ललित गर्ग का आलेख - रक्षाबंधन : प्यार के धागों से जुड़ा पर्व

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- - रक्षाबंधन का त्‍योहार सदियों पुराना है, हर युग में न केवल भाई-बहिनों का अपितु सम्‍पूर्ण मानवीय संवेदनाओं का गहरा संबंध इन प्‍यार के धाग...

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रक्षाबंधन का त्‍योहार सदियों पुराना है, हर युग में न केवल भाई-बहिनों का अपितु सम्‍पूर्ण मानवीय संवेदनाओं का गहरा संबंध इन प्‍यार के धागों से जुड़ा रहा है। एक ऐसा पर्व जो घर-घर में भाई-बहिन के रिश्‍तों में नवीन ऊर्जा का संचार करता है। भाई-बहन का प्रेम बड़ा अनूठा और अद्वितीय माना गया है। बहनों में उमंग और उत्‍साह को संचरित करता है, वे अपने प्‍यारे भाइयों के हाथ में राखी बांधने को आतुर होती हैं। बेहद शालीन और सात्‍विक स्‍नेह संबंधों का यह पर्व सदियों पुराना है। राखी के दो धागों से भाई-बहन ही नहीं, बल्‍कि संपूर्ण मानवीय संवेदनाओं का गहरा नाता रहा है। रक्षाबंधन का गौरव अंतहीन पवित्र प्रेम की कहानी से जुड़ा है। भाई और बहन के रिश्‍ते को यह फौलाद-सी मजबूती देने वाला है। आदर्शों की ऊंची मीनार है। सांस्‍कृतिक परंपराओं की अद्वितीय कड़ी है। रीति-रिवाजों का अति सम्‍मान है।

राखी का त्‍योहार कब शुरू हुआ इसे ठीक से कोई नहीं जानता। कहते हैं देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ तो दानव हावी होते नजर आने लगे। इससे इन्‍द्र बड़े परेशान हो गये। वे घबराकर वृहस्‍पति के पास गये। इन्‍द्र की व्‍यथा उनकी पत्‍नी इंद्राणी ने समझ ली थी। उसने रेशम का एक धागा मंत्रों की शक्‍ति से पवित्र कर इन्‍द्र के हाथ में बांध दिया। वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्‍वास है कि इस युद्ध में इसी धागे की मंत्रशक्‍ति से इन्‍द्र की विजय हुई थी। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन रेशमी धागा बांधने की प्रथा चली आ रही है। शायद इसी प्रथा के चलते पुराने जमाने में राजपूत जब युद्ध के लिए जाते थे तो महिलाएं उनके माथे पर तिलक लगाकर हाथ में रेशमी धागा बांधती थीं। इस विश्‍वास के साथ कि धागा उन्‍हें विजयश्री के साथ वापस ले आयेगा।

पुराने जमाने में रक्षाबंधन का अलग महत्‍व था। आवागमन के साधन और सुविधाएं नहीं थीं। इसलिए ससुराल गयी बेटी के लिए यह सावन के महीने का विशेष पर्व था। राखी के बहाने स्‍वजनों और भाइयों से भेंट की भावना छिपी होती थी। सभी शादीशुदा लड़कियां मायके आती थीं। सखी-सहेलियां आपस मेंं मिलती थीं, नाचती-गाती थी और अपने लगे हाथ सुख-दुख भी मिल-बांट लेती थीं।

महाभारत में भी इस बात का उल्‍लेख मिलता है। युधिष्‍ठिर ने भगवान श्रीकृष्‍ण से पूछा कि मैं सभी संकटों को पार कैसे कर सकता हूं। तब भगवान श्रीकृष्‍ण ने उन्‍हें राखी का त्‍योहार मनाने की सलाह दी थी। श्रीकृष्‍ण ने कहा था कि राखी के रेशमी धागे में वह शक्‍ति है जिससे आप हर विपत्ति से बाहर आ सकते हैं।

एक अन्‍य कथा के अनुसार सिंकदर जब विश्‍वविजय के लिए निकला तो उसकी पत्‍नी ने अपने पति के हिंदू शत्रु महाराज पुरू को राखी बांधकर मुंहबोला भाई बना लिया था और उससे सिकंदर को न मारने का वचन ले लिया था। पुरू ने युद्ध के दौरान हाथ में बंधी राखी का मान रखा और सिकंदर को जीवनदान दे दिया।

राखी की सबसे प्रचलित और प्रसिद्ध कथा के अनुसार मेवाड़ की विधवा महारानी कर्मावती को जब बहादुरशाह द्वारा मेवाड़ पर हमला करने की पूर्वसूचना मिली तो वह घबरा गयी। रानी कर्मावती बहादुरशाह से युद्ध कर पाने में असमर्थ थी। तब उसने मुगल शासक हुमायूं को राखी भेजकर रक्षा की याचना की। हुमायूं ने राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुंचकर बहादुरशाह के विरुद्ध मेवाड़ की ओर से लड़ते हुए कर्मावती और उसके राज्‍य की रक्षा की।

राखी के बारे में प्रचलित ये कथाएं सोचने पर विवश कर देती हैं कि कितने महान उसूलों और मानवीय संवेदनाओं वाले थे वे लोग, जिनकी देखादेखी एक संपूर्ण परंपरा ने जन्‍म ले लिया और आज तक बदस्‍तूर जारी है। आज परंपरा भले ही चली आ रही है लेकिन उसमें भावना और प्‍यार की वह गहराई नहीं दिखायी देती। अब उसमें प्रदर्शन का घुन लग गया है। पर्व को सादगी से मनाने की बजाय बहनें अपनी सज-धज की चिंता और भाई से राखी के बहाने कुछ मिलने के लालच में ज्‍यादा लगी रहती हैं। भाई भी उसकी रक्षा और संकट हरने की प्रतिज्ञा लेने की बजाय जेब हल्‍की कर इतिश्री समझ लेता है। अब राखी में भाई-बहन के प्‍यार का वह ज्‍वार नहीं दिखायी देता जो शायद कभी रहा होगा।

राखी के त्‍योहार का ज्‍यादा महत्‍व पहले उत्तर भारत में था। आज यह पूरे भारत में बड़े उत्‍साह से मनाया जाता है। महाराष्‍ट्र में इसे नारली पूर्णिमा के नाम से मनाया जाता है। लोग समुद्र में वरुण राजा को नारियल दान करते हैं। नारियल के तीन आंखों को भगवान शिव की तीन आंखें मानते हैं। दक्षिण भारत में इसे अवनी अविट्‌टम के नाम से जाना जाता है।

इसलिए आज बहुत जरूरत है दायित्‍वों से बंधी राखी का सम्‍मान करने की। क्‍योंकि राखी का रिश्‍ता महज कच्‍चे धागों की परंपरा नहीं है। लेन-देन की परंपरा में प्‍यार का कोई मूल्‍य भी नहीं है। बल्‍कि जहां लेन-देन की परंपरा होती है वहां प्‍यार तो टिक ही नहीं सकता। ये कथाएं बताती हैं कि पहले खतरों के बीच फंसी बहन का साया जब भी भाई को पुकारता था, तो दुनिया की हर ताकत से लड़कर भी भाई उसे सुरक्षा देने दौड़ पड़ता था और उसकी राखी का मान रखता था। आज भातृत्‍व की सीमाओें को बहन फिर चुनौती दे रही है, क्‍योंकि उसके उम्र का हर पड़ाव असुरक्षित है। बौद्धिक प्रतिभा होते हुए भी उसे ऊंची शिक्षा से वंचित रखा जाता है, क्‍योंकि आखिर उसे घर ही तो संभालना है। नयी सभ्‍यता और नयी संस्‍कृति से अनजान रखा जाता है, ताकि वह भारतीय आदर्शों व सिद्धांतों से बगावत न कर बैठे। इन हालातों में उसकी योग्‍यता, अधिकार, चिंतन और जीवन का हर सपना कसमसाते रहते हैंं।

यदि अपवादों को छोड़ दें, तो अब सामान्‍यतः यह स्‍नेह-संबंध भी पहले जैसा नहीं रहा। क्‍या हो गया भाई-बहिन के इस प्रेम को? आखिर किसकी नजर लग गई इसे? सच तो यह है कि अब वैश्‍वीकरण का दौर है और इस दौर में आदमी मानवीय संबंधों से कटता और अपने में सिमटता जा रहा है। उस पर उपभोक्‍तावादी संस्‍कृति हावी हो रही है। पैसा अब प्रमुख हो चला है और वह संबंधों के निर्वाह पर भी अपना असर छोड़ता है। भाई-बहिन के संबंधों में भी यही बात है। दोनों की ही दृष्‍टि अर्थ और स्‍वार्थ पर गड़ी रहती है। थोड़ी-सी सावधानी और समझदारी बरतकर दरकते-टूटते और बालू की तरह बिखरते रिश्‍तों को बचाया जा सकता है। उनमें पहले जैसा प्‍यार लाया जा सकता है। भाई-बहिन के रिश्‍ते ही क्‍यों, पिता, पुत्र, चाचा, ताऊ, मित्र, पड़ोसी आदि लोगों के साथ भी जो रिश्‍ते होते हैं, उन्‍हें भी कडुवाहट की जगह, मिठास में पाला जा सकता है। जरूरत है ‘मैं और तुम' की जगह ‘हम' की भावना पैदा करें। खुशियां बांटने से ही खुशियां मिलती हैं। अगर जीवन में पारम्‍परिक संबंधों के प्रति हमारा तनावरहित सुखद लगाव है, मन में उल्‍लास का, उत्‍साह का भाव है और फलतः जीने की चाव है, तो त्‍योहार भी महज खानापूरी न होकर हमें सचमुच त्‍योहार जैसे लगेंगे और अपनी सार्थकता को सिद्ध करेंगे।

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(ललित गर्ग)

ई-253, सरस्‍वती कुंज अपार्टमेंट

25 आई. पी. एक्‍सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्‍ली-92

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ललित गर्ग का आलेख - रक्षाबंधन : प्यार के धागों से जुड़ा पर्व
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रचनाकार
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