, सारी डिमाग की आशकि-वासकि की गरमी झड जागी‘‘

चाचा चुन्नी--‘‘ तम क्यू थूमकबिलौन लाग रे हो, इब कुछ ना हो सकता, पंचात की बैलु इब कै रेहरी से। इस कोट कचैरीयाँ के साम्ही निरा बावला से कबूल तू तै। ध्रनि चबरचबर करी ना तै हाँन्डो गै घले-घले, कान बौच के पडे रहो दडबो मै। इब हरि जना का टैम आरहा सै, भौत सता लिया तमनै जाती कै नाम तै।‘‘

मैं बीच में फसा अखबार पढ़ना तो भूल गया, बस किसी तरह मुंह छुपाये हुये था उससे। सोच रहा था निकल भागूं यहां से किसी तरह।

दादा बुलाकि--‘‘अर छौरे तु किसका सै।‘‘

मैं--‘‘राम दरस का, पाटन का पोता।‘‘

--‘‘भाई कोथी मे पडै सै।‘‘

--‘‘दादा १६वीं मे।‘‘

--‘‘भौत आच्छा तु भी गाम का नाम रोशन करियों,एक बात मेरी समझ में कौन्या आती यों पढ-पढ के थारै डिमाग में गौबर भर जा सै। देख मारे गाम की भी कोये खबर आई से इस अखबार में।‘‘

--‘‘ कौन सी खबर दादा मुझे पता नहीं है।‘‘( जबकि मुझे पता था )

--‘‘अरै किसा बावला से यो छोरा, रत्तन की छौरी और मनखू घानक के छोरे की‘‘

--‘‘नहीं दादा इसमें ऐसी कोई खबर नहीं आई हे।‘‘

--‘‘ चौखा यो भी ठीक रही, अरै चुन्नी चार कप चा ते प्या दे यार कितनी देर होगी मगज खपाई करते। इज्जत ते गाम कि गइ, पर बचै इस देस की भी ना।‘‘

मैंने देखा गाँव में एक मौत जैसा मातम था, चारों तरफ मायूसी छाई थी। सबका दुख अपना दुख था,

किसी एक घर की घटना ना हो कर पुरे गा*व पर छा गए घने काले बादल की तरह, अब बरसा की तब बरसा। कैसी सरलता, अपना पन फैला रहता था गाँव के लोगो में, जबान से क्रोध कितना ही झरता परन्तु मन में कोई मैल, वैमनस्य, ईर्ष्या का भाव रंच मात्र भी नहीं होता था। चाचा चुन्नी की कथा तो पूर्ण कथा ही समझो, जिसका न आदि है अन्त, चराचर एक नदी के बहाव की तरह जो बीना रुके अपनी सीतलता से किनारों को छूता चलता जाए। एक बार आप ने चाय पी कर दोबारा माँग ली तो आपकी शामत आ गई--‘‘सारे दिन चा-चा भाग याडे ते फूक देगी तेरे कलेजे ने।‘‘ आर ब्लाक राजेन्द्र नगर में थी हमारे चाचा चुन्नी की चाय की दुकान, बडे-बडे गाडियों वाले जब चाय की चुसकी भरते तो दंग रह जाते, भूल जाते चाचा की कटु वाणी, चाय के मिठाय में कटुता कहाँ खो जाती थी पता ही नहीं चलता था। एक दिन एक सरदार जी सुबह जल्दी आ गये चाय पीने के लिए, सरदी की ठिठुरन थी, चाचा अभी अंगीठी सुलगा ही रहे थे । अरे बाबा एक कप चाय पिलाऔ, चाचा का माथा एक दम गर्म अंगीठी से भी पहले, परन्तु कोई शुभ घड़ी ही थी, या सुबह की ताजगी छाई होगी चाचा के दिमाग़ में, कुछ नहीं बोले बस एक बार देखा सरदार जी को अपने चिर प्ररिचित अन्दाज मे और चाय चढा दी अंगीठी पर, सरदार जी भी अपने तरीके के एक ही थे। ‘‘अरे बाबा चाय में थोड़ी पत्ती तेज रखना‘‘, चाचा ने फिर देखा हलके से मुस्काये शायद बचपन लोट आया होगा, अरे बाबा थोड़ी चीनी तेज रखना, थोड़ा नमक डाल देना, गले में दर्द हो रहा हैं। जब सरदार जी ने पहला घूंट भरा चाय का तो लगे थू..थू..करने अरे ये क्या किया बाबा तू पागल हो गया है। ‘‘ फूफा जिब सारी चीज घनी तै फिर नून थोडा क्युं यो भी छिक के ले, कहे ते तेरे आठ आने भी इसमें डाल दूं।‘‘ चाचा खिलखिला कर हंस दिए, सरदार जी बुड-बुड करते चले गये। १९७५ में झुग्गियाँ टूटी सब ने कहा पर्ची ले लो ‘‘सुलतानपुरी‘‘ दुकान मिल जायेगी, नहीं माने --‘‘कौन इतनी दूर जागा अपने ही धर के रोड़े ना संभाले जाते।‘‘

एक हमारे यहाँ का एम० एल० ए० श्री मान लाल जी पधारे, करेला वो भी नीम चढ़ा, नेता तो नेता ही होते हे। गाँव में धुसते ही खुले चौक के बीच चाचा की दुकान नजर आई, इका-दुका ग्राहक थे, नेता जी ने आव देखा न ताव चला दिया नेता गिरी का रोब ‘‘अरे बाबा जरा भाग के जा और बुला के ला रमेश कौशिक जी को।‘‘

चाचा ने उठा लिया अपना सोटा तेरे बाप का नौकर लागु सू, आया चाल के हुकम चलाने वाला।‘‘ पकडा चाचा को, नेता जी पूँछ दबा कर भागे, अरे बाबा बहुत गुसैल हो तुम तो। होली के दिनों मे छोटे-बडे लड़के छुपा-छुपी खेलते, फिर देर रात होली पर लकड़ियाँ इक्कठी करते, चोरी से जब सब सो जाते। चाचा चुन्नी की दुकान के सामने कीकर का बहुत बड़ा तना पडा था। सभी ने सलाह मिलाई, इसे एक दिन पहले होली पर डालेंगे, सो पहुँच गये चाचा की दुकान के पास रात के २ बजे। सब निश्चित थे अब वहाँ कौन होगा, परन्तु चाचा चुन्नी तो भूत बने पहरे पर बैठे थे। उम्मीद के अनुसार काम नहीं बना, समझे बात फैल गई इससे चाचा चुन्नी चौक्कना हो इन्तजार मे बैठे है, कोई कुछ बोले बिना खजले कुत्ते की तरह पूँछ दब कर चल दिऐ खाली हाथ वापस। चाचा ने आवाज लगाई ‘‘अर छौरो उलटे क्यूं चाल पड़े, कै लैन आये थे।‘‘ किसी ने हिम्मत कर के कहा कुछ नहीं चाचा घर जाते हैं।

‘‘होली की ताही लाकडी लेन आये थे, अरय यार डरों मत ठा लौ कुछ ना कहूँ पुन्न का काम से आ जाओ मैं भी हाथ लगा थारी मदद कर दू भौत भारी सै।‘‘

हम डरे-सहमे उस कुत्ते की हालत में आगे बढ़े जिसके सामने दूध का भरा बरतन हो और हाथ में मोटा सोटा, कई देर पु..च..पु..च ..का लाड़ सुन कर हम आगे बढ़े। सब यहीं सोच रहे थे कब हुआ चाचा का हमला, बच्चे तो फिर भी पास नहीं आये। चाचा ने खुद अपने हाथों से लकड़ी उठवाई, पूरी रात सोये नहीं हमारा इन्तजार करते रहे थे। शायद हमारे खेल मे शामिल होने के लिए, ताकि हमारे मन में चोरी का भाव न कुरेदे। कैसे विरोधा-भाषी चरित्र, कितना कड़वा बोलते थे, पर थे कितने ‘‘मिठबोले‘‘ ऐसे थे हमारे चाचा चुन्नी चाय वाले।

परन्तु आज चाचा क्या सभी गाँव के लोग परेशान है, सब समय की गति को पढ़ना चाहते हैं, परन्तु समय बिना ध्वनि किये तेज चाल से चला जाता है। जीवन के इस चौराहे पर जब मनुष्य पहुँचता है, तब खो चुका होता हे अपनी संर्घष समता, पुराने संस्कार सूख कर दीमक खाई लकड़ी हो चुके होते हैं, आपने जरा छुआ नहीं की भुर-भुरा कर गिर पडेंगे पल भर में। चाय पीते हुए गहरी साँस ले मेरी तरफ देख चाचा चुन्नी कहने लगे। ‘‘ छौरे राम दरस के तम जवानों का कोई देन नहीं से इस गाम-देस, इस माट्टी के प्रति, आजादी फिरी मे थ्यागी इब तोड़ो अपने ही झुकड़े ते अपने सिगंडा तै।‘‘

मैंने हिम्मत कर मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालने की कोशिश की--‘‘ दादा सालों से फिल्मों मे टी वी मे एक ही कहानी दिखाते हैं, उसी गाँव का लड़की-लड़का साथ खेलते हैं, लडते हे, फिर प्रेम करते हे शादी करके उसी गाँव में रहते हैं, कोई विरोध नहीं करता आप भी कहते थे,‘‘गंगा-जमुना‘‘ दिलीप कुमार की बहुत अच्छी फिल्म है। एक नहीं सभी भारतीय फिल्मों की यही कहानी होती है। कहीं यहीं बच्चों के दिमाग में गलत असर छोड़ती हो, फिल्म ही आज समाज का चरित्र निर्माण करती है, बाल कोमल मन उन्हें ही अपना आदर्श मान वैसा ही होना करना और बनना चाहते, अब आज लोगों की मानसिकता बदल रही है, पैसे ने समाज में आदर्श, सिद्धान्तों से कहीं उपर अपना स्थान बना लिया है। नैतिकता सिसक रही है विकास के किसी कोने में पडी-पडी इसको रोक पाना असम्भव है।

चाचा चुन्नी--‘‘ अरै छौरे पाटन के पौते एक बात ध्यान तै सुन लै, इन फिल्म वालो और नेताओ में त कीडी कितना भी डमाग़ ना हो सै, अरै देश की लगाम इब इनके हाथ में आगी। गन्जें के हाथ में नाखून आगे इब टाट की खैर कोना। इब आन वाले टैम मै ये ही भगवान होगे थारे, राम,किशन, दयानन्द शामी जी की जगहा, इन नेताओ और फिल्मी हीरो की फौटु लागगी धर-धर। अर आज तुं मांरी वात गांठ बान्ध ले,२०० साल राज किया अंग्रेजा ने मारे तोर तरीके रहन सहन कौन्या छिन पाये। दैख लिया आजादी के २५ साल में थारी लगोंटी छिन ये सुतनी पन्हा दी। अरै यो भारत देश केवल भारत रतन की माला मे ही लिखा रह जा गा। इन मल्लेछो की एक-एक गंदी बात थारे डिमाग में गीता, पुराण बन के बैठ जा गी। अरृय जिले सिह मैं तै मर जा गां जीब तक तू जिन्दा रहे तै पुछिये इस छौरे तै-- अगर छौरे-छौरे व्याहा ना करे आपस में ते थूं से मारी जिन्दगीं पै। पहाड़ तै गिरन के बाद केवल गिरना ही हो से, रूकण की सम्भावना कौना होती। जो आज तम सोचो सो वोही थारे सामने बुया पावगा कल काटना भी वोही पडेगा। नाहक गाँधी, भगत सिंह, बिसमिल, आजाद, सुभाष ने देस आजाद करवाया। कै पत्ता था उनने थारे बाद कुते मलाई खागे, आजादी की तै बात छौड्डो इसने तम सम्भाल के भी रख लो ते थारी बड़ी मेहर बानी होगी।‘

३०-३५ साल पहले जब ये बात कही थी, जब तो मैंने सोचा जोश में बोल रहे हैं चाचा चुन्नी। शायद आज गाँव में ऐसी घटना घटी है इससे उत्तेजित हो क्रोध के आवेग में बोल रहे है। परन्तु अभी दिल्ली कोर्ट का फैसले की खबर आई फिर इसपे चर्चा चली तब कहीं यादों की दबी परतों में दबी-भूली वो बात, नास्तरादमो की भविष्य वाणी की तरह सटीक और सत्य महसूस हो निकल आई। समय के चलने की कोई आहट, ध्वनि, कोई भाषा भी होती है, जो समस्त अस्तित्व में केवल है, वो शब्द-ध्वनि के पार शून्य में। उसके लिये कान नहीं ह्रदय की विह्वलता ही उस सम्प्रेषण को महसूस कर सकती हैं। उसका विस्तार अनन्त है, परन्तु हम उसे सुकेड-समेट कर कैद करना चाहते हैं, एक परिवार तक ही नहीं केवल अपने घर के कोने तक। कितने सरल ह्रदय थे, अनपढ़ गंवार से कहलाने वाले वो लोग.....उनको मेरा नमन।

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मनसा आनन्‍द ‘मानस’29- गॉव दसघरा, पो आ पूसा, नई दिल्‍ली – 110012मो – 9810057527फोन – 65398369

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रचनाकार: मनसा आनन्‍द ‘मानस’ की कहानी : गे-युग
मनसा आनन्‍द ‘मानस’ की कहानी : गे-युग
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