श्री आर . पी . शर्मा ‘ महर्षि ‘ जी ने ‘चराग़े-दिल‘ के समारोह पूर्ण विमोचन के लिये श्रीमती देवी नागरानी जी को बहुत बहुत बधाई एवं आशी...
श्री आर. पी. शर्मा ‘महर्षि‘ जी ने ‘चराग़े-दिल‘ के समारोह पूर्ण विमोचन के लिये श्रीमती देवी नागरानी जी को बहुत बहुत बधाई एवं आशीर्वाद देते हुए इस मौके के लिये लिखी अपनी गज़ल पढ़ी, जो अंत में पेश है:
“न बुझा सकेंगी ये आंधियां
ये च़राग़े – दिल है दिया नहीं”
इस गज़ल संग्रह का शीर्षक ‘चराग़े-दिल‘ नागरानी जी के इसी शेर से प्रेरित है. जितना खूबसूरत शेर, उतना ही खूबसूरत शीर्षक. पुस्तक का आवरण भी खूबसूरत और उस पर अंकित खुशनुमा चित्र और वह भी आश्चर्य जनक रूप से स्वयं नागरानी जी का कम्प्यूटर द्वारा बनाया हुआ. पुस्तक के समारोहपूर्ण विमोचन से निश्चय ही उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व प्रकाश में आया और हम सभी को उनसे परिचित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. आप पहले से ही सिंधी में गज़लें कहती रहीं हैं और उनका सिंधी में एक गज़ल संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है, इसलिये गज़ल की आपको अच्छी समझ है और हिंदी गज़ल-लेखन में आप इससे लाभान्वित भी हो रही हैं. सबसे बड़ी बात यह कि आपमें सीखने कि ज़बरदस्त ललक है. मेहनत करने से भी आप नहीं घबराती. आपका स्वभाव काव्यात्मक है और आपकी मौलिक प्रवृत्ति काव्य की लयात्मकता से मेल खाती है. इसे उर्दू में तबीयत का मौजूं होना कहते हैं. हज़त निश्तर ख़ानकाही के अनुसार यह गज़ल जैसी गेय कविता के लिये ज़रूरी भी है. आपके ही शब्दों में:
दो अक्षरों का पाया जो ग्यान तुमने देवी
उनसे निखर के आई शाइर गज़ल तुम्हारी.
आप कविता लिखने को एक स्वभाविक क्रिया मानती हैं, क्योंकि आपकी नज़र में हर इन्सान में कहीं न कहीं एक कवि, एक कलाकार, चित्रकार और शिल्पकार छिपा हुआ होता है. इस पुस्तक में कुछ विद्धवानों द्वारा नागरानी जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर व्यक्त किये गए विचारों के अंश मैं यहां देना चाहूंगा, जो बहुत महत्वपूर्ण एवं सकारात्मक हैं।
श्री कमल किशोर गोयनका, भूतपूर्व प्रोफेसर, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय के निकट यह सुखद आश्चर्य का विषय है कि नागरानी जी अमरीका में रहते हुए हिंदी में गज़लें कह रही हैं और हिंदी के प्रवासी साहित्य में अपनी विशेष पहचान बनाने के लिये इस गज़ल संग्रह के माध्यम से अपना पहला कदम मज़बूती से रख रही हैं.
श्री महमुदुल हसन माहिर, घाटकोपर, मुंबई. का कहना है कि नागरानी जी जो देखती और महसूस करती हैं, उसे ख़ास अंदाज़ से शेर के सांचे में ढाल लेती हैं, उनकी कल्पना की उड़ान बहुत बुलंद है. लिहाज़ा शाइरी में गहराई और गीराई पाई जाती है. न्यूयार्क की डा॰ अंजना संधीर के शब्दों में देवी नागरानी अमरीकी हिंदी साहित्य की एक सशक्त हस्ताक्षर हैं. श्रीमती मरियम गज़ाला ने खास बात कही है, वह यह कि अमरीका जैसे देश में रहकर भी वो अपने संस्कार नहीं भूली. भारतीय महिला की गरिमा और महिमा का वे जीवंत उदाहरण हैं. यहां मैं ग़ज़ल के मिज़ाज के बारे में भी कुछ कहना चाहूंगा. ग़ज़ल कोमल भी है और कठोर भी. उसका लहज़ा कभी नर्म तो कभी तीखे तेवर लिये होता है, तो कभी दोनों का मणि कांचन संयोग कुछ और ही लुत्फ़ पैदा कर देता है,
चटपटी है बात लक्ष्मण – सी मगर
अर्थ में रघुवीर- सी गंभीर है
सुनके ‘महर्षि‘ यूं लगा उसका सुख़न
चाप से अर्जुन के निकला तीर है.
हरियाना के प्रख़्यात उस्ताद शाइर सत्यप्रकाश शर्मा ‘तफ़्ता ज़ारी‘ (कुरुक्षेत्र) ने तो ग़ज़ल से संबोधित एक अनूठी बात कही है, वे फर्माते है:
सुलूक करती है मां जैसा मुब्तदी से ग़ज़ल
मगर एक अग्नि-परीक्षा है मुन्तही के लिये.
कहने का मतलब यह कि नवोदितों के लिये तो ग़ज़ल मां जैसा व्यवहार करती है परन्तु इस विद्या में पारंगत व्यक्तियों को भी कभी अग्नि-परीक्षा से गुज़रना पड़ता है.
“बात बनाये भी नहीं बनती” जैसी कठिन परिस्थिति इनके सामने उत्पन्न हो जाति है. इस शेर पर मेरी तज़्मीम भी है, -
निसार करती है उस पर ये ममता के कंवल
उसी के फिक्र में रहती है हर घड़ी, हर पल
मसाइल उसके बड़े प्यार से करती है ये हल
सुलूक करती है मां जैसा मुब्तदी से ग़ज़ल
मगर इक अग्नि-परीक्षा है मुन्तही के लिये.
प्रख़्यात शाइर श्री क्रष्ण बिहारी ‘नूर‘ के एक मशहूर शेर :
चाहे सोने के फ़्रेम में जड़ दो
आईना झूठ बोलता ही नहीं.
इस शेर पर मैंने अपनी ओर से तीन मिसरे लगाये हैं:
“तुम जो चाहो तो ये भी कर देखो
हर तरह इसका इम्तिहां ले लो
लाख लालच दो, लाख फुसुलाओ
चाहे सोने के फ़्रेम में जड़ दो
आईना झूठ बोलता ही नहीं.”
यह तज़्मीन श्री तर्ज़ साहिब को सादर समर्पित है.
अब मैं आपको एक पद्यात्मक रचना सुनाना चाहूंगा, मौके की चीज़ है, समाअत फ़रमाएं:
आशीर्वाद श्रीमती देवी नागरानी जी को
किस कदर रौशन है महफ़िल आज की अच्छा लगा
इस ‘चराग़े-दिल‘ ने की है रौशनी अच्छा लगा.
आप सब प्रबुद्ध जन को है मेरा सादर नमन
आप से इस बज़्म की गरिमा बढ़ी अच्छा लगा.
कष्ट आने का किया मिल जुल के बैठे बज़्म में
भावना देखी जो ये सहयोग की अच्छा लगा.
इस विमोचन के लिये ‘देवी‘ बधाई आपको
आरज़ू ये आपकी पूरी हुई अच्छा लगा.
इक ख़ज़ना मिल गया जज़्बातो-एहसासात का
हम को ये सौग़ात गज़लों की मिली अच्छा लगा.
आपको कहना था जो ‘देवी‘ कहा दिल खोलकर
बात जो कुछ भी कही दिल से कही अच्छा लगा.
भा गया है आपका आसान अंदाज़े-बयां
आपने गज़लों को दी है सादगी अच्छा लगा.
हर तरफ बिखरी हुई है आज तो रंगीनियां
रंग बरसाती है गज़लें आपकी अच्छा लगा.
ज़ायका है अपना अपना, अपनी अपनी है मिठास
चख के देखी हर गज़ल की चाशनी अच्छा लगा.
यूं तो ‘महरिष‘ और भी हमने कहीं गज़लें बहुत
ये जो ‘देवी‘ आप की ख़ातिर कही अच्छा लगा.
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श्री आर. पी. शर्मा ‘महर्षि‘, २२ अप्रेल,२००७
दादर, मुंबई