एस के पाण्डेय का व्यंग्य : बच्चों और युवाओं के विकास में फिल्मों का योगदान

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फिल्मों का बच्चों और युवाओं के विकास में बहुत बड़ा योगदान है। ये फ़िल्में ही हैं जो लोगों के खासकर युवाओं के बिचार व रहन-सहन में आमूल-चूल परि...

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फिल्मों का बच्चों और युवाओं के विकास में बहुत बड़ा योगदान है। ये फ़िल्में ही हैं जो लोगों के खासकर युवाओं के बिचार व रहन-सहन में आमूल-चूल परिवर्तन ला सकी हैं। संत-महात्माओं के प्रवचन, माता-पिता व बड़ों की सीख तथा शिक्षकों की शिक्षा से आज के बाल तथा युवा मन पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन फ़िल्में उन्हें बहुत गहराई तक झकझोरने में सफल होती हैं। कुछ बुद्धिजीवी महिलाओं का कहना है कि फिल्मों ने ही आज की लड़कियों को बोलना सिखाया है। नहीं तो लड़कियाँ बोलना ही नहीं जानती थी। घर की चारदीवारी से उन्हें बाहर निकालने में भी फिल्मों का रोल बताया जाता है। लड़कियों के साथ-साथ माता-पिता के भी बिचारों में भी क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है तथा लड़कियाँ बोल्ड हुई हैं। इससे कोई इंकार भी नहीं कर सकता। क्योंकि लोग देख ही रहे हैं कि लड़कियों की झिझक कम हुई है। उनमें खुलापन आया है। पहनने-ओढ़ने का नया ढब सीखा है। उनकी लाज-शर्म काफी हद तक दूर हुई है। आशा की जा सकती है कि धीरे-धीरे ही सही लेकिन उनकी बची-खुची शर्म-लिहाज भी दूर हो जायेगी। और कोई बड़ा पुरस्कार भले न मिले लेकिन कम से कम हिरोइन बनने की उनकी दिली इच्छा तो पूरी होगी ही।

श्रीमतीपटेल जो आधुनिक नारी के निर्माण में अपनी अहम भूमिका निभा रही हैं। कहती हैं कि फिल्मों ने ही लड़कियों को ‘आई लव यू’ बोलना सिखाया है। सच है। कैसे बोलना है ? कब बोलना है ? कितनों से बोलना है ? बोलने के बाद क्या करना है ? करने की जगह कोई भी हो सकती है। वैसे सार्वजनिक स्थलों से बढ़कर अच्छी जगह और हो भी क्या सकती है ?

हम भी मानते हैं कि सभी को तथा खासकर युवाओं को फिल्मों की सबसे बड़ी देन प्यार व मार ही है। युवा-वर्ग प्यार व मार के नए-नए ढब फिल्मों से ही सीख रहा है। छोटे-छोटे बच्चे भी जब आपस में मार-पीट करते हैं तो ‘ढ़िसुम-ढ़िसुम’ बोलते हैं। प्यार करना भी सीख रहे हैं।

एक बार दो बच्चे एक लड़का और एक लड़की, कोई फिल्म देख रहे थे। नायक के तर्ज पर लड़का बोला मैं तम्हें बहुत प्यार करता हूँ । तुम्हारे बिना अब और जी नहीं सकता। नायिका के तर्ज पर लड़की बोली तो मम्मी से बात क्यों नहीं करते ? लड़का उठा। एक हाथ से लड़की का हाथ पकड़ा दूसरे से कच्छा और किचन में जाकर मम्मी से बोला कि मैं इनसे बहुत प्यार करता हूँ। इनके बिना एक पल भी जी नहीं सकता।

मम्मी हँसते हुए बोलीं कि पहले कच्छा तो संभालो। गिरा जा रहा है। यह सुनकर लड़की भी खिलखिलाकर हँस पड़ी। दोनों जाकर फिर से सिनेमा देखने लगे।

दरअसल अधिकांश फिल्मों में नायक को सिर्फ प्यार व मार करते हुए ही दिखाया जाता है। नायिकाएं तो सिर्फ प्यार करने के लिए ही होती हैं। जिस फिल्म में जितना अधिक दिखाया जाता है। लड़के कहते हैं बहुत सही दिखाया। बिल्कुल रियल। जीवन की सच्चाई यही है। इसके परे जीवन की कल्पना बेकार है। जीने का आधार यही है। आधार के बिना मझदार में पड़े रहना ही पड़ेगा। इसी से आज लड़के और लड़कियाँ प्यार करते हैं। या प्यार करने की जुगुत भिड़ाते हैं। जो बीच में आता है। चाहे माता-पिता ही क्यों न हों। कुछ तो उन्हें भी दूर करते हैं। या फिर उनसे दूर चले जाते हैं। कुछ लड़कों का कहना है कि ‘आई लव यू’ में बहुत ताकत होती है। इतनी ताकत कि किसी भी लड़की से बोल दो तो उस पर उसके परिजनों यहाँ तक कि माता-पिता से भी अधिक अधिकार हो जाता है।

किस फिल्म का हीरो कौन है ? हीरोइन कौन है ? इतना ही नहीं गायक, संगीतकार, निर्माता, निर्देशक, विलेन आदि कौन है। कौन सा गाना अथवा डायलाग किस फिल्म का है ? हमेशा वच्चों और युवाओं के जबान पर रहता है। इससे साबित होता है कि फिल्मों से युवाओं व बच्चों की यादाश्त बढ़ती है। दीगर है कि जिस क्लास में पढ़ते हों, उसकी पुस्तकों के नाम भले ही न बता पायें।

इतना ही नहीं बहुत से बच्चे व युवा प्यार व मार के करतबों पर रियाज करते हुए भी देखे जाते हैं। जिससे साबित होता है कि फिल्मों से अभ्यास की आदत भी पड़ती है। विद्वान बताते हैं। अभ्यास से मूरख भी ज्ञानी बन जाता है। अतः बच्चे और युवा फिल्मों से ज्ञान प्राप्त करते हुए ज्ञानी भी बनते रहते हैं। पहले बहुत से संत थे। जो योग से आगे की बाते भी जान जाते थे। फिल्मों से भी यह कुछ हद तक मुमकिन है। ऐसा देखा जाता है कि बच्चे व युवा भी फिल्मों के कुछ भाग को देखकर ही भविष्यवाणी करने लगते हैं कि आगे यही होगा। बिल्कुल सटीक जानकारी देते हैं। अतः फिल्मों से भविष्य जानने वाली प्रथा को भी जीवटता मिलती है।

कहा जाता है कि जिज्ञासा ही खोज को जन्म देती है। अब तक जो विकास हुआ है। खोज से ही संभव हो सका है। खोज का मतलब है रहस्योद्घाटन। फिल्मों से भी जिज्ञासा बढ़ती है तथा बच्चों व युवाओं में खोजी प्रवृति का विकास होता है।

एक बार एक कांफेरेंस के दौरान गैर हिंदी-भाषी प्रदेश से मुझे एक लड़का मिला। कुछ दिन में जान-पहचान हो गाई। उसे हिंदी बहुत ही कम आती थी। उसने भी चोली के पीछे वाला गाना सुना था। लेकिन समझ नहीं सका था। जब कहीं कोई घटना हो जाती है तो अक्सर उसके पीछे किसी न किसी का हाथ होने की बात कही जाती है। वह जानना चाहता था कि चोली क्या होती है और उसके पीछे भी क्या किसी का हाथ है। उसने बताया कि एक बार मैंने अपने पड़ोस की एक लड़की, जो कुछ दिन हिंदी-भाषी क्षेत्र में अपने सम्बन्धी के यहाँ रह चुकी थी, से इसका मतलब पूछा था। लेकिन उसने कुछ बताया नहीं, सिर्फ मुस्कराकर रह गई। लेकिन वर्षों बाद भी उसकी जिज्ञासा मरी नहीं। वह शोधार्थी था। यदि जिज्ञासा ही न हो तो शोधार्थी कैसा ? मैंने उसकी शंका का समाधान किया। रहस्योद्घाटन हो जाने पर उसकी वर्षों की ज्ञान-पिपासा शांत हुई। प्रसन्नता से चेहरा खिल उठा। जैसे किसी योगी को वर्षों बाद सिद्धि मिली हो।

बच्चे और युवा ही देश व समाज के नाक है। उनका विकास देश व समाज का विकास है। उनमें ज्ञान पिपासा बढ़े। अच्छे-अच्छे खोज करें। अपना, अपने माता-पिता तथा देश का नाम रोशन करें। इससे बड़ा योगदान और क्या हो सकता है ? फ़िल्में बच्चों, युवाओं तथा युवतियों की ऐसे ही मार्गदर्शन करती रहें। देश व समाज के नव-निर्माण में उनका अहम रोल हो। इससे अधिक आशा करना बेमानी होगी।

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एस के पाण्डेय,

समशापुर (उ. प्र.)।

URL: https://sites.google.com/site/skpandeysriramkthavali/

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रचनाकार: एस के पाण्डेय का व्यंग्य : बच्चों और युवाओं के विकास में फिल्मों का योगदान
एस के पाण्डेय का व्यंग्य : बच्चों और युवाओं के विकास में फिल्मों का योगदान
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