लोकतांत्रिक व्यवस्था को हाल ही में मंजूर करने वाले नेपाल में चीन की दिलचस्पी और दखल एक साथ दिखाई दे रहे हैं। दखल जहां रानीतिक अस्थिरता ...
लोकतांत्रिक व्यवस्था को हाल ही में मंजूर करने वाले नेपाल में चीन की दिलचस्पी और दखल एक साथ दिखाई दे रहे हैं। दखल जहां रानीतिक अस्थिरता का कारण बना हुआ है वहीं दिलचस्पी नेपाल में व्यापार के बहाने सहानुभूति की सबब बनी हुई है। हाल ही में चीन ने नेपाल के साथ सड़कों के विस्तार और विद्युत संयंत्रों की स्थापना को लेकर एक ऐसे व्यापारिक समझौते को शक्ल दी है, जो चीन के लिए दस हजार करोड़ रुपये के घाटे का सौदा है। चीन ने नेपाली पुलिस को प्रशिक्षण देने का सिलसिला शुरू कर वहां के सुरक्षा मामलों में भी प्रभावी हस्तक्षेप शुरू कर दिया है। दूसरी तरफ पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) में दस हजार सैनिक तैनात कर और 80 अरब डॉलर के निवेश के बहाने अपनी सामरिक घुसपैठ शुरू कर दी है। चीन के साम्राज्यवादी मंसूबे नेपाल और पीओके तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि वह अपनी कुटिल कूटनीतिक दखल का विस्तार बांग्लादेश, म्यामांर और श्रीलंका में करता हुआ विश्व मंच को यह संदेश देना चाहता है कि भारत के ताल्लुक अपने किसी भी सीमांत देश से मधुर नहीं हैं। इस अप्रत्यक्ष सामरिक रणनीति के जरिये चीन एक तरफ भारत को घेरने की कोशिश में है, वहीं दूसरी तरफ तिब्बती आंदोलन को नियंत्रित करने का इच्छुक है।
चीन जिस तरह से भारत पर शिकंजा कसता चला जा रहा है, उस परिप्रेक्ष्य में प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी सरकार के कार्यकाल 1999 में तबके रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीज द्वारा कहे गए वे शब्द एक दम सटीक बैठते हैं कि ‘भारत को सबसे बड़ा खतरा चीन से है और चीन भारत का पहले दर्जे का शत्रु है।' भारत के पड़ोसी देशों में घुसपैठ कर चीन एक ओर तो इन देशों में अपनी सामरिक शक्ति को मजबूती देने में लगा है, वहीं इन्हें भारत के खिलाफ भड़का कर भारत विरोध लॉबी तैयार करने में लगा है। नेपाल के माओवादी नेताओं पर भी चीन की अच्छी पकड़ है। ये नेता अब नेपाल से भारत और चीन के संबंधों का मूल्यांकन भी आर्थिक इमदाद के आधार पर करने लगे हैं। भारत ने नेपाल के तराई क्षेत्र में सड़कों के निर्माण के लिए 750 करोड़ रुपये की मदद की है। लेकिन यह मदद चीन द्वारा नेपाल में सड़कों का जाल बिछाने और विद्युत संयंत्र लगाने की तुलना में नाकाफी है। इस कारण भारत और नेपाल के पुराने रिश्तों में हिंदुत्व और हिन्दी के कारण जो भावनात्मक तासीर थी उसका गढ़ापन ढीला होता जा रहा है। नतीजतन नेपाल में चीन का प्रभुत्व लगातार बढ़ रहा है। चीन की ताजा कोशिश है कि वह भारत की सीमा तक आसान पहुंच बनाने के लिए तिब्बत से नेपाल तक रेल मार्ग बिछा दे। क्योंकि नेपाल भारत और चीन के बीच फिलहाल बफर स्टेट का काम कर रहा है। चीन की मंशा है कि नेपाल में जो बीस हजार तिब्बती शरणार्थी के रूप में जीवन यापन कर रहे हैं यदि वे कहीं चीन के विरुद्ध भूमिगत गतिविधियों में संलग्न हैं तो नेपाली माओवादियों के मार्फत उन्हें काबू में ले लिया जाए। चीन के प्रभावी दखल के चलते ही नेपाल में माओवादी सत्ता में बने रह सकते हैं। यदि चीन की नेपाल में व्यापारिक विस्तार के बहाने यह सक्रियता निरंतर रही तो तय है कि कुछ ही दशकों में चीन नेपाल की धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को तो तिब्बत की तरह लील ही लेगा, वहां की भौगोलिक संप्रभुता के लिए भी घातक सिद्ध होगा।
दरअसल चीन के लोकतांत्रिक चेहरे के पीछे साम्राज्यवादी तंत्र के विस्तार की मंशा छिपी है। जिसके असर को ताइवान में आरोपित कर चीन ने पहले तो इसे बरबाद किया, फिर अधिपति बन बैठा। तिब्बत के साथ भी चीन ने यही चाल चली। बड़ी संख्या तिब्बत में चीनी सैनिकों की घुसपैठ कराकर वहां सांस्कृतिक पहचान, भाषाई तेवर और धार्मिक संस्कारों में पर्याप्त दखलंदाजी कर दुनिया की छत पर कब्जा कर लिया। अब तो चीन तिब्बती मानव नस्ल को ही बदलने में लगा है। दुनिया के मानवाधिकारी वैश्विक मंचों से कह भी रहे हैं तिब्बत विश्व का ऐसा अंतिम उपनिवेश है, जिसे हड़पने के बाद वहां की सांस्कृतिक अस्मिता को एक दिन चीनी अजगर हमेशा के लिए निगल लेगा।
भारत विरोधी मंशा के चलते ही चीन ने पाक अधिकृत कश्मीर में दिलचस्पी लेना शुरू की है। इस नाते हाल ही में चीन ने इस क्षेत्र मे 80 अरब डॉलर का पूंजी निवेश किया है। चीन की पोओके में शुरू हुई गतिविधियां सामरिक दुष्टि से बेहद महत्वपूर्ण हैं। यहां से वह अरब सागर तक पहुंचने की तजवीज जुटाने में लग गया है। इसी क्षेत्र में चीन ने सीधे इस्लामाबाद पहुंचने के लिए काराकोरम सड़क मार्ग भी तैयार कर लिया है। इस दखल के बाद चीन ने पीओके क्षेत्र को पाकिस्तान का हिस्सा मानने के बयान भी देना शुरू कर दिए हैं। चीनी दस्तावेजों में अब इस इलाके को उत्तरी पाकिस्तान दर्शाया जाने लगा है।
अरूणाचल प्रदेश में भी चीनी हस्तक्षेप मुखर हो रहा है। हाल ही में गूगल अर्थ से होड़ बरतते हुए चीन ने एक ऑन लाइन मानचित्र सेवा शुरू की है जिसमें उसने भारतीय भू-भाग अरूणाचल प्रदेश और अक्साई चीन को अपने देश का हिस्सा बताया है। मैप वर्ल्ड खण्ड में इसे चीनी भाषा में प्रदर्शित करते हुए अरूणाचल प्रदेश को दक्षिणी तिब्बत का हिस्सा बताया गया है, जिस पर चीन का दावा पहले से ही बना हुआ है। इस सिलसिले में भारतीय अधिकारियों ने सफाई देते हुए स्पष्ट किया है कि दक्षिणी तिब्बत का तो इसमें विशेष उल्लेख नहीं है लेकिन इसकी सीमाओं का विस्तार अरूणाचल तक दर्शाया गया है। इसके अलावा अक्साई चीन को जरूर शिनजियांग प्रांत का अंग बताया गया है जो दरअसल जम्मू-कश्मीर में लद्दाख का हिस्सा है। इससे जाहिर होता है कि चीन के मंसूबे भारत को घेरने के हैं।
पहले भी चीन ने 1962 में भारत पर आक्रमण किया और भारत की पूर्वाेत्तर सीमा में 40 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन और अक्साई चीन को हड़प लिया। कैलाश मानसरोवर जो भगवान शिव के आवास स्थल के नाम से हमारे ग्रंथों में जाना जाता है, उसे भी चीन ने हमसे पहले ही छीन लिया। साम्यवादी देशों की हड़प नीति के चलते ही छोटा सा देश चेकोस्लोवाकिया बरबाद हुआ।
हकीकत तो यह है कि हम चीन की हड़प नीतियों व मंसूबे के विरुद्ध न तो कभी दृढ़ता से खड़े हो पाए और न हो कड़ा रुख अपना कर विश्व मंच पर अपना विरोध दर्ज करा पाए। बल्कि हमारे तीन प्रधानमंत्रियों में पं. जवाहरलाल नेहरू, राजीव गांधी और अटलबिहारी वाजपेयी ने तिब्बत को चीन का अविभाजित हिस्सा मानने की उदारता जताई है। चीन द्वारा आंख दिखाने के रवैये पर हम कभी अंकुश लगा भी पाएंगे, ऐसा फिलहाल तो लगता नहीं ? हाँ, कूटनीतिक चालाकियां बरतते हुए चीन ने भारत पर शिकंजा कसने की दृष्टि से भारत के पड़ौसी देशों को जरूर एक कारगर हथियार के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है।
-----
प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार हैं ।
COMMENTS