कृष्ण बिहारी ' नूर ' ज़मीर काँप तो जाता है आप कुछ भी कहे वो हो गुनाह के पहले कि हो गुनाह के बाद एक ...
कृष्ण बिहारी 'नूर '
ज़मीर काँप तो जाता है आप कुछ भी कहे
वो हो गुनाह के पहले कि हो गुनाह के बाद
एक शख्सियत........कृष्ण बिहारी 'नूर '
ज़मीर नाम का परिंदा हर इन्सान के अन्दर होता है। कोई उसको ज़िन्दा रखता है और कोई उसकी ह्त्या कर देता है। जब भी इन्सान किसी गुनाह को अंजाम देता है तो ये परिंदा उसे आगाह ज़रूर करता है। इसी ख़याल को जब एक शे'र के ज़रिये सुना तो बस सन्न रह गया। दिल से सिर्फ़ ये ही लफ़्ज़ निकले वाह - वाह , वो शे'र यूँ था :-------
ज़मीर काँप तो जाता है आप कुछ भी कहें
वो हो गुनाह के पहले कि हो गुनाह के बाद
पड़ताल की गई कि ये शानदार मिसरे किनके हैं तो पता चला लखनऊ के शाइर है कृष्ण बिहारी 'नूर ' उनका है ये शेर बस तब से मैं कृष्ण बिहारी "नूर" का मुरीद हो गया।
कृष्ण बिहारी नूर का जन्म लखनऊ में जनाब कुंजबिहारी लाल श्रीवास्तव के घर 8 नवम्बर 1925 को हुआ। शायरी का सफ़र कृष्ण बिहारी नूर का 1942 में शुरू हुआ जब उनकी उम्र सिर्फ़ सत्रह साल की थी। नूर साहब ने अपनी पहली ग़ज़ल अपनी मौसी को सुनाई ,मौसी जी भी शायरी का ज़ौक़ रखती थी। मौसी जी को लगा कि बच्चे में शायरी की लो है सो उन्होंने ये ग़ज़ल मोहन लाल माथुर 'बेदार' साहब को दिखाई ,बेदार साहब ने भी महसूस किया कि कृष्ण बिहारी को अगर कोई उस्ताद मिल जाए तो ये बच्चा शायरी में एक मुकाम हासिल कर सकता है और उन्होंने हज़रत फ़ज़्ल नक़वी साहब से गुज़ारिश की के वे कृष्ण बिहारी श्रीवास्तव को अपना शागिर्द कुबूल फरमा लें। हज़रत फ़ज़्ल नक़वी कृष्ण बिहारी साहब के बाकायदा उस्ताद हो गये और उन्होंने कृष्ण बिहारी को क़लमी नाम दिया 'नूर ' लखनवी और तब से 'नूर' लखनवी अदब के आसमान के एक चमकदार सितारा हो गये।
कृष्ण बिहारी नूर को जितना पढ़ा ,समझा मुझे लगा कि रिवायत के तराज़ू पे ग़ज़ल सिर्फ़ महबूब से गुफ़्तगू करना नहीं है महबूब की आँखों में ख़ुदा की इबादत भी शायरी है । नूर साहब की शायरी का ये मिज़ाज वाकई अनूठा है :------
देखा जो उन्हें सर भी झुकाना न रहा याद
दरअसल नमाज़ आज अदा हमसे हुई है
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जबीं को दर पे झुकाना ही बन्दगी तो नहीं
ये देख, मेरी मुहब्बत में कुछ कमी तो नहीं
हज़ार ग़म सही दिल में मगर ख़ुशी ये है
हमारे होंठों पे मांगी हुई हँसी तो नहीं
कृष्ण बिहारी 'नूर' शायरी की रिवायत को निभाते हुए उसमें दर्शन ,अध्यात्म और अपने कलंदराना मिज़ाज को ऐसे मिलाते हैं कि इन तीनों को फिर अलग करना उतना ही मुश्किल हो जाता है जितना कि पानी में कोई रंग मिला दिया जाए और फिर उसमें से पानी को अलग करना । दर्शन और अध्यात्म के मोतियों को शायरी की माला में पिरोने का फ़न वाकई ख़ुदा ने कृष्ण बिहारी 'नूर' को अता किया उनके अशआर इस बात की गवाही देते हैं :--------------
शख्स मामूली वो लगता था ,मगर ऐसा न था
सारी दुनिया जेब में थी , हाथ में पैसा न था
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सच घटे या बढ़े,तो सच न रहे
झूठ की कोई इंतिहा ही नहीं
इतने हिस्सों में बंट गया हूँ मैं
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं
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मैं एक क़तरा हूँ मेरा अलग वजूद तो है
हुआ करे जो समन्दर मेरी तलाश में है
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आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है मुझमें
और फिर मानना पड़ता है ,ख़ुदा है मुझमें
आईना ये तो बताता है मैं क्या हूँ लेकिन
आईना इस पे है ख़ामोश कि क्या है मुझमें
नूर साहब उस्ताद- शागिर्द रिवायत के बहुत बड़े हिमायती थे ,अपने ग़ज़ल संकलन "समन्दर मेरी तलाश में है"में अपने सफ़रनामें में उन्होंने लिखा है कि 'मैं एक बात का एतराफ खुले दिल से करता हूँ कि अदब की दुनिया में मैं आज जिस भी मुकाम पे हूँ अपने उस्तादे -मोहतरम के फैज़ाने करम से हूँ। 'नूर साहब अपने से वरिष्ठ शायरों का बड़ा आदर करते थे और अपने से छोटों के लिए उनकी मुहब्बत का दरवाज़ा हमेशा खुला रहता था।
नूर साहब की शख्सीयत की सबसे बड़ी ख़ूबी ये थी कि उनकी एक - एक अदा शायराना थी । असल में शायरी ज़िन्दगी को सलीक़े से जीने का ही तो नाम है ,उनका सिगरेट सुलगाना , उनका मुशायरे में शेर पढ़ना ,उनका चलना , गुफ़्तगू का अंदाज़ ,ख़ूबसूरत कुर्ते पहनना सब शायरी के लिबास में लिपटा हुआ था।
मुरादाबाद के मशहूर शाइर मंसूर उस्मानी कह्ते है कि "कृष्ण बिहारी 'नूर' महबूब के दरवाज़े पे जाके भी याद ख़ुदा को ही करते थे "। यारों के यार थे नूर साहब और दुश्मन तो वे दुश्मनों के भी नहीं थे।
नूर की शायरी महबूब के परदे में कहीं ख़ुद को और कहीं ख़ुदा को तलाश करने की वह साधना है जो लफ़्ज़ों से तस्वीर बनाती है तो महबूब का चेहरा बन जाता है और अर्थ में डूबती है तो अध्यात्म का मंज़र बिखेर देती है। नूर साहब ने अपनी शायरी की फ़िक्र के बाग़ में ग़म का बिस्तर बिछाया ,इश्क़ की चादर ओढ़ी और ख़्वाबों का वो तकिया लगाया जिसने उन्हें न तो ख़ुद से दूर किया न ख़ुदा से। नूर साहब को अपनी शख्सीयत की उस सच्चाई का एहसास हो गया जहाँ ख़ुदी और ख़ुदा का फ़र्क़ भी साफ़ हो जाता है।
डॉ. मलिकज़ादा मंज़ूर नेनूर साहब के बारे में कहा कि कृष्ण बिहारी 'नूर' वो आँखें है जो माज़ी के रोशनदानों से दुनिया देखती है। मक़बूलियत का इतना बड़ा हल्क़ा बहुत कम शायरों का मुक़द्दर होता है और उनके कितने ही अशआर उर्दू ग़ज़ल का ज़िन्दा रह जाने वाला कारनामा है।
कृष्ण बिहारी 'नूर' ने ग़ज़लों के साथ -साथ बहुत कामयाब नज़्में भी लिखी ,उनकी नज़्मों में गंगा - जमुनी तहज़ीब की झलक साफ़ देखी जा सकती है :--
कह दो मंदिर में चले आएँ पुजारी सारे
आसमानों से है उम्मीद पयाम आएँगे
देवता ले के कोई ताज़ा निजाम आएँगे
अब रसूल आएँगे दुनिया में न राम आएँगे
सिर्फ़ इन्सान ही इन्सान के काम आएँगे
कृष्ण बिहारी 'नूर ' की शायरी में दर्शन और अध्यात्म के अलावा भी मुख्तलिफ - मुख्तलिफ रंग जैसे खुद्दारी ,महबूब से गुफ़्तगू ,ज़माने की फ़जां देखने को मिलते हैं। उनके ये अशआर इस बात की ज़मानत दे सकते हैं :----------
किस तरह मैं देखूं भी, बातें भी करूँ तुमसे
आँख अपना मज़ा चाहे दिल अपना मज़ा चाहे
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मैं जिसके हाथ में एक फूल दे के आया था
उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है
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मैं जानता हूँ वो क्यूँ मुझसे रूठ जाते हैं
वो इस तरह से भी मेरे करीब आते हैं
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बुझी न प्यास तो ख़त्म अपनी ज़िन्दगी कर ली
नदी ने जा के समन्दर में ख़ुदकुशी कर ली
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अच्छी लगती थी मुझे भी अच्छी अच्छी सूरतें
हाँ मगर उस वक़्त तक जब तक तुम्हें देखा न था
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देना है तो निगाह को ऐसी रसाई दे
मैं देखूं आईना तो मुझे तू दिखाई दे
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सुबह से ता- शाम समझौतों पे कटती है हयात
वो भला किस तरह जीते होंगे जो खुद्दार है
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हक़ बोलने का जिनको न था ,बोलने लगे
हद है ,हमारे साये भी लब खोलने लगे
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लाख ग़म सीने से लिपटे रहें नागन की तरह
प्यार सच्चा था, महकता रहा चन्दन कि तरह
कृष्ण बिहारी नूर साहब के तीन ग़ज़ल संग्रह मंज़रे आम पे आये "दुःख-सुख " (1978 ) ,"तपस्या " (1984 )उर्दू में और "समन्दर मेरी तलाश में है " नागरी में (1994 ) में।
बहुत सी अदबी संस्थाओं ने नूर साहब को एज़ाज़ और इनामात से नवाज़ा जिसमे मुख्य है :--अमीर खुसरो ग़ज़ल अवार्ड, उर्दू अकादमी अवार्ड ,मीर अकादमी ,लखनऊ से इम्तियाज़े मीर अवार्ड ,दया शंकर नसीम अवार्ड , निराला सच्चाई अवार्ड आदि।
हिन्दुस्तान के तक़रीबन सभी ग़ज़ल गायकों ने कृष्ण बिहारी 'नूर' साहब की ग़ज़लों को आवाज़ दी जिसमे प्रमुख है जगजीत सिंह , गुलाम अली ,पीनाज़ मसानी, रविन्द्र जैन, अहमद हुसैन मोहम्द हुसैन और भूपेंद्र।
नूर साहब ने बहुत मयारी दोहे भी लिखे उनके दोहे भी गंगा - जमुनी तहज़ीब की ही ज़ुबान में है :--------
वार करो तलवार का, चाहे जितना सख्त।
पानी तो कटता नहीं, कट जाता है वक़्त। ।
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साँझ हुई तो सज गये ,कोठों का बाज़ार।
मन का गाहक ना मिला ,बदन बिका सौ बार। ।
उनका ये दोहा तो एक दिन हक़ीक़त में ही तब्दील हो गया.....
मैंने आँखें मूँद लीं ,बदन पड़ा बेजान।
अब चाहे सम्मान हो, चाहे हो अपमान। ।
नूर साहब ने उर्दू के अलावा जिस ज़ुबान के लफ़्ज़ को अपने मिसरे में इस्तेमाल किया तो वो लफ़्ज़ यूँ लगा कि वो सिर्फ़ उसी मिसरे के लिए बना हो उनकी एक बड़ी मकबूल ग़ज़ल के एक शे'र में उन्होंने अंग्रेज़ी के लफ़्ज़ फ्रेम का इस्तेमाल किया और जब शे'र हुआ तो फ्रेम यूँ लगा जैसे इस शब्द की उत्पत्ति इसी शे'र के लिए ही हुई हो :--
चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो
आईना झूठ बोलता ही नहीं
अपनी ज़ुबान से उन्हें बड़ी मुहब्बत थी ज़ुबान के साथ जो बर्ताव इन दिनों हो रहा था उस से नूर साहब बड़े आहत थे तभी उन्हें ये कहने पे मजबूर होना पड़ा :---
ख़ुद भी खो जाती है ,मिट जाती है , मर जाती है
जब कोई क़ौम कभी अपनी ज़बां छोड़ती है
गंगा -जमुनी तहज़ीब में रचे बसे होने कि वजह से उनकी शायरी दोनों मज़हबों को मुहब्बत का पैगाम भी देती रही :--
लब पे आए ज़िक्रे काबा ज़िक्रे काशी साथ -साथ
बात जब है हो नमाज़ और आरती भी साथ- साथ
'नूर' का मज़हब है क्या सब देखकर हैरान है
हक़परस्ती ,बुतपरस्ती ,मयपरस्ती साथ -साथ
और दंगो पे सवाल छोड़ता उनका ये शेर :---
जिसके कारण फसाद होते हैं
उसका कोई अता -पता ही नहीं
किसी भी बात को सलीके से कहना ही शायरी में बुनियादी चीज़ है , ज़हन में आए ख़याल को किस तरह शाइर काग़ज़ पे एक तस्वीर की शक्ल में उतार देता है इसकी मिसाल से रु-बरु होने का मुझे मौक़ा मिला। दिल्ली में इन्डियन आयल का एक मुशायरा था 'नूर' साहेब ने जैसे ही ये शे'र सुनाया शे'र के जो मआनी थे वो पूरे सभागार में खुल गये पूरे सामईन शे'र सुनते ही स्तब्ध हो गये :---------
मैं तो ग़ज़ल सुना के अकेला खड़ा रहा
सब अपने -अपने चाहने वालों में खो गये
पोस्टल महकमें में नूर साहब डिप्टी मैनेजर थे और मुलाज़मत से उन्हें फ़ुरसत 30 नवम्बर 1984 में मिली। 2003 के मई महीने के आख़िर में नूर साहब एक मुशायरे के सिलसिले में लखनऊ से ग़ाज़ियाबाद जा रहे थे। रेल गाडी में ऊपर की बर्थ से नीचे उतरते वक़्त गिर जाने से उनकी आंत में चोट आ गई। अगले दिन चोट की परवाह न करते हुए नूर साहब ने मुशायरे में भी शिरकत की पर फिर उसके अगले दिन यानी 30 मई 2003 को नूर साहब सभी को छोड़कर उस यात्रा पे चले गये जहाँ से कोई लौट कर नहीं आता। उनका अंतिम संस्कार भी ग़ाज़ियाबाद में ही किया गया।
उन्होंने अपना एक मतला कहा था अपनी तमाम शायरी पे :---
तुम्हारा ज़िक्र और अपना बयाने हाल रहा
ये शायरी का ज़माना तो बेमिसाल रहा
वाकई नूर साहब की शायरी बेमिसाल है। आने वाली नस्ले और शायरी से मुहब्बत करने वाले उनके क़लाम को याद रखेंगे। आख़िर में
नूर साहब के इन्ही मिसरों के साथ .....
ज़िन्दगी मौत तेरी मंज़िल है
दूसरा कोई रास्ता ही नहीं
अपनी रचनाओं में वो ज़िन्दा है
'नूर' संसार से गया ही नहीं
अगले हफ्ते फिर मिलने का वादा किसी और शख्सियत के साथ ...
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विजेंद्र शर्मा
vijendra.vijen@gmail.com