अशोक गौतम का व्यंग्य : प्लीज हेल्प मी इंद्र!!

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हे मेरे देश के आदरणीय अखबार वालों! आप रोज -रोज अखबार में मानसून के आने की खबरें छाप -छाप कर क्यों मेरे दिल को कमजोर करने पर तुले हो ? ए...

ashok gautam

हे मेरे देश के आदरणीय अखबार वालों! आप रोज -रोज अखबार में मानसून के आने की खबरें छाप -छाप कर क्यों मेरे दिल को कमजोर करने पर तुले हो? एक तो मैं पहले ही दिल का मरीज हूं। अगर कहीं आपके कारण मैं परलोक सिधार गया तो लोक निर्माण विभाग एक ईमानदारी से खिलाने वाले ठेकेदार से वंचित हो जाएगा। माना आप के अखबार में छपी मानसून की खबर को देख रोता किसान दो पल के लिए हंसने की कोशिश कर लेता है। उसकी सूखती खेती आपके अखबार में मानसून के आने की खबर देख दो दिन और गर्मी के प्रकोप को सहन करने का साहस बटोर लेती है। जो किसान बैंकों में अगूंठे लगा- लगा अपना अंगूठा घिसा चुका है वह भी अखबार को उल्टा- सीधा बिछा मानसून की खबर पर हाथ फेर साहूकार को घूरने लग जाता है। माना आपके अखबार में मानसून के आने की खबर को पढ़ बच्चा दौड़ता -दौड़ता सूखे तालाब में जी भर नहा लेता है। माना आपके अखबार की मानसूनी खबर को पढ़ संसद के मेंढक महंगाई की कमर टूटने की टर्र- टर्र करने लग जाते हैं। माना आपके अखबार के आसरे गर्मी से पसीना- पसीना हुआ महीनों से बिजली का कट झेल रहा बंदा सावन की फुहारों का आनंद अखबार से हवा करते हुए महसूसने लग जाता है। सच है, आपके अखबार में छपी खबरें भूखे को चार दिन और मरने नहीं देतीं। इधर देश में आज आम आदमी रोटी के सहारे कम अखबार के आसरे अधिक जी रहा है। अगर आप अपने अखबारों में राशन- आश्वासन नहीं छापते तो सच कहूं आज को आधे से ज्यादा पाठक वर्ग खत्म हो चुका होता। देश की जनता को बचाए रखने में आपका सरकार से अधिक योगदान है। भगवान करे आपके अखबार का धंधा और फले- फूले।

पर सच यह है कि इधर सरकार महंगाई से जान लेने पर उतारु है तो उधर आप मानसून के आने की मानसून से विकराल खबरें छाप कर मुझ जैसों की जान के दुश्मन बन बैठे हो। सच कहता हूं , इन तपते महीनों एक तो वैसे ही गर्मी से पसीना- पसीना हुआ रहता हूं ,ऊपर से आपकी दिल को तोड़ने वाली मानसूनी खबरें! क्या आपके पास आजकल मानसून की खबरों को छापने के सिवाय और कुछ छापने को नहीं बचा है? माना, आप खबरों की बारिश से ही पाठकों को तर करने का हुनर जानते हो। अभी बारिश की बूंदें आसमान से चलने की तैयारी कर ही रही होती हैं कि आपके मौजी पत्रकार उनके आने की सूचना से पूरे अखबार को भिगो देते हैं, और वे फिसलने के डर से वापस आसमान में जा छिपती हैं।

आप सब मेरे इस बकने के बाद सोच रहे होंगे कि मैं राष्ट्र विरोधी हूं, कि मैं समाज विरोधी हूं, कि मैं सरकार विरोधी हूं, कि मैं कालाबाजारी का पक्षधर हूं, कि मैं सूखे के साथ मिला हुआ हूं, कि मैं..... और भी न जाने क्या- क्या! बैठे ठाले सोचते रहने में किसी का जाता भी क्या है? पर सच कहूं तो मैं न तो मन से मानसून का जानी दुश्मन हूं उन पर्यावरण प्रेमियों की तरह जो पर्यावरण की समस्या को लेकर घंटों फाइव स्टार होटलों में एसी हाल में बैठे बिजली का, पर्यावरण का क्षय करते रहते हैं और गहन चिंता में डूबने का नाटक कर बार- बार शौचालय जा पानी का दुरुपयोग करते हैं। अरे साहब, पर्यावरण संरक्षण के लिए चिंता की नहीं चितंन की जरूरत है। फाइव स्टार होटलों की नहीं, खुले मैदानों, पहाड़ों पर जाने की जरूरत है। चिंता करने से , नारे बनाने से, हल्ला पाने से अगर समस्या का समाधान होता हो तो देश में आज को एक भी समस्या न होती।

अरे साहब, मैं ठहरा पीडब्लूडी का ठेकेदार! पेट पालने के लिए ही ये स्वांग धरना पड़ा। क्या है न कि बचपन से अपने पडोस में एक ठेकेदार को देख मेरा बचपन से बस एक शौक था कि मैं पढ़ूं या न पढ़ूं पर ठेकेदार जरूर बनूं । क्या मजे थे साहब उनके। मेरे पढ़े- लिखे बाप के पास ठीक- ठीक सरकारी नौकरी होने के बाद भी कबाड़ी के जोड़े लत्ते। और वे थे कि अनपढ़ होने के साथ-साथ दो- दो गाड़ियों के मालिक। मेरी मां थी कि दरवाजे पर आए भिखारी को पचास पैसे भी मन मसोसते हुए देती । और वे जिस दिन दस- पंद्रह आला अधिकारियों को भर पेट खिला-पिला मन माफिक दक्षिणा ने दे लेते, मुंह में कौर भी न डालते।

और जैसे- कैसे मैं ठेकेदार हो गया। लगा ज्यों पांचों उंगलियां घी में और सिर कड़ाही में हो। पर लोक निर्माण से पहले उनका निर्माण!! फिर अपना तो करना ही था! साहब दूर के ढोल सुहावने होते हैं। दो दिन बाद ही पता चल गया। सरकारी भवन बनाने का ठेका बाद में मिला, खाने वाले पहले मिल गए। इसका चार परसेंट, उसका आठ परसेंट, इसके घर का इसी ठेके में से छत बनवाओ तो उसका गुसलखाना। पार्टी फंड जुदा। इनकी बेटी की शादी है तो बाप से अधिक चिंता उसूलन ठेकेदार को होनी चाहिए। होनी क्या चाहिए? करते हैं साहब! अपने बच्चों से पहले उनके बच्चे हैं। उनके बेटे की फीस जानी है। साहब! वे साहब हैं न! ठेकेदार किसलिए है? देख लो, कमीशन ऊपर तक जानी है। देंगे साहब, देंगे। ओखली में सिर दिया है तो मूसल भी मरने तक सहर्ष झेलेंगे । हम मना कब करते हैं? आप कहो तो भगवान को भी कमीशन दे दें। सड़क जाए भाड़ में, भवन गिरता हो तो गिरता रहे। डंगे तो हम देते ही गर्मियों के लिए हैं। पुल शरम के मारे आत्महत्या कर जाए तो कर जाए। हम नहीं आत्महत्या करेंगे साहब! रेत पर कौन सा देश खड़ा हुआ है? पर हमारे पास ये हुनर है। और ये सब सीना चैड़ा कर कर रहे हैं।

हे इंद्र! अखबार वाले जो छापते हैं छापने दो! उनके छापने से मानसून तो क्या नल में पानी भी नहीं आने वाला। मानसून तो तब ही आएगा जब आप चाहोगे! अतः आपसे एक ईमानदार ठेकेदार का निवेदन है कि कल ही मैंने दो करोड़ के सरकारी भवन का काम जैसे कैसे पूरा किया है। वे जान कर भी अंजाने हैं । सब देखने की शक्ति होते हुए भी काने हैं। पर मैं जानता हूं, भवन हवा के तेज झौंके से भी हिल सकता है। उस पर जो पानी की टंकियां रखी हैं अगर वे टपकने लग जाएं तो उनसे भी गिर सकता है। बस, एक करबद्ध प्रार्थना है आपसे कि उद्घाटन वाले दिन तक बरसात मत करना इंद्र। बस, इधर उद्घाटन हुआ उधर आप जो चाहे करना। इस देश के नव निर्माण का संकल्प लिए खाने वाले हम जैसों के आप ही तारण हार हो ! आपके आते ही हम सबके सारे पाप धुल जाते हैं और खाने के बीसियों आगे के द्वार सहज ही खुल जाते हैं। प्लीज इंद्र! उद्घाटन तक कृपा बनाए रखना।

अशोक गौतम

गौतम निवास अप्पर सेरी रोड, नजदीक मेन वाटर टैंक, सोलन-173212 हि.प्र.

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रचनाकार: अशोक गौतम का व्यंग्य : प्लीज हेल्प मी इंद्र!!
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