कहानी बांध का आषाढ़ डा 0 रमाशंकर शुक्ल दो दिन से घर में टसल चल रहा है। पिताजी बात-बात में झल्ला जा रहे हैं। वे कतई मानने को तैयार नहीं...
कहानी
बांध का आषाढ़
डा0 रमाशंकर शुक्ल
दो दिन से घर में टसल चल रहा है। पिताजी बात-बात में झल्ला जा रहे हैं। वे कतई मानने को तैयार नहीं कि ये दोनों अब लड़के रह गये हैं। अम्मा ने कल आखिरी कोशिश की थी, लेकिन पिताजी झल्ला गये। तीन-चार थप्पड़ मां को रशीद कर दिये। बउरा गये हैं लगता है।
जब से घर में बवाल शुरू हुआ है, अम्मा की नींद और भूख उखड़ गयी है। पिताजी घर के सरदार। उन्हें पहले भोजन कराने की परंपरा है। सरदार ने भोजन कर लिया तो परिवार के शेष लोगों को भोजन की स्वीकृति। इसके बाद ही पांचों बेटे-बेटियों को भोजन परोसना है। ससुराल में आने के बाद मां को परदादी और बाद में दादी ने यही सिखाया था। तब से यही क्रम चला आ रहा है। सरदार ने भोजन नहीं किया तो समझ लीजिए घर में सुख-शांति नहीं। कोई बात है जरूर जो घर की व्यवस्था या किसी बड़ी आपदा की ओर संकेत कर रही है। सरदार को पूरा हक होता था कि भोजन में स्वाद की कमी हुई तो वह परोसी हुई थाली मां पर दे मारे। बच गयी तो उसका भाग्य। थाली दीवार से टकराकर झनझनाते हुए कुछ सेकेण्ड नाचती रहती। घर का कोना-कोना सहम जाता। गांव-घर की कितनी औरतों के लिए यह नजारा आये दिन भोगने को मिलता। सरदार का भोजन किसी बड़े अधिकारी के औचक निरीक्षण से कम न होता।
अम्मा को कहां इतना हक था कि पिताजी के किसी फैसले में दखलंदाजी करती। उन्होंने एलान कर दिया है कि अब इन दोनों छोकरों के लिए हमारे घर में कोई जगह नहीं तो नहीं। दोनों को घर छोड़कर जाना ही होगा। पिताजी काफी देर तक चीखते रहे-‘इण्टर तक तो पढ़ा दिया। जिसके इतने बड़े-बड़े बेटे हैं, उसका दुःख-दलिद्दर दूर हो गया। ई स्साली इन्हें चूजों की तरह से रही है। फलां-फलां के बेटे अंटी छोड़ बंटी मार रहे हैं। और यहां है कि दोनों मेरा खून पीने पर अमादा हैं।'
‘आखिर कितनी उम्र ही है भला इनकी। बार-बार इंटर-इण्टर कर रहे हैं, देह नहीं देखते कैसी कोयला हो गयी है। अभी तो बीमारी से उठा है छोटका। बड़के की भी तबियत ठीक नहीं रहती। इन्हें देखकर दया नहीं आती आपको? कैसा कलेजा है आपका और कैसे के बाप हैं आप?' अम्मा ने पहली बार हस्तक्षेप करने की कोशिश की थी।
पिताजी चीखने लगे, ‘तू ही है घर नाशने वाली। उनकी सूरत तो तुम्हें बड़ी भोली लग रही है और मैं तुम्हें हट्टा-कट्टा नौजवान लग रहा हूं। पूरी जिन्दगी इन्हीं केकड़ों को पालने में गुजार दी। आज मैं बूढ़ा हो गया हूं, तो भी सोचती हो कि इन शोहदों को खिलाता रहूं। अब भाग जा नहीं तो यही तेरी और तेरे लाडलों की अर्थी गिरा दूंगा।' पिताजी क्रोध से कांप रहे थे।
अम्मा खामोश हो गयी। ऐसा नहीं कि वह प्रतिवाद नहीं कर सकती। लेकिन, मायके में रहकर ऐसा करना शोभा देगा? ससुराल में तो ठिकाना नहीं ही लगा, मायके की जमीन से भरण-पोषण हो रहा है। खेत मिल गया तो यही सब आकर जम गये। क्या खट दिया। जमीन तो हमारे बाप ने ही दी। उसी जमीन से तुम्हारे बाप ने पंद्रह बीघा और बना लिये। न मिला होता खेत तो अरवा-भुजिया पता चल जाती। पगला गये हैं। जैसा बाप ने किया, वैसा ही अब बेटों के साथ कर रहे हैं। बड़ी बेटी ब्याहने को हुई तो अलगौझी कर दिये। रात में सोये तो थे दोनों भाई और बाप गड़ांसा लेकर मारने को पहुंच गये। वो तो भला हो नन्हकऊ भाई जी का, जो ऐन मौके पर पहुंच कर बचा लिये। क्या-क्या हथकंडे नहीं अपनाये इन्हें मारने के लिए। कुल करम तो कर डाले।
अम्मा के सामने पूरा अतीत घुमड़ते हुए गड्डमगड्ड हो रहा है। पांच बेटियां, तीन बेटे और खुद दोनों परानी। अलगौझी में देगची भी न मिली। चौथे दिन छोटे काका के घर से आटा-नीमक मिला। तब कहीं जाकर बच्चों के पेट में निवाला गया। पेट में अन्न जाते ही कैसे तो तुरंत सो गये थे बच्चे। फिर कैसे कटती रही जिन्दगी। अक्सर फांका, कभी-कभी चूनी चोकर। साल दो साल पर हैण्डलूम वाली धोती। आठ महीने गुजरते-गुजरते फट जाती। फिर शुरू होता चकत्ती देकर पहनना। ब्लाउज तो मिला ही नहीं। पूरी जवानी उसी चकत्ती लगी धोतियों से छिपते-छिपाते गुजर गयी।
उस रात अम्मा की आंखों में नींद कहां। सरदार खा चुके थे। यह सब उनके खाने के बाद ही तो हुआ। अम्मा-पिताजी में कभी विवाद होता है तो पूरे परिवार को जैसे सांप सूघ जाता है। बच्चे सांस रोककर जहां हैं, वहीं काठ हो जाते हैं। पिताजी की मलामते झेल अम्मा लौटी तो बुझे चूल्हे की तहर रसोई में बैठ गयी। पांचों बच्चे आज बिना बुलाये आंगन में आ बैठे। कोई कुछ बोलता नहीं। मां ने एक ही थाली में खाना निकाल दिया। सब खाने लगे। सबके सिर झुके हुए हैं। आपस में कोई बात नहीं करता। अम्मा चूल्हे की राख खुडि़हार रही है। राख में उसकी आंखों से कुछ बूंदे टपक कर सूख जाती हैं। कितनी बूंदें गिरीं और सूखी, कोई नहीं देखता। मां ने कभी बूंदों के निकलने का प्रदर्शन नहीं किया। कई प्रकार की राखें थीं, जो मां की आंखों की बूंदों को सोखती रहतीं। मां उन बूंदों को सुखाती रहती। बचाती रहती कि बूंदों का गीलापन, उसमें से निकलते कांटेदार बिरवे कोई देख न ले। लेकिन एक जोड़ी आंख इन बूंदों का टपकना और सूखना लगातार देख रही है। उसका हिसाब रख रही है। वह एक जोड़ी आंख छोटका की है। हर बूंद उसके लिए तेजाब की तरह झुलसने वाला प्रतीत होता है। उसकी भूख भी मां की बूंदों की तरह सूख रही है। चार निवाला बड़ी मुश्किल से पेट में डाल पाये कि मालूम हुआ उल्टी हो जायेगी। हाथ धोने लगा। अम्मा ने सिर घुमाकर बूंदें पोछी, पलट कर पूछा, ‘खाये नहीं?'
‘नहीं रे अम्मा। आज मामा के यहां खा लिया था। भूख नहीं थी। तुम्हारे डर से खाने बैठ गया।'
अम्मां कुछ न बोली। सिर झुका ली। छोटका झिलगी चारपाई पर आंख बंद किये पसर गया। अन्य भाई-बहनें भी चुपचाप अपने-अपने बिस्तरों पर लोट गये। अम्मा ज्यों की त्यों चूल्हे के पास रख खुडि़हारती रही। बच्चों के सो जाने का पूरा भरोसा होने तक। फिर पांव दबाकर उठी और छोटका की झिलगी के पास जमीन पर ही लुढ़क गयी। छोटका देख रहा है सब। उसने देखा कि अम्मां ने खाना न खाया। पिताजी घर होते हैं तो अम्मा का अधिकांश दिन ऐसा ही गुजरता है। और तब वह छोटका के पास ऐसे ही लुढ़क जाया करती है। क्यों? और किसी के पास क्यों नहीं? इसलिए कि छोटका में उसे उम्मीद नजर आती है। वह अम्मा के मन के ज्यादा करीब है। सबसे करीब भी और सबसे दूर भी। दूर इसलिए कि चिड़चिड़ा जाता है तो किसी की नहीं सुनता। सबसे ज्यादा वही झगड़ता है अम्मा से। सबसे ज्यादा करता भी वही है अम्मा का। उसे बातें चुभती हैं। जो चुभती हैं, उसके लिए लगातार परेशान रहता है। वह घर को सबसे अधिक समझता है। पिताजी को भी अम्मा को भी। अक्सर वह बड़े द्वंद्व में होता है कि पिताजी गलत हैं या अम्मा या फिर हम लोग।
आसमान में तारे छितराये हुए हैं। वह धु्रव तारे को खोज रहा है। सप्तऋषियों का झुण्ड तो वो रहा, पर धु्रव कहां है? आज सप्तऋषियों की जरूरत नहीं। नहीं, नहीं। सप्तऋषियों की क्यों नहीं? वे भी तो जा रहे हैं किसी डकैत को बाल्मीकि बनाने। बाल्मीकि बनेगा, तभी तो नया इतिहास रचेगा। लेकिन आज इतिहास रचने की क्या जरूरत। उसे कोई इतिहास थोड़े ही रचना है। उसे तो पिता की उपेक्षा का प्रतिकार करने वाला धु्रव चाहिए। पांच वर्ष का ही तो था धु्रव। उत्तानपाद ने अपमानित कर दिया। निकल गया जंगल। कठोर तपस्या की। हारकर विष्णु जी को आना पड़ा। आज धु्रव अपने बूते आसमान में अपनी जगह बनाये बैठा है। ध्रुव का मिथक उसके द्वंद्व को कम रहा है। पांच वर्ष का धु्रव और इतनी कठोर तपस्या! मैं तो पूरे सत्रह का हूं। धु्रव की मां की तरह अम्मा का दुःख नहीं झेल पायेगा? वह पिता की चुनौती को स्वीकार करेगा। वह घर छोड़ेगा। घर के भरण-पोषण का जिम्मा संभालेगा। तब फिर पढ़ाई का क्या होगा?
छोटका सोच में पड़ गया। उसे पिताजी की सूखती लालसाएं याद हो आयीं। साइकिल पर दीदी और छोटका को बैठाये पूरे चालीस किलोमीटर दूर शहर पढ़ाने ले गये। उस समय साधनों की बड़ी कमी थी। सरकारी बस तो तीन घंटे के अंतराल में चलती, पर तीन लोगों का टिकट और साइकिल किराया अलग से। पिताजी ने किराये तो बचा लिये, पर उस पैसे से हमें गुलाब जामुन खिला दिये। खुद कुछ न खाये न पीये। तीस साल पहले ससुराल से ब्याह में मिली साइकिल आज तक टंच थी। आगे वाले डंडा पर बड़ी धोती का मोटा सा सीट बना दिये। छोटका दोनों ओर पांव पसार कर बैठ गया। कैरियर पर दीदी। छोटका आगे बैठा भागती हुई साइकिल का मजा ले रहा था। वह पहली बार साइकिल से इतनी दूर की यात्रा कर रहा है। देख रहा है कि पेड़-पौधे दौड़ रहे हैं। जंगल दौड़ रहा है। पहाड़ दौड़ रहे हैं। गाडि़यां दौड़ रही हैं। सब दौड़ ही तो रहे हैं। तब जिज्ञासावश उसने पूछा था, ‘पिताजी जब साइकिल चलती है तो पेड़, जंगल, पहाड़ दौड़ने क्यों लगते हैं?'
चढ़ाई पर पावदान मारते-मारते जांघ भर आयी थी। फिर भी पिताजी को गुस्सा न आया। पसीना पोछकर मुस्कुराते हुए बोले, ‘पेड़, जंगल, पहाड़, गाडि़यां कहते हैं कि हम तुमसे तेज दौड़ लेंगे। तुम अकेले दौड़ने वाले नहीं हो।'
‘तब तो पिताजी आप और तेज चलाइए। इन पेड़ों, जंगल और गाडि़यों को पछाड़ दीजिए।'
सामने ढलान था। साइकिल की रेस खुद ब खुद चालीस किलोमीटर प्रतिघंटा हो गयी। अरे, यह क्या! पेड़़-जंगल तो और तेज दौड़ने लगे। छोटका फेर में पड़ गया, ‘पिताजी, आप जितनी तेज साइकिल दौड़ा रहे हैं, ये सब उतनी ही तेज दौड़ने लग रहे हैं?'
‘हां छोटका, इन पेड़ों से सीखो। ये कभी नहीं पिछड़ते। जो दौड़ेगा, वही मौजू रहेगा। वही हरा-भरा रहेगा। मतलब, खुश रहेगा। हरा भरा माने प्रसन्न रहना।' और फिर पिताजी ने टेर दिया ‘हरा रंग है हरी हमारी, सादा है सच्चाई
केसरिया बल भरने वाला, धरती की अंगड़ाई।'
हमने भी सुर मिलाये। पूरे तीन घंटे लगातार चलने के बाद शहर आ गया।
‘अरे बाप रे! इतनी गाडि़यां, इतने मकान और वो भी पक्के का। अरे रज्जा, इतना बड़ा आदमी खंभे पर खड़ा है। दीदी, दीदी, वो देखो बड़ी-सी गुवाली आ रही है।' छोटका चहक रहा था।
पीछे से दीदी झांकी, ‘कहां रे, कहां? अरे हां। बाप रे। पिताजी ये काटेगी नहीं?'
‘न् ना रे, ये गुवाली नहीं, रेलगाड़ी है।'
इस तरह कितनी ही बातें छोटका के दिमाग में घूम रही हैं। उसे वह भी याद है, जब पिताजी उसे गंगाजी घुमाने ले गये थे। तब देखते ही वह चिल्लाया था, ‘अरे रज्जा, ई देखो समुद्र।' तब पिताजी ने बताया था कि ये गंगा नदी हैं। छोटका ने हाथ जोड़ लिये थे। गंगा मइया की महिमा उसने अम्मा से खूब सुनी थी। अम्मा ने बताया था कि गंगा मइया को देखकर कभी कुछ उल्टा-पुल्टा नहीं बोलना चाहिए। सोते समय अम्मा ने कहानी सुनाई थी, ‘एक चिबिल्ला लड़का अपने अम्मा-बाबू के साथ गंगा नहाने गया। उस समय गंगा में पानी कम था। उसने गंगा मइया का मजाक उड़ाया। कहा कि इत्ते पानी पर ही सब इसकी पूजा करते हैं? एक बार कहा, गंगा मइया कुछ न बोलीं। दो बार कहा, गंगा मइया कुछ न बोलीं। लेकिन, तीसरी बार गंगा मइया से न रहा गया। एक जलजला आया। अचानक पानी का एक लहरा सौ मीटर ऊपर से हरहराता हुआ आया और बच्चे को बहा ले गया। उसकी मां बहुत रोई। पिता भी रोये। फिर क्षमा मांगे। मिन्नत की कि मेरा बच्चा वापस कर दोगी तो तुम्हारी पूजा करेंगे। गंगा मइया को दया आ गयी। अचानक पानी कम हो गया। गोंद में बच्चे को लेकर गंगा मइया खड़ी हो गयीं।'
ना बाबा ना। वह कुछ नहीं बोलेगा। यहां तो अम्मा भी नहीं है कि उसके मनाने से गंगा मइया मान जायेंगी।
पिताजी कक्षा नौ फेल। फिर भी हाईस्कूल वालों को ट्यूशन पढ़ाते। गंगा के मुर्दहिया घाट पर अहाते में एक कमरे का डेरा रहता। छोटका और दीदी दो साल के छोटे-बड़े। बड़े भइया स्कूल चले जाते तो वे ही दोनों जन एक दूसरे के संगी-साथी, माई-बाप। खाना न रहता तो रोने लगते। रोते-रोते एक-दूसरे के आंसू पोछते। एक दूसरे के गले में हाथ डाले सो जाते। पिताजी चार बजे भोर ही ट्यूशन निकल जाते। दस बजे आकर नहाते-खाते। फिर दो बजे से निकलते तो रात के दस बजे ही लौटते। बीच-बीच में छोटका को बैठाकर पढ़ा देते।
गृहस्थी की गाड़ी खींचे न खिंचती थी। अपना ही खर्चा काटना मुश्किल था ऊपर से ढेर सारे कहां-कहां के रिश्तेदार। मामा के साले के साले, बूआ के ननद के ननदोई-ननद। कोई अस्पताल आया है तो कोई कचहरी। मामा-मौसा, गांव-जवार के लोग उसी अदद दरबे में धंस जाते। जाड़े में मुश्किल होती। गांव पर वर्ष दर वर्ष सूखा पड़ता जाता। ट्यूशन जीरा साबित होने लगा। पिताजी ने सिनेमाहाल के सामने पान की दुकान कर ली। पहला शो शुरू होने के एक घंटा पहले यानी दोपहर ग्यारह बजे दुकान खुल जाती तो रात के आखिरी शो के बाद बंद होती। पिताजी मेहनतकश। पूरी जवानी पत्थर तोड़ते बीती थी, इसलिए शरीर भी पत्थर हो गया था। ऐसे में दिन भर पालथी मारकर बैठने से घुटने दुखने लगते। एक पनेरी की बिसात ही क्या। सिनेमाहाल पर क्या अच्छे लोग ही जाते हैं? तीन चौथाई शोहदे और सिरफिरों का जमघट, ‘ऐ पंडित, पान लगा जल्दी।' तो कोई गुंडा पान खाकर चल देता। पैसा मांगने पर पिच्च से भद्दी-सी गाली। चौथे-पांचवें दिन टिकट को लेकर मारपीट तय। कभी बम फूटते और कभी गोली चल जाती। जिस दिन गाली-अपमान सह कर पिताजी लौटते तो पांव ग्लानि-क्षोभ से शराबी की तरह लड़खड़ाते हुए जमीन पर पड़ते।
साढ़े बारह बजे रात सड़कों की पहरेदारी कुत्तों के हवाले हो जाती है। उन्हें पता नहीं कौन-सा भ्रम है कि वे अपने अलावा सब को चोर ही समझते हैं। पुलिस वालों की तरह वे भी बिना टोके नहीं रहते। कोई-कोई तो चुपके से आकर काट लेता, उसके बाद भौंकना शुरू करता। कुछ दुम हिलाते आते तो लगता कि प्यार करना चाहते हैं, पर अचानक दांत गड़ाकर रफूचक्कर हो जाते। दर्जनों लोग इस तरह के शिकार हो चुके थे। इसलिए पिताजी ने दो हाथ का एक बलघोटना (डंडा) ले रखा था। उसी के सहारे सड़क-गली पार कर घर लौटते। मुर्दहिया घाट का यह खंडहर सांय-सांय करता। छोटका-दीदी को एक दूसरे से गलबहियां सोते देख पिताजी भावुक हो जाते। हाथ-पांव धो ठंडा भोजन करने के बाद बिन मां के बच्चों को घंटों निहारा करते। जिस दिन अपमानित हुए होते, उस दिन छोटका का पांव दबाते। सोयी अवस्था में छोटका पत्थर सरीखा रगड़ खाता तो आंख खुल जाती। पिताजी रोते रहते, पांव दबाते रहते। जैसे अपमान का बदला ले रहे हों। कि अपने लाल को अपमान का बदला लेने को ठोंक-पीटकर तैयार कर रहे हों। क्या मालूम। हां, अक्सर ऐसा होता कि पिताजी मालिस करते-करते वैसे ही सो जाते। सुबह पिताजी को पांव के पास देख बड़ी लज्जा का अनुभव होता। छोटका को रात की बात बिल्कुल न भूलती। आखिर क्यों पिताजी रात को मालिस करते हैं? दीदी के पास भी इसका उत्तर न होता।
वर्ष दर वर्ष गुजरते जा रहे थे, पर पिताजी के ढर्रे में कोई बदलाव नहीं। जिन्दगी एक अनगढ़ मशीन की तरह बेपटरी गुजर रही थी। बड़े दो साल फेल हो चुके। छोटका पांचवीं में जा पहुंचा। माह भर की बीमारी के बाद भी आठ विद्यालयों की प्राथमिक बोर्ड की परीक्षा में अव्वल आया। उस दिन पिताजी का कलेजा चौड़ा हो गया। एक साथ दो दर्जन मोटे गुच्छे वाले केले घर लाये। छोटका को पूरी आजादी मिली कि जितना खा सकता है, खाये। छोटका टूट पड़ा। एक केला, दो केला खा गया, पर तीसरे में मुंह बंधने लगा। पिताजी कह रहे हैं, ‘और खा लो बेटा। सब तुम्हीं लोगों के लिए लाया हूं।' पर क्या खाक खाये। चिपकी अंतडि़यों में कितनी जगह होगी? उसी दिन पिताजी ने छोटका को गोंद में उठाया। आंखों में आंसू छलछला गये। संभाल कर बोले, ‘छोटका, जानते हो तुम लोगों को यहां क्यों लाया हूं?'
छोटका को क्या पता कि किस लिए लाये।
भर्राये गले से पिताजी बोले, ‘छोटका, मैं ठहरा कक्षा नौ फेल। जिन्दगी भर बाबू की ठटवारी की। भाई-बहनों को पढ़ा-लिखाकर ब्याह दिया। नौकरी लग गयी। और मुझे दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंका। अब वे मुझे हिकारत की नजर से देखते हैं। मेरी एक ही तमन्ना है बेटा कि तुम लोग पढ़-लिखकर इतने बड़े जरूर हो जाओ कि कोई ये न कहने पाये कि फलनवा मजदूर था, इसीलिए उसके बेटे मजदूरा ही रह गये। हम चाहते हैं कि सब यह कहें कि भले ही फलनवा मजदूरा था, लेकिन उसके बेटे काबिल निकले।' आगे न बोल सके। बस हों, हों कर रोते रहे। छोटका तब ज्यादा न समझ पाता था, पर बाप को रोते देखा तो उसे भी रुलाई आ गयी। पिता के साथ वह भी रोता रहा।
पिताजी नौ दिन नवरात्र व्रत रहते। रामचरित मानस का नवाह्न पारायण करते। कलश स्थापित करते और जितनी देर पूजा करते, दरवाजा बंद रहता। पाठ करते-करते पता नहीं क्या हो जाता कि पिताजी वैसे ही रोने लगते, जैसे अपने छोटका के सामने रोये थे। दशरथ का पुत्र प्राप्ति के लिए विलाप हो, राम के धनुष तोड़ने की खुशखबरी हो, राम का वनवाश हो, दशरथ का मरण हो, पिताजी उन भावभूमियों से एकाकार हो जाते। कहना मुश्किल होता कि तब उनमें कितना रामायण का दर्द रहता और कितना रामायण में उनका दर्द। दशरथ और पिताजी का दुःख मिलकर एकाकार हो जाता। पिताजी दशरथ का दुःख कभी नहीं बर्दाश्त कर पाये। नवरात्र, रोजमर्रा की पूजा या फिर रामलीला में दशरथ के अभिनय में।
गांव में रामलीला शुरू होने वाली थी। दशरथ का किरदार ठीक से मिलता न था। सबने पिताजी को मनाया। राजा-सा चेहरा लगता भी था। दाढ़ी की जरूरत न पड़ी। पिताजी की खिचड़ी दाढ़ी दशरथ जैसी ही थी। पिताजी ने दिन भर दशरथ के पाठ का रट्टा मारा। भर्राटा याद भी हो गया। रामलीला शुरू हुई। सुमंत जी राम के बिना लौटे हैं। दशरथ से सारी परिस्थिति बतानी है, लेकिन दशरथ कुछ पूछें तब तो। सूत्रधार ने संकेत किया कि बिना कुछ पूछे ही बताओ। सुमंत जी राधेश्याम बोल में गाते हुए राम के मुंह मोड़कर जाने और घोड़ों के हिनहिनाने की दास्तां जो बतानी शुरू की तो दशरथ जी की आंखों से धार बह उठी। जमीं से उठना चाहे, पर वास्तव में नहीं उठ पाये। मुंह से बस ‘राम, राम' निकल रहा है। आयोजक परेशान, पब्लिक रो रही है। कुछ जानकार लोग भी हैरान। क्या हुआ? दशरथ-सुमंत संवाद काट दिया गया क्या! नहीं कटा नहीं, ये भाव विभोर हो गये हैं। मुंह से भेकार ही नहीं फूट रही। अरे, ये तो तड़प रहे हैं। सुमंत को रोका गया। पाठ बंद कीजिए। सुमंत ने पाठ बंद किया। सूत्रधार ने संभाला और पर्दा बंद हो गया। पिताजी मंच से उतारे जाने के बाद भी घंटों बेचैन रहे। बल्कि वह रात उनके लिए भारी थी।
तब मात्र एक दीदी की शादी हुई थी। चार दीदियां ब्याहने को बची थीं। दो-तीन साल के अंतराल की सबकी उम्र। ब्याह का सिलसिला हर दूसरे-तीसरे साल चलना था। रोटी चलना मुश्किल था, व्याह को कहां से पैसे अंटे। पिताजी देखुहारी जाते, निराश होकर लौट आते। ब्राह्मण बिरादरी की यही तो विडंबना। कहने को तो सबसे बड़ा चिंतक वर्ग और लड़के बच्चे रक्तबीज की तरह। अधिकांश के दिमाग घुटने में। उत्तर प्रदेश के सरयूपारीण ब्राह्मणों में 80 फीसदी ब्राह्मण परिवारों के पास शिक्षा के नाम पर सड़ी-गली मूढ़ परंपराओं के ज्ञान के अलावा कुछ नहीं। लड़के तभी तक पढ़ाए जाते, जब तक कि ब्याह न हो जाये। ब्याह के दस दिन के भीतर ही पढ़ाई छूट जाती और जनाब मुंबई, सूरत, कोलकाता यानी देश-परदेश कमाने निकल जाते। जिनके घर शादी लायक लड़का हो गया, देखुहारों को आकर्षित करने के लिए उस साल कई कदम उठाये जाते हैं। मसलन, लगन के एक दो माह पहले पड़ोसी के मवेशी दरवाजे पर बांध दिये जाते हैं। बैठक की साफ-सफाई कर सजा दिया जाता है। आसपास के लोगों से चौकी-कुर्सी आदि मंगाकर रख दिया जाता है। देखुहारों को दस धुर जमीन के बदले दस बीघा बताया जाता है। एक दो बिचौलिये तारीफ करने के लिए छोड़े जाते हैं। जो फंसा तो फिर जिंदगी भर के लिए। बचवा सूरत-बंबई, नई-नवेली दुल्हन घर में सास का पांव दबाए। बहुत से माई बाप तो बेटे के सरकारी नौकरी में चयन की घोषणा कर देते हैं। वो तो बाद में पता चलता है कि सब फर्जी था। ऐसे लोग जिन्दगी भर छछूदर की तरह गांव में इस घर से उस घर के पचकूट में जिन्दगी गुजार देते हैं। तिस पर भी तुर्रा यह कि वर-विदाई शान की होनी चाहिए। दस घर छानो तो कोई एक कायदे का लड़का मिले। कायदे का है तो माई-बाप की दहेज की बोली लाख-पचास हजार।
पूरे छह माह बीत गये। लड़का मन का न मिला। मिलता कैसे? पाकेट में फूटी कौड़ी नहीं और दूल्हा चाहिए धीरोदात्त, धीर ललित। पिताजी की पीड़ा थक्के की तरह जमी रहती। सुबह पूजा को बैठते तो भगवान के सामने सब आंसू बनकर गलने लगता। यह सिलसिला पांचों बार जारी रहा।
भगवान ने सुन लिया। तीन बहनें ब्याह दी गयीं। पूरी तरह इच्छा के अनुकूल। घर वर ठीक रहा।
छोटका को ध्रुव तारा दिख गया है। वह चमक रहा है। वह उसमें अम्मा की उम्मीद देखता है। पिताजी का विश्राम देखता है। भाई-बहनों का भविष्य दिखता है। तभी बादल का एक टुकड़ा आकर ध्रुव को ढंक लेता है। छोटका फिर बीते घटनाक्रम की ओर लौट आता है। तीसरी दीदी का ही तो ब्याह बीता है। कैसे हो गया, पिताजी के राम जानें। सप्ताह भर के भीतर ही सब हो गया। पिछले सात साल से पड़ रहे सूखे ने घर की कमर तोड़ दी है। पिताजी जीवट आदमी। जमीन का एक टुकड़ा तक न बेचे न गिरवी रखे। दीदी को देने के लिए उनके पास एक चारपाई भी न थी न दी गयी। बस उबटन लग गया। एक धोती पहन ली और मांग में सिंदूर सजा दिया गया। बारात आयी और दीदी चली गयी।
दीदी का इस तरह जाना छोटका को झकझोरता रहा है। पिछले पंद्रह दिनों से वह दीदी को याद कर बेचैन हो जाता है। रुलाई नहीं आती। चक्कर सा आता है। दीदी बालसखा, बहन, गुरु, माई-बाप, बल्कि सारा संसार। पिताजी के साथ साइकिल से छोटका के साथ दीदी ही तो गयी थी। एक ही कक्षा में पढ़ना। मां के लिए साथ-साथ तड़पना। भूख से तिलमिलाने पर साथ में विकल्प के रूप में नमक पानी घोलकर पीना। कभी न पिया जाये तो अमचुर और थोड़ी मिर्च डाल लेना, सब दीदी के ही तो साथ था। ढाई साल बड़ी दीदी के जिम्मे डेरे का सारा काम। चूल्हे पर भुक्खड़ रिश्तेदारों की जमात के लिए रो-रोकर रोटियां पकाना। बरतन माजना, पानी भरना, झाड․ू बुहारू के साथ स्कूल जाना। जैसे वह चौथी कक्षा की छात्रा नहीं, बल्कि भरी-पूरी औरत हो। छोटका को दीदी का इस तरह खटना अखरता। लेकिन कैसे करे। दीदी ने उसे आंटा गूथना सिखा दिया। अब वह छोटी-छोटी हथेलियों के मुक्के बनाकर पूरे बल से आंटे को गूंथता। जब तक कि दीदी पूर्ण रूपेण गूंथने का सर्टीफिकेट न दे देती। धीरे-धीरे उसने चिमटा पकड़कर रोटी सेंकने की ट्रेनिंग लेनी शुरू की। अब वह आंटा गूंथकर रोटी सेंकने का जानकार हो चुका है। दीदी अब उसे बर्तन माजना सिखा रही है। इस तरह एक-एक कर उसने चूल्हा पोतना, सब्जी चीरना, छौंकना, दाल पकाना सीख लिया। सबसे ज्यादा कठिनाई भात पकाने में हुई। तब कूकर का शायद चलन न था। पुराने चावल में कम संकट होता, लेकिन नये चावल में संकट ही संकट। कभी नीचे से धुंआ फोड़ दे तो कभी पानी ज्यादा हो गया। कभी माड़ ज्यादा होने से पनछोछो। ऐसे में दीदी की पीठ-पूजा की संभावना तैयार रहती। आनन-फानन दीदी दूसरा चावल पकाती। लेकिन बिना गुस्सा हुए। कहती, ‘चल, धीरे-धीरे सीख जायेगा। एक दिन में थोड़े ही कोई सीखता है।'
घर-गृहस्थी से खाली होकर हम कपड़े के गुडि़या-गुड्डा में तल्लीन हो जाते। नयी गुड्डे के जन्म पर दीदी सोहर गाती। हम कहते ‘तू लड़के का सोहर गा, मैं लड़की का गाऊंगा।'
दीदी कहती, ‘धत् कहीं लड़की का भी सोहर गाया जाता है पगला।'
‘काहे? लड़की क्या आदमी नहीं होती?'
दीदी मुंह दबाकर हों-हों हंसती, ‘पागल कहीं का। लड़की तो लड़की होती है, आदमी थोड़े होती है। लड़का आगे बढ़कर आदमी होता है और लड़की आगे बढ़कर औरत होती है।'
‘तो क्या हुआ। जीव तो है? उसके भी तो दिल-दिमाग होते हैं? हमारी तरह वह भी सोचती है, खाती है, जीती है सोती है।'
लेकिन दीदी हमारी मूर्खता पर बस हंसती ही रहती।
गुड्डी के ब्याह में दीदी विवाह गीत गाती और छोटका उसका साथ देता। इत्ती छोटी सी उम्र में कित्ता कुछ याद है दीदी को- सोहर, वंदा, विवाह, उठान, द्वारचार, मंगल गीत, गारी, गौना- सब कुछ। छोटका दीदी का भक्त है।
चारपाई पर पड़े-पड़े छोटका गुनगुना रहा है-
‘एक वन गइले, दूसर वन गइले
तीसरे में लागि पियासि जी
बंसवा के कोठिया से निकलिनि सीता देई
एक हाथे लोटा पानी जी।
केकरि हऊ तू बारि बिटियवा
केकर सुत बहुआरि जी।
राजा जनक जी क बारी बिटियवा
दशरथ सुत बहुआरि जी।'
छोटका चौंका। पिताजी नाटक में राम का वन गमन नहीं सह पाये और आज न जाने पर गरिया रहे हैं। क्या वास्तव में दशरथ के कहे राम वन न जाते तो पिताजी की तरह वे भी गरियाने लगते? क्या पता? लेकिन पिताजी की तरह वे भी तंगहाली से गुजर रहे होते तो गरियाते क्यों नहीं। फिर पिता की बात न मान राम ऐंठ कर जाकर महल में आराम फरमाने लगते तो सह लेते दशरथ? कभी नहीं। वो तो राम ने भावनात्मक सत्याग्रह सा कर दिया न। जाना था अकेले राम को। लक्ष्मण को लगा अन्याय हो रहा है। ऐसे बाप-माई के पास कौन रहेगा। घृणा हो गयी होगी। जब सौतेला भाई अन्याय नहीं बर्दाश्त कर पाया, तब सगी पत्नी किस मुंह से अयोध्या में रहे। ब्याह हुआ है राम से। साथ न गयीं तो देश-जहान क्या कहेगा। राजा की बेटी थीं तो क्या हुआ, इतना तो पता ही है कि जो लोग साथ जाने पर रोयेंगे, वहीं न जाने पर पता नहीं क्या-क्या कहेंगे। तीन लोगों ने एक साथ घर छोड़ दिया, इसलिए दशरथ को अफसोस हुआ। उन्हें ग्लानि हुई। इतनी कि पश्चाताप में मौत हो गयी।
छोटका को रास्ता मिल गया। वह भी जायेगा। जरूर जायेगा। चला जायेगा तो पिताजी को जरूर अफसोस होगा। पढ़ाई छोड़ने को बोल रहे हैं, ऐसे ही नहीं। निश्चित ही वे संघर्ष से हार गये हैं। जीवन का सबसे बड़ा सपना भला कोई ऐसे ही छोड़ देता है?
‘अम्मा, मेरा निक्कर और दो ठो रोटी झोले में डाल दे। मुझे जाना है।' सुबह कुंआ से नहा कर लौटते ही छोटका ने फैसला सुना दिया।
मां ने हैरत से देखा, ‘कहां?'
‘शहर।'
‘कहां रहेगा? क्या खायेगा?'
‘ऊपर वाला जाने। राम को जंगल में खाना मिल गया तो मुझे शहर में भी नहीं मिलेगा?'
मां फटी-फटी निगाहों से देखती रही। बोली कुछ नहीं। उपड़ौर से चार-पांच गोइठा लाई। गोरसी में तोड़कर जला दी। घड़े में नीचे तक हाथ घुमा-घुमा कर करीब आधा किलो आंटा निकाली। फिर ढक्कन से ऐसे तोप दी, जैसे उसमें अभी काफी भरा हो। पर छिपता कहां है कुछ। पांच बच्चों में आधा किलो आंटा क्या पता चलेगा। बच्ची को लोटा देकर जल्दी से मामा के घर से मट्ठा लाने को भेज दी।
तब तक बड़े भी आ गये, ‘अम्मा टिक्की बना रही हो क्या?'
‘हां भइया।'
‘हमें भी भूख लगी थी।'
‘तू बाद में खाना। ई छोटका के लिए बना रही हूं। कहता है शहर जायेगा।'
बड़े ने छोटका की ओर देखा, ‘अचानक?'
‘हां, कुछ करना तो पड़ेगा ही। यहां सोचकर परेशान होने से अच्छा है कि वही चलकर कुछ देखा जाये। क्या पता कुछ जुगाड़ हो ही जाये।'
बड़े खामोश रहे। कुछ सोचते रहे। अचानक उठे और नये खपरैल में घुस गये। दसेक मिनट बाद लौटे तो पाजामा और शर्ट में, ‘तू ठीक कहता है। मैं भी चलूंगा तुम्हारे साथ।'
अम्मा को काटो तो खून नहीं। छोटका तो जिद्दी है। भले बड़े से पांच साल छोटा है, पर काम-धाम में बड़े से काफी फरहर है। रोक पाना मुश्किल है। अम्मा को यही तो हमेशा मलाल रहा कि वह अभी से उसकी नहीं सुनता। आगे पता नहीं क्या हाल होगा। लेकिन बड़का तो भोला ठहरा। उसे मना करेगी तो जरूर मान जायेगा। लेकिन उसे भी तो रोकना उचित नहीं। कम से कम वह रहेगा तो छोटका की देखभाल हो जायेगी।
अम्मा को अपने बेटे कभी बड़े नजर न आये। बड़े फेल न हुए होते तो एमए कर रहे होते। छोटका भी तो इण्टर पास किया है। अट्ठारह से कम तो नहीं ही होगा। वो तो बाप हैं। उन्हें ममता का मोल क्या मालूम होगा। खोयी-खोई अम्मा उधेड़बुन में उलझी है। क्या कहे, क्या करे। रोकने की कोशिश भी करे तो किस बिरते पर। पिताजी को मालूम हुआ तो क्या पता घर ही छोड़ने पर आमादा हो जायें।
कितना बेवश है मां आज। आंखें लाल हो आयीं। चेहरे पर निरीह लाचारी। पीली गुराई की लुनाई फीकी पड़ गयी। एक हूक सी उठी कि आखों से निकलने को आयी। लेकिन नहीं बच्चों के सामने रोयेगी नहीं। कभी नहीं। इससे बच्चे कमजोर होंगे। हमेशा की तरह अम्मा आज भी ठगी-सी खड़ी है।
दोपहर के बारह बज गये। अम्मा रोके हुए है। पता नहीं किसके-किसके घर गयी और लौट आयी। अब घर में कुछ खटर-पटर करते हुए कुछ ढूंढ रही है। काफी देर बाद निकली तो हाथ में छोटी सी पोटली। साथ में रो कर ठिकाने से पोछी गयी आंखें भी। चने की पोटली मटमैले से झोले में डाल दी। निक्कर और पाजामा भी। बड़े की शादी वाला कपड़ा भी। साथ में नमक-तेल चुपड़ी चार टिक्कियां। मिर्ची अलग से। छोटका के यहां यही मिर्ची ही अचार-खटाई और दूध-दही है। मिर्ची है तो कहो दसियों रोटियां पार कर दें।
अम्मा के हाथों की तेजी गायब है। केवल सोच रही है या फिर केवल सामान तैयार कर रही है। या फिर अपने आप में ही नहीं है। शरीर किये जा रहा है, पर अम्मा तो कहीं और हैं। लेकिन चार लुगदियों के आकार में सने कपड़े और दो पोटलियों को कितनी देर तह किया जाता। छोटा मटमैला झोला मेढक के पेट की तरह तन गया। छोटका इतने में पाजामा-सर्ट पहन चुका। चार जगह से बखिया खुली हुई है औ मियानी ने दांत चीयार दिया है। फिर भी तन तो ढंका है, लेकिन चप्पल का जुगाड़ नहीं। एक लतरी कोने में पड़ी है। एक पांव की बद्धी दूसरी है। उसने उसी को पांव में डाल लिया। बच्ची, छोटकी और नन्हे तीनों कब से खड़े टुकुर-टुकुर देख रहे हैं। उनके समझ में नहीं आ रहा कि क्या हो रहा है। छोटका कठकरेज है। इन्हें देखा तो मुंह फेर लिया। बड़े नन्हें के पास पहुंचे। गाल सहलाते हुए अंकवार में भींच लिए, ‘बाबू बाजार जा रहा हूं। जल्दी आऊंगा खूब ढेर सारे पैसे और लेमन चूस लेकर। फिर बैठकर खायेंगे और खूब मजे करेंगे।'
नन्हें के गाल पहले से ही दो टमाटर थे अब वे फूल कर और लाल हो गये। बच्ची और छोटकी टुकुर-टुकुर ताक रही थीं। बड़े उन तीनों को खींचकर बांहों में समेट लिये। भावना का ज्वार बहने को आया। सबके भीतर बादल और बवंडर उठने को हो आया। लंबे समय बाद फिर वनवास की तैयारी। इस घर का विचित्र विधान है। शहर ही इनके लिए वनवास बना। गरीब आदमी के लिए शहर वनवास से कम होता कहां है। छुटपन में पिताजी उठा ले गये। बालपन में गरीबी ने शहर में ही रोके रखा। अब जब जवान हुए तो एक बार फिर जंगल खींच रहा है। तड़पाने वाला जंगल, चोट पहुंचाने वाला जंगल, मारा-मारा फिराने वाला जंगल, घुटन उगाने वाला जंगल। गांव मन के पोर-पोर में बसा है। सांस में गांव, नींद में गांव, भोजन में गांव। पेड़ की छांव, नदी की तराई, जंगल की लुकाछिपी, गाय-बछड़ों की संगति, खेतों की चिडि़यां, मक्के का छपरा, रात के सियार, बिगवा का डर, सांप से सांसी, बिच्छू की गाड़ी, तलैया की छपकोइया- सब बांहें फैलाये जैसे पुकार उठीं। सब गोपियां बनी हैं। अभी सब पिछिया लेंगी। नहीं, नहीं। जल्दी करो। ये मोह का बवंडर है। सब उड़ा ले जायेगा। सब। पिताजी की इच्छा, परिवार के पेट पालने की दृढ़ता, चुनौती स्वीकारने का जज्बा सब उड़ जायेंगे। घर, छप्पर, पत्थर की जूठी थाली, गोबर से लिपा-पुता घर, बांस की चारपाई, दरवाजे पर बंधी रजनी, कलुई गायें, कलुआ, कनवा, बड़वा बैल सब जैसे पिछिया रहे हैं। बांह पसारे हूंक रहे हैं। वे बिछड़ने नहीं देंगे। तीन साल छोटी बिट्टी की आंखों से कोई यशोदा निकली है। अभी तड़प कर बेहोश हो जायेगी। बच्ची के भीतर एक द्रौपदी चीख रही है। छोटका के भीतर एक सुदामा रुकने की झोली फैला रहा है। एक हरहराहट दिल के कोने से निकल कर बवंडर से तूफान फिर प्रलय का रूप धारण करना चाहता है। नही। नहीं। छोटका रोकेगा तूफान। बड़े तूफान को न्योता दे रहे हैं। बड़े तूफान में फंस रहे हैं। माया, माया, माया। झटके से झोला उठाया और मां के पैर छू लिया। बिना पीछे देखे देहरी लांघ बाहर आ खड़ा हुआ।
तूफान का वेग कम हो रहा है। छोटका ने जिम्मेदारी की रस्सी में बड़े को जकड़ लिया। अब खींच रहा है। तूफान की पकड़ कुछ ढीली हुई। बड़े घिसटते हुए आगे बढ़ रहे हैं। देहरी तक पहुंच गये। अब छोटका जीत रहा है। वह बढ़ रहा है। पथरी पर आ पहुंचा। बच्ची, छोटकी और नन्हें धड़ाम से ढह गये। बरसात हो रही है और वे भींग रहे हैं। लेकिन अम्मा माया अभी भी पिछियाये हैं। वह छोड़ती नहीं। बुत-सी चली आ रही है। बड़े के बगल बढ़ रही है। छोटका सौ गज आगे। वह तूफान को पछाड़ रहा है। माया विवश है। साथ चल रही है, पर शक्तिहीन होकर। एक-एक कर सब हारने लगे हैं। मिट्टी के ढूह के रामलीला मंच को हरा दिया है। अब आम का लंगड़ा पेड़, रोजाना की संगी पुलिया, डरावना पुराना वरगद का पेड़, कुनबियान के बच्चे, खोक्खन की मड़ई, फिर पहड़ी का चौराहा- सब हार गये। छोटका परम वीर योद्धा। खपरैल से लेकर झोपड़े तक की फौज को उसने ठिकाने लगा दिया। वह थकान महसूस कर रहा है। पलट कर देखता है तो अम्मा बड़े के साथ-साथ चली आ रही है। चुप। कोई वार्ता नहीं। वह हराने नहीं, बल्कि हार के बाद की संधि करने आ रही है। छोटका रुक गया। अब बड़े का इंतजार कर लेने में कोई खतरा नहीं।
पास आये तो छोटका ने मां को लौटाना चाहा, ‘कहां तक जायेगी तू अम्मा? अब लौट जा न। पैदल का रास्ता तो पूरा तेरह किलोमीटर का है।'
‘चल बस सेंबल के पेड़ तक चलेंगे। फिर तुम लोग चले जाना।'
‘वहां और यहां में क्या अंतर है। लौटना तो तुम्हें है ही। फिर इतनी दूर बेकार में जाने से क्या फायदा।'
‘नहीं रे। जीने का ही क्या फायदा। चल कम से कम कुछ दूर तक तुम्हें देख तो लूंगी।'
छोटका की जिद काम न आयी। माया इतनी जल्दी छूटती कहां है। देखते नहीं संन्यासियों को। घर-बार छोड़ने के बाद भी लोगों को अपना बनाने या फिर लोगों में अपनापन ढूंढ़ते फिरते हैं। जीवन को रेगिस्तान बनाने का उपदेश देंगे, लेकिन खुद अपनेपन और प्यार की बारिश ढूंढ़ते रहेंगे।'
जैसे-जैसे सेंबल का पेड़ नजदीक आता गया, अम्मा के सब्र का बांध दरकता गया। वह कभी आगे और कभी पीछे हो जाती है। अनमनी-सी। कौशल्या बनना इतना आसान है क्या? नहीं आज वह कौशल्या ही नहीं, सुमंत भी है। उसे भी घर लौटना है। रथ पर नहीं पैदल। बच्ची, बिट्टी और नन्हें के अलावा पिताजी को क्या सुनायेगी? खोई-खोई लड़खड़ाते हुए उसके कदमों ने ठीक सेंबल के नीचे जवाब दे दिया। छोटका और बड़े दोनों खड़े हो गये। बड़े अब पूरी तरह खामोश हैं। यहां विजयी और पराजित दोनों हारे हुए से खामोश। शब्द के अस्त्र-शस्त्र तो पहले ही चुक गये थे। अब द्वंद्व युद्ध बाकी थी। अम्मा की निगाहें सूखे बंधे पर जा टिकीं। दोनों में जैसे कोई संवाद हो रहा है। बंधा ढांढस दे रहा है कि सूखा इसलिए हूं कि ‘आषाढ़ में फिर से भरना है। यही मेरी नियति है। हर साल सूखता हूं। हर ताप सहता हूं, पर उम्मीद कायम रहती है कि मेरा आषाढ़ जरूर आयेगा।' बांध अकेला। चारों ओर गहरा सन्नाटा। मां हरियाली खोज रही है कि दो छोरों पर पलाश के दो पौधे धूप में दिपदिपाते नजर आये। मां ने हाथ जोड़ लिये, हे भगवान, मेरे पलाशों को इतना दूर न रखना। इन्हें पास-पास कर दे। भले ये बांध को हरियाली न दे पायें, पर आपस में तो लहलहा लेंगे। इस सूखेपन में कुछ तो सहारा होगा।
अम्मा का द्वंद्व समाप्त हो गया। उसकी आंखें सूखे बंधे की तरह दर्रो सी फटती नजर आयीं। आंसू की एक बूंद भी नहीं। दोनों पलाशों की फुनगियां बांध के चरणों में लोट गयीं और छोटका पलाश सचमुच बड़े पलाश का सहारा बन खींचते हुए चल पड़ा। दो सौ गज चलकर पीछे देखा तो बांध स्थिर वही खड़ा था। चार पांव और तेजी से बढ़ गये। नहर के डबरे की पगडंडी धीरे-धीरे बांध को पलाशों से ओझल कर रही है। एक धुंधली छायाएं धूप की चिलकन में मिलकर एकाकार हो रही हैं।
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लेखक परिचय
डा0 रमाशंकर शुक्ल
जन्म- 04 मई 1971
शिक्षा- एम0ए0 (हिन्दी), पी-एच0डी, शास्त्री, पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा
प्रकाशन- विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में शताधिक लेख, कविताएं प्रकाशित।
‘ब्रहमनासिका' (उपन्यास), ‘ईश्वर खतरनाक है' तथा ‘एक प्रेतयात्रा' (काव्य संग्रह) प्रकाशित। उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षक संघ की 2011 की पत्रिका ‘स्वर्ण विहान' का संपादन।
दैनिक जागरण वाराणसी एवं जमशेदपुर में एक दशक तक वरिष्ठ उप संपादक।
संप्रति ः स्वतंत्र लेखन- साहित्य एवं पत्रकारिता।
ए0एस0 जुबिली इण्टर कालेज, मीरजापुर में हिन्दी अध्यापक
संपर्क- पुलिस अस्पताल के पीछे, तरकापुर रोड, मीरजापुर, उत्तर प्रदेश।
मो0- 09452638649
ई मेल- rsshuklareach@rediffmail़com
rs990911@gmail.com
द्रवित कर देने वाली कहानी। एक बार शुरू करने पर पूरा पढ़े बिना चैन नहीं आता।
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