लेख मैस्लो का मुगालता डॉ. रामवृक्ष सिंह सन् 1943 के आस-पास दुनिया के दृश्य-पटल पर बहुत कुछ घटित हो रहा था। द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्ति की...
लेख
मैस्लो का मुगालता
डॉ. रामवृक्ष सिंह
सन् 1943 के आस-पास दुनिया के दृश्य-पटल पर बहुत कुछ घटित हो रहा था। द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्ति की ओर अग्रसर था। फासीवादी ताकतें अपने अवसान पर थीं। भारत और दुनिया के बहुत से दूसरे देश औपनिवेशिक सत्ताओं से अपनी आज़ादी हासिल करने की दिशा में अग्रसर थे। गाँधी बाबा घुटन्ना पहने, लकुटिया हाथ में लिए अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए ललकार रहे थे। काठ की कटोरी में खाते, छेड़ का दूध पीते, चरखा चलाते, राम-धुन गाते और पराई पीर को अपने हृदय में अनुभव करने का अलख सबके दिलों में जगाते। गाँधी बाबा हृदय-परिवर्तन के दर्शन में विश्वास रखते थे। कोई एक गाल पर तमाचा मारे तो दूसरा गाल भी उसके आगे करने की सीख देते थे। कहीं न कहीं उनके मन में यह विश्वास था कि पीड़ित व्यक्ति का दर्द पीड़ा देनेवाले के मन में करुणा का भाव जगाएगा और उसे अपने किए पर पछतावा होगा, जिससे उसके चरित्र में सुषुप्त पड़ी उदात्तता की भावना जागेगी। ईसा ने कभी कहा था कि पाप से घृणा करो पापी से नहीं। गाँधी तो ईसा मसीह से भी बहुत आगे निकल गए और उन्होंने घृणा मात्र को अपने जीवन से निकाल देने की बात कही। लगभग उन्हीं दिनों सिंगापुर में नेताजी देश और दुनिया के युवाओं का आह्वान करते हुए नारा लगा रहे थे- तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा। कुल मिलाकर बड़ा जुनून भरा वातावरण था। लोग ऐशो-आराम की जिन्दगी छोड़कर देश की आज़ादी, मानवीय आदर्शों और नैतिकता के लिए अपना सर्वस्व अर्पित करने पर आमादा हो उठे थे।
ऐसे ही माहौल में एक मनोवैज्ञानिक हुए अब्राहम मैस्लो, जिन्होंने सन 1943 में अ थ्योरी ऑफ ह्यूमन मोटिवेशन शीर्षक से एक शोध-पत्र प्रस्तुत किया। मैस्लो ने कुछ स्वस्थ और उल्लेखनीय व्यक्तियों (जैसे अलबर्ट आइंस्टाइन, जेन ऐडम्स, एलीनॉर रूजवेल्ट और फ्रेडरिक डगलस आदि) के जीवन का हवाला देते हुए प्रतिपादित किया कि मनुष्य की आवश्यकताओं में क्रमिक विकास की ऊर्ध्वगामी प्रवृत्ति होती है। इसे उन्होंने एक पिरामिड के माध्यम से दर्शाया, जो केवल अकादमिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए इस लेख के अंत में दिया गया है।
मैस्लो महोदय ने प्रतिपादित किया कि मनुष्य के जीवन में विकास के कई सोपान होते हैं। पहले वह अपनी शारीरिक और बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए काम करता है है। उस समय उसे इस दुनिया में जिन्दा बचे रहने के लिए बेहद जरूरी साधनों की आवश्यकता होती है। एक बार जिन्दा बचे रहने के सामान जुटा लेने के बाद उसे अपने आपको सुरक्षा देने की आवश्यकता महसूस होती है। खुद को सुरक्षित कर लेने के बाद मनुष्य में भावनात्मक आवश्यकताओं, प्रेम आदि की आवश्यकता जगती है। जब ये आवश्यकताएं भी पूरी हो लेती हैं तब मनुष्य अपने सम्मान, आदर आदि के प्रति सचेत हो जाता है और अपने वातावरण व परिवेश से उनकी अपेक्षा करने लगता है। सम्मान, प्रतिष्ठा आदि मिल चुकने के बाद व्यक्ति में और भी उच्चतर आवश्यकताएं उपजती हैं, जिनको मैस्लो महोदय ने सेल्फ ऐक्चुअलाइजेशन कहा यानी मनुष्य द्वारा अपनी अंतर्निहित क्षमताओं को पूर्णतया हासिल कर लेने की स्थिति, बौद्धिक व रचनात्मक उन्नयन की स्थिति।
इस अनुक्रम में निचले पायदानों पर शारीरिक आवश्यकता-पूर्ति के साजो-सामान, संपत्ति, धन-दौलत आदि आते हैं। भारतीय मनीषा ने इसे शरीर की भौतिक वृत्तियाँ, यानी आहार, निद्रा, भय, मैथुन आदि कहकर अभिहित किया और इनमें लिप्त रहनेवाले मनुष्यों को बिना पूँछ का पशु कहा जो मनुष्य के बाने में पशु की भांति रहता है। धीरे-धीरे जब मनुष्य की शारीरिक आवश्यकताएं पूरी हो जाती हैं तो वह अपने वर्तमान व भविष्य की जरूरतों के लिए जुगाड़ करता है और धन-संपत्ति जोड़ता है। उसका जुगाड़ होने के बाद वह अपने सम्मान, मर्यादा आदि के प्रति सचेत हो जाता है और अंत में उसे लगता है कि अब बहुत हो गया, अब अपने बौद्धिक पक्ष की आवश्यकताएँ पूरी की जाएँ। प्रभु ने जितनी मेधा और सृजनशीलता दी है, उसका उपयोग करते हुए अपने व्यक्तित्व व चरित्र के चरम प्राप्य को हासिल किया जाए।
दुनिया के इतिहास में हमें ऐसे बहुत से वृत्तान्त देखने-सुनने और पढ़ने को मिलते हैं। हर्षवर्द्धन ने यही किया। अशोक ने यही किया। चार आश्रमों में बँटी भारतीय जीवन-पद्धति भी इसी का आख्यापन करती है। मैस्लो महोदय ने भी अपने समय के कुछ इज्जतदार लोगों के जीवन से दृष्टान्त लेकर जब इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया, तो अपने तईं कुछ गलत नहीं किया।
लेकिन आज जब हम अपने समाज, देश और काल में ऊँचे-ऊँचे मुकामों पर पहुँची हुई हस्तियों, विभूतियों आदि को देखते हैं तो ऐसा लगता है कि अब्राहम मैस्लो को निश्चय ही कोई खूबसूरत मुगालता हो गया था। यदि मुगालता नहीं हुआ होता तो ऐसा क्यों है कि ज़िन्दगी भर दौलत जोड़ने, जीवन के अच्छे से अच्छे साजो-सामान इकट्ठा करने और समाज में बहुत ऊँचे स्थान पर पहुँच चुके लोग भी अब भी सुरक्षा-आवश्यकताओं के पायदान पर दौलत, और अधिक दौलत, और भी अधिक दौलत बटोरने के लिए धरती से आसमान तक के कुलाबे मिलाते दिखते हैं? बड़े-बड़े बाबा लोग जो संसार माया है- सब छलना है- का राग सामान्य जनों को सुनाते फिरते हैं, खुद क्यों काम-वासना के पंक में फँस जाते है? उनके आश्रमों से धन-संपदा के ज़खीरे क्यों बरामद होते हैं और सुंदरियों से संसर्ग के घिनौने कारनामे क्यों उजागर होते हैं?
बड़े-बड़े अमीर और ससम्मानित लोगों के मन में धन और ऐश्वर्य की कितनी लिप्सा है यह देख कर हैरत होती है। धन-संपदा जोड़ने के लिए उन्हें दिन-रात एक करते देख बड़ा अजीब लगता है। भारत के आखिरी बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र ने रंगून में अपनी बदकिस्मती का रोना रोते हुए कहा- इतना है बदनसीब ज़फ़र, दफ्न के लिए दो ग़ज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में। यही तो सच्चाई है जीवन की, फिर चाहे इसपर रोओ या गाओ।
गाँधी बाबा ने इस बात को खूब समझा। इसलिए 30 जनवरी 1948को जब गोली मारकर उनकी हत्या की गई, तब उन्होंने हे राम कहकर अपने आराध्य को याद किया और शांति से प्राण त्यागे। देश आजाद हो जाने के बाद जब कई सारे नेता लोग विभिन्न पद ग्रहण कर रहे थे, बापू कलकत्ता की जलती हुई बस्तियों में जाकर सांप्रदायिक दंगे की आग बुझा रहे थे। उन्हें न सत्ता चाहिए थी, न पद। वे मैस्लो महोदय द्वारा वर्णित सेल्फ ऐक्चुअलाइजेशन की स्थिति में बहुत पहले पहुँच चुके थे।
किंतु समाज के अधिसंख्य लोगों को पैसे-पैसे के लिए मरते देखकर तो यही लगता है कि ज्यादातर लोग अपनी पूरी जिन्दगी सुरक्षा-आवश्यकताओं को ही पूरा करने में सर्फ कर देते हैं। बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो मैस्लो-प्रतिपादित अवस्थाओं के चरम पर पहुँच पाते हैं। और सच कहें तो ऐसे लोगों की सुरक्षा-आवश्यकताएं अथवा निचले क्रम की आवश्यकताएँ पूरी हो गई हों, ऐसा भी जरूरी नहीं है। इसीलिए किसी संत को जब अकबर ने सीकरी आने का निमंत्रण दिया तो उन्होंने न्योता ठुकराते हुए कहा-
संतन को कहा सीकरी सों काम?
आवत-जात पन्हैंया टूटीं, बिसरि गयो हरि नाम।
जाको मुख देखत दुःख उपजत, ताको करनी परी सलाम।
गोस्वामी तुलसीदास ने ऐसी संतई की ओर ही इशारा करते हुए कहा था- माँग के खइबो, मसीत के सोइबो। लेइबे को एक न देइबे को दोऊ। ऐसी फक्कड़ाना अवस्था में कोई पहुँचे तो सेल्फ ऐक्चुअलाइजेशन की अवस्था हासिल हो। कबीर को मयस्सर हुई थी यह अवस्था। इसीलिए उन्होंने छोटे-बड़े सबको घुड़की लगाई और सीधी राह चलने के लिए कहा।
कितने संत और तथाकथित महात्मा लोग इस ऊँचाई पर पहुँच पाते हैं? ऊंची आलीशान कोठियों, बड़ी-बड़ी गाड़ियों, सोने-चाँदी, हीरे-जवाहरात से भरी आलमारियों और मोटे बैंक बैलेंस को ही जीवन का परम प्राप्य समझने वालों और इन सबके निमित्त तरह-तरह के उल्टे-सीधे उपाय करके धन जुटानेवालों को देखकर तो बस यही लगता है कि मैसलो महोदय ने आवश्यकताओं के अनुक्रम का जो सिद्धान्त बनाया था, उसमें अपवादों की संख्या बहुत अधिक है और लगभग निन्यानबे प्रतिशत इन्सान अपवाद की श्रेणी में ही आते हैं। यदि ऐसा न होता तो अपने देश में आए दिन इतने घोटाले क्यों उजागर होते? पदानुक्रम सत्ता के शीर्ष पर पहुँचकर भी लोग चरित्र की ऊँचाई पर क्यों नहीं पहुँच पाते?
हमें तो मैस्लो महोदय की अ थ्योरी ऑफ ह्यूमन मोटिवेशन कुल मिलाकर मुगालते की थ्योरी ही लगती है। यह भी संभव है कि सन् तैंतालीस से अब तक यानी, लगभग सत्तर वर्ष के अंतराल में दुनिया का नक्शा बहुत बदल गया और मैस्लो ने जिन परिस्थितियों की सापेक्षता में अपना सिद्धान्त-कथन किया था, उन परिस्थितियों में आए बदलाव के कारण उनका सिद्धान्त आज के समय में और आज के समाज में उतना प्रासंगिक नहीं रह गया। शायद आज के प्रबुद्ध मनोवैज्ञानिक और चिंतक इस पर टिप्पणी करना चाहें।
डॉ. आर.वी. सिंह
उप महाप्रबन्धक (हिन्दी)/ Dy. G.M. (Hindi)
भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक/ Small Inds. Dev. Bank of India
प्रधान कार्यालय/Head Office
लखनऊ/Lucknow- 226 001
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