आज मैं जिस चीज का जिक्र करूंगा, उसे यार लोग गलत न समझे। समर्पण का जो सुख है, वो समर्पित होने में ही मिलता है। मेरा विनम्र (प्रणय) निवेदन ...
आज मैं जिस चीज का जिक्र करूंगा, उसे यार लोग गलत न समझे। समर्पण का जो सुख है, वो समर्पित होने में ही मिलता है। मेरा विनम्र (प्रणय) निवेदन है कि समर्पण के इस सुख को महिलाओें के साथ न जोड़ा जाए। सच पूछा जाए तो समर्पण में अर्पण है, और अर्पण में कृपणता का क्या काम।
लगातार चिन्तन के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि समर्पण खासकर हिन्दी साहित्य में पुस्तकों पर जो समर्पण है, और उसका जो सुख है, वह बहुत ही बड़ा है, और महि जो है वह वीर विहीन नहीं है। समर्पण हेतु सही व्यक्ति का चुनाव और उस व्यक्ति के द्वारा समर्पण का स्वीकार या लेखक को समर्पण का उचित भुगतान होने में ही समर्पण का सुख है।
इधर मैंने कुछ समर्पण पृष्ठों का अध्ययन किया और आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि जितना मजा पुस्तक पढ़ने में नहीं आता, उससे ज्यादा मजा तो केवल समर्पण का पृष्ठ ही दे देता है। एक अंग्रेज लेखक ने अपनी पुस्तक के समर्पण पृष्ठ पर लिखा ‘‘ अपनी पत्नी को जिसके सहयोग के बिना यह पुस्तक आधे समय में ही पूरी हो जाती।'' खैर यह उनका जाती मामला है, अपने को क्या करना है।
आइए आगे बढ़ें हिन्दी साहित्य के समर्पण का आनन्द लें, अधिकांश समर्पण बड़े सम्पादकों, सांस्कृतिक, विदेश मंत्रालय के अधिकारियों, पुरस्कार समितियों के सदस्यों, अकादमी के सचिवों आदि को किए जाते हैं, ताकि सनद रहे और वक्त जरूरत काम आए। एक लेखक को जानता हूं, जिन्होंने एक अधिकारी को एक पुस्तक समर्पित की, और अगले वर्ष विदेश हो आए। एक अन्य लेखक ने समर्पण, प्रकाशक को किया। पांच पुस्तकें लगातार छप गयीं, तीसरे लेखक ने अकादमी पुरस्कार के लिए समर्पण पृष्ठ का उपयोग किया। और चौथा लेखक सीधा मंत्री तक जा पहुंचा, आज वो स्वयं एक बड़ा अधिकारी है। समर्पण के इस सुख का मजा हिन्दी साहित्य में ही आ सकता है। प्यारों।
लेकिन समर्पण यहीं खत्म नहीं हो जाता। कन्हैयालाल कपूर जैसे लोग भी हैं, जो हास्य बत्तीसी का समर्पण करोड़ों भारतीयों के नाम करते हैं। गुरूबख्श सिंह ने समर्पण पृष्ठ पर लिखा है-
कागा सब तन खाईयों चुन चुन खाईयों मास।
दुई आखिंयां मत खाइयों पिया मिलन की आस ॥
ऐसा मार्मिक समर्पण--।
और हमारे अज्ञेयजी ने शेखर के लिए लिखा-
उन सबको जिनसे शेखर का निर्माण हुआ, और जो-
मैं प्रार्थना करता हूं, इसे कभी नहीं पढ़ेंगे।
लेकिन शायद ‘‘शेखर'' सबसे पहले हिन्दी लोगों ने पढ़ा होगा। और अरे यायावर-को उन्होंने सनीचर को दिया। यह पता नहीं चल सका कि यह सनीचर रविवार के पहले का है या शुक्रवार के बाद का -।
भारतीजी अपनी मौलिकता के लिए विख्यात हैं ही, ठण्डा लोहा में लिखते भये-
पता नहीं
बंधे हुए हाथ
समर्पण ग्रहण करने के लिए
उठ पायें, न उठ पायें,
यही सोचकर
इस कृति को असमर्पित ही
रहने दिया जाता है।
जब कृति ही असमर्पित रह गयी तो पाणिग्रहण किसका हो।
कई टीमों के सेन्टर फारवर्ड मनोहर श्याम जोशीजी ‘‘कुरू कुरू -- स्वाहा'' में कहते भये,
․․․․․हजारी प्रसाद द्विवेदी और ऋत्विक घटक इन दो दिवंगत आचार्यों की पुण्य स्मृति में,
इस निवेदन के साथ कि सागर थे आप, घड़े में किन्तु घड़े जितना ही समाया।
ऐसा समर्पण अन्यत्र कहाँ․․․․․․․․․
जब जरा व्यंग्य की ओर नजरे इनायत हो जाए। मन्नू भण्डारी के महाभोज में-
दुर्निवार सम्मोहन-भरी उस खतरनाक लपकती
अग्नि लीक के लिए जो बिसू और बिन्दा तक ही नहीं रूकी रहती-
ईश्वर करे, यह अग्नि -लीक कभी न बुझे।
शंकर पुणताम्बेकर ने अपनी पुस्तक ‘‘कैक्टस'' ․․․․․․ का समर्पण निजी सहधर्मिणी को किया है, अरे भाई ! क्या सहधर्मिणी निजी के अलावा भी हो सकती है, यह तो पत्नी और धर्मपत्नी का-सा मामला हो गया है।
रवीन्द्रनाथ त्यागीजी ने भित्ति चित्र के जरिए दिल्ली व प्रयोग के करीब तेईस मित्रों को एक साथ निपटा दिया, यदि ऐसा नहीं करते तो शायद उन्हें तेईस अलग-अलग पुस्तकें लिखनी पड़ती (वैसे यह हमारा सौभाग्य ही होता)।
इधर एक और पोथी मेरी दृष्टिपथ से गुजरी जिस पर लिखा था-
‘‘अपनी धर्मपत्नी को जो मेरे सभी अधर्म सहती है।''
अरे भाई पत्नी तो बनी ही, अधर्म सहने के लिए है। लेकिन कौन मानता है। समर्पण के मामले में और आगे बढ़ा तो ज्ञात हुआ कि समर्पण के लिए योग्य व्यक्ति की तलाश कोई आसान काम नहीं है। शास्त्रों मे लिखा है ‘‘दानं सुपात्रम्'' दान ओर समर्पण सुपात्र को करना चाहिए।
इधर मेरी एक पुस्तक समर्पण के इन्तजार में पड़ी है, यदि कोई सज्जन निम्न अर्हताएं रखते हों तो समर्पण हेतु मेरे से तुरन्त सम्पर्क करें।
1 क्या आप मुझे अकादमी पुरस्कार दिला सकते हैं ?
2 क्या आप मुझे विदेश भिजवा सकते हैं ?
3 क्या मेरे घटिया उपन्यासों पर फिल्म बनवा सकते हैं ?
4 क्या शासकीय अधिकारी बनवा सकते हैं ?
5 क्या रेडियो, टेलीविजन या बड़ी पत्रिकाओं में नियमित लेखन का काम दिला सकते हैं ?
6 क्या मेरी रचनाएं पाठ्य पुस्तकों में जुड़वा सकते हैं ?
7 क्या मेरी रचनाओं का अनुवाद विदेशी भाषाओं में प्रकाशित करवा सकते है ?
8 क्या मेरी पुस्तकों को हिन्दी साहित्य का स्तम्भ साबित कर सकते हैं ?
9 क्या मुझे राज्यसभा का सदस्य बनवा सकते हैं ?
10 क्या मुझे पदमश्री दिलवा सकते हैं ?
यदि आप उपरोक्त में से कोई एक भी कार्य करवा दें तो मैं अपनी पुस्तक आपको समर्पित करने को तैयार हूँ। आईए, आपका स्वागत है।
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यशवन्त कोठारी
86, लक्ष्मीनगर ब्रह्मपुरी बाहर
जयपुर 302002
फोन 2670596
एक बेहतरीन व्यंग्य।
जवाब देंहटाएंमजेदार,
जवाब देंहटाएंअगर अज्ञेयजी की बात है तो शुक्रवार जब सनीचर में बदल रहा होगा और जब तक कि वह रविवार में न बदलने लग गया होगा, तब तक के घंटे वाला सनीचर रहा होगा। शुक्रवार के जाने से सप्ताहंत के अवकाश के आने का उल्लास है, कितने काम अपनी मर्जी से किये जा सकते हैं, कितना चला जा सकता है और वाह... अभी तो रविवार पड़ा है।
एक सुधार सुझाव, निम्नलिखित पंक्ति
[लेकिन शायद ‘‘शेखर'' सबसे पहले हिन्दी लोगों ने पढ़ा होगा]
में शायद "इन्ही" के बजाय "हिन्दी" टाइप हो गया है।