मानव सभ्यता के विकास के साथ ही साथ ललित कलाओं के अस्तित्व की अवधारणा भी समानान्तर रूप से पुष्ट होती गई। आदिकालीन मानव ने जब जीवन में एक सुव...
मानव सभ्यता के विकास के साथ ही साथ ललित कलाओं के अस्तित्व की अवधारणा भी समानान्तर रूप से पुष्ट होती गई। आदिकालीन मानव ने जब जीवन में एक सुव्यवस्था की आवश्यकता महसूस करना शुरू की, तभी से सम्भवतः ललित कलाओं संबंधी मंतव्यों की परिकल्पना भी उसके अन्तस् के किसी कोने में एक सूक्ष्म अपुष्ट रूप में अवश्य जन्मी होगी, ऐसा मेरा मानना है। ललित कलाओं का विकास क्रमशः मानवीय सभ्यता के विकास के सापेक्ष हुआ। पाँचों ललित कलाएँ – चित्रकला, मूर्तिकला, वास्तुकला, काव्यकला और संगीत मानव जीवन से उसके विकासक्रम में ही गहरे अन्तर्सम्बन्ध के साथ प्रौढ़ होती हुई पुष्टि प्राप्त करती दिखती हैं, इसके अनेक प्रमाण इतिहास में उपलब्ध हैं।
समाज में ललित कलाओं की जड़ें बेहद गहरे तक समाई हुई हैं। दरअसल मानव स्वभाव को कलाओं से निरपेक्ष कर पाना लगभग असम्भव ही है, यह एक निर्विवाद सत्य है। हम सभी यह भली भांति जानते हैं कि समस्त कलाएँ मानवीय भावाभिव्यक्ति की परिकल्पना का एक तरह से प्रत्यक्ष प्रदर्शनात्मक स्वरूप माना जा सकता है। अतएव कलाओं में सदैव मनुष्य के अंतर्मन की दमित वासनाओं, इच्छाओं और काल्पनिक अभिलाषाओं का ही प्रस्फुटन हमारे सामने बार-बार कला प्रदर्शन के रूप में प्रकट होता आया है। इन पाँचों ललित कलाओं में संगीत को छोड़कर शेष चारों कलाएँ ऐसी हैं, जिन्हें मानव ने पृथ्वी पर आकर अपनी योग्यता, संवेदनशीलता, योजना और आवश्यकता के वशीभूत हो सिद्ध किया और उन्हें निरंतर परिपुष्ट किया, परन्तु संगीत एक ऐसी ललित कला है जो प्रकृति प्रदत्त है। संगीत एक महत्वपूर्ण ललित कला है, जो कि नैसर्गिक रूप से प्रकृति द्वारा मानव समाज को दी गई एक अप्रतिम देन है। प्रत्येक मनुष्य में संगीत के तीनों घटक तत्व – स्वर, लय और नृत्त नैसर्गिक रूप से विद्यमान रहते हैं।
अतः मेरा मानना है कि संगीत कला की सिद्धि हेतु मनुष्य को अपने भीतर प्राकृतिक रूप से संस्कारित इन तीनों मूल अवयवों को ही परिष्कृत करते हुए इनका बाह्य जगत में विद्यमान संगीत कला से सामंजस्य स्थापित करना होता है। और जो भी मनुष्य इसमें जितनी सक्षमता, जितनी स्पष्टता से इसे कार्य रूप में परिणित करने में सफल होता है, वह कला के क्षेत्र में उतना ही सिद्धहस्त कलाकार बनकर उभरता है। यह कला मनुष्य को पृथ्वी पर उसके आगमन के साथ ही, या कहें कि जन्मपूर्व से ही मिली हुई होती है। परन्तु मनुष्य उसका आभास सहजता से नहीं कर पाता। फलस्वरूप वह इसके तकनीकी तत्वों को बाह्य जगत में खोजता हुआ उन्हें पाने के प्रयासों में भटकता रहता है।
प्रकृति ने मुक्तहस्त से और समभाव के साथ हर मनुष्य के अन्तस् में इन प्रमुख तीनों सांगीतिक तत्वों का संचार किया है। परन्तु मानसिक क्षुद्रता के कारण अनेक बार हम इसका आभास नहीं कर पाते और अपने आस-पास इन्हें प्रत्यक्ष स्वरूप में खोजते रहते हैं। फलस्वरूप हमारी आन्तरिक संगीत संवेदना का बाह्य सांगीतिक तत्वों से सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाता। और यही असंतुलन इस कला में विकार उत्पन्न करने लगता है। आइये हम इन तीनों तत्वों पर सूक्ष्मता से दृष्टिपात करें। लय तत्व हमारे ह्रदय की धड़कन में, हमारी नब्ज़ की गति में, हमारे पलक झपकाने में, हमारी श्वांस-प्रश्वांस की गति आदि सभी में सहज रूप में उपस्थित है। यहाँ तक कि हमारे बोलने-चालने, चलने-फिरने आदि हर क्रिया-प्रतिक्रिया में भी एक संतुलित गति का विद्यमान होना हमारे जीवन में निहित लय तत्व को स्पष्ट रूप से दर्शाता है, परन्तु शायद हम इसका एहसास सहज तौर पर नहीं कर पाते। और इसी दुविधा के वशीभूत अनेक लोग बाह्य जगत में लय तत्व को खोजने, उसका अभ्यास करने और प्रकट माध्यमों से उसे समझने-साधने में लगे रहते हैं। जबकि वह तो उनके अंदर उनके धरती पर आने के साथ ही आ गई होती है। अतः आवश्यकता बहिर्लय एवं अन्तर्लय में सामंजस्य स्थापित करने की है।
इसी तरह संगीत का एक अन्य महत्वपूर्ण तत्व है – स्वर। इसका प्रमाण हमें वाक्स्फुटन से ही मिलना प्रारम्भ हो जाता है, मगर जनसामान्य इसका भी आभास सहजता से नहीं कर पाता। हमारे वार्तालाप में जो स्वरों के उतार-चढ़ाव, खींच-तान और विविध अनुप्रयोग प्रगट होते हैं, वे स्वर तत्व की हमारे भीतर उपस्थिति को सहज दर्शाते हैं। हमारे बातचीत करने के दौरान हम कभी भी एक स्वर में अपनी बात नहीं कहते। कभी हम स्वर को ऊँचा करते हैं, कभी नीचा करते हैं, कभी हम किसी स्वर को ज़ोर का आघात करते हुए उच्चारित करते हैं, तो कभी हम किसी जगह अत्यंत हल्का बनाकर अपने शब्द कह देते हैं। ये सभी प्रयोग क्या हैं ? दरअसल ये भी किसी गीत की स्वर रचना की ही भांति स्वर सम्पादन की प्रक्रिया ही तो है। बस इसके साथ किसी संगीत की अवधारणा ही नहीं जुड़ी होती है, वरना ये सारे प्रयोग किसी संगीत निर्मिति और निष्पादन से भिन्न नहीं हैं। यदि किसी मशीन के द्वारा हम किसी मनुष्य के वार्तालाप का स्वरग्राफ़ बनाएँ तो हम पायेंगे कि वह किसी गीत के आलापों के स्वरग्राफ़ से अलग नहीं होगा। यह बात हमारे अन्दर प्रकृति द्वारा दिए गये स्वर तत्व को स्पष्ट रूप से प्रमाणित करती है।
इसी प्रकार भावाभिव्यक्ति के लिये किये जाने वाले अंग-उपांगों के संचालन क्या नृत्त तत्व का मूल नहीं हैं ? हम कभी भी अपने वार्तालाप के दौरान भावहीन होकर अपनी बात नहीं कहते। अपने वक्तव्य सम्प्रेषण के दौरान हम विभिन्न मुखाकृतियों के द्वारा, हाथ-पैर आदि अंगों के संचालन द्वारा और कभी-कभी तो पूरे शरीर के ही मुद्राप्रदर्शन और गति संचालन द्वारा अपनी बात के मर्म को श्रोता तक पहुँचाने का प्रयास करते हैं, क्या ये भाव-भंगिमाएं किसी नृत्य प्रस्तुति के साथ प्रस्तुत होने वाले भाव प्रदर्शन के समान ही प्रतीत नहीं होती हैं ? हमें मानना ही होगा कि ये सभी भाव-मुद्राएँ किसी नृत्य प्रस्तुति से अलग नहीं हैं, मगर इनके प्रति हमारा दृष्टिकोण विवेचनात्मक न होने के कारण हम इनके गूढ़ सन्दर्भों का तादात्म्य अन्य चिंतनीय-माननीय तत्वों से नहीं कर पाते। हमारे कहने का तात्पर्य यह है कि अवश्य ये सभी सांगीतिक घटक हमारे भीतर ही हैं, परन्तु हम नासमझी में इनकी ओर ध्यान ही नहीं देते। इस विवेचन के आधार पर हमें यह मानना ही होगा कि प्रत्येक मनुष्य प्राकृतिक रूप से एक जन्मजात संगीतकार होता है, बस वह इन बातों का एहसास नहीं कर पाता। यदि हम इन सूक्ष्म तत्वों पर मनन करें तो संगीत कला को समझने और सीखने में ये हमें काफ़ी मददगार ही साबित होंगे, और हमारे जीवन को सांगीतिक रूप से परिष्कृत करने में सहायक सिद्ध होंगे।
संगीत कला को हम यदि केवल एक कला ही ना मानकर उसे एक जीवनशैली का आधार बनाने की दिशा में विचार करें तो हम पायेंगे कि इस कला में और इससे जुड़े तथ्यों में बहुत कुछ ऐसा है जो सामजिक और व्यक्तिगत जीवन दर्शन को एक दिशा देने के लिये बहुपयोगी है। अगर हम आध्यात्मिक आंकलन के आधार पर देखें तो हमें मानना होगा कि हर धर्म में - चाहे वह हिंदुओं के भजन कीर्तन हों, मुस्लिमों की अज़ान, नात, मनक़बत, सलाम आदि हों, सिक्खों का शबद-कीर्तन और गुरबानी का पाठ हो अथवा ईसाईयों द्वारा चर्च में गाये जाने वाले कोरल हों, इन सभी में संगीत कला को जोड़ने के पीछे अवश्य ही इस कला की कुछ विशिष्टताएँ रही होंगी, वरना इसकी आवश्यकता क्या थी ? कहने का तात्पर्य यह कि नाद्ब्रम्होपासना को, उसकी महत्ता को, उसके गुणों को लगभग हर धर्म में आदरपूर्ण स्थान मिला है। परन्तु मनुष्य फिर भी इस ओर सजग नहीं दिखाई पड़ता। वह सतही तौर पर संगीत को केवल एक मनोरंजन की ही वस्तु समझता रहा है। केवल इतना ही नहीं संगीत के साधक-समाज और सांगीतिक तकनीकी तत्वों पर यदि सकारात्मक चिंतन-मनन किया जावे, तो हम पायेंगे कि इसमें बहुत कुछ ऐसा ग्रहण करने योग्य है, जो मनु समाज को सन्मार्ग पर अभिप्रेरित करने हेतु दिशानिर्देशक का कार्य कर सकता है।
संगीत के साधक समाज में जाति-धर्म, ऊँच-नीच, आदि भावनाओं के लिये कोई स्थान नहीं होता। गुरु चाहे किसी भी जाति या धर्म का हो वह सदैव पूज्यनीय होता है। गुरु की अमीरी-ग़रीबी भी उसके महत्व की राह में बाधक नहीं होती। इसीलिये मुस्लिम गुरुओं के हिंदू शिष्य भी उनकी ईश्वरतुल्य आराधना करते हैं। और इसके उलट हिन्दू गुरुओं के मुस्लिम शिष्य भी उन्हें आराध्य की भांति पूजते हैं। यह हमारे उस मानव समाज के लिये मिसाल हो सकती है जो कि निरर्थक धर्म-सम्प्रदाय के तुच्छ झगड़ों में उलझकर अपना अमूल्य जीवन व्यर्थ कर रहा है, जबकि इन सब से परे हटकर जीवन का सदुपयोग बहुत कुछ सकारात्मक करने में किया जा सकता है। जो शायद सारे समाज के लिये और आगामी पीढ़ियों के लिये भी हितकारी ही सिद्ध होगा। इसी तरह संगीत के पुजारी किसी भी धर्म की सीमा में बंधकर नहीं रहते, वरन् वे इन सभी से ऊपर उठकर नादब्रम्ह की उपासना करते हैं। इसीलिये मोहम्मद रफ़ी साहब और अहमद-मोहम्मद हुसैन के भजनों में हर हिंदू एक आत्मिक सुख पाता है, और ठीक इसी तरह शंकर-शम्भू क़व्वाल के नातिया क़लामों में भी हर मुस्लिम अपने पीर के दर्शन करता है। ये बातें गम्भीरतापूर्वक चिंतन योग्य हैं।
हम संगीत को उसके प्रायोगिक स्वरूप के कारण अधिक पहचानते हैं। सामान्य अवस्था में हम लोग गाने-बजाने को संगीत मानते हैं और तकनीकी पक्ष से यह उचित भी है। परंतु इस प्रायोगिक विद्या के पीछे छिपे गहन दर्शन की ओर मानव मात्र का ध्यान शीघ्र नहीं जा पाता जबकि आज के इस अराजकता भरे संक्रमण काल में इसके गंभीर दर्शन को समझकर उसे अपनाने की नितान्त आवश्यकता प्रतीत होती है। संगीत के घटक तत्व भी हमें अपने दर्शन अपनाकर एक आदर्श जीवनयापन के लिये इंगित करते हैं। बस आवश्यकता उन्हें समझकर उनके गहन दर्शन को अपने जीवन में उतारने की है। यदि हम मानवीय जीवनदर्शन और संगीतदर्शन की तुलनात्मक विवेचना करें तो हमें अपने जीवन के अनेक विषाद भरे प्रश्नों का सरलतम् हल सहज ही प्राप्त हो सकता है। आवश्यकता केवल दृष्टिकोण की सूक्ष्मता की है। आइये हम इस ओर कुछ दृष्टिपात करें। सर्वप्रथम संगीत का शाब्दिक अर्थ ही अतिमहत्वपूर्ण है। संगीत का अर्थ है - सम्यक गीत। अर्थात् ऐसा गीत जो अन्य के साथ-सहयोग के साथ हो। यदि व्यापक रूप से देखें तो हम पायेंगे जिस प्रकार संगीत में गान, वाद्य और नृत् की त्रिवेणी के परस्पर मिलन के द्वारा ही एक सुफलदायी रागरंजना संभव हो पाती है, ठीक उसी प्रकार हमारे जीवन में भी सर्वांग संतुलन से ही जीवन का आनंददायी रसपान संभाव्य है। जीवन के सामाजिक, पारिवारिक, व्यवहारिक, सांस्कृतिक आदि अनेक पक्षों के बीच असंतुलन हमारे जीवन में नकारात्मक संचार के साथ क्लेश उत्पन्न करते हैं। अतः यदि संगीत की भांति इस दर्शन को हम अपने जीवन में उतार पाने में संभव हो पाते हैं तो जीवन का मधुर रसपान कोई दुष्कर कार्य नहीं है। संगीत में राग का अर्थ रंजकता से लिया जाता है, ठीक इसी प्रकार हमारे जीवन में भी राग को इन्हीं अनुभूतियों के परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है। सामान्य सांसारिक जीवन को सकारात्मक ढंग से यापन करने हेतु इस राग तत्व का भी एक महत्वपूर्ण स्थान अनादि काल से बताया गया है, क्योंकि संतुलित राग चेतना हमारे जीवनानन्द को परिमार्जित कर सकती है। परंतु इसके विपरीत अतिरागानुराग भी संसार की अन्य क्रियाओं में अवरोध पैदा करता है।
यहाँ हम यदि सांगीतिक रागों का चिन्तन करें तो हम पायेंगे की इनके कुछ अपने विशिष्ट नियम हैं, यथा - किसी राग में क्या स्वर प्रयुक्त होंगे ? किस परिमाण में प्रयुक्त होंगे ? राग किस समय गाया-बजाया जाएगा ? किन विशेष स्वर-संगतियों के प्रयोग होंगे और किस प्रकार किये जाऐंगे ? इत्यादि। यह सभी बातें पूर्वनियोजित होती हैं और इनके सफल अनुपालन के द्वारा ही किसी राग की सुस्पष्ट अवतारणा संभव हो पाती है, और उस राग के द्वारा उत्पन्न रस तथा आनन्द का पान सुधिजन कर पाते हैं। यदि हम इसी मन्तव्य को अपने सांसारिक जीवनदर्शन से जोड़कर देखें तो हमें इन दोनों रागों (सांगीतिक तथा सांसारिक) में बहुल साम्यता प्रतीत होगी। जिस प्रकार सांगीतिक राग अपने नियमों के बंधनों के कारण ही अवतरित होकर भावाभिव्यंजित कर पाने में सफल होता है, ठीक उसी प्रकार सांसारिक राग भी यदि नियम और मर्यादा के दायरे में हो तभी वह परमानंदित कर सकता है। नियम और मर्यादा से परे उच्छृंखल रागाभिव्यक्ति अरुचिकर और क्षोभ को जन्म देने वाली हो जाती है। अतएव संगीत का यह एक सरल सा राग दर्शन हमें अपने जीवन में राग के संयमित प्रयोगों हेतु अभिप्रेरित करता है। सूक्ष्म विचार मंथन द्वारा इस दर्शन को अपनाकर हम सुखमय जीवन लक्ष्य की ओर सहजता से अग्रसर हो सकते हैं। संगीत में एक और अतिमहत्वपूर्ण तत्व होता है, वह है लय। लय एक गति का प्रदर्शक है। संगीत का यह गतिदर्शन हमें अपने जीवन में भी निरंतरता बनाये रखने के लिये उत्प्रेरक का कार्य कर सकता है। इस दुनिया में जो गतिमान है, वह जीवन्त है- यह एक सहज स्वीकार्य तथ्य है। अर्थात् हमें जीवन के सुख का भलीभाँति उपभोग करने के लिये स्वयं को क्षण-प्रतिक्षण क्रियाशील बनाए रखना नितांत आवश्यक है अन्यथा जीवन का ठहराव या अवरोध उसे विषादयुक्त बनाते हुए निरर्थक तक बना सकता है। अतः एक सार्थक सुखद जीवन के लिए लय रूपी सांगीतिक तत्व का क्रियात्मक दर्शन हमें अपने जीवन में अपनाना ही होगा।
संगीत में लय के उपरांत ताल नामक तत्व प्रकट होता है। संगीत में ताल एक विशुद्ध व्यवस्था का नाम है। सूक्ष्मावलोकन से हम पायेंगे कि इसके पीछे जो दार्शनिक चिंतन है, वह रागप्रयोगों पर अंकुश लगाने हेतु एक निश्चित व्यवस्था के अंतर्गत उन्हें कसना है। राग की सांगीतिक प्रस्तुति के दौरान ताल की यह जकड़न, यह बंदिश उसे अवरूद्ध न कर उसके आनन्द को कई गुना बढ़ाने में सहायक होती है। ठीक उसी प्रकार हमारे लोक व्यवहार में जीवन राग के उपभोग में यदि हम किसी ताल रूपी (यहाँ ताल को गूढ़ार्थ में लेते हुए जीवन मर्यादा अथवा किसी एक निश्चित अनुक्रम व्यवस्था के सन्दर्भ में कथन है) अंकुश व्यवस्था को अपनाते हैं तो वह हमारे जीवन के आनन्दवर्धन में सहायक सिद्ध होगा।
अंततः मेरा मानना है कि संगीत को केवल एक मनोरंजक प्रक्रिया न मानते हुए उसके पीछे छिपे गहन गंभीर दार्शनिक मन्तव्यों पर भी विचार किया जाना चाहिये। इस गंभीर दिशाप्रदर्शक दर्शन के साथ हमें एक तर्कसंगत, सार्थक और सुखमय जीवन शैली को सरलतापूर्वक प्राप्त करने के सहज संदेश मिल सकते हैं, बशर्ते हम इनका सूक्ष्म चिंतन कर इन्हें अपनाने की दिशा में प्रयास कर सकें। इस प्रकार हम अपने जीवन को उसी प्रकार स्वयं के लिये संतुष्टिपरक तथा अन्य के लिये अनुकरणीय बना सकते हैं, जिस प्रकार सांगीतिक प्रस्तुति के दौरान एक कलाकार उपरिवर्णित नियमों, चिन्तनों तथा व्यवस्थाओं में बंधकर एक आदर्श राग प्रदर्शन के द्वारा स्वयं तो उसका आनंद पाता ही है, श्रोताओं को भी अपने मनोभावों से एकाकार कर उनके अंतस् में भी सुख और रंजकता का संचार कर उन्हें उत्प्रेरित करने में सफल होता है।
इसलिए यदि हम संगीत के विभिन्न तकनीकी तत्वों से प्रेरणा ले अपने जीवन में एक व्यवस्था का संचार करें, तो यह न केवल अपने लिये बल्कि सम्पूर्ण मानव समाज के लिये अतिलाभकारी साबित हो सकता है। और विशेष बात ये है कि संगीत और संगीत-समाज के ये सभी अमूल्य व्यवहार - कहें तो हमारे भीतर ही हैं, या कहीं हमारे आस-पास ही हैं। इसलिए इस हेतु न किसी अतिरिक्त परिश्रम की आवश्यकता है, न ही किन्हीं विशिष्ट अनुप्रयोगों की। आवश्यकता केवल अपनी मानसिकता को, अपनी सोच को बदलने की है और साथ ही सार्थक एवं सूक्ष्म चिंतन-मनन की है।
अस्तु ।।
आलेख प्रस्तुति : डॉ. नमन दत्त वरिष्ठ व्याख्याता कंठ संगीत विभाग इ. क. सं. वि. वि. खैरागढ़ (छग.) |
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