अपरिमित (कहानी संग्रह) श्रीमती शशि पाठक प्रकाशक जाह्नवी प्रकाशन दिल्ली - 32 © श्रीमती शशि पाठक संस्करण ः जनवरी 2004 मूल्य ः 100 र...
अपरिमित
(कहानी संग्रह)
श्रीमती शशि पाठक
प्रकाशक
जाह्नवी प्रकाशन दिल्ली-32
© श्रीमती शशि पाठक
संस्करण ः जनवरी 2004
मूल्य ः 100 रुपये
प्रकाशक ः जाह्नवी प्रकाशन, ए-71, विवेक विहार
फेज-2 शाहदरा, दिल्ली-32
मुद्रक ः दीपक आफसैट, शाहदरा, दिल्ली-32
टाइप सैटिंग ः सागर कम्प्यूटर्स, मथुरा (फोन..0565-2410264)
Aparimit (Stories): By Smt. Shashi Pathak Rs-100/-
वाणी की अधिष्ठात्री देवी
माँ शारदे
को
सादर समर्पित
प्रवर्त्तिका
हिंदी साहित्य जगत में कथा लेखिकाएँ भी अब अपनी पहचान बनाने के लिए सक्रिय दिखाई दे रही हैं। आज इन महिला लेखिकाओं में मालती जोशी, दीप्ति खण्डेलवाल, मंजुल भगत, कृष्णा अग्निहोत्री, सूर्यबाला, निरुपमा सेवती, मेहरून्निसा परवेज, इन्दुबाली, सिम्मी हर्षिता, नमिता सिंह, मीरा मान सिंह, चन्द्रकान्ता, डॉ॰ सरला अग्रवाल, डॉ॰ कमल कुमार, डॉ॰ प्रमिला वर्मा, डॉ॰ संतोष श्रीवास्तव, डॉ॰ सरोजिनी कुलश्रेष्ठ तथा प्रस्तुत संग्रह की कहानीकार लेखिका शशि पाठक के नाम उल्लेखनीय हैं। इन कहानीकारों की लेखनी वर्त्तमान युग की पारिवारिक विसंगतियों तथा टूटते जीवन-मूल्यों को केन्द्र में रखकर, आधुनिक भाव-बोध के चित्रण में रत दिखाई देती है। महिला कहानीकारों के लेखन में निराशा और हताशा के स्वर तो झंकृत होते दिखाई पड़ते ही हैं किन्तु अधिकांश में इन समस्याओं से उबरने का जौहर भी दिखाई देता है, यह एक आशाप्रद बात है।
हिन्दी जगत में महिला कहानीकारों के बीच अपने प्रथम कहानी-संग्रह ‘रिश्तों की सुगन्ध' से अपनी विशिष्ट पहचान बनाने के उपरान्त प्रस्तुत है श्रीमती शशि पाठक का यह दूसरा कहानी-संग्रह ‘अपरिमित'। विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में विगत दो दशक से शशि पाठक की कहानियाँ, लघु कथाएँ तथा बाल साहित्य- रचनाएँ निरन्तर प्रकाशित होती रही हैं। इसके अतिरिक्त इनका ‘‘निखिल और ग्रहों की अनोखी दुनिया'' बाल उपन्यास भी प्रकाशित हो चुका है तथा इनके संपादन में महिला लघुकथाओं का संकलन ‘‘कदम-कदम समझौते'' भी प्रकाशित हुआ है। इनकी इन कृतियों का हिन्दी जगत में अच्छा स्वागत हुआ है। प्रस्तुत संग्रह ‘अपरिमित' लेखिका की अनुभवशील मँजी हुई रचनाधर्मिता से परिपोषित एक श्रेष्ठ कहानी-संग्रह है। इस संग्रह की कहानियाँ विविधरंगी हैं और जीवन के अनुभव-सत्य के विविध आयामी फलक का निदर्शन करने में समर्थ हैं। आज की विसंगतियों से संत्रस्त जिन्दगी मानव को किस प्रकार अस्त-व्यस्त किए हुए है और समाज की विद्रूपताओं ने मानव को किस कदर अमानव बनाकर रख दिया है- इन सभी समस्याओं को कहानियों की कथावस्तु में संजोया गया है। एक ओर खोखले सामाजिक सम्बन्धों की पोल खोलती हुई कहानियाँ हैं तो दूसरी ओर भौतिकवाद और मानव की स्वार्थाधंता का चित्र उकेरती कहानियाँ प्रमुख हैं, इनके बीच एक-दो कहानियाँ ऐसी भी हैं जो मानव-मन के संवेदन के सकारात्मक सोच को प्रतिष्ठापित करती हैं। कुल मिलाकर लेखिका ने सृजन-कर्म के सत्यं, शिवम् और सुन्दरम् तीनों पक्षों के प्रति अपने लेखन के अन्तर्गत सहज रूप में अपनी रूचि दर्शायी है और संतुलित रूप में अपनी कहानियों में इन्हें संजोया है।
संग्रह के शीर्षक का चयन लेखिका ने इस संग्रह की सर्वाधिक सशक्त कहानी के नाम पर ‘अपरिमित' रखा है। ‘अपरिमित' कहानी सकारात्मक सोच की एक श्रेष्ठ कहानी है। इस कहानी की मुख्य पात्र पूनम दीदी एक अति संवेदनशील महिला है जिन्हें शुरू से ही बच्चों से विशेष लगाव रहा है और शादी के बाद कोई संतान न होने पर एक बच्चा उन्होंने गोद लिया भी, वह भगवान को प्यारा हो गया; ऐसे में उन्होंने बच्चों का स्कूल खोल दिया है और अपनी वत्सलता का पर्यवसान सभी बच्चों के प्रति प्रगाढ़ प्रेम के रूप में करके, अपने प्रेम को अपरिमित कर दिया है। कहानी रोचकता के साथ-साथ पाठक को उदात्त प्रेम की व्यापकता का संदेश भी देती है। चरित्र-चित्रण और कथानक के विकास तथा संवाद-योजना और प्रभावन्विति की सफलता की दृष्टि से भी यह कहानी उच्च स्तरीय ठहरती है।
संग्रह ‘अपरिमित' की कहानियाँ युगीन विसंगतियों के विभिन्न सोपानों पर संचरण करती हैं। कुछ कहानियाँ तो पाठक को वर्त्तमान समाज में घटित जीवन-संघर्ष के बीच ले जाकर खड़ा कर देती हैं और उसे सोचने को विवश कर देती हैं।
‘दिवा स्वप्न' कहानी में अत्यधिक महत्वाकांक्षी बनकर नायिका रंजना के कदम बहक जाते हैं और उसकी दुर्गति का दुष्परिणाम पाठक को एक संदेश देता है। ‘तान्या' कहानी वर्तमान पुरुष प्रधान समाज में कामकाजी नारी की पारिवारिक समस्या को उभारती है और उसका समाधान भी आत्मविश्वास के साथ प्रस्तुत करती है। ‘निर्दोष' कहानी भी संग्रह की नारी विमर्श की एक प्रमुख कहानी है जिसमें पुरुष के हृदय परिवर्तन के साथ कहानी का प्रसादान्त मनमोहक है। अर्थ लोलुप स्वार्थन्धता और लुप्त होती मानवीय संवेदनाओं के फलस्वरूप टूटते पारिवारिक रिश्तों की कहानियाँ ‘नियति का दाँव' तथा ‘इन्तजार में' भी संग्रह की अच्छी कहानियाँ हैं।
नियति का दाँव में अनपढ़ होने के कारण एक सम्भ्रान्त श्री सम्पन्न परिवार की महिला अपने देवर के द्वारा ही किस प्रकार घर से बेघर करके भिखारिन बना दी जाती है, इसका सजीव और स्वाभाविक चित्रण किया गया है जो प्रकारान्तर से प्रौढ़ शिक्षा के महत्व का संदेश भी देता है। ‘इन्तजार में' कहानी नारी-समुदाय के लिए विशेष संदेशप्रद है। आज की पढ़ी-लिखी लड़कियाँ जो नौकरी पाकर वैवाहिक जीवन के प्रति नकारात्मक सोच विकसित करती जा रही हैं। उन्हें ‘इन्तजार में' कहानी एक सकारात्मक सोच प्रदान करने में सक्षम है।
‘अलार्म' कहानी में आर्मी-अधिकारी के पुत्र द्वारा राष्ट्र-द्रोह का भ्रम उत्पन्न करके उसकी माँ की, भारतीय नारी की, एक राष्ट्रभक्त शहीद की पत्नी की राष्ट्रभक्ति की पराकाष्ठा दिखायी गई है जो पुत्र को राष्ट्रद्रोही समझकर उसकी हत्या कर देने को प्रस्तुत हो जाती है, किन्तु पुत्र किसी प्रकार बच कर निकल जाता है। कहानी के अन्त मेंं पुत्र के निर्दोष होने का प्रमाण पाकर पुत्र को गले लगाती है। इस प्रकार लेखिका ने इस कहानी के द्वारा वीर-पत्नियों और वीर-माताओं की राष्ट्रभक्ति का एक अनूठा संदेश दिया है।
‘नया प्रभात' कहानी भारतीय प्रवासी पुत्रों की विदेशी पत्नियों की असामाजिकता के भ्रम को तोड़ती है और उनके प्रति एक समारात्मक दृष्टिकोण को पल्लवित करती है।
‘बंधन' कहानी मुँहबोले भाई-बहन के पवित्र प्यार की कहानी है जो पाठक के मन को आल्हादित कर देती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि इस संग्रह की कहानियाँ जीवन की विभिन्न समस्याओं को विभिन्न कोणों से उकेरती हैं और पाठक को मनोरंजन के साथ-साथ कोई न कोई संदेश देती हैं। लेखिका संवाद-योजना में भी सचेत है संवाद छोटे, चुटीले तथा पात्रों के चरित्र-विकास में सहायक हैं। कुल मिलाकर ‘अपरिमित' की कहानियाँ मानव-जीवन के सच को उजागर करने वाली ऐसी कहानियाँ हैं जिनमें पाठक अपने भोगे हुए क्षणों को जीवन्त रूप में देखता है। इन कहानियों में किसी समस्या को केवल उठाया ही नहीं गया प्रत्युत उसके समाधान को खोजने का भी प्रयास दिखाई देता है। संग्रह की अधिकांश कहानियां कोई न कोई संदेश छोड़ती हैं। हिन्दी-जगत में इस संग्रह का अच्छा स्वागत होगा ऐसा हमें पूर्ण विश्वास है। इस संग्रह के लिए लेखिका को बधाई है।
डॉ॰ अनिल गहलौत
रीडर एवं शोध-निदेशक, हिन्दी-विभाग
के॰ आर॰ (पी॰जी॰) कालेज, मथुरा
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दो शब्द
किसी भी संग्रह में प्रवर्त्तिका/भूमिका/दो शब्द/अनुशंसा आदि शीर्षकों से लिखी जाने वाली पूर्व पीठिका के लिए किसी स्थापित विद्वान का चयन किया जाता है जो लेखक की रचनाओं का अध्ययन कर उनके बारे में अपनी निष्पक्ष राय से पाठकों को अवगत करा सके तथा ‘‘अपनी बात'' के अन्तर्गत उस कृति का लेखक अपने उद्गार स्वयं व्यक्त करता है किन्तु कहानी-संग्रह ‘‘अपरिमित'' एक ऐसा उदाहरण है जिसमें लेखिका द्वारा ‘‘अपनी बात'' न लिख पाने की वेदना पूर्ण स्थिति के कारण, अपनी बात के रूप में दो शब्द लेखिका के पति यानि मुझे स्वयं लिखने पड़ रहे हैं।
जीवन का ये महज संयोग ही था कि शशि और मैं दोनों की ही शादी से पूर्व विद्यार्थी जीवन से ही साहित्य में रुचि थी तथा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओें में हमारी कहानियाँ आदि प्रकाशित हो चुकी थीं। प्रणय- सम्बन्धों के तय हो जाने के बाद जब हम एक-दूसरे की रुचियों से भिज्ञ हुए तो हार्दिक प्रसन्नता तो हुई ही, साहित्य के क्षेत्र में एक-दूसरे के सहयोगी एवं पूरक भी बन गये। एक-दूसरे की रचनाओं के प्रथम श्रोता आपस में हम पति-पत्नी ही होते तथा अपने निष्पक्ष सुझावों से एक-दूसरे की रचनाओं में सुधार की सम्भावनाएँ बतलाते तथा सुधार करते और तब कहीं किसी पत्र-पत्रिका में प्रकाशन हेतु तथा आकाशवाणी से प्रसारण हेतु प्रेषित करते। यही क्रम गत 18 वर्ष से चला आ रहा था। इस बीच दो पुत्र हुए और उम्र के हिसाब से कहीं अधिक परिपक्वता का परिचय देते हुए उन्होंने भी लघुकथा, कहानी और हाइकु लिखना तथा हम दोनों के विचार-विमर्श में शामिल होना शुरू कर दिया।
इस बीच मेरी आठ मूल तथा आठ सम्पादित पुस्तकें प्रकाशित हुईं तो शशि की दो मूल तथा एक संपादित पुस्तक का प्रकाशन हो चुका था किन्तु अचानक ही काल-चक्र घूम गया और 10 नवम्बर 2000 का दिन मेरे जीवन में एक गहन अन्धकार के रूप में प्रकट हो गया। दफ्तर से लौटकर जब मैं शाम को घर पहुँचा तो पता चला कि शशि की लिखने, पढ़ने और बोलने की क्षमता समाप्त हो गई है। तब से आज तक जाने कितने न्यूरो सर्जन, फिजीशियन, वैद्य, स्पीच-थैरोपिस्ट और न्यूरो फिजीशियनों का इलाज मैंने कराया है और अभी भी करा रहा हूँ।
गत ढाई वर्ष से मेरे दोनों पुत्रों ने अपने अध्ययन के साथ-साथ एक कुशल ग्रहणी की तरह रसोई और घर का कार्य सँभालने में मेरी सहायता की है तथा मैंने जाने कितनी बार, कुछ कहने को उद्यत किन्तु न कह सकने की विवशतावश आँखों से झर-झर झरते शशि के आंसुओं को देखते रहने के गरल को मौन होकर पीया है उसकी अभिव्यक्ति की ताकत इस कलम में नहीं है, ये गरल अभी और कितना पीना पड़ेगा ये भी अनुमान नहीं।
फलतः पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित एवं आकाशवाणी से प्रसारित शशि की रचनाओं को एकत्रित कर ‘अपरिमित' संग्रह को प्रकाशित करने का विचार मेरे मन में जागृत हुआ जिसके क्रियान्वयन में मेरे मित्रवर एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ॰ जगदीश व्योम, कमलेश भट्ट कमल, मुनीश मदिर,, मदन मोहन उपेन्द्र, डॉ॰ अनिल गहलौत आदि ने मेरे विचारों को बल प्रदान किया। प्रकाशकीय समझौते के तहत इसमें शशि पाठक के वैज्ञानिक उपन्यास को भी सम्मिलित किया गया है जो आप को ग्रहों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करेगा। इस संग्रह के प्रकाशन के मूल में मेरी अपनी पत्नी के कृतित्व की बिखरी हुई अवशिष्ट कड़ियों को एकत्र कर प्रस्तुत करने की मेरी अपनी संवेदना भी देखी जा सकती है। साहित्य जगत में कहानी के क्षेत्र में इस संग्रह की कहानियों की सफलता का निर्णय तो सुधी पाठकजन ही करेंगे किन्तु एक कहानीकार की हैसियत से मैं निरपेक्ष दृष्टि से इन कहानियों को देखकर इतनी आशा करता हूँ कि एक कहानी लेखिका के रूप में शशि पाठक की सम्मान वृद्धि में इस संग्रह की कहानियों की कुछ न कुछ भूमिका अवश्य रहेगी। प्रख्यात समीक्षक, गज़लकार डॉ॰ अनिल गहलौत ने इस संग्रह की प्रवर्त्तिका लिखने की विशेष अनुकम्पा की, उनका मैं हृदय से आभारी हूँ। जाह्नवी प्रकाशन के श्री अतुल गुप्ता ने इस संग्रह को प्रकाशित करने का दायित्व अपने ऊपर लिया। इसके लिए मैं अतुल जी का भी आभारी हूँ। हिन्दी साहित्य सेवियों तथा सुधी सहृदयों के प्रति नमन भाव निवेदित करते हुए -
आपका ही
09 जनवरी 2004
(दिनेश पाठक ‘शशि')
आर..बी. प्प्प्/98-बी,
रेलवे कॉलोनी, मथुरा - 281001
फोन - (0565) 2410264
कहानी क्रम
दिवा-स्वप्न 17
इन्तजार में 22
नियति का दाव 30
बन्धन 35
अपरिमित 39
तान्या 43
अंधेरे के बाद 49
निर्दोष 53
अलार्म 57
समाधान 65
अन्तरिक्ष्ा की दुनिया 69
दिवा-स्वप्न
गाड़ी की गति के साथ ही, रंजना के मन में उठ रहे विचारों की श्रृंखला भी तीव्र से तीव्रतर होती जा रही थी। खिड़की के बाहर दूर-दूर तक चारों ओर फैली हरियाली भी, उसके हृदय की उथल-पुथल को शान्त करने में असफल सिद्ध हो रही थी। बल्कि कहा जाय कि बाहर के समस्त दृश्यों को देखते हुए भी उन सबसे बेखबर, अपने आप में ही खोई हुई थी वह। जीवन की एक-एक घटना, उसके अन्तस में हलचल पैदा कर रही थी।
कैसे आ जाता है कोई, किसी की लुभावनी बातों में? कभी-कभी कहाँ चला जाता है, मनुष्य का सारा विवेक? और वह जान-बूझकर अपने आप को अंधेरी खाई में धकेल लेता है।
अपने आप को बहुत चतुर समझने वाली रंजना ही जब सुधीर के मोहक वाक् जाल में फँस गई तो और किसी की क्या कहें।
सुधीर का उसके जीवन में प्रवेश पाना, इतना अप्रत्याशित तो न था, पर वह सुधीर की मोहक बातों के जाल में कुछ ऐसी फँसती चली गई कि उसे पता ही न चला कि कब उसका मन, अपने ही नियंत्रण से बाहर हो गया।
शादी के बाद जब वह ससुराल पहुँची तो लम्बे-चौड़े उस दो मंजिला मकान को देखकर प्रसन्न हो उठी थी और उसमें भी अधिक प्रसन्नता की बात थी, सास-ससुर का उसके प्रति अथाह स्नेह का होना। ननद-देवर तो कई दिन तक ‘भाभी-भाभी' करते हुए उसके आगे-पीछे घूमते रहे थे जिन्हें देखकर उसके पति, राजेन्द्र ने उससे चुटकी ली थी-
‘‘क्यों, इस गरीब का भी कुछ ध्यान है आपको? या अपने ननद-देवर को ही सारा प्यार लुटा दोगी।''
सुनकर लजा गई थी वह और एक तिरछी मुस्कान के साथ, पति की ओर अगूँठा मटका दिया था उसने।
शादी के बाद, जाने कब एक वर्ष बीत गया, पता ही न चला। एक दिन ससुर जी ने उसे अपने पास बुलाया तो वह सहम गई। ‘कोई गलती हो गई क्या?' उसने सुबह से शाम तक के अपने सभी कार्यों को याद किया किन्तु कुछ याद न आया। जरूर ही कोई गलती तो हुई होगी, नहीं तो पूरा वर्ष बीत गया, ससुरजी ने कभी भी इस तरह नहीं बुलवाया। चिंतित सी रंजना अपने कमरे से निकल, उनके सामने जा खड़ी हुई। नीचे को नजर झुकाए, साड़ी के पल्लू को सीधे हाथ की उंगली पर लपेटते हुए वह, दाहिने पैर के अंगूठे से धरती में कुरेदने लगी।
रंजना को इस तरह संकोच से भरा देखा तो वो ठहाका भरकर हँस पड़े -
‘‘अरे! इस तरह क्यों घबरा रही है? मैंने तेरी किसी गलती की वजह से नहीं बुलाया, बल्कि तुझसे एक बात पूछना चाह रहा था।''
सुनकर वह और सकुचा गई। क्या बात पूछना चाहते हैं ससुर जी। मन में अभी भी दुश्चिंता बनी हुई थी। उसने अपने अंदर हिम्मत जुटाई और चेहरा थोड़ा ऊपर को उठाया-
‘‘जी, कहिए पिताजी?''
‘‘मैं ये पूछना चाह रहा था कि तुम्हारी आगे पढ़ाई करने की इच्छा हो तो फार्म भरे जा रहे हैं। राजेन्द्र से कह कर फार्म मँगवा दूँ।''
सुनते ही वह तो खुशी से पागल हो उठी। उसे लगा कि बिना माँगे ही उसे अनमोल चीज मिल गई हो। कहाँ वह, ससुर जी के सामने आने में घबरा रही थी और कहाँ उनकी इस बात को सुन खुशी से झूम उठी।
उसके आगे पढ़ाई करने के सपने उस समय चकनाचूर हो गये थे जब उसके घर वालों ने उसे, आगे की पढ़ाई का फार्म भरने से रोककर, उसकी शादी करके विदा कर दिया था- ‘‘जा, अब अपनी ससुराल में ही पढ़ना, पढ़ने की इतनी ही इच्छा है तो।'
अपने घर-परिवार की दयनीय स्थितियों का अवलोकन करते हुए वह चुपचाप ससुराल चली आई थी। किन्तु आज, ससुर जी के मुँह से आगे पढ़ने की इच्छा पूछने पर वह अपने को रोक न सकी और आगे बढ़कर उनके पैर छू लिये -
‘‘मैं तब तक पढ़ती रहना चाहूँगी, जब तक आप पढ़ाते रह सकें। पढ़ना मुझे बहुत अच्छा लगता है, पिताजी।''
‘‘अरे वाह! इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है बेटी। तेरी ननद, देवर, सास सभी खूब पढ़े-लिखे हैं, तुम भी उनके बराबर या उनसे अधिक पढ़ सको तो इससे बड़ी खुशी की बात क्या होगी?''
ससुरजी ने मकान का एक कमरा उसके अध्ययन कक्ष के रूप में परिवर्तित करा दिया था जिसमें वह जब और जब तक चाहे, पढ़ सकती थी।
उसने स्नातक की परीक्षा पास करते ही, स्नातकोत्तर का फार्म भी भर दिया और फिर बी.एड., एम.एड, भी किया। उन्हीं दिनों एक विद्यालय में कुछ रिक्तियां निकलीं तो उसने अपनी ससुराल वालों की इजाजत से वहाँ आवेदन भेज दिया। संयोगवश उस विद्यालय में उसकी नियुक्ति हो गई तो घर के काम-काज के साथ नौकरी का दायित्व भी वह निभाने लगी।
कई वर्ष बाद जब उसकी कोख से एक नन्हे शिशु का जन्म हुआ तो घर में खुशियों की बाढ़ आ गई। इसी तरह हँसी-खुशी में दिन बीते जा रहे थे। विद्यालय में एक सांस्कृतिक आयोजन होना था। उसे अपनी कक्षा के विद्यार्थियों को कविता पाठ हेतु तैयार करना था एवं स्वयं भी कविता पाठ प्रस्तुत करना था, अचानक उसके दिमाग में एक बात सूझी।
विद्यार्थी जीवन से ही उसे कविता लिखने का शौक था, कुछ कविताएं विद्यालय की पत्रिकाओं में छपी भी थीं, जिन्हें खूब पसंद किया गया था। क्यों न अपनी कविताएं ही वह विद्यार्थियों को याद करा दे।
इस विचार के आते ही उसके अन्दर एक अजीब स्फूर्ति का संचार हुआ। मंच पर विद्यार्थियों ने जब उसकी कविताओं की प्रस्तुति की तो सभी ने प्रशंसा की। जब वह स्वयं मंच पर अपनी कविता प्रस्तुत करने लगी तो सारा हॉल, तालियों से गूँज उठा। घर आते समय उसके पांव खुशी से जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। हॉल में बजी तालियों की ध्वनि, अभी भी उसके कानों में गूँज रही थी। वह थोड़ी ही दूर चली होगी कि पीछे से एक कार आकर उसके बराबर में खड़ी हो गई-
‘‘आइये रंजना जी, मैं आपको पहुँचा दूँ?'' कार का दरवाजा खोलते हुए नवयुवक ने कहा तो उसने साफ मना कर दिया -
‘‘नहीं, मैं पैदल ही चली जाऊँगी।''
‘‘लगता है आपने मुझे पहचाना नहीं? मैं आपके पति राजेन्द्र का बचपन का दोस्त सुधीर हूँ। आज मंच पर आपकी कविता सुनी तो मैं अपने को रोक न सका। क्या वह कविता आपने स्वयं लिखी थी? यदि हाँ, तो बहुत अच्छा लिखती हैं आप। साथ ही प्रस्तुतीकरण का तो जबाव नहीं। मंचीय कवि सम्मेलनों में तो धूम मचा देंगी आप।''
सुधीर कहे जा रहा था और वह मंत्र मुग्ध सी, अपनी प्रशंसा सुनते-सुनते, जाने कब कार में बैठ गई थी। शायद अपनी प्रशंसा सुनना स्त्री की सबसे बड़ी दुर्बलता होती है।
उस दिन के बाद, सुधीर किसी न किसी बहाने से रंजना से मिलने लगा। रंजना भी उसके आकर्षक व्यक्तित्व और प्रशंसाभरी बातों को नकार न सकी। जब भी वह सामने अपनी कार खड़ी कर देता, वह उसमें बैठ जाती और इस तरह घर से विद्यालय का आना-जाना, अक्सर ही सुधीर के साथ होने लगा।
सुधीर के प्रयास से ही उसे कवि सम्मेलनों में कविता पढ़ने का अवसर मिला, जहाँ खूब प्रशंसा पाते हुए वह घर लौटती। मंचीय प्रशंसा और अच्छे आर्थिक लाभ ने उसके सोचने की दिशा ही बदल दी।
प्रारम्भ में वह अपने सास-ससुर की आज्ञा लेकर मंचों पर जाती थी किन्तु अब वह बिना आज्ञा लिए भी जाने लगी। अब उसे सुधीर के आकर्षक व्यक्तित्व एवं शान-ओ-शौकत के सामने अपने पति राजेन्द्र का व्यक्तित्व फीका-फीका और अभावों से भरा लगता। घर-परिवार की मान-मर्यादा से अधिक अब उसे बाहर के लोगों की झूठी वाह वाही अधिक प्रिय लगने लगी।
इस सबका परिणाम ये हुआ कि मंचीय चकाचौंध ने उसकी आँखों पर परदा डाल दिया। भले-बुरे की समझ क्षीण होने लगी और एक दिन ऐसा भी आया जब वह सुधीर के दिखाये दिवा-स्वप्नों में खोई हुई मुंबई पहुँच गई। जहाँ उसके गीतों की रिकार्डिंग फिल्मों के लिए की जानी थी।
मुंबई में सुधीर के मित्र के यहाँ बहुत सारे लोगों का आना-जाना था जिनमें कोई फिल्म का निदेशक था तो कोई निर्माता। सभी ने रंजना के गीतों को सुना और प्रशंसा के पुल बांधे और फिर एक दिन.... वही सब घटित हुआ जिसकी आशंका, घर से बाहर निकले स्त्री के हर कदम के साथ होती है, किन्तु मनुष्य आत्मा की आवाज को सायास दबाकर अपने को छलता रहता है। दिवा-स्वप्नों के पीछे छिपी काली छाया ने रंजना को अपने आगोश में जकड़ लिया था।
रंजना के गीतों की रिकार्डिंग के बहाने सुधीर ने एक पार्टी आयोजित की थी। सुबह को जब रंजना जागी तो उसे अपने शरीर की पोर-पोर दुःखती सी लगी। उसने चीखते हुए सुधीर को आवाज दी किन्तु वहाँ न तो सुधीर ही था और न उसका कोई दोस्त ही। अपने आप को बुरी तरह अस्त-व्यस्त हालत में देख, उसे समझते देर न लगी कि उसके साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ है।
एक पल को भी वहाँ रुकना असहनीय हो उठा। उसने अपने अन्दर, शक्ति जुटाने का प्रयास किया और किसी तरह स्टेशन पहुँच कर भोपाल की ओर जाने वाली गाड़ी में बैठ गई।
इतना पढ़-लिखने के बाद भी कैसे भटक गई वह। कैसे भूल गई वह कि तीसरे का दखल, दाम्पत्य में विष घोल देता है। अपने पूज्य सास-ससुर और भोले पति की अवहेलना कर, क्यों कर चली आई वह?
अब वह पश्चाताप की अग्नि में झुलसने लगी जिसका निदान प्रायश्चित ही लगा। जल्दी से जल्दी घर पहुँच कर वह सबसे अपनी भूल के लिए क्षमा मांग लेना चाहती है।
तीव्रता से भागती गाड़ी की गति भी, इस समय उसे धीमी लग रही थी।
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
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