बीते हफ्ते जब जर्नादन जी से मिलने का संयोग हुआ तो उनकी शिकायतों का सामना करने का भी कुयोग झेलना पड़ा। मुझे नहीं पता था कि संयोग और कुय...
बीते हफ्ते जब जर्नादन जी से मिलने का संयोग हुआ तो उनकी शिकायतों का सामना करने का भी कुयोग झेलना पड़ा। मुझे नहीं पता था कि संयोग और कुयोग दोनों साथ-साथ सामने होंगें। खै़र सामने आ ही गये तो न कोई बस था, न जनार्दन जी का कोई दोष। कुछ जानने के बस में होता है तो कुछ दोष भी जमाने का ही होता है। यही सोचकर मैंने हिम्मत जुटाया तो जनार्दन जी एक के बाद एक अपनी शिकायतों का चौका और छक्का जमाने लगे।
सबसे पहले तो जनार्दन जी ने गुगली मारी। बोले- ‘न अच्छी बातें रही, न अच्छी नज़रें रही।'
मैनें उनकी मायूसी में दखलंदाजी करने की जुर्रत की। ‘जनार्दन जी, आपकी बातें भी मुझे अच्छी लगती है और आपकी नज़रे भी तो माशाअल्ला अभी दुरूस्त हैं।'
जनार्दन जी ने अपनी पोजीशन थोड़ी ठीक की। कहने लगे-‘भैया, मैं घुमा फिराकर टेढ़ी-मेढ़ी बाते न तो करता हूं न ही ऐसी-वैसी बेमनी बातों का ही मैं कायल होता हूं। हां मुझे परेशानी तब होती है जब लोग अपने ही मतलब की और अपने ही मसरफ की बातें करते हैं।'
मैंने फील्डिंग की पोजीशन लेते हुए पूछा-‘मैं आपकी बातों का मतलब ही नहीं समझ पा रहा हूं। वैसे अच्छी बातों का कायल होना तो मैंने आपसे ही सीखा है।'
जनार्दन जी थोड़े प्रसन्न हुए जिसका श्रेय निश्चित रूप से मेरे द्वारा उनकी अप्रत्यक्ष की गई प्रशंसा ही रही होगी। प्रशंसात्मक टिप्पणी जब और आगे नहीं बढ़ी तो बोले-‘भैया, अब अच्छी बातों को कहने और सुनने वाले ही कहां है। दैवयोग से कोई अच्छी बातें करने वाला मिल भी गया तो सुनने वाले मिल ही जाय इसकी गारण्टी न आप ले सकते हैं न मैं दे सकता हूं। रही बात सुनने वालों की तो अब किसे फुर्सत है अच्छी बातों को सुनने की। गाहे-बगाहे अगर किसी को अच्छी बातें सुनने का कोई बहाना मिल भी जाय तो जबरन सुनाई गई बातों पर अटेन्शन ही कोई कहां पे करता है।'
‘जर्नादन जी, अभी भी ढेरों अच्छे लोग हैं और उनकी अच्छी बातें है फिर आप ऐसे नतीजों पर कैसे पहुंच सकते हैं कि अच्छी बातों के कायल लोगों की कमी हो गई है?' प्रश्न कम जिज्ञासा अधिक थी।
जनार्दन जी मुझे समझाने की अन्दाज में बताने लगे- ‘नतीजे तो सामने है। यह कहां की समझदारी है कि एक बयान के जवाब में काउन्टर बयान जारी कर दिये जाते हैं और फिर उस छोटी और गैरअहम बात को एक बड़ा मुद्दा बना दिया जाता है। आये दिन कितने ही ऐसे मुद्दे हवा में उछाले और उड़ाये जाते हैं। भला हो बेचारे मीडिया का जो इन्हीं बयानों और मुद्दों की बदौलत सबसे तेज, सबसे आगे, सबसे सच, सबसे पहले वगैरह-बगैरह होने का दावा ठोकते रहते है।'
मैं मीडिया की चर्चा आते ही चौकन्ना हो गया। मीडिया पर और कोई अच्छी या बुरी टिप्पणी करने का मौका जनार्दन जी के हाथ नहीं लगने देना चाहता था इसलिए मैंने उन्हें उनका पहला स्टेटमेंट याद दिलया। पूछा- ‘आप तो यह भी कहते थे कि अच्छी बातों की तरह अब नज़रें भी अच्छी नहीं रही।'
जनार्दन जी के हाथ में एक नई बॉल आ गई। नई बॉल लेते ही उनकी बॉलिंग में नई जान-सी आ गई। बोले-‘भैया, अब तो तिरछी नज़रों से घायल होने का भी जमाना नहीं रहा।'
मैने पूछ ही लिया कि आपका रूख हिंसात्मक कब से होने लगा। मेरे प्रश्न पर उन्हें हंसी आई जो सम्भवतः उनकी बात की गम्भीरता को मेरे द्वारा न पकड़े जाने से उपजी थी। मेरे प्रश्न की उन्होंने पूरी तरह अनदेखी कर दी और बताने लगे- ‘नज़र की बात क्या की जाये, वे भी पूरी तरह बदल गई है। मेरी समझ से आज की खा जाने वाली, घूरने वाली, बेहया, बेशर्म और बेपर्दा नज़रों से तो पहले वाली बेहोश करने या मार डालने वाली नज़रे काफी अच्छी थी।‘
इस बार मैं मुस्कराया, पूछा- ‘जनार्दन जी क्या आपको कभी बेहोश करने या मार डालने वाली नज़रों की ज़द में आने का मौका मिला।'
जनार्दन जी आप-बीती बताने से अपने को बचाते हुए कहने लगे-‘पहले नज़रें बाट जोहना और निहारना जानती थीं। जरा सी गलती पर नज़रों से गिर जाना और थोड़ी-सी भी लगन और ईमानदारी से नज़रों में चढ़ जाना जमाने का दस्तूर हुआ करता था। जुबान का कई मौके पर काम नज़रों से लिया जाता था। नज़रें सलाम भी करती थीं और कयामत भी ढाती थीं। इजहार भी करती थीं, इनकार भी करना जानती थी। क्या धारदार नज़रें होती थी जो चिलमन के पार से भी अपना असर कर दिखाती थीं। न तो चिलमन रहा न वे नज़रे रहीं। पर्दे में न रहकर भी नज़रों का पर्दा लोगों से बचाकर और छुपाकर रखता था। न वे नज़रे रही न वह पर्दा। नज़र बदली तो सब बेपर्दा होते देर ही कहां लगी।'
मुझे लगने लगा कि जनार्दन जी की नज़रों में अब नज़रे फितरती होती जा रही हैं। मैने सोचा एक-दो अच्छी बात मैं भी जनार्दन जी की खिदमत में नज़र कर दूॅ। इस गरज से मैनें कहा-‘अब तो नज़रे कयामती होने की जगह करामाती होने लगी हैं।'
जनार्दन जी को थोड़ा झटका-सा लगा। बोले- ‘जिसका जो काम है उसे ही करने दिया जाये तो अच्छा होगा। नज़रों का काम अब जुबानों से लिया जाने लगा है, यह कहां का इंसाफ है। यह नज़रों की नाइंसाफी ही तो है कि वे बेहोश और घायल करना भूल गई हैं। मार डालने का काम कभी करती भी है तो बालीवुड की फिल्मों में। मदमस्त करने वाली कजरारी आंखें भी दखने-सुनने को मिलती भी हैं तो सरेआम फिल्मों में। ताक-झांक करने या चाल-फरेब में मसरूफ नज़रे टी0वी0 चैनलों कें ढेरों सीरियलों में दिखाई देती है। नज़रों का इस्तेमाल अब नज़रों से गिराने के लिये ज्यादा होता है। आज दिल चुराने के लिये दस-दस बहाने करने पड़ते है। पहले तो ये काम नज़रों के जरिये ही किया जाता था जिसे वे बखूबी अंजाम देती थीं और फिर इसे अंजाम तक पहुंचाने में भी माहिर थी।'
अब तो मैं जनार्दन जी की बातों के कायल होने के साथ-साथ उनकी नज़रों से घायल होने के नतीजों का भी पूरी तरह कायल होता जा रहा था। चुपके-चुपके जहन को भी कुरेदने लगा कि कोई ऐसी नज़र याद आ जाये जिसे शर्मो-हया से भरपूर, इशारों में माहिर, होश उड़ाने या बेहोश करने में चुस्त, इजहार और इनकार करने में निपुण देखा, पाया या सुना हो।'
मेरी इस कोशिश के बीच एक दूसरी ही बात मुझे कुरेदने लगी कि काश आज भी नज़रों में वही पहले जैसी शर्मो-हया होती, इशारों और नज़रों का नज़ारा होता भले ही वे बेहोश करती, मार डालती या घायल करके ही छोड़ देती।
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कृष्ण गोपाल सिन्हा,
‘‘अवध प्रभा''
61, मयूर रेजीडेन्सी,
फरीदी नगर,
लखनऊ-226016.
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