देश के सकल घरेलू उत्पाद में सेवा और विनिर्माण क्षेत्रों की भागीदारी तो बढ़ रही है लेकिन कृषि और उससे जुड़े क्षेत्रों की भागीदारी घट रही है...
देश के सकल घरेलू उत्पाद में सेवा और विनिर्माण क्षेत्रों की भागीदारी तो बढ़ रही है लेकिन कृषि और उससे जुड़े क्षेत्रों की भागीदारी घट रही है। इससे तय होता है अर्थव्यवस्था को व्यापक और समग्र बताने के सरकारी दावे थोथे हैं। विकास की अवधारणा समावेशी न होने के कारण ही खेती, किसानी और गरीबी से जुड़ी विसंगतियां लगातार सामने आती जा रही हैं। हाल ही में एक सवाल के जवाब में केंद्रीय कृषि राज्यमंत्री के वी थामस ने लोकसभा में बताया कि वर्तमान में कृषि और उससे जुड़े उत्पादों की हिस्सेदारी घटकर 14.6 प्रतिशत रह गई है। 2003-04 में यह 21.7 और 1950 - 51 में 55.1 प्रतिशत थी। सकल घरेलू उत्पाद में कम होते कृषि के योगदान के दुष्परिणाम स्वरुप ही ग्रामीण इलाकों में बेरोजगारी डरावने हालात पैदा करने लग गई है। हाल ही में पहली दफा देश के श्रम मंत्रालय द्वारा बेरोजगारी के बरक्श एक देशव्यापी सर्वेक्षण कराया गया है, जिसके अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी की दर 11.1 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 7.3 प्रतिशत है। देश की बढ़ती आर्थिक विकास दर और बढ़ती बेरोजगारी की यह तसवीर दर्शाती है कि विकास दर का प्रतिफल केवल एक वर्ग विशेष को ही मिल रहा है। भारत आने पर बराक ओबामा ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से कृषि क्षेत्र में लगे गैर व्यावसायिक कानूनी बाधाओं को हटाने और खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी निवेश की सीमा और बढ़ाने की मांग की है। यदि ये दोनों मांगे भारत सरकार मान लेते ही तो जीडीपी में कृषि का योगदान तो घटेगा ही ग्रामीण स्तर पर बेरोजगारी में बेतहाशा वृद्धि भी दर्ज होगी।
इन सर्वेक्षणों के परिप्रेक्ष्य में यदि बराक ओबामा भारत में दूसरी हरित क्रांति लाने के सिलसिले में जिस तरह की सहायता की बात करके गए हैं, उन सहायताओं के मार्ग खोल दिए गए तो भारत का अन्नदाता किसान और खेती दोनों का ही चौपट होना तय है। अमेरिकी कृषि व्यापार के भारत में दखल को भारतीय कंपनियां भी प्रोत्साहित कर रही हैं, जिससे कृषि भूमि, फसल और सिंचाई जल का दोहन कर कंपनियां परस्पर आर्थिक हित साधते हुए फोर्ब्स सूची में पूंजीपतियों की अग्रिम पंक्ति में दर्ज होती रहें। जबकि ये बात आधुनिक तकनीक से किसानों को जोड़कर उनकी आर्थिक संपन्नता बढ़ाने की करती हैं। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने भी भारतीय कृषि और किसान को समृद्धशाली बनाने के बहाने आनुवंशिक अभियांत्रिकी तकनीक संबंधी समझौता किया था। कपास और बेगन के 10 हजार करोड़ के बीज किसानों को बेचे भी गए लेकिन किसानों को लाभ होने की बजाय नुकसान हुआ। नतीजतन देश में ढाई लाख किसानों ने आत्महत्या की। बीज खरीदी में लगाई गई यह राशि किसानों के पास ही रहती तो शायद आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या ढाई लाख के डरावने आंकड़े को पार नहीं करती।
अमेरिका की कृषि से जुड़ी आधुनिक तकनीक और भूमण्डलीय नीतियों के मॉडल से भारत के ही नहीं उन सभी देशों के कृषि और किसान मटियामेट हुए हैं जिन-जिन देशों ने इस मॉडल को अंगीकार किया हुआ है। अमेरिकी व अन्य योरोपीय देशों की कंपनियां जिस देश की कृषि को नियंत्रित कर लेती हैं वे आगे चलकर उनकी इच्छा के अनुसार किसान को फसल उगाने के लिए भी विवश करने लगती हैं। बतौर बानगी केन्या को यूरोप के लिए फूलों का उत्पादन और ब्राजील को अमेरिका के लिए सोयाबीन उत्पादन के लिए बाध्य किया गया। जिससे अमेरिकी कारों को बॉयो डीजल की उपलब्धता आसान हो सके। नतीजतन इन देशों में खाद्य सुरक्षा तो संकट में आई ही, बेरोजगारी भी बड़ी। अमेरिकी नीतियों का अभिशाप भोगने के कारण ही मेक्सिको के 50 लाख छोटे किसान और मजदूर कृषि और स्थानीय संसाधनों का सत्यानाश हो जाने के कारण शहरों की ओर पलायन करने के लिए विवश हुए हैं।
अमेरिकी कृषि मॉडल वाकई कृषि का उत्पादन बढ़ाकर किसान को समृद्धशाली बनाने का कारगर उपाय है तो अमेरिका उस आस्ट्रेलिया की कृषि को समृद्ध करने में क्यों नहीं अपना योगदान देता जो आस्ट्रेलिया एक समय भारत जैसे तमाम विकासशील देशों को अपना गेहूं निर्यात कर खाद्य सुरक्षा हासिल कराता था ? यहां औद्योगिक विकास और जलवायु परिवर्तन के चलते साठ फीसदी तक गेहूं का उत्पादन घट गया है। लिहाजा एक समय बड़ी मात्रा में गेहूं का निर्यात करने वाला देश अब खुद भूख की चपेट में है। खेती की बरबादी के कारण योरोप के ही विकसित राष्ट्रों पर जबरदस्त आर्थिक संकट गहराया हुआ है। अमेरिकी मॉडल से इन देशों में कृषि को उन्नत बनाए जाने के प्रयोग को जब मान्यता मिल जाए, तब इन्हें भारत अपनाएगा तो भारतीय कृषि के समृद्धशाली होने की उम्मीद की जा सकती है। अमेरिकी तकनीक के बूते अन्य देशों की खाद्य सुरक्षा की बात तो छोड़िए ओबामा के भारत दौरे के ठीक बाद वहां के कृषि मंत्रालय द्वारा, ‘अमेरिका में 2009 खाद्य सुरक्षा‘ शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की गई है। जिसके अनुसार अमेरिका के लगभग पौने दो लाख घरों में संसाधन की कमी के चलते पेट भर भोजन नहीं मिल पाया। वहां के घरों के हिसाब से इसका प्रतिशत 14.7 बैठता है और दो जून की पेट भर रोटी मयस्सर नहीं होने वाले इन लोगों की तादाद है करीब साढ़े चार करोड़। यही नहीं इस रिपोर्ट पर गौर करते हुए यूएसडीए के खाद्य, पोषण और उपभोक्ता सेवा के वरिष्ठ मंत्री केविन कॉनकैनन को कहना पड़ा यह रिपोर्ट इस बात को रेखांकित करती है कि जरुरतमंद अमेरिकी परिवारों के लिए संघीय पोषण सहायता कार्यक्रम कितना लाजिमी है और ओबामा प्रशासन इस मुश्किल आर्थिक संकट के दौर में भूखों की कितनी तादाद को पेट भर भोजन मुहैया करा पाता हैं ?
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प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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